2019: कांग्रेस के पास 272 के ‘मैजिक फिगर’ के लिये कोई जादुई छड़ी नहीं है

क्या कांग्रेस 1977 के चुनावी फॉर्मूले को लेकर 2019 का चुनाव जीतने का ख्वाब संजो रही है? 1977 में जिस तरह से कांग्रेस के खिलाफ समूचा विपक्ष एकजुट हुआ था क्या वो ही तस्वीर 2019 में बीजेपी के खिलाफ दिखाई देगी?

दरअसल बीजेपी की इस वक्त मजबूत स्थिति 1960 और 1970 के दशक में कांग्रेस की स्थिति को दर्शा रही है. कांग्रेस की ही तरह बीजेपी आज देश की सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर राज्य दर राज्य अपनी विजय यात्रा जारी रखे हुए है. बीजेपी के विजयी रथ को रोकने के लिये कांग्रेस वर्किंग कमेटी में गहन मंथन हुआ. पूर्व गृहमंत्री पी चिदंबरम ने 2019 के लोकसभा चुनाव के लिये ‘मिशन 300’ का प्लान पेश किया है.

chidambaram

चिदंबरम का मानना है कि 12 राज्यों में कांग्रेस के मजबूत जनाधार को देखते हुए 150 सीटों का लक्ष्य रखा जाए. कांग्रेस अगर अपनी मौजूदा सीटों की संख्या को तीन गुना बढ़ा कर 150 तक पहुंचा ले तो बाकी 150 सीटों का बचा हुआ काम क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन पूरा कर सकते हैं. जिससे 272 के ‘मैजिक फिगर’ को यूपीए-3 पार कर सकती है.

चिदंबरम का मानना है कि तकरीबन 270 सीटें ऐसी हैं जहां क्षेत्रीय दलों के साथ रणनीतिक गठबंधन की मदद से 150 सीटें जीती जा सकती हैं. चिदंरबरम फॉर्मूले के तहत कांग्रेस 300 सीटों पर अकेले और 250 सीटों पर रणनीतिक गठबंधन के साथ चुनाव लड़े.

साल 2004 में भी कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में 145 सीटें मिली थीं जिसके बाद उसने केंद्र में यूपीए-1 की सरकार बनाई थी. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस केवल 44 सीटें ही जीत सकी थी.

कांग्रेस की रणनीति ये हो सकती कि वो जिन राज्यों में मजबूत स्थिति या फिर नंबर दो पर हो वहां बीजेपी से सीधा मुकाबला करे. लेकिन जिन राज्यों में उसकी स्थिति नंबर 4 की हो तो वहां क्षेत्रीय दलों को बीजेपी से टक्कर के लिये आगे बढ़ाए और खुद पीछे रह कर समर्थन करे.

एनसीपी नेता शरद पवार ने भी ऐसा ही सुझाव कांग्रेस को सुझाया था. पवार ने चुनाव पूर्व महागठबंधन की कल्पना अव्यावाहरिक बताया था. उन्होंने महागठबंधन के आड़े आ रही क्षेत्रीय दलों की निजी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की मजबूरी को सामने रखा था. उनका कहना था कि चुनाव में क्षेत्रीय दल पहले अपनी राजनीतिक स्थिति को मजबूत करना चाहेंगे. भले ही बाद में बीजेपी विरोधी दल समान विचारधारा के नाम पर एक छाते के नीचे महागठबंधन बना लें.

लेकिन सवाल ये उठता है कि कांग्रेस के लिये आखिर 150 का आंकड़ा भी कैसे और किन राज्यों से आ सकेगा? इमरजेंसी के बाद कांग्रेस ने जिस तरह से सत्ता में धमाकेदार वापसी की थी, वैसा ही करिश्मा दिखाने के लिये कांग्रेस के पास आज न ज़मीन है और न ही चेहरा.

दरअसल इमरजेंसी के बाद कांग्रेस की सत्ता में वापसी की सबसे बड़ी वजह खुद जनता पार्टी भी थी. जनता पार्टी की सरकार अंदरूनी कलह की वजह से गिर गई थी. जिसका फायदा उठाते हुए कांग्रेस जनता को ये समझाने में कामयाब रही कि सिर्फ कांग्रेस ही देश में शासन चला सकती है. उस वक्त कांग्रेस के पास इंदिरा गांधी जैसा करिश्माई चेहरा भी था. पाकिस्तान से 1971 की जंग जीतने के सेहरा उनके राजनीतिक बायोडाटा में दर्ज था. ‘इंदिरा इज़ इंडिया’ जैसे नारों की गूंज थी. लेकिन आज कांग्रेस के पास बीजेपी के भीतर भूचाल लाने वाले चेहरे का शून्य साफ देखा जा सकता है.

जहां कांग्रेस के लिये यूपीए 3 को लेकर चुनाव पूर्व गठबंधन की राहें इतनी आसान नहीं है तो वहीं चुनाव बाद महागठबंधन को लेकर भी आशंकाएं दिनों-दिन गहराने का ही काम कर रही हैं. अविश्वास प्रस्ताव में बीजेडी और टीआरएस जैसी पार्टियों के रुख ने कांग्रेस को झटका देने का काम किया है. इन दोनों ही पार्टियों ने खुद को वोटिंग से अलग रख कर बीजेपी का ही एक तरह से साथ दिया है. जबकि महागठबंधन को लेकर एसपी,बीएसपी और टीएमसी जैसी पार्टियों ने अब तक अपना रुख साफ नहीं किया है. कांग्रेस के साथ गठबंधन करने में इन पार्टियों को अपने जनाधार खिसकने का भी डर है.

समान विचारधारा के नाम पर भी ये पार्टियां यूपीए3 का हिस्सा बनने से कतरा रही हैं क्योंकि कांग्रेस के ‘मुस्लिम पार्टी’ के ठप्पा का डर इन्हें भी लगने लगा है. यूपी विधानसभा चुनाव में एसपी का मुस्लिम-यादव समीकरण का सत्ता दिलाने का हिट फॉर्मूला फेल हो गया तो बीएसपी की सोशल इंजीनियरिंग का किला भी ध्वस्त हो गया था. साफ है कि अब एसपी-बीएसपी भी लोकसभा चुनाव में हर कदम फूंक-फूंक कर रखेंगीं. ऐसे में कमजोर कांग्रेस के साथ चुनावी तालमेल की संभावना सियासी सौदेबाजी के कई चरणों के बाद ही हो सकती है.

बिहार की राजनीति में कांग्रेस अपने ही वजूद के लिये संघर्ष कर रही है. ऐसे में यहां उसके पास यूपीए के सहयोगी आरजेडी के सामने सरेंडर करने के अलावा कोई चारा नहीं है. बिहार की राजनीति में मुख्य लड़ाई आरजेडी और बीजेपी-जेडीयू के बीच ही होगी.

जबकि पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी पार्टी टीएमसी की नेता ममता बनर्जी का ज्यादा जोर थर्ड फ्रंट बनाने पर दिखता रहा है. लेकिन टीआरएस के बदले-बदले से मिजाज को देखकर वो भी अब खुद की पार्टी को ही चुनाव में मजबूत करने का काम करना चाहेंगीं. इसी तरह तमिलनाडु और केरल जैसे दूसरे राज्यों में भी कांग्रेस की उम्मीदें डीएमके और सीपीएम जैसी पार्टियों पर है. इन राज्यों में कांग्रेस को अपने ही धैर्य का इम्तिहान लेना होगा. सीपीएम कभी हां-कभी ना के साथ कांग्रेस के साथ दिखाई देती है तो वहीं डीएमके भी बदलते राजनीतिक समीकरणों के चलते कोई नया दांव चल सकती है.

दरअसल सवाल सभी क्षेत्रीय दलों के अपने वजूद का भी है जो कि मोदी लहर की वजह से गड़बड़ाने के बाद अबतक सम्हल नहीं सका है.

ऐसे में कांग्रेस को मिशन 150 के लिये बीजेपी की मिशन 300+ की रणनीति से ही कुछ सीक्रेट फॉर्मूले निकालने होंगे. एक वक्त तक बीजेपी को सवर्णों की पार्टी कहा जाता था तो कांग्रेस को दलित-मुसलमानों के मसीहा के तौर पर प्रोजेक्ट किया जाता था. लेकिन आज बीजेपी ने सवर्णों की पार्टी के टैग को हटा कर सोशल इंजीनियरिंग की जो मिसाल पेश की उसकी काट किसी के पास नहीं है. कांग्रेस को भी एक नए समीकरण की तलाश करनी होगी क्योंकि उसका वोट बैंक क्षेत्रीय दल लूट चुके हैं.

यूपी में कांग्रेस को फिलहाल मंथन करने की जरूरत नहीं है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को केवल 2 सीटें ही मिलीं. जबकि साल 2017 के विधानसभा चुनाव में उसे सिर्फ 7 सीटें मिलीं. गोरखपुर और फूलपुर के उपचुनाव में उसकी जमानत भी जब्त हुई. ऐसे में यहां ज्यादा एक्सपेरीमेंटल होने की जरुरत नहीं है. यूपी की 80 लोकसभा सीटों को देखते हुए कांग्रेस को एसपी-बीएसपी गठबंधन पर ही भरोसा दिखाना होगा. कांग्रेस के पास यूपी में कोई करिश्माई चेहरा नहीं है. ऐसे में कांग्रेस सौदेबाजी की हालत में नहीं है. यहां वो दर्शन ठीक है कि जो मन का हो जाए तो ठीक है और न हो तो और भी ठीक है.

हालांकि साल 2009 की तर्ज पर कांग्रेस यहां सभी 80 सीटों पर दांव भी खेल सकती है क्योंकि उसके पास यहां खोने को कुछ नहीं है. अगर दांव चल गया तो कांग्रेस के लिये सबसे अप्रत्याशित एडवांटेज होगा.

गुजरात में लोकसभा की 26 सीटें हैं. साल 2014 में गुजरात में कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पाई थी. लेकिन गुजरात विधानसभा चुनाव में ‘ट्रेलर’ दिखाने वाली कांग्रेस का दावा है कि वो लोकसभा चुनाव में पूरी ‘पिक्चर’ दिखाएगी. गुजरात कांग्रेस का दावा है कि वो लोकसभा चुनाव में सभी बीजेपी विरोधी ताकतों को साथ लाकर मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलेगी.

गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी जैसे नेताओं के साथ गठबंधन कर बीजेपी के ‘क्लीन-स्वीप’ के तिलिस्म को तोड़ दिया था. ऐसे में इस बार गुजरात में कांग्रेस को संभावना दिख रही हैं जो कि उसकी 150 सीटों के लक्ष्य को हासिल करने के लिये बूंद-बूंद से घड़ा भरने का काम कर सकती है.

इस बार पंजाब और राजस्थान को लेकर कांग्रेस आत्मविश्वास से लबरेज है. पंजाब में कांग्रेस ने सत्ता में वापसी की है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर में हारी कांग्रेस ने 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में जबरदस्त वापसी की. इस चुनाव से न सिर्फ उसकी सीटों में इजाफा हुआ बल्कि वोट प्रतिशत में भी बढ़ोतरी हुई. विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 38.5 फीसदी मत मिले. वहीं गुरुदासपुर लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में मिली जीत से कांग्रेस उत्साहित है. ऐसे भी संकेत मिल रही हैं कि लोकसभा चुनाव में बीजेपी और शिरोमणि अकाली दल को कड़ी टक्कर देने के लिये कांग्रेस आम आदमी पार्टी से भी हाथ मिला सकती है. आम आदमी पार्टी ने पंजाब के विधानसभा चुनाव को त्रिकोणीय मुकाबले में बदल दिया था.

इसी साल मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में चुनाव होने वाले हैं. मध्य प्रदेश में लोकसभा की 29 सीटों में कांग्रेस के पास केवल 2 ही सीटें हैं. ये सीटें ज्योतिरादित्य सिंधिया ने गुना और कमलनाथ ने छिंदवाड़ा में जीती थीं. लेकिन इस बार कांग्रेस को एमपी में एंटीइंकंबेंसी से काफी उम्मीदें हैं. शिवराज के 15 साल के शासनकाल में उपजी सत्ताविरोधी लहर के भरोसे कांग्रेस न सिर्फ विधानसभा चुनाव जीतने का सपना देख रही है बल्कि उसे लोकसभा सीटें मिलने की भी उम्मीदें है.

इसी तरह छत्तीगढ़ में लोकसभा की 11 सीटें हैं. लेकिन कांग्रेस के पास यहां विद्याचण शुक्ल जैसा पुराना चेहरा नहीं है. नक्सली हमले में कांग्रेस ने अपने कई बड़े नेताओं को खो दिया था. बीजेपी के मुख्यमंत्री रमन सिंह का फिलहाल कांग्रेस के पास यहां कोई तोड़ नहीं दिखाई देता है.

राजस्थान में कांग्रेस को सत्ता में आने का पूरा भरोसा है. यहां हर पांच साल में सरकार बदलने की परंपरा है. विधानसभा चुनाव के साथ ही कांग्रेस को यहां लोकसभा सीटें भी जीतने की उम्मीद है. साल 2014 में राजस्थान की 25 लोकसभा सीटों में से एक भी सीट कांग्रेस नहीं जीत सकी थी. लेकिन इस बार उपचुनावों में उसने लोकसभा की दो और विधानसभा की एक सीट जीती.

उत्तर-पूर्वी राज्यों में एक वक्त कांग्रेस का एकछत्र राज होता था. लेकिन बीजेपी ने अपनी रणनीति के तहत उत्तर-पूर्वी राज्यों में ताकत झोंक दी. बीजेपी ये जानती है कि यूपी में साल 2014 का करिश्मा दोहरा पाना आसान नहीं होगा. इसलिये उसने वैकल्पिक सीटों के लिये उत्तर-पूर्वी राज्यों को खासतौर से टारगेट किया. ये इलाके कांग्रेस और लेफ्ट का गढ़ होने के बावजूद अब भगवामय हो चुके हैं.

असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और त्रिपुरा में बीजेपी की सरकार है. वहीं नागालैंड में नागा पीपुल्स फ्रंट-लीड डेमोक्रेटिक गठबंधन को बीजेपी का समर्थन मिला हुआ. ऐसे में कांग्रेस को उत्तर-पूर्वी राज्यों में कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी क्योंकि बीजेपी ने पूर्वोत्तर की 25 लोकसभा सीटों के लिये साल 2014 से ही तमाम परियोजनाओं के जरिये साल 2019 की तैयारी शुरू कर दी थी.

सबसे ज्यादा असम के पास 14 लोकसभा सीटें हैं. असम में बीजेपी की सरकार है. बीजेपी ने पूर्वोत्तर को कांग्रेस मुक्त बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. कांग्रेस पांच राज्यों से सिमट कर मेघालय और मिजोरम तक ठहर गई है.

महाराष्ट्र को लेकर कांग्रेस थोड़ी सी आशान्वित हो सकती है. महाराष्ट्र के वोटरों में हर पांच साल में सरकार बदलने की मानसिकता रही है. यूपी के बाद महाराष्ट्र ही लोकसभा की सबसे ज्यादा 48 सीटें देता है. यहां असली मुकाबला कांग्रेस-एनसीपी और बीजेपी-शिवसेना गठबंधन के बीच है. फिलहाल जो राजनीतिक हालात हैं उसे देखकर लग रहा है कि बीजेपी यहां पर अकेले दम पर चुनाव लड़ सकती है क्योंकि शिवसेना के साथ रिश्ते काफी बिगड़ चुके हैं. कांग्रेस और एनसीपी इसका फायदा उठा सकते हैं.

कर्नाटक में भले ही कांग्रेस दोबारा सरकार नहीं बना पाई लेकिन उसे जेडीएस के रूप में साल 2019 का लोकसभा पार्टनर मिल गया है. कर्नाटक की 28 लोकसभा सीटों में कांग्रेस को साल 2014 में केवल 9 सीटें ही मिली थीं. ऐसे में कांग्रेस और जेडीएस का गठबंधन इस बार चुनाव में बीजेपी का गेम-प्लान बिगाड़ने का काम कर सकता है.

चिदंबरम के गेम-प्लान के मुताबिक अगर कांग्रेस को 150 सीटें हासिल करनी है तो उसे मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश और पूर्वोत्तर के राज्यों में जोरदार मेहनत करनी होगी तो वहीं क्षेत्रीय दलों के वर्चस्व वाले राज्यों में गठबंधन को ही रणनीति बनानी होगी.

चिदंबरम के फॉर्मूले में अंकगणित के हिसाब से कागजों पर कांग्रेस करिश्मा देख सकती है. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि मोदी-विरोधी मोर्चा केंद्र सरकार के खिलाफ किन मुद्दों पर मैदान में ताल ठोंक सकेगा? सिर्फ मोदी विरोध के नाम पर चुनाव जीतने की गलतफहमी कांग्रेस को साल 2014 की ही तरह दोबारा ‘हाराकीरी’ पर मजबूर ही करेगी.

कांग्रेस को अपनी रणनीति बदलनी होगी. पीएम मोदी के खिलाफ आपत्तिजनक बयानों से बचना होगा. इसकी शुरुआत खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को ही करनी पड़ेगी तभी दूसरे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता जबान पर लगाम रखेंगे. अब राहुल भी ये जान चुके हैं कि ‘आंखों में आंख न डाल पाने वाले’ मोदी अविश्वास प्रस्ताव पर कैसे विरोधियों को धूल चटा गए हैं.

कांग्रेस में पीएम मोदी पर बोलने के नाम पर ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का ‘भरपूर इस्तेमाल’ करने वाले नेता ही अपनी पार्टी का काम तमाम करते आए हैं. तभी राहुल को सीडब्लूसी की बैठक में बड़बोले नेताओं की बोलती बंद करने के लिये कड़ी कार्रवाई की धमकी देनी पड़ी है.

बहरहाल, कांग्रेस ये सोचकर खुद में आत्मविश्वास भर सकती है कि इस साल लोकसभा की दस सीटों पर हुए उपचुनावों में बीजेपी 8 सीटों पर हारी है. वहीं बीजेपी भी 8 सीटों की हार से 2019 के अपने मिशन 300+ की दोबारा समीक्षा कर सकती है. फिलहाल सौ साल पुरानी कांग्रेस को 150 सीटों की सख्त दरकार है. ये चुनौती इसलिये भी बड़ी है क्योंकि कांग्रेस के पास 272 के ‘मैजिक फिगर’ के लिये कोई जादुई छड़ी नहीं है.

कर्णाटक में गौ रक्षा दल बनयेगी विश्व हिन्दू परिषद


यह दल रात के वक्त मवेशियों को ले जा रहे सभी संदिग्ध वाहनों को रोकेंगे और दोषियों के पकड़े जाने पर उन्हें पुलिस को सौंपेंगे


विश्व हिंदू परिषद ने कर्नाटक के तटीय दक्षिण कन्नड़ जिले के हर गांव में गौरक्षा दल बनाने का फैसला किया है. ताकि मवेशियों की चोरी और अवैध तरीके से उन्हें लाने ले जाने पर लगाम लगे.

परिषद के मंगलूर संभाग के अध्यक्ष जगदीश शेनावा ने कहा कि मवेशियों की बढ़ती चोरी की घटनाएं और दोषियों की गिरफ्तारी में पुलिस की कथित नाकामी के कारण उन्हें ऐसे दल  बनाने पड़े. उन्होंने कहा कि हर दल में 10 सदस्य होंगे. यह दल रात के वक्त मवेशियों को अवैध तरीके से लाने-ले जाने पर नजर रखेंगे. मवेशियों को ले जा रहे सभी संदिग्ध वाहनों को रोकेंगे और दोषियों के पकड़े जाने पर उन्हें पुलिस को सौंपेंगे.

शेनावा ने कहा कि विश्व हिंदू परिषद को ऐसा कदम इसलिए उठाना पड़ा क्योंकि पुलिस जिले में मवेशियों को अवैध तरीके से लाने-ले जाने पर लगाम लगाने में पूरी तरह नाकाम रही है. उन्होंने कहा कि हिंदू कार्यकर्ताओं को नैतिकता के पहरेदार के तौर पर पेश करने की बजाय पुलिस को मवेशियों का अवैध परिवहन करने वालों के खिलाफ गुंडा कानून के तहत केस दर्ज करना चाहिए.

विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल 26 जुलाई को जिले के वामनजूर में गौहत्या और मवेशियों के अवैध व्यापार को रोकने में अधिकारियों की कथित नाकामी के विरोध में संयुक्त रूप से एक रैली करेंगे.

हामीद अंसारी की परेशानी जोशी की जुबानी

 

नई दिल्ली. संघ और भाजपा से जुड़े रहे पूर्व प्रचारक संजय विनायक जोशी फिर से जोश में आ गए हैं. अचानक उन्होंने एक ब्लॉग लिखकर अपने तेवर दिखा दिए हैं. यूं तो उन्होंने पूर्व उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी पर निशाना साधा है लेकिन सीधे तौर पर उनके निशाने पर भारत ही नहीं दुनियां भर के मुसलमान और इस्लाम तो है ही, उनकी तरफदारी करने वाले लोग भी हैं. इस ब्लॉग को उनकी फौरी प्रतिक्रिया के तौर पर देखा जाए या भविष्य का कोई संकेत, ये तो आने वाले वक्त में ही पता चलेगा, लेकिन उनके तेवर काफी सख्त हैं.

जोशी बिना लाग लपेट के सीधे हामिद अंसारी पर सवाल उठाते हुए लिखते हैं कि, ‘हाल ही में पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने कहा था कि देश के मुस्लिमों में बेचैनी का अहसास और असुरक्षा की भावना है. अभी-अभी आ रही एक बेहद सनसनीखेज खबर से साबित हो गया है कि आखिर हामिद अंसारी जैसे लोगों में असुरक्षा की भावना क्यों पनप रही है. खबर है कि उत्तराखंड में मदरसों में पढ़ने वाले करीब 2 लाख मुस्लिम बच्चे रातों-रात गायब हो गए हैं’. दरअसल उन्होंने व्यंग्यात्मक लहजे में आधार लिकिंग के बाद उत्तराखंड में वजीफों में आई कमी को हामिद अंसारी के बयान से जोड़ दिया है.

वो आगे लिखते हैं, ‘ये तो अकेले उत्तराखंड का मामला है, अब आप खुद ही समझ सकते हैं कि जब सीएम योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश में मदरसों को अपना रजिस्ट्रेशन करवाने को कहा तो क्यों इतना हंगामा खड़ा कर दिया गया. इस बात से साबित हो गया है कि बीजेपी की सरकार आने के बाद से मुस्लिम खुद को क्यों असुरक्षित महसूस कर रहे हैं’. वजीफे के मुद्दे पर ही नहीं वो मदरसों को और भी बातों के लिए निशाने पर लेते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में तो और भी काफी कुछ चल रहा है. सरकारी पैसों की लूट वहां भी ऐसे ही की जा रही है, साथ ही खुफिया एजेंसियों ने ये भी अलर्ट दिया है कि कई मदरसों में बच्चों को कट्टरपंथी शिक्षा भी दी जा रही है. इस तरह की गड़बड़ियों को देखते हुए सीएम योगी ने सभी मदरसों का रजिस्ट्रेशन जरूरी कर दिया है. राज्य में कई मदरसे बिना रजिस्ट्रेशन के चल रहे हैं, उन्हें फंड कहाँ से आता है, इसकी किसी को कोई जानकारी तक नहीं है.इन मदरसों में क्या पढ़ाया जा रहा है, इस पर भी सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होता. जबकि ऐसे छात्रों को लगातार अल्पसंख्यक कल्याण योजनाओं के तहत तमाम फायदे मिलते रहते हैं.’.

हामिद अंसारी पर निशाना साधते हुए संजय जोशी लिखते हैं, ‘उत्तर प्रदेश सरकार राज्य में चल रहे लगभग 800 मदरसों पर प्रतिवर्ष 4000करोड़ रुपये खर्च करती है. मगर हैरत की बात है कि इसका एक बड़ा हिस्सा छात्रों तक पहुंचने की जगह उन लोगों की जेब में जा रहा है, जिन्हें लेकर हामिद अंसारी जैसे लोग परेशान हो रहे हैं’. मदरसों के बाद वो अपने ब्लॉग में इंटरनेशनल लेवल पर हो रही घटनाओं को इस्लाम से जोड़ देते हैं, ‘वैसे देखा जाय तो पाकिस्तान में मुसलमानों को कौन मार रहा है ? अफगानिस्तान में मुसलमानों को कौन मार रहा है? सीरिया में मुसलमानों की हत्या कौन कर रहा है? यमन में मुसलमानों को कौन मार रहा है? इराक में मुसलमानों को कौन मार रहा है? लीबिया में मुसलमानों की हत्या कौन कर रहा है? कौन है जो मिस्र में मुसलमानों को मार रहा है? जो सोमालिया में मुसलमानों को मार रहा है? बलूचिस्तान में भी मुसलमानों को मार रहा है? अब मैं सोच रहा हूँ जब ये सभी देश इस्लामिक हैं… तब शान्ति कहाँ है? मैं इस्लाम पर सवाल नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि सभी लोग जानते हैं की इस्लाम एक शांतिपूर्ण धर्म है… लेकिन शांति रहस्यमय रूप से से गायब है….!! अफगानिस्तान, इराक, सीरिया, लेबनान, यमन और मिस्र को किसने बर्बाद किया है ? या वहां दंगा करने के लिए कौन जिम्मेदार हैं ?’.

लग रहा है कि संजय जोशी इस्लाम से जुड़े एक एक पहलू पर लिखने के मूड में थे, वो देश की बात भी करते हैं और उसके ‘गद्दारों’ की भी, ‘अजीब विडम्बना है , कुछ गद्दारों के लियें यहाँ इशरत बेटी है, कन्हैया बेटा है, दाऊद भाई है, अफजल गुरू है, लेकिन भारत माता नहीं !आखिर…ऐसा क्यों है……..’.

वो आगे लिखते हैं, ‘अब थोड़ा और ध्यान दीजिए…मुस्लिम + हिन्दू = समस्या, मुस्लिम + बौद्ध =समस्या, मुस्लिम + ईसाई = समस्या, मुस्लिम + सिख = समस्या, मुस्लिम + नास्तिक = समस्या, मुस्लिम + मुस्लिम =बहुत बड़ी समस्या! उदाहरण देखिए, हां-जहां मुस्लिम बहुसंख्यक है, वहाँ वे सुखी नहीं रहते हैं और न दूसरे को रहने देते हैं!

देखिए …मुस्लिम सुखी नहीं, गाजा में मुस्लिम सुखी नहीं ,म्हलचज में मुस्लिम सुखी नहीं, लीबिया में मुस्लिम सुखी नहीं ,मोरोक्को में मुस्लिम सुखी नहीं, ईरान में मुस्लिम सुखी नहीं, ईराक में मुस्लिम सूखी नहीं, यमन में मुस्लिम सुखी नहीं, अफगानिस्तान में मुस्लिम सुखी नहीं, किस्तान में मुस्लिम सुखी नहीं ,सीरिया में मुस्लिम सुखी नहीं ,लेबनान में मुस्लिम सुखी नहीं ,नाइजीरिया में मुस्लिम सुखी नहीं ,केन्या में मुस्लिम सुखी नहीं सूडान में ,अब गौर कीजिए ………! मुस्लिम सुखी वहां हैं, जहाँ कम संख्या में है…? मुस्लिम सुखी है आस्ट्रेलिया में, मुस्लिम सुखी है इंग्लैंड में, मुस्लिम सुखी है बेल्जियम में, मुस्लिम सुखी है फ्रांस में, मुस्लिम सुखी है इटली में, मुस्लिम सुखी है जर्मनी में, मुस्लिम सुखी है स्वीडन में, मुस्लिम सुखी है कनाडा में, मुस्लिम सुखी है भारत में, मुस्लिम सुखी है नार्वे में, मुस्लिम सुखी है नेपाल में, क्योंकि यहां जेहाद के नाम पर सब कुछ संभव हैं.

आखिरी लाइन वो उस विषय पर लिखते हैं जोकि उनके ब्लॉग का टाइटल है, ‘आतंकवादी का मजहब क्या होता है?’. वो लिखते हैं, ‘मुसलमान हर उस देश में सुखी है ! जो इस्लामिक देश नही है ……..और देखिये कि वो उन्हीं देशो को दोषी ठहराते है जो इस्लामिक नहीं हैं….! या जहां मुस्लिमो की लीडरशिप नही है…..! मुस्लिम हमेशा उन देशो को ब्लेम करते है जहां वे सुखी हैं…….! और मुस्लिम उन देशों को बदलना चाहते हैं….. जहां वे सुखी हैं ! और बदल कर वे उन देशों की तरह कर देना चाहते हैं! जहां वे सुखी नही हैं……..!और अंत तक वो इसके लिए लड़ाई करते हैं….! और इसको ही बोलते हैं..आदि और भी हैं ऐसे ही इस्लामिक जेहादी आतंकवादी संगठन! अब इतना तो आप सभी, जरूर समझ गए होंगे कि……आतंकवादी का मजहब क्या होता है…..?’

संजय जोशी अपने आप को बीजेपी का सदस्य कहते हैं, ये अलग बात है कि बीजेपी उन्हें आधिकारिक रूप से कही नहीं बुलाती. अब ऐसे में उनका ये ‘मुस्लिम विरोधी’ ब्लॉग विवादों में आता है, या उन्हीं की तरह गुमनामी में जाएगा, वक्त ही बताएगा.

लोकतन्त्र का मज़ाक बनाने वाले कुमारस्वामी को गठबंधन जहर लगने लगा


कुमारस्वामी ने कहा, आप सभी यहां मेरे लिए खड़े हैं, आप सभी खुश हैं कि आपका एक भाई राज्य का मुख्यमंत्री बन गया है लेकिन मैं इससे बिल्कुल भी खुश नहीं हूं. गठबंधन वाली सरकार का दर्द पता है


कर्नाटक के मुख्यमंत्री और जेडीएस नेता एचडी कुमारस्वामी बेंगलुरु में एक सभा के दौरान मंच पर सबके सामेने रो पड़े. उनकी बातों में गठबंधन सरकार का दर्द साफ झलका.

गठबंधन सरकार चलाने का दबाव बयां करते हुए सीएम कुमारस्वामी ने कहा, ‘आप सभी यहां मेरे लिए खड़े हैं, आप सभी खुश हैं कि आपका एक भाई राज्य का मुख्यमंत्री बन गया है लेकिन मैं इससे बिल्कुल भी खुश नहीं हूं. गठबंधन वाली सरकार का दर्द पता है. मैं विश्वकांत बन गया हूं और इस सरकार के दर्द को भी निगल लिया है.’

इसके साथ ही उन्होंने कहा कि मैं चाहूं तो अभी इसी वक्त इस्तीफा दे सकता हूं.

उधर, प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री जी. परमेश्वर ने कुमारस्वामी के इस बयान पर काफी सधी टिपप्णी की और कहा, ‘वे (कुमारस्वामी) ऐसा कैसे कह सकते हैं? उन्हें जरूर खुश होना चाहिए, किसी भी मुख्यमंत्री को खुश होना चाहिए क्योंकि इसी में हमारी भी खुशी है.’

इस वीडियो में कोडागू के एक लड़के को यह कहते सुना जा रहा है कि इस जिले में भारी बारिश के बाद सड़कें बह गई हैं लेकिन मुख्यमंत्री को इसकी फिक्र नहीं है. जिले के तटीय इलाकों में मछुआरे भी मुख्यमंत्री से नाराज हैं क्योंकि उनका कर्ज माफ नहीं हुआ है.

कुमारस्वामी ने अपने भाषण में कहा, कर्ज माफ कराने के लिए पिछले एक महीने से मैं अधिकारियों को किस कदर मना रहा हूं, इस बारे में कोई नहीं जानता. अब वे चाहते हैं कि अन्ना भाग्य स्कीम के तहत 5 किलो चावल के बदले 7 किलो चावल बांटे जाएं. अब आप ही बताएं कि इसके लिए मैं 2500 करोड़ रुपए कहां से लाऊं? टैक्स लगाने को लेकर भी मेरी आलोचना हो रही है. इन सबके बावजूद मीडिया कह रहा है कि मेरी कर्ज माफी योजना में कोई साफगोई नहीं है. अगर मैं चाहूं तो मात्र दो घंटे में मुख्यमंत्री पद छोड़ सकता हूं.

मुख्यमंत्री कुमारस्वामी ने आगे कहा, चुनाव से पहले मैं जहां-जहां गया, वहां लोग तो काफी जुटे लेकिन वोट मुझे नहीं दिया. मुझे तो भगवान ने सीएम बनाया है, इसलिए वे ही तय करेंगे कि मुझे कितने दिन इस कुर्सी पर रहना है.

“मैं चीजों को तत्काल बदलने के लिए जादू नहीं कर सकता हूं” कुमारस्वामी


बीजेपी की ओर से गठबंधन को ‘नापाक’ और लोगों के साथ धोखा बताने पर उन्होंने कहा कि उनको डर है कि चुनाव फिर हो सकते हैं जो निराधार है

कुमार स्वामी ने मनोहन सिंह के ब्यान की याद ताज़ा कार्वा दी जहां उन्होने जादू की छड़ी का उल्लेख करते हुए अपनी असमर्थता जताई थी.


कर्नाटक के मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी ने सोमवार को कहा कि उन्हें राज्य के विभिन्न मुद्दों का निपटारा करने के लिए समय चाहिए. उन्होंने कहा, ‘अजीब परिस्थितियों में इस सरकार का गठन हुआ है. मुझे वक्त चाहिए. मैं चीजों को तत्काल बदलने के लिए जादू नहीं कर सकता हूं.’

उन्होंने राज्यपाल के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान विधायकों द्वारा उठाए गए सिंचाई परियोजना से लेकर अवैध बालू खनन और अन्य मुद्दों का हवाला दिया. चर्चा के दौरान कुमारस्वामी और विपक्ष के नेता बीएस येदियुरप्पा के बीच जबर्दस्त तकरार हुई. येदियुरप्पा ने सरकार बनाने के लिए कांग्रेस-जेडी (एस) गठबंधन की आलोचना की.

कुमारस्वामी ने कहा कि सरकार ने इंसानियत के साथ समाज के हर तबके की मदद के लिए काम करना शुरू कर दिया है. बीजेपी की ओर से गठबंधन को ‘नापाक’ और लोगों के साथ धोखा बताने पर उन्होंने कहा कि उनको डर है कि चुनाव फिर हो सकते हैं जो निराधार है. उन्होंने कहा, ‘गठबंधन सरकार बनी रहेगी और प्रभावी तरीके से सरकार के लिए काम करेगी.’

कुमारस्वामी ने कहा कि उनकी गठबंधन की सरकार के पास बहुमत है और ना कि सिर्फ 37 जेडी (एस) विधायक हैं. उन्होंने कहा कि 2006 में जब जेडी (एस)-बीजेपी की सरकार थी, सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद बीजेपी ने मुख्यमंत्री बनने के लिए उन्हें समर्थन दिया था. क्या तब लोकतंत्र की हत्या नहीं हुई थी?

कुमारस्वामी ने कहा, ‘कोई भी यह दावा नहीं कर सकता था कि मैं मुख्यमंत्री बन सकता हूं. यहां तक कि मैं भी नहीं. क्योंकि स्थिति इस तरह की थी, लेकिन फैसले लिए गए और मैंने प्रभार संभाला. इसलिए मैं खुद को परिस्थितियों की पैदाइश कहता हूं.’

आपातकाल, सिख दंगों और मुस्लिम तुष्टीकरण को भुला दें तो सिर्फ पिछले 4 साल से ही लोकतन्त्र खतरे में है


खड़गे ने कहा है कि ‘एक चायवाला इसलिये देश का प्रधानमंत्री बन सका क्योंकि कांग्रेस ने लोकतंत्र को बचाए रखा’. वाकई खड़गे का ये खुलासा इस देश की स्वस्थ राजनीति और मजबूत लोकतंत्र का प्रतीक है.


मल्लिकार्जुन खड़गे लोकसभा में कांग्रेस की तरफ से नेता प्रतिपक्ष हैं. वो अपने बयानों और भाषणों से देश की सियासत में बड़ी अहमियत रखते हैं. हाल ही में उन्होंने बड़ा खुलासा किया है. उन्होंने साल 2014 का चुनाव जीतकर नरेंद्र मोदी के पीएम बनने पर बड़ा खुलासा किया है. खड़गे ने कहा है कि ‘एक चायवाला इसलिये देश का प्रधानमंत्री बन सका क्योंकि कांग्रेस ने लोकतंत्र को बचाए रखा’. वाकई खड़गे का ये खुलासा इस देश की स्वस्थ राजनीति और मजबूत लोकतंत्र का प्रतीक है.

खड़गे ने जिस लोकतंत्र की दुहाई देते हुए एक चायवाले को देश का पीएम बनने का मौका दिया वो काबिल-ए-तारीफ है. लोकतंत्र को ही बचाने के लिये कांग्रेस ने यूपीए सरकार के वक्त अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह को भी मौका दिया था तो साल 2014 में ये मौका मोदी को मिला. खड़गे के बयान के बाद लोकतंत्र को बचाने के लिये कांग्रेस के योगदान को कम नहीं आंका जा सकता है. इसी लोकतंत्र को बचाने के लिये ही कांग्रेस सिमटते-सिमटते 44 सीटों पर आ गई. इसके बावजूद ये पूछा जाता है कि कांग्रेस ने पिछले 70 साल में देश के लिये क्या किया?

खड़गे जिस लोकतंत्र को बचाने के लिये कांग्रेस की पीठ थपथपा रहे हैं तो उसी पार्टी के सिपाही मणिशंकर अय्यर ने ही सबसे पहली आहुति भी दी थी. कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर की पहल को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है. कांग्रेस के सम्मेलन के वक्त ही मणिशंकर अय्यर ने सबसे पहले कहा था कि, ‘मोदी जी अगर चाय बेचना चाहें तो वो यहां आकर चाय बेच सकते हैं लेकिन एक चायवाला देश का पीएम नहीं बन सकता’.

मणिशंकर अय्यर की ही भावुक अपील ने देश की सियासत का नक्शा ऐसा बदला कि देश के कई राज्यों में कांग्रेस को ढूंढना पड़ गया. अय्यर ने ही नब्ज़ को टटोलते हुए जनता के भीतर एक चायवाले को लेकर सहानुभूति भरने का सबसे पहले काम किया. लोकसभा चुनाव के बाद अय्यर ने गुजरात विधानसभा चुनाव के वक्त भी लोकतंत्र को बचाने के लिये नया बयान दिया. बाद में उसी लोकतंत्र को ही बचाने के लिये कांग्रेस को अपने मजबूत सिपाही की राजनीतिक कुर्बानी भी देनी पड़ी. मणिशंकर अय्यर फिलहाल पार्टी से निलंबित चल रहे हैं. लेकिन लोकसभा और गुजरात विधानसभा चुनाव के वक्त उनका योगदान कांग्रेस कभी भूल नहीं सकेगी.

खड़गे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं. उन्होंने दो लोकतंत्र एक साथ देखे हैं. एक कांग्रेस का आंतरिक लोकतंत्र तो दूसरा देश के संविधान से सजा हुआ लोकतंत्र. आंतरिक लोकतंत्र के वो एक बड़े गवाह हैं. कर्नाटक में अच्छी पकड़ रखने वाले खड़गे के कर्नाटक का सीएम बनने की पूरी संभावना थी. विधानसभा चुनाव के नतीजों में उनकी धाक जमी थी. लेकिन खड़गे को सीएम बनने का मौका नहीं मिल सका. उनकी जगह सिद्धारमैया को सीएम बना दिया.

शायद यहां भी कांग्रेस ने लोकतंत्र को ही बचाने के लिये खड़गे से राजनीतिक त्याग मांगा. हालांकि बीजेपी कांग्रेस पर ये आरोप लगाती है कि कांग्रेस ने खड़गे के साथ इंसाफ नहीं किया और राहुल के करीबी माने जाने वाले सिद्धारमैया को कर्नाटक की कमान सौंपी. जबकि देखा जाए तो कांग्रेस ने खड़गे को कर्नाटक का सीएम न बना कर उनका कद ही बढ़ाया है. लोकसभा में खड़गे कांग्रेस के लिये सबसे बड़ी तोप भी हैं तो सबसे मजबूत ढाल भी. पीएम मोदी और बीजेपी के हमलों को वो ही सदन में बैठकर झेलते भी हैं और आरोपों का जवाब भी देते हैं. उनकी हिंदी पर पकड़ और हिंदी में धारा-प्रवाह भाषण की कला हिंदी पट्टी के नेताओं को शर्मिंदा कर जाती है.

लोकतंत्र को बचाने के लिये ही कांग्रेस ने मल्लिकार्जुन खड़गे को संसद के लिये स्थायी तौर पर अपना सेनापति बनाया है ताकि कर्नाटक का मोह कहीं आड़े नहीं आए. लोकतंत्र बचाने के लिये ही इस बार कर्नाटक विधानसभा चुनाव में बहुमत न मिलने के बावजूद कांग्रेस ने जेडीएस को समर्थन दे कर सरकार बनवाई है. हालांकि जम्मू-कश्मीर में बीजेपी के पीडीपी से समर्थन वापस लेने के बाद कांग्रेस को लोकतंत्र खतरे में नहीं दिखा तभी उसने पीडीपी को सरकार बनाने के लिये समर्थन देने का कोई प्रस्ताव नहीं दिया.

कांग्रेस लगातार बीजेपी पर मार्गदर्शक नेताओं की अनदेखी और अवहेलना के आरोप लगाती है. कांग्रेस कहती है कि बीजेपी के भीतर आवाज दबा दी जाती है. जबकि इसके ठीक उलट कांग्रेस के आंतरिक लोकतंत्र की तस्वीर आईने की तरह साफ है. यहां विरोध की कोई आवाज ही नहीं पनपती तो उसे दबाने का आरोप भी कोई नहीं लगा सकता.

कांग्रेस के आंतरिक लोकतंत्र का ही ये नायाब मॉडल है कि यहां एक सुर में उपाध्यक्ष रहे राहुल गांधी की अध्यक्ष पद पर ताजपोशी को कोई और आवाज चुनौती नहीं दे सकी. ये न सिर्फ पार्टी का मजबूत आंतरिक लोकतंत्र है बल्कि अनुशासन भी! निष्ठा के साथ अनुशासन के कॉकटेल से कांग्रेस के लोकतंत्र को मजबूत होने में कई दशकों का समय लगा है.

यूपीए सरकार में जब डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया गया तो वो भी लोकतंत्र बचाने के लिये ही भावनात्मक और व्यावहारिक फैसला लिया गया था. मनमोहन सिंह राज्यसभा के नामित सदस्य थे. कभी चुनाव लड़ा नहीं था क्योंकि कभी सोचा भी नहीं था कि पीएम बनने का ऑफर इस तरह से आएगा. उस वक्त कांग्रेस के तमाम दिग्गज और पुराने चेहरों की निष्ठा और सियासी अनुभव पर मनमोहन सिंह का मौन आवरण भारी पड़ा था और वो सर्वसम्मति से पीएम बने थे. उस दौर में प्रणब मुखर्जी जैसे बड़े नाम भी लोकतंत्र को बचाने की रेस में दूर दूर तक नहीं थे. मनमोहन सिंह के नाम पर पीएम पद के प्रस्ताव को सर्वसम्मति, ध्वनिमत, पूर्ण बहुमत के साथ देश हित और लोकतंत्र बचाने के लिये अनुमोदित किया गया.

जब कभी पार्टी या देश का लोकतंत्र कांग्रेस ने खतरे में देखा तो उसने बड़े फैसले लेने में देर नहीं की. कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सीताराम केसरी के हाथों में जब कांग्रेस और देश एकसाथ कमजोर दिखे और लोकतंत्र खतरे में महसूस हुआ तो कांग्रेस ने उन्हें ‘उठाकर’ हटाने का फैसला ‘भारी मन’ से लेने में देर नहीं की. यहां तक कि देश को आर्थिक उदारवाद के रूप में प्रगति की नई राह दिखाने वाले पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की आवाज भी ‘सम्मोहित’ नहीं कर सकी.

आज कांग्रेस की ही तरह देश के तमाम दिग्गज नेता अपनी अपनी क्षेत्रीय पार्टियों के साथ लोकतंत्र बचाने में जुटे हुए हैं. लोकतंत्र को लेकर उनकी निष्ठा ही कांग्रेस के साथ महागठबंधन के आड़े आ रही है.

एनसीपी चीफ शरद पवार महागठबंधन की संभावनाओं को खारिज करते सुने जा सकते हैं तो टीएमसी सुप्रीमो ममता बनर्जी और टीआरएस नेता केसी राव लोकतंत्र बचाने के लिये तीसरे मोर्चे की तैयारी करते दिख रहे हैं.

बहरहाल खड़गे ने भी पीएम मोदी को ‘चायवाला’ कह कर देश की सियासत में चाय का उबाल ला दिया है. खड़गे से पूछा जा सकता है कि क्या वो देश के लोकतंत्र को बचाने के लिये साल 2019 में भी चायवाले को देश का पीएम बनने देंगे?

अगर एक बार कांग्रेस ‘देशहित’ में इतना बड़ा फैसला ले सकती है तो दूसरी बार भी लोकतंत्र की खातिर कांग्रेस को पीएम मोदी को दूसरा मौका देना चाहिये.

कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने ये आरोप भी लगाया कि पिछले चार साल से देश में अघोषित आपातकाल है. खड़गे जी ने 1975 की घोषित इमरजेंसी भी देखी है. उनसे पूछा जाना चाहिये कि क्या अघोषित इमरजेंसी में जितनी बेबाकी से वो और तमाम सियासी-गैर सियासी लोग अपनी बात, अपना विरोध और मोदी हमला जारी रखे हुए हैं क्या वो 1975 की इमरजेंसी में संभव होता?

बहरहाल लोकतंत्र को बचाने के लिये कांग्रेस के भीतर एक आवाज प्रियंका गांधी को भी लाने की काफी समय से गूंज रही है. लेकिन कांग्रेस फिलहाल इस आवाज को अनसुना कर रही है. लोकतंत्र को बचाने के लिये कांग्रेस को अपने सारे ऑप्शन्स भी खुले रखने चाहिये.

सिद्धों की वाणी, 5 साल पूरे करेगी कुमारस्वामी की सरकार


कर्नाटक के लोग इन दिनों कुमारस्वामी के पांच साल पूरे करने और येदियुरप्पा के दोबारा सरकार बनाने को लेकर राज्य के प्राचीन वीरशैव मठ के संत और एक आदिवासी जनजाति के बीच वाकयुद्ध देख रहे हैं


कर्नाटक में पिछले कुछ सालों में राजनीति में धार्मिक नेताओं का बोलबाला बढ़ता गया है. यहां धार्मिक और आध्यात्मिक गुरु राजनीति में गहरी रुचि लेते दिखते हैं और अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए राजनेता उनकी सलाह लेते हैं. राज्य में आजकल कोई दिन ऐसा नहीं बीतता, जब कोई धार्मिक नेता या भविष्यवक्ता बयान न दे.

कर्नाटक के लोग इन दिनों कुमारस्वामी के पांच साल पूरे करने और येदियुरप्पा के दोबारा सरकार बनाने को लेकर राज्य के प्राचीन वीरशैव मठ के संत और एक आदिवासी जनजाति के बीच वाकयुद्ध देख रहे हैं.

चिकमंगलुर के पास बालेहोन्नुर के संत रामभपूरी ने हाल ही में दावा किया था कि येदियुरप्पा फिर एक बार राज्य के मुख्यमंत्री बनेंगे, जिसके बाद राज्य में नया विवाद शुरू हो गया. उन्होंने राज्य में चल रही कांग्रेस-जेडीएस की गठबंधन सरकार के जल्द गिरने का संकेत दिया था.

वहीं तंत्र-मंत्र और जादू-टोने की प्रैक्टिस करने वाले आदिवासी जनजाति ‘सुदुगादू सिध्दारू’ ने वीरशैव मठ के संत पर हमला बोलते हुए कहा कि कुमारस्वामी राज्य में पांच साल पूरे करेंगे और दुनिया की कोई भी शक्ति उन्हें नहीं हटा सकती है.

‘सुदुगादू सिध्दारू’ ने विधानसभा चुनाव से तीन महीने पहले ही कहा था कि कुमारस्वामी राज्य के मुख्यमंत्री बनेंगे और उनकी यह भविष्यवाणई सच भी हो गई. उन्होंने कहा था कि अगर उनकी भविष्यवाणी सच नहीं हुई तो पूरी जनजाति इस पेशे से निकल जाएगी.

हालांकि वीरशैव मठ के संत के इस नए बयान ने एक बार फिर इस जनजाति को परेशान कर दिया. इसलिए जनजाति की तरफ से फिर कहा गया कि अगर वे गलत साबित होते हैं तो पेशा छोड़ देंगे.

बता दें कि रामभपुरी ने चुनाव के दौरान बीजेपी का खुलेआम समर्थन किया था, लेकिन वह येदियुरप्पा के मात्र 56 घंटे में सत्ता खोने से परेशान हैं.

गौरतलब है कि ‘सुदुगादू सिध्दारू’ श्मशान घाट में रहते हैं. हाल के वर्षों में राज्य सरकार ने उन्हें विशेष कॉलोनियों में बसाया है. यह जनजाति एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमकर भविष्यवाणी करती है. हाल की जनगणना में राज्य में उनकी संख्या 9 हजार थी.

एक राष्ट्र एक चुनाव मे दुविधा में कांग्रेस्स


क्षेत्रीय पार्टियों ने आशंका जताई है कि एक साथ चुनाव कराने पर राष्ट्रीय पार्टियां और राष्ट्रीय मुद्दे चुनावी माहौल में ज्यादा हावी हो जाएंगे और इसका नुकसान छोटी पार्टियों को उठाना पड़ेगा


देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने को लेकर गंभीर विचार-विमर्श जारी है. कई पार्टियों ने इसके समर्थन में हामी भरी है तो कांग्रेस और लेफ्ट जैसी पार्टियों ने इसमें दिलचस्पी नहीं दिखाई है.

तेलंगाना के मुख्यमंत्री और तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) अध्यक्ष के. चंद्रशेखर राव ने एकसाथ चुनाव कराए जाने का समर्थन किया है और इस बाबत विधि आयोग को पत्र भी लिखा है.

समाजवादी पार्टी के नेता राम गोपाल यादव ने भी अपना समर्थन जाहिर करते हुए कहा कि उनकी पार्टी एक देश-एक चुनाव के पक्ष में है लेकिन यह 2019 से शुरू होना चाहिए. यादव ने मांग की कि कोई जनप्रतिनिधि अगर पार्टी बदलता है या खरीद-फरोख्त में लिप्त पाया जाता है तो उसके खिलाफ एक हफ्ते में कार्रवाई का प्रावधान होना चाहिए.

तृणमूल कांग्रेस, सीपीआई ओर डीएमके ने पुरजोर विरोध जताया है

इस बीच, क्षेत्रीय पार्टियों ने आशंका जताई है कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने पर राष्ट्रीय पार्टियां और राष्ट्रीय मुद्दे चुनावी माहौल में ज्यादा हावी हो जाएंगे और इसका नुकसान छोटी पार्टियों को उठाना पड़ेगा. तृणमूल कांग्रेस और सीपीआई ने विधि आयोग की बैठक में हिस्सा तो लिया लेकिन दोनों पार्टियों ने एक साथ चुनाव कराने के विचार का जोरदार विरोध किया. दक्षिण की पार्टी डीएमके के कार्यकारी अध्यक्ष एमके स्टालिन भी इसके विरोध में हैं. उनके मुताबिक एकसाथ चुनाव कराया जाना संविधान के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है.

उधर, एनडीए की सहयोगी पार्टी शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) ने एक साथ चुनाव कराने का समर्थन करते हुए कहा कि इससे पार्टियों के खर्च में कमी आएगी और विकास कार्यों को रोकने वाली आदर्श आचार संहिता की अवधि कम होगी. एसएडी का प्रतिनिधित्व पार्टी के राज्यसभा सदस्य नरेश गुजराल ने किया. उन्होंने लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ कराने के लिए किसी विधानसभा का कार्यकाल बढ़ाए जाने की स्थिति में राज्यसभा चुनावों पर पड़ने वाले प्रभाव का मुद्दा उठाया.

बीजेपी नेता सुब्रह्मणियम स्वामी ने एक साथ चुनाव कराए जाने के प्रस्ताव का समर्थन किया है और कहा है कि यह विपक्षी पार्टियों के ऊपर है कि वे इसका समर्थन करते हैं विरोध.स्वामी ने कहा, यह कांग्रेस और सीपीएम पर निर्भर करता है कि वे इसका समर्थन करते हैं या नहीं. उन्होंने कहा, बार-बार चुनावों पर इतना ज्यादा पैसा खर्च करने का क्या मतलब.

टीएमसी और सीपीआई ने इस प्रस्ताव को ‘अव्यावहारिक और अलोकतांत्रिक’ बताया है

तमिलनाडु में सत्ताधारी एआईएडीएमके ने कहा कि यदि जरूरी ही है तो एक साथ चुनाव 2024 में कराए जाएं और उससे पहले कतई नहीं. सूत्रों ने बताया कि पार्टी का यह भी मानना है कि तमिलनाडु विधानसभा को अपना कार्यकाल पूरा करने की इजाजत दी जानी चाहिए और लोकसभा चुनाव अपने कार्यक्रम के अनुसार कराए जाने चाहिए.

टीएमसी ने एक साथ चुनाव कराने के प्रस्ताव को ‘अव्यावहारिक और अलोकतांत्रिक’ बताया है. सीपीआई, एआईडीयूएफ और गोवा फॉरवर्ड पार्टी ने भी ऐसी ही राय जाहिर की है.

कांग्रेस ने कहा कि वह इस बाबत अपने कदम पर फैसला करने से पहले अन्य विपक्षी पार्टियों से विचार-विमर्श करेगी.

विधि आयोग का क्या है प्रस्ताव?

विधि आयोग के एक प्रस्ताव में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ कराने की सिफारिश की गई है लेकिन कहा गया है कि यह चुनाव दो चरणों में कराए जाएं और इसकी शुरुआत 2019 से हो. आयोग के दस्तावेज के मुताबिक, एक साथ चुनाव का दूसरा चरण 2024 में होना चाहिए. इस दस्तावेज में संविधान और जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन का प्रस्ताव किया गया है ताकि इस कदम को प्रभावी बनाने के लिए विधानसभाओं के कार्यकाल में विस्तार किया जाए या कमी की जाए.

पहले चरण में उन राज्यों को शामिल किया जाएगा जहां 2021 में विधानसभा चुनाव होने हैं. उत्तर प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, दिल्ली और पंजाब जैसे राज्य दूसरे चरण में शामिल होंगे. इन राज्यों में लोकसभा के साथ विधानसभा चुनाव कराने के लिए इनकी विधानसभाओं के कार्यकाल बढ़ाने होंगे.

Karnataka Budget: CM Kumaraswamy announces farm loan waiver; petrol, electricity to get dearer


Unveiling the budget proposals in the Assembly, Kumaraswamy, who also holds the finance portfolio, said he has limited the loan amount to Rs 2 lakh, as it was “not right” to waiver higher value crop loan.


 

In a big relief to the farm sector, Karnataka Chief Minister H D Kumaraswamy today announced a mega Rs 34,000 crore farm loan waiver scheme in the maiden budget of the Congress-JDS coalition government.

Unveiling the budget proposals in the Assembly, Kumaraswamy, who also holds the finance portfolio, said he has limited the loan amount to Rs 2 lakh, as it was “not right” to waiver higher value crop loan.

“Due to this crop loan waiver scheme, farmers will get the benefit of Rs 34,000 crore,” Kumaraswamy said, seeking to fulfil a major electoral promise made by the JDS in its manifesto for the recently held assembly polls in the state.

With the waiver scheme imposing a huge burden on the exchequer, he also announced proposals to mop up additional resources, including increase in the rate of tax on petrol by Rs 1.14 per litre and diesel by Rs 1.12 per litre.

He also proposed a hike in the additional excise duty on Indian-made liquor by 4 per cent across the board on all 18 slabs.

Kumaraswamy recalled his assurance to waive all types of crop loans of farmers taken for agricultural activities within 24 hours of formation of a full-fledged government.

“However, even though the people of the state have not blessed a single party government, I have been provided with a good opportunity to form a coalition government and to work as chief minister of that coalition,” he said.

Kumaraswamy said he had decided to waive all defaulted crop loans of the farmers made up to December 31, 2017 in the first stage.

Besides this, it has been decided to credit the repaid loan amount or Rs 25,000, whichever is less, to each of the farmers account, to help farmers who had repaid the loan within time, the chief minister said.

The families of the government officials and officials of the cooperative sector, farmers who have paid income-tax for the past three years and other ineligible farm loan recipients will be outside the purview of the loan waiver scheme.