साथी दलों को क्या राहुल मंजूर नहीं?
मतलब साफ है ‘मोदी- विरोध’ तो इन सभी विपक्षी कुनबे के नेताओं को मंजूर तो है, लेकिन, मोदी विरोध के नाम पर एकजुट होकर किसी एक को ‘नेता’ मानने के सवाल पर इनकी आपसी महत्वाकांक्षा टकराने लगती है.
डीएमके प्रमुख एम.के. स्टालिन ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को विपक्ष की तरफ से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने का प्रस्ताव दिया है. 16 दिसंबर को चेन्नई के डीएमके मुख्यालय में एम. करुनानिधि की प्रतिमा के अनावरण के मौके पर आयोजित कार्यक्रम के मौके पर आयोजित समारोह में पार्टी प्रमुख की तरफ से यह बयान दिया गया.
एम.के. स्टालिन ने जब यह बयान दिया उस वक्त कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी मंच पर मौजूद थे. इसके अलावा टीडीपी अध्यक्ष और आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू, केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन, फिल्म स्टार और नेता रजनीकांत, बीजेपी के बागी नेता शत्रुघ्न सिन्हा और दक्षिण भारत के कई जाने-माने नेता और अभिनेता भी उस वक्त कार्यक्रम के दौरान मंच पर मौजूद थे.
इन सभी नेताओं की मौजूदगी में स्टालिन की तरफ से राहुल गांधी के बारे में दिया गया यह बयान कांग्रेस को खूब पसंद आ रहा होगा. जो बात कांग्रेस आलाकमान अबतक खुलकर नहीं बोल पा रहा था या विपक्षी एकता के नाम पर कुछ वक्त के लिए चुप्पी साधना ही मुनासिब समझ रहा था, वो काम डीएमके प्रमुख ने कर दी है. स्टालिन ने अपने बयान के आधार पर अब 2019 की लड़ाई को ‘मोदी बनाम राहुल’ करने की कोशिश कर दी है.
हालांकि, इसी साल मई में कर्नाटक विधानसभा चुनाव के वक्त राहुल गांधी ने एक सवाल के जवाब में अपने को प्रधानमंत्री पद के लिए तैयार बताया था. लेकिन, बाद में वे उस बयान से पलट गए थे. राहुल गांधी और उनकी पार्टी के रुख में ये नरमी सभी बीजेपी विरोधी दलों को साधने के लिए की गई थी, क्योंकि उस वक्त कांग्रेस की हालत ऐसी थी कि वो महज पंजाब तक ही सिमट कर रह गई थी.
लेकिन, अब स्टालिन का बयान ऐसे वक्त में आया है जब कांग्रेस ने तीन राज्यों में सरकार बना ली है. सोमवार 17 दिसंबर को राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में जब कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों का शपथग्रहण हुआ है, तो, ठीक उसके एक दिन पहले ही स्टालिन ने कांग्रेस अध्यक्ष के बढ़े हुए कद का एहसास करा दिया है.
लेकिन, स्टालिन की यह ‘पैरवी’ मोदी के खिलाफ विपक्षी एकजुटता में लगे दूसरे दलों को रास नहीं आ रही है. इसकी एक झलक स्टालिन के बयान के अगले ही दिन दिख गई जब राजस्थान समेत तीनों राज्यों में ‘कांग्रेसी सरकार’ के शपथ ग्रहण समारोह में जिस विपक्षी एकजुटता की उम्मीद कांग्रेस कर रही थी वो नहीं दिखी.
शपथग्रहण समारोह में दिखाने के लिए मंच पर तो ऐसे बहुत सारे नेता थे, मसलन, डीएमके अध्यक्ष एम के स्टालिन, टी.आर. बालू और कनिमोझी, एनसीपी से शरद पवार औऱ प्रफुल्ल पटेल, झारखंड से पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और बाबूलाल मरांडी, कर्नाटक से जेडीएस के नेता पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा, कर्नाटक के मुख्यमंत्री एच.डी. कुमारस्वामी और जेडीएस के दूसरे नेता दानिश अली मौजूद थे. इसके अलावा आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू, एलजेडी से शरद यादव और आरजेडी से तेजस्वी यादव मंच पर मौजूद रहे. कांग्रेस की तरफ से अध्यक्ष राहुल गांधी के अलावा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और लोकसभा में नेता मल्लिकार्जुन खड़गे भी मौजूद रहे.
लेकिन, इन सभी विपक्षी नेताओं की मौजूदगी के बीच विपक्षी एकता में दरार दिख रही थी. यह दरार पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के अलावा यूपी के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों अखिलेश यादव और मायावती की गैर-मौजूदगी के तौर पर दिख रही थी.
गौरतलब है कि इसी साल कर्नाटक में जब जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन की सरकार बन रही थी तो उस वक्त मोदी विरोधी मोर्चा के तौर पर विपक्षी कुनबे की एकता प्रदर्शित करने के लिए विपक्ष के सभी नेता पहुंचे थे. उस वक्त सोनिया गांधी के साथ मायावती की ‘केमेस्ट्री’ की भी चर्चा थी तो राहुल के साथ अखिलेश यादव की जुगलबंदी भी चर्चा में रही. लेफ्ट से लेकर टीएमसी तक सभी नेता एक साथ एक मंच पर दिख रहे थे. लेकिन, हकीकत यही है कि उस वक्त कांग्रेस के नहीं बल्की जेडीएस के नेता कुमारस्वामी मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रह थे.
लेकिन, इन छह महीने बाद तीन-तीन राज्यों में बीजेपी को पटखनी देने के बाद जब कांग्रेस सत्ता में आई है तो इस वक्त मंच पर ममता, माया, अखिलेश के अलावा लेफ्ट के नेता भी नदारद दिख रहे थे. तो क्या इन नेताओं को एम के स्टालिन की वो बात नागवार गुजरी है? क्या ये नेता राहुल गांधी के नेतृत्व को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं?
फिलहाल तो हालात देखकर ऐसा ही लग रहा है. अखिलेश यादव और मायावती पहले ही यूपी में महागठबंधन की बात कर रहे हैं. लेकिन, उन्हें, महागठबंधन के भीतर कांग्रेस का साथ मंजूर नहीं. इन दोनों को लग रहा है कि कांग्रेस के साथ रहने और नहीं रहने से यूपी के भीतर कोई खास फर्क नहीं पड़ता है. विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ ‘हाथ’ मिला चुके अखिलेश यादव इस बार कांग्रेस के साथ जाने से कतरा रहे हैं.
कुछ यही हाल मायावती का भी है. इन दोनों नेताओं को लगता है कि यूपी में कांग्रेस से उनको फायदा तो नहीं होगा लेकिन, उनके साथ गठबंधन में रहकर कांग्रेस कुछ सीटें जीत सकती है. यानी फायदा कांग्रेस को जरूर होगा. नेतृत्व के मामले में लोकसभा चुनाव बाद फैसला लेने की बात इनकी तरफ से हो रही है. ऐसा कर ये दोनों नेता अपना विकल्प खुला रखना चाह रहे हैं.
उधर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी सोनिया गांधी और राहुल गांधी से मुलाकात कर चुकी हैं. अपने दिल्ली दौरे के वक्त ममता बनर्जी ने मुलाकात के बाद प्रधानमंत्री के मसले पर लोकसभा चुनाव बाद फैसला करने की बात कही थी. माना जा रहा है कि ममता बनर्जी की भी ‘ख्वाहिशें’ बड़ी हैं, ऐसे में एम के स्टालिन का बयान ममता बनर्जी को तो नागवार गुजरेगा ही.
11 दिसंबर को संसद का सत्र शुरू होने से एक दिन पहले दिल्ली में लोकसभा चुनाव की तैयारियों पर मंथन को लेकर विपक्षी दलों की बैठक हुई थी, लेकिन, इस बैठक से भी अखिलेश यादव और मायावती ने दूरी बना ली. इन दोनों नेताओं ने अपने किसी प्रतिनिधि को भी इस बैठक में नहीं भेजा. यह साफ संकेत है कि ये दोनों ही नेता अभी अपने पत्ते नहीं खोलना चाहते. वे नहीं चाहते कि चुनाव से पहले यूपी में ऐसा कोई भी गठबंधन हो, जिसमें कांग्रेस भी शामिल रहे.
मतलब साफ है ‘मोदी- विरोध’ तो इन सभी विपक्षी कुनबे के नेताओं को मंजूर तो है, लेकिन, मोदी विरोध के नाम पर एकजुट होकर किसी एक को ‘नेता’ मानने के सवाल पर इनकी आपसी महत्वाकांक्षा टकराने लगती है. एम.के. स्टालिन के बयान ने भले ही बयान देकर मोदी बनाम राहुल की लड़ाई को हवा दे दी है, लेकिन, इस लाइन पर आगे बढ़ पाना कांग्रेस के लिए आसान नहीं होगा.