कांग्रेस चाह रही है कि महागठबंधन के लिए हाथ तो फैलाया जाए लेकिन डील फाइनल न की जाए. क्योंकि कांग्रेस को फेयरडील मिलने की उम्मीद कम है. इसलिए4 पार्टी एनडीए में और फूट का इंतजार कर रही है
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी जयपुर के बाद अब तेलांगना के दौरे पर जा रहे हैं. 2019 में होने वाले आम चुनाव से पहले राहुल गांधी पार्टी में नई जान फूंकने की कोशिश कर रहे हैं. रविवार को जयपुर में राहुल गांधी के लिए काफी भीड़ उमड़ी, इस दौरान राहुल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जमकर कोसा. हालांकि राहुल का प्रयास एक तरफ चल रहा है. लेकिन गठबंधन की राजनीति के लिए अभी तक सार्थक पहल नहीं हुई है. राज्यसभा में जहां विपक्ष के संख्याबल में अधिक होने के बाद भी सत्ता पक्ष का उपसभापति का चुनाव जीतना विपक्षी एकता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है.
राहुल गांधी की तरफ से न ही कांग्रेस पार्टी की तरफ से गंभीर प्रयास किया गया. बी के हरिप्रसाद को चुनाव लड़ने के लिए सिर्फ मैदान में उतार दिया गया. इस दौरान आपसी सामंजस्य बैठाने की रणनीति का अभाव साफ दिखाई दिया. आम आदमी पार्टी (आप) के आरोप को अगर अहमियत न भी दिया जाए तो भी ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस वॉक ओवर देने के लिए तैयार बैठी थी.
कैसे होगा विपक्ष का एका
विपक्षी दलों की एकजुटता न होने की वजह है, गिला और शिकवा, सत्ता से कोसों दूर होने के बाद भी अहम की लड़ाई पीछे नहीं छूट रही है. विपक्षी दल इस बात के लिए सहमति नहीं बना पा रहे हैं कि किस बात पर सहमत होना है. कुल मिलाकर मोदी विरोध ही उनके जुड़ाव का केंद्र है. लेकिन इस बात पर भी आपस में मतभेद है.
कांग्रेस के खेमों से बीजेपी नीतीश कुमार को अपने साथ लाने में कामयाब रही. वहीं टीआरएस भी बीजेपी के साथ खड़ी दिख रही है. बीजेपी सबसे बात करने में गुरेज नहीं कर रही है. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को नवीन पटनायक से बात करने में कोई बुराई नहीं दिखाई दी. राजनीति में अमित शाह की चाल का जवाब देना कोई बड़ी बात नहीं है. बशर्ते यदि कोई पहल करे. कांग्रेस में इस पहल की कमी साफ दिखाई दे रही है. राहुल गांधी ने वर्किंग कमेटी की बैठक में कहा कि वो गठबंधन के लिए एक कमेटी का गठन करेंगें, लेकिन अभी तक कमेटी का इंतजार हो रहा है.
कॉरडिनेशन कमेटी की जरूरत
गठबंधन के लिए यूपीए में कॉरडिनेशन कमेटी की मांग उठ रही है. राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के नेता तेजस्वी यादव ने भी कहा है कि एक कमेटी बनाने की जरूरत है. जाहिर है इसके लिए राहुल गांधी को पहल करनी चाहिए, कि एक ऐसी कमेटी बनाई जाए जिसमें मौजूदा घटक दल के नेता भी हों, जिससे किसी को शिकायत का मौका ना मिल सके. क्योंकि वक्त की कमी है.
दूसरे कांग्रेस की अपनी ताकत भी घटी है. जिससे छोटे दल कांग्रेस को ज्यादा अवसर देने से बच रहे हैं. समाजवादी पार्टी (एसपी) के अध्यक्ष अखिलेश यादव का हाल में दिया गया बयान जाहिर करता है कि वो कांग्रेस को यूपी में ज्यादा सीट देने के मूड में नहीं है. अगर यूपीए की ओर से अधिकारिक कमेटी बना दी जाती है. तो कांग्रेस को भी आसानी रहेगी, क्योंकि इसमें पार्टी का नुमाइंदा रहेगा जो कांग्रेस के हित का ध्यान रख सकता है. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने भी कहा है कि बीजेपी को हराने के लिए विपक्ष को एकजुट होना पड़ेगा. लेकिन इसके लिए पहल कांग्रेस को ही करना पड़ेगा, क्योंकि 2004 में भी पहल सोनिया गांधी ने ही की थी.
सोनिया की टीम में अनुभव
2004 के लोकसभा चुनाव से पहले सोनिया गांधी ने कई बड़े पहल किए थे. रामविलास पासवान से मिलने वो पैदल चलकर उनके घर पहुंचीं थी. सोनिया गांधी के कार्यालय से सिर्फ यह पूछा गया कि पासवान घर पर हैं या नहीं, हालांकि दोनों का घर एक-दूसरे से सटा हुआ है. सोनिया तब मायावती से भी मिलीं थी.
राजीव गांधी के 1989 में हार का कारण बने वी पी सिंह से भी उन्होंने सहयोग लिया था. राजीव गांधी के धुर विरोधी रहे आरिफ मोहम्मद खान से वो मिलीं और उन्हें पार्टी में शामिल होने का न्योता भी दिया. यह बात दीगर है कि आरिफ उसी शाम बीजेपी में शामिल हो गए. शायद वो इंडिया शाइनिंग के विपरीत चल रही हवा के रूख को भांप नहीं पाए. लेकिन रामविलास पासवान ने इसे पहचान लिया था.
तो सार यह है कि सोनिया गांधी की टीम ही पर्दे के पीछे काम कर रही थी. राहुल गांधी भी इस टीम का सही इस्तेमाल कर सकते हैं. राजनीति में सत्ता या अनुभव ही काम आता है. कांग्रेस के पास न अब सत्ता की हनक है और न ही टीम राहुल में धुरंधर दिखाई दे रहे हैं.
नहीं बन पा रही धुरी
विपक्षी एकता का राग सभी अलाप रहें हैं लेकिन उनमें इच्छाशक्ति की कमी साफ दिखाई दे रही है. कोई ऐसा व्यक्ति दिखाई नहीं दे रहा है जो इस एकता की ध्रुवी बन सके. सभी राजनीतिक दल शह और मात का दांव खेल रहे हैं. किसका दांव लगेगा यह कहना मुश्किल है. लेकिन इस बार ज्यादातर लोगों को लग रहा है कि वो किंग मेकर की जगह किंग बन सकते हैं.
2004 की तरह अब न हरिकिशन सिंह सुरजीत हैं ना ही वी पी सिंह. राहुल गांधी के सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी से मरासिम अच्छे हैं. लेकिन न लेफ्ट में वो ताकत बची है, न ही हरिकिशन सिंह सुरजीत वाला कद उनके पास है. विपक्ष के पास असरदार नेताओं में शरद पवार ही हैं. जिनका मुलायम सिंह यादव और ममता बनर्जी से दोस्ताना रिश्ते हैं. उनके शिवसेना से भी संबंध अच्छे हैं. शरद पवार लगातार लोगों से मिल भी रहे हैं, हाल में वो मायावती से भी मिले थे. राहुल गांधी बड़े दल के अध्यक्ष हैं. उनके ऊपर पार्टी की जिम्मेदारी है. ऐसे में उनको किसी पर भरोसा करना पड़ेगा क्योंकि अकेले यह सब करना आसान नहीं है.
3 राज्यों के विधानसभा के चुनाव
जल्द ही 3 महत्वपूर्ण राज्यों के विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. कांग्रेस को उम्मीद है कि इन तीनों राज्यों में उसे सत्ता हासिल हो सकती है. ऐसे में कांग्रेस की कीमत बढ़ेगी और पार्टी की यूपी, बिहार, बंगाल जैसे राज्यों में मोलभाव की क्षमता बढ़ेगी. कांग्रेस चाह रही है कि गठबंधन के लिए हाथ तो फैलाया जाए लेकिन डील फाइनल न की जाए. क्योंकि कांग्रेस को फेयरडील मिलने की उम्मीद कम है. इसलिए पार्टी एनडीए में और फूट का इंतजार कर रही है.
तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट खत्म
राहुल गांधी के प्रधानमंत्री पद की दावेदारी से पीछे हटने से तीसरे मोर्चे की आवाज दब गई है. राहुल गांधी से कई दल सहज नहीं थे. राहुल के इस फैसले के बाद से कांग्रेस की गोलबंदी का काम आसान हुआ है. लेकिन अधिकृत कमेटी या व्यक्ति न होने से हर पार्टी सीधे राहुल गांधी से बात करना चाहती है. जिससे समस्या खड़ी हो रही है. समय निकलता जा रहा है. बीजेपी जहां चुनाव के लिए तैयार है. वहीं कांग्रेस अभी गठबंधन के पेंच में उलझी है.