Super moon on 27th July

 

The month of July is set to witness a rare astronomical spectacle as a blood moon, the second of the year, will appear on the intermediary night of July 27-28. The total lunar eclipse is being touted as the longest of this century.

The eclipse will follow the super blue blood moon of January 31, which too was a once-in-a-lifetime event combining a supermoon, blue moon and blood moon.

Here’s why this super-moon is special:

According to space experts, the eclipse will last one hour and 43 minutes – nearly 40 minutes longer than the January 31 Super Blue Blood Moon. The January 31 super-moon was supposed to be the longest total lunar eclipse of the year but this will outdo the former.

The blood moon, or the ‘full buck moon’ as it is being called, will turn blood red during the eclipse due to the way light bends around Earth’s atmosphere. During a blood moon, the moon takes on a deep red to orange colour rather than completely disappearing when it passes through the shadow cast by Earth. This bizarre effect known as ‘Rayleigh scattering’ filters out bands of green and violet light in the atmosphere during an eclipse.

The full buck moon will last longer than normal as it will pass almost directly through Earth’s shadow during the eclipse. At the same time, it will be at the maximum distant point from earth. Therefore, it will take longer to cross Earth’s shadow.

The moon will be visible on July 27. “The July 2018 full moon presents the longest total lunar eclipse of the 21st century on the night of July 27-28, 2018, lasting for a whopping one hour and 43 minutes,”  an expert as saying.

The eclipse will be visible only in the eastern hemisphere of the world – Europe, Africa, Asia, Australia and New Zealand. People in North America and Arctic-Pacific region won’t be able to get a hold of this event this time.

In Asia, Australia and Indonesia, the greatest view of the eclipse will be during morning hours. Europe and Africa will witness the eclipse during the evening hours, sometime between sunset and midnight on July 27.

प्रधान मंत्री पद की दावेदारी गठबंधन पर पड़ेगी भारी

 

साल 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को रोकने के लिए कांग्रेस की उम्मीदें केवल एक ही सहारे पर टिकी हुई हैं. वो सहारा है महागठबंधन. कांग्रेस को लगता है कि महागठबंधन के समुद्र मंथन से ही सत्ता का अमृत पाया जा सकता है. महागठबंधन का वैचारिक आधार है-मोदी विरोध. महागठबंधन की बात बार-बार दोहराकर कांग्रेस इसकी अगुवाई का भी दावा कर रही है ताकि भविष्य में पीएम पद को लेकर महाभारत न हो. लेकिन दूसरे राजनीतिक दलों में गूंजने वाली अलग-अलग प्रतिक्रियाएं महागठबंधन के वजूद पर अभी से ही सवालिया निशान लगा रही हैं.

एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार चुनाव से पहले महागठबंधन की कल्पना को व्यावहरिक ही नहीं मानते हैं. उनका मानना है कि क्षेत्रीय दलों की मजबूती की वजह से महागठबंधन व्यावहारिक नहीं दिखाई देता है. पवार का राजनीतिक अनुभव और दूरदर्शिता उनके इस बयान से साफ दिखाई देता है.

जिन क्षेत्रीय दलों की मजबूती को कांग्रेस एक महागठबंधन में देखना चाहती है दरअसल यही मजबूती ही क्षेत्रीय दलों को चुनाव बाद के गठबंधन में सौदेबाजी का मौका देगी. क्षेत्रीय दलों की यही ताकत उन्हें चुनाव बाद एकजुट होने की परिस्थिति में उनके फायदे के लिये ‘सीधी बात’ कहने का आधार देगी और सत्ता में भागेदारी का बराबरी से अधिकार भी देगी.

शरद पवार ये मानते हैं कि हर राज्य में अलग-अलग पार्टियों की अपनी स्थिति और भूमिका है. कोई पार्टी किसी राज्य में नंबर 1 है तो उसकी प्राथमिकता राष्ट्रीय स्तर पर अपनी स्थिति को और मजबूत करने की होगी. जाहिर तौर पर ऐसी स्थिति में कोई भी पार्टी चुनाव पूर्व महागठबंधन के फॉर्मूले में कम से कम अपने गढ़ में तो ऐसा कोई समझौता नहीं करेगी जिससे उसके वोट प्रतिशत और सीटों का नुकसान हो.

वहीं इस महागठबंधन के आड़े आने वाला सबसे बड़ा व्यावहारिक पक्ष ये है कि बीजेपी के खिलाफ एकजुट होने वाले क्षेत्रीय दल लोकल स्तर पर एकजुटता कैसे दिखा पाएंगे? वो पार्टियां जो अबतक एक दूसरे के खिलाफ आग उगलकर चुनाव लड़ती आई हैं वो राष्ट्रीय स्तर पर कैसे एकता दिखा सकेंगी? उन सभी के किसी न किसी रूप में वैचारिक मतभेद हैं जिनका किसी न किसी रूप में समझौते पर असर पड़ेगा.

सबसे बड़ी चुनौती जमीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं को लेकर होगी जिनके लिए महागठबंधन के बाद एक साथ काम कर पाना आसान नही होगा क्योंकि कई राज्यों में वैचारिक मतभेद से उपजा खूनी संघर्ष भी इतिहास में कहीं जिंदा है.

बड़ा सवाल ये है कि सिर्फ मोदी को रोकने के लिए क्या पश्चिम बंगाल में टीएमसी और वामदल आपसी रंजिश को भुलाकर कांग्रेस के साथ आ सकेंगे? क्या तमिलनाडु में डीएमके और आआईएडीएमके, बिहार में लालू-नीतीश, यूपी में अखिलेश-मायावती और दूसरे राज्यों में गैर कांग्रेसी क्षेत्रीय दलों के साथ कांग्रेस का गठबंधन साकार हो सकेगा?

महागठबंधन को साल 2015 में पहली कामयाबी बिहार में तब मिली जब लालू-नीतीश की जोड़ी ने बीजेपी के विजयी रथ को रोका. इसी फॉर्मूले का नया अवतार साल 2018 में यूपी में तब दिखा जब बीजेपी को हराने के लिए पुरानी रंजिश भूलकर एसपी-बीएसपी गोरखपुर-फूलपुर के लोकसभा उपचुनाव में साथ आए तो फिर कैराना में रालोद के साथ गठबंधन दिखा. यूपी-बिहार के गठबंधन के गेम से ही कांग्रेस उत्साहित है और वो महागठबंधन का सुनहरा ख्वाब संजो रही है.

लेकिन एक दूसरा सवाल ये भी है कि अपने-अपने राज्यों के क्षत्रप आखिर कांग्रेस के नेतृत्व में महागठबंधन से जुड़ने को अपना सौभाग्य क्यों मानेंगे? खासतौर से तब जबकि हर क्षेत्रीय दल का नेतृत्व खुद में ‘पीएम मैटेरियल’ देख रहा हो.

कांग्रेस राहुल के नेतृत्व में महागठबंधन की अगुवाई करना चाहती है. जबकि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में गैर-बीजेपी दलों के हित में जारी महागठबंधन की अपील को ठुकरा चुकी हैं. ममता बनर्जी तीसरे मोर्चे की कवायद में ज्यादा एक्टिव दिखाई दे रही हैं. वो दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों और क्षेत्रीय नेताओं के लगातार संपर्क में हैं. बीजेपी को हराने के लिए वो हर बीजेपी विरोधी नेता से हाथ मिलाने को तैयार हैं. उन्होंने गुजरात चुनाव में बीजेपी की नजदीकी जीत के बाद हार्दिक-अल्पेश-जिग्नेश की तिकड़ी की तारीफ की और हार्दिक पटेल को पश्चिम बंगाल का सरकारी मेहमान तक बना डाला.

हाल ही में उन्होंने दिल्ली के सीएम केजरीवाल के एलजी ऑफिस में धरने के वक्त तीन अलग राज्यों के सीएम के साथ पीएम से मुलाकात की. ये मुलाकात साल 2019 को लेकर कांग्रेस के लिए भी बड़ा इशारा था. एक तरफ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी दिल्ली में केजरीवाल के धरने को ड्रामा बता रहे थे तो दूसरी तरफ ममता बनर्जी की अगुवाई में चार राज्यों के सीएम केजरीवाल का सपोर्ट कर रहे थे.

महागठबंधन से पहले किसी विचारधारा या फिर मुद्दे पर कांग्रेस और गैर-कांग्रेसी दलों में एकता दिखाई नहीं दे रही है. ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि किसी भी कीमत पर मोदी और बीजेपी को साल 2019 में सत्ता में आने से रोकने के लिए महागठबंधन की नींव पड़ भी गई तो इमारत बनाने के लिए ईंटें कहां से आएंगी?

मोदी को रोकने के लिए महागठबंधन तो बन सकता है लेकिन महागठबंधन के नेतृत्व को लेकर कांग्रेस आम सहमति कैसे बना पाएगी? साल 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस राहुल गांधी को पीएम के तौर पर प्रोजेक्ट कर चुकी है. यहां तक कि खुद राहुल गांधी भी कर्नाटक चुनाव प्रचार के वक्त कह चुके हैं कि वो देश का पीएम बनने को तैयार हैं. जबकि मुंबई में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जब राहुल से महागठबंधन के नेतृत्व पर सवाल पूछा गया तो वो जवाब टाल गए.

पीएम बनने की महत्वाकांक्षा आज के दौर में हर क्षेत्रीय पार्टी के अध्यक्ष के मन में है और यही महागठबंधन की महाकल्पना के साकार होने में आड़े भी आएगी. क्योंकि क्षेत्रीय दल सिर्फ सीटों तक की सौदेबाजी को लेकर महागठबंधन के समुद्र मंथन में नहीं उतरेंगे बल्कि वो पीएम पद को लेकर भी बंद दरवाजों  से लेकर खुले मैदान में शक्ति-परीक्षण के जरिये सौदेबाजी करने का मौका नहीं चूकेंगे

महागठबंधन पर बात न बन पाने की सूरत में कांग्रेस के पास यही विकल्प बचता है कि या तो वो गैर कांग्रेसी दलों को पीएम पद सौंपने पर राजी हो जाए या फिर यूपीए 3 के नाम से अपने प्रगतिशील गठबंधन के दम पर लोकसभा चुनाव में उतरे और चुनाव बाद महागठबंधन को लेकर फॉर्मूला बनाए.

सिर्फ विधानसभा चुनाव और उपचुनावों से लोकसभा चुनाव का मूड नहीं भांपा जा सकता है. यूपीए ने भी साल 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले उपचुनावों में जीत हासिल की थी. वहीं इस साल 15 सीटों पर हुए उपचुनावों में महागठबंधन को सिर्फ चार सीटों पर ही जीत मिली है. ऐसे में महागठबंधन को लेकर बनाई जा रही हवा कहीं हवा-हवाई न साबित हो जाए.

क्षेत्रीय दलों को सिर्फ एक ही बात की चिंता है कि साल 2019 में भी कहीं ‘मोदी लहर’ की वजह से उनके राजनीतिक वनवास की मियाद पांच साल और न बढ़ जाए. यही डर उन्हें महागठबंधन में लाने को मजबूर कर सकता है लेकिन सत्ता में भागीदारी का लालच उन्हें पीएम पद की तरफ भी आकर्षित करता है. तभी पीएम पद की बाधा-रेस महागठबंधन में सबसे बड़ा अड़ंगा डालने का काम कर सकती है क्योंकि इस मुद्दे पर चुनाव से पहले कोई भी पार्टी राजी होने को तैयार नहीं होगी.

कांग्रेस ये कभी नहीं चाहेगी कि वो पीएम पद के बारे में चुनाव बाद उभरे राजनीतिक हालातों के बाद फैसला करे. वो ये चाहेगी कि इस मामले में तस्वीर अभी से एकदम साफ रहे और पूरा चुनाव राहुल बनाम मोदी ही लड़ा जाए.

बहरहाल सिर्फ मोदी-विरोध के नाम पर अलग-अलग राज्यों में विपक्षी दलों के सियासी समीकरण साधना भी इतना आसान नहीं है क्योंकि ये जातीय समीकरणों में भी उलझे हुए हैं. सिर्फ मोदी-विरोध का एक सूत्रीय कार्यक्रम देश की सभी विपक्षी पार्टियों के लिए साल 2019 के लोकसभा चुनाव में आत्मघाती साबित हो सकता है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव हारने के बाद कांग्रेस की अंदरूनी रिपोर्ट को बाकी विपक्षी दलों को किसी ऐतिहासिक दस्तावेज की तरह जरूर पढ़ना चाहिये और ये भी समझना चाहिये कि कि उनका सियासी इस्तेमाल सिर्फ कांग्रेस के प्रतिशोध तक ही तो सीमित नहीं है. फिलहाल कांग्रेस के लिए महागठबंधन बना पाना उसी तरह असंभव दिखाई दे रहा है जिस तरह अपने बूते साल 2019 का लोकसभा चुनाव जीतना.

रक्षा मंत्री सीतारमण ने अमरनाथ यात्रा की सुरक्षा व्यवस्था को सुनिश्चित किया

रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने वार्षिक अमरनाथ यात्रा के सुरक्षा इंतजामों की समीक्षा के लिए सोमवार को जम्मू एवं कश्मीर के बालटाल बेस कैंप का दौरा किया। रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों ने कहा कि सीतारमण ने सेना के वरिष्ठ कमांडरों के साथ अमरनाथ यात्रा के लिए तीन स्तरीय सुरक्षा इंतजामों का जायजा लिया। अमरनाथ यात्रा 28 जून से शुरू हो रही है।

शीतकालीन राजधानी जम्मू से बालटाल और दक्षिण कश्मीर के पहलगाम के दो बेस कैंप से लगभग 400 किलोमीटर यात्रा मार्ग को सुरक्षित रखने के लिए अद्र्धसैनिक बलों की 213 अतिरिक्त कंपनियां तैनात की गई हैं। अमरनाथ गुफा समुद्र तल से 12,756 फीट की ऊंचाई पर है।

तीर्थयात्रियों को पहलगाम रास्ते से तीर्थस्थल पहुंचने में चार दिनों का समय लगता है। बालटाल मार्ग से जाने वाले लोग अमरनाथ गुफा में प्रार्थना करने के बाद उसी दिन बेस कैंप लौटते हैं। दोनों मार्गों पर हेलीकॉप्टर सेवा भी उपलब्ध है।

“जहाँ बलिदान हुए मुखर्जी वह काश्मीर हमारा है” सतिन्दर सिंह

 

डॉ॰ श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारतीय जनसंघ के संस्थापक नेता, जम्मू कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाने के पवित्र कार्य करते हुए ,अपने प्राण न्योछावर करने वाले वीर योद्धा थे । स्वतंत्र भारत में जम्मू कश्मीर का अलग झण्डा, अलग संविधान ओर वहाँ का मुख्यमन्त्री (वजीरे-आज़म) अर्थात् प्रधानमन्त्री कहलाता था।
उन्होंने तात्कालिन नेहरू सरकार को चुनौती दी तथा अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। अपने संकल्प को पूरा करने के लिये वे 1953 में बिना परमिट लिये जम्मू कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। वहाँ पहुँचते ही उन्हें गिरफ्तार कर नज़रबन्द कर लिया गया। 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी।

उनका बलिदान हर भारतीय के लिए प्ररेणा दायक है।

 

।। भारत माता की जय।।

सतिन्दर सिंह

BJP seeks soft toy as Governor

 

In a departure from the norm of appointing people with military, civil service backgrounds to the post, the Centre seeks a ‘political person’ to replace Vohra, insiders say

 

The Centre favours a “political person” to become the next governor of Jammu and Kashmir, in a departure from the traditional practice of appointing people with military, police or civil service backgrounds to the post, people familiar with the matter said.

The tenure of current governor, NN Vohra, a former civil servant, ends on June 27 and he is expected to continue in the post at least until the completion of the annual Amarnath Yatra between June 28 and August 26. If a change takes place after that, a ‘political person’ will be New Delhi’s first choice as replacement to Vohra, the people cited above said.

The state was placed under Governor’s rule on Wednesday after the Bharatiya Janata Party (BJP) walked out of its nearly 40 month old alliance with the Mehbooba Mufti-led People’s Democratic Party (PDP).

People with knowledge of the matter suggest that New Delhi is averse to sending a ‘wrong message’ – both at home and abroad – by choosing a ‘military man’ as the next governor of the conflict-torn province.

Vohra, an 82-year-old former Indian Administrative Service officer of the Punjab cadre, was the first person from a non-rmy and non-Indian Police Service background inthe last 18 years to be appointed J&K governor. He was named to the post in 2008. Former IAS officer Jagmohan was the last civilian governor, before Vohra, to have served in J&K, in the late 1980s and again briefly in 1990..

“We are looking for a political person,” a leader familiar with the matter said. “We moved from military men to an administrator as J&K governor. We have to take it forward by appointing a political person as the next governor. We cannot turn the clock back by having another military man as the next governor.”

Speculations are for Ram Madhav              

In case the Centre does not find a suitable political person to be the next governor of J&K, the person said, it may fill the post with another ‘administrator.’ “The search is on,” the person quoted above said.

New Delhi favouring a “political person” could spoil the chances of retired military and intelligence officers who were speculated to be in the running for the governor’s post in J&K.

Kashmir analyst Noor Ahmad Baba said the logic behind preferring a political person for the post of governor seems positive, but it is equally important to see who the person is.

“If a person who shares an ideology of the present regime in New Delhi is picked, it may make the matters worse,” said Baba, former dean of the School of Social Sciences at the Central University of Kashmir.

Between Jagmohan and Vohra, J&K had three governors. Jagmohan’s successor Girish Chandra Saxena was a former IPS officer who headed India’s external intelligence agency, the Research & Analysis Wing, between 1983 and 1986.

Gen KV Krishna Rao, who took over from Saxena as J&K governor in March 1993, was a former chief of Army staff.

Saxena had a second stint as governor between 1998 and 2003, before Lt Gen (retd) Srinivas Kumar Sinha, a former director of military intelligence and vice chief of army staff, moved in. Sinha completed a full five-year term before handing over the baton to Vohra in 2008.

 

शुजात की हत्या का गुंडे अन्य पत्रकारों को धमकाने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं: ओमर

 

जम्मू कश्मीर में पत्रकारों के लिए चुनौतियां कम नहीं हैं, ऐसे में भाजपा नेता और मंत्री रहे विधायक चौधरी लाल सिंह ने उन्हें ‘चेतावनी’ के रूप में सलाह देते हुए कहा है कि वे अपने लिए एक हद तय कर लें कि उन्हें यहां कैसे काम करना है.

ग्रेटर कश्मीर की खबर के मुताबिक लाल सिंह शुक्रवार को कठुआ बलात्कार और हत्या मामले की सीबीआई जांच की मांग करने को लेकर प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे थे.

उन्होंने कहा कि इस मामले में कश्मीर के पत्रकारों ने एक गलत माहौल पैदा कर दिया था.

उन्होंने कहा, ‘अब मैं कश्मीर के पत्रकारों को कहूंगा कि आप भी अपनी पत्रकारिता की लाइन ड्रा करिए कि आपको कैसे रहना है. ऐसे रहना है कि जैसे बशारत के साथ हुआ है. उसी तरह के हालात बनते रहें?’

उनका इशारा वरिष्ठ पत्रकार और राइजिंग कश्मीर अख़बार के संपादक शुजात बुखारी की ओर था, जिनकी बीते 14 जून को अज्ञात हमलावरों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी. यहां बशारत से लाल सिंह का इशारा बशारत बुखारी की ओर था, जो शुजात के भाई हैं और भाजपा के पीडीपी से गठबंधन तोड़ने तक जम्मू कश्मीर सरकार में मंत्री थे.

इसके बाद लाल सिंह ने पत्रकारों से कहा, ‘इसीलिए अपने आप को संभाले और एक लाइन ड्रा करें ताकि ये भाईचारा बना रहे और तरक्की होती रहे.’

मालूम हो कि लाल सिंह खुद जम्मू कश्मीर सरकार में कैबिनेट मंत्री थे, जिन्हें कठुआ मामले में बलात्कारियों के पक्ष में निकाली गई रैली में हिस्सा लेने के चलते इस्तीफ़ा देना पड़ा था.

मंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद से लाल सिंह कठुआ, सांबा, जम्मू, उधमपुर और रियासी जिले में कठुआ मामले की सीबीआई जांच करवाने के लिए 30 से ज्यादा रैलियां कर चुके हैं.

सिंह ने पहले दावा किया था, ‘हमने इसलिए इस्तीफा दिया क्योंकि राष्ट्रीय मीडिया की ओर से बनाई गई धारणा सही नहीं थी. उसने हालात को गलत तरीके से पेश किया जबकि मामला ऐसा कुछ था ही नहीं. ऐसा पेश किया गया कि समूचा जम्मू क्षेत्र बलात्कारियों के साथ खड़ा है.’

लाल सिंह के पत्रकारों को इस तरह की सलाह देने की आलोचना शुरू हो गयी है. नेशनल कॉन्फ्रेंस ने प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए इसे ‘आक्रोशित करने वाला’ करार दिया और कहा कि राज्य पुलिस को इस पर तुरंत संज्ञान लेना चाहिए.

पार्टी ने एक ट्वीट में कहा, ‘नेशनल कॉन्फ्रेंस भाजपा नेता एवं विधायक चौधरी लाल सिंह द्वारा कश्मीरी पत्रकारों को धमकाने और उनकी आक्रोशित करने वाली टिप्पणियों की निंदा करती है. इस पर जम्मू-कश्मीर पुलिस को तुरंत संज्ञान लेना चाहिए. हमें उम्मीद है कि कानून को कमजोर नहीं किया जा सकेगा.

नेशनल कॉन्फ्रेंस नेता और पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने पत्रकारों को संबोधित करते हुए ट्विटर पर लिखा, ‘आपके कश्मीर के साथियों को भाजपा विधायक द्वारा धमकी दी गयी है. ऐसा लग रहा है कि शुजात की हत्या का गुंडे अन्य पत्रकारों को धमकाने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं.

वहीं कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने भी लिखा कि क्या जम्मू कश्मीर में रैली कर रहे भाजपा अध्यक्ष अमित शाह जवाब देंगे कि जम्मू कश्मीर के पत्रकारों को शुजात बुखारी की तरह न मारे जाने के लिए अपनी सीमाएं तय करनी होंगी और तभी वहां भाईचारा कायम होगा. पहले उन्होंने अमित शाह के बारे में दी गयी खबर हटाने के मीडिया संस्थानों को मजबूर किया और अब भाजपा विधायक खुलेआम धमकी दे रहे हैं. ये शर्मनाक है.

यह पहली बार नहीं है जब चौधरी लाल सिंह के किसी बयान को लेकर विवाद हुआ है. वे इस साल कठुआ मामले के आरोपियों के पक्ष में हुई एक रैली में शामिल हुए थे, जिसके चलते उन्हें अपना मंत्री पद गंवाना पड़ा था.

इससे पहले 2016 में वे कश्मीर के गुज्जर समुदाय को 1947 के बाद हुए मुस्लिम नरसंहार का हवाला देकर धमका चुके हैं.

बीते दिनों कठुआ मामले की सीबीआई जांच करने की मांग करने के लिए हीरानगर में हुई एक रैली में उनके भाई राजिंदर सिंह ने तत्कालीन मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती के बारे में अपशब्द कहे थे, जिसके बाद उनके खिलाफ मामला दर्ज हुआ था. बाद में कठुआ पुलिस ने उन्हें राजस्थान सेगिरफ्तार किक्या था.

Mehbooba detergent: pehle istimal karein, phir vishwas naa karein

 

The talk of the BJP withdrawing support to the PDP started as a rumour in Kashmir, which was largely shrugged off. Nobody could imagine even in their wildest dreams that it would be the BJP which would abandon the coalition, considering alliance with the PDP had enabled it to become a ruling party in India’s only Muslim majority state, a seemingly improbable prospect up until 2014. But when the news turned out to be true, it still took time to sink in. And then people started talking. Soon social media went abuzz with posts and memes and Whatsapp forwards began circulating.

The dominant public mood that came to the fore wasn’t one of anger over the development but a sense of vicarious wish-fulfilment. An opinion poll run by a local daily showed 92 percent of the respondents approving the fall of the government.

“The BJP-PDP rule will be remembered for just one thing – bloodshed. And for the disgraceful wayMehbooba Musti government has been dumped, Kashmiris are feeling this collective sense of schadenfreude,” wrote the noted Kashmiri cartoonist Suhail Naqshbandi on Twitter.

Prominent activist Shehla Rashid wrote “the break-up was nothing but drama by the alliance partners to rid themselves of any accountability”.

“They are fleeing, in order to escape questions from the public on nepotism & political/economic failures (sic),” Shehla said.

Across the social media, the first few hours after the break-up of the coalition turned out to be a venting session for the accumulated mass contempt for the PDP, especially against its leader Mehbooba Mufti. Scores of memes, that started doing the rounds captured the catharsis in the Valley.

One such meme went like this: “Mehbooba detergent: pehle istimal karein, phir vishwas naa karein (first use and then don’t even trust,” a variation on a famous jingle about a detergent.

Both the posts and the memes played to the discourse that in withdrawal of the support by the BJP, the PDP had met a fitting comeuppance for its betrayal of the people’s mandate.

“The pinnacle of curse is being ousted by the partner & then resigning from the chair of slayer,” wrote one Mohsen Shah. “If only she had such a heart to resign after the countless barbaric killings of the innocent youth during her genocidal regime”.

Or this one: “This is how New Delhi deals with its chaprasis (servants), always.”

The alienation of the PDP is a huge fall for the Mehbooba, who could boast of the highest credibility among mainstream parties in the state, until her party decided to join hands with the BJP.

A part of the anger now directed against her comes from a deep sense of betrayal of this trust. Killings and blindings in 2016 destroyed her popularity. As a result, BJP’s withdrawal of support and the accompanying humiliation has become a sweet retribution. Hence, a reflexive response that exults in what is seen as “disgrace for the PDP”.

This is a sentiment that was voiced even by the former Chief Minister Omar Abdullah in his interaction with reporters: “Wish Mehbooba had gone with her dignity intact rather than being shunted out by the partner (BJP).”

Informed civil society opinion, on the other hand, sees the break-up as a long-anticipated end to an ideologically antithetical alliance.

“The alliance was doomed from the very beginning. The alliance partners were never gelled with each other. Prisoners of their respective ideological positions and constituencies, the two parties were in fact pushing the government in opposite directions,” wrote the noted Jammu based academician Rekha Chaudhary. “Except for the common goal to retain power, there was nothing common between the two partners. The differences were too profound and no effort was ever made to bridge them”.

Rekha said the Agenda for Alliance, was “a good document,” with a “potential of not only making the government work in the interest of the state, but also to resolve the inter-regional conflict in the long term”.

“But the agenda remained at the paper only. Lest they be seen as having compromised with their respective political positions, on the ground, each of the political partners was more aggressive about its ideology and therefore publicly confrontationist rather than conciliatory in approach”.

For now Mehbooba Mufti is alone. Neither the Congress, nor the PDP see it worth their while to extend support. Her political standing is at its nadir. The BJP has called for “an all-out war” against the militants which is likely to result in more human rights abuses. But Mehbooba’s political capital has deteriorated to an extent whereby even if she starts making people-friendly noises, she can only expect ridicule in return.

“PDP will soon start talking about the human rights of Kashmiris,” renowned Kashmiri writer Mirza Waheed wrote sarcastically on Facebook.

गठबंधन टूटने के बाद पहली अमरनाथ यात्रा पर आतंकी हमले की आशंका

इंटेलिजेंस एजेंसियों की तरफ से जम्मू कश्मीर में 28 जून से शुरू होने वाली अमरनाथ यात्रा पर आतंकवादी हमलों की चेतावनी के बाद सुरक्षा बलों ने लक्षित और सूचना-आधारित आतंक-विरोधी अभियानों के लिए बुधवार से जवानों की नए सिरे से तैनाती शुरू कर दी है. फ़र्स्टपोस्ट द्वारा खुफिया आकलन के अध्ययन में यह बात सामने आई है कि लश्करे-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और हिज्बुल मुजाहिदीन की दक्षिण कश्मीर में- खासकर शोपियां, अनंतनाग, बड़गाम, कुलगाम और पुलवामा में गतिविधियों में लगातार तेजी आई है और ये आने वाले दिनों में और हमलों के लिए स्लीपर सेल्स को सक्रिय कर रहे हैं.

राज्य में आतंकवाद, हिंसा और कट्टरता बढ़ने का आरोप लगाते हुए बीजेपी द्वारा पीडीपी से गठबंधन तोड़कर निकल जाने के बाद 20 पन्नों का यह पहला इंटेलिजेंस आकलन है. एलर्ट में आने वाले दिनों में सुरक्षा बलों पर हमलों में बढ़ोत्तरी की चेतावनी दी गई है, जिसके बाद सरकार की तरफ से इनसे निपटने के लिए आक्रामक आतंक-विरोधी ऑपरेशंस की तैयारी की जा रही है. इंटेलिजेंस आकलन में सीमा पार से हुई बातचीत को डिकोड करने से पता चला है कि घाटी में शांति भंग करने और अव्यवस्था फैलाने के लिए राजनीतिक कार्यकर्ता पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादियों का आसान निशाना हो सकते हैं.

इस बात की आशंका है कि हमला करने के लिए आतंकवादी नेशनल हाईवे के करीब छिपने की जगहों पर इकट्ठा हों. ऐसे हमलों को रोकने और आतंकवादियों का जड़ से सफाया करने के लिए सुरक्षा और इंटेलिजेंस एजेंसियों को साझा प्रयास करने होंगे. जून के पहले हफ्ते में माछिल और करेन में इंटेलिजेंस आधारित एक के बाद एक ऑपरेशंस बताते हैं कि लश्कर और जैश की घुसपैठ बढ़ी है. सुरक्षा एजेंसियों से जुड़े एक सूत्र ने बताया कि “हमने आतंकवादियों की योजना को विफल करने के लिए परंपरागत घुसपैठ रूटों पर लक्षित ऑपरेशंस शुरू करने के साथ ही आतंकवादियों के छिपने के संभावित ठिकाने वाले इलाकों में घेराबंदी करके तलाशी अभियान शुरू किया है.”

हिज्बुल मुजाहिदीन के आतंकवादियों के जमावड़े और गतिविधियों का इनपुट मिलने के बाद सुरक्षा बल कुलगाम के रामपोरा, बान, यासू, फराह, हवूरा, वानपोह और पांजाथ में सघन तलाशी अभियान चला सकते हैं. रमजान के दौरान स्थगित किए ऑपरेशंस के बाद हेफ शिरमल, चाक चोलान, नागबल, तरेंज और जैनापोरा में भी नए सिरे से ऑपरेशंस शुरू किए जा सकते हैं, जहां इंटेलिजेंस अलर्ट में हिज्बुल मुजाहिदीन और लश्कर-ए-तोइबा की गतिविधियों को लेकर चेतावनी दी गई है. इंटेलिजेंस रिपोर्ट में यह भी सुझाव दिया है कि आतंकवादियों के छिपने के संदिग्ध ठिकानों पर सुरक्षा बलों की संख्या बढ़ाई जाए और साथ ही विभिन्न बलों के बीच तालमेल बेहतर किया जाए.

इंटेलिजेंस नोट में कहा गया है, “बीते साल के शुरुआती आधे हिस्से की तुलना में इस साल ज्यादा आतंकवादियों के मारे जाने के बावजूद इस बार बड़ी संख्या में पाकिस्तान से आतंकवादियों की घुसपैठ के कारण घाटी में उनकी संख्या बढ़ी है. सुरक्षा बलों ने घाटी में विरोध प्रदर्शनों से निपटने में अधिकतम संयम दिखाया है, लेकिन पाकिस्तान की तरफ से युद्धविराम के उल्लंघन के कारण सरहद पर रहने वाले लोगों की तकलीफों में इजाफा हुआ है.”

गृह मंत्रालय द्वारा मुहैया कराए आंकड़ों के मुताबिक 2017 में 2016 की तुलना में आतंकवादी हिंसा की घटनाओं और नागरिकों की मौतों में बढ़ोत्तरी हुई है. 2017 में सुरक्षा बलों के करीब 80 जवानों, 40 आम नागरिकों और 213 आतंकवादियों की मौत हुई. 2018 में जून के मध्य तक 38 आम नागरिक, सुरक्षा बलों के 40 जवान और 95 आतंकवादी मारे जा चुके हैं.

पूर्व वरिष्ठ पुलिस अधिकारी वीएन राय ने फ़र्स्टपोस्ट को बताया कि घुसपैठ की कोशिशों को नाकाम करने के वास्ते बॉर्डर ऑपरेशंस के लिए इंटेलिजेंस उपायों को ज्यादा चाक-चौबंद किया जा सकता है और इस बात की संभावना है कि ऐसी कोशिशों के कुछ नतीजे दिखाई दें, लेकिन घाटी में नए सिरे से शुरू की कार्रवाई के संभवतः वांछित नतीजे ना मिलें और आने वाले दिनों में आतंकी हमलों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो सकती है.

राय कहते हैं, “आपको कश्मीर घाटी में शांति कायम करने के लिए आईएसआई की साजिशों और पाकिस्तानी सेना को हराना होगा. सेना और सुरक्षा बल भारी दबाव में काम कर रहे हैं, और मेरा मानना है कि लगातार आतंक-विरोधी अभियान से आतंकवादी हिंसा कम नहीं होने वाली है. यह सारे हालात मुझे राजीव गांधी के शासन के समय की याद दिलाते हैं, जब एक दिशाहीन नीति के कारण घाटी ने आतंकवाद का 10 साल लंबा दौर देखा था. मेरा मानना है कि अगर सरकार घाटी में आतंकवाद के खात्मे को लेकर गंभीर है तो सीमा के उस पार भी लॉन्च पैड या वो जो कुछ भी है, उसे खत्म करने के लिए ऑपरेशंस चलाना चाहिए. चुनौतियों का सामना करने के लिए हमारी एजेंसियों के एकीकृत प्रयास, और सबसे ऊपर राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है.”

इंटेलिजेंस नोट में आतंकवादी गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए घाटी में जिलों की सीमाओं पर मानव और तकनीकी इंटेलिजेंस के एक्शन प्लान को विस्तार देने का सुझाव दिया गया है. इसमें कहा गया है, “सूचना के आदान-प्रदान और समन्वित कार्रवाई के लिए राज्य पुलिस और अन्य एजेंसियों से नियमित संपर्क हर हालत में बनाए रखा जाना चाहिए. लक्षित ऑपरेशन के लिए इस संबंध में कोई भी महत्वपूर्ण सूचना सभी संबंधित लोगों को फौरन दी जानी चाहिए”

जाने-माने आंतरिक सुरक्षा विशेषज्ञ अजय साहनी ने फ़र्स्टपोस्ट से कहा कि हालात 1990 जितने खराब नहीं हैं और हमने बीते दो साल में नागरिकों को न्यूनतम और आतंकवादियों को अधिकतम नुकसान पहुंचाने के लिए लक्षित ऑपरेशंस देखे हैं. वह कहते हैं कि 2017 में मौतों की संख्या में इजाफा हुआ है, लेकिन सुरक्षा हालात का आकलन करने के लिए इसकी 1990 और 2000 के दशक से तुलना करना समझदारी नहीं है, क्योंकि वह घटनाओं और मौतों का बहुत मामूली दौर था.

साहनी कहते हैं कि 2018 में आतंकवादी घटनाओं से जुड़ी हिंसा में मौतें सिर्फ 29 तहसीलों में सीमित हैं और सिर्फ 5 तहसीलों में 60 फीसद मौतें होना दिखाता है कि हिंसा का क्षेत्र सिमट रहा है. “मुझे कुछ भी नया रवैया नहीं दिखता और आतंकवाद-विरोधी ऑपरेशंस बिना राष्ट्रवादी गुलगपाड़े के जारी रहेंगे, जिसकी गूंज शायद हमें दिल्ली में सुनाई दे. हम जो देखने जा रहे हैं, वह है इलाके को खाली कराके सर्च ऑपरेशन चलाने के भारी भरकम ऑपरेशंस के बजाय सटीक इनपुट पर आधारित सीमित ऑपरेशंस चलते रहेंगे. अगर आप बीते कुछ सालों में नागरिकों की मौतों की संख्या को देखें तो, तो इसमें काफी कमी आई है. और आतंकवादियों की मौत में काफी बढ़ोत्तरी हुई है.”

साहनी ने कहा कि यहां तक कि बीते साल की तुलना में पत्थरबाजी की घटना में भी काफी कमी आई है. मुझे लगता है कि इस तरह के लक्ष्य आधारित ऑपरेशंस जारी रहेंगे, क्योंकि हमने पूर्व में देखा है कि इससे अच्छे नतीजे मिलते हैं.”

गवर्नर रुल के दो दिन बाद ही सर्च आपरेशन को आये सुरक्षा बलों का स्वागत चाय नाश्ते से करवाते कश्मीरी लोग

सर्च आपरेशन को आये सुरक्षा बलों का स्वागत चाय नाश्ते से करवाते कश्मीरी लोग

 

नई दिल्‍ली:

जम्मू-कश्मीर में राज्‍यपाल शासन लागू होते ही घाटी की हवाओं ने अपना रुख बदल लिया है. घटी की इस बदली हुई हवा की बानगी J&K में राष्‍ट्रपति शासन लागू होने के बाद सुरक्षाबलों द्वारा चलाए गए सर्च ऑपरेशन के दौरान देखने को मिली. दरसअल, बुधवार सुबह आतंकियों की तलाश में सुरक्षाबलों ने घाटी के कुछ गांवों में सर्च आप्रेशन चलाया था. सर्च ऑपरेशन के दौरान पहली बार सुरक्षाबलों के जवानों को न ही किसी तरह के विरोध का सामाना करना पड़ा और न ही किसी तरह की पत्‍थरबाजी झेलनी पड़ी. जवानों के अचंभे का उस वक्‍त कोई ठिकाना नहीं रहा, जब गांव वालों ने जवानों को सामने चाय और नाश्‍ते की पेशकश रख दी. जम्‍मू-कश्‍मीर में सालों से तैनात सुरक्षाबलों के सामने पहली बार ऐसा मौका आया था, जब‍ घाटी के गांव वाले बिना किसी डर के इतनी सहृदयता से उनके साथ पेश आए हों.

सुरक्षबलों से जुड़े वरिष्‍ठ अधिकारी के अनुसार बुधवार सुबह सूचना मिली थी कि कुछ आतंकी दक्षिण और उत्‍तरी कश्‍मीर के दो गांवों में छिपे हुए हैं. इंटेलीजेंस इनपुट में जिन दो गांवों के नाम का उल्‍लेख किया गया था, वे दोनों गांव दशकों से हिंसा के लिए बदनाम रहे हैं. सुरक्षाबलों का अनुभव भी इन गांवों को लेकर अच्‍छा नहीं था. अपने पुराने अनुभवों को ध्‍यान में रखते हुए सुरक्षाबलों ने इन गांवों की तरफ रवानगी से पहले सभी एहतियाती बंदोबस्‍त पूरे किए. सुरक्षाबलों को आशंका थी कि सर्च ऑपरेशन के दौरान उन्‍हें भारी पत्‍थरबाजी का समाना करना पड़ सकता है. लिहाजा, जवानों को कई टीमों में बांट दिया गया. कमांडो और स्‍नाइपर्स का चुनाव ऑपरेशन टीम के लिए किया गया. इसके अलावा, दूसरी टीम को इलाके के घेरेबंदी की जिम्‍मेदारी दी गई. वहीं तीसरी टीम की जिम्‍मेदारी थी कि वे किसी भी सूरत में पत्‍थरबाजों को ऑपरेशन एरिया में दाखिल नहीं होने देंगे.

इतना ही नहीं, सैकड़ों जवानों को रि-इर्फोसमेंट के लिए दोनों गांवों से कुछ दूरी पर रिजर्व कर दिया गया. जिससे पत्‍थरबाजी होने पर पत्थरबाजों की घेरेबंदी कर अपने जवानों को सुरक्षित बाहर निकाला जा सके. गांव में दाखिल होने से पहले जवानों ने आखिरी बार अपनी तैयारियों का जायजा लिया और एक-एक करके सुरक्षाबलों के काफिले की बख्‍तरबंद गाड़ियां गांव में दाखिल होने लगी. बख्‍तरबंद गाड़ियों में मौजूद जवान सड़क के दोनों तरफ मौजूद लोगों के हवाभाव पड़ने की कोशिश में लग गए. इस दौरान, गांव वालों के चेहरे पढ़कर उन्‍हें आभास हुआ कि गांव वालों की निगाहों में सुरक्षाबलों के आगमन को लेकर एक प्रश्‍नचिन्‍ह जरूर था, लेकिन किसी के चेहरे पर आक्रोश नजर नहीं आ रहा था.

इस्लामिक स्टेट जम्मू एंड कश्मीर के 4 आतंकी ढेर

 

जम्मू-कश्मीर के अनंतनाग जिले में सुरक्षाबलों ने चार आतंकियों को मार गिराया है. ये आतंकी ‘इस्लामिक स्टेट जम्मू एंड कश्मीर’ नामक आतंकी संगठन से जुड़े हुए थे. इस मुठभेड़ के दौरान जम्मू कश्मीर स्टेट का एक पुलिस शहीद हो गया और साथ ही कुछ आम नागरिक भी घायल हो गएं. घायल हुए सिविलियन में से एक की पहचान मुहम्मद युसूफ बताई जा रही है. असल में आतंकी युसूफ के घर में छुपे थे. जिसके कारण मुठभेड़ में उसकी जान चली गई. साथ ही उसकी पत्नी हफिज़ा भी घायल हो गई. उन्हें अभी अस्पताल में भर्ती कराया गया है.

सुरक्षाबलों को एक दिन पूर्व ही वहां आतंकियों के छिपे होने की सूचना मिली थी, जिसके बाद उन्होंने पूरे इलाके को घेर लिया. इस दौरान आतंकियों ने खुद को घिरा देख फायरिंग शुरू कर दी, जिसके बाद सुरक्षाबलों ने जवाबी कार्रवाई करते हुए चार आतंकियों को मार गिराया.फिलहाल इन इलाकों (अनंतनाग और पुलवामा ) में सुरक्षा मामलों को देखते हुए मोबाइल और इंटरनेट सेवा बंद कर दिया गया है.

मारे गए आतंकवादियों को इस्लामिक स्टेट जम्मू कश्मीर (ISJ&K) से संबंधित बताया जा रहा है.

रमजान के दौरान सीजफायर पर लगे प्रतिबंध के हट जाने के बाद से जम्मू-कश्मीर में भारतीय जवान आतंकियों पर लगातार कार्रवाई कर रहे हैं. एक पुलिस अधिकारी ने बताया कि आंतकवादियों के मौजूद होने की विशेष खुफिया सूचना मिलने के बाद सुरक्षा बलों ने दक्षिणी कश्मीर के इस जिले में श्रीगुफवारा क्षेत्र की घेराबंदी कर तलाशी अभियान शुरू कर दिया था. सुरक्षाबलों को इलाके में तीन आतंकियों के छुपे होने की सूचना मिली थी.

उन्होंने पूरे इलाके को घेर लिया. पुलिस अधिकारियों ने कहा कि तलाशी अभियान के दौरान आतंकवादियों ने सुरक्षाबलों के ऊपर गोलियां चलानी शुरू कर दीं. जवाब में जवानों ने भी कार्रवाई की.वहीं स्‍थानीय लोगों को घरों के अंदर रहने की हिदायत दे दी गई है.

बता दें कि बीते कुछ दिनों से घाटी की स्थिती तनावपूर्ण रही है. चाहे वो वरिष्ठ पत्रकार शुजात बुखारी की हत्या हो या शहीद औरंगजेब की. घाटी अशांती और आतंकवाद से जूझ रही है. ऐसे में इसे अचानक जम्मू-कश्मीर सरकार के निरस्त हो जाने के आफ्टइफेक्ट्स की तरह भी देखा जा रहा है. तभी तो आज राज्यपाल एन.एन.वोहरा ने आज घाटी की मौजूदा हालात पर चर्चा करने के लिए सभी राज्य और राष्ट्रीय स्तर की सभी पार्टीयों की सर्वदलीय बैठक बुलाई है.