Triple Talaq Bill Lok Sabha update

The controversial Muslim Women (Protection of Rights on Marriage) Bill, 2018, also known as the Triple Talaq bill, will be tabled in the Lok Sabha on Thursday.  The Bharatiya Janata Party (BJP) has issued a whip to all its lawmakers, asking them to be present in the House in full strength. 

The Parliament is meeting on December 27 after a long weekend Christmas holiday. Both Lok Sabha and Rajya Sabha has been witnessing disruptions over a range of issues, including protests by the Congress, which is demanding a joint parliamentary committee probe on the Rafale deal.

* “We will appeal to the government that it should not interfere in a religious matter. We will take part in the discussions today,” says Congress’ Mallikarjun Kharge.

* Congress has issued a whip asking its Lok Sabha MPs to be present in the House today, reports news agency ANI.

* The BJP on Tuesday issued a whip to its Lok Sabha members asking them to be present in the Lower House on December 27 when the Triple Talaq Bill will be taken up for discussion. The bill, which has faced resistance from several parties, is also likely to be put to vote on that day.

*Parliamentary Affairs Minister Narendra Singh Tomar Wednesday sought an assurance from the Opposition that it would allow discussion on the bill without disruption.

*The fresh Bill to make the practice of triple talaq among Muslims a penal offence was introduced in Lok Sabha on December 17 to replace an ordinance issued in September. Under the proposed law, giving instant triple talaq will be illegal and void, and will attract a jail term of three years for the husband. The fresh bill will supersede an earlier bill passed in the Lok Sabha and pending in the Rajya Sabha. The earlier bill was approved by the Lower House. But amid opposition by some parties in the upper house, the government had then cleared some amendments, including introduction of a provision of bail, to make it more acceptable. However, as the bill continued to face resistance in the Rajya Sabha, the government issued an ordinance in September, incorporating the amendments. An ordinance has a life of six months. But from the day a session begins, it has to be replaced by a bill which should be passed by Parliament within 42 days (six weeks), else it lapses. The government is at liberty to re-promulgate the ordinance if the bill fails to get through Parliament.

* Introducing the bill, Law Minister Ravi Shankar Prasad said despite the Supreme Court striking down the practice of talaq-e-biddat (instant triple talaq), terming it unconstitutional, divorces in this form were taking place. Citing details of instant triple talaq cases, the government had last week informed Lok Sabha that till now 430 incidents of triple talaq have come to the notice of the government through the media. Of these, 229 were reported before the Supreme Court judgment, while another 201 came to the notice after it. These cases were reported between the period of January 2017 and September 13, 2018. 

* In a landmark 3-2 verdict, the Supreme Court found the practice un-Islamic and “arbitrary”, and disagreed that Triple Talaq was an integral part of religious practice. 

जेडीएस-कांग्रेस सरकार अगले 24 घंटों में गिर जाएगी: उमेश कट्टी

बीजेपी विधायक उमेश कट्टी ने कहा कि 15 बागी कांग्रेस विधायक उनके संपर्क में है. वह कांग्रेस से इस्तीफा दे सकते हैं.

ताकतवर बीजेपी विधायक उमेश कट्टी ने कहा था कि कर्नाटक में जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन अगले 24 घंटे में टूटने वाला है. कट्टी के इस बयान के बाद सियासी गलियारों में शोर मच गया था.

पूर्व मंत्री और आठ बार विधायक रहे कट्टी ने ये बयान बेलगाम में बुधवार को दिया.

मीडिया से बात करते हुए बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष येदियुरप्पा से मीटिंग से पहले उमेश कट्टी ने कहा कि 15 बागी कांग्रेस विधायक उनके संपर्क में है. वह कांग्रेस से इस्तीफा दे सकते हैं और एच.डी कुमारस्वामी की सरकार अगले 24 घंटे में टूट सकती है. अगले हफ्ते बीजेपी सरकार बन सकती है.

जबकि येदियुरप्पा ने इस पर सफाई देते हुए कहा कि उनकी राज्य सरकार गिराने में कोई भी रूचि नहीं है. उन्होंने कहा ‘मेरी सरकार गिराने की कोई इच्छा नहीं है. हम विपक्षी हैं और फिलहाल वही रहेंगे.’

पिछले शनिवार को, एचडी कुमारस्वामी ने आठ विधायकों को शामिल कर मंत्रिमंडल का विस्तार किया था, जिन विधायकों को मंत्री पद नहीं मिला था उन्होंने गठबंधन की सरकार के जीवन पर चर्चा की थी.

कुछ बीजेपी नेताओं के मुताबिक, 6-8 कांग्रेस विधायक उनके संपर्क में हैं और वह कुछ और विधायकों के बागी होने का इंतजार कर रहे हैं.

कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष दिनेश गुंडू राव ने बीजेपी पर सरकार गिराने का आरोप लगाया था. इसके साथ उन्होंने कट्टी को अगले 24 घंटे में सरकार नहीं गिरने पर इस्तीफा देने के लिए कहा था.

पत्रकारों से बातचीत में उन्होंने कहा ‘बीजेपी निराश है. वह सत्ता में आने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार है, लेकिन कोई भी कांग्रेस विधायक उनके साथ जाने के लिए तैयार नहीं है. हाल ही में हुई हार के बाद बीजेपी को पूरे देश में हार का सामना करना पड़ा है. हारी हुई पार्टी के साथ कौन जाना पसंद करेगा? बीजेपी नेता इस प्रकार के बयान देते रहते हैं उन्हें तवज्जो देने की कोई जरूरत नहीं है.’

पर्याप्त सीटों के न मिलने पर गठबंधन का बहिष्कार कर सकती है ‘हम’

मांझी ने कुछ महीने पहले यह दावा किया था कि उनकी पार्टी राज्य में 20 लोकसभा सीटों पर बेहतरीन प्रदर्शन करने की स्थिति में है, राज्य में लोकसभा की कुल 40 सीटें हैं

बिहार में विपक्ष के महागठबंधन के साथी दल हिंदुस्तान अवाम मोर्चा (हम) ने बुधवार को धमकी दी है कि यदि उसे पर्याप्त सीटें नहीं मिली, तो वह अगले साल होने जा रहे लोकसभा चुनावों का बहिष्कार करेगी. पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के नेतृत्व वाले ‘हम’ के प्रदेश अध्यक्ष वृषिण पटेल ने महागठबंधन में सीट बंटवारा समझौते के बारे में पूछे गए सवालों के जवाब में यह कहा.

पूर्व मंत्री पटेल ने कहा कि हर पार्टी को अपने लिए सर्वश्रेष्ठ सौदेबाजी करने का अधिकार है और जहां तक हमारी बात है हम सड़क पर खड़े हैं. जो लोग मुकम्मल मकानों में रह रहे हैं उन्हें एक उचित आकलन करना चाहिए. नहीं तो वे भी सड़क पर आ जाएंगे. मांझी की पार्टी ने यह साफ कर दिया है कि यदि उसे पर्याप्त संख्या में सीटें नहीं मिली तो वह चुनावों में भाग नहीं लेगी. दरअसल, उनसे (पटेल से) यह पूछा गया था कि पार्टी कितनी संख्या में सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है.

पार्टी का दावा 20 सीटों पर है मजबूत स्थिति में

खास बात यह है कि मांझी ने कुछ महीने पहले यह दावा किया था कि उनकी पार्टी राज्य में 20 लोकसभा सीटों पर बेहतरीन प्रदर्शन करने की स्थिति में है. राज्य में लोकसभा की कुल 40 सीटें हैं. उन्होंने बाद में स्पष्ट किया कि वह इतनी सीटों के लिए जोर नहीं दे रहे हैं और इसके बजाय जिन स्थानों पर पार्टी की अच्छी मौजूदगी है वह गठबंधन सहयोगियों को जीत हासिल करने में मदद करेगी.

गौरतलब है कि मांझी ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने और जेडीयू छोड़ने के बाद हम का गठन किया था. मांझी ने इस साल फरवरी में एनडीए छोड़ दिया और महागठबंधन में शामिल हो गए.

यूपी में भाजपा के खिलाफ महागठबंधन कांग्रेस मुक्त होगा: सपा

समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष के इस बयान को मध्‍य प्रदेश में पार्टी के एकमात्र विधायक को कमलनाथ मंत्रिमंडल में शामिल नहीं करने से कांग्रेस के खिलाफ पैदा हुई नाराजगी के रूप में देखा जा रहा है

2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले महागठबंधन में दरार दिखने लगा है. समाजवादी पार्टी (एसपी) के अध्‍यक्ष अखिलेश यादव ने बीजेपी के खिलाफ उत्‍तर प्रदेश में बनने वाले गठबंधन के गैर-कांग्रेस होने की बात कही है.

अखिलेश ने बुधवार को कहा, ‘बीजेपी के खिलाफ महागठबंधन खड़ा करने में सभी पार्टियों को साथ लाने का प्रयास किया जा रहा है. मैं तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर को इस दिशा में प्रयास के लिए बधाई देता हूं. वो इसके लिए जुटे हैं. मैं उनसे मिलने हैदराबाद जाऊंगा.

उन्होंने यह भी कहा कि हम कांग्रेस का भी धन्यवाद देना चाहेंगे कि मध्य प्रदेश में हमारे विधायक को मंत्री नहीं बनाया. हम कांग्रेस और बीजेपी दोनों को धन्यवाद देते हैं कि उन्होंने कम से कम समाजवादियों का रास्ता साफ कर दिया. जबकि एसपी का विधायक मध्‍य प्रदेश में कांग्रेस को समर्थन दे रहा था.

समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष के इस बयान को मध्‍य प्रदेश में पार्टी के एकमात्र विधायक को कमलनाथ मंत्रिमंडल में शामिल नहीं करने से कांग्रेस के खिलाफ पैदा हुई नाराजगी के रूप में देखा जा रहा है.

बता दें कि 11 दिसंबर को आए मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों में कांग्रेस 114 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. वहीं बीजेपी के खाते में 109 सीटें आई थी.

बहुमत से दूर कांग्रेस को बाद में बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के 2, समाजवादी पार्टी के 1 और 4 निर्दलीय विधायकों ने सरकार बनाने के लिए समर्थन दिया था. जिसके बाद कांग्रेस को कुल 121 विधायकों का समर्थन हासिल है.


कमलनाथ की सरकार बनवाने में मददगार अब खफा हैं

मध्य प्रदेश सरकार में 28 विधायकों ने कैबिनेट मंत्री की शपथ ले ली है, जिसमें मंत्रिमंडल में एक भी मंत्री गैरकांग्रेसी नहीं हैं

बीजेपी के खिलाफ महागठबंधन के गाजे बाजे लेकर इकट्ठा हुईं राजनीतिक पार्टियों अब खुद ही नहीं एकजुट हो पा रही हैं. मध्य प्रदेश सहित तीन राज्यों में कांग्रेस भले ही जीत गई हो, लेकिन महागठबंधन में शामिल पार्टियों को एकजुट नहीं कर पा रही है. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ के एक फैसले ने महागठबंधन की अहम कड़ी बनकर उभर रही समाजवादी पार्टी को नाराज कर दिया. समाजवादी पार्टी सुप्रीमो अखिलेश यादव ने बयान दिया है कि बीजेपी के खिलाफ उत्तर प्रदेश में बनने जा रहा गठबंधन गैर-कांग्रेसी होगा.

कमलनाथ के कैबिनेट एक भी गैर-कांग्रेसी मंत्री नहीं

दरअसल, मध्य प्रदेश सरकार में 28 विधायकों ने कैबिनेट मंत्री की शपथ ले ली है. इस मंत्रिमंडल में एक भी मंत्री गैरकांग्रेसी नहीं हैं. कमलनाथ ने ऐन मौके पर समर्थन देने वाली एसपी और बीएसपी के भी विधायकों को शामिल नहीं किया.

मंत्रिमंडल के गठन के बाद से ही मंत्री नहीं बनने वाले विधायकों की नाराजगी सामने आनी शुरू हो गई थी. पहले कांग्रेस के कई विधायकों के समर्थकों की नाराजगी सामने आई, उसके बाद अब एमपी में कांग्रेस को समर्थन देने वाली समाजवादी पार्टी ने भी आंखें दिखा दी हैं.

अब अगर मध्य प्रदेश की नई कैबिनेट की बात करें तो कई कारण हैं कि कमलनाथ ने समाजवादी पार्टी के एकमात्र विधायक को कैबिनेट में जगह क्यों नहीं दी. दरअसल, मध्य प्रदेश में सरकार बनाने के लिए 116 विधायक चाहिए थे, कांग्रेस के पास 114 विधायक थे, जबकि एसपी के एक और बीएसपी के दो विधायक थे. नतीजों के ही दिन दोनों पार्टियों ने कांग्रेस को बिना शर्त समर्थन देने का ऐलान कर दिया था. इसके अलावा चार निर्दलीय विधायकों ने भी समर्थन दिया था.

पहले ही एसपी-बीएसपी और निर्दलियों को कैबिनेट से बाहर रखने वाली थी सरकार?

कमलनाथ ने सरकार गठन के बाद कहा था कि एसपी और बीएसपी ने समर्थन के एवज में कोई मांग नहीं की है, ना ही किसी निर्दलीय विधायक ने मंत्रिपद की मांग की है. कमलनाथ के इस बयान के बाद ही ऐसी संभावना हो गई थी कि शायद ही मंत्रिमंडल में गठबंधन के साथी शामिल होंगे.

वहीं, अगर कमलनाथ मंत्रिमंडल में सामाजवादी पार्टी के विधायक को शामिल करते, तो बीएसपी की अनदेखी आसान नहीं होती. इसके अलावा निर्दलीयों को भी शामिल करना पड़ता, क्योंकि चार निर्दलीयों में से दो तो कांग्रेस के ही बागी हैं. यही कारण है कि मुख्यमंत्री कमलनाथ ने सिर्फ अपनी ही पार्टी के विधायकों को सरकार में शामिल करना उचित समझा.

हालांकि, अब मामला बढ़ता जा रहा है. कांग्रेस के ही विधायक बने जयस संगठन के मुखिया हीरालाल आलावा की बगावत के बाद अखिलेश यादव ने भी नाराजगी दिखाई है. अब देखना दिलचस्प होगा कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस इन संकट से कैसे पार पाती है. हालांकि, अखिलेश यादव मध्य प्रदेश में अपने हाथ खींच नहीं सकते, क्योंकि उन्होंने समर्थन देने का फैसला खुद ही किया था.

Till results we are apart; Mayavati

This comes after the Madhya Pradesh Assembly elections, wherein the BSP and the Congress fought separately, but the former extended its support to the grand old party after the declaration of the results.

Mayawati’s Bahujan Samaj Party (BSP) seems to have put the plans for a grand alliance of opposition parties on hold by declaring that the party would contest on all seats in Madhya Pradesh during the 2019 Lok Sabha elections. According to an announcement by party’s vice president Ramji Gautam, the BSP is preparing to contest on all 29 Lok Sabha seats of Madhya Pradesh.

Notably, this comes shortly after the Madhya Pradesh Assembly elections, wherein the BSP and the Congress fought separately, but the former extended its support to the grand old party after the declaration of the results.

Ahead of the Assembly elections in the state, Mayawati had in October declared that she would not get into pre-poll alliance with the Congress party, blaming leaders like former Madhya Pradesh chief minister Digvijaya Singh. She had, however, said that the intentions of Congress chief Rahul Gandhi and Sonia Gandhi for a BSP-Congress alliance was “honest”.

But after the Congress party fell short of majority by winning 114 seats in Madhya Pradesh Assembly elections, Mayawati extended support to ensure that a Congress-led government was formed in the state. She had said that the BSP had decided to support the Congress party so that the Bharatiya Janata Party (BJP) could be kept out of power.

This comes even as Nationalist Congress Party (NCP) chief Sharad Pawar has said that talks are on among all opposition parties for a Mahagathbandhan ahead of the Lok Sabha elections 2019. He also suggested that seat sharing discussions were also underway at different levels, saying that parties that are powerful in a particular state would be given more seats in that region.

“All opposition parties have decided to come together and form a Mahagathbandhan. Talks are on for the same. Whichever party is more powerful in a state will be given more number of seats,” the veteran leader wrote on microblogging site Twitter in Marathi.

In another significant political development, Telangana Rashtra Samithi supremo K Chandrasekhar Rao on Monday met Trinamool Congress chief and West Bengal CM Mamata Banerjee. Following the meeting the Telangana Chief Minister said that soon a “concrete plan” would be formulated.

The TRS chief, who had declared after the Telangana Assembly elections that he would play an active role in national politics, is also slated to meet Mayawati and Samajwadi Party chief Akhilesh Yadav. Earlier, he had met Odisha chief minister and Biju Janata Dal (BJD) supremo Naveen Patnaik.

SC to hear Ram Mandir title dispute on January 4

Appeals are listed before a Bench of CJI Ranjan Gogoi and Justice S.K. Kaul

The volatile Ayodhya dispute appeals have been listed before a Bench led by Chief Justice of India on January 4, 2019.

The Supreme Court’s main cause list for January 4 shows that an application for early hearing and the appeals are listed before a Bench of Chief Justice Ranjan Gogoi and Justice S.K. Kaul. On October 29, a three-judge Bench led by Justice Gogoi had ordered the appeals to be listed in January 2019 before an appropriate Bench to fix a date for hearing.

The October order had come when the parties had sought an early hearing. At the time, Justice Gogoi had orally told them that the decision when to start hearing the appeals would be in the realm of discretion of the “appropriate Bench” before which the matter would come up in January.

“We have our own priorities… whether hearing would take place in January, March or April would be decided by an appropriate Bench,” the Chief Justice had remarked.

Majority opinion

On September 27, the apex court, in a majority opinion, had declined the plea made by Islamic bodies and individuals to refer the question as to whether prayer in a mosque is an essential part of Islam to a seven-judge Constitution Bench.

The majority verdict, in its last paragraph, had further directed the Supreme Court to start hearing the pending cases from October 29. This direction had triggered questions whether the court intended to deliver a judgment in the appeals before the May 2019 elections.

In 2017, when the court had started to hear the appeals after a hiatus of over seven years, senior advocate Kapil Sibal had suggested it to adjourn the hearings to after the general elections in May 2019.

HC verdict

The Ayodhya appeals are against the September 30, 2010 decision of the Allahabad High Court to divide the disputed 2.77 acre area among Sunni Waqf Board, Nirmohi Akhara and the Ram Lalla. The High Court had concluded that Lord Ram, son of King Dashrath, was born within the 1,482.5 square yards of the disputed Ramjanmabhoomi-Babri Masjid premises over 9,00,000 years ago during the Treta Yuga.

Manufactured row exposes Rahul Gandhi’s immaturity and media’s lack of due diligenceaccording to MHA notification


File photo of Congress president Rahul Gandhi.

Media’s ill-informed debates add to the confusion and important questions are buried in the din.
India’s oldest political party is taking a dangerous turn towards immaturity under its newest president.

The manufactured “controversy” over MHA notification on government agencies authorised to intercept ‘private’ communications brings out two issues very clearly. One, Indian media is prone to jumping to conclusions without due diligence. These make for ill-informed debates and dumbing down of political discourse. Two, India’s oldest political party is taking a dangerous turn towards immaturity under its newest president.

Let’s begin with the second point. There is no doubt that Rahul Gandhi has managed to energise the Congress cadre and, even more importantly, infuse a modicum of unity in a party that has traditionally been prone to infighting and factionalism. It has been said long enough that Congress is its own worst enemy.

Though his mantle was the result of dynastic entitlement and not inner-party democracy, nevertheless in his first year as president, Rahul has brought warring factions together and infused a sense of purpose in the veins of the grand old party. He has also put together an excellent team to manage big data and effectively use it in shaping political narratives. The Congress ran BJP close in Gujarat and snatched away three Hindi heartland states from the saffron unit. Rahul may legitimately claim credit for it.

To set an early electoral agenda and turn around Congress’s fortunes in 2019 Lok Sabha elections, Rahul — perhaps acting on inputs from his team of crack data analysers — has decided that he should launch an aggressive, frontal attack on Prime Minister Narendra Modi whose steady popularity (see survey reports in November 2017 and November 2018) remains BJP’s biggest asset and Congress’s key concern. Nothing wrong with Rahul’s strategy, except that in order to target Modi through a vilification campaign — perhaps to show him as corrupt, hateful, dictatorial and pull him down from the pedestal a few notches — the Congress president has frequently tried to take shortcuts where none exist.

From indulging in theatrics such as the hug-and-wink routine in Parliament, gaslighting on ‘single-rate’ GST, launching a post-truth narrative on Rafale, calling the prime minister a “thief” to spinning a 2009 UPA-era law as an example of Modi’s “insecure dictatorship”, Rahul’s personalised and shrill campaign has frequently crossed all boundaries and broken all conventions. This wouldn’t have mattered had the Congress president been able to buttress his accusations with facts or even a smoking gun but in absence of either, the campaigns have become steadily harsher and fantastic.

Take the GST, for instance. Malaysia, which is a much smaller nation compared to India, recently scrapped its deeply unpopular ‘single-rate’ GST though it was envisaged as a “less complex” tax. It will be even more difficult to implement such a uniform rate in a much larger and socio-economically more complex nation such as India. Yet Congress, which has no skin in the game because it isn’t in power, has been pressing for a ‘single-slab’ GST and Rahul has targeted Modi over what he calls ‘Gabbar Singh Tax’.

This might be a catchy political slogan but it reflects immaturity of the leadership. It also carries little economic or even political sense, considering the fact that GST rates are decided by a GST Council comprising representatives from all parties. Even if we leave aside the impossibility of taxing luxury yachts and tea at the same rate, Rahul may remember that the Congress-led UPA left behind the legacy of 31 percent indirect tax on most items, that weakens his moral position on this issue.

On Rafale, for instance, Rahul Gandhi’s tone-deaf campaign has left little space for an informed debate. In a short span of time, Rahul has called the Union defence minister a liar; the Union finance minister a liar; the prime minister a liar; the Dassault CEO a liar; and has implied that even French president Emmanuel Macron was lying. Congress has ended up calling the Indian Air Force chief a liar and has cast aspersions against even the Supreme Court for passing a verdict on Rafale that wasn’t to its liking. In short, the argument seems to be that everyone but the Congress president is lying on Rafale.

On the MHA notification, the latest flashpoint between BJP and the Opposition, Rahul’s tweet indicates that the prime minister is showing signs of “insecure dictatorship” by bringing in a law that enables the state to snoop on every computer and a citizen’s private data.

Congress has launched a ‘stalker sarkar’ campaign against the NDA on social media and senior leaders have called the notification an “assault on people’s fundamental rights” and the law “violative of the right to privacy guaranteed by the Constitution”. While the larger points on ‘national security versus privacy’ needs to be debated in light of the Supreme Court’s recent judgment on Aadhaar, Congress position on this issue reeks of hypocrisy, given the fact that this UPA-era law was brought by the Manmohan Singh government in 2009. All provisions invoked by the MHA notification on Friday were contained within that law.

For instance, on government surveillance over private data and its interception, a statement by RPN Singh — minister of state in Union ministry of home affairs on 11 February, 2014, in the UPA 2 government — tabled in Lok Sabha reveals that “incidents of physical/electronic surveillance in the States of Gujarat and Himachal Pradesh, and the National Capital Territory of Delhi, allegedly without authorization have been reported.” The minister’s statement also reveals that “Standard Operating Procedures for Interception, Handling, Use, Sharing, Copying, Storage and Destruction of records have been issued by the Ministry of Home Affairs to the Central Law Enforcement Agencies.”

As Jaitley has pointed out in his blog, during UPA-II in a detailed debate in Parliament relating to corporate lobbyist, then Home Minister P Chidambaram had indirectly admitted in Parliament that the lobbyist’s phone was “under vigil”. Chidambaram had argued strongly in favour of tax evasion being a valid ground for interception and had insisted that the “government was entitled to tap conversations if they relate to any transaction that needed to be investigated.”

So, a legitimate question that one may ask the Congress president is this: Was he referring to his own government while tweeting on turning India into a “police state”?

The Congress president’s brazenly contradictory positions and immature assertions spring from a belief that either the media will fail to hold him accountable for taking liberties with facts, or the media is too busy jumping to conclusions to verify facts and conduct due diligence before taking positions. It is the job of the media to ask questions of the government in power and put its actions to scrutiny, but if that job leaves large factual gaps, the entire edifice falls apart and ‘questioning’ becomes an extension of ‘campaigning’.

Even a perfunctory scrutiny of the recent MHA notification would have been enough to show that the notification is not an “expansion” of the government’s power but a reassertion of its existing powers. In fact, by notifying the names of the agencies that are authorised to collect such sensitive information, the government may have removed some ambiguities from the law that could have enabled a zealous agency to overstep some boundaries.

There is no doubt that the existing law still leaves enough gaps for the state to exploit but when the fundamental question is whether India should have a proper judicial framework for acts of surveillance instead of delegating such authority to bureaucrats, little point is served in political blame-gaming. Media’s ill-informed debates add to the confusion and important questions are buried in the din.

कर्ज में फंसे हैं बटाईदार और माफी पा रहे जमींदार

सरकारों की तरफ से कृषि कर्ज माफी की घोषणा होने पर भू-स्वामी किसानों के बीच खुशी की लहर दौड़ जाती है. मीडिया और सोशल मीडिया पर भी इसे लेकर तमाम तरह की टिप्पणियां की जाती हैं

सरकारों की तरफ से कृषि कर्ज माफी की घोषणा होने पर भू-स्वामी किसानों के बीच खुशी की लहर दौड़ जाती है. मीडिया और सोशल मीडिया पर भी इसे लेकर तमाम तरह की टिप्पणियां की जाती हैं, लेकिन भारत में अमूमन चार तरह के किसान होते हैं.एक बड़े जोत का किसान जिसके पास बारह-पंद्रह बीघा या इससे भी अधिक जमीन है. दूसरा मध्यम जोत का काश्तकार जिसके पास पांच-छह बीघा जमीन है. तीसरा लघु किसान जिसके पास तीन बीघा से भी कम जमीन है. चौथा भूमिहीन बटाईदार किसान जिसके पास अपनी कोई जमीन नहीं होती और वे दूसरों की जमीन पर बटाई करते हैं.

कर्ज माफी या कृषि संबंधी अन्य लाभकारी योजनाओं का ज्यादातर लाभ बड़े किसानों को ही मिलता है. जबकि किसानों के बीच एक बड़ा तबका भूमिहीन बटाईदार किसानों का भी है, जिसे कर्ज माफी से कभी कोई राहत नहीं मिली है.

कर्ज माफी बना चुनावी कामयाबी का जरिया

हालिया कुछ वर्षों में कृषि कर्ज माफी के वादे अधिक होने लगे हैं. सियासी पार्टियां चुनावी रैलियों में किसानों से कर्ज माफी का यकीन दिलाने के साथ-साथ कर्ज माफी की मियाद भी तय करने लगी हैं. पिछले साल उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान बीजेपी ने कर्ज माफी की घोषणा की थी. मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ ने उसे पूरा करने का दावा भी किया.

यह दीगर बात है कि इसे लेकर अब भी कई सवाल मौजूद हैं. इस परिपाटी को आगे बढ़ाते हुए मध्य-प्रदेश और छत्तीसगढ़ के नव नियुक्त मुख्यमंत्रियों क्रमशः कमलनाथ और भूपेश बघेल ने अपने शपथ-ग्रहण के कुछ घंटे बाद ही कृषि कर्ज माफी का ऐलान किया. दो दिन बाद ही राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी कर्ज माफी की घोषणा कर दी.

अगले साल अप्रैल-मई में संसदीय चुनाव होने हैं. मध्य-प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सत्ता गंवाने के बाद बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व चिंतित है. 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद कमजोर रहा. लिहाजा पार्टी को यकीन है कि बरास्ते कर्ज माफी वह चुनावी कामयाबी हासिल कर सकती है. 2008 में कांग्रेस यह नुस्खा बखूबी आजमा चुकी है. जब यूपीए (प्रथम) सरकार अपने आखिरी साल में ‘कृषि ऋण माफी और ऋण राहत योजना’ (ए.डी.डब्ल्यू.डी.आर.एस) के तहत 52,259.86 करोड़ रुपये की कर्ज माफी की थी.

देश भर में 3.73 करोड़ किसानों को इसका फायदा मिला. वित्तीय अनियमितताओं की वजह से यह योजना भी सवालों के घेरे में रही लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में इसका जबरदस्त फायदा कांग्रेस को मिला और डॉ. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व में पुनः यूपीए की सरकार बनी. पिछले कई उपचुनाव और उत्तर भारत के तीन अहम राज्यों की सत्ता खोने के बाद संभवतः भाजपा नीत केंद्र सरकार भी कर्ज़ माफ़ी के इस प्रचलित विकल्प पर विचार कर सकती है.

वैसे भारतीय रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन समेत अर्थ-वित्त मामलों के कई जानकारों का मानना है कि कर्ज माफी कृषि क्षेत्र एवं किसानों की समस्याओं का समाधान नहीं है. वे आगाह कर चुके हैं कि कृषि कर्ज माफी के बढ़ते चलन से देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंच सकता है. सियासी पार्टियों को भी कमोबेश इसका इल्म है, लेकिन सत्ता जाने का खौफ शायद अर्थव्यवस्था के नुकसान पर भारी है.दस साल पहले यूपीए की सरकार में हुए कर्ज माफी पर जानकारों की अलग-अलग राय हो सकती है. लेकिन उस फैसले से वास्तविक किसानों को कोई फायदा नहीं मिला. इसके बरअक्स देश की अर्थव्यवस्था पर एक अतिरिक्त और अनावश्यक दबाव झेलना पड़ा. देशव्यापी कृषि कर्ज माफी का सकारात्मक असर तो दिखना चाहिए.

बावजूद इसके बीते दस वर्षों में किसानों की आत्महत्याओं में तो कोई कमी नहीं आई. लेकिन किसान आत्महत्या से प्रभावित राज्यों में इजाफा जरूर हुआ. साल 2008 में जो कृषि कर्जे माफ हुए उससे लाभान्वितों होने में एक बड़ी संख्या उन भू-स्वामियों की थी जिन्हें किसान नहीं कहा जा सकता. सरल शब्दों में कहें तो वे ऐसे भू-स्वामी थे जो अपनी जमीनें बटाई पर देकर परिवार सहित शहरों में रहते हैं.

कर्ज माफी का वह साल ऐसे भू-स्वामियों के लिए एक बड़ा तोहफा साबित हुआ. जिस पर उनके अधिकारों का कोई मतलब नहीं था. हममें से ज्यादातर पत्रकारों-लेखकों का ताल्लुक किसी न किसी गांव-कस्बों से रहा है. शायद आपने भी देखा और सुना होगा कि जिन भू-स्वामियों ने बैंकों से कृषि कर्ज लेकर उससे वाहन, भवन आदि का सुख प्राप्त किया. वैसे भू-स्वामियों के कृषि कर्ज जब माफ हुए तो, उन लोगों को पछतावा हुआ जिन्होंने कृषि कर्ज नहीं लिए थे. वहीं दूसरी तरफ साहूकारों के कर्ज के बोझ से दबे लाखों भूमिहीन बटाईदार किसानों को सरकारों द्वारा कर्ज माफी का एक पैसा भी नहीं मिलता.

यह एक भ्रामक तथ्य है कि किसान तो आखिर किसान हैं क्या भू-स्वामी, क्या बटाईदार! भारत में वास्तविक किसानों यानी बटाईदारों की संख्या कितनी है क्या ऐसा कोई आंकड़ा केंद्र व राज्य सरकारों के पास है? सरकारें इससे किनारा नहीं कर सकतीं क्योंकि आजादी के तुरंत बाद ही देश में किसानों के कई मुद्दे मसलन-जमींदारी प्रथा का विरोध, भूमिहीनों को भू-अधिकार और लगान निर्धारण, नहर सिंचाई दर जैसे सवालों पर कई आंदोलन हुए. बिहार जैसे राज्य में तो बटाईदारी कानून बनाने की भी मांग उठी.

यह अलग बात है कि इसे अमल में लाना तो दूर कोई भी दल इस पर बहस करने की जहमत नहीं उठाना चाहता. वह उस राज्य में जहां पिछले तीन दशकों से समाजवादी पृष्ठभमि की सरकारें शासन में हैं. सिर्फ भू-स्वामी होने मात्र से किसी को किसान मान लेना सही नहीं है. ऐसे में उन लाखों भूमिहीन किसानों का क्या, जो दूसरों की खेतों में बटाईदारी करते हैं.

यह बात तो दावे के साथ कही जा सकती है कि देश में किसानों से जुड़ी नीतियां बनाने वाले महकमों (कृषि मंत्रालय से लेकर नीति आयोग तक) को इस बात की ख़बर ही नहीं है कि मुल्क के करोड़ों किसानों में बटाईदार किसानों की संख्या कितनी है? और वैसे भू-स्वामी कितने हैं जो स्वयं खेती नहीं करते. अगर आजादी के सात दशक बाद भी देश में बटाईदार किसानों को चिन्हित नहीं किया गया है तो यह सरकारों द्वारा किया गया एक अपराध है.

बटाईदार किसानों के परिजनों नहीं मिलता मुआवजा

किसानों की त्रासदी यहीं खत्म नहीं होती! दरअसल, किसानों के बीच फर्क न कर पाने से वास्तविक किसानों को कई और खामियाजे भुगतने पड़ते हैं. सरकारी अभिलेख में बटाईदारों का उल्लेख नहीं होने एवं भू-स्वामित्व संबंधी दस्तावेज के अभाव में उन्हें सूचीबद्ध किसान नहीं माना जाता. किसान आत्महत्या से प्रभावित राज्यों में मौत और मुआवजे का यही विचित्र दृश्य देखने को मिलता है. आत्महत्या करने वाला अगर कोई बटाईदार किसान है तो, शोक-संतप्त उसके परिजनों को सरकारी मुआवजा और मदद नहीं मिलती. वजह मृतक किसान के परिवार में भू-स्वामित्व के दस्तावेज न होना.

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1990 के बाद देश भर में फसलों की नाकामी व कृषि घाटे के कारण तकरीबन 3,96,000 किसानों ने आत्महत्या की. गैर सरकारी आंकड़े इससे भी अधिक संख्या बताते हैं. इस आलेख के लेखक कुछ साल पहले मराठवाड़ा और तेलंगाना के गांवों में आत्महत्या करने वाले कई किसानों के परिजनों से मिले थे. पीड़ित परिवारों ने बताया कि बटाईदार होने की वजह से उन्हें कोई मुआवज़ा नहीं मिला. संबंधित जिला कलेक्टरों से जब इसकी सच्चाई पूछी तो, उन्होंने कहा कि कृषि व राजस्व विभाग के मुताबिक आत्महत्या करने वाले उन्हीं किसानों के परिजनों को सरकार द्वारा घोषित मुआवजे की रकम मिलती है जिनके पास भू-स्वामित्व से जुड़े प्रमाण-पत्र व दस्तावेज होंगे.

बटाईदारों को नहीं मिलता ‘किसान क्रेडिट कार्ड’

हर साल रबी और खरीफ फसल के सीजन में नई अनाज खरीद नीति की लेकर भी जिज्ञासाएं बनी रहती हैं क्योंकि इसके तहत किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का फायदा मिलता है. लेकिन बटाईदार किसानों को इसका भी लाभ नहीं मिलता. कारण भू-स्वामित्व के प्रमाण-पत्र संबंधी वही पुराना मामला. नतीजतन बटाईदार किसान औने-पौने दाम पर साहूकारों को अपनी उपज बेच देते हैं. या फिर अपनी उपज को भू-स्वामी की उपज बताकर सरकारी अनाज खरीद केंद्रों पर बेचते हैं. किसानों के बीच ‘केसीसी’ यानी ‘किसान क्रेडिट कार्ड’ काफी लोकप्रिय है.

इसकी शुरुआत वर्ष 1998 में हुई थी. वैसे तो इसके कई लाभ हैं लेकिन इसका फायदा किसे मिल रहा है, यह एक बड़ा सवाल है. दरअसल जिन किसानों को इसका वास्तविक लाभ मिलना चाहिए उन्हें नहीं मिल पाता. अपनी जमीनें बटाई देकर शहरों में रहने वाले भू-स्वामियों को जब किसान क्रेडिट कार्ड के तहत बैंकों से पैसा लेना होता है, तब वे ब्लॉक-सबडिवीजन आते हैं. राजस्व कर्मचारी से ‘मालगुजारी’ की रसीद और ‘लैंड पजेशन सर्टिफिकेट’ (एलपीसी) प्राप्त कर बैंक से कृषि कर्ज उठा लेते हैं.

जबकि निर्धारित भू-संबंधी प्रमाण-पत्र न होने से भूमिहीन बटाईदार किसानों को यह कर्ज नहीं मिल पाता. ओलावृष्टि, अतिवृष्टि-अनावृष्टि और बेमौसम बारिश होने पर खेतों में खड़ी फसलें जब तबाह हो जाती हैं तो राज्य सरकारों की तरफ से किसानों को सरकारी मदद मिलती है. लेकिन इसका भी फायदा उन्हीं किसानों को मिलता है जिनकी अपनी जमीनें हैं. यहां भी बटाईदार किसानों को निराश होना पड़ता है. वहीं खुद से खेती नहीं करने वाले ढेरों भू-स्वामी इसका भी लाभ उठा लेते हैं. सरकार और उसकी व्यवस्था के लिए इससे अधिक शर्म की स्थिति और क्या हो सकती है?

क्रॉप पैटर्न में बदलाव से होगा किसानों का भला

किसानों की आत्महत्या एक बड़ी समस्या बन चुकी है. भविष्य में ऐसी घटनाएं न हों इस बाबत ईमानदार प्रयास का अभाव दिखता है. किसानों को उपज का वाजिब दाम नहीं मिलना और फसलों का खराब होना इसकी प्रमुख वजह हो सकती है. लेकिन इसके कुछ कारण और भी हैं जिसकी चर्चाएं नहीं होती. ‘किसान आत्महत्या’ प्रभावित राज्यों की अध्ययन यात्राओं से कुछ अहम बातें समझ में आईं. मसलन नब्बे के दशक में ‘कैश क्रॉप’ और ‘हाइब्रिड सीड्स’ ने यहां के खेतों में अपनी जड़ें जमा लीं.

नतीजतन मराठवाड़ा, विदर्भ और तेलंगाना के किसान अपने परंपरागत खेती से दूर हो गए. बीजों का भंडारण और उसका पुनर्पयोग ‘संकर बीजों’ की मेहरबानी से समाप्त हो गया. बाकी कसर उन ‘कीटनाशकों’ ने पूरी कर दीं जिनके छिड़काव फसलों के लिए लाभदायक कीट-पतंगे भी नष्ट हो गए. हालत यह होते चली गए कि किसानों के महीने भर के राशन के खर्च के बराबर या उससे ज्यादा भाव में हाइब्रिड बीज और कीटनाशक मिलने लगे हैं. इन राज्यों के किसान पहले ऐसी फसलें उगाते थे जिससे पशुओं को भी चारा मिल जाता था.

लेकिन कपास की खेती शुरू होने के बाद दुधारू पशु गायब होने लगे. नकदी फसल के मोह में पशुपालन जो कृषि का ही रूप है, उससे किसान वंचित हो गए. यानी गाय-भैंस के दूध से जो आमदनी किसानों की होती वह बंद हो गई. किसानों के कर्जें माफ हों इसके लिए देश भर से किसान ‘दिल्ली कूच’ करते हैं लेकिन किसानों से हमदर्दी जताने वाले नेताओं और एनजीओ द्वारा कर्ज माफी के अलावा अन्य सार्थक विकल्पों जैसे, क्रॉप पैटर्न में बदलाव और कृषि और पशुपालन के संबंधों को मजबूत बनाने पर बल नहीं दिया जाता.

एसपी-बीएसपी के गठबंधन में कांग्रेस की नो एंट्री


यूपी की सियासत में गोरखपुर और फूलपुर की लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव दरअसल यूपी की सियासत में निर्णायक मोड़ लाने वाले माने जा सकते हैं  

यूपी में महागठबंधन पर अभी कुछ तय नहीं, एक-दो महीने तक इंतजार करें: कांग्रेस

कांग्रेस ने कहा वह राज्य में किसी भी धर्मनिरपेक्ष और ‘सम्मानजनक’ तालमेल का हिस्सा बनने को तैयार है, लेकिन अभी किसी नतीजे पर पहुंचना जल्दबाजी होगी


राजनीति सिर्फ अवसरों का ही नहीं बल्कि विडंबनाओं का भी खेल है. साल 2019 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर यूपी में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच गठबंधन होता दिखाई दे रहा है लेकिन कांग्रेस के लिए इसमें कोई गुंजाइश नहीं दिखती. तीन राज्यों में चुनाव जीतने वाली कांग्रेस का हाथ यूपी में एसपी-बीएसपी ने लगभग झटक दिया है.

खास बात ये है कि कांग्रेस को गठबंधन में शामिल न करने का फैसला वो बीएसपी ले रही है जिसने खुद 2014 के लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं जीती. वहीं उस वक्त राज्य में सत्ताधारी समाजवादी पार्टी भी सिर्फ कुनबे की ही 5 सीटें जीत सकी थीं. इसके बावजूद यूपी में सीटों के गठबंधन में कांग्रेस को अहमियत नहीं दी गई है बल्कि राष्ट्रीय लोकदल को तरजीह दी गई है. साथ ही समाजवादी पार्टी ने कुछ सीटें निषाद पार्टी और पीस पार्टी के नाम गोरखपुर में हुए उपचुनावों में इन पार्टियों से मिले समर्थन के बदले रखी हैं.

बीजेपी शासित हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस को उम्मीद थी कि यूपी में महागठबंधन के लिए उसका दावा मजबूत होगा. लेकिन मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में गठबंधन पर कांग्रेस से झटका खाने के बाद इन क्षेत्रीय दलों ने यूपी में हिसाब बराबर कर लिया. एसपी-बीएसपी ने ये बता दिया कि यूपी में इन्हीं पार्टियों की चलेगी.

इसके बावजूद एसपी-बीएसपी ने कांग्रेस को एक राहत देने का काम किया है. एसपी-बीएसपी के गठबंधन ने कांग्रेस के गढ़ अमेठी और रायबरेली की सीटों पर कोई उम्मीदवार न उतारने का भी फैसला किया है. दरअसल, राजनीतिक रिश्तों को बरकरार रखने और जिंदा रखने का ये शालीन तरीका होता है. साल 2012 में कांग्रेस ने भी मुलायम परिवार की बहू डिंपल यादव के लिए कन्नौज सीट पर हुए उपचुनाव में कोई उम्मीदवार नहीं उतारा था.

यूपी की सियासत में गोरखपुर और फूलपुर की लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव दरअसल यूपी की सियासत में निर्णायक मोड़ लाने वाले माने जा सकते हैं. 22 साल बाद एसपी और बीएसपी के बीच पुरानी अदावतों का दौर थमा और दोनों साथ आए. फूलपुर और गोरखपुर में उपचुनावों के नतीजों ने बीजेपी के साथ कांग्रेस की भी नींद उड़ाने का काम किया था. यूपी के सीएम और डिप्टी सीएम अपनी सीटें नहीं बचा सके तो कांग्रेस की दोनों सीटों पर जमानत जब्त हो गई थी जबकि बुआ-भतीजे की जोड़ी ने यूपी में सवा साल में ही बीजेपी के किले में सेंध लगा दी.

गोरखपुर-फूलपुर ने ही एसपी-बीएसपी को बीजेपी को हराने का फॉर्मूला दे दिया. वहीं कांग्रेस को भी ये समझ आया कि उसकी स्थिति अब अकेले बीजेपी को चुनावी टक्कर देने की नहीं रही. यही वजह रही कि कैराना में लोकसभा के उपचुनाव और नूरपुर में विधानसभा के उपचुनाव में कांग्रेस ने एसपी,बीएसपी और राष्ट्रीय लोकदल का समर्थन किया. कैराना से राष्ट्रीय लोकदल की उम्मीदवार तबस्सुम हसन चुनाव जीतीं तो नूरपुर से समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार नईम उल हक जीते.

योगी आदित्यनाथ यूपी में बीजेपी के सभी 9 उम्मीदवारों के राज्यसभा चुनाव जीतने से गदगद हैं

यूपी में हुए पिछले 1 साल में उपचुनावों ने सियासी समीकरणों को बड़ी तेजी से बदला. जहां एसपी-बीएसपी गठबंधन अप्रत्याशित रूप से दिखाई पड़ा तो वहीं नूरपुर और कैराना में हुए उपचुनाव में जाट-मुस्लिम-यादव और दलित-मुस्लिम गठजोड़ का समीकरण भी दिखा. ये सामाजिक और राजनीतिक बदलाव बीजेपी के लिए साल 2019 में सिरदर्द बन सकते हैं.

लगभग तय गठबंधन के मुताबिक समाजवादी पार्टी 37 और बहुजन समाज पार्टी 38 सीटों पर चुनाव लड़ सकते हैं जबकि राष्ट्रीय लोकदल को 3 सीटें दी गई हैं और कांग्रेस के लिए अमेठी और रायबरेली की सीट छोड़ी गई है.

अब कांग्रेस इसे आत्मसम्मान का मुद्दा बना कर अकेले मैदान में उतरने का फैसला कर सकती है लेकिन उसकी कोशिश आखिरी तक गठबंधन की ओट में चुनाव लड़ने की होगी ताकि नतीजे अगर उम्मीद के मुताबिक न हों तो इससे होने वाले नुकसान से भी बचा जाए.

यूपी विधानसभा चुनाव में हार के बाद कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के अलग अलग बयान थे कि गठबंधन का फैसला सही नहीं साबित हुआ. कुल मिलाकर ऐसे गठबंधन अगर जीत के अवसर पैदा करते हैं तो हार से होने वाली किरकिरी से बचने का भी जवाब तैयार करते हैं. गठबंधन दरअसल सभी राजनीतिक दलों के लिए चुनावी रण में तलवार भी है तो ढाल भी.

फिलहाल यूपी की सियासत अब गठबंधन की धार पर है और इस बार बीएसपी सुप्रीमो मायावती का जन्मदिन लोकसभा चुनाव के शंखनाद से कम नहीं होगा. इस मौके पर यूपी के गठबंधन का औपचारिक ऐलान हो सकता है.

कांग्रेस के लिए बेहतर यही होगा कि वो यूपी में लोकसभा चुनाव में अपनी भूमिका तय करे क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि उसका कोई फैसला वोट-कटवा की भूमिका निभाए जिसका फायदा अप्रत्यक्ष रूप में बीजेपी को ही मिले. वैसे भी यूपी की एक-एक सीट पर इस बार आर-पार की लड़ाई होनी है.

दरअसल, समाजवादी पार्टी से अलग हुए शिवपाल यादव अपनी नई पार्टी से एसपी के मुस्लिम-यादव वोटबैंक में ही सेंध लगाने का काम करेंगे. ऐसे में कांग्रेस सभी 80 सीटों पर जाट-मुस्लिम-यादव-दलित समीकरण के उम्मीदवार उतार कर बीजेपी के विरोध में बने एसपी-बीएसपी-रालोद गठबंधन का बंटाधार न कर जाए? कम से कम अब बीजेपी के साथ एसपी-बीएसपी को भी कांग्रेस को कमजोर आंकने की भूल नहीं करनी चाहिए.