कश्मीरी पंडितों को न्याय दिलाने के लिए 32 साल बाद सुप्रीम कोर्ट में दायर हुई याचिका

कश्मीर पंडितों के नरसंहार के 32 साल बाद गुरुवार को सर्वोच्च न्यायालय में न्याय के लिए गुहार लगाई गई।  कश्मीरी पंडितों के एक संगठन ने 1989-90 में कश्मीरी पंडितों की कथित तौर पर सामूहिक हत्या और नरसंहार में न्याय के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक क्यूरेटिव पिटिशन दायर की है।

नयी दिल्ली(ब्यूरो), डेमोक्रेटिक फ्रंट :

कश्मीरी पंडितों के संगठन “रूट्स इन कश्मीर” ने आज सुप्रीम कोर्ट में एक क्यूरेटिव याचिका दायर कर 1990 के दशक के दौरान घाटी में चरमपंथ के दौरान कश्मीरी पंडितों की हत्याओं की जांच की मांग की है। क्यूरेटिव पिटीशन सुप्रीम कोर्ट के 2017 के उस फैसले के खिलाफ दायर की गई है, जिसने लंबी देरी का हवाला देते हुए जांच के लिए संगठन की याचिका को खारिज कर दिया था।

अपनी और अपने परिजनों की जान बचाने के लिये आज से तीन दशक पहले अपने घरों से पलायन के लिये मजबूर हुये कश्मीर पंडित तीन दशक से भी अधिक समय से न्याय का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। कश्मीरी पंडितों के लिये 19 जनवरी 1990 की रात ऐसी है, जिसे वे ताउम्र नहीं भूल सकते हैं।

हर साल कश्मीर को लेकर व्यर्थ की बहसें होती हैं, आभासी दुनिया में बहसबाजी होती है तथा टीवी चैनलों पर आरोप और प्रत्यारोपों का दौर चलता है कि नहीं इसके लिये जगमोहन जिम्मेदार थे, तो नहीं इसके लिये फारुख अब्दुल्ला जिम्मेदार थे। ये सभी बहसें एक दिन में फिर अतीत का हिस्सा बनकर रह जाती हैं। इसी के बीच 11 मार्च को विवेक अग्निहोत्री द्वारा निर्देशित द कश्मीर फाइल्स रिलीज होती है और सिल्वर स्क्रीन पर धूम मचा देती है।

इसके बाद एक बार फिर चचार्ओं का एक दौर शुरू हो जाता है लेकिन इन चर्चाओं से एक मुख्य बिंदु अब भी नदारद होता है और वह है- न्याय। लेकिन इस बार कुछ अलग था। फिल्म ने देश की सोई हुई चेतना को झकझोर कर रख दिया। इस फिल्म में कश्मीरी पंडितों के पलायन को बेहद बेबाक तरीके से दिखाया गया है। निर्देशक अग्निहोत्री का कहना है कि आतंकवाद के आगमन के बाद कश्मीर पर कई फिल्में बनायी गयीं लेकिन उनमें आमतौर पर आतंकवाद को रोमांटिक रूप दिय किया और उन्होंने कभी भी कश्मीरी हिंदुओं पर हुये अत्याचार की बात नहीं की।

इसमें कोई शक नहीं कि फिल्म ने देशवासियों को यह दिखाया कि कश्मीर की हसीं वादियों में 80 के दशक के अंत और 90 के दशक की शुरूआत में क्या-क्या हुआ था। लेकिन क्या कोई फिल्म आतंकवाद प्रभावित अल्पसंख्यक समुदाय को न्याय दिला पायेगी? अग्निहोत्री ने अपनी भूमिका निभा दी है लेकिन अब गेंद सरकार के पाले में है और यह हमेशा से सरकार के ही पाले में थी। इस घटना को तीन दशक से अधिक समय बीत चुका है जब कश्मीर के मूल निवासियों को क्रूर अत्याचारों का सामना करना पड़ा। तो अब इन मामलों की पड़ताल क्यों न की जाये?

आईएएनएस ने इसी मसले को लेकर कुछ कानूनविदों से बात की जिससे कश्मीरी पंडितों को न्याय दिलाने का रास्ता सुगम हो सके । सुप्रीम कोर्ट के वकील अश्विनी उपाध्याय कहते हैं, यह एक तथ्य है कि कश्मीरी पंडितों का अपहरण किया गया, उन पर हमला किया गया, बर्बर तरीके से बलात्कार किया गया, बेरहमी से हत्या की गयी और उनका नरसंहार हुआ। इस घटना को अगर 30 साल बीत गये तो क्या होगा? अब जहां तक न्याय के अधिकार का सवाल है, तो इसकी कोई समय सीमा नहीं होती है।

उपाध्याय ने आईएएनएस से कहा कि कश्मीर में हिंदू नरसंहार के पीड़ितों को पहले उस राज्य के प्रमुख यानी जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा से संपर्क करना चाहिये। उन्होंने कहा, यह अधिक उपयुक्त होगा यदि पीड़ित सामाजिक कार्यकतार्ओं या नेताओं के बजाय सीधे एलजी से संपर्क करें। उपाध्याय ने कहा कि कश्मीरी पंडितों को जम्मू-कश्मीर एलजी से एनआईए से इस घटना की जांच कराने की मांग करनी चाहिये। उन्होंने कहा, मेरा मानना है कि यह सबसे प्रभावी जांच होगी क्योंकि वहां बड़े पैमाने पर हिंसा हो रही है और विदेशी फंडिंग हो रही है।

उपाध्याय ने कहा कि कश्मीरी पंडित अब देश के अलग-अलग हिस्से में बस गये हैं और अगर वे एलजी से मिलने में सक्षम नहीं हैं तो वे कम से कम एक मेल भेज सकते हैं। उन्होंने कहा, अगर एलजी उन्हें जवाब नहीं देते हैं या उनके अनुरोध पर कार्रवाई नहीं करते हैं, तो उन्हें सीधे हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाना चाहिये। उन्होंने कहा कि अगर हाईकोर्ट भी उन्हें कोई राहत नहीं देता है तो वे सुप्रीम कोर्ट का रुख कर सकते हैं। उपाध्याय ने कहा कि वह सुप्रीम कोर्ट में कश्मीर नरसंहार का मामला बिना फीस के लड़ने के लिये तैयार हैं। उपाध्याय कहते हैं कि पंडित समुदाय के प्रत्येक सदस्य को शारीरिक क्रूरता का सामना नहीं करना पड़ा लेकिन फिर भी पलायन का उन पर अलग-अलग प्रभाव पड़ा। उन्होंने कहा,चोट हमेशा शारीरिक नहीं होती है बल्कि यह सामाजिक, वित्तीय और मानसिक आघात भी भी सकता है।

उन्होंने कहा, यहां तक कि जान से मारने की धमकी देना भी भारतीय दंड संहिता की धारा 506 (आपराधिक धमकी के लिये सजा) के तहत एक अपराध है। वहां से सभी हिंदू पलायन कर गये क्योंकि उन्हें धमकी दी गयी थी। लेकिन अल्पसंख्यक समुदाय का कोई सदस्य 30 साल बाद सबूत कैसे जुटायेगा? उपाध्याय इस पर कहते हैं, देखें साक्ष्य दो प्रकार के होते हैं: एक भौतिक साक्ष्य है और दूसरा परिस्थितिजन्य साक्ष्य है। न्याय करना अधिक महत्वपूर्ण हैं। अदालतें परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर भी न्याय कर सकती हैं। नार्को पॉलीग्राफ और ब्रेन मैपिंग को लेकर कोई कानून नहीं है लेकिन इसे एक असाधारण मामला मानते हुये अदालत आरोपियों का नार्को पॉलीग्राफ और ब्रेन मैपिंग टेस्ट कराने का निर्देश दे सकती है और उसके परिणाम के आधार पर अदालत फैसला सुना सकती है।

दिल्ली के एक अन्य वकील विनीत जिंदल ने आईएएनएस से बात करते हुये कहा कि पंडित समुदाय के लोग, जो अब विस्थापित हो चुके हैं और वर्तमान में देश के विभिन्न हिस्सों में रह रहे हैं, वे भी जीरो एफआईआर के विकल्प का इस्तेमाल कर सकते हैं। एक जीरो एफआईआर में सीरियल नंबर नहीं होता है, इसके बजाय इसे 0 नंबर दिया जाता है। यह उस क्षेत्र की परवाह किये बिना पंजीकृत होता है, जहां अपराध किया गया है। कोई भी पुलिस स्टेशन जीरो एफआईआर दर्ज करने के बाद मामले को उस क्षेत्राधिकार वाले पुलिस स्टेशन में स्थानांतरित कर देता है, जहां अपराध हुआ है।

अधिवक्ता जिंदल, जो एक सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं, उन्होंने अभी एक दिन पहले राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद को पत्र लिखकर कश्मीरी पंडितों के नरसंहार से जुड़े मामलों को फिर से खोलने और अब तक दर्ज मामलों की पूरी जांच के लिये एक विशेष जांच दल गठित करने की मांग की थी। जिंदल ने आईएएनएस से कहा, सरकार को उन पीड़ितों को एक मंच प्रदान करना चाहिये जो उस समय की प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण उस विशेष समय में अपने मामलों की रिपोर्ट करने में असमर्थ थे।

उन्होंने कहा कि 215 प्राथमिकी दर्ज की गयी हैं और मामलों की जांच जम्मू-कश्मीर पुलिस द्वारा की गयी है लेकिन जांच से कोई ठोस परिणाम नहीं निकला। उन्होंने कहा, इसलिए, यह निश्चित रूप से एक संदेह पैदा करता है कि इन प्राथमिकियों के लिये किस तरह की जांच की गयी। केंद्र सरकार भी पीड़ितों के परिवारों के लिये न्याय सुनिश्चित करने में विफल रही। इस बीच पंडित समुदाय हालांकि, इस तथ्य से संतुष्ट है कि कम से कम उनके उत्पीड़न की कहानी अब लोगों से छिपी नहीं है लेकिन फिर भी न्याय का इंतजार अभी बाकी है।

CM केजरीवाल ने टैक्स फ्री करने से किया इनकार, स्वरा-तापसी की फिल्मों को किया था TAX FREE लेकिन कहा ‘The Kashmir Files को यूट्यूब पर डाल दो’

दिल्ली में बीजेपी संसदीय दल की बैठक को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कश्मीरी पंडितों की बदहाली पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि कश्मीर के जिस सत्य को दबाने की कोशिश की गई थी, वह सच इस फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ में दिखाया गया है। प्रधानमंत्री ने आगे कहा कि इस फिल्म में कश्मीर का सच दिखाया गया है, सभी को फिल्म देखनी चाहिए और इस तरह की फिल्में आगे भी बनती रहनी चाहिए, जिससे सच सामने आ सके।

नयी दिल्ली(ब्यूरो), डेमोक्रेटिक फ्रंट :

कश्मीरी पंडितों पर केंद्रित फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ को लेकर जारी सियासी घमासान थमता नहीं दिख रहा है। अब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस मसले पर बीजेपी पर तीखा हमला बोला है। 24 मार्च को विधानसभा में अरविंद केजरीवाल ने अपने भाषण के दौरान उन्होंने कहा कि ‘आज सारे देश में भारतीय जनता पार्टी गली-गली में एक पिक्चर के पोस्टर लगा रही है। क्या इसलिये राजनीति करने आए थे, पिक्चरों के पोस्टर लगाए? अपने बच्चों को क्या जवाब दोगे? बच्चे पूछेंगे कि क्या करते हो…पिक्चर के पोस्टर लगाता हूं।’

केजरीवाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तीखा हमला बोला।

केजरीवाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तीखा हमला बोला। अरविंद केजरीवाल ने कहा कि ‘8 साल सरकार चलाने के बाद अगर किसी देश के प्रधानमंत्री को विवेक अग्निहोत्री के चरणों में शरण लेनी पड़े तो इसका मतलब उस प्रधानमंत्री ने कोई काम नहीं किया है। 8 साल खराब कर दिये। कह रहे हैं कि कश्मीर फाइल्स को फ्री करो…अरे यू-ट्यूब पर डाल दो, फ्री हो जाएगी। टैक्स फ्री क्यों करवा रहे हो। इतना ही शौक है तो विवेक अग्निहोत्री यूट्यूब पर डाल दे, सारे जने देख लेंगे एक ही दिन के अंदर। कश्मीरी पंडितों के नाम पर कुछ लोग करोड़ों-करोड़ कमा रहे हैं और तुम लोगों को पोस्टर लगाने का काम दे दिया। आंखें खोलो…।’

हालाँकि, इस बयान के बाद अब दिल्ली के मुख्यमंत्री को लोग पुराने फैसले याद दिलाते हुए घेर रहे हैं। बता दें कि 22 अप्रैल, 2016 को उन्होंने स्वरा भास्कर की फिल्म ‘निल्ल बटे सन्नाटा’ को टैक्स फ्री करने की घोषणा करते हुए कहा था कि सभी लोगों को ये मूवी ज़रूर देखनी चाहिए। इतना ही नहीं, उन्होंने तापसी पन्नू की फिल्म ‘साँड की आँख’ को भी 25 अक्टूबर, 2019 को टैक्स फ्री करने की घोषणा करते हुए कहा था कि सभी उम्र और जेंडर के लोगों को ये देखनी चाहिए। यह

वास्तविक बात है कि यह दोनों अभिनेत्रियाँ राष्ट्रवाद के खिलाफ हैं और स्पष्टता से भाजपा विरोधियों ए साथ हैं। स्वरा तो बिना जाने हुए भी संशोधित नागरिकता कानून के खिलाफ बहुत आगे आई। स्वरा भास्करर ने पूर्वी दिल्ली से आम आदमी पार्टी की प्रत्याशी आतिशी के पक्ष में शास्त्री पार्क में फिल्म अभिनेत्री स्वरा भास्कर और गुजरात के विधायक जिग्नेश मेवानी ने रोड शो किया। इन दौरान स्वरा ने आतिशी के पक्ष में मतदान करने की अपील की।

बता दें कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ ने भारत में 200 करोड़ रुपए से भी अधिक कमा लिए हैं। दुनिया भर में इस फिल्म का प्रदर्शन शानदार रहा है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, असम, कर्नाटक, बिहार, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, उत्तराखंड और त्रिपुरा जैसे राज्यों में इसे टैक्स फ्री का दर्जा दे दिया गया है। फिल्म की धुआँधार कमाई अब भी जारी है। इस फिल्म में अनुपम खेर, दर्शन कुमार, मिथुन धकरवर्ती, पल्लवी जोशी और पुनीत इस्सर मुख्य भूमिकाओं में हैं।

यूपी – हिमाचल के बाद हरियाणा में जबरन धर्मांतरण पर 10 साल तक की सजा, ₹5 लाख तक जुर्माना: विधानसभा से बिल पारित, कॉन्ग्रेस ने किया विरोध

जबरन धर्मांतरण साबित होने पर अधिकतम दस साल कैद व न्यूनतम पाँच लाख रुपए का जुर्माना होगा। इसके अलावा यदि शादी के लिए धर्म छिपाया जाता है तो 3 से 10 साल तक की जेल और कम से कम 3 लाख रुपए जुर्माना लगेगा। वहीं सामूहिक धर्म परिवर्तन के संबंध में 5 से 10 साल तक की जेल और कम से कम 4 लाख रुपए के जुर्माने का प्रावधान है। इस विधेयक के तहत किया गया प्रत्येक अपराध संज्ञेय और गैर-जमानती होगा।

चंडीगढ़ संवाददाता, डेमोक्रेटिक फ्रंट(ब्यूरो) – 22 मार्च :

हरियाणा विधानसभा ने बल, अनुचित प्रभाव अथवा लालच के जरिए धर्मांतरण कराने के खिलाफ एक विधेयक मंगलवार को पारित किया। कांग्रेस ने विधेयक पर विरोध जताया और सदन से बर्हिगमन किया। विधानसभा में चार मार्च को पेश किया गया यह विधेयक मंगलवार को चर्चा के लिए लाया गया। इसके मुताबिक, साक्ष्य पेश करने की जिम्मेदारी आरोपी की होगी।

सरकार ने जबरन धर्मांतरण के विरुद्ध विधेयक में कड़े प्रावधान किए हैं। हरियाणा गैर-कानूनी धर्मांतरण रोकथाम विधेयक, 2022 (Haryana Prevention of Unlawful Conversion of Religion Bill, 2022) के मुताबिक, अगर लालच, बल या धोखाधड़ी के जरिए धर्म परिर्वतन किया जाता है तो एक से पाँच साल तक की सजा और कम से कम एक लाख रुपए के जुर्माना का प्रावधान है।

विधेयक के मुताबिक, जो भी नाबालिग या महिला अथवा अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति का धर्म परिवर्तन कराता है या इसका प्रयास करता है तो उसे कम से कम चार साल जेल का सजा मिलेगी, जिसे बढ़ाकर 10 साल और कम से कम तीन लाख रुपए का जुर्माना किया जा सकता है।

जबरन धर्मांतरण साबित होने पर अधिकतम दस साल कैद व न्यूनतम पाँच लाख रुपए का जुर्माना होगा। इसके अलावा यदि शादी के लिए धर्म छिपाया जाता है तो 3 से 10 साल तक की जेल और कम से कम 3 लाख रुपए जुर्माना लगेगा। वहीं सामूहिक धर्म परिवर्तन के संबंध में 5 से 10 साल तक की जेल और कम से कम 4 लाख रुपए के जुर्माने का प्रावधान है। इस विधेयक के तहत किया गया प्रत्येक अपराध संज्ञेय और गैर-जमानती होगा।

हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने विधेयक पर बोलते हुए कहा कि इसका उद्देश्य किसी धर्म के साथ भेदभाव करना नहीं है। यह केवल जबरन धर्मांतरण के मामलों में काम करेगा। विधेयक में उन विवाहों को अवैध घोषित करने का प्रावधान है, जो पूरी तरह से एक धर्म से दूसरे धर्म में धर्मांतरण के उद्देश्य से किए गए हों। 

मुख्यमंत्री ने कहा कि पिछले 4 सालों में जबरन धर्मांतरण के 127 मामले दर्ज हुए हैं। धर्मांतरण एक बड़ी समस्या है। कोई अपनी इच्छा से कानूनी तरीके से अपना धर्म बदल सकता है, लेकिन अवैध धर्मांतरण के लिए अधिनियम पारित किया गया है।

वहीं नेता प्रतिपक्ष भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने कहा कि मौजूदा कानूनों में ही जबरन धर्मांतरण कराए जाने पर सजा का प्रावधान है, ऐसे में एक नया कानून लाए जाने की कोई जरूरत नहीं थी। कॉन्ग्रेस की वरिष्ठ नेता किरण चौधरी ने कहा कि यह विधेयक एक एजेंडे के साथ लाया गया है। इसका उद्देश्य समुदायों के बीच विभाजन को गहरा करना है, जो कि ‘अच्छा विचार’ नहीं है।

बता दें कि हरियाणा कैबिनेट ने धर्मांतरण रोकथाम विधेयक 2022 को पहले ही इजाजत दे दी थी। 4 मार्च 2022 को गृह मंत्री अनिल विज ने इस संबंध में विधानसभा में बिल पेश किया था। विश्व हिंदू परिषद (VHP) ने राज्य सरकार के इस कदम की सराहना की थी। वीएचपी के संयुक्त महामंत्री सुरेंद्र जैन ने कहा था कि इस बिल से राज्य सरकार ने अपने दृढ़ संकल्प को दिखाया है। उल्लेखनीय है कि इससे पहले उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश में यह कानून बन चुका है।  

गांधी और ‘CWC’ की आँख की किरकरी थे ‘शहीद भगत सिंह’

मोहन दास कर्मचंद गांधी ने कभी भी दिल से भगत सिंह की फांसी को रद्द करवाने का प्रयास नहीं किया।  18 फरवरी 1931 को उन्होंने खुद अपने एक लेख में ये माना था कि कांग्रेस वर्किंग कमिटी (CWC) कभी नहीं चाहती थी कि जब गांधी और वायसराय लॉर्ड इरविन के बीच समझौते के लिए बातचीत शुरू हो तो इसमें भगत सिंह की फांसी को रद्द करवाने की शर्त जोड़ी जाए।  महात्मा गांधी ने ये जानते हुए भी उस समय भगत सिंह का खुल कर साथ नहीं दिया कि अंग्रेजी सरकार ने उनके खिलाफ एकतरफा मुकदमा चलाया था। वायसराय लॉर्ड इरविन ये भी कहा था कि “अगर गांधी इस पर उन्हें विचार करने के लिए कहते हैं, तो वो इस पर सोचेंगे।”

डेमोक्रेटिक फ्रंट :

सारिका तिवारी,

23 मार्च 1931 को महान क्रान्तिकारी भगत सिंह, सुखदेव थापर और शिवराम हरि राजगुरु को ब्रिटिश सरकार द्वारा लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी की सजा दी गई थी।  भगत सिंह कहते थे कि बम और पिस्तौल से क्रान्ति नहीं आती, क्रान्ति की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है।  वो भारत को अंग्रेजों की बेड़ियों से आजाद देखना चाहते थे लेकिन आजादी से 16 साल 4 महीने और 23 दिन पहले ही उन्हें फांसी दे दी गई और उन्होंने भी हंसते हुए अपनी शहादत को गले लगा लिया।  इसी सिलसिले में ये जानना भी जरूरी है कि भगत सिंह, महात्मा गांधी की आंखों में चुभने क्यों लगे थे?

महात्मा गांधी का हुआ था विरोध

      भगत सिंह की फांसी से सिर्फ 18 दिन पहले ही महात्मा गांधी ने 5 मार्च 1931 को भारत के तत्कालीन Viceroy Lord Irwin के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, जिसे इतिहास में Gandhi-Irwin Pact कहा गया।  इस समझौते के बाद महात्मा गांधी का जमकर विरोध हुआ, क्योंकि उन पर यह आरोप लगा कि उन्होंने Lord Irwin के साथ इस समझौते में भगत सिंह की फांसी को रद्द कराने के लिए कोई दबाव नहीं बनाया।  जबकि वो ऐसा कर सकते थे।

      महात्मा गांधी ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ वर्ष 1930 में जो सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू किया था, वो कुछ ही महीनों बाद काफी मजबूत हो गया था।  इस आन्दोलन के दौरान ही महात्मा गांधी ने 390 किलोमीटर की दांडी यात्रा निकाली थी और उन्हें 4 मई 1930 को गिरफ्तार कर लिया गया था।

25 जनवरी 1931 को जब महात्मा गांधी को बिना शर्त जेल से रिहा किया गया, तब वो ये बात अच्छी तरह समझ गए थे कि अंग्रेजी सरकार किसी भी कीमत पर उनका आंदोलन समाप्त कराना चाहती है।  और इसके लिए वो उनकी सारी शर्तें भी मान लेगी।  और फिर 5 मार्च 1931 को ऐसा ही हुआ।

समझौते के दौरान नहीं हुई चर्चा

      वायसराय लॉर्ड इरविन ने गांधी-इरविन पैक्ट के तहत नमक कानून और आंदोलन के दौरान गिरफ्तार हुए नेताओं को रिहा करने पर अपनी सहमति दी तो महात्मा गांधी अपना आंदोलन वापस लेने को राजी हो गए।  लेकिन इस समझौते में यानी इस दौरान भगत सिंह की फांसी का कहीं कोई जिक्र नहीं हुआ।  1996 में आई किताब The Trial of Bhagat Singh में वकील और लेखक A.G. Noorani लिखते हैं कि महात्मा गांधी ने अपने पूरे मन से भगत सिंह की फांसी के फैसले को टालने की कोशिश नहीं की।  वो चाहते तो ब्रिटिश सरकार पर बने दबाव का इस्तेमाल करके तत्कालीन वायसराय को इसके लिए राजी कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. 1930 और 1931 का साल भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में काफी अहम साबित हुआ।

वो भगत सिंह का दौर था

      ये वो समय था, जब देश में लोगों की ज़ुबान पर महात्मा गांधी का नहीं बल्कि शहीद भगत सिंह का नाम था।  लोगों को ऐसा लगने लगा था कि महात्मा गांधी देश को अंग्रेजों से आजाद तो कराना चाहते हैं लेकिन इसके लिए वो अंग्रेजों के बुरे भी नहीं बनना चाहते।  जबकि भगत सिंह का मकसद बिल्कुल साफ था।  वो अंग्रेजों को किसी भी कीमत पर देश से भगाना चाहते थे।  और बड़ी संख्या में लोगों का प्यार और समर्थन भी उन्हें मिल रहा था।

       23 March को जब लाहौर सेंट्रल जेल में भगत सिंह को फांसी की सजा दी गई, तब इससे कुछ ही घंटे पहले महात्मा गांधी ने लॉर्ड इरविन (Lord Irwin) को एक चिट्ठी लिखी थी इसमें उन्होंने लिखा था कि ब्रिटिश सरकार को फांसी की सजा को कम सजा में बदलने पर विचार करना चाहिए।  उन्होंने लिखा था कि इस पर ज्यादातर लोगों का मत सही हो या गलत लेकिन लोग फांसी की सजा को कम सजा में बदलवाना चाहते हैं।  उन्होंने ये लिखा था कि अगर भगत सिंह और दूसरे क्रान्तिकारियों को फांसी की सजा दी गई तो देश में आंतरिक अशांति फैल सकती है।  लेकिन उन्होंने इस चिट्ठी में कहीं ये नहीं लिखा कि भगत सिंह को फांसी की सजा देना गलत होगा।  उन्हें बस इस बात का डर था कि लोग इसके खिलाफ हैं और अगर ये सजा दी गई तो हिंसा जैसा माहौल बन सकता है।  महात्मा गांधी इस चिट्ठी में बताया कि वायसराय लॉर्ड इरविन ने पिछली बैठक में अपने फैसले को बदलने से मना कर दिया था।  लेकिन उन्होंने ये भी कहा था कि अगर गांधी इस पर उन्हें विचार करने के लिए कहते हैं, तो वो इस पर सोचेंगे।

कांग्रेस वर्किंग कमेटी क्या चाहती थी?

      महात्मा गांधी ने कभी भी दिल से भगत सिंह की फांसी को रद्द करवाने का प्रयास नहीं किया।  18 फरवरी 1931 को उन्होंने खुद अपने एक लेख में ये माना था कि कांग्रेस वर्किंग कमिटी (CWC) कभी नहीं चाहती थी कि जब गांधी और वायसराय लॉर्ड इरविन के बीच समझौते के लिए बातचीत शुरू हो तो इसमें भगत सिंह की फांसी को रद्द करवाने की शर्त जोड़ी जाए।  महात्मा गांधी ने ये जानते हुए भी उस समय भगत सिंह का खुल कर साथ नहीं दिया कि अंग्रेजी सरकार ने उनके खिलाफ एकतरफा मुकदमा चलाया था।

अंग्रेजों की पुख्ता साजिश और दिखावा

      भगत सिंह को फांसी की सजा ब्रिटिश पुलिस अफसर John Saunders की हत्या के लिए हुई थी।  लेकिन इस मामले में अंग्रेजी सरकार मुकदमा शुरू होने से पहले ही भगत सिंह के खिलाफ अपना फैसला सुना चुकी थी।  इसके लिए तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन ने 1 मई 1930 को एक अध्यादेश पास किया था।  जिसके तहत हाई कोर्ट के तीन जजों का स्पेशल Tribunal बनाया गया जिसका मकसद था भगत सिंह को जल्दी से जल्दी फांसी की सजा देना।  बड़ी बात ये थी कि इन तीनों जजों के फैसले को भारत की ऊपरी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती थी।  अपील के लिए सिर्फ एक विकल्प दिया गया था जो काफी मुश्किल था।  इसमें इंग्लैंड की Privy Council में ही इस फैसले को चुनौती देने की छूट थी।  यानी ये विकल्प पूरी तरह दिखावटी था।

महात्मा गांधी सब जानते थे फिर भी चुप रहे

      इसके अलावा जब भगत सिंह के खिलाफ हत्या का मुकदमा चलाया जा रहा था।  तब उनके वकील राम कपूर ने अदालत से 457 गवाहों से सवाल पूछने की इजाजत मांगी थी।  लेकिन उन्हें सिर्फ पांच लोगों से ही सवाल पूछने की मंजूरी मिली।  यानी भगत सिंह के खिलाफ एकतरफा मुकदमा चला और ब्रिटिश सरकार ने न्याय के सिद्धांत का भी गला घोंट दिया।  और इस तरह 7 अक्टूबर 1930 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा सुना दी गई।  लेकिन इससे भी ज्यादा हैरानी की बात ये है कि महात्मा गांधी ये सारी बातें जानते थे. उन्हें पता था कि अंग्रेजी सरकार भगत सिंह को मौत की सजा देने के लिए बेकरार है।  लेकिन इसके बावजूद उन्होंने कभी भगत सिंह की फांसी रद्द करवाने के लिए कोई आन्दोलन, कोई हड़ताल नहीं की।

महात्मा गांधी को दिखाए गए थे काले झंडे

      और ये बात उस समय के भारत के लोगों को काफी चुभ रही थी।  और यही वजह है कि इस फांसी के तीन दिन बाद जब 26 मार्च 1931 को कराची में कांग्रेस का अधिवेशन शुरू हुआ, उस समय महात्मा गांधी के फैसले से नाराज लोगों ने उन्हें काले झंडे दिखाने शुरू कर दिए।  माना जाता है कि महात्मा गांधी इस विरोध से बचने के लिए ट्रेन में भगत सिंह के पिता को अपने साथ ले गए थे।  और उन्होंने इस अधिवेशन के दौरान एक प्रस्ताव में भगत सिंह के भी कुछ विचारों को शामिल करने पर अपनी सहमति दी थी, जिससे उनके खिलाफ नाराजगी कम हो सके।

साभार’डीएनए”

कांग्रेस को एक और झटका! महाराजा कर्ण सिंह के बेटे विक्रमादित्य सिंह ने पार्टी छोड़ी

वरिष्ठ कांग्रेस नेता डॉ कर्ण सिंह के बेटे विक्रमादित्य सिंह ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया। जम्मू-कश्मीर के कांग्रेस नेता और पूर्व एमएलसी विक्रमादित्य सिंह ने कहा कि उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से अपना इस्तीफा राष्ट्रीय अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी को सौंप दिया है। बता दें कि विक्रमादित्य सिंह तत्कालीन जम्मू-कश्मीर रियासत के महाराजा हरि सिंह के पोते हैं। 

विक्रमादित्य सिंह

डेमोक्रेटिक फ्रंट, जम्मू काश्मीर/नई दिल्ली: 

नेतृत्व संकट से जूझ रही कांग्रेस को एक और झटका लगा है। जम्मू कश्मीर के कद्दावर कांग्रेस नेता और महाराजा कर्ण सिंह  के बेटे विक्रमादित्य सिंह  ने कांग्रेस छोड़ दी है। मंगलवार को उन्होंने पार्टी से इस्तीफा देने का ऐलान किया है। विक्रमादित्य सिंह ने कहा कि, जम्मू-कश्मीर से संबंधित महत्वपूर्ण मुद्दों पर उनके विचार पार्टी के साथ नहीं मिलते हैं। उन्होंने पार्टी पर जमीनी वास्तविकताओं से अनजान रहने का भी आरोप लगाया। उन्होंने पार्टी अध्यक्ष सोनिया गाँधी को लिखा अपना इस्तीफे वाले पत्र को सार्वजनिक भी किया। वो 2019 का चुनाव उधमपुर ईस्ट से केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह से हार गए थे।

पत्र में उन्होंने लिखा है कि वो त्वरित प्रभाव से कॉन्ग्रेस पार्टी से इस्तीफा देते हैं। साथ ही लिखा, “मेरा मानना है कि कॉन्ग्रेस पार्टी जम्मू कश्मीर की जनता की भावनाओं और आकांक्षाओं को समझने में असफल रही है।” विक्रमादित्य सिंह ने 2018 में कॉन्ग्रेस पार्टी में शामिल होने का निर्णय लिया था। सिंह ने कहा कि उन्होंने उसके बाद जम्मू कश्मीर से जुड़े कई मुद्दों पर राष्ट्रहित का साथ दिया, जो कॉन्ग्रेस पार्टी के रुख से एकदम अलग था।

उन्होंने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में भारतीय सेना द्वारा बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक, जम्मू कश्मीर में ‘विलेज डिफेंस कमिटीज’ के पुनर्विकास, अनुच्छेद-370 को निरस्त किए जाने और लद्दाख को अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाने जैसे मुद्दों पर उनका रुख कॉन्ग्रेस के विरुद्ध रहा था और उन्होंने गुपकार गठबंधन की निंदा भी की थी। पूर्व विधान पार्षद ने कहा कि वो राष्ट्र हित को देखते हुए जम्मू कश्मीर की जनता की भावनाओं के हिसाब से अपना रुख तय करते हैं।

उन्होंने कहा कि भारत तेज़ी से बदल रहा है और अगर कोई पार्टी या उसका नेतृत्व इसके साथ तालमेल नहीं बिठाएगा तो वो गायब हो जाएगा। बता दें कि विक्रमादित्य सिंह के पिता कर्ण सिंह जम्मू कश्मीर के सदर-ए-रियासत रह चुके हैं। तीन बार ‘बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (BHU)’ के चांसलर रहे कर्ण सिंह जम्मू कश्मीर के राज्यपाल, राज्यसभा सांसद और ‘इंडिया इंटरनेशनल सेंटर’ के अध्यक्ष भी रहे हैं। वो कॉन्ग्रेस के वरिष्ठ नेताओ में से एक हैं।

‘कॉन्ग्रेस में अध्यक्ष पद खाली नहीं है’ गुलाम नबी आज़ाद

यूपी-पंजाब समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार के बाद कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक बुलाई गई, लेकिन ‘जी 23’ खेमा संतुष्ट नजर नहीं आया। दो दिनों में बड़े-बड़े नेताओं की दो मीटिंग से देश की राजनीति में हलचल बढ़ गई। सवाल उठने लगा कि क्या कांग्रेस टूट की कगार पर पहुंच गई है? लेकिन फिर सोनिया गांधी एक्टिव हुईं। गुलाम नमी आजाद से मुलाकात फिक्स हुई और मुलाकात के बाद लगता है कि जैसे सारे विवाद भी फिलहाल फिक्स कर लिए गए हैं। सिब्बल ने कहा था कि पार्टी को लोकसभा चुनाव हारे आठ साल हो गए हैं। अगर नेतृत्व को अभी भी यह पता लगाने के लिए ‘चिंतन शिविर’ की आवश्यकता है कि क्या गलत हुआ तो वे सपनों की दुनिया में रह रहे हैं। उन्होंने कहा कि वे ‘सबकी कॉन्ग्रेस’ चाहते हैं न कि ‘घर की कॉन्ग्रेस’। लेकिन सीडब्ल्यूसी के प्रमुख नेता यह महसूस करते हैं कि गाँधी परिवार के बिना कॉन्ग्रेस चल नहीं पाएगी।

‘घर की कॉन्ग्रेस’ चाहते हैं न कि ‘सबकी कॉन्ग्रेस’

डेमोक्रेटिक फ्रंट संवाददाता :

कांग्रेस के ‘जी 23’ समूह के प्रमुख सदस्य गुलाम नबी आजाद ने शुक्रवार को पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात की और कहा कि फिलहाल नेतृत्व परिवर्तन कोई मुद्दा नहीं है तथा उन्होंने सिर्फ संगठन को मजबूत बनाने तथा आगे के विधानसभा चुनावों की तैयारियों को लेकर अपने सुझाव दिए हैं।

आजाद का यह बयान इस मायने में अहम है कि कुछ दिनों पहले ही ‘जी 23’ के उनके साथी कपिल सिब्बल ने एक साक्षात्कार खुलकर कहा था कि गांधी परिवार को नेतृत्व छोड़ देना चाहिए और किसी अन्य नेता को मौका देना चाहिए।

बताया जाता है कि करीब एक घंटे तक चली बैठक के दौरान आजाद ने कांग्रेस कार्य समिति का चुनाव कराने, केंद्रीय चुनाव समिति को निर्वाचित इकाई बनाने और निष्क्रिय संसदीय बोर्ड को पुनः जीवित करने का प्रस्ताव रखा। सोनिया गाँधी से मिलने के बाद आजाद ने मीडिया से बात करते हुए कहा कि कांग्रेस के अध्यक्ष का पद ‘रिक्त नहीं है’ और CWC ने अगस्त-सितंबर में कांग्रेस अध्यक्ष के लिए चुनाव कराने का फैसला लिया है। बता दें कि आजाद के सदस्य हैं।

उन्होंने कहा, “कॉन्ग्रेस अध्यक्ष के साथ बैठक अच्छी थी। हम कॉन्ग्रेस प्रमुख से मिलते रहते हैं और वह नियमित रूप से नेताओं से मिलती हैं। हाल ही में कार्यसमिति की बैठक हुई थी और पार्टी को मजबूत करने के लिए सुझाव माँगे गए थे। मैंने कुछ सुझाव भी दिए थे। इसलिए मैंने उन सुझावों को दोहराया है। कुल मिलाकर चर्चा आगामी विधानसभा चुनाव पर रही। पार्टी में सुधार के सुझाव सार्वजनिक रूप से नहीं दिए जा सकते। पार्टी अध्यक्ष के लिए अभी कोई पद खाली नहीं है। उन्होंने (सोनिया गाँधी ने) इस्तीफे की पेशकश की, लेकिन हमने (G 23 ने भी) इसे खारिज कर दिया।”

लगता है कि कॉन्ग्रेस ने राहुल गाँधी के अध्यक्ष बनने की उम्मीद छोड़ दी है। गुरुवार (17 मार्च) को राहुल गाँधी ने कॉन्ग्रेस के दिग्गज नेता भूपिंदर सिंह हुड्डा से मुलाकात की थी और पार्टी अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने गुलाम नबी आजाद से दो बार फोन पर बात की थी। खबरों के मुताबिक, कहा जाता है कि दोनों नेताओं राहुल गाँधी और हुड्डा ने पार्टी के पुनर्गठन पर चर्चा की थी। कॉन्ग्रेस के जी-23 बागी गुट की भी यही प्रमुख माँग है।

जी-23 के सदस्यों ने भविष्य की रणनीति पर चर्चा के लिए बुधवार (16 मार्च) की रात को गुलाम नबी आजाद के आवास पर मुलाकात की थी। बैठक के दौरान G-23 सदस्यों ने कथित तौर पर चर्चा की कि कैसे पार्टी के लिए आगे बढ़ने का एकमात्र तरीका सामूहिक और समावेशी नेतृत्व और सभी स्तरों पर निर्णय लेने का एक मॉडल अपनाना था। G-23 नेताओं ने कॉन्ग्रेस नेतृत्व से 2024 के लोकसभा चुनाव में एक विश्वसनीय विकल्प का मार्ग तैयार करने के लिए समान विचारधारा वाली ताकतों के साथ बातचीत करने का भी आग्रह किया।

बैठक कपिल सिब्बल के आवास पर होनी थी, लेकिन अंतिम समय में कार्यक्रम स्थल को स्थानांतरित कर दिया गया। बैठक में शामिल होने वाले नेताओं में आनंद शर्मा, कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी, संदीप दीक्षित और शशि थरूर शामिल थे। शशि थरूर सहित की उपस्थिति से कई कॉन्ग्रेस नेता आश्चर्यचकित थे, क्योंकि हाईकमान पर सवाल खड़ा करने के कारण थरूर या मुकुल वासनिक ने इसके बैठकों में आना बंद कर दिया था।

पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे 10 मार्च को घोषित होने के बाद से कॉन्ग्रेस नेतृत्व दबाव में है। वापसी की सभी उम्मीदें खत्म होने के बाद पार्टी के वरिष्ठ नेता गाँधी परिवार के अलावा किसी और को पार्टी की कमान सौंपने की माँग दोहरा रहे हैं।

दिलचस्प बात यह है कि कॉन्ग्रेस कार्यसमिति की बैठक के एक दिन 15 मार्च को पार्टी के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने राहुल गाँधी और पार्टी आलाकमान के खिलाफ तीखी प्रतिक्रिया दी थी। उन्होंने सवाल किया था कि राहुल गाँधी के पास पार्टी में कोई औपचारिक पद नहीं है, फिर उन्होंने पंजाब जाकर मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में चरणजीत सिंह चन्नी क नाम की घोषणा कैसे कर दी। उन्होंने यह भी कहा कि गाँधी परिवार को पार्टी का कमान छोड़ देना चाहिए।

इसी तरह सोमवार (14 मार्च) को कार्यसमिति की बैठक के दौरान सिब्बल ने कहा कि पार्टी को लोकसभा चुनाव हारे आठ साल हो गए हैं। अगर नेतृत्व को अभी भी यह पता लगाने के लिए ‘चिंतन शिविर’ की आवश्यकता है कि क्या गलत हुआ तो वे सपनों की दुनिया में रह रहे हैं। उन्होंने आगे कहा कि सीडब्ल्यूसी के प्रमुख नेता यह महसूस करते हैं कि गाँधी परिवार के बिना कॉन्ग्रेस चल नहीं पाएगी। उन्होंने कहा कि वे ‘सबकी कॉन्ग्रेस’ चाहते हैं न कि ‘घर की कॉन्ग्रेस’। ‘सब की कॉन्ग्रेस’ से उनका मतलब उन पुराने सदस्यों को लाना है, जिन्होंने पार्टी छोड़ दी और बीजेपी के खिलाफ लड़ाई लड़ी।

यूएफबीयू ने पूरे भारत में किया विरोध में प्रदर्शन

चंडीगढ़ :

यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियंस (यूएफबीयू) के आह्वान पर 10 लाख से अधिक अधिकारियों/कर्मचारियों ने 15/03/2022 को पूरे भारत में मध्याह्न भोजन के समय वेतन निपटान में सहमति के अनुसार लंबित और अवशिष्ट मुद्दों पर आईबीए की ओर से इस समस्या के समाधान में अनुचित देरी के विरोध में प्रदर्शन किया। चण्डीगढ़ में सेक्टर 17 बैंक स्क्वायर मे प्रदर्शन किया जिसमे 500 अधिकारियों/कर्मचारियों ने भाग लिया।

इस अवसर पर बोलते हुए कॉमरेड संजय शर्मा ने कहा कि कई बैंकों ने स्पष्टीकरण के लिए 11वें द्विपक्षीय समझौते/8वें अधिकारी संयुक्त नोट के कार्यान्वयन से संबंधित विभिन्न मुद्दों को संदर्भित किया है। हालांकि आईबीए एक स्पष्टीकरण परिपत्र जारी करने के लिए सहमत हो गया है, फिर भी इसे जारी किया जाना बाकी है। इसी तरह, 5 दिवसीय बैंकिंग आदि जैसे अवशिष्ट मुद्दों पर आईबीए ने यूनियनों के साथ सौहार्दपूर्ण समाधान के लिए चर्चा करके आगे चर्चा नहीं की है। पूर्व सैनिक कर्मचारियों के वेतन निर्धारण के संबंध में स्पष्टीकरण भी लंबित है। उप-स्टाफ से लिपिक संवर्ग, लिपिक से अधिकारी संवर्ग और अधिकारी से उच्च अधिकारी कैडर (नवंबर 2017 से) के लिए संशोधित फिटमेंट फॉर्मूला पर दिशानिर्देश भी बैंकों को जारी किए जाने बाकी हैं। आईबीए के साथ आखिरी बैठक सात महीने पहले हुई थी। चूंकि आईबीए कोई चर्चा नहीं कर रहा है और इन मुद्दों को हल करने के उपाय नहीं कर रहा है, इसलिए इन संवेदनशील मुद्दों पर आंदोलन के रास्ते पर जाने का निर्णय लिया गया।

‘AAP ने लिया है खालिस्तानी फण्ड और वोट, अब खालिस्तान बनाने में दो साथ’, सिख फॉर जस्टिस

भगवंत मान को लिखी चिट्ठी में कहा कि आम आदमी पार्टी(आआपा) ने बिना प्रचार और बिना कैडर से 70 प्रतिशत सीटें जीती. आआपा को खालिस्तानी समर्थकों से फंडिंग मिली और पार्टी को खालिस्तान समर्थकों से भारी समर्थन मिला। आआपा ने एसएफजे के फर्जी लेटर के जरिए वोट हासिल किए और पार्टी ने खालिस्तान समर्थक सिखों के वोटों को धोखे से अपने समर्थन में किया। सिख फॉर जस्टिस ने अपने लेटर में आरोप लगाया कि खालिस्तानी फंडिंग से आम आदमी पार्टी को वहां भी वोट मिले, जहां प्रचार नहीं किया।

चंडीगढ़: 

आम आदमी पार्टी(आआपा) ने पंजाब विधान सभा की 117 में से 92 सीटों पर जीत दर्ज कर प्रचंड बहुमत हासिल किया। आआपा की जीत के बाद प्रतिबंधित संगठन सिख फॉर जस्टिस (SFJ) ने आरोप लगाया है कि खालिस्तान समर्थकों की मदद से आम आदमी पार्टी ने पंजाब चुनाव में जीत हासिल की है। एसएफजे ने आआपा के सीएम कैंडिडेट भगवंत मान को एक चिट्ठी लिखी है।

सिख फॉर जस्टिस की ओर से जारी दस्तावेजी बयानों पर कितना भरोसा करना है या कितना नहीं करना इसके विषय में आधिकारिक तौर पर आप भगवंत मान और आम आदमी सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल ही जवाब दे सकते हैं। क्योंकि 18 फरवरी को गुरवंत सिंह पन्नू ने इन दोनों नेताओं की जमकर भर्त्सना करते हुए कहा था कि जो चिट्ठी दिखाकर ही यह नेता वोट बटोर रहे हैं वह फर्जी है साथ ही चौंकाने वाली बात यह है कि 11 मार्च को जारी उसी लेटर हेड पर एक पत्र भगवंत मान के नाम लिखा गया जिसमें उन्होंने कहा कि आम आदमी पार्टी ने सिख फॉर जस्टिस का पैसा तो इस्तेमाल किया लेकिन जीत का सेहरा स्वयं बांधकर संस्था को नजरअंदाज भी किया

यह दोनों पत्र सरकार बनने से पहले ही सार्वजनिक हो गए हैं उम्मीद है मान और केजरीवाल जल्द ही इस मुद्दे पर सार्वजनिक स्पष्टीकरण देंगे।

लेटर गुरपतवंत एस पन्नू के हवाले से जारी किया गया है। इसमें लिखा गया है, “आम आदमी पार्टी को खालिस्तान समर्थकों का वोट और फंडिंग दोनों मिला है। यह फंडिंग अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रलिया, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के सिखों ने दी है। आआपा को मिली इस फंडिंग और समर्थन की वजह वो फर्जी लेटर है जो 10 मार्च से पहले वायरल हुआ था। इस पत्र में SFJ द्वारा आप पार्टी को समर्थन देने की बात कही गई थी। इस पत्र में आप पार्टी को पंजाब को अलग खालिस्तान देश बनाने में आम आदमी पार्टी को उम्मीद के तौर पर बताया गया था। इसी के बाद इन्हें पंजाब के 70% उन ग्रामीण क्षेत्रों से भी वोट मिला है जहाँ इन्होने प्रचार भी नहीं किया।”

पन्नू के पत्र के मुताबिक, “खालिस्तान समर्थकों के ये वोट आआपा द्वारा उसी फर्जी लेटर के धोखे से लिए गए हैं। जब मैंने इस पत्र का खंडन किया तब 18 फरवरी को एक व्यक्ति का फोन आया जो खुद को राघव चड्ढा का प्रवक्ता बता रहा था। उसने सिख फॉर जस्टिस से वायरल फर्जी पत्र को सही बताने और बाद में चुनाव जीतने पर पंजाब विधानसभा में ‘खालिस्तान जनमत संग्रह’ का ऑफर दिया था

इसी पत्र में आगे भगवंत मान को चेतावनी देते हुए लिखा गया, “खालिस्तान आंदोलन को रोकने की कोशिश में गोलियाँ चलवाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री सरदार बेअंत सिंह को साल 1995 में मौत के घाट उतार दिया गया। पूर्व मुख्यमंत्री बादल और कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भी खालिस्तान आंदोलन को रोकने की कोशिश की तो उनके राजनैतिक कैरियर को ही खत्म कर दिया गया। भगवंत मान अपने पूर्व मुख्यमंत्रियों से कुछ सीखें। खालिस्तान सिखों के लिए एक जरूरी मुद्दा है। आप हमारी इस लड़ाई में पक्षकार मत बनिएगा। साथ ही खालिस्तान के लिए जनमत संग्रह में सहयोग भी करिए।”

11 मार्च (शुक्रवार) को SFJ ने एक प्रेसनोट जारी करके अपनी उन्हीं बातों को दोहराया जो उन्होंने भगवंत मान से कही थी। इस पत्र की हेडिंग में है, “खालिस्तान वोट और खालिस्तानी फंड ने AAP को पंजाब जीतने में सहायता की।” साथ ही दूसरी लाइन में है, “पंजाब में सुचारू रूप से चलेगा खालिस्तान जनमत संग्रह।” यह पत्र एसएफजे के जनरल काउंसल गुरपतवंत सिंह पन्नू के हवाले से जारी हुआ है।

इस पत्र में आगे कहा गया, “आप पार्टी ने विश्वासघात करके फर्जी लेटर वायरल करवाते हुए वोट ले कर पंजाब में जीत दर्ज की है। इस पत्र से आप पार्टी को उनके वोट मिले है जो खालिस्तान की इच्छा रखते हैं। बादल और कैप्टन अमरिंदर खालिस्तान विरोधी थे इसलिए उनको हरा दिया गया है। अब आप पार्टी सत्ता में है। वो पंजाब में खालिस्तान के लिए जनमत संग्रह करे।”

गौरतलब है कि आम आदमी पार्टी पर खालिस्तान का समर्थक होने का आरोप केजरीवाल के पूर्व सहयोगी कुमार विश्वास ने भी लगाया था। कुमार विश्वास ने अरविन्द केजरीवाल पर आज़ाद खालिस्तान देश के पहले प्रधानमंत्री बनने तक की सोच रखने का आरोप लगाया था। साथ ही उन्होंने केजरीवाल को खालिस्तान के खिलाफ बयान देने की चुनौती भी दी थी। इन आरोपों के जवाब में केजरीवाल ने खुद को स्वीट आतंकी कहा था।

आज महर्षि याज्ञवल्क्य जयंती है

महर्षि याज्ञवल्क्य, जिन्हें चारों वेदों, ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद के ज्ञाता का दर्जा प्राप्त है उनकी जयंती को याज्ञवल्क्य जयंती के रूप में मनाया जाता है। इस वर्ष कार्तिक शुक्ल की द्वादशी, यानि कि आज 07 मार्च 2022, शुक्रवार के दिन याज्ञवल्क्य जयंती मनाई जाएगी। बताया जाता है कि महर्षि याज्ञवल्क्य आध्यात्म से जुड़ी बातों के एक बेहतरीन वक्ता, होने के साथ-साथ एक महान ज्ञानी, योगी, उच्च कोटि के धर्मात्मा और श्रीराम कथा के वक्ता के रूप में भी जाने जाते हैं।

डेमोक्रेटिक फ्रंट, धर्म/संस्कृति डेस्क, चंडीगढ़ :

भारतीय ऋषि-परंपरा के अनुसार महर्षि याज्ञवल्क्य को ऋषियों-मुनियों में सबसे उच्च दर्जा दिया गया है। इसके अलावा पुराणों में महर्षि याज्ञवल्क्य को ब्रह्मा जी का साक्षात् अवतार भी माना गया है, यही वजह है जिसके चलते महर्षि याज्ञवल्क्य को ब्रह्मर्षि के नाम से भी जाना जाता है। यज्ञ संपन्न कराने में उन्होंने जो महारत हासिल की थी उसके चलते उनका नाम याज्ञवल्क्य पड़ा। महर्षि याज्ञवल्क्य को याज्ञिक सम्राट का दर्जा प्राप्त था। बताया जाता है कि यज्ञ समपन्न कराने में वो इस कदर निपुण हो चुके थे मानो वो उनके बाएं हाथ का खेल हो। 

महर्षि याज्ञवल्क्य का जन्म फाल्गुन कृष्ण पंचमी को मिथिला नगरी के निवासी ब्रह्मरथ और सुनंदा के घर हुआ था। श्रीमद्भागवत के अनुसार, इनका जन्म देवराज के पुत्र के रूप में हुआ था। सातवें वर्ष में याज्ञवल्क्य ने अपने मामा वैशंपायन से शिक्षा ग्रहण कर वेद की समस्त ऋचाएं कंठस्थ कर ली थीं। बाद में इन्होंने उद्धालक आरुणि ऋषि से अध्यात्म तो ऋषि हिरण्यनाम से योगशास्त्र की शिक्षा ली। आगे की शिक्षा के लिए वे वर्धमान नगरी के गुरु शाकल्य के आश्रम में ऋग्वेद का विशेष अध्ययन करने के लिए गए। लेकिन वहां के राजा सुप्रिय की अधार्मिक व विलासी प्रवृत्ति और गुरु शाकल्य का उनके प्रति पूज्य भाव देख वे अपने गुरु से विमुख हो गए और आश्रम छोड़ दिया। फिर राजा जनक का शिष्य बन आगे की विद्या प्राप्त की।

युवावस्था में महर्षि याज्ञवल्क्य का विवाह कात्यायनी से हुआ तथा एक पुत्र हुआ कात्यायन। इधर राजा जनक के यहां एक ऋषि मित्र की कन्या मैत्रेयी ने भी मन ही मन याज्ञवल्क्य को पति मान लिया था। जब ऋषि अपनी पुत्री के लिए वर खोजने निकले, तब मैत्रेयी ने बताया कि मैंने मन ही मन याज्ञवल्क्य को पति स्वीकार कर किया है। तब पिता ने पुत्री से कहा कि वे तो विवाहित हैं और एक पुत्र के पिता हैं, तो यह कैसे संभव है। इस पर मैत्रेयी ने कहा कि वे कात्यायनी को बड़ी बहन व पुत्र कात्यायन को सगे पुत्र जैसा ही प्यार देंगी। फिर कात्यायनी की ही इच्छा से याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी का विवाह हुआ।

एक बार राजा जनक ने एक शास्त्रार्थ का आयोजन कराया जिसमें ये शर्त रखी गयी कि जो कोई भी इंसान ब्रह्मविद्या का सर्वोच्च ज्ञानी होगा उसे इनाम में सोने के सींगों वाली एक हज़ार गायें दी जाएँगी। आपको जानकर अचरज होगा कि इस शास्त्रार्थ में महर्षि याज्ञवल्क्य के अलावा और किसी ने भाग तक नहीं लिया। शास्त्रार्थ में महर्षि याज्ञवल्क्य से अनेकों जटिल प्रश्न पूछे गए जिसके जवाब में महर्षि याज्ञवल्क्य एक बार भी नहीं अटके या रुके। और अंत में महर्षि याज्ञवल्क्य इस शास्त्रार्थ में विजयी हुए। इसके परिणामस्वरूप राजा जनक ने उन्हें अपने गुरू और सलाहकार के रूप में अपने साथ ही रख लिया।

याज्ञवल्क्य को ‘वाजसनी’ भी कहा गया है, क्योंकि प्रतिदिन भोजन, दान के बाद ही अन्नग्रहण करते थे। एक बार याज्ञवल्क्य ने घोर जप-तप कर सूर्यदेव को प्रसन्न किया। सूर्यदेव ने वरदान मांगने को कहा। याज्ञवल्क्य बोले, ‘मुझे आपसे यजुर्वेद का ज्ञान प्राप्त करना है।’ सूर्यदेव के अनुग्रह से मां शारदे आचार्य के मुख में प्रविष्ट हुईं। ऐसा होते ही महर्षि याज्ञवल्क्य के पूरे शरीर में जलन होने लगी और वे पानी में कूद पड़े। तुरंत सूर्यदेव प्रकट हुए और कहा, ‘इस पीड़ा के समाप्त होते ही तुम्हारे मन-मस्तिष्क में समस्त वेद प्रतिष्ठित हो जाएंगे।’ हुआ भी ऐसा ही, याज्ञवल्क्य सम्पूर्ण वेद-पुराण में पारंगत हो गए। याज्ञवल्क्य की कृतियों में शुक्ल यजुर्वेद संहिता, याज्ञवल्क्य स्मृति, याज्ञवल्क्य शिक्षा, प्रतिज्ञा सूत्र, शतपथ ब्राह्मण, योगशास्त्र आदि का विशेष महत्व है। इनकी कृति वृहदारण्यकोपनिषद् के तीन भाग में द्वितीय भाग इन्हीं के नाम पर ‘याज्ञवल्क्य कांड’ के नाम से प्रसिद्ध है। महर्षि याज्ञवल्क्य के सैकड़ों शिष्य हुए, इनमें वेदज्ञ विश्वासु का नाम सबसे प्रमुख है। 

Webinar : Social Sciences as Cornerstones of Scientific and Technological Breakthroughs

Chandigarh March 5, 2022

Engaging seemingly unrelated disciplines of intellectual enquiry, traditional gaps in terminology, approach, and methodology are gradually getting eliminated. By removing roadblocks to potential collaboration, a true meeting of minds can take place which can give rise to new hybrid disciplines of study. These views were expressed by Prof A D N Bajpeyi, Vice Chancellor, A.B. Vajpayee University, Bilaspur (Chattisgarh). In his expository talk, Prof Bajpeyi made earnest appeal for drawing inspirations from rich reservoir of traditional Indian knowledge systems. Elucidating with numerous commentaries from Indian scriptures, Prof Bajpeyi in his seminal discourse outlined thatsocial sciences revolve around the behavior and societal norms. Social scientists are concerned with cultural and human contexts and try to explain how the world works. Their main aim is to study the complex and ever-changing phenomena that occur in human and social life as well as their interactions with one another.

The celebrated author noted that interdisciplinary research figures high on India’s New Education Policy agenda. As scientific knowledge in a wide range of disciplines has advanced, Indian scholars have become increasingly aware of the need to link disciplinary fields to comprehensively answer critical questions, or to facilitate application of knowledge in socially relevant fields. This recognition has stimulated a steadily growing interest within the academic community in developing new knowledge through research that combines the skills and perspectives of multiple disciplines for reducing socio-economic disparities.

Prof Bajpeyi made a passionate appeal to the academicians on need to produce researchers that not only ensure technological progress, but individuals with a strong background in values and with enough vision to meet new challenges in a sustainable manner.

Prof R C Sobti, Former Vice Chancellor of Panjab University, Chandigarh and Dr BBAU, Lucknow, in his presidential address highlighted that scientific developments have emerged out of human curiosity about the events and processes surrounding the mankind.  The origin of the natural world is traceable to the renaissance age, when philosophers and sociologists started investigating how the world functioned and how can we improve quality of life. Society’s moral and ethical systems have always driven the quest towards scientific breakthroughs. Science, in its original concept, is at the service of humanity.

Prof Sobti made an impassioned appeal to adopt such a multi-pronged approach which is essential to the proper functioning of society and the world we live in. It is because of the synergistic contributions of all fields of enquiry to the body of knowledge that helps us understand ourselves better. Most branches of science and technology employ both natural and social science components. He highlighted that we are living in exciting times where knowledge flows and gets shared like never before.

Prof Sudhir Kumar, Dean Research, P.U. emphasised that the academicians have to move out of their colonial mindset and dismantle artificial silos of compartmentalised knowledge. We need to undertake research work that involves ideas and approaches from multiple disciplines of knowledge applied to solve a specific problem through cross fertilization of ideas. Creativity, analytical and problem solving skills, reflections, empathy skills are equally dependent on societal as well as scientific knowledge. It is ability of individuals to relate seemingly unrelated concepts and ideas and to develop a global vision of problems which has ensured that scientific breakthroughs take place.

Prof Manish Sharma, Chairperson, Department of Gandhian and Peace studies, welcoming the participants, highlighted that PU is consistently maintaining its leadership position in higher education and research on account of vibrant academic environment.

Prof Sanjeev Sharma, Coordinator, Interdisciplinary Centre for Swami Vivekananda Studies outlined the changing facets of teaching-learning processes at PU where emphasis is on sensitising students.to develop more global and pluralistic view of the problems. This helps in developing holistic perspective to harness skills to empathize with societal and ethical ramifications.

Dr Gaurav Gaur, Chairperson, Centre for Social Work, P.U. proposed a vote of thanks and acknowledged the contributions of such webinars in shaping the thought processes in the faculty and students. He highlighted that PU is making earnest efforts under the guidance of Prof Raj Kumar to ensure collaboration between different Departments of the university

          The webinar was organised by Interdisciplinary Centre for Swami Vivekananda Studies, Centre for Social Work and Department of Gandhian & Peace studies under the aegis of Indian Science Congress Association (Chandigarh Chapter). It received enthusiastic response from more than 125 academicians and researchers.