बिहार कांग्रेस्स ने रखी राहुल के भूचाल की लाज
राहुल गांधी ने देश से वादा किया था कि अगर वो संसद में बोलेंगे तो भूकंप आ जाएगा, वह संसद में बहुत बोले, भूकंप नहीं आया लेकिन बिहार के कांग्रेसियों ने उनके दावे की लाज रख ली
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने देश से वादा किया था कि अगर वो संसद में बोलेंगे तो भूकंप आ जाएगा. वह संसद में बहुत बोले. भूकंप नहीं आया. लेकिन, बिहार के कांग्रेसियों ने उनके दावे की लाज रख ली. राहुल शुक्रवार को संसद में बोल रहे थे. इधर भागलपुर में कांग्रेसियों की बैठक में भूकंप का नजारा चल रहा था. नेता-कार्यकर्ता एक दूसरे को धकिया कर बैठक वाले कांग्रेस भवन से बाहर कर रहे थे. बिल्कुल भूकंप जैसा माहौल था. बुजुर्ग कांग्रेसी सदानंद सिंह, जो इस समय विधायक दल के नेता हैं, विधानसभा के साथ-साथ कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके हैं, इस आपाधापी में गश खाकर गिर गए. सबको एक रहने की हिदायत देने आए कांग्रेस के प्रभारी सचिव वीरेंद्र सिंह राठौर बमुश्किल जान बचा कर भागे.
यह उसी समय में हो रहा था, जब संसद में केंद्र सरकार के खिलाफ पेश अविश्वास प्रस्ताव पर बहस चल रही थी. कांग्रेस के नगर विधायक अजीत शर्मा और पार्टी के नेता प्रवीण कुशवाहा के समर्थक अपना जौहर दिखा रहे थे. तभी यह दृश्य उपस्थित हुआ. इस अप्राकृतिक ‘भूकंप’ की चपेट में आए सदानंद सिंह ने दोषी नेताओं के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है. दरअसल, राज्य में कांग्रेस लंबे समय से नेतृत्वविहीन है. इधर आलाकमान ने एक महासचिव और दो सचिवों को राज्य में पार्टी की मजबूती का जिम्मा दिया है. कांग्रेसी इसी तरीके से अपनी ताकत का अहसास कराते रहते हैं.
90 के बाद खानाबदोश की जिंदगी
बिहार में कांग्रेस 1990 में सत्ता से बेदखल हुई. तभी से वह खानाबदोश वाली जिंदगी बसर कर रही है. लंबे समय तक वह आरजेडी के आसरे रही. बीच में कुछ दिनों के लिए उसे जेडीयू का भी सहारा मिला. आजकल फिर आरजेडी के साथ है. इस अवधि में कभी भी आलाकमान की ओर से इस बात की गंभीर कोशिश नहीं की गई कि कांग्रेस को अपने पैरों पर खड़ा किया जाए.
इस दौर में जितने अध्यक्ष बने, सबको गुटबाजी का शिकार होना पड़ा. लंबे समय तक सत्ता में रहने के कारण कांग्रेसियों की सड़क पर उतर कर संघर्ष करने की क्षमता खत्म होती गई. पार्टी में पूर्व सांसद और पूर्व विधायक इफरात में हैं. इन्हें रेलवे में मुफ्त सफर की सुविधा है. दिल्ली में रहने के लिए बिहार भवन के कमरे आसानी से मिल जाते हैं. इन सुविधाओं का इस्तेमाल कांग्रेसियों ने आलाकमान के सामने एक दूसरे की कब्र खोदने के लिए किया. आप कांग्रेस के बड़े नेताओं के रोजनामा पर गौर करें तो पाएंगे कि क्षेत्र से अधिक इनके दौरे दिल्ली के होते हैं.
करीब 20 वर्षों से आलाकमान से मुलाकात की खबरों का एक फॉर्मेट बना हुआ है-‘आलाकमान से मुलाकात हुई. राज्य की राजनीतिक स्थिति पर गंभीर चर्चा हुई.’ चर्चा कितनी गंभीर हुई, इसका पता आजतक किसी को नहीं चला. क्योंकि 2015 के विधानसभा चुनाव परिणाम को छोड़ दें तो राज्य में कांग्रेस की कामयाबी हमेशा गिरते क्रम में रही है. 1990 के विधानसभा चुनाव में 71, 1995 में 29, 2000 में 23, 2005 के फरवरी में 10, अक्टूबर में 09 और 2010 में सिर्फ चार विधायक जीत पाए. इस चुनाव की खासियत यह थी कांग्रेस अपने दम पर लड़ी थी. सभी 243 सीटों पर उसके उम्मीदवार खड़े थे. आठ फीसदी से अधिक वोट मिले थे.
अंदरूनी संकट का कारण पिछला चुनाव परिणाम भी है
असल में राज्य कांग्रेस में मौजूद अंदरूनी संकट का कारण विधानसभा का पिछला परिणाम भी है. 41 सीटों पर लड़ाई. उसमें 27 पर जीत. लगता है कि कांग्रेसियों ने इस जीत में अपने योगदान को माइनस कर दिया है. सबके सब इस बहस में उलझे हुए हैं कि इतनी शानदार जीत किसके चलते हुई. वह चुनाव महागठबंधन के बैनर तले हुए था. आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद और सीएम नीतीश कुमार जोर लगाए हुए थे. आने वाले नवंबर में उस चुनाव को हुए तीन साल पूरे हो जाएंगे, कांग्रेसी अभी तक यह तय नहीं कर पाए हैं कि उस जीत का असली श्रेय किसे दिया जाए.
कुछ विधायक इसका श्रेय नीतीश कुमार को देते हैं. एहसान चुकाने की गरज से ही प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष डा अशोक चौधरी विधान परिषद के दो अन्य सदस्यों के साथ जेडीयू में चले गए. इधर जो विधायक हैं, उनके मन में संघर्ष चल रहा है- कांग्रेस में रहें, इधर(आरजेडी) रहें कि उधर (जेडीयू) चले जाएं. उनकी बेचैनी समझने लायक है. कई बार विधायक और एक बार सांसद रहे बुजुर्ग कांग्रेसी रामदेव राय भी नीतीश कुमार की तारीफ करते नहीं थकते. उन्होंने कहा, मैं खांटी कांग्रेसी की हैसियत से नीतीश के कामकाज की तारीफ करता हूं. सच्चा कांग्रेसी कभी झूठ नहीं बोलता. राय के वक्तव्य को कांग्रेस में भूकंप की आशंका के तौर पर देखा जा रहा है.
असर मापने का कोई पैमाना नहीं बन सका
कांग्रेस के किस नेता का राज्य में कितना असर है? इसके मूल्यांकन की अजीबोगरीब प्रणाली अपनाई गई है. आलाकमान ने हमेशा अपने प्रभारी की रिपोर्ट पर भरोसा किया. प्रभारी की रिपोर्ट में जो कुछ कहा गया, आंख मूंदकर उस पर अमल किया गया. लिहाजा कांग्रेसी उतने ही समय तक सक्रिय रहते हैं, जितने समय तक प्रभारी राज्य में मौजूद रहते हैं.
पटना एयरपोर्ट से लेकर प्रदेश मुख्यालय सदाकत आश्रम तक पार्टी की सक्रियता उस दिन देखते ही बनती है, जिस दिन प्रभारी, कांग्रेस के किसी बड़े नेता या आलाकमान की ओर से तैनात किसी प्रतिनिधि का पटना आगमन होता है. नई-पुरानी गाड़ियों का काफिला यह बताते चलता है कि कांग्रेस में बड़ी जान है. प्रभारी के सामने ताकत का प्रदर्शन अक्सर मारपीट के जरिए ही होता रहा है. इससे पहले सदाकत आश्रम में मारपीट की कई घटनाएं हो चुकी हैं. भागलपुर में भी वही हुआ. हां, उस घटना के बाद प्रभारी एहतियात बरत रहे हैं. अब उनकी हिफाजत का खास खयाल रखा जा रहा है.
प्रभारियों के साथ एक और बात होती है. सत्ता में न रहने के बावजूद उनपर रिश्वतखोरी के आरोप लग जाते हैं. पहले वाले प्रभारी महासचिव सीपी जोशी पर ऐसे आरोप इफरात में लगे. राज्य में पार्टी के प्रति आलाकमान की गंभीरता का अंदाजा इस तथ्य से लगाइए कि प्रदेश अध्यक्ष का पद करीब साल भर से प्रभार में चल रहा है. यह अलग बात है कि जिस दिन नए प्रदेश अध्यक्ष की घोषणा हुई, गुटबाजी फिर तेज हो जाएगी.