साथी दलों को क्या राहुल मंजूर नहीं?


मतलब साफ है ‘मोदी- विरोध’ तो इन सभी विपक्षी कुनबे के नेताओं को मंजूर तो है, लेकिन, मोदी विरोध के नाम पर एकजुट होकर किसी एक को ‘नेता’ मानने के सवाल पर इनकी आपसी महत्वाकांक्षा टकराने लगती है.


डीएमके प्रमुख एम.के. स्टालिन ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को विपक्ष की तरफ से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने का प्रस्ताव दिया है. 16 दिसंबर को चेन्नई के डीएमके मुख्यालय में एम. करुनानिधि की प्रतिमा के अनावरण के मौके पर आयोजित कार्यक्रम के मौके पर आयोजित समारोह में पार्टी प्रमुख की तरफ से यह बयान दिया गया.

एम.के. स्टालिन ने जब यह बयान दिया उस वक्त कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी मंच पर मौजूद थे. इसके अलावा टीडीपी अध्यक्ष और आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू, केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन, फिल्म स्टार और नेता रजनीकांत, बीजेपी के बागी नेता शत्रुघ्न सिन्हा और दक्षिण भारत के कई जाने-माने नेता और अभिनेता भी उस वक्त कार्यक्रम के दौरान मंच पर मौजूद थे.

इन सभी नेताओं की मौजूदगी में स्टालिन की तरफ से राहुल गांधी के बारे में दिया गया यह बयान कांग्रेस को खूब पसंद आ रहा होगा. जो बात कांग्रेस आलाकमान अबतक खुलकर नहीं बोल पा रहा था या विपक्षी एकता के नाम पर कुछ वक्त के लिए चुप्पी साधना ही मुनासिब समझ रहा था, वो काम डीएमके प्रमुख ने कर दी है. स्टालिन ने अपने बयान के आधार पर अब 2019 की लड़ाई को ‘मोदी बनाम राहुल’ करने की कोशिश कर दी है.

हालांकि, इसी साल मई में कर्नाटक विधानसभा चुनाव के वक्त राहुल गांधी ने एक सवाल के जवाब में अपने को प्रधानमंत्री पद के लिए तैयार बताया था. लेकिन, बाद में वे उस बयान से पलट गए थे. राहुल गांधी और उनकी पार्टी के रुख में ये नरमी सभी बीजेपी विरोधी दलों को साधने के लिए की गई थी, क्योंकि उस वक्त कांग्रेस की हालत ऐसी थी कि वो महज पंजाब तक ही सिमट कर रह गई थी.

लेकिन, अब स्टालिन का बयान ऐसे वक्त में आया है जब कांग्रेस ने तीन राज्यों में सरकार बना ली है. सोमवार 17 दिसंबर को राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में जब कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों का शपथग्रहण हुआ है, तो, ठीक उसके एक दिन पहले ही स्टालिन ने कांग्रेस अध्यक्ष के बढ़े हुए कद का एहसास करा दिया है.

लेकिन, स्टालिन की यह ‘पैरवी’ मोदी के खिलाफ विपक्षी एकजुटता में लगे दूसरे दलों को रास नहीं आ रही है. इसकी एक झलक स्टालिन के बयान के अगले ही दिन दिख गई जब राजस्थान समेत तीनों राज्यों में ‘कांग्रेसी सरकार’ के शपथ ग्रहण समारोह में जिस विपक्षी एकजुटता की उम्मीद कांग्रेस कर रही थी वो नहीं दिखी.

शपथग्रहण समारोह में दिखाने के लिए मंच पर तो ऐसे बहुत सारे नेता थे, मसलन, डीएमके अध्यक्ष एम के स्टालिन, टी.आर. बालू और कनिमोझी, एनसीपी से शरद पवार औऱ प्रफुल्ल पटेल, झारखंड से पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और बाबूलाल मरांडी, कर्नाटक से जेडीएस के नेता पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा, कर्नाटक के मुख्यमंत्री एच.डी. कुमारस्वामी और जेडीएस के दूसरे नेता दानिश अली मौजूद थे. इसके अलावा आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू, एलजेडी से शरद यादव और आरजेडी से तेजस्वी यादव मंच पर मौजूद रहे. कांग्रेस की तरफ से अध्यक्ष राहुल गांधी के अलावा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और लोकसभा में नेता मल्लिकार्जुन खड़गे भी मौजूद रहे.

लेकिन, इन सभी विपक्षी नेताओं की मौजूदगी के बीच विपक्षी एकता में दरार दिख रही थी. यह दरार पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के अलावा यूपी के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों अखिलेश यादव और मायावती की गैर-मौजूदगी के तौर पर दिख रही थी.

गौरतलब है कि इसी साल कर्नाटक में जब जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन की सरकार बन रही थी तो उस वक्त मोदी विरोधी मोर्चा के तौर पर विपक्षी कुनबे की एकता प्रदर्शित करने के लिए विपक्ष के सभी नेता पहुंचे थे. उस वक्त सोनिया गांधी के साथ मायावती की ‘केमेस्ट्री’ की भी चर्चा थी तो राहुल के साथ अखिलेश यादव की जुगलबंदी भी चर्चा में रही. लेफ्ट से लेकर टीएमसी तक सभी नेता एक साथ एक मंच पर दिख रहे थे. लेकिन, हकीकत यही है कि उस वक्त कांग्रेस के नहीं बल्की जेडीएस के नेता कुमारस्वामी मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रह थे.

लेकिन, इन छह महीने बाद तीन-तीन राज्यों में बीजेपी को पटखनी देने के बाद जब कांग्रेस सत्ता में आई है तो इस वक्त मंच पर ममता, माया, अखिलेश के अलावा लेफ्ट के नेता भी नदारद दिख रहे थे. तो क्या इन नेताओं को एम के स्टालिन की वो बात नागवार गुजरी है? क्या ये नेता राहुल गांधी के नेतृत्व को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं?

फिलहाल तो हालात देखकर ऐसा ही लग रहा है. अखिलेश यादव और मायावती पहले ही यूपी में महागठबंधन की बात कर रहे हैं. लेकिन, उन्हें, महागठबंधन के भीतर कांग्रेस का साथ मंजूर नहीं. इन दोनों को लग रहा है कि कांग्रेस के साथ रहने और नहीं रहने से यूपी के भीतर कोई खास फर्क नहीं पड़ता है. विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ ‘हाथ’ मिला चुके अखिलेश यादव इस बार कांग्रेस के साथ जाने से कतरा रहे हैं.

कुछ यही हाल मायावती का भी है. इन दोनों नेताओं को लगता है कि यूपी में कांग्रेस से उनको फायदा तो नहीं होगा लेकिन, उनके साथ गठबंधन में रहकर कांग्रेस कुछ सीटें जीत सकती है. यानी फायदा कांग्रेस को जरूर होगा. नेतृत्व के मामले में लोकसभा चुनाव बाद फैसला लेने की बात इनकी तरफ से हो रही है. ऐसा कर ये दोनों नेता अपना विकल्प खुला रखना चाह रहे हैं.

उधर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी सोनिया गांधी और राहुल गांधी से मुलाकात कर चुकी हैं. अपने दिल्ली दौरे के वक्त ममता बनर्जी ने मुलाकात के बाद प्रधानमंत्री के मसले पर लोकसभा चुनाव बाद फैसला करने की बात कही थी. माना जा रहा है कि ममता बनर्जी की भी ‘ख्वाहिशें’ बड़ी हैं, ऐसे में एम के स्टालिन का बयान ममता बनर्जी को तो नागवार गुजरेगा ही.

11 दिसंबर को संसद का सत्र शुरू होने से एक दिन पहले दिल्ली में लोकसभा चुनाव की तैयारियों पर मंथन को लेकर विपक्षी दलों की बैठक हुई थी, लेकिन, इस बैठक से भी अखिलेश यादव और मायावती ने दूरी बना ली. इन दोनों नेताओं ने अपने किसी प्रतिनिधि को भी इस बैठक में नहीं भेजा. यह साफ संकेत है कि ये दोनों ही नेता अभी अपने पत्ते नहीं खोलना चाहते. वे नहीं चाहते कि चुनाव से पहले यूपी में ऐसा कोई भी गठबंधन हो, जिसमें कांग्रेस भी शामिल रहे.

मतलब साफ है ‘मोदी- विरोध’ तो इन सभी विपक्षी कुनबे के नेताओं को मंजूर तो है, लेकिन, मोदी विरोध के नाम पर एकजुट होकर किसी एक को ‘नेता’ मानने के सवाल पर इनकी आपसी महत्वाकांक्षा टकराने लगती है. एम.के. स्टालिन के बयान ने भले ही बयान देकर मोदी बनाम राहुल की लड़ाई को हवा दे दी है, लेकिन, इस लाइन पर आगे बढ़ पाना कांग्रेस के लिए आसान नहीं होगा.

International Gita Mahotsav 2018 will be organised from December 7-23 in Haryana’s Kurukshetra city.

 

Announcing this, Haryana Chief Minister Manohar Lal on Friday said for the first time, Gita Mahotsav will also be organized in Mauritius in the month of February 2019. Besides, Mauritius will be the partner country in the celebrations of upcoming International Gita Mahotsav 2018 at Kurukshetra, he said.

The State Government’s efforts to promote the teaching of sacred ‘Srimad Bhagavad Gita’ at the global level has started yielding fruitful results with countries showing interest to partner with Haryana for celebrations of Gita Mahotsav, Manohar Lal said while talking to the mediapersons at New Delhi.

While national BJP President Amit Shah would be the chief guest on inaugural programme on December 13, External Affairs Minister Sushma Swaraj and former President Pranab Mukherjee would remain present on December 18.

He said that the present State Government has been organising the Gita Mahotsav at international level since 2016.

This, year, the International Gita Mahotsav -2018 to be organised from December 7 to 23, would have Mauritius as partner country and Gujarat as partner state.

The International Gita Mahotsav, an annual event, is organized every year in collaboration with Kurukshetra Development Board (KDB) at Kurukshetra.

On this occasion, he also greeted the people on the auspicious occasion of Kartik Purnima and 550th Prakash Parv of Guru Nanak Dev.

He said the KDB who has been organizing programmes and events for the promotion of Gita has also completed its 50 years on November 23.

The programme of Gita Jayanti started in the year 1989. Gradually, the Gita jayanti Mohtsav was started organizing at national level. However, the present State Government has been organizing Gita Mahotsav of international level since 2016, he added.

The Chief Minister said that the main event would be organized from December 13 to December 18. Haryana Governor Satyadeo Narain, Tripura Governor Prof Kaptan Singh Solnaki, Odisha Governor Prof. Ganeshi Lal and other prominent personalities would also grace the event with their presence.

He said that besides the Art and Culture Minister of Mauritius, the event would be attended by diplomats of 15 different countries.

While underlining the significance of Gita in the mental and spiritual development of human being, he said that the Lord Krishna had delivered the celestial message of Gita on the holy land of Kurukshetra 5156 years ago.

The episode was unique in itself as the battlefield saw simultaneous use of weapons and scripture. Various prominent personalities including the astronaut Sunita Williams has acknowledged the significance of this holy book, Manohar Lal said.

The Chief Minister further said that the International Gita Mahotsav which would saw the participation from prominent saints like Shri Shri Ravi Shankar, Swami Ramdev, and Shankracharya and various social and religious organizations would also be organized at district and block level.

For the first time, it has been decided to organize “Gita Sansad” in more than 30 colleges of the state in which discussion would be held on the sacred scripture so as to effectively disseminate the message of Gita among the students. Apart from this, to spread the message of global peace and harmony, Ashtadashi Shaloki Gita would be recited by 18,000 students simultaneously in Kurukshetra at 12 noon on December 18, he added.

International Crafts and Saras Mela would be inaugurated on December 7 in which artist and artisans of national and international repute would add colour to the event. Similarly, Sant Sammelan would be organized on December 16 in which renowned saints from country and abroad would participate.

Also, Gita quiz competition, essay writing and declamation contest would be organized. Online competitions would also be organized in which Gita followers of the country and abroad could participate. Paint the wall competition would also be organized in which about 200 prominent painters would paint the walls of Kurukshetra on the subject of Mahabharta.

Haryana Pavilion would be set up showcasing the culture of Haryana. Apart from this, evening aarti and light and sound show at Brahamsarovar, cultural programmes by national and international artists on Kurukshetra, Gita, Krishna and Mahabharta and Gita Book Fair are the other event that would attract the people visiting the Mahotsav.

Member of KDB Shyam Kishore informed that this year, Kumbh Mela would also be organized in Kurukhshetra for the first time from December 3 to December 7.

कांग्रेस को जिस डील में घोटाला दीख पड़ता है जानिए उस डील का सच


राफेल विमान सौदे पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला सबके सामने है, लेकिन याचिका और इस पर आए फैसले के पूर्व यह जानना जरूरी है कि राफेल विमान सौदा है क्या?


राफेल डील को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसला दिया है. कोर्ट ने इस मामले में जांच की मांग वाली सारी याचिकाएं खारिज कर दी हैं. राफेल डील पर उठाए जा रहे सवालों पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस पर कोई संदेह नहीं है.राफेल डील की खरीद प्रक्रिया में कोई कमी नहीं है.

साथ ही कोर्ट ने कहा कि कीमत देखना कोर्ट का काम नहीं है. कोर्ट के इस फैसले को कांग्रेस के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है. कांग्रेस अध्‍यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री मोदी पर बड़ा हमला करते हुए आरोप लगाया था कि राफेल डील में मोदी सरकार ने घपला किया है. उन्‍होंने आरोप लगाते हुए कहा था कि मोदी इस डील के लिए निजी तौर पर पेरिस गए थे और वहीं पर राफेल डील हो गई और किसी को इस बात की खबर तक नहीं लगी.

यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट में इस डील को लेकर जांच किए जाने की मांग वाली याचिकाएं भी दाखिल की गई थी. बीते 14 नवंबर को हुई सुनवाई में इसपर फैसला सुरक्षित भी रख लिया गया था. अब फैसला सबके सामने है, लेकिन याचिका और इस पर आए फैसले के पूर्व यह जानना जरूरी है कि राफेल विमान सौदा है क्या?

राफेल विमान क्या है?

राफेल एक फ्रांसीसी कंपनी डैसॉल्ट एविएशन निर्मित दो इंजन वाला मध्यम मल्टी-रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एमएमआरसीए) है. राफेल लड़ाकू विमानों को ‘ओमनिरोल’ विमानों के रूप में रखा गया है, जो कि युद्ध में अहम रोल निभाने में सक्षम हैं. ये बखूबी ये सारे काम कर सकती है- वायु वर्चस्व, हवाई हमला, जमीनी समर्थन, भारी हमला और परमाणु प्रतिरोध.

भारत ने राफेल को क्यों चुना है?

राफेल भारत का एकमात्र विकल्प नहीं था. कई अंतरराष्ट्रीय विमान निर्माताओं ने भारतीय वायुसेना से पेशकश की थी. बाद में छह बड़ी विमान कंपनियों को छांटा गया. इसमें लॉकहेड मार्टिन का एफ -16, बोइंग एफ / ए -18 एस, यूरोफाइटर टाइफून, रूस का मिग -35, स्वीडन की साब की ग्रिपेन और रफाले शामिल थे.

सभी विमानों के परीक्षण और उनकी कीमत के आधार पर भारतीय वायुसेना ने यूरोफाइटर और राफेल को शॉर्टलिस्ट किया. डलास ने 126 लड़ाकू विमानों को उपलब्ध कराने के लिए अनुबंध हासिल किया, क्योंकि ये सबसे सस्ता मिल रहा था. कहा गया कि इसका रखरखाव भी आसान है.

खरीद प्रक्रिया कब शुरू हुई?

भारतीय वायु सेना ने 2001 में अतिरिक्त लड़ाकू विमानों की मांग की थी. वर्तमान आईएएफ बेड़े में बड़े पैमाने पर भारी और हल्के वजन वाले विमान होते हैं रक्षा मंत्रालय मध्यम वजन वाले लड़ाकू विमान लाना चाहता था. वैसे इसकी वास्तविक प्रक्रिया 2007 में शुरू हुई. रक्षा मंत्री ए के एंटनी की अध्यक्षता वाली रक्षा अधिग्रहण परिषद ने अगस्त 2007 में 126 विमान खरीदने के प्रस्ताव पर हरी झंडी दे दी.

कितने राफेल खरीद रहे हैं और लागत क्या है?

इस सौदे की शुरुआत 10.2 अरब डॉलर (5,4000 करोड़ रुपये) से होनी अपेक्षित थी. 126 विमानों में 18 विमानों को तुरंत लेने और बाकि की तकनीक भारत को सौंपे जाने की बात थी. लेकिन बाद में इस सौदे में अड़चन आ गई.

फिर क्या हुआ?

राफेल के लिए भारतीय पक्ष और डेसॉल्ट ने 2012 में फिर बातचीत शुरू हुई. जब नरेंद्र मोदी की सरकार सत्ता में आई तो उसने वर्ष 2016 में इस सौदे को फिर नई शर्तों और कीमत पर फिर किया.

यह देरी क्यों?

भारत और फ्रांस दोनों ने वार्ताओं का दौरान राष्ट्रीय चुनाव और सरकार में बदलाव देखा. कीमत भी एक अन्य कारण था. यहां तक कि खरीद समझौते के हस्ताक्षर के दौरान, दोनों पक्ष वित्तीय पहलुओं पर एक निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पा रहे थे. विमान की कीमत लगभग 740 करोड़ रुपए है. भारत उन्हें कम से कम 20 फीसदी कम लागत पर चाहता था. शुरुआत में योजना 126 जेट खरीदने की थी, अब भारत ने इसे घटाकर 36 कर दिया.

भारत और फ्रांस दोनों के लिए सौदा कितना अहम?

फिलहाल फ्रांस, मिस्र और कतर राफेल जेट विमानों का उपयोग कर रहे हैं. हालांकि डेसॉल्ट कंपनी की माली हालत ठीक नहीं है. कंपनी को उम्मीद थी कि भारत से सौदे के बाद कंपनी अपने राजस्व लक्ष्यों को पूरा कर पाएगी. भारत ने रूस के मिग की बजाय डेसाल्ट को चुना. भारत ने अमेरिका के लॉकहीड को भी नजरअंदाज कर दिया था.

नई सरकार में क्या हुआ?

अप्रैल 2015 में नरेंद्र मोदी ने पेरिस का दौरा किया. तभी 36 राफेल खरीदने का फैसला किया गया. बाद में एनडीए सरकार ने इस सौदे पर वर्ष 2016 में साइन कर दिए. जब फ्रांसीसी राष्ट्रपति फ्रांकोइस होलैंड ने जनवरी में भारत का दौरा किया तब राफेल जेट विमानों की खरीद के 7.8 अरब डॉलर के सौदे पर हस्ताक्षर हुए.

कांग्रेस को इस पूरी डील में घोटाला नजर आ रहा है. राफेल विमान सौदे को लेकर मोदी सरकार पर कांग्रेस ने न सिर्फ हमला बोला है, बल्कि घोटाले का आरोप भी लगाया है. कांग्रेस ने राष्ट्रीय हित एवं सुरक्षा के साथ सौदा करने का भी आरोप लगाया. कहा कि इस सौदे में कोई पारदर्शिता नहीं है. इसके खिलाफ याचिका भी दायर की गई. अब इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राफेल डील की खरीद प्रक्रिया में कोई कमी नहीं होने की बात कही है.

राहुल का कद बड़ा दिखाने के लिए की नामों की घोषणा में देरी


कांग्रेस में इस तरह पहली बार हुआ है कि एक दूसरे के समर्थक आमने सामने आ गए हों, कांग्रेस में शक्ति प्रदर्शन को पंसद नहीं किया जाता है. कई नेताओं को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है.

धनाभाव से जूझ रही कांग्रेस को पुराने दिग्गज नेता अब कोरपोरेट जगत का रुख कांग्रेस की ओर मोड़ेंगे। 


राहुल गांधी की अगुवाई में तीन राज्य जीतने के बाद मुख्यमंत्री चयन में हाई वोल्टेज ड्रामा देखने को मिला है. राजस्थान में अपने नेता के समर्थन में लोगों ने प्रदर्शन किया है. लेकिन अंत भला तो सब भला है. मध्य प्रदेश में कमलनाथ और राजस्थान में अशोक गहलोत रेस जीत गए. राजनीति में अंत तक अपनी राजनीतिक चाल चलनी होती है.

कांग्रेस के ये नेता अनुभव के आधार पर आगे निकल गए. युवा नेताओं को अब कुछ दिन या साल इंतजार करना पड़ सकता है. शाहरुख खान का बाजीगर वाला डायलॉग भी है. हार कर जीतने वाले को बाजीगर कहते है. अशोक गहलोत को जादूगर तो पहले से ही कहा जाता है. अब वो राजनीति के बाजीगर भी हो गए हैं.

आलाकमान की अहमियत

कांग्रेस में इस तरह पहली बार हुआ है कि एक दूसरे के समर्थक आमने सामने आ गए हों, कांग्रेस में शक्ति प्रदर्शन को पंसद नहीं किया जाता है. कई नेताओं को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है. भजनलाल ने सीएम बनने के लिए शक्ति प्रदर्शन किया लेकिन बने भूपेन्द्र सिंह हुड्डा. आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाईएसआर की मृत्यु के बाद जगन मोहन रेड्डी ने बगावती तेवर अपनाए तो पार्टी से बाहर होना पड़ा था.

कांग्रेस में आलाकमान की अहमियत हमेशा रही है. सोनिया गांधी के वक्त में विधायक दल द्वारा पार्टी के मुखिया को सर्वाधिकार सौंप दिए जाते रहे हैं. सोनिया गांधी फैसले करती रहीं हैं. सिवाय अमरिंदर सिंह और वीरभद्र सिंह के केस में जिन्होंने पार्टी आलाकमान को सीएम बनाने के लिए मजबूर कर दिया, हालांकि पार्टी के भीतर प्रदेश में उनके कद का नेता नहीं था जो चुनौती दे सकता था.

पावर शिफ्ट

कांग्रेस में पावर शिफ्ट की भी अपनी भूमिका है. कांग्रेस के मैनेजर्स ये जानते हैं कि ये सही मौका है जब राहुल गांधी को पार्टी के भीतर स्थापित कर दिया जाए. इसलिए ये एहसास दिलाया गया कि राहुल गांधी कितने ताकतवर हैं. वो सीएम बना सकते हैं. कांग्रेस के युवा नेताओं का गुमान भी कम हुआ है. महज राहुल गांधी से रिश्ते अच्छे होने पर पद नहीं मिल सकता है. बल्कि जिस तरह राजनीतिक नफा नुकसान की अहमियत होती है, उसके हिसाब से निर्णय लिया जाता है.

राहुल गांधी ने जो फैसला किया है, वो कांग्रेस के मुखिया होने की वजह से किया है. राजनीति में निजी रिश्तों की अहमियत है, लेकिन राजनीति में ऐसा हमेशा नहीं होता है. तीन दिन फोकस यही रहा कि 12 तुगलक लेन से क्या संदेश मिलता है. जहां चुनाव था वहां के नेता और पूरे देश के कार्यकर्ताओं की निगाह राहुल गांधी के फैसले पर टिकी थीं. कांग्रेस में तय हो गया कि फैसला दस जनपथ में नहीं राहुल गाधी के 12 तुगलक लेन में हो रहा है. 7 लोककल्याण मार्ग के बाद दूसरा महत्वपूर्ण पता बन गया है.

ओल्ड गार्ड बनाम युवा नेता

कांग्रेस के मुखिया ने सीनियर नेताओं पर भरोसा किया है. पहली वजह वफादारी है. जो परिवार के प्रति है. दूसरी वजह दो राज्य में अल्पमत सरकार भी है. पुराने नेता सबको साथ लेकर चलने में माहिर हैं. नए लोगों को अभी इस विधा को सीखने की जरूरत है. पार्टी के भीतर और बाहर समन्वय बनाना आवश्यक है. नए नेताओं ने टिकट में जिस तरह मनमानी की है, वो भी इनके खिलाफ गई है. खासकर जो बागी जीतकर आए वो पुराने नेताओं के साथ हो गए. जिससे बैलेंस उनकी तरफ चला गया है. हालांकि पहले से ये पता था कि मुख्यमंत्री कौन बन रहा है.

युवा नेताओं को इसका आभास पहले से था, इसलिए खींचतान ज्यादा थी. टिकट बंटवारे में अपने समर्थकों को ज्यादा टिकट दिलाने का यही मकसद था. मध्यप्रदेश में दिग्विदय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच बहस होना, छत्तीसगढ़ में प्रभारी पीएल पुनिया और भूपेश बघेल के बीच खटपट की बात थी.राजस्थान में सचिन पायलट और रामेश्नर डूडी के बीच मतभेद की खबर इसका सबूत है.

लोकसभा चुनाव पर निगाह

हालांकि कांग्रेस आलाकमान यानी राहुल गांधी ने आम चुनाव के समीकरण पर ज्यादा ध्यान दिया है. मंझे हुए राजनीतिक खिलाड़ियों को तरजीह दी है. इसके कई कारण हैं, लोकसभा चुनाव सिर पर है. पुराने नेता राज्य पर फौरन अपनी पकड़ मजबूत कर सकते हैं. वहीं नए लोगों को प्रशासनिक व्यवस्था को समझने में वक्त लग सकता है.

ऐसे में लोकसभा की तैयारी कैसे हो सकती है, इस लिहाज से चयन किया गया है. ये लोग अपने राज्य में बिना केन्द्रीय नेताओं की मदद से अच्छा परफॉर्म कर सकते हैं. वहीं राहुल गांधी और बाकी नेता दूसरे राज्यों पर फोकस कर सकते हैं.जो पार्टी के लिए मुफीद साबित हो सकता है.

गठबंधन की राजनीतिक मजबूरी

2019 का चुनाव नरेन्द्र मोदी बनाम गठबंधन होने वाला है. एक बड़ा और माकूल गठबंधन ही जीत की गारंटी है वरना मोदी को मात देना आसान नहीं है. इस गठबंधन को हकीकत में लाने के लिए सीनियर नेताओं की टीम ही कर सकती है. इसकी वजह है छोटे दलों के नेताओं पर इनका असर है.

2008 में जब मनमोहन सिंह की सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आया था. तब कई पूर्व और तत्कालीन मुख्यमंत्रियों ने अहम भूमिका अदा की थी. अब नया समीकरण बनाने के लिए भी ये लोग मददगार साबित हो सकते है. खासकर बीएसपी-एसपी जैसे दल इन नेताओं के वायदों पर भरोसा कर सकते हैं.

फंड की कमी

कांग्रेस के पास फंड की कमी है. मौजूदा साल में भी कांग्रेस को नाम मात्र ही चंदा मिला है. नए राज्यों के जीतने से कॉरपोरेट जगत का नजरिया कांग्रेस के लिए बदल सकता है. पुराने नेता नए कॉरपोरेट को पार्टी की तरफ लाने में मददगार साबित हो सकते हैं. इसलिए कांग्रेस में पहले से ये पता था कि पार्टी की जीत की स्थिति में कुर्सी किसे मिलने वाली है. लेकिन ये पूरी गहमा-गहमी राहुल गांधी पर फोकस शिफ्ट करने के लिए की गई है. क्योंकि चयनित लोगों पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ है.

ताकत दिखाने वालों को नहीं मिली सत्ता

सोनिया गांधी के वक्त में भी ताकत दिखाने वालों को पद नहीं दिया गया था. हरियाणा में भजनलाल ने ताकत दिखाने की कोशिश की थी. 2004 में तत्कालीन प्रदेश के मुखिया भूपेन्द्र सिंह हुड्डा को कुर्सी मिल गई. जिनको अहमद पटेल की हिमायत हासिल थी. जगन मोहन रेड्डी ने अपने पिता की मौत के बाद हंगामा किया लेकिन सत्ता नहीं मिल पाई थी. 2008 में अशोक गहलोत ने रेस में पीछे होते हुए अपनी राह आसान कर ली है. कांग्रेस में ये बानगी है लेकिन ये साफ है कि आलाकमान ही ताकतवर है, जिसको चाहे बिठाए जिसको चाहे हटाए.

बीजेपी अपवाद नहीं

हालांकि ये अपवाद नहीं है बीजेपी मे हाई कमान कल्चर है. हरियाणा महाराष्ट्र इसका उदाहरण है. वहीं एक केस के चलते उमा भारती को हटाकर शिवराज सिंह चौहान को सीएम बनाया गया था. झारखंड में बाबू लाल मरांडी के दावे को दरकिनार करके अर्जुन मुंडा को सीएम बनाया गया था.

उपेंद्र कुशवाहा अकेले पड़े

राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी (RLSP) को शनिवार को तब एक बड़ा झटका लगा जब बिहार विधानसभा और विधान परिषद के उसके सभी सदस्यों ने घोषणा की कि वे अभी भी NDA में हैं. साथ ही RLSP सदस्यों ने पार्टी अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा पर आरोप भी लगाया कि उन्होंने गठबंधन से अलग होने की घोषणा में निजी हितों को तवज्जो दी.

आरएलएसपी के दोनों विधायकों सुधांशु शेखर और ललन पासवान और पार्टी के एकमात्र विधानपरिषद सदस्य संजीव सिंह श्याम ने एक संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में बयान जारी किया. तीनों ने शेखर को मंत्रिपद दिए जाने पर जोर दिया जो कि पहली बार विधायक बने हैं और तीनों में सबसे कम आयु के हैं.

श्याम ने कहा कि हम चुनाव आयोग से भी संपर्क करेंगे और दावा करेंगे कि हम असली आरएलएसपी का प्रतिनिधित्व करते हैं. हमें पार्टी के अधिकतर कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों का समर्थन हासिल हैं. उन्होंने ऐसा करके स्पष्ट किया कि आरएलएसपी एक बिखराव की ओर बढ़ रही है.

आरएलएसपी ने दो चुनाव एनडीए के साथ लड़ा था

आरएलएसपी ने 2014 लोकसभा चुनाव और 2015 बिहार विधानसभा चुनाव एनडीए के साथ लड़ा था. आरएलएसपी के कुल मिलाकर तीन सांसद हैं जिसमें कुशवाहा भी शामिल हैं. इसके साथ ही पार्टी के बिहार में दो विधायक और विधानपरिषद का एक सदस्य है.

तीनों विधायकों ने कुशवाहा से अलग होने की घोषणा की है. वहीं दो अन्य सांसदों जहानाबाद से अरुण कुमार और सीतामढ़ी से राम कुमार शर्मा है. अरुण कुमार पिछले दो वर्षों से अलग रास्ता अपनाए हुए हैं.

शर्मा ने शुरू में एनडीए और नीतीश कुमार के समर्थन में बयान दिया था लेकिन बाद में अपना रुख बदल लिया और उन्हें तब कुशवाहा के साथ दिल्ली में देखा गया था जब उन्होंने कैबिनेट से अपने इस्तीफे के साथ ही एनडीए से अलग होने के निर्णय की घोषणा की थी.

उपेंद्र कुशवाहा

श्याम ने कहा कि हम यह लंबे समय से कह रहे हैं कि हम आरएलएसपी के एनडीए के साथ रहने के पक्ष में हैं लेकिन कुशवाहा जिन्हें अपने निजी लाभ की चिंता थी उन्होंने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया.

कुशवाहा को सिर्फ अपने से मतलब

रालोसपा के विधानपरिषद सदस्य ने आरोप लगाया कि गत वर्ष मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के एनडीए में वापस लौटने के बाद रालोसपा के लिए मंत्रिपद पर विचार नहीं करने के बारे में बात करने में कुशवाहा ने देरी की. श्याम ने दावा किया वास्तव में उन्होंने इसको लेकर कभी प्रयास नहीं किया. जब सहयोगी दलों के बीच मंत्रिपदों का आवंटन किया जा रहा था वह पटना में घूम रहे थे.

उन्होंने कहा कि कुशवाहा केंद्र में अपने मंत्रिपद को लेकर खुश थे. उसके बाद उनका पूरा ध्यान ऐसे समझौते पर केंद्रित था जो उनके हितों की पूर्ति करे. उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं थी कि उनकी पार्टी से भी किसी को राज्य में मंत्रिपद मिलना चाहिए. एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि न तो उन्हें और न ही पासवान को मंत्रिपद चाहिए.

श्याम ने कहा कि हम चाहते हैं कि सुधांशु शेखर को राज्य मंत्रिपरिषद में शामिल किया जाए और यदि इसके लिए उनके नाम पर विचार नहीं किया जाता है तो हम बहुत निराश होंगे.

असली आरएलएसपी हमारी

उन्होंने कहा कि हम दलबदलू नहीं बल्कि असली आरएलएसपी की प्रतिनिधित्व करते हैं. हमारा रुख अधिकतर कार्यकर्ताओं और पार्टी के पदाधिकारियों की भावनाओं के अनुरूप है. हम अपने दावे को लेकर जल्द ही चुनाव आयोग से संपर्क करेंगे. इस घटना पर टिप्पणी के लिए बिहार में एनडीए के नेता उपलब्ध नहीं थे.

पार्टी में उठापटक पिछले महीने तब सामने आ गया था जब शेखर और पासवान उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी के आवास पर आयोजित बीजेपी विधायक दल की बैठक में शामिल होने पहुंचे थे.

राहुल पर भरोसा करने वाले अब भी समझ लें “धोखा स्वभाव है इनका!” कैलाश विजयवर्गीय


कांग्रेस द्वारा राफेल के मुद्दे को बार-बार उठाया गया, जिसके जवाब में बीजेपी ने अब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद उस पर पलटवार किया है


पिछले कुछ समय से एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनी राफेल डील को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसला दिया है. कोर्ट ने इस मामले में जांच की मांग वाली सारी याचिकाएं खारिज कर दी हैं. केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बड़ी राहत मिली है. कांग्रेस द्वारा राफेल के मुद्दे को बार-बार उठाया गया, जिसके जवाब में बीजेपी ने अब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद उस पर पलटवार किया है.

बीजेपी नेता कैलाश विजयवर्गीय ने कहा है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने झूठ फैलाया है, उसके लिए उन्हें माफी मांगनी चाहिए. उन्होंने ट्वीट कर कहा कि जिस राफेल डील के झूठ पर सवार होकर राहुल गांधी ने चुनाव प्रचार किया. सुप्रीम कोर्ट ने इस ढकोसले को सिरे से खारिज कर दिया है. अगर राफेल पर फैसला कुछ दिन पहले आया होता तो चुनाव परिणाम कुछ और ही होते. राहुल पर भरोसा करने वाले अब भी समझे ले, धोखा इनका स्वभाव है.


Kailash Vijayvargiya

@KailashOnline

जिस के झूठ पर सवार हो
राहुल गांधी ने पूरा चुनाव प्रचार किया
मा. ने इस ढकोसले को सिरे से खारिज कर दिया.. कुछ दिन पहले आया होता, तो चुनाव परिणाम कुछ और ही होते!

राहुल पर भरोसा करने वाले अब भी समझ लें
“धोखा स्वभाव है इनका!”


राफेल डील पर उठाए जा रहे सवालों पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस पर कोई संदेह नहीं है. सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा कि राफेल डील की खरीद प्रक्रिया में कोई कमी नहीं है. साथ ही कोर्ट ने कहा कि कीमत देखना कोर्ट का काम नहीं है. कोर्ट के इस फैसले को कांग्रेस के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है. दरअसल कांग्रेस लगातार मोदी सरकार का घेराव करते हुए राफेल डील में भ्रष्टाचार होने का आरोप लगाती आई है.

सुप्रीम कोर्ट में अदालत की निगरानी में इस डील को लेकर जांच किए जाने की मांग वाली याचिकाएं दाखिल की गई थी. इसके पहले 14 नवंबर को हुई सुनवाई में इसपर फैसला सुरक्षित रख लिया गया था.

सचिन मुख्य मंत्री पद की दावेदारी पर अड़े


दिल्ली में कांग्रेस के आलाकमान ने अशोक गहलोत के नाम पर मुहर लगा दी है. जबकि सीएम पद के एक और दावेदार सचिन पायलट पार्टी के इस फैसले को मानने को तैयार नहीं हैं


बीते आधी रात को मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री का ऐलान किया गया, लेकिन राजस्थान में विधानसभा चुनाव के नतीजे आए करीब 48 घंटे से ज़्यादा हो चुके हैं और अब तक मुख्यमंत्री पद को लेकर कोई घोषणा नहीं की गई है. मामला अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच फंसा है. न्यूज़ 18 के मुताबिक दिल्ली में कांग्रेस के आलाकमान ने अशोक गहलोत के नाम पर मुहर लगा दी है. जबकि सीएम पद के एक और दावेदार सचिन पायलट पार्टी के इस फैसले को मानने को तैयार नहीं हैं.

सचिन पायलट ने ये दावा कर दिया है कि चुनावों के लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की थी. पार्टी उन्हें मनाने की पूरी कोशिश कर रही है, यहां तक कि सोनिया गांधी भी पायलट से बात कर चुकी हैं. लेकिन वह मानने को तैयार नहीं हैं. सचिन पायलट का कहना है कि उन्होंने राजस्थान में जमकर मेहनत की है और अगर ऐसे में उन्हें सीएम नहीं बनाया जाता है तो इससे जनता के बीच गलत संदेश जाएगा.

माना जा रहा था कि गुरुवार को ही पार्टी राजस्थान के मुख्यमंत्री का नाम घोषित कर देगी, लेकिन फिर खबर आई कि अगली सुबह तक नाम में मुहर लगने की संभावना है. अब दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के आवास पर सुबह से ही बैठकों का दौर चल रहा है. अशोक गहलोत और सचिन पायलट के साथ राहुल गांधी ने घंटों बैठक की. दिल्ली से लेकर जयपुर दोनों जगह दोनों नेताओं के समर्थक लागातार नारेबाजी कर रहे हैं.

सचिन पायलट की दावेदारी

साल 2013 में बीजेपी के हाथों करारी हार के बाद सचिन पायलट को राजस्थान की कमान दी गई थी. इस चुनाव में कांग्रेस महज 21 सीटों पर सिमट गई थी. इसके बाद विपक्ष में रहते हुए सचिन पायलट ने पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर अपनी टीम बनाने के साथ सरकार को लगातार घेरा.

अशोक गहलोत की दावेदारी

कांग्रेस के संगठन महासचिव अशोक गहलोत कांग्रेस की केंद्रीय राजनीति के साथ साथ राजस्थान में भी लगातार सक्रिय हैं. विधानसभा चुनावों में गहलोत लगातार स्टार प्रचारक के तौर पर पूरे प्रदेश में प्रचार किया. गुजरात और कर्नाटक के चुनावों में गहलोत की सक्रियता राजनीतिक हलकों में चर्चा में रही थी. अशेक गहलोत आज राजस्थान के साथ साथ कांग्रेस की केंद्रीय राजनीति का बड़ा चेहरा हैं.

AIBOC held a demonstration outside PNB at bank square Chandigarh

On the call of All India Bank Officers Confederation , a body having more than 3.20 lac members across the country, held a massive day long demonstration , today , in front of Punjab National Bank , Bank Square Sector-17 , Chandigarh, where more than 1000 bank officers participated and They demand their long pending Wage Revision as per Charter of Demand for all officer up to Scale VII , updation /revision of pension and family pension  , introduction of five day week with immediate effect , stop mis- selling of third party products , focus on core business and NPA recovery , stop merger of Public Sector Banks . Speaking on the occasion Com Deepak Sharma , Joint General Secretary of AIBOC , strongly criticize the government and IBA for delay in their wage revision , which is due since November 2017 and demand immediate wage hike as per the charter of Demand for all the officers  up  to scale VII . He also demand immediate implementation of five day week . He further told that bank officers will observe 24 hour strike on 21st December to press for acceptance of their demands.

Speaking on the occasion Com T S Saggu , State Secretary , AIBOC   strongly  criticize the government move of merger /amalgamation of Public Sector Banks and said that on the one side government is issuing licenses to the new small banks and on the other side they are merging the PSBs in the name of weak banks. He stated the all most all the PSBs  are in operating profit and in net loss due to provisioning. Government is not serious about recovery from big corporate defaulters and are not making stringent laws for the recovery from them. He further stated that proposed 24 hour strike  on 21st December would be preceded by a series of massive agitation programmes across all the major centres and district headquarters, wearing of demand badges, display of posters at all Bank branches / offices / railway stations / bus stands, lunch time / evening time rally / demonstrations at all branches / offices and a Centralized Dharna at Delhi and at all State capitals and submission of Memorandum.

Others who were present on the demonstration are

Com. Ashok Goyal , Com. Harvinder Singh, Com Vipin Beri , Com . Arun Sikka Com D N Sharma , Com. H S Loona, Com. Neeru Saldi , Com. Balwinder Singh   were also present on the venue.

राहुल ने हाथ आया सुनहरी मौका गंवा दिया


यह देखने में काफी खराब लगता है कि नव निर्वाचित विधायकों का कहना है कि सीएम चुनने का फैसला ‘पार्टी हाई कमांन’ का होगा


बीजेपी शासित तीन राज्यों में कांग्रेस की शानदार जीत को करीब 36 घंटे हो गए हैं लेकिन मुख्यमंत्रियों के चयन में हो रही देरी की वजह से ऐसा लग रहा है जैसे पार्टी के युवा अध्यक्ष राहुल गांधी लोगों में अपनी दिलचस्पी को भुनाने में नाकाम साबित हो रहे हैं. राहुल के पास यह सबसे सही मौका था जब वह नरसिम्हा राव की तरह फैसला लेकर कांग्रेस की लोकतांत्रिक चमक को बढ़ा सकते थे.

राहुल गांधी भोपाल, जयपुर और रायपुर में इसपर जोर देकर आंतरिक पार्टी लोकतंत्र और वास्तविक विकेंद्रीकरण का प्रदर्शन कर सकते थे. 1993 में मध्यप्रदेश में पीवी नरसिम्हा राव ने भी यही किया था.

इस तरह के विचार अलोकतांत्रिक हैं

राव अपने दोस्त श्यामा चरण शुक्ला को उम्मीदवार बनाने के लिए काफी उत्सुक थे. लेकिन अर्जुन सिंह और कमलनाथ के सामने शुक्ला टिक नहीं पाए. राव ने पर्यवेक्षक सीताराम केसरी और गुलाम नबी आजाद से ‘स्थिति को समझते हुए योजना बनाने के लिए’ कहा और दिग्विजय को अगले दस सालों तक राज्य चलाने के लिए कहा.

लोगों ने अपनी इच्छा के प्रतिनिधियों को चुनकर मंशा साफ जाहिर कर दी है. इसलिए राज्य विधानसभा चुनावों और परिणाम के बाद ‘कार्यकर्ता’ की राय मांगना और यह कहना कि सीएम कौन बनेगा यह फैसला पार्टी हाई कमांन करेंगे, इस तरह के विचार अलोकतांत्रिक हैं.

ऐसी स्थिति में किसी तरह के ओपीनियन पोल या फिर सैंपल सर्वे की कोई जरूरत नहीं है. यदि टीम राहुल वास्तव में ऐसा करना चाहती थी तो कमल नाथ को मध्यप्रदेश, सचिन पायलट को राजस्थान और भूपेश बघेल छत्तीसगढ़ कांग्रेस इकाइयों की अध्यक्षता की जिम्मेदारी देने से पहले ही ऐप-संचालित सर्वे या फिर इस तरह का सर्वे कर लेना चाहिए था.

बड़ी संख्या में देशवासियों ने राहुल से उम्मीदें लगा रखी हैं और यह जानने के लिए उत्सुक हैं कि ‘न्यू इंडिया’ को लेकर राहुल का आईडिया क्या है. कृषि संकट से निपटने के लिए किसानों की कर्जमाफी एक अल्पकालिक समाधान हो सकता है लेकिन पूर्ण समाधान नहीं हो सकता है.

टीएस सिंहदेव को नई दिल्ली बुलाया गया

कृषि संकट से निपटने और उसे लाभदायक और टिकाऊ बनाने के लिए पूर्ण समाधान क्या हैं? नई नौकरियां, विनिवेश के मुद्दे या फिर प्राकृतिक संसाधनों को लीज पर रखना या बेचना इन सभी मुद्दों का समाधान निकालना होगा. एक मंच पर राहुल ने कहा था, ‘भारत अपने युवाओं को एक विजन नहीं दे सकता है अगर वह उन्हें नौकरी नहीं दे सकता है.’

लोकतांत्रिक मंच पर भोपाल, जयपुर और रायपुर को लेकर राहुल जो भी फैसला लेते हैं उसपर सभी की नजर होगी क्योंकि कांग्रेस अध्यक्ष पहले ही पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र को प्रदर्शित करने का एक मौका खो चुके हैं.

यह देखने में काफी खराब लगता है कि नव निर्वाचित विधायकों का कहना है कि सीएम चुनने का फैसला ‘पार्टी हाई कमांन’ का होगा और सचिन पायलट, अशोक गहलोत, कमल नाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, भूपेश बागेल, चरण दास महंत, तमराध्वज साहू और टीएस सिंहदेव को नई दिल्ली बुलाया गया है.

एक सवाल यह भी उठता है कि एके एंटनी और केसी वेणुगोपाल को भोपाल और जयपुर क्यों भेजा गया था. यह भी काफी परेशान करने वाली बात है कि गहलोत, जिन्हें हाल ही में पार्टी संगठन के प्रभारी एआईसीसी के महासचिव नियुक्त किया गया था, मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में हैं, जबकि उन्‍हें कुछ महीने पहले ही 2019 लोकसभा चुनावों के लिए मैक्रो स्तरीय प्रबंधन और रणनीति बनाने के लिए चुना गया था.

Modi’s Party Is Trounced in India’s ‘Semifinal’ Elections

Curtsy The New Yorks Time (By Jeffrey Gettleman, Kai Schultz and Suhasini Raj)


Is India’s prime minister, Narendra Modi, in trouble?

“This has been a very intriguing election,” said Seshadri Chari, a member of the B.J.P.’s national executive committee. “Modi is going to be personally worried.”


With his white beard and booming speeches (and supposedly 56-inch chest), Mr. Modi swept into power four years ago by promoting a populist brand of politics that mixed brawny Hindu nationalist views with lofty economic promises.

But on Tuesday, his party, the Bharatiya Janata Party, got walloped according to elections results just released from races held across five states.

The party, widely known by the initials B.J.P., suffered its worst defeat in recent years, losing more than 100 legislative seats, a result that shook the political establishment and left many wondering if Mr. Modi is in danger of losing next year’s national election.

The elections were held over the past several weeks, but results were not announced until Tuesday. Indian pundits described the races, held in the states of Rajasthan, Madhya Pradesh, Mizoram, Chhattisgarh and Telangana, as the “semifinals” of Indian politics. In just a few months, this country of 1.3 billion people who speak dozens of languages and live across an incredibly varied landscape from Himalayan mountaintops to tropical isles is set to hold national parliamentary elections.

It appears that Mr. Modi, who seemed so invincible not long ago, may be vulnerable as his brand loses its luster. At the same time, the leading opposition party, the Indian National Congress, once considered comatose, has suddenly woken up.

“The competition is neck to neck,” said Narendra Kumar, a political scientist at Jawaharlal Nehru University in New Delhi, the capital.

Indian voters are famous for passionately embracing a party or politician in one election and then enthusiastically voting them out in the next.

Among the complaints against Mr. Modi: He has ignored farmers. He cannot deliver on his party’s promises, including creating one million jobs a month, which economists said was impossible. The cost of living has sharply increased. And, not least, the B.J.P. has been criticized as too soft on violent Hindu extremists, including mobs that have lynched people for slaughtering cows, a revered animal in Hinduism.

“The common man does not support mob lynchings,” said Anil Verma, the head of the Association for Democratic Reforms, a nonpartisan organization in New Delhi.

Analysts say more Indians are growing upset with Mr. Modi’s party for not cracking down on the mobs, who often twist Hindu nationalist messages espoused by B.J.P. leaders and use them to justify violence. Vigilantes have killed dozens of people, most of them Muslim or lower caste Hindus, in the name of protecting cows.

“Indians by and large are not happy with the killing of their fellow men,” Mr. Kumar said. “That should be a message for the prime minister before the 2019 elections.”

The five states that just held elections — mostly rural and representing India’s heartland — are considered a bellwether. But experts have warned against extrapolating too much from these state races to national elections, noting that Mr. Modi still commands a loyal following in many quarters.

He is seen as a champion of a bigger, stronger India, whose economy is now sixth-largest in the world. (A decade ago, it was not even in the top 10.) He also remains a compelling orator, able to stir crowds with his booming baritone voice. Mr. Modi rose to power by embracing Hindu nationalist politics, and his base remains firmly behind him because they see him as a protector of their values.

Most experts say that if the next election were purely a popularity contest between Mr. Modi and Rahul Gandhi, the leader of the Indian National Congress and scion of a long political dynasty, it would be Mr. Modi’s to lose.

But Indian elections do not work that way. The country is a parliamentary system, and local issues affect the national bottom line. Political alliances are crucial, and this could be a problem for Mr. Modi.

Most analysts expect Mr. Modi’s party to lose many seats next year; the question is whether he will be able to win a thin majority in Parliament.

On Tuesday, the Indian National Congress was on track to pick up more than 100 of the 678 total seats across the five states.

And something even bigger may be happening. Across India, economic worries are becoming a pressing issue that Mr. Modi will have trouble sweeping away. He raised high expectations, promising to attract huge China-style export factories and create millions of high-paying jobs.

India’s annual growth rate has been over 7 percent, but Mr. Modi has not turned India into the next China. The amount of red tape in India remains stultifying, and many parts of the country’s manufacturing sector, such as textiles, have suffered widespread layoffs.

Millions of farmers are on the brink of crisis, facing rising fertilizer and electricity costs and lower prices for their produce. Experts say their distress is driven by too much competition, strict export rules and inadequate government purchases. One farmer who said he received less than the equivalent of $20 for 1,600 pounds of onions sent the money to Mr. Modi to make a point.

“Modi will definitely be hurt in the parliamentary elections next year — even more so if the opposition can sharpen the focus of the campaign to stress farm distress,” said Arati Jerath, a columnist who writes about politics for some of India’s biggest newspapers.

Other sources of discontent are a new tax system put in place under Mr. Modi and his decision in 2016 to suddenly replace most of the country’s currency, which was supposed to crack down on money laundering but led to severe cash shortages.

Even so, Tuesday’s election results were not all good news for the Indian National Congress. Once a powerful brand in the northeast, the party lost its majority in the last state it controlled in that region, Mizoram.

But the results in India’s agrarian, Hindi-speaking cow belt, where the B.J.P. has dominated or been highly competitive for the past decade and a half, must have been even more deflating to Mr. Modi and his team.

His party’s headquarters in New Delhi appeared deserted on Tuesday, while wild celebrations broke out at those of the Indian National Congress.

Even Mr. Modi’s usually super-confident allies admitted to being concerned.

“This has been a very intriguing election,” said Seshadri Chari, a member of the B.J.P.’s national executive committee. “Modi is going to be personally worried.”