नीम भले ही स्वाद में कड़वी हो लेकिन आययुर्वेद में नीम की पत्तियों से लेकर छाल, तने, लकड़ी और सींक तक का इस्तेमाल कई बीमारियों के इलाज में किया जाता है। एंटी-बैक्टीरियल और एंटी-फंगल गुणों से भरपूर नीम मुंहासे, झड़ते बाल, खाज-खुजली, एक्जिमा जैसी प्रॉब्लम्स के लिए बहुत कारगार है। अगर आप रोजाना खाली पेट 5-6 नीम की पत्तियां चबा लें तो कई बीमारियां आपके शरीर को छू भी नहीं पाएंगी। चलिए आज हम आपको बताते हैं कि खाली पेट नीम की पत्तियां चबाने से क्या-क्या फायदे मिलते हैं…
नीम की तासीर
नीम की तासीर ठंडी होती है इसलिए गर्मियों में इसका सेवन बहुत फायदेमंद होता है। सर्दियों में भी इसका सेवन कर सकते हैं लेकिन कम मात्रा में।
चलिए अब आपको बताते हैं नीम की पत्तियां चबाने के फायदे…
इम्यूनिटी बढ़ाए
कोरोना काल के चलते इस समय लोगों के लिए इम्यूनिटी बढ़ाए रखना बहुत जरूरी है। ऐसे में महंगी दवा, सप्लीमेंट्स की बजाए आप खाली पेट नीम की पत्तियां चबाएं। इससे ना सिर्फ इम्यून सिस्टम मजबूत होगा बल्कि वो अच्छा रिस्पॉन्स भी करेगा। साथ ही इससे शरीर को वायरस, बैक्टीरिया, फंगस से लड़ने में भी मदद मिलेगी।
एंटी-बैक्टीरियल गुणों से भरपूर
नीम की पत्तियों में एंटी-फंगल, एंटी-बैक्टीरियल, एंटी-इंफ्लेमेट्री, एंटी-ऑक्सीडेंट गुण होते हैं, जो शरीर को कई बीमारियों से बचाने में मदद करते हैं।
खून को करे साफ
नीम में रक्त शोधक (Blood Purifier) गुण होते हैं, जिससे खून में मौजूद सभी अशुद्धियां व अपशिष्ट पदार्थ निकल जाते हैं। साथ ही सुबह नीम की पत्तियां चबाने से खून गाढ़ा होने की समस्या भी नहीं होती। नियमित इसका सेवन आपके शरीर को टॉक्सिन फ्री रखता है।
कैंसर से बचाव
इसमें एंटीऑक्सीडेंट्स गुण होते हैं, जो शरीर में कैंसर सेल्स को बढ़ने से पहले ही खत्म कर देते हैं। शोध के अनुसार, नीम के बीज, पत्ते, फूल और अर्क, ग्रीवा और प्रोस्टेट कैंसर से बचाव करते हैं।
डायबिटीज का खतरा घटाए
डायबिटीज मरीज हैं तो रोजाना नीम की पत्तियां जरूर चबाएं। इससे ब्लड शुगर लेवल कंट्रोल रहता है। आप चाहे तो इसका जूस भी पी सकते हैं। अगर आपको यह बीमारी नहीं भी है तो भी इसका सेवन भविष्य में आपको इस खतरे से बचाएगा।
गठिया का अचूक इलाज
रोजाना इसका सेवन गठिया, जोड़ों में दर्द की समस्या भी नहीं होने देता। आर्थराइटिस, गठिया व जोड़ों के दर्द
https://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2020/12/नीम.jpg526700Demokratic Front Bureauhttps://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2018/05/LogoMakr_7bb8CP.pngDemokratic Front Bureau2020-12-10 01:44:172020-12-10 01:45:13कई रोगों का हकीम, सिर्फ नीम
सहारनपुर में किसान बिल के विरोध में किसानों के समर्थन में समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने किया प्रदर्शन, समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव के आह्वान पर आज से पूरे प्रदेश में निकाली जा रही है किसान जन जागरण यात्रा पर पुलिस द्वारा सपा विधायक संजय गर्ग को सुबह ८ बजे से ही उनके आवास पर ही नजरबंद कर लिया गया।
देशभर में जहां किसान (कृषि बिल) को लेकर विरोध प्रदर्शन कर रहा है और लगातार बिल में संशोधन करने की मांग पर अड़ा है, किसानों पर लाठीचार्ज व पानी की बौछार की जा रही है जिसको देखते हुए अब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव के आह्वान पर पूरे प्रदेश भर में समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओ द्वारा किसान जन जागरण यात्रा निकालने का निर्णय लिया गया है जिसका आज पहला दिन था। किसानो से डरी योगी सरकार के डी आई॰ जी०, एस० एस०पी० और एस० पी० सिटी के द्वारा समाजवादी पार्टी के नगर विधायक संजय गर्ग को घर में ही नजरबंद कर दिया गया। जिसकी सूचना मिलते ही नगर के चारों कोनो से समाजवादी पार्टी के नेतागण एवं कार्यकर्ता उनके घर पहुँचे और नारे लगाकर रोष प्रकट किया।
उनके नारे ‘ किसान की आय बढ़ाओ, खेती किसानी बचाओ। जय जवान जय किसान। कृषि काला क़ानून – वापिस लो।किसानो की आय दोगुनी करो। एम० एस० पी० की गारण्टी दो। गन्ना किसानो का हज़ारों करोड़ के बकाया का तुरंत भुगतान करो।’
समाजवादी पार्टी के नगर विधायक संजय गर्ग ने कहा कि समाजवादी पार्टी अपने रा० अध्यक्ष अखिलेश यादव के आह्वान पर किसान जन जागरण यात्रा द्वारा एक हफ्ते तक किसानों को घर-घर ,खेत- खलियान जाकर जागरूक करने का काम करेगी ,साथ ही उन्होंने प्रदेश के व्यापारियों से अपील की ,कि किसान और व्यापारी का दामन चोली का साथ है, यदि किसान आर्थिक रूप से कमजोर होगा तो व्यापारी का व्यापार भी चौपट हो जाएगा। अतः कल सभी व्यापारी अपने प्रतिष्ठान बन्द करके भारत बन्द में अपना सहयोग करें।
https://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2020/12/IMG_20201208_093036.jpg594823Demokratic Front Bureauhttps://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2018/05/LogoMakr_7bb8CP.pngDemokratic Front Bureau2020-12-08 06:19:232020-12-08 06:20:00किसान जन जागरण यात्रा के परिपेक्ष में समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष एवं नगर विधायक संजय गर्ग को पुलिस प्रशासन ने किया घर में नज़रबंद
2018 में विधि आयोग की बैठक में भाजपा और कांग्रेस ने इससे दूरी बनाए रखी. कॉंग्रेस का विरोध तो जग जाहिर है लेकिन भाजपा की इस मुद्दे पर चुप्पी समझ से परे है. 2018 में ऐसा क्या था कि प्रधानमंत्री मोदी की अध्यक्षता वाली भाजपा तटस्थ रही और आज मोदी इसका हर जगह इसका प्रचार प्रसार कर रहे हैं? 1999 में तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान विधि आयोग ने इस मसले पर एक रिपोर्ट सौंपी। आयोग ने अपनी सिफारिशों में कहा कि अगर किसी सरकार के खिलाफ विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव लेकर आता है तो उसी समय उसे दूसरी वैकल्पिक सरकार के पक्ष में विश्वास प्रस्ताव भी देना सुनिश्चित किया जाए। 2018 में विधि आयोग ने इस मसले पर एक सर्वदलीय बैठक भी बुलाई जिसमें कुछ राजनीतिक दलों ने इस प्रणाली का समर्थन किया तो कुछ ने विरोध। कुछ राजनीतिक दलों का इस विषय पर तटस्थ रुख रहा। भारत में चुनाव को ‘लोकतंत्र का उत्सव’ कहा जाता है, तो क्या पांच साल में एक बार ही जनता को उत्सव मनाने का मौका मिले या देश में हर वक्त कहीं न कहीं उत्सव का माहौल बना रहे? जानिए, क्यों यह चर्चा का विषय है.
सारिका तिवारी, चंडीगढ़:
हर कुछ महीनों के बाद देश के किसी न किसी हिस्से में चुनाव हो रहे होते हैं. यह भी चुनावी तथ्य है कि देश में पिछले करीब तीन दशकों में एक साल भी ऐसा नहीं बीता, जब चुनाव आयोग ने किसी न किसी राज्य में कोई चुनाव न करवाया हो. इस तरह के तमाम तथ्यों के हवाले से एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘एक देश एक चुनाव’ की बात छेड़ी है. अव्वल तो यह आइडिया होता क्या है? इस सवाल के बाद बहस यह है कि जो लोग इस आइडिया का समर्थन करते हैं तो क्यों और जो नहीं करते, उनके तर्क क्या हैं.
जानकार तो यहां तक कहते हैं कि भारत का लोकतंत्र चुनावी राजनीति बनकर रह गया है. लोकसभा से लेकर विधानसभा और नगरीय निकाय से लेकर पंचायत चुनाव… कोई न कोई भोंपू बजता ही रहता है और रैलियां होती ही रहती हैं. सरकारों का भी ज़्यादातर समय चुनाव के चलते अपनी पार्टी या संगठन के हित में ही खर्च होता है. इन तमाम बातों और पीएम मोदी के बयान के मद्देनज़र इस विषय के कई पहलू टटोलते हुए जानते हैं कि इस पर चर्चा क्यों ज़रूरी है.
क्या है ‘एक देश एक चुनाव’ का आइडिया?
इस नारे या जुमले का वास्तविक अर्थ यह है कि संसद, विधानसभा और स्थानीय निकाय चुनाव एक साथ, एक ही समय पर हों. और सरल शब्दों में ऐसे समझा जा सकता है कि वोटर यानी लोग एक ही दिन में सरकार या प्रशासन के तीनों स्तरों के लिए वोटिंग करेंगे. अब चूंकि विधानसभा और संसद के चुनाव केंद्रीय चुनाव आयोग संपन्न करवाता है और स्थानीय निकाय चुनाव राज्य चुनाव आयोग, तो इस ‘एक चुनाव’ के आइडिया में समझा जाता है कि तकनीकी रूप से संसद और विधानसभा चुनाव एक साथ संपन्न करवाए जा सकते हैं.
पीएम मोदी की खास रुचि
जनवरी, 2017 में एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक देश एक चुनाव के संभाव्यता अध्ययन कराए जाने की बात कही. तीन महीने बाद नीति आयोग के साथ राज्य के मुख्यमंत्रियों की बैठक में भी इसकी आवश्यक्ता को दोहराया. इससे पहले दिसंबर 2015 में राज्यसभा के सदस्य ईएम सुदर्शन नचियप्पन की अध्यक्षता में गठित संसदीय समिति ने भी इस चुनाव प्रणाली को लागू किए जाने पर जोर दिया था. 2018 में विधि आयोग की बैठक में भाजपा और कांग्रेस ने इससे दूरी बनाए रखी. चार दलों (अन्नाद्रमुक, शिअद, सपा, टीआरएस) ने समर्थन किया. नौ राजनीतिक दलों (तृणमूल, आप, द्रमुक, तेदेपा, सीपीआइ, सीपीएम, जेडीएस, गोवा फारवर्ड पार्टी और फारवर्ड ब्लाक) ने विरोध किया. नीति आयोग द्वारा एक देश एक चुनाव विषय पर तैयार किए गए एक नोट में कहा गया है कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनावों को 2021 तक दो चरणों में कराया जा सकता है. अक्टूबर 2017 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने कहा था कि एक साथ चुनाव कराने के लिए आयोग तैयार है, लेकिन निर्णय राजनीतिक स्तर पर लिया जाना है.
क्या है इस आइडिया पर बहस?
कुछ विद्वान और जानकार इस विचार से सहमत हैं तो कुछ असहमत. दोनों के अपने-अपने तर्क हैं. पहले इन तर्कों के मुताबिक इस तरह की व्यवस्था से जो फायदे मुमकिन दिखते हैं, उनकी चर्चा करते हैं.
कई देशों में है यह प्रणाली
स्वीडन इसका रोल मॉडल रहा है. यहां राष्ट्रीय और प्रांतीय के साथ स्थानीय निकायों के चुनाव तय तिथि पर कराए जाते हैं जो हर चार साल बाद सितंबर के दूसरे रविवार को होते हैं. इंडोनेशिया में इस बार के चुनाव इसी प्रणाली के तहत कराए गए. दक्षिण अफ्रीका में राष्ट्रीय और प्रांतीय चुनाव हर पांच साल पर एक साथ करा जाते हैं जबकि नगर निकायों के चुनाव दो साल बाद होते हैं.
पक्ष में दलीलें
1. राजकोष को फायदा और बचत : ज़ाहिर है कि बार बार चुनाव नहीं होंगे, तो खर्चा कम होगा और सरकार के कोष में काफी बचत होगी. और यह बचत मामूली नहीं बल्कि बहुत बड़ी होगी. इसके साथ ही, यह लोगों और सरकारी मशीनरी के समय व संसाधनों की बड़ी बचत भी होगी. एक अध्ययन के मुताबिक 2019 के लोकसभा चुनाव पर करीब साठ हजार करोड़ रुपये खर्च हुए. इसमें पार्टियों और उम्मीदवारों के खर्च भी शामिल हैं. एक साथ एक चुनाव से समय के साथ धन की बचत हो सकती है। सरकारें चुनाव जीतने की जगह प्रशासन पर अपना ध्यान केंद्रित कर पाएंगी.
2. विकास कार्य में तेज़ी : चूंकि हर स्तर के चुनाव के वक्त चुनावी क्षेत्र में आचार संहिता लागू होती है, जिसके तहत विकास कार्य रुक जाते हैं. इस संहिता के हटने के बाद विकास कार्य व्यावहारिक रूप से प्रभावित होते हैं क्योंकि चुनाव के बाद व्यवस्था में काफी बदलाव हो जाते हैं, तो फैसले नए सिरे से होते हैं.
3. काले धन पर लगाम : संसदीय, सीबीआई और चुनाव आयोग की कई रिपोर्ट्स में कहा जा चुका है कि चुनाव के दौरान बेलगाम काले धन को खपाया जाता है. अगर देश में बार बार चुनाव होते हैं, तो एक तरह से समानांतर अर्थव्यवस्था चलती रहती है.
4. सुचारू प्रशासन : एक चुनाव होने से सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल एक ही बार होगा लिहाज़ा कहा जाता है कि स्कूल, कॉलेज और अन्य विभागों के सरकारी कर्मचारियों का समय और काम बार बार प्रभावित नहीं होगा, जिससे सारी संस्थाएं बेहतर ढंग से काम कर सकेंगी.
5. सुधार की उम्मीद : चूंकि एक ही बार चुनाव होगा, तो सरकारों को धर्म, जाति जैसे मुद्दों को बार बार नहीं उठाना पड़ेगा, जनता को लुभाने के लिए स्कीमों के हथकंडे नहीं होंगे, बजट में राजनीतिक समीकरणों को ज़्यादा तवज्जो नहीं देना होगी, यानी एक बेहतर नीति के तहत व्यवस्था चल सकती है.
ऐसे और भी तर्क हैं कि एक बार में ही सभी चुनाव होंगे तो वोटर ज़्यादा संख्या में वोट करने के लिए निकलेंगे और लोकतंत्र और मज़बूत होगा. बहरहाल, अब आपको ये बताते हैं कि इस आइडिया के विरोध में क्या प्रमुख तर्क दिए जाते हैं.
1. क्षेत्रीय पार्टियां होंगी खारिज : चूंकि भारत बहुदलीय लोकतंत्र है इसलिए राजनीति में भागीदारी करने की स्वतंत्रता के तहत क्षेत्रीय पार्टियों का अपना महत्व रहा है. चूंकि क्षेत्रीय पार्टियां क्षेत्रीय मुद्दों को तरजीह देती हैं इसलिए ‘एक चुनाव’ के आइडिया से छोटी क्षेत्रीय पार्टियों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाएगा क्योंकि इस व्यवस्था में बड़ी पार्टियां धन के बल पर मंच और संसाधन छीन लेंगी.
2. स्थानीय मुद्दे पिछड़ेंगे : चूंकि लोकसभा और विधानसभा चुनाव अलग मुद्दों पर होते हैं इसलिए दोनों एक साथ होंगे तो विविधता और विभिन्न स्थितियों वाले देश में स्थानीय मुद्दे हाशिये पर चले जाएंगे. ‘एक चुनाव’ के आइडिया में तस्वीर दूर से तो अच्छी दिख सकती है, लेकिन पास से देखने पर उसमें कई कमियां दिखेंगी. इन छोटे छोटे डिटेल्स को नज़रअंदाज़ करना मुनासिब नहीं होगा.
3. चुनाव नतीजों में देर : ऐसे समय में जबकि तमाम पार्टियां चुनाव पत्रों के माध्यम से चुनाव करवाए जाने की मांग करती हैं, अगर एक बार में सभी चुनाव करवाए गए तो अच्छा खास समय चुनाव के नतीजे आने में लग जाएगा. इस समस्या से निपटने के लिए क्या विकल्प होंगे इसके लिए अलग से नीतियां बनाना होंगी.
4. संवैधानिक समस्या : देश के लोकतांत्रिक ढांचे के तहत यह आइडिया सुनने में भले ही आकर्षक लगे, लेकिन इसमें तकनीकी समस्याएं काफी हैं. मान लीजिए कि देश में केंद्र और राज्य के चुनाव एक साथ हुए, लेकिन यह निश्चित नहीं है कि सभी सरकारें पूर्ण बहुमत से बन जाएं. तो ऐसे में क्या होगा? ऐसे में चुनाव के बाद अनैतिक रूप से गठबंधन बनेंगे और बहुत संभावना है कि इस तरह की सरकारें 5 साल चल ही न पाएं. फिर क्या अलग से चुनाव नहीं होंगे?
यही नहीं, इस विचार को अमल में लाने के लिए संविधान के कम से कम छह अनुच्छेदों और कुछ कानूनों में संशोधन किए जाने की ज़रूरत पेश आएगी.
https://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2020/11/One-nation-one-election-1.jpg8101440Demokratic Front Bureauhttps://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2018/05/LogoMakr_7bb8CP.pngDemokratic Front Bureau2020-11-28 03:52:012020-11-28 03:56:55एक राष्ट्र एक चुनाव, पक्ष – विपक्ष
एलजेपी को अकेले चुनावी मैदान में उतरने से एनडीए को 24 सीटों पर सियासी फायदा भी मिला है. इनमें बीजेपी को एक सीट, जेडीयू को 20 , जीतनराम मांझी की हम को 2 और वीआईपी को 1 सीट पर चुनावी फायदे मिले हैं. वहीं, एलजेपी के चुनावी मैदान में उतरने से महागठबंधन के दलों को 30 सीटों पर सियासी फायदा मिला है. इनमें आरजेडी को 24 सीट और कांग्रेस 6 सीट पर जीत मिली है. इन सीटों पर एलजेपी को इतना वोट मिला था, जो अगर एनडीए को मिला होता तो वह सीटें उसके खाते में जातीं.
नयी दिल्ली(ब्यूरो):
बिहार चुनाव में एनडीए से अलग होकर अकेले चुनावी मैदान में उतरे एलजेपी प्रमुख चिराग पासवान अपने खुद के घर में भले ही रौशन नहीं कर सके, लेकिन एनडीए और महागठबंधन की तस्वीर धूमिल कर दी है. एलजेपी बिहार की 134 सीटों पर चुनावी मैदान में अपने प्रत्याशी उतारकर महज एक सीट ही जीत सकी है. लेकिन 54 सीटों पर राजनीतिक दलों का सियासी खेल बिगाड़ दिया है. इस तरह से एलजेपी ने एनडीए के दलों को 30 सीटों और महागठबंधन को 24 सीटों पर नुकसान पहुंचाया है.
चिराग पासवान ने बिहार विधासनभा चुनाव में 134 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे. इनमें से ज्यादातर प्रत्याशी जेडीयू कैंडिडेट के खिलाफ चुनावी ताल ठोकते नजर आए थे. हालांकि, गोविदंगज, लालगंज, भागलपुर, राघोपुर, रोसड़ा और नरकटियागंज जैसी सीट पर एलजेपी प्रत्याशी बीजेपी के खिलाफ भी चुनाव लड़ रहे थे. मंगलवार देर रात आए बिहार चुनाव नतीजे में एलजेपी को महज एक सीट मिली है जबकि कई सीटों पर वो दूसरे और तीसरे नंबर पर रही है. ऐसे में एलजेपी सबसे बड़ी मुसीबत जेडीयू के लिए बनी है जबकि बीजेपी को महज एक सीट पर नुकसान पहुंचाया है.
एलजेपी ने जेडीयू के खिलाफ तमाम बीजेपी के 22 बागी प्रत्याशियों को टिकट देकर चुनावी मैदान में उतारा था. इनमें से एक भी बागी जीत नहीं सके, लेकिन जेडीयू को नुकसान जरूर पहुंचाने में सफल रहे हैं. बिहार में जेडीयू को 25 सीटों पर एलजेपी के चलते हार का सामना करना पड़ा है जबकि बीजेपी को एक सीट पर और एनडीए में शामिल वीआईपी को 4 सीटों पर नुकसान पहुंचाया. बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने एक निजी चैनल पर बोलते हुए कहा था कि अगर एलजेपी साथ मिलकर लड़ती तो हम 150 सीटें आसानी से जीत लेते.
वहीं, दूसरी ओर महागठबंधन में शामिल आरजेडी को बिहार में 12 सीटों पर एलजेपी प्रत्याशियों के चलते हार झेलनी पड़ी है. ऐसे ही 10 सीटों पर कांग्रेस को एलजेपी ने गहरी चोट दी है और दो सीटों पर सीपीआई (माले) के प्रत्याशी को हार का मुंह देखना पड़ा है. हालांकि, एलजेपी के चुनावी मैदान में उतरने से सिर्फ नुकसान ही नहीं बल्कि कुछ सीटों पर सियासी फायदे भी एनडीए और महागठबंधन को मिले हैं.
एलजेपी को अकेले चुनावी मैदान में उतरने से एनडीए को 24 सीटों पर सियासी फायदा भी मिला है. इनमें बीजेपी को एक सीट, जेडीयू को 20 , जीतनराम मांझी की हम को 2 और वीआईपी को 1 सीट पर चुनावी फायदे मिले हैं. वहीं, एलजेपी के चुनावी मैदान में उतरने से महागठबंधन के दलों को 30 सीटों पर सियासी फायदा मिला है. इनमें आरजेडी को 24 सीट और कांग्रेस 6 सीट पर जीत मिली है. इन सीटों पर एलजेपी को इतना वोट मिला था, जो अगर एनडीए को मिला होता तो वह सीटें उसके खाते में जातीं.
https://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2020/11/photo-2020-10-19-16-09-24-1603107738.jpg338600Demokratic Front Bureauhttps://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2018/05/LogoMakr_7bb8CP.pngDemokratic Front Bureau2020-11-11 12:37:032020-11-11 12:38:29चिराग की चिंगारी जेडीयू पर भारी
महाराष्ट्र पुलिस-प्रशासन ने जिस प्रकार अर्णब गोस्वामी को एक पुराने एवं लगभग बंद पड़े मामले में जिस तरह से गिरफ़्तार किया, जो कि सरासर गैरकानूनी है ऐसा कानूनविद कहते हैं क्योंकि केस फ़ाइल दोबारा खोलने के लिए न्यायालय से अनुमति लेना आवश्यक है आप जानते ही हैं कि जब अप्रैल 2020 मे यह मामला बंद किया गया उसके बाद पीड़ितों के परिवार जनों ने खिन भी इसके विरुद्ध गुहार नहीं लगाई, अतः सरकार की नीयत साफ नहीं यह तो स्पष्ट है ओर उसकी मंशा एवं कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े होना भी स्वाभाविक है। उससे भी ज्यादा सवाल उन कथित बुद्धिजीवियों पर खड़े हो रहे हैं, जो बात – बात पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ढिंढोरा पीटते रहते हैं, लेकिन अर्णब की गिरफ़्तारी पर मुंह सिले हैं।
पालघर में दो सन्तों की निर्मम हत्या के पश्चात महाराष्ट्र सरकार की सबसे ताकतवर शख्सियत सोनिया गांधी उर्फ अंटोनिओ माइनो से कुछ कड़े प्रश्न पूछने पर महाराष्ट्र सरकार की नज़रों में चढ़े अर्णब गोस्वामी सुशांत राजपूत की अप्राकृतक मृत्यु को ज़ोरशोर से उठाने के कारण सवालों के घेरे में आए मुंबई के आभिजात्य वर्ग की नज़रों में भी चढ़ गए। बार बार चेताने पर भी अर्णब ने मुद्दों को नहीं छोड़ा जिनसे महाराष्ट्र सरकार और उसके कृपापात्रों को निरंतर जांच के घेरे में आने से महाराष्ट्र सरकार तिलमिला उठी और अर्णब के विरोध में अलग अलग तरह से उन्हे प्रताड़ित करती रही।
लोकतंत्र में मीडिया को चौथा स्तंभ माना जाता है। नागरिक अधिकारों की रक्षा करने एवं लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूती प्रदान करने में विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के साथ-साथ मीडिया की विशेष भूमिका होती है। उसका उत्तरदायित्व निष्पक्षता से सूचना पहुंचाने के साथ-साथ जन सरोकार से जुड़े मुद्दे उठाना, जनजागृति लाना, जनता और सरकार के बीच संवाद का सेतु स्थापित करना और जनमत बनाना भी होता है। सरोकारधर्मिता मीडिया की सबसे बड़ी विशेषता रही है। यह भी सत्य है कि सरोकारधर्मिता की आड़ में कुछ चैनल-पत्रकार अपना एजेंडा भी चलाते रहे हैं। हाल के वर्षों में टीआरपी एवं मुनाफ़े की गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा ने मीडिया को अनेक बार कठघरे में खड़ा किया है। उसका स्तर गिराया है। उसकी साख़ एवं विश्वसनीयता को संदिग्ध बनाया है। निःसंदेह कुछ चैनल-पत्रकार पत्रकारिता के उच्च नैतिक मानदंडों एवं मर्यादाओं का उल्लंघन करते रहे हैं। जनसंचार के सबसे सशक्त माध्यम से जुड़े होने के कारण उन्हें जो सेलेब्रिटी हैसियत मिलती है, उसे वे सहेज-संभालकर नहीं रख पाते और कई बार सीमाओं का अतिक्रमण कर जाते हैं।
स्वतंत्रता-पूर्व से लेकर स्वातन्त्रयोत्तर काल तक भारतवर्ष में पत्रकारिता की बड़ी समृद्ध विरासत एवं परंपरा रही है। उच्च नैतिक मर्यादाओं एवं नियम-अनुशासन का पालन करते हुए भी पत्रकारिता जगत ने जब-जब आवश्यकता पड़ी, लोकतंत्र एवं लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। सत्य पर पहरे बिठाने की निरंकुश सत्ता द्वारा जब-जब कोशिशें हुईं, मीडिया ने उसे नाकाम करने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आपातकाल के काले दौर में तमाम प्रताड़नाएं झेलकर भी उसने अपनी स्वतंत्र एवं निर्भीक आवाज़ को कमज़ोर नहीं पड़ने दिया। लोकतंत्र को बंधक बनाने का वह प्रयास विफल ही मीडिया के सहयोग के बल पर हुआ। पत्रकारिता के गिरते स्तर पर बढ़-चढ़कर बातें करते हुए हमें मीडिया की इन उपलब्धियों और योगदान को कभी नहीं भुलाना चाहिए|
अर्णब का दोष केवल इतना है कि, जो संबंध परदे के पीछे निभाए जाते रहे, उसे अर्णब ने बिना किसी लाग-लपेट के परदे के सामने ला भर दिया। उन्होंने आम लोगों की भाषा में जनभावनाओं को बेबाक़ी से स्वर दे दिया। जिसे समर्थकों ने राष्ट्रीय तो विरोधियों ने एजेंडा आधारित पत्रकारिता का नाम दिया। पर सवाल यह है कि केवल अर्णब ही सत्ता के आसान शिकार और कोपभाजन क्यों ?
महाराष्ट्र पुलिस-प्रशासन ने जिस प्रकार अर्णब गोस्वामी को एक पुराने एवं लगभग बंद पड़े मामले में जिस तरह से आनन-फ़ानन में गिरफ़्तार किया, वह उसकी मंशा एवं कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करता है। पुराने मामले में किसी को ख़ुदकुशी के लिए उकसाने के आरोप में अर्णब को गिरफ्तार करने की महाराष्ट्र सरकार एवं मुंबई पुलिस की नीयत जनता ख़ूब समझती है।
पुलिस इस केस की क्लोजर रिपोर्ट भी दाख़िल कर चुकी है। अब अचानक पुलिस को ऐसा कौन-सा सबूत मिल गया कि वह अर्णब को गिरफ़्तार करने पहुँच गई। और वह भी इतने बड़े लाव-लश्कर, एनकाउंटर स्पेशलिस्ट और हथियारों से लैस! कमाल की बात यह कि उसने कोर्ट से अर्णब को पुलिस रिमांड में रखने की इजाज़त भी मांगी।
ज्ञात हो कि अर्णब गोस्वामी का कोई आपराधिक अतीत नहीं है। न वे कोई सजायाफ्ता मुज़रिम या आतंकी हैं। बल्कि वे मुख्य धारा के बड़े पत्रकार हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या अपने चैनल पर विभिन्न मुददृों पर प्रश्न पूछा जाना इन महत्वाकांक्षी, वंशवादी नेताओं को नागवार गुजरा है ? क्या सत्ता के अहंकार के कारण वे अर्णब को घेरने और उनकी आवाज उठाने—दबाने की कोशिश कर रहे हैं ?
यदि अर्णब ने कुछ ग़लत भी किया है तो न्यायिक प्रक्रिया के अंतर्गत पारदर्शी तरीके से कार्रवाई होनी चाहिए, न कि जोर-जबरदस्ती से ? यदि निष्पक्षता पत्रकारिता का धर्म है तो कार्यपालिका एवं सरकार का तो यह परम धर्म होना चाहिए। उसे तो अपनी नीतियों एवं निर्णयों के प्रति विशेष सतर्क एवं सजग रहना चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर स्वविवेक का नियंत्रण तो ठीक है, परंतु उस पर सरकारी पहरे बिठाना, उसे डरा-धमकाकर चुप कराना संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का सीधा हनन है। जब देश ने आपातकाल थोपने वालों को जड़-मूल समेत उखाड़ फेंका तो वंशवादी बेलें क्या बला हैं ? जो इस मौके पर चुप हैं, समय उनके भी अपराध लिख रहा है। आज अर्णब की तो कल हमारी या किसी और की बारी है|
https://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2020/11/Freedom-of-speech.jpg270512Demokratic Front Bureauhttps://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2018/05/LogoMakr_7bb8CP.pngDemokratic Front Bureau2020-11-09 04:01:182020-11-09 04:03:40आज अर्णब तो कल आप हम भी हो सकते हैं
आज 9 नवंबर को हिंदू पंचांग के अनुसार सोमवार है. सोमवार का दिन भगवान शिव को समर्पित माना जाता है. सोमवार यानी भगवान शिव का दिन और सोम यानी चंद्रमा का दिन. तो इस दिन सुबह उठकर आप भगवान शिव के दर्शन कर शिव चालीसा या शिवाष्टक का पाठ कर सकते हैं. इससे भगवान शिव जल्दी प्रसन्न होते हैं और आपकी समस्याएं अपने आप हल होती जाती हैं. अपनी व्यक्तिगत समस्या के निश्चित समाधान हेतु समय निर्धारित कर ज्योतिषाचार्य से संपर्क करे, दूरभाष : 8194959327
विक्रमी संवत्ः 2077,
शक संवत्ः 1942,
मासः कार्तिक मास,
पक्षः कृष्ण पक्ष,
तिथिः नवमी प्रातः 05.28 तक है,
वारः सोमवार,
नक्षत्रः आश्लेषा प्रातः 08.42 तक,
योगः ब्रह्म रात्रि 01.30 तक,
करणः तैतिल,
सूर्य राशिः तुला,
चंद्र राशिः कर्क,
राहु कालः प्रातः 7.30 से प्रातः 9.00 बजे तक,
सूर्योदयः 06.43,
सूर्यास्तः 05.28 बजे।
नोटः आज गण्डमूल विचार होगा।
विशेषः आज पूर्व दिशा की यात्रा न करें। अति आवश्यक होने पर सोमवार को दर्पण देखकर, दही,शंख, मोती, चावल, दूध का दान देकर यात्रा करें।
https://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2020/06/panchang1.jpg536728Demokratic Front Bureauhttps://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2018/05/LogoMakr_7bb8CP.pngDemokratic Front Bureau2020-11-09 01:50:042020-11-09 01:52:36पंचांग 09 नवम्बर 2020
पाकिस्तानी सांसद जब अपनी संसद में पुलवामा नरसंहार को अपनी जीत बताते हैं तब भी शायद इन धूर्त लिब्रल्स को शरम का कीड़ा छू भी न पाये। बालाकोट में हमले के बाद जब विंग कमांडर अभिनंदन को छोड़ा गया तब इन धूर्तों के बयान सुनने वाले थे। इनहोने सोशल मीडिया पर पाकिस्तानी वज़ीर – ए – आजम की तारीफ में वो कसीदे पढे की भारतीय सेना का सिर शर्म से झुक जाय। आज जब पाकिस्तानी सांसद ने पाकिस्तान की पोल पट्टी खोल कर रख दी तो इमरान खान की ही भाँती यह बेशर्म हँसते हुए दीख जाएगे। आज पाकिस्तानी संसद में हुए खुलासे के पश्चात इनकी हालत देखने वाली होगी।
राजवीरेन्द्र वसिष्ठ, चंडीगढ़
भारतीय सेना (थल, नभ या वायु) की वीरता के किस्से पूरी दुनिया में मशहूर हैं। लेकिन इनके चरम शौर्य का किस्सा सुनना हो तो दुश्मन देश की सेना पर क्या बिती है, वह सुनिए। ताजा किस्सा भारतीय वायु सेना के फायटर पायलट अभिनंदन को लेकर है। इनके माध्यम से पाकिस्तान की संसद में भारतीय सेना की खौफ के चर्चे हुए।
पाकिस्तान की संसद में भारतीय सेना की खौफ के चर्चे! जी हाँ, यह सच है – 100 फीसदी सच। लेकिन दूसरा सच यह भी है कि दुश्मन देश जहाँ हमारी सेना और सेना के पीछे स्टील-फ्रेम की भाँति खड़े राजनीतिक दल की चर्चा कर रहा है, वहीं अपने देश के चंद लिबरल (धूर्त) इस घटना के वक्त अपने देश की सेना और सत्ता के साथ न खड़े होकर दुश्मन देश के PM इमरान खान की तारीफ में गीत गा रहे थे।
पहले नंबर पर हैं राजदीप। उन्होंने इसे भारतीय नेताओं (मतलब जो सत्ता में थे, मतलब बिना नाम लिए PM मोदी को टारगेट) के लिए वोट का मसला बता दिया था जबकि इमरान को विजेता घोषित कर दिया था।
फिर नंबर आता है बरखा जी का। ये इमरान के स्वागत में ट्वीट कर रही थीं।
शोभा डे तो पाकिस्तानियों को ही धन्यवाद कहने लगी थीं।
रिफत जावेद तो अपने देश के TV चैनलों को ज्ञान देने लगे थे। इसमें ज्ञान से ज्यादा PM मोदी के नाम पर तंज था।
प्रशांत भूषण कैसे पीछे रहते। इमरान खान को उन्होंने परिपक्व और बड़ा निर्णय लेने वाला करार दिया था।
लेकिन इन 11 लिबरलों (धूर्तों) को शायद यह नहीं पता था कि वो या तो किसी (दुश्मन देश) के हाथों कठपुतली की भाँति खेल रहे हैं या फिर अपने ही देश के किसी खास पार्टी के इशारे पर केंद्र सरकार को नीचा दिखाने का अजेंडा चला रहे हैं। पता तो शायद उन्हें यह भी नहीं होगा कि एक दिन उनकी धूर्तता की पोल कोई और नहीं बल्कि पाकिस्तान का ही एक सांसद खोल कर रख देगा।
https://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2020/10/FotorCreated-54.jpg415700Demokratic Front Bureauhttps://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2018/05/LogoMakr_7bb8CP.pngDemokratic Front Bureau2020-10-29 16:23:192020-10-29 16:23:36लिबरल पत्रकारों के ट्वीट और आज उन पर भारतियों के तंज़
मेवात पहले से ही सुर्खियों में छाया रहा है। जहां धर्म जेहाद, ज़मीन जेहाद और लव जेहाद बार बार रिपोर्ट करने के बाद भी हरियाणा सरकार की कुम्भ्कर्णी नींद नहीं टूटी है। हरियाणा का मेवात पहले ही से हिन्दू पलायन के लिए बदनाम है। मेवात से हिंदुओं के पालायन की वजह अपने परिवार की धर्म विशेष(मुस्ल्मानों) द्वारा अपने घर बार ओर बहु बेटियों की इज्ज़त न बचा पाना एक मुख्य मुद्दा है। आज भी जो बल्लभगढ़ में हुआ वहाँ खट्टर सरकार की नाकामी ही साफ साफ दीख पड़ती है। 2018 में इसी आरोपी ने (तौसीफ ने) इसी लड़की का अपहरण किया था, पुलिस ने तब भी त्वरित कार्यवाई करते हुए आरोपी को गिरफ्तार किया और लड़की को बरामद करवाया, तब राजनैतिक दबाव के चलते परिवार वालों को आरोपी पर कार्यवाई न करने के लिए मना लिया गया। आज की इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना की नींव उसी दिन पड़ा गयी थी।
मेवात/बल्लभगढ़:
दिल्ली से सटे हरियाणा के फरीदाबाद के बल्लभगढ़ थाना क्षेत्र में बीकॉम फाइनल ईयर की छात्रा निकिता तोमर की हत्या के मामले में मुख्य आरोपित तौफीक के अलावा अब पुलिस ने दूसरे आरोपित रेवान को भी धर-दबोचने में कामयाबी पाई है। मृतका के परिजनों ने इसे ‘लव जिहाद’ का मामला बताया है। निकिता तोमर हत्याकांड के दोनों ही आरोपितों को नूँह से गिरफ्तार किया गया। परिजन अब बल्लभगढ़-सोहना मार्ग पर धरने पर बैठ गए हैं।
निकिता तोमर के भाई नवीन ने आरोप लगाया है कि इससे पहले भी तौफीक ने उनके बहन के अपहरण का प्रयास किया था, लेकिन पुलिस ने उस समय कोई कार्रवाई नहीं की। एसीपी मुख्यालय आदर्श दीप मौके पर पहुँचे हुए हैं। तौफीक को मंगलवार (अक्टूबर 27, 2020) को ही कोर्ट में पेश कर के उसे रिमांड पर लिया जाएगा। पुलिस आयुक्त ने भी पिछली रात पीड़ित परिजनों से मिल कर दूसरे आरोपित की गिरफ़्तारी का आश्वासन दिया था।
इसी घटना पर सोशल मीडिया पर लोगों का गस्सा फूट पड़ा है : अब सोशल, मीडिया पर # लव जेहाद से बेटी बचाओ एक न रुकने वाले ट्रेंड के रूप में सामने आ रहा है
ये वारदात अग्रवाल कॉलेज के ठीक सामने हुई थी। अब परिजन धरने पर बैठे हुए हैं, जहाँ पुलिस को भी भारी संख्या में तैनात किया गया है। माँ ने कहा है कि जब तक दोषियों का एनकाउंटर नहीं किया जाता, तब तक वो अपनी बेटी का अंतिम-संस्कार नहीं करेंगी। वहीं भाई ने कहा कि जिस तरह उनकी बहन को दौड़ा-दौड़ा कर गोली मारी गई, दोषियों का भी एनकाउंटर हो, ताकि आगे किसी बहन-बेटी के साथ इस तरह का हादसा न हो।
देश की राजधानी से 63 किलोमीटर दूर हुए इस हत्याकांड के दौरान निकिता तोमर की सहेली भी उसके साथ में थी, जो उसे बचाने की कोशिश कर रही थी। आई-20 कार से आए बदमाशों ने इस घटना को अंजाम दिया था। सड़क पर कई अन्य लोग भी थे, जो तमाशबीन बने रहे। प्रदर्शन कर रहे पीड़ितों का आरोप है कि पुलिस ने उन्हें वहाँ प्रताड़ित किया है और महिला पुलिसकर्मी के बिना ही उन्हें वहाँ से हटाने की कोशिश हुई।
https://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2020/10/nikita-tomar-faridabad-Ballabharh-case-news-in-hindi.jpg6301200Demokratic Front Bureauhttps://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2018/05/LogoMakr_7bb8CP.pngDemokratic Front Bureau2020-10-27 13:04:162020-10-27 13:06:38मेवात में सरेआम लड़की के हत्या के आरोपी तौफीक ने पहले भी किया था इसी लड़की का अपहरण
सुप्रीम कोर्ट ने कॉन्ग्रेस नेता और वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल द्वारा दायर की गई बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को स्थगित कर दिया है। इस याचिका में केरल के कथित पत्रकार सिद्दीक कप्पन की रिहाई की माँग की गई थी। बता दें कि सिद्दीक कप्पन, उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए चार पीएफआई सदस्यों में से एक है। ये लोग यूपी में हाथरस मामले को लेकर जाति आधारित अशांति और सांप्रदायिक तनाव पैदा करने की योजना बनाई थी।
अतीकुर्रहमान, आलम, केरल के सिद्दीक कप्पन (जो कि कथित तौर पर पत्रकार है) और मसूद अहमद के पास गिरफ्तारी के दौरान 6 स्मार्टफोन, एक लैपटॉप व ‘जस्टिस फॉर हाथरस’ नाम के पैम्फ़्लिट पाए गए थे और ये लोग शांति भंग करने के लिए हाथरस जा रहे थे।
राहुल गाँधी ने अपने संसदीय क्षेत्र वायनाड में कथित पत्रकार व PFI सदस्य सिद्दीक कप्पन (Siddique Kappan) के परिवार से मिलकर उनकी मदद का आश्वासन दिलाया है।
नयी दिल्ली(ब्यूरो):
सांसद : राहुल गांधी
आरोपी : राहुल गाँधी ने अपने संसदीय क्षेत्र वायनाड में कथित पत्रकार व PFI सदस्य सिद्दीक कप्पन
आरोप : यूपी में हाथरस मामले को लेकर जाति आधारित अशांति और सांप्रदायिक तनाव पैदा करने की योजना बनाई थी
वकील : राहुल गाँधी की कॉंग्रेस केनेता और वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल
राहुल गाँधी ने अपने संसदीय क्षेत्र वायनाड में कथित पत्रकार व PFI सदस्य सिद्दीक कप्पन परिवार से मिलकर उनकी मदद का आश्वासन दिलाया है। केरल के कथित पत्रकार सिद्दीक को हाथरस मामले के मद्देनजर उत्तर प्रदेश जाते समय टोल प्लाजा से गिरफ्तार किया गया था। उस पर PFI से जुड़े होने और जातीय हिंसा फ़ैलाने की कोशिश के आरोप हैं। सिद्दीक कप्पन इस वक्त उत्तर प्रदेश की मथुरा अस्थायी जेल में बंद है।
सूचना के अनुसार, आज कालापेट्टा के रेस्ट हाउस में कप्पन के घरवालों ने राहुल गाँधी से मुलाकात की। इस समय कॉन्ग्रेस पूर्व अध्यक्ष वहाँ दौरे पर गए हुए हैं। परिवार ने इस मुलाकात में राहुल गाँधी से पूरे मामले में हस्तक्षेप की माँग करके पत्रकार की जल्द रिहाई करवाने की गुहार लगाई।
कॉन्ग्रेस सांसद से मुलाकात के बाद कप्पन की पत्नी रेहानथ ने बताया कि राहुल गाँधी उनके पति को रिहा कराने के लिए हर तरह से तैयार हो गए हैं। कथित पत्रकार की पत्नी ने यह भी कहा कि उनके पति को पुलिस ने हाथरस जाते समय गिरफ्तार किया था और अब वह उनके लिए चिंतित हैं क्योंकि वकील भी उनसे नहीं मिल पा रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि हाथरस जाते हुए पिछले दिनों सिद्दीक कप्पन के साथ 3 अन्य लोगों को भी गिरफ्तार किया गया था। उसके ख़िलाफ़ संगीन अपराध करने की मंशा रखने के शक में सीआरपीसी की धारा 151 के तहत मामला दर्ज हुआ था। बाद में यह केस राजद्रोह और आतंकवाद रोधी कानून के तहत दर्ज कर लिया गया। 7 अक्टूबर को इन चारों को 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेजा गया था और अब उनकी हिरासत फिर बढ़ा दी गई है।
ज्ञात हो कि 6 अक्टूबर को हिरासत में लिए गए चारों आरोपितों के खिलाफ आईपीसी की धारा 153-ए (दो समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना), आईपीसी की 295 ए (जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण कार्य करने से भावनाओं को अपमानित करने का इरादा) के तहत मामला दर्ज किया गया था। fIR में बताया गया था कि अतीकुर्रहमान, आलम, केरल के सिद्दीकी कप्पन (जो कि कथित तौर पर पत्रकार है) और मसूद अहमद के पास गिरफ्तारी के दौरान 6 स्मार्टफोन, एक लैपटॉप व ‘जस्टिस फॉर हाथरस’ नाम के पैम्फ़्लिट पाए गए थे और ये लोग शांति भंग करने के लिए हाथरस जा रहे थे।
यहाँ बता दें कि राहुल गाँधी द्वारा कप्पन की रिहाई पर हस्तक्षेप की बात सामने आते ही उनपर सवाल उठने लगे हैं। यूपी सीएम के सूचना सलाहकार शलभ मणि त्रिपाठी ने लिखा,
https://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2020/10/Rahul-PFI.jpg3801031Demokratic Front Bureauhttps://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2018/05/LogoMakr_7bb8CP.pngDemokratic Front Bureau2020-10-21 14:43:102020-10-21 14:44:12कॉंग्रेस का हाथ PFI के साथ
21 अक्टूबर 1951 को नई दिल्ली में महान् बलिदानी डॉ0 श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता तथा पंडित मौलीचन्द्र शर्मा, वैध गुरूदत्त, लाला योधरज, प्रो0 बलराज मधोक आदि देशभक्तों की सहभागिता में स्थापित भारतीय जनसंघ स्वतंत्र भारत का पहला राष्ट्रवादी-यथार्थवादी राजनीतिक दल हैं जिसने संसद के अन्दर और बाहर नेहरूवाद का विकल्प और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का संखनाद किया। भारत में अभारतीय शासन के विकल्प के रूप में भारतीय राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक नीतियों की आधुनिक सन्दर्भों में व्याख्या और अनुप्रयोग के आग्रही एवं देश की एकता-अखण्डता के विश्वनीय वाहक के रूप में जनसंघ का उदय हुआ था।
भारत का जनसंघ का इतिहास :
अखिल भारतीय जनसंघ भारत का एक पुराना राजनैतिक दल है जिससे 1980 में भारतीय जनता पार्टी बनी। इस दल का आरम्भ श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा 21 अक्टूबर 1951 को दिल्ली में की गयी थी। इस पार्टी का चुनाव चिह्न दीपक था। इसने 1952 के संसदीय चुनाव में 3 सीटें प्राप्त की थी जिसमे डाक्टर मुखर्जी स्वयं भी शामिल थे।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लागू आपातकाल (1975-1976) के बाद जनसंघ सहित भारत के प्रमुख राजनैतिक दलों का विलय कर के एक नए दल जनता पार्टी का गठन किया गया। आपातकाल से पहले बिहार विधानसभा के भारतीय जनसंघ के विधायक दल के नेता लालमुनि चौबे ने जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में बिहार विधानसभा से अपना त्यागपत्र दे दिया। जनता पार्टी 1980 में टूट गयी और जनसंघ की विचारधारा के नेताओं नें भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। इसके पश्चात प्रोफेसर बलराज मधोक ने भारतीय जनसंघ का नाम अखिल भारतीय जनसंघ करके चुनाव आयोग में रजिस्टर कराया और भारतीय राजनीति में अखिल भारतीय जनसंघ के नाम से संसदीय चुनाव प्रणाली में भाग लिया।
‘अखिल भारतीय जनसंघ’ के संस्थापक प्रो.बलराज मधोक ने देश में प्रखर राष्ट्रवादी और हिन्दुत्ववादी राजनीति की नींव रखी। भारतीय जनसंघ के साथ ही उन्होंने 1951 में आरएसएस की स्टूडेंट ब्रांच अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की स्थापना की। इसके साथ ही उनका राजनीतिक सफर शुरू हुआ और इस दौरान लंबे समय तक लखनऊ उनकी राजनीतिक कर्मभूमि रहा। जनसंघ का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने लखनऊ में पहली राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक रखी। उसके बाद जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी से अलग होकर उन्होंने 1989 में यहीं से चुनाव भी लड़ा। लखनऊ में उनके साथ काम करने वाले ऐसे ही कुछ नेताओं और बुद्धिजीवियों को उनकी बेवाकी और स्पष्ट राजनीतिक सोच के संस्मरण अब भी याद हैं।
भारतीय जनसंघ के संस्थापक प्रो.मधोक के लाल कृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी से राजनीतिक मतभेद रहे। आडवाणी जब राष्ट्रीय अध्यक्ष बने तो 1973 में उन्हें भारतीय जनसंघ से निकाल दिया गया। बाद में भारतीय जनता पार्टी बनी तो उसमें शामिल हुए, हालांकि उन्होंने इस्तीफा दे दिया। उन्होंने ‘अखिल भारतीय जनसंघ’ पार्टी बनाई लेकिन वह सफलता नहीं हो सकी। उसके बाद बीजेपी ने 1989 में जनता दल के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। लखनऊ से जनता दल के मांधाता सिंह को संयुक्त प्रत्याशी बनाया गया। मधोक मांधाता सिंह के खिलाफ निर्दलीय लड़े। उन्हें हिंदूवादियों का समर्थन मिला और माना जा रहा था कि वह जीत जाएंगे। इसी दौरान अटल बिहारी वाजपेयी ने एक लाइन का बयान दिया-‘मधोक हमारे प्रत्याशी नहीं हैं।’ और पूरा चुनावी रुख पलट गया, मधोक हार गए। पूर्व सांसद लालजी टंडन बताते हैं कि जनसंघ की स्थापना के समय से आखिरी समय तक मेरा उनसे जुड़ाव रहा। वह जीवन भर मूल्यों पर आधारित राजनीति करते रहे। वह जब भी लखनऊ आते, मेरी मुलाकात होती थी। उनकी अध्यक्षता में राष्ट्रीय कार्यसमिति यहां चौक स्थित धर्मशाला में हुई। तब मैं उनके काफी करीब रहा। कश्मीर को बचाने में उनका खासा योगदान है। मैं अटलजी और मधोकजी के बीच कुछ दूरियां रहीं लेकिन मैं दोनों के काफी करीब रहा। एक बार यह स्थिति आ गई कि उन्हें जनसंघ से अलग होना पड़ा लेकिन उसके बाद भी वह लिखकर अपने राष्ट्रवादी विचार रखते रहे। जिन विषयों पर आज के नेता संकोच करते हैं, उन पर भी उन्होंने प्रखर विचार रखे। वह राजनीतिक तौर पर भले ही अलग रहे हों लेकिन वह कभी मूल विचारधारा से नहीं हटे।
राष्ट्रधर्म के संपादक आनंद मिश्र अभय बताते हैं कि मधोक जी से मेरा संपर्क 1997 में हुआ जब मकर संक्रांति पर ‘सनातन भारत’ विशेषांक निकाला। राष्ट्रधर्म में उनका लेख छापा तो उनके करीबी महेश चंद्र भगत ने सराहा। भगत जी ने ही मेरे बारे में उनको बताया। मधोक जी जब लखनऊ आए तो मुझे मिलने बुलाया और प्रेस कॉन्फ्रेंस में साथ ही बैठा लिया। इसी दौरान वह बोल गए कि अटल जी अब तक के सबसे खराब प्रधानमंत्री हैं। मुझसे रहा नहीं गया और मैंने कहा कि वर्तमान परिस्थितियों में उनसे बेहतर नेता और कौन है? इस पर उन्होंने कहा कि यह बीजेपी का सिरदर्द है। मैंने कहा, यह बीजेपी का सिरदर्द है तो आप क्यों इसे अपना बना रहे हैं? … और प्रेस कॉन्फ्रेंस खत्म हो गई। यह उनकी सहजता ही थी कि इसके बाद भी उन्होंने बुरा नहीं माना। बाद में मैंने उनसे कहा कि आपने इतिहास पढ़ा है, पढ़ रहे हैं, गढ़ रहे हैं और इतिहास को जी रहे हैं। क्यों नहीं आप संस्मरण लिखते। उसके बाद ही उन्होंने संस्मरणों पर आधारित पुस्तक लिखी। कश्मीर समस्या के समाधान पर उन्होंने एक लेख भी भेजा जो उनकी राष्ट्रवादी विचारधारा के विपरीत था। मैंने वह लेख छापा नहीं और उनसे आग्रह किया कि इसे कहीं और भी न भेजें। इससे आपकी छवि धूमिल होगी। मेरी यह बात उन्होंने मानी भी और अपनी विचारधारा के अनुसार ही लिखते रहे।
https://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2020/10/images-1.jpg224225Demokratic Front Bureauhttps://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2018/05/LogoMakr_7bb8CP.pngDemokratic Front Bureau2020-10-21 06:10:212020-10-21 06:12:2521 अक्तूबर: अखिल भारतीय जनसंघ स्थापना दिवस
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