Women must marry in hinduism instead facing triple talaq or halala: Sadhvi Praachi

Mathura: Vishwa Hindu Parishad leader Sadhvi Prachi has asked Muslim women who faced triple talaq to join Hinduism.

In provocative remarks in Mathura on Tuesday, she said if women marry in Islam, they will “definitely” undergo a divorce.

This will be followed by the “horrible halala”, she told reporters in Mathura, referring to the controversial form of marriage.

“So kick the culture which ruins lives and adopt Hinduism,” Sadhvi Prachi, who has been booked for hate speech in the past, said.

She said Hinduism binds a couple for “seven lifetimes”.

“In Hindu society, you will get good values and good sons. Please join, you are welcome,” she said, offering Muslim women a “life in heaven.”

The controversial preacher said she wanted to meet activist Nida Khan who is fighting against practices like triple talaq and halala.

Sharad Yadav appealed to the Congress to lead

Bhopal:

Loktantrik Janata Dal leader Sharad Yadav appealed to the Congress Thursday to take the lead in bringing together all opposition parties on a single platform to dislodge the BJP from power.

Addressing a gathering, he said the country was currently reeling under an “undeclared democracy” in the BJP rule.

“It (defeating the BJP) will not happen without opposition unity. Those getting 31 percent votes are ruling now because 69 percent votes stood divided. The Congress is the biggest opposition party and it should take responsibility to bring all parties on a single platform,” Yadav said while addressing the state-level Lokkranti Sammelan.

“We will have an alliance with the Congress at the national level and also make an effort to have a coalition here (in Madhya Pradesh),” he said in an interaction with reporters after the function.The former JD(U) leader also hinted that parties in the proposed Third Front would forge an alliance with the Congress at the national level and in Madhya Pradesh, where assembly polls were due later in 2018.

He was responding to a query whether the parties under the proposed Third Front would stitch an alliance with the Congress.

“An undeclared emergency is more dangerous than the declared one. At present, there is an undeclared emergency in the country,” he said, alleging that the governments in Madhya Pradesh and Centre were spreading lies.

He said every section of the society was suffering under the BJP-led central government which had caused the “maximum damage” to the country in just four years.

Yadav appealed to the people to vote in the upcoming elections with an objective to save the country and the Constitution and not on the lines of caste and religion.

He said the BJP under leaders like (former prime minister) Atal Bihari Vajpayee and Lal Krishna Advani was different from the present one under Prime Minister Narendra Modi.

“It is time for the people to ask the government to fulfill the electoral promises made by them,” the socialist leader said.

Yadav slammed the Modi-led government over the “non-fulfilment” of the electoral promise of creating 2 crore jobs and for demonetising higher currencies.

Accusing the BJP of dividing the society, Yadav claimed, “Cows seem have become more important than their daughters and mothers.”

He alleged that the Madhya Pradesh government had “ruined” the Narmada and the Tawa rivers by allowing illegal mining.

Taking a dig at Chief Minister Shivraj Singh Chouhan’s “Jan Ashirvad (blessing) Yatra”, Yadav dubbed the mass outreach campaign ‘Jan Abhishap (curse) Yatra’.

“The BJP rule has become an ‘abhishap’ (curse) for the common people,” he claimed.

Yadav said he had coined two slogans, “BJP Bhagao – Desh Bachao” and “Modi Hatao Samvidhan Bachao”. He claimed that 102 people had died in mob lynching incidents in the country under the BJP rule.

Speaking on the occasion, Bahujan Sangharsh Dal (BSD) president Phool Singh Baraiya alleged, “Most of the slaughter-houses exporting beef abroad are run by Hindus.”

He dared the BJP governments to cancel the licenses of these facilities. Congress leader and former East Delhi MP Sandeep Dikshit and Communist leaders from Madhya Pradesh also attended the convention.

‘बीजेपी को हमारे बारे में चिंता करने की बजाय अपना घर संभालना चाहिए’: ज्योतिरादित्य


सिंधिया ने शिवराज पर कटाक्ष करते हुए कहा कि उन्हें राजे-रजवाड़ों से जुड़ी शब्दावली के इस्तेमाल के सिलसिले में बीजेपी से जुड़ी उनकी दोनों बुआओं से भी बात करनी चाहिए


मध्यप्रदेश में जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, वैसे-वैसे नेताओं की बयानबाजी भी तेज होती जा रही है. इसी कड़ी में शनिवार को कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर निशाना साधा है. सिंधिया ने कहा कि मुख्यमंत्री को इस बात का प्रचार कतई नहीं करना चाहिए की वह पिछड़े वर्ग से ताल्लुक रखते हैं. क्योंकि मुख्यमंत्री का संवैधानिक पद जाति-धर्म की सीमाओं से परे होता है.

प्रदेश कांग्रेस की चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष ने कहा, ‘शिवराज अपने सार्वजनिक वक्तव्यों में अक्सर खुद को पिछड़ा बताते हैं. लेकिन वह सुन लें कि मुख्यमंत्री पद की कोई जाति या धर्म नहीं होता. मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री सूबे की साढ़े सात करोड़ जनता का प्रतिनिधि होता है.’

ग्वालियर के राजघराने के 48 वर्षीय उत्तराधिकारी ने उन्हें शिवराज द्वारा ‘महाराजा’ कहे जाने पर भी आपत्ति जताई है. उन्होंने कहा, ‘आजादी के बाद राजा-महाराजाओं का दौर खत्म हो गया है. एक राजनेता के रूप में मेरा मूल्यांकन सार्वजनिक क्षेत्र में मेरे परिश्रम के आधार पर होना चाहिए.’

वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने कहा, ‘अगर शिवराज मेरे लिए राजा-महाराजा जैसे शब्द इस्तेमाल कर रहे हैं, तो उन्हें इस सवाल का भी जवाब देना चाहिए कि जब वह 30 साल पहले बीजेपी के एक कार्यकर्ता थे. तब उन्होंने मेरी दिवंगत दादी (विजयाराजे सिंधिया) के लिए राजे-रजवाड़ों से जुड़ी शब्दावली का इस्तेमाल क्यों नहीं किया था.’

सिंधिया ने शिवराज पर कटाक्ष करते हुए कहा कि उन्हें राजे-रजवाड़ों से जुड़ी शब्दावली के इस्तेमाल के सिलसिले में बीजेपी से जुड़ी उनकी दोनों बुआओं से भी बात करनी चाहिए. राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया और मध्यप्रदेश की कैबिनेट मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया की बुआ हैं.

गौरतलब है कि कांग्रेस ने प्रदेश में इस साल के आखिर में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए मुख्यमंत्री पद का चेहरा अब तक घोषित नहीं किया है. हालांकि सत्तारूढ़ बीजेपी की ओर से प्रमुख विपक्षी दल को लगातार चुनौती दी जा रही है. बीजेपी का कहना है कि कांग्रेस इस पद पर दावेदारी के लिए अपने किसी नेता को शिवराज के खिलाफ चुनावी मैदान में उतारकर दिखाए.

इस बारे में पूछे जाने पर सिंधिया ने कहा, ‘बीजेपी को हमारे बारे में चिंता करने की बजाय अपना घर संभालना चाहिए. शिवराज को केवल अपनी कुर्सी की फिक्र है. लेकिन हम सत्ता के लिए लालायित नहीं हैं और हमें केवल जनता की चिंता है.’ उन्होंने कहा, ‘फिलहाल सूबे की साढ़े सात करोड़ जनता ही हमारा चुनावी चेहरा है.’

नितिन गडकरी ने दिखाया बड़ा कद ज्योतिरादित्य से मांगी माफी

 

नई दिल्ली। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने गुरुवार को गुना से लोकसभा सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया से माफी मांगी। ज्योतिरादित्य ने अपने लोकसभा क्षेत्र में एक राजमार्ग के उद्घाटन समारोह में उन्हें आमंत्रित नहीं किए जाने और आमंत्रणपत्र में भी नाम नहीं दिए जाने पर लोकसभा अध्यक्ष को विशेषाधिकार हनन का नोटिस दिया था। उस समारोह में गडकरी मौजूद थे। लोकसभा में शून्यकाल शुरू होते ही सिंधिया ने कहा, “स्थानीय सांसदों को प्रोटोकाल के तहत ऐसे कार्यक्रमों में आमंत्रित किया जाना चाहिए।”

इसके जबाव में सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने माफी मांगी और स्वीकार किया कि यह नहीं होना चाहिए था। उन्होंने कहा कि उन्होंने मामले की जानकारी ली और इसे सत्य पाया।

वह कार्यक्रम संबद्ध मंत्रालय ने आयोजित किया था।

गडकरी ने कहा, “मुझे यह पता है और जब मैं वहां उपस्थित था, मुझे इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए। सांसद का नाम वहां होना चाहिए। सभी लोगों की तरफ से मैं माफी मांगता हूं और यह दोबारा नहीं होगा।”

इस दौरान कांग्रेस सांसद के.सी. वेणुगोपाल के सहयोग से सिंधिया और मध्य प्रदेश के सतना से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सांसद गणेश सिंह और ग्रामीण विकास मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के बीच वाकयुद्ध हुआ।

2019: कांग्रेस के पास 272 के ‘मैजिक फिगर’ के लिये कोई जादुई छड़ी नहीं है

क्या कांग्रेस 1977 के चुनावी फॉर्मूले को लेकर 2019 का चुनाव जीतने का ख्वाब संजो रही है? 1977 में जिस तरह से कांग्रेस के खिलाफ समूचा विपक्ष एकजुट हुआ था क्या वो ही तस्वीर 2019 में बीजेपी के खिलाफ दिखाई देगी?

दरअसल बीजेपी की इस वक्त मजबूत स्थिति 1960 और 1970 के दशक में कांग्रेस की स्थिति को दर्शा रही है. कांग्रेस की ही तरह बीजेपी आज देश की सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर राज्य दर राज्य अपनी विजय यात्रा जारी रखे हुए है. बीजेपी के विजयी रथ को रोकने के लिये कांग्रेस वर्किंग कमेटी में गहन मंथन हुआ. पूर्व गृहमंत्री पी चिदंबरम ने 2019 के लोकसभा चुनाव के लिये ‘मिशन 300’ का प्लान पेश किया है.

chidambaram

चिदंबरम का मानना है कि 12 राज्यों में कांग्रेस के मजबूत जनाधार को देखते हुए 150 सीटों का लक्ष्य रखा जाए. कांग्रेस अगर अपनी मौजूदा सीटों की संख्या को तीन गुना बढ़ा कर 150 तक पहुंचा ले तो बाकी 150 सीटों का बचा हुआ काम क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन पूरा कर सकते हैं. जिससे 272 के ‘मैजिक फिगर’ को यूपीए-3 पार कर सकती है.

चिदंबरम का मानना है कि तकरीबन 270 सीटें ऐसी हैं जहां क्षेत्रीय दलों के साथ रणनीतिक गठबंधन की मदद से 150 सीटें जीती जा सकती हैं. चिदंरबरम फॉर्मूले के तहत कांग्रेस 300 सीटों पर अकेले और 250 सीटों पर रणनीतिक गठबंधन के साथ चुनाव लड़े.

साल 2004 में भी कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में 145 सीटें मिली थीं जिसके बाद उसने केंद्र में यूपीए-1 की सरकार बनाई थी. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस केवल 44 सीटें ही जीत सकी थी.

कांग्रेस की रणनीति ये हो सकती कि वो जिन राज्यों में मजबूत स्थिति या फिर नंबर दो पर हो वहां बीजेपी से सीधा मुकाबला करे. लेकिन जिन राज्यों में उसकी स्थिति नंबर 4 की हो तो वहां क्षेत्रीय दलों को बीजेपी से टक्कर के लिये आगे बढ़ाए और खुद पीछे रह कर समर्थन करे.

एनसीपी नेता शरद पवार ने भी ऐसा ही सुझाव कांग्रेस को सुझाया था. पवार ने चुनाव पूर्व महागठबंधन की कल्पना अव्यावाहरिक बताया था. उन्होंने महागठबंधन के आड़े आ रही क्षेत्रीय दलों की निजी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की मजबूरी को सामने रखा था. उनका कहना था कि चुनाव में क्षेत्रीय दल पहले अपनी राजनीतिक स्थिति को मजबूत करना चाहेंगे. भले ही बाद में बीजेपी विरोधी दल समान विचारधारा के नाम पर एक छाते के नीचे महागठबंधन बना लें.

लेकिन सवाल ये उठता है कि कांग्रेस के लिये आखिर 150 का आंकड़ा भी कैसे और किन राज्यों से आ सकेगा? इमरजेंसी के बाद कांग्रेस ने जिस तरह से सत्ता में धमाकेदार वापसी की थी, वैसा ही करिश्मा दिखाने के लिये कांग्रेस के पास आज न ज़मीन है और न ही चेहरा.

दरअसल इमरजेंसी के बाद कांग्रेस की सत्ता में वापसी की सबसे बड़ी वजह खुद जनता पार्टी भी थी. जनता पार्टी की सरकार अंदरूनी कलह की वजह से गिर गई थी. जिसका फायदा उठाते हुए कांग्रेस जनता को ये समझाने में कामयाब रही कि सिर्फ कांग्रेस ही देश में शासन चला सकती है. उस वक्त कांग्रेस के पास इंदिरा गांधी जैसा करिश्माई चेहरा भी था. पाकिस्तान से 1971 की जंग जीतने के सेहरा उनके राजनीतिक बायोडाटा में दर्ज था. ‘इंदिरा इज़ इंडिया’ जैसे नारों की गूंज थी. लेकिन आज कांग्रेस के पास बीजेपी के भीतर भूचाल लाने वाले चेहरे का शून्य साफ देखा जा सकता है.

जहां कांग्रेस के लिये यूपीए 3 को लेकर चुनाव पूर्व गठबंधन की राहें इतनी आसान नहीं है तो वहीं चुनाव बाद महागठबंधन को लेकर भी आशंकाएं दिनों-दिन गहराने का ही काम कर रही हैं. अविश्वास प्रस्ताव में बीजेडी और टीआरएस जैसी पार्टियों के रुख ने कांग्रेस को झटका देने का काम किया है. इन दोनों ही पार्टियों ने खुद को वोटिंग से अलग रख कर बीजेपी का ही एक तरह से साथ दिया है. जबकि महागठबंधन को लेकर एसपी,बीएसपी और टीएमसी जैसी पार्टियों ने अब तक अपना रुख साफ नहीं किया है. कांग्रेस के साथ गठबंधन करने में इन पार्टियों को अपने जनाधार खिसकने का भी डर है.

समान विचारधारा के नाम पर भी ये पार्टियां यूपीए3 का हिस्सा बनने से कतरा रही हैं क्योंकि कांग्रेस के ‘मुस्लिम पार्टी’ के ठप्पा का डर इन्हें भी लगने लगा है. यूपी विधानसभा चुनाव में एसपी का मुस्लिम-यादव समीकरण का सत्ता दिलाने का हिट फॉर्मूला फेल हो गया तो बीएसपी की सोशल इंजीनियरिंग का किला भी ध्वस्त हो गया था. साफ है कि अब एसपी-बीएसपी भी लोकसभा चुनाव में हर कदम फूंक-फूंक कर रखेंगीं. ऐसे में कमजोर कांग्रेस के साथ चुनावी तालमेल की संभावना सियासी सौदेबाजी के कई चरणों के बाद ही हो सकती है.

बिहार की राजनीति में कांग्रेस अपने ही वजूद के लिये संघर्ष कर रही है. ऐसे में यहां उसके पास यूपीए के सहयोगी आरजेडी के सामने सरेंडर करने के अलावा कोई चारा नहीं है. बिहार की राजनीति में मुख्य लड़ाई आरजेडी और बीजेपी-जेडीयू के बीच ही होगी.

जबकि पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी पार्टी टीएमसी की नेता ममता बनर्जी का ज्यादा जोर थर्ड फ्रंट बनाने पर दिखता रहा है. लेकिन टीआरएस के बदले-बदले से मिजाज को देखकर वो भी अब खुद की पार्टी को ही चुनाव में मजबूत करने का काम करना चाहेंगीं. इसी तरह तमिलनाडु और केरल जैसे दूसरे राज्यों में भी कांग्रेस की उम्मीदें डीएमके और सीपीएम जैसी पार्टियों पर है. इन राज्यों में कांग्रेस को अपने ही धैर्य का इम्तिहान लेना होगा. सीपीएम कभी हां-कभी ना के साथ कांग्रेस के साथ दिखाई देती है तो वहीं डीएमके भी बदलते राजनीतिक समीकरणों के चलते कोई नया दांव चल सकती है.

दरअसल सवाल सभी क्षेत्रीय दलों के अपने वजूद का भी है जो कि मोदी लहर की वजह से गड़बड़ाने के बाद अबतक सम्हल नहीं सका है.

ऐसे में कांग्रेस को मिशन 150 के लिये बीजेपी की मिशन 300+ की रणनीति से ही कुछ सीक्रेट फॉर्मूले निकालने होंगे. एक वक्त तक बीजेपी को सवर्णों की पार्टी कहा जाता था तो कांग्रेस को दलित-मुसलमानों के मसीहा के तौर पर प्रोजेक्ट किया जाता था. लेकिन आज बीजेपी ने सवर्णों की पार्टी के टैग को हटा कर सोशल इंजीनियरिंग की जो मिसाल पेश की उसकी काट किसी के पास नहीं है. कांग्रेस को भी एक नए समीकरण की तलाश करनी होगी क्योंकि उसका वोट बैंक क्षेत्रीय दल लूट चुके हैं.

यूपी में कांग्रेस को फिलहाल मंथन करने की जरूरत नहीं है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को केवल 2 सीटें ही मिलीं. जबकि साल 2017 के विधानसभा चुनाव में उसे सिर्फ 7 सीटें मिलीं. गोरखपुर और फूलपुर के उपचुनाव में उसकी जमानत भी जब्त हुई. ऐसे में यहां ज्यादा एक्सपेरीमेंटल होने की जरुरत नहीं है. यूपी की 80 लोकसभा सीटों को देखते हुए कांग्रेस को एसपी-बीएसपी गठबंधन पर ही भरोसा दिखाना होगा. कांग्रेस के पास यूपी में कोई करिश्माई चेहरा नहीं है. ऐसे में कांग्रेस सौदेबाजी की हालत में नहीं है. यहां वो दर्शन ठीक है कि जो मन का हो जाए तो ठीक है और न हो तो और भी ठीक है.

हालांकि साल 2009 की तर्ज पर कांग्रेस यहां सभी 80 सीटों पर दांव भी खेल सकती है क्योंकि उसके पास यहां खोने को कुछ नहीं है. अगर दांव चल गया तो कांग्रेस के लिये सबसे अप्रत्याशित एडवांटेज होगा.

गुजरात में लोकसभा की 26 सीटें हैं. साल 2014 में गुजरात में कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पाई थी. लेकिन गुजरात विधानसभा चुनाव में ‘ट्रेलर’ दिखाने वाली कांग्रेस का दावा है कि वो लोकसभा चुनाव में पूरी ‘पिक्चर’ दिखाएगी. गुजरात कांग्रेस का दावा है कि वो लोकसभा चुनाव में सभी बीजेपी विरोधी ताकतों को साथ लाकर मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलेगी.

गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी जैसे नेताओं के साथ गठबंधन कर बीजेपी के ‘क्लीन-स्वीप’ के तिलिस्म को तोड़ दिया था. ऐसे में इस बार गुजरात में कांग्रेस को संभावना दिख रही हैं जो कि उसकी 150 सीटों के लक्ष्य को हासिल करने के लिये बूंद-बूंद से घड़ा भरने का काम कर सकती है.

इस बार पंजाब और राजस्थान को लेकर कांग्रेस आत्मविश्वास से लबरेज है. पंजाब में कांग्रेस ने सत्ता में वापसी की है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर में हारी कांग्रेस ने 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में जबरदस्त वापसी की. इस चुनाव से न सिर्फ उसकी सीटों में इजाफा हुआ बल्कि वोट प्रतिशत में भी बढ़ोतरी हुई. विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 38.5 फीसदी मत मिले. वहीं गुरुदासपुर लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में मिली जीत से कांग्रेस उत्साहित है. ऐसे भी संकेत मिल रही हैं कि लोकसभा चुनाव में बीजेपी और शिरोमणि अकाली दल को कड़ी टक्कर देने के लिये कांग्रेस आम आदमी पार्टी से भी हाथ मिला सकती है. आम आदमी पार्टी ने पंजाब के विधानसभा चुनाव को त्रिकोणीय मुकाबले में बदल दिया था.

इसी साल मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में चुनाव होने वाले हैं. मध्य प्रदेश में लोकसभा की 29 सीटों में कांग्रेस के पास केवल 2 ही सीटें हैं. ये सीटें ज्योतिरादित्य सिंधिया ने गुना और कमलनाथ ने छिंदवाड़ा में जीती थीं. लेकिन इस बार कांग्रेस को एमपी में एंटीइंकंबेंसी से काफी उम्मीदें हैं. शिवराज के 15 साल के शासनकाल में उपजी सत्ताविरोधी लहर के भरोसे कांग्रेस न सिर्फ विधानसभा चुनाव जीतने का सपना देख रही है बल्कि उसे लोकसभा सीटें मिलने की भी उम्मीदें है.

इसी तरह छत्तीगढ़ में लोकसभा की 11 सीटें हैं. लेकिन कांग्रेस के पास यहां विद्याचण शुक्ल जैसा पुराना चेहरा नहीं है. नक्सली हमले में कांग्रेस ने अपने कई बड़े नेताओं को खो दिया था. बीजेपी के मुख्यमंत्री रमन सिंह का फिलहाल कांग्रेस के पास यहां कोई तोड़ नहीं दिखाई देता है.

राजस्थान में कांग्रेस को सत्ता में आने का पूरा भरोसा है. यहां हर पांच साल में सरकार बदलने की परंपरा है. विधानसभा चुनाव के साथ ही कांग्रेस को यहां लोकसभा सीटें भी जीतने की उम्मीद है. साल 2014 में राजस्थान की 25 लोकसभा सीटों में से एक भी सीट कांग्रेस नहीं जीत सकी थी. लेकिन इस बार उपचुनावों में उसने लोकसभा की दो और विधानसभा की एक सीट जीती.

उत्तर-पूर्वी राज्यों में एक वक्त कांग्रेस का एकछत्र राज होता था. लेकिन बीजेपी ने अपनी रणनीति के तहत उत्तर-पूर्वी राज्यों में ताकत झोंक दी. बीजेपी ये जानती है कि यूपी में साल 2014 का करिश्मा दोहरा पाना आसान नहीं होगा. इसलिये उसने वैकल्पिक सीटों के लिये उत्तर-पूर्वी राज्यों को खासतौर से टारगेट किया. ये इलाके कांग्रेस और लेफ्ट का गढ़ होने के बावजूद अब भगवामय हो चुके हैं.

असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और त्रिपुरा में बीजेपी की सरकार है. वहीं नागालैंड में नागा पीपुल्स फ्रंट-लीड डेमोक्रेटिक गठबंधन को बीजेपी का समर्थन मिला हुआ. ऐसे में कांग्रेस को उत्तर-पूर्वी राज्यों में कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी क्योंकि बीजेपी ने पूर्वोत्तर की 25 लोकसभा सीटों के लिये साल 2014 से ही तमाम परियोजनाओं के जरिये साल 2019 की तैयारी शुरू कर दी थी.

सबसे ज्यादा असम के पास 14 लोकसभा सीटें हैं. असम में बीजेपी की सरकार है. बीजेपी ने पूर्वोत्तर को कांग्रेस मुक्त बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. कांग्रेस पांच राज्यों से सिमट कर मेघालय और मिजोरम तक ठहर गई है.

महाराष्ट्र को लेकर कांग्रेस थोड़ी सी आशान्वित हो सकती है. महाराष्ट्र के वोटरों में हर पांच साल में सरकार बदलने की मानसिकता रही है. यूपी के बाद महाराष्ट्र ही लोकसभा की सबसे ज्यादा 48 सीटें देता है. यहां असली मुकाबला कांग्रेस-एनसीपी और बीजेपी-शिवसेना गठबंधन के बीच है. फिलहाल जो राजनीतिक हालात हैं उसे देखकर लग रहा है कि बीजेपी यहां पर अकेले दम पर चुनाव लड़ सकती है क्योंकि शिवसेना के साथ रिश्ते काफी बिगड़ चुके हैं. कांग्रेस और एनसीपी इसका फायदा उठा सकते हैं.

कर्नाटक में भले ही कांग्रेस दोबारा सरकार नहीं बना पाई लेकिन उसे जेडीएस के रूप में साल 2019 का लोकसभा पार्टनर मिल गया है. कर्नाटक की 28 लोकसभा सीटों में कांग्रेस को साल 2014 में केवल 9 सीटें ही मिली थीं. ऐसे में कांग्रेस और जेडीएस का गठबंधन इस बार चुनाव में बीजेपी का गेम-प्लान बिगाड़ने का काम कर सकता है.

चिदंबरम के गेम-प्लान के मुताबिक अगर कांग्रेस को 150 सीटें हासिल करनी है तो उसे मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश और पूर्वोत्तर के राज्यों में जोरदार मेहनत करनी होगी तो वहीं क्षेत्रीय दलों के वर्चस्व वाले राज्यों में गठबंधन को ही रणनीति बनानी होगी.

चिदंबरम के फॉर्मूले में अंकगणित के हिसाब से कागजों पर कांग्रेस करिश्मा देख सकती है. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि मोदी-विरोधी मोर्चा केंद्र सरकार के खिलाफ किन मुद्दों पर मैदान में ताल ठोंक सकेगा? सिर्फ मोदी विरोध के नाम पर चुनाव जीतने की गलतफहमी कांग्रेस को साल 2014 की ही तरह दोबारा ‘हाराकीरी’ पर मजबूर ही करेगी.

कांग्रेस को अपनी रणनीति बदलनी होगी. पीएम मोदी के खिलाफ आपत्तिजनक बयानों से बचना होगा. इसकी शुरुआत खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को ही करनी पड़ेगी तभी दूसरे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता जबान पर लगाम रखेंगे. अब राहुल भी ये जान चुके हैं कि ‘आंखों में आंख न डाल पाने वाले’ मोदी अविश्वास प्रस्ताव पर कैसे विरोधियों को धूल चटा गए हैं.

कांग्रेस में पीएम मोदी पर बोलने के नाम पर ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का ‘भरपूर इस्तेमाल’ करने वाले नेता ही अपनी पार्टी का काम तमाम करते आए हैं. तभी राहुल को सीडब्लूसी की बैठक में बड़बोले नेताओं की बोलती बंद करने के लिये कड़ी कार्रवाई की धमकी देनी पड़ी है.

बहरहाल, कांग्रेस ये सोचकर खुद में आत्मविश्वास भर सकती है कि इस साल लोकसभा की दस सीटों पर हुए उपचुनावों में बीजेपी 8 सीटों पर हारी है. वहीं बीजेपी भी 8 सीटों की हार से 2019 के अपने मिशन 300+ की दोबारा समीक्षा कर सकती है. फिलहाल सौ साल पुरानी कांग्रेस को 150 सीटों की सख्त दरकार है. ये चुनौती इसलिये भी बड़ी है क्योंकि कांग्रेस के पास 272 के ‘मैजिक फिगर’ के लिये कोई जादुई छड़ी नहीं है.

हामीद अंसारी की परेशानी जोशी की जुबानी

 

नई दिल्ली. संघ और भाजपा से जुड़े रहे पूर्व प्रचारक संजय विनायक जोशी फिर से जोश में आ गए हैं. अचानक उन्होंने एक ब्लॉग लिखकर अपने तेवर दिखा दिए हैं. यूं तो उन्होंने पूर्व उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी पर निशाना साधा है लेकिन सीधे तौर पर उनके निशाने पर भारत ही नहीं दुनियां भर के मुसलमान और इस्लाम तो है ही, उनकी तरफदारी करने वाले लोग भी हैं. इस ब्लॉग को उनकी फौरी प्रतिक्रिया के तौर पर देखा जाए या भविष्य का कोई संकेत, ये तो आने वाले वक्त में ही पता चलेगा, लेकिन उनके तेवर काफी सख्त हैं.

जोशी बिना लाग लपेट के सीधे हामिद अंसारी पर सवाल उठाते हुए लिखते हैं कि, ‘हाल ही में पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने कहा था कि देश के मुस्लिमों में बेचैनी का अहसास और असुरक्षा की भावना है. अभी-अभी आ रही एक बेहद सनसनीखेज खबर से साबित हो गया है कि आखिर हामिद अंसारी जैसे लोगों में असुरक्षा की भावना क्यों पनप रही है. खबर है कि उत्तराखंड में मदरसों में पढ़ने वाले करीब 2 लाख मुस्लिम बच्चे रातों-रात गायब हो गए हैं’. दरअसल उन्होंने व्यंग्यात्मक लहजे में आधार लिकिंग के बाद उत्तराखंड में वजीफों में आई कमी को हामिद अंसारी के बयान से जोड़ दिया है.

वो आगे लिखते हैं, ‘ये तो अकेले उत्तराखंड का मामला है, अब आप खुद ही समझ सकते हैं कि जब सीएम योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश में मदरसों को अपना रजिस्ट्रेशन करवाने को कहा तो क्यों इतना हंगामा खड़ा कर दिया गया. इस बात से साबित हो गया है कि बीजेपी की सरकार आने के बाद से मुस्लिम खुद को क्यों असुरक्षित महसूस कर रहे हैं’. वजीफे के मुद्दे पर ही नहीं वो मदरसों को और भी बातों के लिए निशाने पर लेते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में तो और भी काफी कुछ चल रहा है. सरकारी पैसों की लूट वहां भी ऐसे ही की जा रही है, साथ ही खुफिया एजेंसियों ने ये भी अलर्ट दिया है कि कई मदरसों में बच्चों को कट्टरपंथी शिक्षा भी दी जा रही है. इस तरह की गड़बड़ियों को देखते हुए सीएम योगी ने सभी मदरसों का रजिस्ट्रेशन जरूरी कर दिया है. राज्य में कई मदरसे बिना रजिस्ट्रेशन के चल रहे हैं, उन्हें फंड कहाँ से आता है, इसकी किसी को कोई जानकारी तक नहीं है.इन मदरसों में क्या पढ़ाया जा रहा है, इस पर भी सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होता. जबकि ऐसे छात्रों को लगातार अल्पसंख्यक कल्याण योजनाओं के तहत तमाम फायदे मिलते रहते हैं.’.

हामिद अंसारी पर निशाना साधते हुए संजय जोशी लिखते हैं, ‘उत्तर प्रदेश सरकार राज्य में चल रहे लगभग 800 मदरसों पर प्रतिवर्ष 4000करोड़ रुपये खर्च करती है. मगर हैरत की बात है कि इसका एक बड़ा हिस्सा छात्रों तक पहुंचने की जगह उन लोगों की जेब में जा रहा है, जिन्हें लेकर हामिद अंसारी जैसे लोग परेशान हो रहे हैं’. मदरसों के बाद वो अपने ब्लॉग में इंटरनेशनल लेवल पर हो रही घटनाओं को इस्लाम से जोड़ देते हैं, ‘वैसे देखा जाय तो पाकिस्तान में मुसलमानों को कौन मार रहा है ? अफगानिस्तान में मुसलमानों को कौन मार रहा है? सीरिया में मुसलमानों की हत्या कौन कर रहा है? यमन में मुसलमानों को कौन मार रहा है? इराक में मुसलमानों को कौन मार रहा है? लीबिया में मुसलमानों की हत्या कौन कर रहा है? कौन है जो मिस्र में मुसलमानों को मार रहा है? जो सोमालिया में मुसलमानों को मार रहा है? बलूचिस्तान में भी मुसलमानों को मार रहा है? अब मैं सोच रहा हूँ जब ये सभी देश इस्लामिक हैं… तब शान्ति कहाँ है? मैं इस्लाम पर सवाल नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि सभी लोग जानते हैं की इस्लाम एक शांतिपूर्ण धर्म है… लेकिन शांति रहस्यमय रूप से से गायब है….!! अफगानिस्तान, इराक, सीरिया, लेबनान, यमन और मिस्र को किसने बर्बाद किया है ? या वहां दंगा करने के लिए कौन जिम्मेदार हैं ?’.

लग रहा है कि संजय जोशी इस्लाम से जुड़े एक एक पहलू पर लिखने के मूड में थे, वो देश की बात भी करते हैं और उसके ‘गद्दारों’ की भी, ‘अजीब विडम्बना है , कुछ गद्दारों के लियें यहाँ इशरत बेटी है, कन्हैया बेटा है, दाऊद भाई है, अफजल गुरू है, लेकिन भारत माता नहीं !आखिर…ऐसा क्यों है……..’.

वो आगे लिखते हैं, ‘अब थोड़ा और ध्यान दीजिए…मुस्लिम + हिन्दू = समस्या, मुस्लिम + बौद्ध =समस्या, मुस्लिम + ईसाई = समस्या, मुस्लिम + सिख = समस्या, मुस्लिम + नास्तिक = समस्या, मुस्लिम + मुस्लिम =बहुत बड़ी समस्या! उदाहरण देखिए, हां-जहां मुस्लिम बहुसंख्यक है, वहाँ वे सुखी नहीं रहते हैं और न दूसरे को रहने देते हैं!

देखिए …मुस्लिम सुखी नहीं, गाजा में मुस्लिम सुखी नहीं ,म्हलचज में मुस्लिम सुखी नहीं, लीबिया में मुस्लिम सुखी नहीं ,मोरोक्को में मुस्लिम सुखी नहीं, ईरान में मुस्लिम सुखी नहीं, ईराक में मुस्लिम सूखी नहीं, यमन में मुस्लिम सुखी नहीं, अफगानिस्तान में मुस्लिम सुखी नहीं, किस्तान में मुस्लिम सुखी नहीं ,सीरिया में मुस्लिम सुखी नहीं ,लेबनान में मुस्लिम सुखी नहीं ,नाइजीरिया में मुस्लिम सुखी नहीं ,केन्या में मुस्लिम सुखी नहीं सूडान में ,अब गौर कीजिए ………! मुस्लिम सुखी वहां हैं, जहाँ कम संख्या में है…? मुस्लिम सुखी है आस्ट्रेलिया में, मुस्लिम सुखी है इंग्लैंड में, मुस्लिम सुखी है बेल्जियम में, मुस्लिम सुखी है फ्रांस में, मुस्लिम सुखी है इटली में, मुस्लिम सुखी है जर्मनी में, मुस्लिम सुखी है स्वीडन में, मुस्लिम सुखी है कनाडा में, मुस्लिम सुखी है भारत में, मुस्लिम सुखी है नार्वे में, मुस्लिम सुखी है नेपाल में, क्योंकि यहां जेहाद के नाम पर सब कुछ संभव हैं.

आखिरी लाइन वो उस विषय पर लिखते हैं जोकि उनके ब्लॉग का टाइटल है, ‘आतंकवादी का मजहब क्या होता है?’. वो लिखते हैं, ‘मुसलमान हर उस देश में सुखी है ! जो इस्लामिक देश नही है ……..और देखिये कि वो उन्हीं देशो को दोषी ठहराते है जो इस्लामिक नहीं हैं….! या जहां मुस्लिमो की लीडरशिप नही है…..! मुस्लिम हमेशा उन देशो को ब्लेम करते है जहां वे सुखी हैं…….! और मुस्लिम उन देशों को बदलना चाहते हैं….. जहां वे सुखी हैं ! और बदल कर वे उन देशों की तरह कर देना चाहते हैं! जहां वे सुखी नही हैं……..!और अंत तक वो इसके लिए लड़ाई करते हैं….! और इसको ही बोलते हैं..आदि और भी हैं ऐसे ही इस्लामिक जेहादी आतंकवादी संगठन! अब इतना तो आप सभी, जरूर समझ गए होंगे कि……आतंकवादी का मजहब क्या होता है…..?’

संजय जोशी अपने आप को बीजेपी का सदस्य कहते हैं, ये अलग बात है कि बीजेपी उन्हें आधिकारिक रूप से कही नहीं बुलाती. अब ऐसे में उनका ये ‘मुस्लिम विरोधी’ ब्लॉग विवादों में आता है, या उन्हीं की तरह गुमनामी में जाएगा, वक्त ही बताएगा.

Mangal Pandey ‘The Lone Runner’


The chapters of India’s independence chapter began to be written in true sense in 1857 but it is said that the rebel of the rebellion against Angaji’s rule was played by the soldier with one of them. The aura of that soldier was such that when the forerunners ordered the other soldiers to confront him, they all retreated and the turn of martyrdom turned out to be the executioners refused to hang him.


The chapters of India’s independence chapter began to be written in true sense in 1857 but it is said that the rebel of the rebellion against Angaji’s rule was played by the soldier with one of them. The aura of that soldier was such that when the forerunners ordered the other soldiers to confront him, they all retreated and the turn of martyrdom turned out to be the executioners refused to hang him. Perhaps that Indian soldier was a warrior of independence. He was none other than Mangal Pandey, born in 1827 in a Sarayuparan Brahmin family in Nagawa, a small village in Ballia, Uttar Pradesh. Today (July 19th) is the birth anniversary of Mangal Pandey. Pandey was admitted to the army of East India Company at the age of 22 as a constable. He was a soldier of the East India Company’s 34th Bengal Infantry. In the memory of Mangal Pandey, the Government of India issued a stamp in 1984. Films and dramas have become their life. Historians have different opinions about Mangal Pandey’s revolt.

One of the historians wrote that rumors of Indian soldier being killed by the European soldiers for making and opposing Indian soldiers forcibly terrorized Mangal Pandey and on 29 March 1857, in the drunken cannabis, Had rebelled against the rule. Some historians said that due to the rebellion he became an enfield gun, in which the cartridge had to be cut off by teeth. When the soldiers came to know that the outer shell of the cartridge was made of cow and pig fat to save the seal, Mangal Pandey had raised the voice against it. English historian Kim E. Wagner wrote in his book “The Great Fear of 1857 – Rumors, Conspiracy and Making of the Indian Unmissing”, “Knowing the fear of the sepoys, Major General J. B. Heyersi, on the Hindustani soldiers It was quite rumored to have called the assault as rumor, but it is quite possible that the heresy was able to spoil the situation by confirming the rumors reached to the soldiers. The soldiers who were terrorized by Major General’s speech were also Mangal Pandey of the 34th Bengal Native Infantry. “

British historian Rosie Lilvelan Jones has also presented some similar arguments in his book “The Great Upcoming In India 1857 – 58 Untold Stories, Indian and British”. According to these historians, Mangal Pandey fired at Sergeant Major James Hewison but he survived. This incident has been told by the hand of Sheikh Paltu. During the conflict, when the lieutenant Benpade Bag reached the spot, Pandey shot him, but the target missed, Bagh also fired on Pandey with his pistol, he did not even target. If the British officers asked the soldiers to capture Mangal Pandey, all the chase was withdrawn. Paltu tried to overcome Pandey.According to Jones, when Paltu told the jamadar Ishwari Pandey that he sent four soldiers to capture Mangal Pandey, Ishwari Prasad had told Paltu a gun and said that if Mangal does not let Pandey escape then he will shoot him.

According to Jones, Mangal Pandey has cursed his colleagues and said that “you people have provoked me and now you are not with me”, and many pedestrians, including the cavalry, come towards him, Pandey has put a gun in his chest with his chest The trigger was pressed by thumb but he was saved. On April 8, 1857, Pandey was executed by the hangers of Kolkata on refusal by local hangers.

Ishwar Prasad was also hanged after Mangal Pandey. This spark of rebellion imposed by Mangal Pandey is not extinguished again. After a month, on May 10, 1857, a revolt was started in Meerut Cantonment and after seeing this fire took the whole of North India into its grip. It is said that the British had imposed 34,735 laws on Indian revolt with the rebellion so that no one like Mangal Pandey could retain his head again.

……. और कारवां गुज़र गया

 

 जन्म 04 जनवरी 1924
 निधन 19 जुलाई 2018
 उपनाम नीरज
 जन्म स्थान पुरावली, इटावा, उत्तर प्रदेश, भारत
 कुछ प्रमुख कृतियाँ
दर्द दिया है, प्राण गीत, आसावरीगीत जो गाए नहीं, बादर बरस गयो, दो गीत, नदी किनारे, नीरज की गीतीकाएँ, नीरज की पाती, लहर पुकारे, मुक्तकी, गीत-अगीत, विभावरी, संघर्ष, अंतरध्वनी,बादलों से सलाम लेता हूँकुछ दोहे नीरज के कारवां गुजर गया
 विविध
2007 में पद्म भूषण सहित अनेकप्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार से सम्मानित

रानी का वंश, जी रहा भुला दिये जाने का दंश

युवराज, उनकी परिषद ओर सिपाह सालार


एक परिवार के चलते कितने ही राजवंशों को भुला चुका है देश।

स्वतन्त्रता संग्राम के गद्दार आज भी सत्ता का सुख भोग रहे हैं।


झांसी के अंतिम संघर्ष में महारानी की पीठ पर बंधा उनका बेटा दामोदर राव (असली नाम आनंद राव) सबको याद है. रानी की चिता जल जाने के बाद उस बेटे का क्या हुआ?
वो कोई कहानी का किरदार भर नहीं था, 1857 के विद्रोह की सबसे महत्वपूर्ण कहानी को जीने वाला राजकुमार था जिसने उसी गुलाम भारत में जिंदगी काटी, जहां उसे भुला कर उसकी मां के नाम की कसमें खाई जा रही थी.

अंग्रेजों ने दामोदर राव को कभी झांसी का वारिस नहीं माना था, सो उसे सरकारी दस्तावेजों में कोई जगह नहीं मिली थी. ज्यादातर हिंदुस्तानियों ने सुभद्रा कुमारी चौहान के कुछ सही, कुछ गलत आलंकारिक वर्णन को ही इतिहास मानकर इतिश्री कर ली.

1959 में छपी वाई एन केलकर की मराठी किताब ‘इतिहासाच्य सहली’ (इतिहास की सैर) में दामोदर राव का इकलौता वर्णन छपा.

महारानी की मृत्यु के बाद दामोदार राव ने एक तरह से अभिशप्त जीवन जिया. उनकी इस बदहाली के जिम्मेदार सिर्फ फिरंगी ही नहीं हिंदुस्तान के लोग भी बराबरी से थे.

आइये, दामोदर की कहानी दामोदर की जुबानी सुनते हैं –

15 नवंबर 1849 को नेवलकर राजपरिवार की एक शाखा में मैं पैदा हुआ. ज्योतिषी ने बताया कि मेरी कुंडली में राज योग है और मैं राजा बनूंगा. ये बात मेरी जिंदगी में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से सच हुई. तीन साल की उम्र में महाराज ने मुझे गोद ले लिया. गोद लेने की औपचारिक स्वीकृति आने से पहले ही पिताजी नहीं रहे.

मां साहेब (महारानी लक्ष्मीबाई) ने कलकत्ता में लॉर्ड डलहॉजी को संदेश भेजा कि मुझे वारिस मान लिया जाए. मगर ऐसा नहीं हुआ.

डलहॉजी ने आदेश दिया कि झांसी को ब्रिटिश राज में मिला लिया जाएगा. मां साहेब को 5,000 सालाना पेंशन दी जाएगी. इसके साथ ही महाराज की सारी सम्पत्ति भी मां साहेब के पास रहेगी. मां साहेब के बाद मेरा पूरा हक उनके खजाने पर होगा मगर मुझे झांसी का राज नहीं मिलेगा.

इसके अलावा अंग्रेजों के खजाने में पिताजी के सात लाख रुपए भी जमा थे. फिरंगियों ने कहा कि मेरे बालिग होने पर वो पैसा मुझे दे दिया जाएगा.

मां साहेब को ग्वालियर की लड़ाई में शहादत मिली. मेरे सेवकों (रामचंद्र राव देशमुख और काशी बाई) और बाकी लोगों ने बाद में मुझे बताया कि मां ने मुझे पूरी लड़ाई में अपनी पीठ पर बैठा रखा था. मुझे खुद ये ठीक से याद नहीं. इस लड़ाई के बाद हमारे कुल 60 विश्वासपात्र ही जिंदा बच पाए थे.

नन्हें खान रिसालेदार, गनपत राव, रघुनाथ सिंह और रामचंद्र राव देशमुख ने मेरी जिम्मेदारी उठाई. 22 घोड़े और 60 ऊंटों के साथ बुंदेलखंड के चंदेरी की तरफ चल पड़े. हमारे पास खाने, पकाने और रहने के लिए कुछ नहीं था. किसी भी गांव में हमें शरण नहीं मिली. मई-जून की गर्मी में हम पेड़ों तले खुले आसमान के नीचे रात बिताते रहे. शुक्र था कि जंगल के फलों के चलते कभी भूखे सोने की नौबत नहीं आई.

असल दिक्कत बारिश शुरू होने के साथ शुरू हुई. घने जंगल में तेज मानसून में रहना असंभव हो गया. किसी तरह एक गांव के मुखिया ने हमें खाना देने की बात मान ली. रघुनाथ राव की सलाह पर हम 10-10 की टुकड़ियों में बंटकर रहने लगे.

मुखिया ने एक महीने के राशन और ब्रिटिश सेना को खबर न करने की कीमत 500 रुपए, 9 घोड़े और चार ऊंट तय की. हम जिस जगह पर रहे वो किसी झरने के पास थी और खूबसूरत थी.

देखते-देखते दो साल निकल गए. ग्वालियर छोड़ते समय हमारे पास 60,000 रुपए थे, जो अब पूरी तरह खत्म हो गए थे. मेरी तबियत इतनी खराब हो गई कि सबको लगा कि मैं नहीं बचूंगा. मेरे लोग मुखिया से गिड़गिड़ाए कि वो किसी वैद्य का इंतजाम करें.

मेरा इलाज तो हो गया मगर हमें बिना पैसे के वहां रहने नहीं दिया गया. मेरे लोगों ने मुखिया को 200 रुपए दिए और जानवर वापस मांगे. उसने हमें सिर्फ 3 घोड़े वापस दिए. वहां से चलने के बाद हम 24 लोग साथ हो गए.

ग्वालियर के शिप्री में गांव वालों ने हमें बागी के तौर पर पहचान लिया. वहां तीन दिन उन्होंने हमें बंद रखा, फिर सिपाहियों के साथ झालरपाटन के पॉलिटिकल एजेंट के पास भेज दिया. मेरे लोगों ने मुझे पैदल नहीं चलने दिया. वो एक-एक कर मुझे अपनी पीठ पर बैठाते रहे.

हमारे ज्यादातर लोगों को पागलखाने में डाल दिया गया. मां साहेब के रिसालेदार नन्हें खान ने पॉलिटिकल एजेंट से बात की.

उन्होंने मिस्टर फ्लिंक से कहा कि झांसी रानी साहिबा का बच्चा अभी 9-10 साल का है. रानी साहिबा के बाद उसे जंगलों में जानवरों जैसी जिंदगी काटनी पड़ रही है. बच्चे से तो सरकार को कोई नुक्सान नहीं. इसे छोड़ दीजिए पूरा मुल्क आपको दुआएं देगा.

फ्लिंक एक दयालु आदमी थे, उन्होंने सरकार से हमारी पैरवी की. वहां से हम अपने विश्वस्तों के साथ इंदौर के कर्नल सर रिचर्ड शेक्सपियर से मिलने निकल गए. हमारे पास अब कोई पैसा बाकी नहीं था.

सफर का खर्च और खाने के जुगाड़ के लिए मां साहेब के 32 तोले के दो तोड़े हमें देने पड़े. मां साहेब से जुड़ी वही एक आखिरी चीज हमारे पास थी.

इसके बाद 5 मई 1860 को दामोदर राव को इंदौर में 10,000 सालाना की पेंशन अंग्रेजों ने बांध दी. उन्हें सिर्फ सात लोगों को अपने साथ रखने की इजाजत मिली. ब्रिटिश सरकार ने सात लाख रुपए लौटाने से भी इंकार कर दिया.

दामोदर राव के असली पिता की दूसरी पत्नी ने उनको बड़ा किया. 1879 में उनके एक लड़का लक्ष्मण राव हुआ.दामोदर राव के दिन बहुत गरीबी और गुमनामी में बीते। इसके बाद भी अंग्रेज उन पर कड़ी निगरानी रखते थे। दामोदर राव के साथ उनके बेटे लक्ष्मणराव को भी इंदौर से बाहर जाने की इजाजत नहीं थी।


इनके परिवार वाले आज भी इंदौर में ‘झांसीवाले’ सरनेम के साथ रहते हैं. रानी के एक सौतेला भाई चिंतामनराव तांबे भी था. तांबे परिवार इस समय पूना में रहता है. झाँसी के रानी के वंशज इंदौर के अलावा देश के कुछ अन्य भागों में रहते हैं। वे अपने नाम के साथ झाँसीवाले लिखा करते हैं। जब दामोदर राव नेवालकर 5 मई 1860 को इंदौर पहुँचे थे तब इंदौर में रहते हुए उनकी चाची जो दामोदर राव की असली माँ थी। बड़े होने पर दामोदर राव का विवाह करवा देती है लेकिन कुछ ही समय बाद दामोदर राव की पहली पत्नी का देहांत हो जाता है। दामोदर राव की दूसरी शादी से लक्ष्मण राव का जन्म हुआ। दामोदर राव का उदासीन तथा कठिनाई भरा जीवन 28 मई 1906 को इंदौर में समाप्त हो गया। अगली पीढ़ी में लक्ष्मण राव के बेटे कृष्ण राव और चंद्रकांत राव हुए। कृष्ण राव के दो पुत्र मनोहर राव, अरूण राव तथा चंद्रकांत के तीन पुत्र अक्षय चंद्रकांत राव, अतुल चंद्रकांत राव और शांति प्रमोद चंद्रकांत राव हुए।

दामोदर राव चित्रकार थे उन्होंने अपनी माँ के याद में उनके कई चित्र बनाये हैं जो झाँसी परिवार की अमूल्य धरोहर हैं। लक्ष्मण राव तथा कृष्ण राव इंदौर न्यायालय में टाईपिस्ट का कार्य करते थे।
अरूण राव मध्यप्रदेश विद्युत मंडल से बतौर जूनियर इंजीनियर 2002 में सेवानिवृत्त हुए हैं। उनका बेटा योगेश राव सॅाफ्टवेयर इंजीनियर है। वंशजों में प्रपौत्र अरुणराव झाँसीवाला, उनकी धर्मपत्नी वैशाली, बेटे योगेश व बहू प्रीति धन्वंतरिनगर इंदौर में रह रहे हैं।

कांग्रेस के चाटुकारों ने तो सिर्फ नेहरू परिवार की ही गाथा गाई है इन लोगों को तो भुला ही दिया गया है जिन्होंने असली लड़ाई लड़ी थी अंग्रेजो के खिलाफ आइए इस को आगे पीछे बढ़ाएं और लोगों को सच्चाई से अवगत कराए

सीडबल्यूसी राजनैतिक गुरु को भूले शिष्य


आखिर दिग्विजय सिंह CWC की टीम के लिये यो-यो टेस्ट में फेल क्यों कर दिये गये?


राहुल के ‘राजनीतिक गुरु’ का तमगा अगर किसी को मिला है तो वो सिर्फ कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्गी राजा यानी दिग्विजय सिंह ही हैं. दिग्विजय सिंह ने ही सबसे पहले राहुल को पीएम और अध्यक्ष बनाने की मांग को ‘गूंज’ बनाने का काम किया था.

केंद्र में यूपीए की सरकार थी. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री तो दिग्विजय सिंह कांग्रेस महासचिव थे. दिग्विजय सिंह ने उस वक्त ये कह कर सियासी तूफान पैदा कर दिया था कि राहुल को अब देश का पीएम बना देना चाहिये. हालांकि बाद में उन्होंने अपने बयान को सुधारने की कोशिश भी की और कहा कि मनमोहन सिंह भी अच्छे प्रधानमंत्री हैं.

लेकिन ये विडंबना ही रही कि जब राहुल ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिये नामांकन भरा तब दिग्विजय सिंह गैर मौजूद थे. दिग्विजय सिंह उस वक्त नर्मदा यात्रा पर थे.

अब जबकि राहुल को नई टीम बनाने का मौका मिला तो उस टीम में भी दिग्विजय सिंह गैर मौजूद हैं. ऐसा भी नहीं राहुल के टीम सेलेक्शन में उम्र का कोई पैमाना रखा गया हो. कांग्रेस वर्किंग कमेटी की नई टीम में मोतीलाल वोरा जैसे कई नेताओं को बढ़ती उम्र के बावजूद अनुभव की वजह से तरजीह दी गई है.

ऐसे में बड़ा सवाल उठता है कि टीम में दिग्विजय सिंह को एक्स्ट्रा की भी जगह क्यों नहीं मिली?  दिग्विजय सिंह जो कभी खुद कांग्रेस में सेलेक्टर की भूमिका में हुआ करते थे, जो टीम के कोच और खिलाड़ी तक तय करने का माद्दा रखा करते थे, उन्हें ही बाहर कैसे कर दिया गया? आखिर दिग्विजय सिंह CWC की टीम के लिये यो-यो टेस्ट में क्यों फेल कर दिये गये ?

दिग्विजय सिंह ने ही राहुल को राजनीति का ककहरा सिखाने का काम किया है. लेकिन ऐसी गुरु-दक्षिणा की उम्मीद उन्हें भी नहीं रही होगी.

राहुल आज कांग्रेस के अध्यक्ष हैं. वो युवाओं और दलितों को पार्टी की अगली पंक्ति पर बिठाना चाहते हैं. कांग्रेस अधिवेशन में स्टेज को खाली छोड़ा गया था. सारे दिग्गज स्टेज के नीचे बैठे थे. इसके जरिये ये संदेश दिया गया कि अब कांग्रेस का भविष्य युवा तय करेंगे यानी पुरानी पीढ़ी के लोगों को सम्मान तो मिलेगा लेकिन कमान नहीं. राहुल ने युवाओं से आगे आ कर जिम्मेदारी उठाने का आह्वान किया था.

लेकिन कांग्रेस वर्किंग कमेटी के गठन में दिग्विजय सिंह का वरिष्ठता के बावजूद सम्मान आहत हुआ है. शायद राहुल उन दिनों को भूल गए जब दिग्विजय सिंह उन्हें राजनीतिक दीक्षा देने के लिये दिन-रात साये की तरह साथ होते थे.

राहुल गांधी उस वक्त पार्टी में नंबर दो की भूमिका में थे. तब दिग्वजिय सिंह अपने राजनीतिक अनुभव की भट्टी में राहुल को तपा कर नए दौर की राजनीति के सांचे में ढालने में जुटे हुए थे. राहुल के साथ तमाम दौरों में दिग्विजय सिंह साथ रहते थे. किसी प्रोफेशनल कैमरामेन की तरह वो राहुल के फोटोग्राफ भी खींचते रहते थे. भट्टा-परसौल गांव में किसानों के आंदोलन में राहुल के उतरने के पीछे दिग्विजय सिंह की ही रणनीति थी.

वो दौर दिग्विजय सिंह के स्वर्णिम दौर में से एक माना जा सकता है. बिना किसी बड़े पद के बावजूद उनकी हैसियत गांधी परिवार के करीबियों में से थी. राजनीतिक तौर पर भी उनके पास एक साथ तीन-तीन राज्यों का प्रभार हुआ करता था. उनका पार्टी में कद इतना बढ़ चुका था कि उनके बयानों को पार्टी लाइन भी माना जाने लगा था. पी. चिंदबरम के नक्सलियों पर दिये गये बयान को खारिज करने की हिम्मत भी दिग्विजय सिंह ने ही दिखाई थी. नक्सली समस्या पर तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदम्बरम की राय को दिग्विजय सिंह ने ही खारिज किया था.

दरअसल बीजेपी और आरएसएस के खिलाफ दिग्विजय सिंह की आक्रमकता ही कांग्रेस की बड़ी ताकत हुआ करती थी. दिग्विजय सिंह अपने बयानों से नरेंद्र मोदी, बीजेपी और आरएसएस पर हमले करने में सबसे आगे रहते थे. साल 2014 में तत्कालीन पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के खिलाफ उनके आक्रामक हमलों के चलते ही ये अफवाह भी गर्म थी कि बनारस से दिग्विजय सिंह को मोदी के खिलाफ मैदान में उतारा जा सकता है.

दिग्विजय सिंह का कद राजनीति में उनके पदार्पण के साथ ही बड़ा था. 1977 में कांग्रेस विरोधी लहर के बावजूद वो पहली दफे विधायक का चुनाव जीते थे. मध्यप्रदेश में लगातार दस साल तक मुख्यमंत्री रहने का रिकॉर्ड भी बनाया था.

लेकिन एक दिन उन्हें भी अहसास होने लगा कि वो डूबता सूरज हो चले हैं. राहुल जब नंबर दो की स्थिति से अघोषित नंबर 1 की स्थिति में आते चले गए तो दिग्विजय सिंह के साथ उनकी दूरियां भी दिखने लगीं. आज दिग्विजय सिंह के विवादास्पद बयानों से पार्टी इत्तेफाक नहीं रखती है. बीजेपी और आरएसएस पर उनके हमलों को पार्टी का साथ नहीं मिलता है.

ऐसा लगता है कि शायद राहुल ने अपने गुरु की ‘मन की बात’ को एक साल बाद सुन ही लिया. एक साल पहले दिग्वजिय सिंह ने कहा था कि, ‘राहुल को एआईसीसी के पुनर्गठन के फैसले में देर नहीं करनी चाहिये और अगर कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को एआईसीसी से हटाने का सख्त फैसला लेना पड़ता है तो सबसे पहले मुझे हटाएं.’  इसी के बाद ही दिग्विजय सिंह के कांग्रेस में दिन फिरने लगे.  पहले उनसे गोवा और कर्नाटक का प्रभार बहाने से ले लिया गया तो अब सीडब्लूसी  की टीम में भी जगह नहीं मिली.

सवाल उठता है कि क्या जानबूझकर दिग्विजय सिंह की अनदेखी हुई है या फिर उन्हें मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव के मद्देनजर कोई बड़ी जिम्मेदारी दी जाने वाली है?

बहरहाल सवाल तो उठेंगे क्योंकि सवाल बीजेपी पर भी उठे हैं. सवाल उठाने वाले खुद दिग्विजय सिंह भी रहे हैं जो ‘मार्गदर्शक मंडल’ को लेकर बीजेपी पर निशाना बनाते थे. लेकिन आज अपने राजनीतिक अनुभव और वाकचातुर्य के बावजूद वो कांग्रेस के टॉप 51 लोगों में जगह नहीं बना सके. क्या वाकई दिग्गी राजा का राजनीतिक सूरज अब ढलने की दिशा में है?