नितीश अगला कदम क्या लेंगे? बहुत असमंजस ;


इसमें कोई दो राय नहीं कि इस समय नीतीश बिहार की राजनीति में सबसे स्वीकार्य नेता हैं इसके बावजूद अपने सहयोगी दल के रवैए से वो असहज महसूस कर रहे हैं


बात उस समय की है जब नीतीश कुमार दसवीं की परीक्षा दे रहे थे और मैथ्स (गणित) का पेपर चल रहा था. तय समय पूरा हो जाने के कारण परीक्षक ने उनकी कापी छीन ली ओर उस गणित के पेपर मे नितीश कुमार 100 मे 98 अंक ही पा सके। उन्हें इस बात का हमेशा मलाल रहा कि वो 100 अंक हासिल नहीं कर सके.

राजनीति की दुनिया में नीतीश कुमार ने कई मौकों पर ऐसे फैसले लिए जो लोगों को चौंकाने वाले रहे, लेकिन शायद नीतीश को किसी फैसले का मलाल नहीं रहा. आज नीतीश कुमार फिर राजनीति के अपने पेपर में उस मुकाम पर खड़े हैं जिसका तय समय पूरा होना वाला है लेकिन समय के इस पड़ाव पर वो अपने खुद के परीक्षक हैं और कॉपी अपने पास रखनी है या किसी को देनी है, उन्हें खुद तय करना है.

यह समय बिहार की राजनीति, उनकी पार्टी और खुद नीतीश कुमार के लिए काफी निर्णायक होने वाला है. बिहार एनडीए में घमासान मचा हुआ है. लोकसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे को लेकर खींचतान और मोल भाव का दौर चालू है. बीजेपी के नेता तरह-तरह के बयान देकर उनपर दबाव बनाने का काम शुरू कर चुके हैं. राजनीतिक हलके में चर्चा हो रही है कि अगर बीजेपी से बात नहीं बनी तो वो फिर कुछ चौंकाने वाला निर्णय ले सकते हैं. नीतीश भी अपने अदांज में एक बार फिर दबाव की राजनीति कर कर रहे हैं.

उनकी पार्टी जेडीयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हो रही है. इस बैठक में नीतीश के अध्यक्षीय भाषण पर सबकी निगाहें हैं. इस भाषण से तय हो जाएगा कि बिहार में क्या होने वाला है. इस भाषण का इंतजार बीजेपी के साथ-साथ बिहार की पार्टियों को भी है. बिहार में आरजेडी अभी मजबूत स्थिति में है. नीतीश इस बात को बखूबी जानते हैं. आगे उनका निर्णय जो भी वो इस हकीकत को ध्यान में जरूर रखेंगे.

तमाम अटकलों और चर्चाओं के बीच सबसे बड़ी बात यह है कि नीतीश आज भी बिहार की राजनीति के सबसे बड़े खिलाड़ी और चेहरा हैं. इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता. उनका कद आज भी राज्य के तमाम नेताओं में सबसे बड़ा है. बदलते हुए हालात में अपनी प्रासंगिता को बनाए रखने के लिए नीतीश कुमार कड़े राजनीतिक फैसले लेने के लिए जाने जाते हैं.

शराबबंदी का साहसिक फैसला

नीतीश कुमार ने जब 2015 बिहार विधानसभा चुनाव से पहले महिलाओं के एक समूह को संबोधित करते हुए कहा था कि अगर इस बार हमारी सरकार बनी तो राज्य में पूर्ण शराबबंदी लागू करूंगा. उस समय नीतीश बीजेपी का दामन छोड़ आरजेडी के साथ हो लिए थे. लेकिन इस फैसले पर उन्हें अपने सहयोगी आरजेडी का साथ नहीं मिला. नीतीश कुमार चुनाव जीत कर आए और उन्होंने अपने वादे को पूरा किया और राज्य में पूर्ण शराबबंदी लागू हो गई.

नीतीश के इस फैसले पर बीजेपी ने भी खुली रजामंदी नहीं जताई थी. हालांकि नीतीश पर इसका कोई असर नहीं पड़ा. उन्होंने 10 करोड़ आबादी वाले राज्य में पूर्ण शराबबंदी कर ही दी. मीडिया में तमाम खबरें चलीं कि शराबबंदी से राज्य के राजस्व पर न जाने कितने करोड़ का असर पड़ेगा, लेकिन इसी मीडिया से किसी ने यह जानने की कोशिश क्यों नहीं की कि राज्य की एक बड़ी जनसंख्या पर इसका असर क्या हुआ और न जाने कितने घर टूटने से बच गए.

आरजेडी के साथ जाना और फिर साथ छोड़ देना

नीतीश कुमार ने जब बीजेपी से नाता तोड़ा था तब नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय फलक पर चमकने के लिए पूरी तरह तैयार हो चुके थे. ऐसा नहीं था कि नीतीश यह नहीं जानते थे कि जिस बीजेपी नेतृत्व (अटल-आडवाणी) में विश्वास जता कर उन्होंने इस पार्टी का दामन थामा था, अब वह वैसी नहीं रही. लेकिन राजनीतिक भविष्य का अंदाजा उन्हें लग गया था. उन्हें समझ आ गया था कि बिहार जैसे राज्य में खुद को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए बीजेपी का साथ छोड़ने का समय आ गया है.4

nitishshushil

जिस लालू का विरोध कर नीतीश ने सत्ता हासिल की थी उसी लालू से गले मिल चुनाव जीतना और फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अपना नाम लिखवाना. यह नीतीश के राजनीतिक जीवन का सबसे कठीन फैसला था. लालू के साथ गए भी तो वहां भी चेहरा खुद बने रहे. आरजेडी ने 2015 विधानसभा चुनाव में जेडीयू से ज्यादा सीटें हासिल की थी लेकिन लालू और उनकी पार्टी ने चेहरा के तौर पर नीतीश को ही चुना था.

महागठबंधन में आरजेडी और कांग्रेस नीतीश के मुख्य सहयोगी थे. सरकार बनी तो लालू के छोटे बेटे तेजस्वी यादव को उपमुख्यमंत्री का पद मिला. नीतीश की राजनीति और काम करने के तरीके को समझने वाले लोग कहने लगे थे कि यह साथ लंबा नहीं चलेगा, लेकिन नीतीश ने कभी भी ऐसा कुछ नहीं कहा. वो बीजेपी के सहयोगी से बीजेपी के कट्टर विरोधी बन गए. मौका मिलने पर संघ मुक्त भारत के निर्माण की कल्पना भी की.

सरकार बनने के बाद प्रशासनिक स्तर पर नीतीश का वो जोर नहीं दिखा जो बीजेपी के साथ सरकार में रहने पर 10 साल तक था. राज्य में अराजकता बढ़ने लगी. हत्या, अपहरण और अपराध का दौर फिर से अपने पुराने रूप में लौटने को तैयार दिखने लगा. यह सब तो ठीक था, लेकिन जिस प्रकार से लालू परिवार पर एक-एक कर भ्रष्टाचार के आरोप लगते गए और रोज नए-नए घोटालों में लालू परिवार के सदस्यों का नाम आने लगा, इससे नीतीश असहज हो गए.

हद तो तब हो गई तब बिहार के उपमुख्यमंत्री रहे तेजस्वी यादव का नाम भी ऐसे ही मामलों में आने लगा. नीतीश ने दूसरे तरफ से सफाई की उम्मीद की. उन्होंने सोचा की जनता के बीच जाकर बिहार के युवा नेता तेजस्वी सफाई देंगे, लेकिन लालू के नेतृत्व में ताकत का प्रदर्शन का खेल चलने लगा और सफाई तो दूर कोई बयान तक नहीं दिया गया.

नीतीश मजबूर हुए और राजनीति के शतरंज में बिना शह दिए सरकार के सबसे बड़े सहयोगी को मात दे दी और बीजेपी का दामन थाम लिया. नीतीश के इस फैसले की मीडिया में जमकर आलोचना हुई. मीडिया से लेकर विरोधी पार्टी के नेताओं ने उन्हें पलटूराम तक कह दिया. नीतीश को क्या लालू और उनके परिवार के भ्रष्टाचार को एंडोर्स करना चाहिए था, शायद इसका जवाब किसी के पास न हो. यह सिर्फ बातें नहीं हैं सीबीआई से लेकर ईडी तक मामला पहुंचा हुआ है. जब स्थिति ऐसी हो तो फैसले पर विचार हर कोई करता है. नीतीश ने भी वही किया.

बिहार में किसी भी पार्टी के पास नीतीश के कद का नेता नहीं

इतनी बातें कहने के बाद और राजनीतिक हालात पर चर्चा करने के पश्चात एक बात कहना बेहद जरूरी सा जान पड़ता है. फिलहाल नीतीश की सहयोगी वह पार्टी है जिसका दामन उन्होंने दो दशक से भी ज्यादा समय पहले थामा था. वह पार्टी कोई और नहीं बल्कि आज केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी ही है. बीजेपी को यह हर हाल में समझ लेना चाहिए कि नीतीश कुमार कोई जीतन राम मांझी, रमई राम, राम विलास पासवान और सुशील कुमार मोदी नहीं हैं.

Nitishkumartopitilak

अगर बीजेपी को यह लगता है कि नीतीश कुमार कमजोर हो गए हैं तो उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि कुछ समय पहले ही आरजेडी के साथ जाने के बाद और फिर आरजेडी का दामन छोड़ के बीजेपी में आने के बाद भी नीतीश ही बिहार के मुख्यमंत्री बने हुए हैं. अगर इन विपरित परिस्थितियों में एक सर्वमान्य नेता के तौर पर नीतीश कुमार किसी भी पार्टी में जाकर राज्य के मुखिया रह सकते हैं तो बीजेपी को अपनी सोच पर काम करना होगा और नीतीश के स्तर का नेता बिहार में तैयार करना होगा, जो एक दो साल में संभव नहीं है. वर्तमान में जिस तरह से बीजेपी की कार्यशैली चल रही है आने वाले कुछ सालों में भी यह पार्टी शायद ही इस कद का नेता दे पाए.

बीजेपी के चाणक्य भी जानते हैं नीतीश की स्थिति

बीजेपी के ‘चाणक्य’ अमित शाह को यह जरूर आभास होगा कि हालात 2014 जैसे नहीं हैं, ऐसे में नीतीश कुमार जैसे सर्वमान्य चेहरे को खोने की कीमत भी वो बखूबी लगा लिए होंगे. बिहार की सत्ता संभालने के बाद जो तमाम काम नीतीश कुमार ने किए उनमें से कई को केंद्र की सरकार ने भी आदर्श माना. विपरित परिस्थितियों और बदले हुए नेतृत्व को यह जरूर पता को होगा कि नीतीश की एक ‘सात निश्चय योजना’ बिहार की दशा बदल रही है.

तमाम कार्य और राज्य को उन्नति की दिशा में लगातार अग्रसर करने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की एक बात पर लोगों ने बहुत कम गौर किया और वो था/है की नीतीश ने कभी भ्रष्टाचार से समझौता और धर्म की राजनीति करने वालों से कभी कोई उम्मीद नहीं रखी और न ही ऐसे लोगों को कोई मौका दिया.

विधि आयोग कड़ी पाबंदी लगाने की बात कही है, न कि वैधता प्रदान करने की, न्यायमूर्ति चौहान


  • विधि आयोग के चेयरमैन ने ToI को बताया कि सट्टेबाजी एवं जुए को लेकर उसकी सिफारिश को सही से समझा नहीं गया.

  • जस्टिस बीएस चौहान के मुताबिक, लॉ पैनल ने इन दोनों पर कड़ी पाबंदी लगाने की बात कही है, न कि वैधता प्रदान करने की.

  • गुरुवार देर शाम खबर आई थी कि विधि आयोग ने देश में सट्टेबाजी एवं जुए को कानूनी दायरे में लाकर टैक्स लगाने की सिफारिश की है.


नई दिल्ली
विधि आयोग के चेयरमैन न्यायमूर्ति बी एस चौहान ने शुक्रवार को पत्रकारों से कहा कि सट्टेबाजी और जुए को लेकर समिति की रिपोर्ट को गलत समझा गया। उन्होंने कहा कि लॉ पैनल ने सट्टेबाजी और जुए को कानूनी मान्यता देने की जगह इन पर कठोर पाबंदी लगाने की बात कही है। जस्टिस चौहान ने कहा, ‘आयोग ने दृढ़ता से स्पष्ट सिफारिश की है कि मौजूदा परिदृश्य में भारत में सट्टेबाजी एवं जुए की छूट नहीं दी सकती और गैर-कानूनी सट्टेबाजी एवं जुए पर पूरी तरह हर हाल में पाबंदी सुनिश्चित की जानी चाहिए।’

लॉ कमिशन के चेयरमैन ने आगे कहा, ‘इतना ही नहीं, आयोग की सिफारिश है कि जुए पर नियंत्रण के लिए प्रभावी नियमन ही एकमात्र व्यावहारिक विकल्प है। अगर ऐसा संभव नहीं हो तो पूरी पाबंदी लगा दी जाए।’ लॉ पैनल की रिपोर्ट कहती है कि जुए के ऐसे नियमन के लिए तीन स्तरीय रणनीति की दरकार है। पहला- सट्टेबाजी के मौजूदा बाजार (लॉटरी, घुड़दौड़) में संशोधन, दूसरा- अवैध सट्टेबाजी को नियमों के दायरे में लाना एवं तीसरा- कठोर और महत्वपूर्ण कानून लागू करना।

जस्टिस चौहान ने कहा कि सरकार अगर सट्टेबाजी पर पूर्ण पाबंदी की जगह इसकी सशर्त वैधता प्रदान करना चाहती है तो जिसे सब्सिडी मिलती है या जो इनकम टैक्स ऐक्ट अथवा जीएसटी ऐक्ट के दायरे में नहीं आते, उन सभी को ऑनलाइन या ऑफलाइन, किसी तरह की सट्टेबाजी की अनुमति नहीं दी जानाी चाहिए। उन्होंने कहा कि रिपोर्ट में जोर देकर कहा गया है कि सरकार को समाज के पिछड़े वर्ग को इसका शिकार होने से बचाने की व्यवस्था सुनिश्चित करनी चाहिए।

गौरतलब है कि गुरुवार देर शाम खबरें आईं कि विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में सरकार से सिफारिश की है कि देश में सट्टेबाजी और जुए को कानूनी दायरे में लाया जाए। खबरों में आयोग के हवाले से कहा गया था कि सट्टेबाजी एवं जुए को वैधता प्रदान करके इन पर डायरेक्ट और इनडायरेक्ट टैक्स लगाया जाए। 

खबर आने के बाद राजनीति भी शुरू हो गई थी। कांग्रेस ने मोदी सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा था कि अगर यह लागू होता है तो इससे जहां एक ओर खेल को नुकसान पहुंचेगा, वहीं दूसरी ओर परिवार और समाज पर गलत असर पड़ेगा। पार्टी ने स्पष्ट कहा था कि खेलों में सट्टेबाजी और जुए को वह किसी भी सूरत में लागू नहीं होने देगी।

राहुल डोप टेस्ट में जरूर फेल हो जाएंगे : स्वामी

नई दिल्ली।

पंजाब के राजनीतिक गलियारे में इन दिनों ड्रग्स का मुद्दा छाया हुआ है। इस मामले में भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पर विवादित बयान देते हुए कहा कि राहुल गांधी ड्रग्स का सेवन करते हैं। उनका दावा है कि अगर राहुल गांधी का डोप टेस्ट लिया जाए तो वह इसमें फेल हो जाएंगे। स्वामी ने पत्रकारों से बात करते हुए कहा, ‘इस बात में कोई शक नहीं है कि राहुल गांधी ड्रग्स लेते हैं, खासतौर पर कोकीन। वह डोप टेस्ट में जरूर फेल हो जाएंगे।’

आपको बता दें कि राहुल गांधी के डोप टेस्ट की बात करने की वजह पंजाब की राजनीति में डोप टेस्ट की एंट्री है। पंजाब के सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह ने न सिर्फ नई भर्तियों के दौरान बल्कि हर साल होने वाले प्रमोशन और एनुअल रिपोर्ट तैयार किए जाने के दौरान भी कर्मचारियों का डोप टेस्ट करवाने के लिए नियम बनाने और नोटिफिकेशन जारी करने के निर्देश दिए हैं। इसीके बाद तमाम राजनेता ड्रग्स पर बयान दे रहे हैं।

इसके बाद केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने कहा था कि सबसे पहले डोप टेस्ट उन लोगों को कराना चाहिए जो यह कहते हैं कि 70 फीसदी पंजाब के लोग ड्रग्स की गिरफ्त में हैं। स्वामी ने केंद्रीय मंत्री कौर के बयान को सही ठहराया है। उन्होंने कहा, ‘मैं उनके बयान का स्वागत करता हूं। वह जिस आदमी की बात कर रही हैं, वह कोई और नहीं राहुल गांधी ही हैं। उन्होंने ही कहा था कि 70 फीसदी पंजाबी ड्रग्स के आदी हैं।’

पंजाब के राजनीतिक गलियारे में इन दिनों ड्रग्स का मुद्दा छाया हुआ है। पंजाब में पिछले 33 दिनों में ड्रग्स के ओवरडोज की वजह से 47 लोगों की जान जा चुकी है। इसी वजह से सवालों से घिरी पंजाब सरकार एक के बाद एक कड़े फैसले लेकर ड्रग्स के खिलाफ कड़ा संदेश देने की कोशिश में लगी है। इससे पहले पंजाब के सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह ने ड्रग सप्लायर्स के लिए मौत की सजा की मांग करते हुए केंद्र सरकार से सिफारिश भी की थी।

कजरी वाल ने गृह मंत्री राजनाथ सिंह से मिलने का समय माँगा

दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने शुक्रवार को केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह से मिलने का समय मांगा जिससे कि वह दिल्ली में सत्ता टकराव पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश का क्रियान्वयन सुनिश्चित करने का आग्रह कर सकें. केजरीवाल ने कहा कि यह बहुत खतरनाक है कि केंद्र सरकार उपराज्यपाल को दिल्ली सरकार और केंद्र के बीच सत्ता टकराव पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन न करने की सलाह दे रही है.

उन्होंने ट्वीट किया, ‘गृह मंत्रालय ने उपराज्यपाल को सलाह दी है कि वह सुप्रीम कोर्ट के आदेश के उस हिस्से को नजरअंदाज करें जो उपराज्यपाल की शक्तियों को केवल तीन विषयों तक सीमित करता है. यह खतरनाक है कि केंद्र सरकार उपराज्यपाल को माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन न करने की सलाह दे रही है.’

उपराज्यपाल की शक्तियों में कटौती करने वाले न्यायालय के आदेश के बाद भी उनके कार्यालय और दिल्ली सरकार के बीच सेवा विभाग के नियंत्रण को लेकर विवाद लगातार बना हुआ है. केजरीवाल पर जवाबी हमला करते हुए उपराज्यपाल अनिल बैजल ने कहा कि गृह मंत्रालय की 2015 की यह अधिसूचना लगातार वैध बनी हुई है कि सेवाओं संबंधी विषय दिल्ली विधानसभा के अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं.

इस हफ्ते की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के चंद घंटे बाद दिल्ली सरकार नौकरशाहों के तबादलों और तैनाती के लिए एक नई व्यवस्था लेकर आई और मुख्यमंत्री को स्वीकृति देने वाला प्राधिकार बना दिया था.

हालांकि सेवा विभाग ने यह कहते हुए इसे मानने से इनकार कर दिया कि सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में जारी अधिसूचना को निरस्त नहीं किया है जिसमें तबादलों और तैनाती के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय को प्राधिकार बनाया गया था.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में महिलाओं के जाने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि महिलाओं के लिए राष्ट्रीय सेविका समिति है: सुमित्रा महाजन


सुमित्रा महाजन ने कहा ‘जब मैं अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठती हूं तो मैं सोचती हूं कि सभी दलों की अपनी राजनीति है. उनकी अपनी समस्याएं हैं और अपने नेता हैं जिन्होंने सांसदों को कुछ करने का निर्देश दिया होता है. मैं सदैव उन्हें समझने का प्रयास करती हूं.’


लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने शुक्रवार को कहा कि वह मातृभाव से सदन चलाने का प्रयास करती हैं.

लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन ने शुक्रवार को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का नाम लिए बिना बताया कि उन्होंने देश के एक बड़े नेता को पत्र लिखकर उनके बयान का जवाब दिया था कि, ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में महिलाओं के जाने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि महिलाओं के लिए राष्ट्रीय सेविका समिति है.’

उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की महिला शाखा राष्ट्र सेविका समिति की संस्थापक लक्ष्मीबाई केलकर की जयंती पर एक कार्यक्रम में समिति के सदस्यों को संबोधित करते हुए कहा कि जिस तरह मां सार्वजनिक रूप के बजाय बंद कमरे में अपने बच्चों को डांटती है, उसी तरह उनके काम में बेहतर संतुलन कायम करने की जरूरत होती है.

उन्होंने कहा, ‘जब मैं अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठती हूं तो मैं सोचती हूं कि सभी दलों की अपनी राजनीति है. उनकी अपनी समस्याएं हैं और अपने नेता हैं जिन्होंने सांसदों को कुछ करने का निर्देश दिया होता है. मैं सदैव उन्हें समझने का प्रयास करती हूं.’

महाजन ने कहा, ‘मेरा प्रयास सदैव सदन को सुचारू रूप से चलाना होता है. यदि वे उसके बाद भी नहीं समझते हैं तो तब मैं सदन स्थगित कर देती हूं, उन्हें अपने केबिन में बुलाती हूं और उन्हें समझाती हूं. मैं उन्हें सलाह भी दे सकती हूं. अतएव यह मेरे मातृत्व को दर्शाता है. मैं अपना गुस्सा नहीं दिखाती हूं. यह समाज में संतुलन बनाने का भी एक उदाहरण है.’

उनकी टिप्पणी ऐसे समय में आई है जब संसद का मॉनसून सत्र 18 जुलाई को शुरू होने वाला है. उसकी करीब 18 बैठकें होंगी.

उन्होंने कहा, ‘मैं इस राष्ट्रीय सेविका समिति की सेविका हूं. चूंकि मैं लोकसभा अध्यक्ष हूं और मैं किसी सार्वजनिक मंच पर कुछ नहीं कह सकती. मैं जानती हूं कि लक्ष्मीबाई केलकर ने संघ से ही प्रेरणा लेकर राष्ट्र सेविका समिति की स्थापना की थी.’

महाजन ने संघ की इस महिला शाखा के बारे में जानकारी देते हुए गांधी को एक पत्र और समिति के इतिहास की एक पुस्तक भेजी है.

राहुल गांधी ने पिछले साल 10 अक्टूबर को गुजरात के वडोदरा में विद्यार्थियों की एक सभा में कहा था, ‘आरएसएस में कितनी महिलाएं हैं ? ….. क्या आपने कोई महिला शाखा में शॉर्ट पहनी देखी है ? मैंने नहीं देखी.’

गृह मंत्रालय की 2015 की एक अधिसूचना अभी तक वैध है : अनिल बैजल उपराज्यपाल दिल्ली


दिल्ली के उप राज्यपाल अनिल बैजल ने मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर पलटवार किया है.


मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर पलटवार करते हुए दिल्ली के उपराज्यपाल अनिल बैजल ने शुक्रवार को कहा कि सेवाओं को दिल्ली विधानसभा के अधिकार क्षेत्र के बाहर बताने संबंधित गृह मंत्रालय की 2015 की एक अधिसूचना अभी तक वैध है.

केजरीवाल को लिखे पत्र में बैजल ने कहा कि सेवाओं के मामले और अन्य मुद्दों पर और स्पष्टता तभी आएगी जब उच्चतम न्यायालय की नियमित पीठ के समक्ष इस संबंध में लंबित अपीलों को अंतिम रूप से निस्तारित कर दिया जाता है. उपराज्यपाल के अधिकारों को सीमित करने के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद दिल्ली सरकार और एलजी कार्यालय के बीच विवाद का कारण सेवा विभाग बना हुआ है.

बैजल का यह बयान ऐसे समय में आया है जबकि आज दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने कुछ समय पहले कहा था कि उपराज्यपाल ने सेवा विभाग का नियन्त्रण राज्य सरकार को सौंपने से मना कर दिया है. केजरीवाल को लिखे एक पत्र में बैजल ने गृह मंत्रालय की 2015 की एक अधिसूचना के बारे में ध्यान दिलाया जिसमें संविधान के अनुच्छेद 239 और 239 एए के तहत राष्ट्रपति निर्देश जारी होते हैं.

इसमें कहा गया कि सेवाएं दिल्ली विधानसभा के अधिकारक्षेत्र के बाहर हैं परिणामस्वरूप दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सरकार के पास सेवाओं को लेकर कोई कार्यपालिका अधिकार नहीं हैं. पत्र में कहा गया, इस अधिसूचना को दिल्ली उच्च न्यायालय ने चार अगस्त 2016 के अपने एक आदेश में भी सही ठहराया था.

उपराज्यपाल ने कहा, माननीय सुप्रीम कोर्ट के पीछे के निर्णय के चलते गृह मंत्रालय ने सुझाव दिया है कि निर्णय के अंतिम पैरा के अनुसार ‘सेवा’ सहित नौ अपील पर नियमित पीठ सुनवाई करेगी तथा गृह मंत्रालय की 21 मई 2015 की अधिसूचना वैध बनी रहेगी. केजरीवाल ने दावा किया कि यह देश के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि केन्द्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को मानने से स्पष्ट रूप से मना कर दिया है.

बैजल के साथ 25 मिनट तक हुई बैठक के बाद केजरीवाल ने कहा कि उपराज्यपाल के मना करने के बाद देश में अराजकता फैल जाएगी. एलजी कार्यालय ने एक बयान में कहा, ‘उपराज्यपाल मुख्यमंत्री का ध्यान पैरा 249 की ओर आकर्षित कर रहे हैं जहां उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी है कि दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का ढांचा इस तरह का है जिसमें एक तरफ मुख्यमंत्री के नेतृत्व में मंत्रिपरिषद और दूसरी तरफ एलजी एक टीम की तरह है.’

इससे पहले आज दिन में केजरीवाल ने सभी आपत्तियों को दरकिनार करते हुए राशन की लोगों के घरों तक आपूर्ति को मंजूरी दी थी. मुख्यमंत्री ने खाद्य विभाग को यह भी आदेश दिया कि योजना को तुरंत लागू किया जाए. बैजल ने दिल्ली सरकार की इस योजना पर आपत्ति जताई थी और आप सरकार से कहा था कि इसे लागू करने से पहले केन्द्र से विचार विमर्श किया जाए.


उपराज्यपाल दिल्ली का केजरीवाल की बात नहीं मानेगा तो भारत म अराज्क्ता फ़ेल जाएगी। पर कैसे????

(शायद अगले आंदोलन की धमकी है)

आआपा अब भाजपा को दिल्ली ओर देश से बाहर करेगी : राठी

पंचकूला,6 जुलाई।

आम आदमी पार्टी का कहना है कि केंद्र सरकार द्वारा धान सहित कुछ फसलों की खरीद का समर्थन मूल्य 200 रुपये बढ़ाना करना ऊंट के मूंह में जीरे के समान है। पार्टी का यह भी कहना है कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने की दुहाई देने वाली भाजपा की कथनी और करनी में दिन रात का फर्क है और यह अब भी किसानों के साथ समर्थन मूल्य के नाम पर जुमले ही कर रही है। पार्टी का कहना है कि सरकार को इन फस्लों की खरीद की व्यवस्था स्वयं करने की घोषणा करनी चाहिए थी अथवा इस बार स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू करने की घोषणा  करनी चाहिए थी। उन्होंने कहा कि जब आढ़तीया किसान की उपज की खरी करेंगे तो वे अपने हिसाब से खरी करेंगे और किसान को उसकी उपज का उचित मूल्य देने में आनाकानी करेंगे। उन्होंने कहा कि केंद्र व राज्यों की सरकारों को अरविंद केजरीवाल की दिल्ली सरकार से कु छ सीखना चाहिए, जहां दिल्ली सरकार द्वारा किसानों को किसी भी तरह  की प्राकृतिक आपदा के चलते फसल के खराब होने की सूरत में 20 हजार रुपये प्रति एकड़ का मुआबजा दिया जाता है। मगर किसी जमाने किसानों की मांगों को लेकर नंगे होकर प्रदर्शन करने वाले भाजपा के नेता अब खुद सत्ता में आने के बाद इस मामले में चुप्पी साधे बैठे हैं।

आज यहां जारी एक ब्यान में आम आदमी पार्टी के पंचकूला विधानसभा हल्के के संगठन मंत्री सुरेंद्र राठी ने कहा कि हकीकत में यह भाजपा की संस्कृति है कि न तो उसने स्वयं जनहित का कोई कार्य करना है और न ही करने वाले को करने देना है। दिल्ली में आआपा की सरकार काम करना चाहती है तो उसे केंद्र में सत्ता में बैठी भाजपा की सरकार केजरीवाल सरकार को काम नहीं करने देना चाहती क्योंकि उससे अपनी पिछले विधानसभा चुनावों में हुई हार हजम नहीं हो पा रही। इसी तरह दिल्ली में जीरो हो चुकी कांग्रेस अब भाजपा की बी टीम के रुप में काम कर रही है और भाजपा की हां में हां मिलाकर केजरीवाल सरकार को काम नहीं करने दे रही। उन्होंने कहा कि माननीय सवोच्च न्यायालय के आदेशों के बावजूद दिल्ली सरकार के आईएएस अधिकारी काम नहीं करना चाहते क्योंकि उन्हें कें द्र सरकार की पूरी शह है। ये अफसर एक तरह से सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की अवमानना कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि दिल्ली की जनता सब देख व समझ रही है और आनेवाले विधानसभा व लोकसभा चुनावों में वह भाजपा और कांग्रेस को एक बार फिर से 2014 वाला आईना दिखाएगी और दोनों ही चुनावों में देश व दिल्ली से बाहर का रास्ता दिखाएगी।

राजनीति के शीर्ष पर पंहुचने की इच्छा के चलते उलझते रहते हैं केजरीवाल


आधुनिक भारत के सबसे हाई प्रोफाइल प्रधानमंत्री और दिल्ली के इतिहास के सबसे लड़ाकू मुख्यमंत्री के बीच शह और मात का खेल सुप्रीम कोर्ट के फैसले से खत्म नहीं होगा


दिल्ली जुलाई 6 :

लंबे अरसे बाद दिल्ली की गद्दी पर कोई ऐसा नेता बैठा है, जिसकी ब्रांडिंग एक बेहद ताकतवर प्रधानमंत्री की है. ज़ाहिर है, पूरे देश की निगाहें पिछले चार साल से लगातार दिल्ली पर हैं. लेकिन दिल्ली के सुर्खियों में बने रहने की एक वजह और है.

ताकतवर केंद्र सरकार की छाती पर मूंग दलने के लिए शहर के बीचों-बीच एक ऐसा आदमी धरना देने वाली मुद्रा में डटा है, जिसे उसके विरोधी कभी पलटू तो कभी झगड़ू तो कभी एके-49 के नाम से बुलाते हैं. अगर नरेंद्र मोदी प्रचंड बहुमत वाले पीएम हैं तो अरविंद केजरीवाल भी ऐतिहासिक बहुमत वाले सीएम हैं. दोनों की अपनी-अपनी फैन फॉलोइंग है. दोनों से चिढ़ने वालों की तादाद भी अच्छी-खासी है. लेकिन इन दो समानताओं के बावजूद आपसी रिश्ता हमेशा से छत्तीस का रहा है. यकीनन भारतीय राजनीति के इतिहास में केंद्र और दिल्ली सरकार के टकराव की अनगिनत कहानियां शामिल होंगी. इन कहानियों का सिलसिला चार साल पहले शुरू हुआ था और अब तक जारी है.

करीब तीन हफ्ते पहले का वाकया है. सीएम केजरीवाल अपने मंत्रिमंडल के कुछ सहयोगियों के साथ दिल्ली के उप-राज्यपाल के घर दरवाजे पर धरना दे रहे थे. केजरीवाल का इल्जाम था कि उपराज्यपाल अनिल बैजल केंद्र के इशारे पर दिल्ली सरकार के हर काम में अंसवैधानिक तरीके से अड़ंगा लगा रहे हैं. उनकी शह पर दिल्ली के आईएस एक तरह की अघोषित हड़ताल पर हैं, जिसकी वजह से राज्य सरकार कई जन कल्याणकारी योजनाएं चाहकर भी लागू नहीं कर पा रही है.

उप राज्यपाल के बरामदे पर केजरीवाल का धरना लगातार नौ दिन तक जारी रहा. लेकिन उपराज्यपाल अनिल बैजल उनसे नहीं मिले. दिल्ली की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इस धरने को कोई खास अहमियत नहीं दी और बीजेपी का सोशल मीडिया सेल लगातार केजरीवाल के खिलाफ कैंपेन चलाता रहा. इन सबके बीच उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने अचानक प्रेस कांफ्रेस करके ऐलान किया कि आईएस अधिकारी काम पर लौट आए हैं, उन्होने सहयोग देने का वादा भी किया है, इसलिए अब धरने की कोई जरूरत नहीं है.

हालांकि नीति आयोग की बैठक के लिए आए चार राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने केजरीवाल को समर्थन दिया था. इसके बावजूद उपराज्यपाल के घर से बैरंग लौट जाना केजरीवाल के लिए एक तरह की हार थी. विरोधियों ने इसका प्रचार भी इसी ढंग से किया. राजनीति के कई जानकारों ने भी `सियासी अनाड़ीपन’ के लिए केजरीवाल को कोसा. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के ताजे फैसले ने पूरा खेल बदल दिया. इस फैसले की आम व्याख्या यही है कि केजरीवाल सही थे और उपराज्यपाल गलत.

केजरीवाल के साथ हमेशा से ऐसा ही होता आया है. शह और मात के खेल में वे बुरी तरह घिरे नजर आते हैं. लेकिन हालात अचानक कुछ इस तरह बदलते हैं कि हारी हुई बाजी पलट जाती है. इसे किस्मत की मेहरबानी कहें या फिर कानून का सहारा. केजरीवाल शह और मात के खेल में कई बार बचे हैं. ऑफिस ऑफ प्रॉफिट प्रकरण में भी कुछ ऐसा ही था. चुनाव आयोग ने आम आदमी पार्टी के 20 विधायकों की सदस्यता रद्द कर दी थी और राष्ट्रपति ने इसे मंजूरी दे दी थी. लेकिन हाईकोर्ट ने इस फैसले को पलट दिया.

`आआपा’ लगभग छह साल पुरानी पार्टी है. आलोचकों का कहना है कि केजरीवाल ने एक राष्ट्रीय नेता बनने की जो संभावनाएं शुरू में दिखाई थी, उस पर वे खरे नहीं उतरे. उन्हें अब तक ढंग से राजनीति करनी नहीं आई. वे अब भी मुख्यमंत्री के बदले आंदोलनकारी ही नजर आते हैं.

देखा जाए तो इन आरोपों के पक्ष में कई जायज दलीलें हैं. लेकिन क्या वाकई केजरीवाल उस तरह की सियासत नहीं सीख पाए हैं, जिसे शास्त्रीय परिभाषा में `राजनीति’ कहते हैं, या वे जो कुछ कर रहे हैं, वही उनकी शैली है? शायद केजरीवाल यह जानते हैं कि पब्लिक मेमोरी बहुत छोटी होती है. इसलिए वे अपने तमाम राजनीतिक दांव खुलकर खेल रहे हैं. कामयाबी मिली तो ठीक, नहीं मिली गलती पर मिट्टी डालकर आगे बढ़ जाते हैं.

2013 में जब पहली बार अल्पमत के साथ केजरीवाल सत्ता में आए तभी से उन्होंने अपने दांव चलने शुरू कर दिए. अपने एक मंत्री के खिलाफ हुई कानूनी कार्रवाई को लेकर वे सीएम होते हुए सड़क पर आ डटे. धरने पर बैठे-बैठे फिल्मी स्टाइल में वे फाइलें साइन किया करते थे. वह पहला ऐसा मामला जिसने केजरीवाल की इमेज एक नौटंकीबाज की बनाई. 49 दिन तक चलने के बाद जब उनकी सरकार ने इस्तीफा दिया तो बीजेपी ने भगोड़ा करार देते हुए पूरी दिल्ली में उनके बड़े-बड़े पोस्टर लगवाए. लेकिन केजरीवाल को इसका नुकसान नहीं बल्कि फायदा ही हुआ और अगले चुनाव में आम आदमी पार्टी 70 में 67 सीटें जीत गई.

केंद्र सरकार के साथ टकराव को कुछ देर के लिए अलग रखें तब भी बतौर राजनेता केजरीवाल ने बहुत कुछ ऐसा किया है, जिससे राजनीतिक रूप से परिपक्व कदम नहीं माना जा सकता है. अपनी पार्टी के भीतर उपजे किसी भी असंतोष को वे ठीक से संभाल नहीं पाए. वैचारिक मतभेद होते ही उन्होने प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव और आनंद कुमार जैसे उनकी थिंक टैक से जुड़े लोगों को फौरन बाहर का रास्ता दिखा दिया. कपिल मिश्रा प्रकरण में भी यही हुआ. पुराने साथी कुमार विश्वास को भी केजरीवाल संभाल नहीं पाए. शुरुआती दौर में देश भर की कई जानी-मानी हस्तियां आम आदमी पार्टी से जुड़ी थीं. लेकिन ज्यादातर लोग आहिस्ता-आहिस्ता अलग होते चले गए.

केजरीवाल ने कांग्रेस से लेकर बीजेपी तक के बड़े नेताओं पर थोक भाव में आरोप लगाए. बदले में ढेरों मुकदमे झेले और फिर वह दौर भी आया जब उन्होंने नितिन गडकरी और कपिल सिब्बल जैसे नेताओं से बकायदा लिखित माफी मांगनी शुरू की. आम आदमी पार्टी ने सफाई दी कि मुकदमेबाजी की वजह से केजरीवाल का बहुत वक्त बर्बाद हो रहा है. इसलिए वे इन पचड़ों से बाहर आ रहे हैं, ताकि जनहित के ज्यादा से ज्यादा काम कर सकें. इन तमाम फैसलों का भरपूर मजाक उड़ा. लेकिन अनाड़ी शैली में ही सही खेल लगातार जारी रहा.

`आआपा’ यूपीए टू सरकार के खिलाफ खड़े हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बाद अस्तित्व में आई थी. देखा जाए तो उसकी शुरुआती लड़ाई कांग्रेस से थी. कई लोग आप को उस वक्त बीजेपी की `बी ‘टीम करार दे रहे थे. लेकिन घटनाक्रम तेजी बदलने लगा और कांग्रेस के बदले केजरीवाल की असली लड़ाई बीजेपी के साथ शुरू हो गई.

दरअसल इस लड़ाई की नींव 2014 के लोकसभा चुनाव के समय ही पड़ गई थी. कांग्रेस अपनी अलोकप्रियता के सबसे निचले पायदान पर थी. बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को अपना नेता घोषित कर दिया था और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से निकले केजरीवाल भी तेजी से लोकप्रिय हो रहे थे.

केजरीवाल को यह समझ में आ गया था कि राष्ट्रीय राजनीति में अपनी साख कायम करनी है, तो उन्हें मौजूदा दौर के सबसे लोकप्रिय राजनेता यानी मोदी से सीधे-सीधे टकराना होगा. इसी रणनीति के तहत केजरीवाल ने 2014 के लोकसभा चुनाव में वाराणसी से पर्चा भरा और मोदी लहर के बावजूद दो लाख वोट हासिल करने में कामयाब रहे.

लेकिन इसी दौरान मोदी के साथ उनकी राजनीतिक `शत्रुता’ की नींव पड़ी. केंद्र में एनडीए की सरकार बनी. इसके कुछ महीनों बाद प्रधानमंत्री मोदी के ज़बरदस्त प्रचार और अमित शाह के रणनीतिक कौशल के बावजूद केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा में रिकॉर्ड तोड़ बहुमत हासिल करके एक और जख्म दिया. फिर तो केजरीवाल जैसे केंद्र सरकार की छाती पर सवार हो गए. कांग्रेस उन दिनों लगभग खामोश थी. केजरीवाल ने इसका भरपूर फायदा उठाया और लगातार बयानबाजी करके मोदी वर्सेज केजरीवाल का नैरेटिव गढ़ने में कामयाब रहे.

बेशक राष्ट्रीय राजनीति को एक नई पहचान मिली हो लेकिन इस सीधे टकराव का काफी नुकसान भी हुआ. सीबीआई से लेकर इनकम टैक्स तक तमाम केंद्रीय एजेंसियां केजरीवाल और उनके मंत्रियों के पीछे जैसे हाथ धोकर पड़ गईं. रही-सही कसर पहले नजीब जंग और उसके बाद अनिल बैजल से उप राज्यपाल ने पूरी कर दी. केजरीवाल अब आए दिन केंद्र सरकार और उप राज्यपाल का दुखड़ा लेकर जनता के बीच जाने लगे. दिल्ली के वोटरों का एक तबका भी यह मानने लगा कि इल्जाम लगाना और काम ना करने के बहाने ढूंढना उनकी आदत है.

खुद केजरीवाल यह दावा कर चुके हैं कि वे प्रधानमंत्री से मिलकर सुलह-सफाई करना चाहते हैं. लेकिन प्रधानमंत्री मुलाकात का वक्त नहीं दे रहे हैं. नरेंद्र मोदी की राजनीति को करीब से देखने वाले भी यह जानते हैं कि वे अपने विरोधियों के प्रति एक सीमा से ज्यादा रियायत नहीं बरतते हैं. थक-हार चुके केजरीवाल ने मोदी के खिलाफ बयानबाजी बंद की और अपना फोकस शिक्षा और पब्लिक हेल्थ जैसे कामों पर लगाना शुरू किया ताकि वोटरो का दिल जीत सकें.

आप पिछले छह महीने के आंकड़े उठाकर देख लीजिए. प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ केजरीवाल के बहुत कम बयान मिलेंगे. अपने यहां होनेवाले सीबीआई छापे या इनकम टैक्स जांच का हवाला वे ज़रूर देते हैं, लेकिन सीधे-सीधे प्रधानमंत्री पर कोई आरोप लगाने से बचते हैं. इसके बदले आम आदमी पार्टी लगातार सरकारी स्कूलों की स्थिति में सुधार, मोहल्ला क्लीनिक और राशन की होम डिलिवरी जैसी अपनी योजनाओं का प्रचार करती नज़र आती है.

बिना काम दिखाए वोटर के पास दोबारा जाना मुश्किल है. दिल्ली की राजनीति पर नज़र रखने वाले कई लोग यह मानते हैं कि वाकई शिक्षा और जन-स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में केजरीवाल अच्छा काम कर रहे हैं. लेकिन सवाल यह है कि क्या उनकी राजनीति सही पटरी पर लौट चुकी है?

दिल्ली की राजनीति काफी मेलो ड्रैमेटिक है. आगे क्या होगा यह कहना मुश्किल है. लेकिन कुछ बातें साफ हैं. पहली बात यह कि दिल्ली सरकार के कामकाज में उपराज्यपाल का हस्तक्षेप बिल्कुल बंद हो जाएगा, इसकी संभावना कम है. बीजेपी भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अपनी तरह से व्याख्या कर रही है. ऐसे में यह मानना कठिन है कि उप-राज्यपाल के ज़रिए केंद्र ने जिस तरह केजरीवाल की नकेल कस रखी है, वह एकदम ढीली पड़ जाएगी.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले में बहुत कुछ ऐसा है जिसे `ग्रे एरिया’ कहते हैं, यानी व्याख्या अलग-अलग ढंग से की जा सकती है. बहुत संभव है कि मोदी सरकार इसका फायदा उठाकर उप राज्यपाल के ज़रिए अपनी दखल बरकरार रखे. इसके संकेत भी मिलने शुरू हो गए हैं. यानी सियासी शतरंज की बिसात पर केजरीवाल को आगे भी इसी तरह फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाना होगा.

आगे क्या होगा?

2019 की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है. ऐसे में एक सवाल यह भी है कि आम आदमी पार्टी का क्या होगा? क्या केजरीवाल साझा विपक्ष के किसी महागठबंधन में शामिल होंगे. अगर तीसरा मोर्चा होता तो केजरीवाल बहुत आराम से उसका हिस्सा बन सकते थे. लेकिन कांग्रेस के बिना मोदी के खिलाफ प्रभावी विपक्ष की कल्पना बेमानी है. अगर-मगर के बावजूद तमाम विपक्षी पार्टियों को कांग्रेस के साथ आना ही पड़ेगा भले ही सर्वमान्य नेता के रूप में राहुल गांधी के नाम का ऐलान ना हो.

अब सवाल यह है कि क्या आम आदमी पार्टी कांग्रेस के नेतृत्व वाले किसी गठबंधन का हिस्सा बन पाएगी? पहली बात यह है कि आम आदमी पार्टी अगर अपना घोषित कांग्रेस विरोधी स्टैंड छोड़ती है, तो इससे वोटरों में एक अलग संदेश जाएगा जो पार्टी के लिए अच्छा नहीं होगा. फिर भी अगर मोदी को ज्यादा बड़ा खतरा मानते हुए अगर केजरीवाल ने कांग्रेस से हाथ मिला भी लिया तो सीटों का बंटवारा कैसे होगा?

पिछले लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सातों सीटों पर आम आदमी पार्टी दूसरे नंबर पर रही थी और कांग्रेस तीसरे पायदान पर जा लुढ़की थी. क्या कांग्रेस दिल्ली में केजरीवाल के पीछे चलना पसंद करेगी? ऐसी ही समस्या पंजाब में आएगी. पिछले लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी वहां की चार सीटों पर जीती थी. इस समय पंजाब में कांग्रेस मजबूत है और आम आदमी पार्टी अंतर्कलह से परेशान है. इसके बावजूद केजरीवाल के लिए पंजाब में कांग्रेस के पीछे चलना संभव नहीं होगा.

समझने वाली बात यह है कि आम आदमी पार्टी वैकल्पिक राजनीति वाली अपनी ब्रांडिंग को तभी तक बचाए रख पाएगी, जब तक वह कांग्रेस और बीजेपी दोनों के विरोध में खड़ी हो. यह रास्ता मुश्किल है. लेकिन केजरीवाल के लिए शायद कोई और विकल्प भी नहीं है. चुनाव के बाद किसी विपक्षी गठबंधन को समर्थन देने या सरकार में शामिल होने का विकल्प उनके लिए ज़रूर खुला होगा.

Justice AK Goel appointed Chairperson of National Green Tribunal

Delhi July 6:

Hours after he bid farewell to the Supreme Court, a notification by Department of Personnel and Training has intimated the appointment of Justice AK Goel as the new Chairperson of the National Green Tribunal (NGT).

His tenure as NGT Chairperson has been specified as being for a period of five years from the date he assumes office, or till he reaches the age of 70 years, whichever is earlier.

The notification dated today states,

The Appointments Committee of the Cabinet (ACC) has approved the proposal for appointment of Justice Adarsh Kumar Goel, Judge Supreme Court of India as Chairperson, National Green Tribunal (NGT), in the pay scale and with such allowances and benefits as are admissible for the post, for a period of 05 years w.e.f the date of assumption of charge of the post, or till the age of 70 years, whicehever is earlier.

2. Necessary communication in this regard has been sent to the Ministry of Envrionment, Forest & Climate Change.”

Justice Goel enrolled at the Bar in 1974. He practised before the Punjab & Haryana High Court for five years and the Supreme Court and Delhi High Court for about twenty-two years.

He was elevated as the judge of the Punjab & Haryana High Court in 2001 before being transferred to Gauhati High Court in September 2011, where he became Chief Justice in December 2011. He was then transferred as Chief Justice of the Orissa High Court in October 2013 before being elevated to the Supreme Court where he took charge on July 7, 2014.

 

Courtesy Bar & Bench

देखिए केंद्र की बीजेपी सरकार नहीं चाहती है कि दिल्ली सरकार अच्छा काम करे : केजरीवाल


अरविंद केजरीवाल ने मीडिया के सामने कहा है कि भारत के इतिहास में पहली बार एलजी साहब ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मानने से इनकार कर दिया है


दिल्ली, जुलाई 6:

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने एक बार फिर से केंद्र सरकार पर हमला बोला है. अरविंद केजरीवाल ने एलजी के बहाने ही सही केंद्र पर निशाना साधा है. केजरीवाल ने शुक्रवार को दिल्ली के उपराज्यपाल अनिल बैजल से मुलाकात की. एलजी से मुलाकात के बाद अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में एलजी के साथ मुलाकात का पूरा ब्यौरा दिया.

अरविंद केजरीवाल ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि गुरुवार को मैंने एलजी साहब को एक पत्र लिखा था. इस पत्र में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बारे में बताया गया था. पत्र में लिखा था कि अब हर फाइल एलजी साहब को भेजने की जरूरत नहीं है. दिल्ली सरकार के द्वारा लिए गए हर फैसले की जानाकारी एलजी साहब को जरूर बता दिया जाएगा. इस पर एलजी साहब तैयार हो गए हैं. हालांकि एलजी साहब सर्विसेज को लेकर अभी भी तैयार नहीं हुए हैं.

अरविंद केजरीवाल ने मीडिया के सामने कहा है कि भारत के इतिहास में पहली बार एलजी साहब सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मानने से इनकार कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने जजमेंट में कह था कि तीन विषय छोड़ कर बाकी सभी मसलों पर फैसले लेने का अधिकार दिल्ली सरकार के पास है.

अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि दिल्ली में बिजली-पानी की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी चुनी हुई सरकार के पास है, लेकिन इन चीजों को लागू करने का अधिकार केंद्र के पास है? केंद्र सरकार अफसर तैनात करेगी और हम लोग काम करवाएंगे? देखिए केंद्र की बीजेपी सरकार नहीं चाहती है कि दिल्ली सरकार अच्छा काम करे.

जितनी फाइलें अटकी पड़ी थी उन पर काम शुरू

अरविंद केजरीवाल ने कहा कि अभी तक जितनी भी फाइलें अटकी पड़ी थी उस पर हमलोगों ने काम करना शुरू कर दिया है. शुक्रवार को दो-तीन महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए हैं. हमारी सरकार चाहती है कि दिल्ली में घर-घर राशन पहुंचे. यह मामला कई महीनों से एलजी साहब के कारण अटका हुआ था आज ही मैंने ऑर्डर जारी कर दिया है.

दूसरा, दिल्ली के स्कूल-कॉलेजों और अन्य जगहों पर सीसीटीवी कैमरे लगाने का प्रपोजल भी अटका पड़ा था, जिसे मंगलवार तक पास कर दिया जाएगा. दिल्ली सरकार की महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट सिग्नेचर ब्रिज के आखिरी इन्सटॉलमेंट को भी आज पास कर दिया गया है. यह ब्रिज इसी साल अक्टूबर महीने तक बन कर तैयार हो जाएगा.

सर्विसेज के मुद्दे को लेकर दिल्ली सरकार और एलजी के बीच टकरार अभी कायम रहेगा. बता दें कि बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा था कि चुनी हुई सरकार लोकतंत्र में काफी अहम है. इसलिए कैबिनेट के पास फैसले लेने का अधिकार है.

सुप्रीम कोर्ट का फैसला दिल्ली सरकार के हक में नहीं

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से कहा था कि एलजी के पास कोई स्वतंत्र अधिकार नहीं है. पीठ ने साफ कहा था कि हर मामले पर एलजी की सहमति की जरूरत नहीं है. इसके बावजूद कैबिनट के फैसले की जानकारी एलजी को देनी होगी.

कुलमिलाकर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद भी दिल्ली सरकार और एलजी के बीच विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है. इस फैसले के कानूनी पहलुओं पर लगातार प्रतिक्रियाएं आ रही हैं. गुरुवार को केंद्रीय मंत्री और सुप्रीम कोर्ट के जाने-माने वकील अरुण जेटली ने भी इस फैसले पर अपनी राय रखी थी.

अरुण जेटली ने साफ कहा था कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला दिल्ली सरकार के हक में नहीं गया है. दिल्ली सरकार के पास पुलिस का अधिकार नहीं है ऐसे में वह पूर्व में हुए अपराध के लिए जांच एजेंसी गठित नहीं कर सकती.

ऐसे में एक बार फिर से अरविंद केजरीवाल की सरकार सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी में लग गई है. बुधवार को सुप्रीम कोर्ट के जिस फैसले के बाद यह अंदाजा लगाया जा रहा था कि दिल्ली सरकार और एलजी के बीच का विवाद थम गया है वह विवाद अब अगले कुछ दिनों तक और बरकरार रह सकता है.