मां तो मां होती है

।।कविता।।

मां तो मां होती है
मां तो मां होती है चाहे किसी गरीब कि या अमीर कि हो।
मां का जिस घर मे आदर होता है उस घर मैं खुशिया कम नहीं होती मां का हाथ जिसके सिर पर होता
उस पर बुरे साये काअसर नही होता।
मां कि दुआएं जहा होती है ,
वहां अमगंल नही होता है।
मां जिस घर मै होती वह घर स्वर्ग से कम नहीं होता।
मां का आशीर्वाद हो साथ वहां जीवन मे कोई कष्ट नहीं आता।
मां तो मां होती हैं चाहे रकं कि या राजा की हो।
मां हसते हसते निवाला बच्चे को खिलाती है।
चाहे वह भुख से तडप रही हो।
मां पुजा मे भी भगवान से बच्चों के लिए ही दुआ मांँगती है ।
मां तो मां होती है मां से बडा कोई ईश्वर नहीं ।
मां के सामने तो ईश्वर भी झुका है
तो हम किया है।
मां के प्रेम को पाने के लिए तो, ईश्वर ने भी जन्म मरण को पाया।
तो हम तो बडे़ भाग्यशाली हैं,
कि हमें ईश्वर के रूप में मां मिली।
मां तो मां होतीहै मां तो मां होती है।

अपनी लेखनी
अधिवक्ता भावना नागदा
(अपनी मां को समर्पित)

आज लोक गीत मान कर गाये जाते हैं शिव कुमार बटालावी के गीत

कोरल ‘पुरनूर’ चंडीगढ़ – 23 जुलाई:

जन्मदिवस पर विशेष: पंजाबी के विद्यापति ‘शिव कुमार बटालवि’

शिव बटालवि

अमृता के ‘बिरह के सुल्तान’ लोक संस्कृति के पुरोधा भी हैं

शिव के गीत भारत पाकिस्तान में घर घर गली गली महफिल महफिल इस क़दर मशहूर हैं सभी आम – ओ – खास उनको लोक गीत ही समझकर गाते सुनते हैं लट्ठे दी चादर , ईक मेरी अख कासनी, जुगनी, म्धानियाँ हाय ओह … आदि  जैसे गीत हमारी संस्कृति का हिस्सा  ही नहीं बल्कि पंजाबी को द्निया में अहम स्थान दिलाने के श्रेय के भी अधिकारी है शिव पंजाब का विद्यापति है।

‘इक कुड़ी जिहदा नाम मोहब्बत गुम है’ उनकी शाहकार रचना  में भावनाओं का उभार, करुणा, जुदाई और प्रेमी के दर्द का बखूबी चित्रण है।

शिव कुमार बटालवी के गीतों में ‘बिरह की पीड़ा’ इस कदर थी कि उस दौर की प्रसिद्ध कवयित्री अमृता प्रीतम ने उन्हें ‘बिरह का सुल्तान’ नाम दे दिया। शिव कुमार बटालवी यानी पंजाब का वह शायर जिसके गीत हिंदी में न आकर भी वह बहुत लोकप्रिय हो गया। उसने जो गीत अपनी गुम हुई महबूबा के लिए बतौर इश्तहार लिखा था वो जब फ़िल्मों तक पहुंचा तो मानो हर कोई उसकी महबूबा को ढूंढ़ते हुए गा रहा था

वे 1967 में वे साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले सबसे कम उम्र के साहित्यकार बन गये। साहित्य अकादमी (भारत की साहित्य अकादमी) ने यह सम्मान पूरण भगत की प्राचीन कथा पर आधारित उनके महाकाव्य नाटिका ‘लूणा’ (1965) के लिए दिया, जिसे आधुनिक पंजाबी साहित्य की एक महान कृति माना जाता है और जिसने आधुनिक पंजाबी किस्सा गोई की एक नई शैली की स्थापना की।

        शिव कुमार का जन्म 23 जुलाई 1936 को गांव बड़ा पिंड लोहटिया, शकरगढ़ तहसील (अब पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में) राजस्व विभाग के ग्राम तहसीलदार पंडित कृष्ण गोपाल और गृहिणी शांति देवी के घर में हुआ। भारत के विभाजन के बाद उनका परिवार गुरदासपुर जिले के बटाला चला आया, जहां उनके पिता ने पटवारी के रूप में अपना काम जारी रखा और बाल शिव ने प्राथमिक शिक्षा पाई। लाहौर में पंजाबी भाषा की क़िताबें छापने वाले प्रकाशक ‘सुचेत क़िताब घर’ ने 1992 में शिव कुमार बटालवी की चुनिंदा शायरी की एक क़िताब ‘सरींह दे फूल’ छापी.

5 फ़रवरी 1967 को उनका विवाह गुरदासपुर जिले के किरी मांग्याल की ब्राह्मण कन्या अरुणा से हुआ  और बाद में दंपती को दो बच्चे मेहरबां (1968) और पूजा (1969) हुए। 1968 में चंडीगढ़ चले गये, जहां वे स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में जन संपर्क अधिकरी बने, वहीं अरुणा बटालवी पुंजाबी विश्वविद्यालय पटियाला के पुस्तकालयमें कार्यरत रहीं। आज शिव कुमार बटालवी का परिवार केनेडा में रहता है।

ग्रामीण क्षेत्रों मे रहने वाले किसानों ओर बाकी लोगों के संपर्क में आए ओर उन्हीं की बातें अपने लेखन में ढाली उनको जानने वाले लोग उनकी जीवन शैली और दिनचर्या के बारे में बताते हैं के वो राँझे की सी जिंदगी जीते थे वह ऐसे कवि थे जो कि अपनी रचना को स्वयं लयबद्ध करते थे।

        बटालवी की नज्मों को सबसे पहले नुसरत फतेह अली खान ने अपनी आवाज दी. नुसरत ने उनकी कविता ‘मायें नी मायें मेरे गीतां दे नैणां विच’ को गाया था. इसके बाद तो जगजीत सिंह – चित्रा सिंह, रबी शेरगिल, हंस राज हंस, दीदार सिंह परदेसी और सुरिंदर कौर जैसे कई गायकों ने बटालवी की कविताएं गाईं. उस शायर के लिखे हुए गीत – अज्ज दिन चढ्या, इक कुड़ी जिद्दा नां मुहब्बत, मधानियां, लट्ठे दी चादर, अक्ख काशनी आदि आज भी न केवल लोगों की जुबां पर हैं बल्कि बॉलीवुड भी इन्हें समय समय पर अपनी फिल्मों को हिट करने के लिए यूज़ करता आ रहा है. नुसरत फतेह अली, महेंद्र कपूर, जगजीत सिंह, नेहा भसीन, गुरुदास मान, आबिदा, हंस राज हंस….

     “असां ते जोबन रुत्ते मरना…” यानी “मुझे यौवन में मरना है, क्यूंकि जो यौवन में मरता है वो फूल या तारा बनता है, यौवन में तो कोई किस्मत वाला ही मरता है” कहने वाले शायर की ख़्वाहिश ऊपर वाले ने पूरी भी कर दी. मात्र छत्तीस वर्ष की उम्र में शराब, सिगरेट और टूटे हुए दिल के चलते 7 मई 1973 को वो चल बसे. लेकिन, जाने से पहले शिव ‘लूणा’ जैसा महाकाव्य लिख गये, जिसके लिए उन्हें सबसे कम उम्र में साहित्य अकादमी का पुरूस्कार दिया गया. मात्र इकतीस वर्ष की उम्र में. ‘लूणा’ को पंजाबी साहित्य में ‘मास्टरपीस’ का दर्ज़ा प्राप्त है और जगह जगह इसका नाट्य-मंचन होता आया है.

शिव को राजनीतिक चुनोतियों का भी सामना करना पड़ा  उन्होने पंजाबी ओर हिन्दी को हिन्दू – सिक्ख में बँटते भी देखा ओर इस बात का पुरजोर विरोध भी किया, अपनी मातृभाषा को इस तरह बँटते देखना असहनीय था।  लोगों के दोहरे व्यवहार और नकलीपन की वजह से उन्होंने कवि सम्मेलनों में जाना बंद कर दिया था. एक मित्र के बार-बार आग्रह करने पर वे 1970 में बम्बई के एक कवि सम्मलेन में शामिल हुए थे. मंच पर पहुँचने के बाद जब उन्होंने बोला तो पूरे हॉल में सन्नाटा छा गया. उन्होंने बोला कि आज हर व्यक्ति खुद को कवि समझने लगा है, गली में बैठा कोई भी आदमी कवितायें लिख रहा है. इतना बोलने के बाद उन्होंने अपनी सबसे प्रसिद्ध रचना ‘इक कुड़ी जिदा नाम मोहब्बत है, गुम है’ सुनाई. इस पूरे पाठ के दौरान हॉल में सन्नाटा बना रहा. सच कहा जाए तो शिव कुमार कभी दुःख से बाहर निकल ही नहीं पाए. उन्हें हर समय कुछ न कुछ काटता ही रहा.

एक साक्षात्कार के दौरान शिव ने कहा आदमी, जो है, वो एक धीमी मौत मर रहा है. और ऐसा हर इंटेलेक्चुअल के साथ हो रहा है, होगा.”

The Quick brown fox नहीं यह है एक वर्णमाला का सम्पूर्ण वाक्य ‘क:खगीघाङ्चिच्छौजाझाञ्ज्ञोटौठीडढण:।’

अजय नारायण शर्मा ‘अज्ञानी’, चंडीगढ़:

संस्कृत भाषा का कोई सानी नहीं है। यह अत्यंत वैज्ञानिक व विलक्षण भाषा है जो अनंत संभावनाएं संजोए है।

अंग्रेजी में
A QUICK BROWN FOX JUMPS OVER THE LAZY DOG
यह एक प्रसिद्ध वाक्य है। अंग्रेजी वर्णमाला के सभी अक्षर इसमें समाहित हैं। किन्तु इसमें कुछ कमियाँ भी हैं, या यों कहिए कि कुछ विलक्षण कलकारियाँ किसी अंग्रेजी वाक्य से हो ही नहीं सकतीं। इस पंक्ति में :-

1) अंग्रेजी अक्षर 26 हैं और यहां जबरन 33 का उपयोग करना पड़ा है। चार O हैं और A,E,U,R दो-दो हैं।
2) अक्षरों का ABCD.. यह स्थापित क्रम नहीं दिख रहा। सब अस्तव्यस्त है।

अब संस्कृत में चमत्कार देखिये!

क:खगीघाङ्चिच्छौजाझाञ्ज्ञोटौठीडढण:।
तथोदधीन पफर्बाभीर्मयोSरिल्वाशिषां सह।।

अर्थात्– पक्षियों का प्रेम, शुद्ध बुद्धि का, दूसरे का बल अपहरण करने में पारंगत, शत्रु-संहारकों में अग्रणी, मन से निश्चल तथा निडर और महासागर का सर्जन करनहार कौन? राजा मय कि जिसको शत्रुओं के भी आशीर्वाद मिले हैं।

आप देख सकते हैं कि संस्कृत वर्णमाला के सभी 33 व्यंजन इस पद्य में आ जाते हैं। इतना ही नहीं, उनका क्रम भी यथायोग्य है।

एक ही अक्षर का अद्भुत अर्थ विस्तार।
माघ कवि ने शिशुपालवधम् महाकाव्य में केवल “भ” और “र”, दो ही अक्षरों से एक श्लोक बनाया है-

भूरिभिर्भारिभिर्भीभीराभूभारैरभिरेभिरे।
भेरीरेभिभिरभ्राभैरूभीरूभिरिभैरिभा:।।

अर्थात् धरा को भी वजन लगे ऐसे वजनदार, वाद्य यंत्र जैसी आवाज निकालने वाले और मेघ जैसे काले निडर हाथी ने अपने दुश्मन हाथी पर हमला किया।

किरातार्जुनीयम् काव्य संग्रह में केवल “न” व्यंजन से अद्भुत श्लोक बनाया है और गजब का कौशल प्रयोग करके भारवि नामक महाकवि ने कहा है –

न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नाना नना ननु।
नुन्नोSनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नन्नुनन्नुनुत्।।

अर्थ- जो मनुष्य युद्ध में अपने से दुर्बल मनुष्य के हाथों घायल हुआ है वह सच्चा मनुष्य नहीं है। ऐसे ही अपने से दुर्बल को घायल करता है वो भी मनुष्य नहीं है। घायल मनुष्य का स्वामी यदि घायल न हुआ हो तो ऐसे मनुष्य को घायल नहीं कहते और घायल मनुष्य को घायल करें वो भी मनुष्य नहीं है।

अब हम एक ऐसा उदहारण देखेंगे जिसमे महायमक अलंकार का प्रयोग किया गया है। इस श्लोक में चार पद हैं, बिलकुल एक जैसे, किन्तु सबके अर्थ अलग-अलग –

विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणाः।
विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणाः।।

अर्थात् – अर्जुन के असंख्य बाण सर्वत्र व्याप्त हो गए जिनसे शंकर के बाण खण्डित कर दिए गए। इस प्रकार अर्जुन के रण कौशल को देखकर दानवों को मारने वाले शंकर के गण आश्चर्य में पड़ गए। शंकर और तपस्वी अर्जुन के युद्ध को देखने के लिए शंकर के भक्त आकाश में आ पहुँचे।

संस्कृत की विशेषता है कि संधि की सहायता से इसमें कितने भी लम्बे शब्द बनाये जा सकते हैं। ऐसा ही एक शब्द इस चित्र में है, जिसमें योजक की सहायता से अलग अलग शब्दों को जोड़कर 431 अक्षरों का एक ही शब्द बनाया गया है। यह न केवल संस्कृत अपितु किसी भी साहित्य का सबसे लम्बा शब्द है। (चित्र संलग्न है…)

संस्कृत में यह श्लोक पाई (π) का मान दशमलव के 31 स्थानों तक शुद्ध कर देता है।

गोपीभाग्यमधुव्रात-श्रुग्ङिशोदधिसन्धिग।
खलजीवितखाताव गलहालारसंधर।।

pi=3.1415926535897932384626433832792

श्रृंखला समाप्त करने से पहले भगवन श्री कृष्णा की महिमा का गान करने वाला एक श्लोक प्रस्तुत है जिसकी रचना भी एक ही अक्षर से की गयी है।

दाददो दुद्ददुद्दादी दाददो दूददीददोः।
दुद्दादं दददे दुद्दे दादाददददोऽददः॥

यहाँ पर मैंने बहुत ही काम उदाहरण लिए हैं, किन्तु ऐसे और इनसे भी कहीं प्रभावशाली उल्लेख संस्कृत साहित्य में असंख्य बार आते हैं। कभी इस बहस में न पड़ें कि संस्कृत अमुक भाषा जैसा कर सकती है कि नहीं, बस यह जान लें, जो संस्कृत कर सकती है, वह कहीं और नहीं हो सकता।

।। गुरु।।

अधिवक्ता भावना नागदा

गुरु वहीं जो आपको जीना सिखा दे।
और आपकी आपसे पहचान करा दे।

कविता

।। गुरु।।

गुरु वही जो अपने शिष्य को प्रकाश देता है ।
हर बुराई को दूर करता है नयी राह दिखाता है ।
जीवन के घोर अंधेरो मे प्रकाश बन कर आता है।
गुरु वहीं जो अपने शिष्य को प्रकाश देता है।
अज्ञान से महान ज्ञानी बनाए नई ऊर्जा और नया जीवन दे।
नाम बढें जग मे यही कामना करता है हृदय से।
गुरु वहीं जो अपने शिष्य को प्रकाश देता है।
हीरे की तरह तराश दे मन मे एक विश्वास जगादे।
आपकी आप से पहचान कराये और जीना सिखा दे।
गुरु वहीं जो अपने शिष्य को प्रकाश देता है।
सच और झूठ से साकार करा दे।
हमेशा दिखाए सच्चा मार्ग वो एक अच्छा इंसान बना दे।
गुरु वहीं जो अपने शिष्य को प्रकाश देता है।
मुश्किलो से लड़कर आगे बढ़ जाओ वो इतना समझदार बना दे
बताये जीत जाना ही सब कुछ नहीं हारक जीत जाने का हुनर सिखा दे।
गुरु वहीं जो आपको जीना सिखा दे।
और आपकी आपसे पहचान करा दे।

: अधिवक्ता भावना नागदा
(अपने दादा,दादी मां -पिता गुरु को समर्पित)

हुण तेरी मेरी नहीं निभणी : राजस्थान राजनैतिक संकट

सारिका तिवारी:

चुप रहने और संयम न खोने की प्रवृत्ति की वजह से सचिन अपनी स्थिति को स्थिर बनाये हुए हैं जबकि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पूरा जोर लगाए हुए हैं कि किसी भी तरह सचिन पायलट अध्यक्ष पद से हट जाएँ। राजस्थान में गहलोत गुट अफवाह फैलाने में मशगूल हैं आने वाले हफ्ते में सचिन आला कमान द्वारा अध्यक्ष पद से हटा दिए जाएंगे। गहलोत तो दबी ज़बान में यह भी कहते सुनाई दे रहे हैं कि सचिन भाजपा के दिग्गजों के साथ लगातार संपर्क में हैं। पिछले दिन पत्रकार वार्ता में गहलोत राज्य में राजनीतिक अस्थिरता का ठीकरा जहाँ प्रदेश भाजपा के सिर फोड़ रहे थे वहीं परोक्ष रूप से सचिन के साथ उनकी निभ नहीं सकती इसका इशारा भी उन्होंने बखूबी किया।

दूसरी ओर दर्जन भर कांग्रेस विधायक दिल्ली पहुंच गए और आज आला कमान से मिलेंगे। सोमवार तक यह संख्या तीन गुणा से भी ज़्यादा हो जाएगी। सुनने में आ रहा है कि वे सभी विधायक सचिन खेमे के हैं।

गहलोत अब नहीं चाहिए इसका इशारा कल ही उन्हे मिल गया क्योंकि मंत्री मण्डल की बैठक में आधे मंत्री ही पहुंचे। कांग्रेस में आंतरिक कलह के चलते खुल कर मीडिया से बात करते मुख्यमंत्री और अन्य विधायक सीधे तौर पर पार्टी को नुकसान पहुंचा रहे हैं।

मौजूदा स्थिति को देखते हुए कहा जा सकता है कि जल्द ही राज्य में बड़ी उठापटक या उलटफेर हो सकती है। गहलोत के लिए परिस्थितियां इतनी प्रतिकूल बन रही हैं कि विधायकों के खिलाफ पुलिस में एफ आई आर भी दर्ज करवाई गई। गहलोत पहले से ही मुख्यमंत्री के पद के लिए पहली पसंद नहीं थे सिर्फ प्रियंका वाड्रा ही चाहती थी कि इनको मुख्यमंत्री बनाया जाए क्योंकि ईडी के मामलों में रॉबर्ट वाड्रा की डूबती लुटिया का सहारा दिखाई दे रहे थे। अन्यथा यह वही गहलोत हैं जो कि मुख्यमंत्री के पद पर आसीन होने के बावजूद अपने नौनिहाल की सीट नहीं निकलवा पाए।

लेकिन भई ये राजनीति है वो भी काँग्रेस की राजनीति जहाँ सचिन पायलट को मुख्यमंत्री का चेहरा बना कर चुनाव जीता गया था

शारदा-वंदन – एडवोकेट भूमिका चौबीसा

।। शारदा-वंदन ।।

गीत गुनगुना लूं मैं, सुर को तुम सजा के दो।
खड्गधारिणी! मेरी वाणी को निखार दो॥
कागजों को बोलते, एहसासों का नाम दो,
हंसवाहिनी! मेरी लेखनी सुधार दो॥

गीत गुनगुना लूं मैं, सुर को तुम सजा के दो।
खड्गधारिणी मेरी वाणी को निखार दो॥

जीत जाए लोकतंत्र, ऎसी तुम कमान दो,
घोटालों की बाढ़ को, अब तो विराम दो।
नेताओं को लाओ तुम, चिंतन की राह पर,
खुदगर्जी छोड़ दे, इतना स्वाभिमान दो॥

गीत गुनगुना लूं मैं, सुर को तुम सजा के दो।
खड्गधारिणी मेरी वाणी को निखार दो॥

हथियारो के नाम पर, बस कलम हैं मेरी,
इसमें ऐसी स्याही दो, हो लेखनी अमर मेरी।
मान हो मां भारती का, विश्व मानचित्र पर,
राष्ट्र धर्म से बड़ा, कोई भी न धर्म हो ॥

गीत गुनगुना लूं मैं, सुर को तुम सजा के दो।
खड्गधारिणी मेरी वाणी को निखार दो॥

राष्ट्र की धरोहरे सहेजने का भाव हो,
मौलिक कर्तव्यों का नियमित संदाय हो।
राष्ट्र है महान और महान इसकी सभ्यता,
संस्कृति के संचरण की जीत का प्रमाण दो॥

गीत गुनगुना लूं मैं, सुर को तुम सजा के दो।
खड्गधारिणी मेरी वाणी को निखार दो॥
कागजों को बोलते एहसासों का नाम दो,
हंसवाहिनी मेरे शब्द को सुधार दो॥

रचनाकारः एडवोकेट भूमिका चौबीसा, उदयपुर (राजस्थान)

सोशल मीडिया के दुरुपयोग से आंतरिक युद्ध जैसी स्थिति:- सुशील पंडित

सुशील पंडित
पत्रकार


    क्रिया की प्रतिक्रिया होना यह प्ररकृति का मूल सिद्धांत है परंतु वह प्रतिक्रिया मानव जीवन व सृष्टि के अनुकूल हो तब क्रिया का महत्व बढ़ जाता है इसी सिद्धान्त से सरोकार रखता यह लेेेख भी सोशल मीडिया के वर्तमान समय में अच्छे और बुरे पहलुओं पर प्रकाश डाल रहा है।सोशल मीडिया स्वंम में एक संसार की भांति ही है या यूं कहें कि “वर्चुअल वर्ल्ड” की संरचना सोशल मीडिया से ही संभव हो पाई है। सोशल मीडिया वर्तमान में संचार का सबसे तेज माध्यम बन गया है सोशल मीडिया अर्थात सभी प्रकार की सूचनाओं को जन जन तक पहुचाने का निजी स्तरीय माध्यम ही सोशल मीडिया की सार्थकता को सिद्ध करता है।


            रिपोर्ट के अनुसार पूरे विश्व के लगभग साढ़े तीन सौ करोड़ लोग सोशल मीडिया के किसी न किसी प्लेटफार्म से जुड़े हैं अरतार्थ विश्व की कुल आबादी का  बहुत बड़ी संख्या सोशल मीडिया पर सक्रिय है। समाज में प्रतिदिन घटित घटनाओं का आदान प्रदान सोशल मीडिया में व्हाट्सएप, फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम आदि साधनों के माध्यम से किया जा रहा है। आज हम अपनी बात कुछ ही पल में दुनिया भर के सामने रखने में सक्षम हो  हैं। सोशल मीडिया एक अपरम्परागत मीडिया के रूप में हम सब के बीच अपना कार्य कर रहा है।अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए यह एक सरल साधन


            बन चुका है। आज 93 प्रतिशत लोग सोशल मीडिया से जुड़े हुए हैं आकड़ो की यदि बात करें तो एक व्यक्ति औसतन 24 घण्टे में लगभग 3 घण्टे अपने मोबाइल के माध्यम से सोशल मीडिया से जुड़ा रहता है। इस अपरम्परागत मीडिया ने समाज में अपनी अहम भूमिका भी निभाई है इसके माध्यम से किसी भी व्यक्ति, संस्था, समूह तथा देश की सामाजिक, सांस्कृतिक को समृद्ध भी बनाया जा सकता है। परन्तु क्या हमने कभी विचार किया है कि वर्तमान में सोशल मीडिया के दुरुपयोग से कितनी बड़ी चुनौती हमारे समक्ष खड़ी है आज देश में इसके गलत उपयोग व निजी स्वार्थ के चलते हम एक अप्रत्यक्ष युद्ध लड़ रहे हैं। एक ऐसा युद्ध जिसमें प्रहार भी स्वंम के द्वारा किया जा रहा है और घायल भी खुद को किया जा रहा है।        

            हर बात के दो पहलू है ये हम सभी जानते हैं बस हमारी दृष्टि और विवेक किस पहलू को महत्व दे रही है यह विचार करने का विषय होता है। सोशल मीडिया का सदुपयोग करते हुए भारत में अभी कुछ वर्ष पूर्व भ्र्ष्टाचार के विरोध में अन्ना हजारे के नेतृत्व में एक महाअभियान का प्राम्भ किया गया था जिसके परिणाम स्वरूप भ्र्ष्टाचार को लेकर भारत के नागरिकों में जागरूकता का आदान प्रदान हुआ यह आंदोलन एक सफल प्रयास रहा इस दौरान मीडिया के साथ साथ सोशल मीडिया का भी योगदान सरहानीय रहा।


            देश में हुए 2014 के चुनाव में भी सोशल मीडिया ने एक प्रभावशाली मंच की भूमिका निभाई जिसके परिणामस्वरूप देश का युवा एकमत हो कर मौजूदा सरकार के लिए सेतू के रूप में सामने आया अब इस उदाहरण में किसी राजनीतिक दल का वैचारिक मतभेद हो सकता है परन्तु तत्कालीन समय में सोशल मीडिया ने सकारात्मक ऊर्जा संचार किया था। वहीं दूसरे पहलू पर यदि नजर डाले तो वर्तमान में इसका दुरुपयोग करके कुछ दल सगठन या फिर व्यकिगत रूप से लोग भी सस्ती लोकप्रियता हासिल करने में लगे हुए हैं। भारत में जहाँ पड़ोसी देशों की सीमाओं पर तनाव है वहीं आंतरिक रूप से देश में सोशल मीडिया पर भी कुछ ऐसी स्थिति देखी जा रही है। परम्परागत मीडिया जैसे समाचार पत्र, न्यूज़ चैनलों से भी तेज रफ्तार में चल रही है यह अपरम्परागत मीडिया। किसी भी मैसेज,चित्र या वीडियो को वायरल करने की तो जैसे प्रतिस्पर्धा हो गई है बिना कुछ सोच विचार किए हम कुछ भी कही भी भेजने में संकोच नहीं करते फिर चाहे वह सूचना किसी धर्म जाति,संगठन या राष्ट्र के अहित में ही क्यों न हो सोशल मीडिया की आड़ में कुछ लोग अपनी आधारहीन राजनीति चमकाने में निरंतर प्रयास करते रहते है।आज जब देश कोरोना जैसी महामारी और पड़ोसी देशों की कुदृष्टि से बचने की लड़ाई में दिन रात लगा हुआ है वहीं सोशल मीडिया पर एक दूसरे दलों व समुदायों, धर्मों पर कटाक्ष करने का खेल

            भी जारी है।समाचार पत्रों और न्यूज़ चैनलों से पहले ही खबर प्रकाशित भी हो जाती है और प्रसारित भी हो जाती है रही तथ्यों की बात तथ्यों का महत्व वर्तमान सोशल मीडिया में ना के बराबर ही रह गया है और कभी कभी इस लापरवाही का भुगतान भी करना पड़ता है क्योंकि कई बार बात इतनी बढ़ जाती है कि सरकार सोशल मीडिया का गलत इस्तेमाल करने वालों पर कड़ा रुख अपनाते हुए कानूनी कार्यवाही भी करती है लेकिन इसके बाद भी यह सोशल मीडिया का यह अप्रत्यक्ष युद्ध रुकने का नाम नही ले रहा। इस माध्यम से समाज के कुछ असमाजिक तत्व अभिव्यक्ति की आजादी का दुरुपयोग करने में लगे हुए हैं समाज में दुर्भावनाओं का प्रचार प्रसार करके सौहार्दपूर्ण वातवरण को दूषित करने की संकीर्ण मानसिकता के कारण यह कारोबार शिखर पर है।

व्यकितविशेष के अलावा राजनीतिक दल भी अब सोशल मीडिया को एक हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं आए दिन इसके माध्यम से एक दूसरे पर कटाक्ष का कीचड़ उछालने में लगे हैं आम आदमी से जुड़ी समस्याओं को मुद्दा बनाकर सस्ती लोकप्रियता की चाह में राह से भटक गए है। पुराने मैसेज व वीडियो को अपलोड करके अन्य किसी दल समुदाय या व्यकितविशेष का भ्रामक व दुष्प्रचार करना अब सोशल मीडिया का अभिन्न हिस्सा बन चुका है जो हम सभी के लिए भविष्य में बहुत ही घातक सिद्ध हो सकता है। राजनीतिक दलों के सक्रिय आई टी सेल्स अपनी उपलब्धियों के बारे में कम जानकारी दे रहे हैं अपितु दूसरे दलों की आलोचना करने में अधिक विश्वास रखते हैं। जैसे जैसे चुनाव नजदीक आता है इनके पास हजारों वर्ष के आंकड़े भी पहुंच जाते हैं और फिर होता है जनता को गुमराह करने का खेल और दुर्भाग्यवश कुछ लोग भी इस खेल में बिना कोई विचार किए खुद को खिलाड़ी समझ कर कूद जाते है जिसका परिणाम होता है हर बार जनता की हार। बहरहाल जो भी हो हमें अपने विवेक से ही अपने भविष्य का चयन करना होगा सोशल मीडिया के दोनों पहलुओं से अवगत हो कर ही इसका उपयोग स्वंम के और राष्ट्रहित में करना है किसी भी व्यकितविशेष या दल के द्वारा डाली गई पोस्ट या न्यूज़ के तथ्यों की गहनता से जाँच करने के बाद ही अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करनी होगी।कहते है आवश्यकता अविष्कार की जननी है सोशल मीडिया वर्तमान में हमारी आवश्यकता है और आवश्यकता से अधिक अपेक्षाएं रखना मानवीय मूल्यों के विरुद्ध हो जाता है। क्योंकि हम और हमारा देश वर्तमान परिदृश्य में विपरीत परिस्थितियों से जूझ रहा है ऐसे में सोशल मीडिया के माध्यम से किया गया तथ्यहीन प्रचार किसी को भी असमंजस की स्थिति में डाल रहा है।

 हमें इस नवीनतम माध्यम के दोनों पहलुओं में से सकारात्मक पहलु का चयन करके अपने राष्ट्र को सुदृढ़ता प्रदान करने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि यह सवेदनशील समय सोशल मीडिया पर एक दूसरे की आलोचना का नही अपितु विवेचना करने का है। 

“लोकल के लिए वोकल” वास्तविक स्वरूप में कितनी है सार्थकता ? : सुशील पंडित

‘देशी आंदोलन’ मात्र बोलने या सुनने से ही राष्ट्र भक्ति की भावना जागृत होना हम सब के लिए स्वाभविक सी बात है, स्वदेशी वस्तुओं के उत्पादन व बिक्री से कोई अन्य वर्ग लाभान्वित हो या शायद न भी हो परन्तु आम जनता को इसका आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से लाभ सीधे तौर पर हो सकता है। हो भी क्यों न पराधिनता के सफ़र में स्वदेशी आंदोलन ने अपनी विशेष भूमिका निभाई है। तत्कालीन परिस्थितियों में इस रणनीति के अंतर्गत ब्रिटेन में निर्मित उत्पादों का बहिष्कार करना था तथा स्वदेश में बने उत्पाद का अधिकाधिक प्रयोग करके अंग्रेजी हकूमत को नुकसान पंहुचाना व भारत के लोगों के लिए रोजगार का सृजन करना स्वदेशी आंदोलन का एकमात्र उद्देश्य था। पराधिनता की विषमताओं में भारतवासियों के लिए यह सब एक बहुत बड़ी चुनौती रही होगी क्योंकि हम जिस शासन के आधीन हो और उसी हकूमत के द्वारा निर्मित वस्तुओं का बहिष्कार कर तत्कालीन शासन की आर्थिक पृष्टभूमि पर अंकुश लगाने का कार्य करना सच में साहसपूर्ण था। परन्तु वर्तमान के परिदृश्य में हालात विपरीत है।

सुशील पंडित (पत्रकार), यमुनानगर – जून 18

सुशील पंडित

सोमवार रात्रि को भारत चीन सीमा पर हुुुई हिंसक झड़प में जहाँ हमारे 20 जवान शहीद हुए वहीं एक बार फिर से चीन के इस घिनौने कृत्य नेे सम्पूूर्ण भारत के नागरिकों के समक्ष चीन का अमानवीय चेहरा उजागर हुआ। ऐसा क्यों होता है कि जब हम मानसिक या शारीरिक रूप किसी की प्रताड़ना का शिकार होते हैं तब हम कुछ क्षण के लिए उसका विरोध करते हैं परन्तु परिस्थिति सामान्य होने पर हम सहज रूप से सब भूल कर फिर से उसी धारा प्रवाह में बहने लगते हैं। मेरे इस लेख का एकमात्र उद्देश्य है आप सभी का ध्यान केंद्रित करना कि वर्तमान में स्वदेशी आंदोलन कितना सार्थक है और यदि नही है तो यह जिम्मेदारी किसकी है। क्या केवल आम जनता की या फिर वर्तमान सत्ता या पूर्व में सत्ता सुख भोग चुके राजनीतिक दल या पूंजीपतियों की।

‘देशी आंदोलन’ मात्र बोलने या सुनने से ही राष्ट्र भक्ति की भावना जागृत होना हम सब के लिए स्वाभविक सी बात है, स्वदेशी वस्तुओं के उत्पादन व बिक्री से कोई अन्य वर्ग लाभान्वित हो या शायद न भी हो परन्तु आम जनता को इसका आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से लाभ सीधे तौर पर हो सकता है। हो भी क्यों न पराधिनता के सफ़र में स्वदेशी आंदोलन ने अपनी विशेष भूमिका निभाई है। तत्कालीन परिस्थितियों में इस रणनीति के अंतर्गत ब्रिटेन में निर्मित उत्पादों का बहिष्कार करना था तथा स्वदेश में बने उत्पाद का अधिकाधिक प्रयोग करके अंग्रेजी हकूमत को नुकसान पंहुचाना व भारत के लोगों के लिए रोजगार का सृजन करना स्वदेशी आंदोलन का एकमात्र उद्देश्य था। पराधिनता की विषमताओं में भारतवासियों के लिए यह सब एक बहुत बड़ी चुनौती रही होगी क्योंकि हम जिस शासन के आधीन हो और उसी हकूमत के द्वारा निर्मित वस्तुओं का बहिष्कार कर तत्कालीन शासन की आर्थिक पृष्टभूमि पर अंकुश लगाने का कार्य करना सच में साहसपूर्ण था। परन्तु वर्तमान के परिदृश्य में हालात विपरीत है आज हम हर प्रकार से सक्षम है  राष्ट्र पर किसी बाहरी शक्ति का दबाव या प्रभाव भी नही है। फिर ऐसा क्यों लगता है कि हमें अपने ही देश में अपने ही स्वदेशी उत्पादों की बिक्री के लिए जागरण के माध्यम से जागरूक किया जाने पर भी बहुत अच्छे परिणाम नजर नहीं आ रहे क्या कारण है कि हम अपने घर में निर्मित की जा रही वस्तुओं में भारत के लोगों की विश्वसनीयता नही हासिल कर पा रहे हैं। स्वदेशी जैसे अनुकरणीय औऱ उदात्त विचार के प्रति लोगों में गंभीरता नाममात्र ही दिखाई देती है। जहां एक ओर स्वदेशी जागरण मंच व अन्य संगठनों व संस्थाओं के माध्यम से दिन रात प्रचार प्रसार किया जा रहा है वहीं देश के कुछ वर्ग विदेशी कंपनियों की चाटूकारिता करते हुए निरन्तर आर्थिक विकास पर टिप्पणी करने में लगे हुए हैं।

मेरे इस लेख का आशय प्रधानमंत्री के द्वारा दिए गए भाषण “लोकल के लिए वोकल होने” से भी है परन्तु भाषण को वास्तविकता के पटल पर क्रियान्वित करना वास्तव मे चुनौती पूर्ण प्रयास होता है स्वदेशी की सार्थकता तो हमें स्वदेशी बन कर ही सिद्ध करनी होगी। विदेशी परिधान पहन कर स्वदेशीकरण की बात करना ये किसी भी भारतीय को शोभा नहीं देता एक ओर हमारे नेताओं अभिनेताओं के द्वारा स्वदेशी जागरण का अलख जगाया जा रहा है वहीं दूसरी तरफ वही नेता अभिनेता सुबह उठने से लेकर और रात को सोने तक के समय में विदेशी कंपनियों के द्वारा बनाई गई लग्जरी वस्तुओं का भोग करने से नही चूकते। क्या स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग केवल आम जनता के लिए है? यदि ऐसा है तो कोई अधिकार नहीं है इन वर्गों को बड़े बड़े मंचो से स्वदेशी का ढिंढोरा पीटने का।

चीन ने भारतीय बाजारों में अपनी पकड़ बना रखी है इसका कारण है कम गुणवत्ता वाले उत्पादों को कम मूल्यों पर लोगों की पहुंच तक उपलब्ध करना और यह सब तभी संभव होता है जब किसी राष्ट्र का बाजारीकरण की व्यवस्था सुस्त हो चीन के साथ भारत के व्यपारिक सम्बंध 80 के दशक से तेज हुए है तथा वर्तमान समय की बात की जाए तो चीन ने तो कभी भारतीय उत्पाद को महत्व नहीं दिया। भारत लगभग 160 देशों के साथ व्यपार करता है जिनसे 60 प्रतिशत घाटा होता है जिसमें अकेले चीन से 42 प्रतिशत का नुकसान हमें उठाना पड़ता है इस बात से यह प्रतीत होता है कि राजनैतिक व पूंजीपतियों की निजी महत्वाकांक्षा का ही परिणाम है जो हम वर्तमान में स्वदेशी आंदोलन को अधिक सफ़ल नही कर पाए। लोकल को वोकल बनाने के लिए बाजारीकरण की नीति में सुधार लाने की अति आवश्यकता है। विदेशी मानसिकता रखने वाले कुछ वर्गों को यदि छोड़ दिया जाए तो भारत का हर आम आदमी मौजूदा व्यवस्था से यही अपेक्षा रखता है कि उन्हें अपने ही देश में बनी हुई वस्तुएँ उनके बजट में उपलब्ध हो सके परन्तु बड़े बड़े शोरूम पर बिकने वाले स्वदेशी उत्पाद अपने अत्यधिक मूल्यों के कारण आम आदमी की पहुँच से कोसों दूर है, भारत में निर्मित यह उत्पाद विदेशी वस्तुओं के दामों की अपेक्षा कही अधिक है जिसके चलते यहाँ भी परिस्थिति स्वदेशी आंदोलन के प्रतिकूल हो जाती है कुछ ऐसे स्वदेशी उत्पाद बाजार में उपलब्ध है जो कहने में और देखने में स्वदेशी हो सकते परन्तु उनके मूल्यों पर ध्यान दिया जाए तो वह भी अन्य विदेशी वस्तुओं की भांति ही दिखाई देते हैं।

जो लोग,वर्ग या दल आन्तरिक रूप से विदेशी उत्पादों का उपयोग करते हैं या इन्हें बढ़ावा देने में लगे हुए हैं वह मानसिक रूप से आज भी ग़ुलाम ही कहे जा सकते हैं या संभवत ये सब  उन संस्थाओं या सगठनों से जुड़े हैं जो विदेशी कंपनियों को बढ़ावा देने के लिए चंदा प्राप्त कर रहे है। यदि स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग का केवल भाषण या सोशल मीडिया पर बखान न करके अपितु इन्हें वास्तविक जीवन में स्थान देंगे तो केवल देश की अर्थव्यवस्था ही ठीक नहीं होगी साथ ही लाखों बेरोजगारों को रोजगार के अवसर प्राप्त होंगे स्थानीय प्रतिभा को आगे बढ़ने का मौका मिल सकता है। स्वदेशी केवल उत्पाद से जुड़ा विषय नही है यह वर्तमान भारत का आंदोलन भी है स्वदेशी के आभाव में राजनीतिक,आर्थिक,सांस्कृतिक और मानसिक स्वतंत्रता असंभव है। इस अभियान की सार्थकता तभी संभव हो सकती है जब सभी राजनैतिक दल सामाजिक सगठन व बुद्धिजीवी वर्ग के लोग एक मंच पर एकत्रित हो कर निजी स्वार्थ त्याग एक स्वर में स्वदेशी को बढ़ावा देने के लिए आवाज बुलंद करने का सकारात्मक प्रयास करेंगे।

केवल मात्र भाषण या विभिन्न प्रकार के मंचो पर परिचर्चा कर स्वदेशी आंदोलन को सफ़ल करना संभव नहीं है अपितु आम जनता व भारत के लघु व कुटीर उद्योगों से जुड़े लोगों के हितों को भी ध्यान में रखते हुए धरातल पर कार्य कर तथा वास्तविकता को आधार बनाकर ही “लोकल के लिए वोकल” का नारा सही दिशा में कारगर हो सकता है।

चल रहा है बस आरोप-प्रत्यारोप का खेल…… भुगतना तुझे ही पड़ेगा जनता, झेल सके तो झेल…

सुशील पंडित

मेरे किसी भी लेख की या मेरी स्वंम की अवधारणा किसी राजनैतिक पार्टियों को छोटा या बड़ा साबित करना नहीं है। क्योंकि शास्त्रों में लिखा है। हर कोई व्यक्ति, दल, जाति, धर्म व समुदाय अपने कर्मों से छोटा या फिर बड़ा होता है।

रही बात हमारी सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था की बात! ये दोनों भी कुशल या विफल राजनीति पर ही निर्भर करती है।

आज बात करते हैं आरोप-प्रत्यारोप रूपी चक्की के विषय पर जिसके दोनों पाट(हिस्से) सत्ता पक्ष व विपक्ष से निर्मित है। इसमें पिस्ता क्या है आम आदमी की भावनाओं, अपेक्षाओं रूपी आनाज परन्तु यह कोई नई बात नहीं है अब यह स्वाभाविक हो चुका है। जहाँ पूरा विश्व कोरोना जैसी महामारी से जूझ रहा है, पूरे विश्व में त्राहिमाम की स्थिति है वहीं कुछ राजनैतिक दलों में एक दूसरे के ऊपर आरोप लगाने का सिलसिला निरन्तर जारी है।

मौजूदा सरकार के द्वारा लॉक डाउन के चतुर्थ चरण की घोषणा की गई है। प्रथम चरण से लेकर अब तक राष्ट्र के हित को ध्यान में रखते हुए अलग अलग घोषणाएं भी की जा रही है और हमें लगता है कि अगर सभी घोषणाओं पर  धरातल के पटल से वास्तविक स्वरूप में आम जनता व सर्व वर्ग के लिए कार्य किया जाए तो हमारा राष्ट्र हर विपदा का सामना भली भांति करने में सक्षम है। लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में जिस प्रकार राष्ट्र चिंतन में आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति अटकलें खड़ी कर रही है उस दृष्टि से समाज का हर वर्ग चिंतित हैं। हम कब तक जाति, धर्म, समुदायों तथा राजनीति का बहरूपिया किरदार लेकर राष्ट्र निमार्ण की नींव को निर्बल करने में अपनी नकारात्मक ऊर्जा का संचार करते रहेंगे।

आम आदमी आज दोराहे पर खड़ा है कोविड19 के चलते सभी प्रकार के व्यवसाय आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहे हैं सभी छोटी बड़ी फैक्ट्रियों में कार्य ठप्प होने की वजह से मालिक और कर्मचारी असमंजस की स्थिति में है। निजी संस्थानों के स्वामी व सेवक भी मौजूदा हालात में विषम परिस्थितियों गुजर रहे हैं। किसानों को उनकी परम्परागत फसलों के अलावा अन्य फसलों जैसे विभिन्न प्रकार की सब्जियों की उपज में लागत मूल्य के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। इन सभी बिंदुओ को ध्यान में रखते हुए मेरा जन साधारण की ओर से यह सुझाव व अनुरोध सभी राजनैतिक दलों व धार्मिक सगठनों व जातिगत आधार पर परिणाम रहित बहस करने वालों से है कि एक दूसरे पर आरोप लगाने का समय भविष्य में भी आएगा एक दूसरे को नीचा दिखाने की स्वर्णिम बेला भी शायद आपको मिल ही जाएगी लेकिन अभी नही क्योंकि इस समय सभी की दृष्टि जन साधारण पर है ये ही समय है अपने आप को अच्छा साबित करने का भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है किसी को नही पता लेकिन हम अपना वर्तमान सर्वहितकारी बनाएंगे तो स्वाभाविक है भविष्य राष्ट्र का स्वर्णिम होगा।

“कोरोना से डर नहीं लगता साहब…भूख से लगता है”……

समाज की वास्तविक स्थिति देखी तो यह प्रतीत हुआ कि किस लोकतंत्र की छाया में बैठ कर हमारा सम्पूर्ण समाज सविधान की चादर ओढ़े, सामाजिक समरसता के गीत गुनगुना रहा था। मैं किसी राजनैतिक पार्टी या धर्म विशेष की बात नहीं करना चाहता क्योंकि इनके बारे में बात करना इन प्रतिकूल परिस्थितियों में अंधे से रास्ता पूछने जैसा होगा।

सुशील पंडित, यमुनानगर

कोविड19 के प्रकोप ने सम्पूर्ण मानव जाति का परिदृश्य ही बदल कर रख दिया है। यह जो भी विकट समस्या महामारी के रूप में हमारे सामने मुँह खोले खड़ी है इसकी तो शायद हम में से किसी ने भी कल्पना भी नहीं की होगी।

सुशील पंडित

 जो भी वर्तमान में चल रहा है इससे यह तो बिल्कुल स्पष्ट हो चुका है कि हम सभी अभी तक एक ऐसा भ्रम से सराबोर  जीवन व्यतीत कर रहे थे जो वास्तविकता से कोसों दूर है। आज जब समाज की वास्तविक स्थिति देखी तो यह प्रतीत हुआ कि किस लोकतंत्र की छाया में बैठ कर हमारा सम्पूर्ण समाज सविधान की चादर ओढ़े, सामाजिक समरसता के गीत गुनगुना रहा था। मैं किसी राजनैतिक पार्टी या धर्म विशेष की बात नहीं करना चाहता क्योंकि इनके बारे में बात करना इन प्रतिकूल परिस्थितियों में अंधे से रास्ता पूछने जैसा होगा। आज जब मैं अपनी रिपोटिंग के दौरान फील्ड में कार्य कर रहा था तो मैने देखा बहुत अधिक संख्या में लोग पैदल अपनी मंजिल की तलाश में चले जा रहे थे। जब मैंने उन्हें ध्यान से देखा तो प्रतीत हुआ वो तो सभी हिंदुस्तानी ही थे और शायद हमारे लोकतंत्र में भी बराबर के भागीदार, कुछ के थके-मांदे चहरो से तो सविधान भी पसीना बन कर टपक रहा था। और हाँ कुछ बच्चे भी थे, शायद हमारे देश के भविष्य में बनने वाले डॉक्टर, इंजीनियर, अधिवक्ता, व उच्च अधिकारी आदि पर अफ़सोस भूखे, थके और सहमे हुए थे। मातृशक्ति भी इस अंजान, परिणामरहित संघर्ष में कंधे से कंधा मिलाकर चल रही थीं। सभी के मन में एक ही प्रश्न था कि ये सब क्या हो रहा है? और क्यों हो रहा है?

मैं एक पत्रकार होने से पहले आम इंसान हूँ इसलिए उनमें से एक को पूछ बैठा, आप कहा से हो? उस गरीब के जवाब ने मुझे भी झकझोर कर रख दिया कहने लगा साहब भारत से ही हूँ क्या आप भी फ़ोटो लेने आए हो? और मैं स्तब्ध रह कर उस व्यक्ति(मजदूर) को देखता रहा क्योंकि उसकी बात का जवाब शायद मेरे पास नही था। इससे पहले मैं कुछ और बात करता उस हैरान परेशान श्रमिक ने मार्मिक शब्दों में कहा “साहब कोरोना से डर नहीं लगता, भूख से लगता है” जाहिर सी बात है यह बात उसने किसी बड़ी वजह से ही कही होगी। एक ओर शासन प्रशासन प्रवासी मजदूरों की जरूरतें पूरी करने की क़वायद में लगी है चाहें वो बड़े बड़े बजट के माध्यम से या फिर राजनीतिज्ञों के मुखारबिंद से डिबेट्स में सीना चौड़ा करके कहे गये आम आदमी के कानों में रस घोलने वाले शब्दों के माध्यम से। परन्तु अफ़सोस धरातल पर अब शून्य ही नजर आ रहा है। सभी श्रमिकों में मौजूदा हालात को लेकर असमंजस की स्तिथि बनी हुई है। इन प्रतिकूल परिस्थितियों की आंच में विपक्षी दलों के द्वारा भी ओछी राजनीति की रोटियां खूब सेकी जा रही है। बहरहाल जो भी हो मेरा यानि हर उस आम आदमी का यही प्रश्न है कि क्या कमी है और कहा कमी है अगर है तो उसे सुधारने का मौका सभी गलती करने वालों के पास शायद है अभी। हमारे देश में कोरोना जैसी महामारी ने अभी दस्तक दी है और मैं परमपिता परमात्मा से यह प्रार्थना भी करता हूँ कि अब बस और नही क्योंकि यहाँ शासन अभी पूरी तरह से परिपूर्ण नही हैंं जो रोते हुए लोगों के आँसू पोंछ सके। और न ही यह सतयुग है कि जो दो चार सच्चे नेताओं की देशभक्ति से सभी पीड़ाओ को पल भर में समाप्त कर दे।

किसी भी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था ही वहाँ के सामाजिक जीवन की व्यवस्था को सुनिश्चित करती है। वर्तमान परिवेश में जो भी चल रहा है उसका निदान करना किसी भी विशेष राजनैतिक दल या विशेष समाज के हाथ में नही है लेकिन आपसी सामंजस्य स्थापित करके ही इस महामारी से लड़ने में हम सक्षम हो सकते हैं। हमें सभी की भावनाओं का आदर करना होगा वो चाहे इस देश का गरीब मजदूर हो या फिर राष्ट की अर्थव्यवस्था मजबूत करने वाला व्यपारी क्योंकि अगर लोकतंत्र है तो हम है और स्वस्थ लोकतंत्र में सामजिक समानता का अधिकार सभी को है। भविष्य के गर्भ में क्या है ये शायद किसी को नही पता। बहरहाल जो भी चल रहा है उसका सामना तो हम करेंगें और दूसरों को भी करने के लिए प्रेरित करने का सकारात्मक प्रयास करेंगे। अब बहुत हुआ किसी धर्म जाति पर कटाक्ष करने के यह खेल जो सिर्फ और सिर्फ इस दोगली राजनीति की उपज है।बुजुर्ग अक्सर कहते “शत्रु तब पहचानिए जब सुख हो निकट, मित्र तब जानिए जब परिस्थिति हो विकट ” भूतकाल तो चला गया जो हुआ नहीं पता परन्तु वर्तमान व भविष्य में अपने विवेक का प्रयोग करके स्वंम का और स्वस्थ, सुदृढ़,और सच्चे राष्ट्र का निर्माण करने में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करें।