“राहुल मेरे ‘कप्तान’ उनके कहने पर ही मैं पाकिस्तान गया” सिद्धु


डोकलाम विवाद के समय राहुल गांधी चीनी राजदूत से मिलते हैं ओर तस्वीरें जारी होने के बाद मुकर जाते हैं

‘हाफ़ीज़ साहब’ वाले ब्यान के बाद दिग्गी राजा भी ब्यान को तोड़ा मरोड़ा गया बताते हैं

मणि शंकर अइय्यर तो सारी हदें पार कर पाकिस्तान से भारत सरकार को पलटवाने की गुहार तक लगा देते हैं

वह मोदी को हारने पर काँग्रेस भवन में चाय का ठेला लगा देने की नसीहत तक दे डालते हैं

शशि थरूर मोदी को बिच्छू कह जाते हैं

इन सबसे अलग नवजोत सिद्धू पाकिस्तान जाते हैं ओर इमरान खान के कसीदे पढ़ते जाते हैं ओर मंच पर ही से और कासीदे काढ़ने के लिए समय की मांग भी रखते हैं 

बदले में इमरान आशा व्यक्त करते हैं की सिद्धू एक दिन भारत के प्रधान मंत्री बनेंगे ओर तब दोनों देशों में शांति स्थापित हो सकेगी

बाकी सब में और सिद्धू में एक फर्क है कि बाकी कांग्रेसी नेता मानते नहीं और सिद्धू ठोक कर, डंके कि चोट पर कहते हैं कि उन्हे राहुल ने ऐसा करने को कहा था वह पाकिस्तान राहुल के कहने से गए थे।  ठोको ताली:

सिद्धू ने सिख कौम (बक़ौल सिद्धू 12 करोड़ सिखों) कि मदद तो कर दी अब वह ज़रा भारत कि सुध भी लें, वह अपने मित्र इमरान ख़ान से दाऊद इब्राहिम और हफीज सईद समेत कुछ आतंकियों की मांग के साथ साथ इमरान को कश्मीर मुद्दे पर बड़ा दिल दिखाने को कहें ताकि भारत भी सिद्धू पर मान कर सके और इमरान ख़ान कि ख़्वाहिश भी जल्द से जल्द पूरी हो सके। 


करतारपुर कॉरिडोर मामले में कांग्रेस नेता नवजोत सिंह सिद्धू ने बयान दिया है. उन्होंने कहा, ‘मेरे कैप्टन राहुल गांधी हैं और उन्होंने मुझे हर जगह भेजा है.’ सिद्धू ने यह सफाई विपक्ष की उन टिप्पणियों के बाद दी है जिसमें कहा गया था कि पंजाब के सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह नहीं चाहते थे कि सिद्धू पाकिस्तान जाएं लेकिन वह फिर भी गए.’

इससे पहले सिद्धू ने कहा था कि जब मैं पहली बार पाकिस्तान गया था और करतारपुर कॉरिडोर के लिए उनसे वादा करने की बात की थी, तो आलोचकों ने मेरा मजाक उड़ाया था. मुझ पर हंसे थे और अब वही लोग अपना ही थूका हुआ चाट रहे हैं और अपनी बात से मुकर रहे हैं.

पाकिस्तान यात्रा के बारे में पंजाब के सीएम की मनाही का मुद्दा छिड़ा तो सिद्धू ने कहा कि मुझे कम से कम 20 कांग्रेसी नेताओं ने जाने के लिए कहा था. केंद्रीय नेताओं ने मुझे जाने के लिए कहा था. पंजाब के मुख्यमंत्री मेरे पिता समान हैं. मैंने उन्हें कहा था कि मैंने उन्हें वादा कर दिया है कि मैं जाउंगा।


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चीन में ऊईगुर मुसलमानों की जासूसी


चीन की सरकार वहां रहने वाले उइगूर समुदाय के लोगों पर बहुत नजदीकी से निगाह रखने के लिए भावनात्मक हथकंडे तक अपनाने में नहीं हिचक रही है


चीन की सरकार वहां रहने वाले उइगूर समुदाय के लोगों पर बहुत नजदीकी से निगाह रखने के लिए भावनात्मक हथकंडे तक अपनाने में नहीं हिचक रही है.

यहां रह रही हलमुरात इदरीस के पास एक फोटोग्राफ है, जिसमें उसकी 39 साल की बहन के साथ एक उम्रदराज महिला भी खड़ी है, जिसे वो नहीं जानती कि वह कौन है. इस फोटोग्राफ में उसकी बहन में नीचे की तरफ लिखा है, ‘देखिए, मुझे एक चीनी हान मां मिल गई है.’ हान चीन का एक समुदाय है.

इदरीस, फोटोग्राफ में दिख रही महिला पर शक जाहिर करती हुई कहतीं हैं कि यह बूढ़ी महिला कोई और नहीं बल्कि एक जासूस है, जिसे चीन सरकार ने भेजा है, ताकि वह उसके परिवार में घुसकर जानकारियां हासिल कर सकें. उसके जैसे कई और लोग चीनी सरकार ने इस समदुाय में भेज दिए हैं.

इसकी पुष्टि सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के आधिकारिक समाचारपत्र में भी यह कह कर की गई है कि सितंबर के अंत तक 11 लाख स्थानीय सरकार के कर्मचारियों को मूल जातीय अल्पसंख्यकों के शयनकक्षों, खाना खाने की जगहों और मुस्लिम पूजास्थलों में भेज दिया दिया गया है और शादी, शवयात्रा और अन्य अवसर जो निजी समझे जाते हैं, उनमें तक उनका प्रवेश करा दिया गया है.

यह सब चीन के सुदरवर्ती पश्चिमी क्षेत्र शिनच्यांग में हो रहा है. यह इलाका मुस्लिम बहुल है और ये लोग तुर्की भाषी उइगूर समुदाय के हैं. ऐसी खबरें अक्सर आती हैं कि चीन सरकार इस समुदाय के साथ भेदभाव बरत रही है.

चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग के शासनकाल में उइगूर पर कड़ी निगाह रखी जा रही है. सड़कों के नाकों पर संगीनधारी तैनात हैं और उनके पास चेहरे की पहचान करने में सक्षम सीसीटीवी उपकरण हैं. उइगूर समुदाय के लोगों का कहना है कि उन्हें अपने घरों के भीतर भी सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी की तेज निगाहों के सामने रहना होगा.

चीन ने पीओके को भारत का हिस्सा दर्शाया पाक नाराज़।


आधिकारिक तौर पर जारी किए गए मैप में चीन ने इसके पहले कभी भी PoK को भारत का हिस्सा नहीं दिखाया. सूत्रों का कहना है कि कम्युनिस्ट पार्टी में ऊपर से मिले सिग्नल के बगैर सरकारी मीडिया अलग मैप का इस्तेमाल भी नहीं करता है


सरकार द्वारा संचालित सीजीटीएन टेलीविजन ने पहली बार पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) को पाकिस्तान के मानचित्र से बाहर कर दिया है. पिछले हफ्ते पाकिस्तान में चीन के दूतावास पर हुए हमले की खबर दिखाते हुए चीन ने यह तस्वीर जारी की है.

अब क्योंकि यह असंभव है कि सरकार द्वारा संचालित टेलीविजन कभी भी बीजिंग के विरुद्ध जाएगा, इसलिए यह माना जा रहा है कि यह कदम जानबूझकर उठाया गया है.

चीन के सरकारी चैनल द्वारा भारत की कुछ ऐसी तस्वीरें दिखाने से पाकिस्तान को झटका लग सकता है. सरकारी चैनल CGTN ने पहली बार अपने कार्यक्रम के दौरान दिखाई एक तस्वीर में पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (PoK) को पाकिस्तान के बदले भारत के नक्शे में दिखाया है.

हालांकि, अभी तक यह साफ नहीं हुआ है कि चीन के सरकारी चैनल CGTN ने वो तस्वीरें जानबूझ कर पाकिस्तान को कोई संदेश देने के लिए छापी गई हैं या फिर गलती से दिखाई हैं. हाल के दिनों में चीन और भारत की सरकारों के बीच बातचीत बढ़ी है. इसलिए ये भी हो सकता है कि भारत की तरफ चीन के झुकाव को दर्शाने के लिए भी यह कदम उठाया गया हो.

चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर से जोड़कर भी देखा जा रहा है:

PoK को भारत के नक्शे में दिखाने को चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर से जोड़कर भी देखा जा रहा है. इस योजना को लेकर भारत ने चीन के सामने कड़ी आपत्ति जताई थी. चीन ने यह रुख ऐसे समय में दिखाया है जब 10 दिसंबर को भारत और चीन के बीच सैन्य अभ्यास होना है. वहीं, करतारपुर मसले पर बहस भी हो रही है. ‘दोस्त’ चीन के इस रवैये पर पाकिस्तान ने नाराज़गी जाहिर की है.

दरअसल, आधिकारिक तौर पर जारी किए गए मैप में चीन ने इसके पहले कभी भी PoK को भारत का हिस्सा नहीं दिखाया. सूत्रों का कहना है कि कम्युनिस्ट पार्टी में ऊपर से मिले सिग्नल के बगैर सरकारी मीडिया अलग मैप का इस्तेमाल भी नहीं करता है.

जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा है, तो पाक अधिकृत कश्मीर और गिलगित बाल्टिस्तान पर पाकिस्तान का अवैध कब्जा है. वहीं अक्साई चिन पर चीनी कब्जा है. PoK का कुल क्षेत्रफल करीब 13 हजार वर्ग किलोमीटर है, जहां करीब 30 लाख लोग रहते हैं. पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में अक्साई चिन शामिल नहीं है. यह इलाका महाराजा हरिसिंह के समय में कश्मीर का हिस्सा था. 1962 में भारत और चीन के बीच युद्ध के बाद कश्मीर के उत्तर-पूर्व में चीन से सटे इलाके अक्साई चिन पर चीन का कब्जा है.

भारतीय संसद में है पीओके की 7 रिजर्व सीटें:

आजादी के बाद भारत-पाक युद्ध में कश्मीर 2 हिस्सों में बंट गया था. कश्मीर का जो हिस्सा भारत से लगा हुआ था, वह जम्मू-कश्मीर नाम से भारत का एक सूबा हो गया, वहीं कश्मीर का जो हिस्सा पाकिस्तान और अफगानिस्तान से सटा हुआ था, वह पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर कहलाया.

भारत सरकार ने पाक अधिकृत कश्मीर का नाम बदलकर पाक अधिकृत जम्मू और कश्मीर कर दिया है. भारत ने जम्मू-कश्मीर राज्य विधानसभा में पीओके के लिए 25 सीटें और संसद में 7 सीटें रिजर्व रखी हैं.

पठानकोट के भूर के पास 4 संदिग्ध पकड़े गए

पंजाब,(कमल कलसी) आज सुबह पठानकोट जालंधर हाईवे पर नंगल भूर के पास एक स्कॉर्पियो से चार संदिग्ध पकड़े गए जो की फ़ौज की वर्दी पहने हुऐ थे,सभी को पंजाब पुलिस पकड़ कर पुलिस स्टेशन ले गई है।

Congress hasn’t succeeded in building a narrative against Chouhan 

Jotiraditya Scindia, Kamal Nath, Digvijay Singh


Political analysts think Congress hasn’t succeeded in building a narrative against Chouhan 

“The pro-poor schemes of Shivraj Singh government will help the BJP to get support from the poor and economically-weaker sections of the society, especially the urban poor,” former Hindustan Times resident editor NK Singh said. 

Chouhan’s image as a son of the soil. He brought in the ‘insider-outsider’ narrative into play during the last 15 years. 

A large section of voters still unable to forget Digvijay Singh’s disastrous second term (1998 to 2003) and poor infrastructure that earned the state the infamous ‘Bimaru’ tag.


As the curtain comes down on the high-voltage electoral campaigning by the ruling BJP and the Opposition Congress in Madhya Pradesh for the votes to be cast on 28 November, both parties are keeping their fingers crossed. Who will win Madhya Pradesh? The betting market is swinging on both sides: sometimes in favour of Congress and sometimes for the BJP. Uncertainty looms on whether the BJP under Chief Minister Shivraj Singh Chouhan will return to power for a fourth consecutive term or if fortune will smile on the Congress after its long electoral drought.

Political analysts think Congress hasn’t succeeded in building a narrative against Chouhan. People do not complain against Chouhan, but against the lower bureaucracy and uncaring BJP MLAs, some of whom are also corrupt, they add. In fact, Chouhan has, over the years, emerged as a brand not only of the party, but also the state. “Congress couldn’t build a strong issue-based narrative against Shivraj Singh government, except announcing debt waiver for farmers and tackling unemployment. It’s not necessary that those who’re unhappy (and not angry) with the BJP government will vote for the Congress,” Bhopal-based political commentator Girija Shankar said.

File Photo of Shiv Raj Singh Chouhan

The high-decibel campaigning in Madhya Pradesh witnessed 10 rallies of Prime Minister Narendra Modi, 27 of BJP president Amit Shah, 178 of Chouhan along with his Jan Aashirwad Yatra criss-crossing the state. Unlike the BJP, Congress didn’t have many star campaigners. While Congress president Rahul Gandhi addressed 15 rallies, Jyotiraditya Scindia held the highest rallies for the party (103). MPCC president Kamal Nath addressed a few rallies, with a focus on organisational support, while courting a controversy on a video allegedly slamming the RSS over minority issue.

The issues raised by the BJP and the Congress leaders were more national than state-level: Ram Mandir, Rafale deal. The Opposition Congress couldn’t make ‘Vyapam scam’ a big issue. One may recall, five years ago the ‘Vyapam scam’—the biggest one till date in Madhya Pradesh—relating to irregularities in medical admissions and other recruitment examinations conducted by the state government was unearthed. It had almost dislodged Chouhan, but the BJP salvaged the crisis by handing the case to the CBI.

The state population is nearly 90 percent Hindu, which prompted Congress to toe a soft-Hindutva line. It is in the battlefield of Madhya Pradesh where Congress president Rahul Gandhi visited Jyotirlinga shrines Omkareshwar and Mahakaleshwar, and was projected as a ‘Shiv-bhakt’, and ‘pandit Rahul Gandhi’. But Rahul’s new avatar has drawn criticism.

Congress has successfully raked up the farmer distress that erupted in Mandsaur in 2017. Despite the state government’s quick measures to quell farmers’ anger, election results will show if the Congress succeeded in swinging the issue in its favour. “The pro-poor schemes of Shivraj Singh government will help the BJP to get support from the poor and economically-weaker sections of the society, especially the urban poor,” former Hindustan Times resident editor NK Singh said.

Factors in favour of Shivraj Singh Chouhan and the BJP

· Unlike in the case of the former chief minister Digvijay Singh, there’s no anger directly against Chouhan.

· No large-scale complaint against Chouhan on basic amenities like electricity, road and water, as against the Congress between 2000 and 2003.

· Strong organisational base.

· Active role of frontal organisations of RSS-BJP and their grassroots reach.

· Chouhan’s image as a son of the soil. He brought in the ‘insider-outsider’ narrative into play during the last 15 years.

· Strong support from those living in slums and economically-weaker sections (EWS) due to state government schemes, especially housing scheme (Awas Yojna).

Against the BJP

· Large-scale rebellion in the form of Independent candidates, who failed to get either a BJP ticket, a post or favour from the party.

· Upper castes and a section of middle-class voters are disturbed over SC/ST Atrocities Act, high fuel prices.

· Mid-level businessmen, small and medium level farmers who are politically influential are vocal against the BJP.

· High-voltage campaigning in the form of rallies and roadshows with star campaigners like Modi, Shah and Chouhan.

Factors in favour of Congress

· Anti-incumbency factor against the BJP.

· A section of voters wants a change in government.

· Farmer distress that erupted in Mandsaur district and the anger among small and marginal farmers may help Congress, especially due to ‘Bhaavantar Yojna’.

· People’s anger against bureaucracy and BJP MLAs

Against the Congress

· Long absence of senior leaders of Congress in the state. They are being considered more as ‘outsiders’, who have spent less time in state politics.

· Weak frontal organisations of Congress that lack grassroots connectivity.

· A large section of voters still unable to forget Digvijay Singh’s disastrous second term (1998 to 2003) and poor infrastructure that earned the state the infamous ‘Bimaru’ tag.

· Lack of cohesive leadership in the state over the last 15 years, which has weakened the party at organisational level.

· Soft-Hindutva line adopted by the Congress won’t make much dent in BJP, rather it has attracted more criticism.

करतारपुर कॉरिडोर का असली श्रेय पाक प्रधानमंत्री इमरान खान को जाता है: सिद्धू


सिद्धू का यह बयान ऐसे दिन आया है जब पूरा देश 26/11 मुंबई आतंकी हमले की 10वीं बरसी में शोक में डूबा है


सिद्धू का ‘बाजवा प्रेम’ ओर ‘इमरान स्तुति’ जग जाहिर है, पाकिस्तान जाने के लिए वह इतने उतावले रहते हैं की वह दूसरी बार ‘इमरान श्लाघा’ करते हुए फिर से देश के माहौल भावनाओं को समझने में नाकामयाब रहे। इसमें उनकी गलती नहीं है, कपिल शर्मा ने उन्हे जिस कुर्सी पर बैठा दिया था उस पर से उतारे जाने की बाद भी सिद्धू उस मोड से बाहर नहीं आ पा रहे हैं। कभी महिलाओं के लिए उन्हे ठोकने की बात करते हैं और अब जब समूचा राष्ट्र 26/11 के पाक प्रायोजित हमले की 10वीं बरसी का शोक माना रहा है वहीं सिद्धू को पाकिस्तान प्रधानमंत्री में एक भावुक बेचारा व्यक्ति दिखाई देता है।

वह करतारपुर कॉरीडोर से स्वयं को सिख धर्म के एक जाँबाज तारनहार की तरह दिखाना चाहते हैं की जो काम दशकों से टकसाली नेता एसजीपीसी के नेता सिख धरम के पुरोधा नहीं कर पाये वह सिद्धू ने कर दिखाया। ऐसा कर वह बादल परिवार को सिख राजनीति से दूर धकेलने में अपनी कामयाबी ढूंढ रहे हैं। परंतु वह भूल जाते हैं की इन्ही सिख बहादुरों की लाशों को पुंजाब में बिछा कर पाकिस्तान इतराता फिरता है, यही खेल वह अब काश्मीर में खेल रहा है।  कसाब को फांसी हो चुकी है पर आज तक पाकिस्तान कसाब से अपने नकारता ही रहा है ओर तो और 26/11 के मुख्यारोपी वहाँ अपनी राजनैतिक ज़मीन मजबूत कर रहे हैं 


 

‘करतारपुर कॉरिडोर का असली श्रेय पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान को जाता है.’ ऐसा कहना है पंजाब के स्थानीय निकाय मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू का. सिद्धू ने पत्रकारों से बात करते हुए कहा, करतारपुर कॉरिडोर का असली श्रेय इमरान खान को जाता है. जिन्होंने इसके निर्माण के लिए कई सालों तक प्रार्थनाएं की. इस शख्स ने पाकिस्तान के प्रधान मंत्री की कुर्सी के लिए 24 साल का संघर्ष किया है.’

सिद्धू ने कॉरिडोर को लेकर चल रही राजनीति से दूर रहने की सलाह देते हुए कहा कि पूरी दुनिया खुश है. धर्म को हमेशा राजनीति से दूर रखना चाहिए. नुसरत फतेह अली खान और गुलाम अली जैसे लोगों को इन दोनों देशों की दूरियां कम करने का मौका दीजिए.

सिद्धू का यह बयान ऐसे दिन आया है जब पूरा देश 26/11 मुंबई आतंकी हमले की 10वीं बरसी में शोक में डूबा है. इस हमले में 10 पाकिस्तानी आतंकवादियों ने 166 लोगों की हत्या कर दी थी. एक दिन पूर्व ही पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने आतंकवादी हमलों का हवाला देते हुए कॉरिडोर के शिलान्यास समारोह में शामिल होने वाले पाकिस्तान के निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया था.

वहीं सिद्धू ने रविवार को ही इस समारोह में शामिल होने का निमंत्रण स्वीकार कर लिया था. पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी के निमंत्रण के स्वीकार करते हुए सिद्धू ने कहा, ‘यह मेरे लिए बहुत सम्मान और खुशी कि बात है कि मैं 28 नवंबर को होने जा रहे करतरपुर साहिब के शिलान्यास कार्यक्रम में शामिल होऊंगा.मैं इस ऐतिहासिक अवसर पर आपसे मिलने के लिए तत्पर(उतावला) हूं.’

क्या है करतारपुर साहिब और क्या है इसकी अहमियत

करतारपुर साहिब वो जगह है, जहां 1539 ईं. में सिख धर्म के पहले गुरु नानक देव के निधन के बाद पवित्र गुरुद्वारे का निर्माण करवाया गया था. इस जगह की अहमियत इसलिए है क्योंकि यहां गुरु नानक देव ने अपने जीवन के अंतिम 18 साल बिताए थे.

पाकिस्तान ने गुरु नानक की 549वीं जयंती के अवसर पर नवंबर में 3800 सिख श्रद्धालुओं को वीजा जारी किया था. करतारपुर कॉरिडोर बन जाने से लाखों सिख श्रद्धालु पाकिस्तान में रावी नदी के तट पर स्थित गुरुद्वारा दरबार साहिब करतारपुर में मत्था टेक सकेंगे.

निरंकारी भवन अटैक :आतंकी परमजीत बाबा तथा जावेद ने दिए थे धमाके के निर्देश- डी जी पी

Chandigarh :

निरंकारी डेरे पर धमाका करने के पीछे सिर्फ पाकिस्तान में बैठा हैप्पी पी एच डी अकेला ही मास्टरमाइंड नहीं था। इटली में रह रहे आतंकी परमजीत सिंह बाबा तथा पाकिस्तान में बैठे जावेद ने आतंकी अवतार तथा सरबजीत को डेरे में हमला करने संबंधी निर्देश दिए थे। चंडीगढ़ में आतंकी अवतार सिंह की गिरफ़्तारी की पुष्टि करते हुए  डी जी पी सुरेश अरोड़ा ने बताया कि अवतार सिंह को गिरफ़्तार कर उसके कब्ज़े से। 32 बोर की पिस्तौल तथा 25 ज़िंदा गोलियां (कारतूस ) भी बरामद किये हैं। यह वही रिवाल्वर है जिससे सरबजीत ने डेरे के मुख्य द्वार पर गेटकर्मी के समक्ष ताना था।

Terrorist violence in Punjab rooted in Badal’s electoral politics: Tript Bajwa

Photo & News by Rakesh Shah

Chandigarh, Nov 22:

Punjab Rural and Urban Development Minister Mr Tript Rajinder Singh Badal today said the rise of terrorism in the State was rooted in the electoral politics of now 5-time Chief Minister and Shiromani Akali Dal Patron Mr Parkash Singh Badal. He called upon his to apologise to the people of Punjab for his compromising politics as Mr Badal had even gone to the extent of signing Khalistan memorandum that was submitted to the United Nationals general secretary.

“It was Mr Badal’s appeasement politics that unleashed violence in peaceful Punjab in 1978 when he was the Chief Minister heading the Akali Dal-Janata Party government in the state. The present situation again is rooted in his electoral designs of appeasement of Dera Sacha Sauda. He is still to answer as to why Akal Takht Jathedar Giani Gurbachan Singh and his associates were summoned by him to his official residence in Chandigarh in September 2015 to grant pardon to Dera chief Gurmit Ram Rahim Singh”, he said.

He said it was ironic that the person who personally was responsible for putting Punjab on fire was accusing the Congress.

He said had Mr Badal sincerely taken steps, the situation that arose following the theft of the Bir of Guru Granth Sahib from gurdwara in Burj Jawahar Singhwala on June 1, 2015 could have been avoided. That was not to be as he and his son and then deputy chief minister Sukhbir Singh Badal had negotiated with Dera Sacha Sauda chief Gurmit Ram Rahim Singh for support in elections.

Mr Bajwa reminded Mr Badal that the charges of appeasement of a section of people by him had been leveled by none else but then Shiromani Gurdwara Parbandhak Committee chief Jathedar Gurcharan Singh Tohra and Akali Dal President Jagdev Singh Talwandi in 1979. It was the Badal government that did not file appeal against the acquittal of Nirankari chief Baba Gurbachan Singh and others accused in the Sikh-Nirankari clash on April 13, 1978 in Amritsar. He was the chief minister.

He pointed out it was the Akali Dal working committee that at its meeting on August 20, 1980 has provided legitimacy to the killers by hailing the assassination of Nirankari chief Baba Gurbachan Singh.

He said it was Mr Badal who hobnobbed with the killers and in case he so desired, he could release his pictures attending a conclave where terrorist leader Gurbachan Singh Manochahal was announced as the Akal Takht Jathedar. He said it was ironic that the person who had signed the Khalistan memorandum was accusing the Congress of being in league with the disruptionist forces

‘लोकतन्त्र बचाने’ के नाम पर विधान सभाएं भंग होती रहीं हैं


इतिहास के आइने में देखें तो कांग्रेस के केंद्र में रहने के दौरान राज्यों की गैर-कांग्रेसी सरकारों पर गिरती रही है राज्यपाल की गाज, भंग होती रही हैं विधानसभा और बर्खास्त होती रही हैं सरकारें


जम्मू-कश्मीर की घाटी में सियासी बवाल है. राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा भंग कर दी है. ये फैसला उस वक्त लिया गया जब जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने की कवायद चल रही थी. एक दूसरे के विरोधी माने जाने वाले पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस राज्य में सरकार बनाने के लिए गठबंधन पर विचार कर रहे थे. पीडीपी ने सरकार बनाने का दावा भी पेश कर दिया था. लेकिन राज्यपाल ने विधानसभा भंग करते हुए कहा कि वो अयोग्य गठबंधन को सरकार बनाने का मौका नहीं दे सकते हैं.

राज्यपाल के इस बयान पर बहस छिड़ गई है. सवाल उठ रहे हैं कि विरोधी विचारधारा वालों को सरकार बनाने से रोकने का फैसला कोई राज्यपाल भला कैसे कर सकता है? नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अबदुल्ला ने कहा कि. ‘साल 2015 में भी बीजेपी और पीडीपी ने विपरीत विचारधारा के बावजूद गठबंधन किया था.’

उस गठबंधन को जन्नत में बनी जोड़ी तो नॉर्थ और साउथ पोल का मिलन भी कहा गया था. ऐसे में पीडीपी-नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के संभावित गठबंधन पर राज्यपाल का एतराज समझ से परे है. बहरहाल, फैसले से विवाद खड़ा हो गया और सियासी घमासान भी तेज हो गया है. लेकिन ऐसा नहीं है कि जम्मू-कश्मीर के सियासी इतिहास में पहली दफे ऐसा फैसला लिया गया हो. कई दफे देश के तमाम राज्यों में सियासी जरुरतों के मुताबिक सरकारें बर्खास्त तो विधानसभा भंग की गई हैं.

इतिहास के आइने में झांकने पर ऐसे तमाम राज्यपालों की तस्वीरें मिलती हैं. उन राज्यपालों ने सरकार गिराने का फैसला लेकर राजनीतिक तूफान पैदा किया तो विवाद कोर्ट की दहलीज तक भी पहुंचे.

कर्नाटक के पूर्व राज्यपाल हंसराज भारद्वाज, यूपी के पूर्व राज्यपाल रोमेश भंडारी, बिहार में बूटा सिंह और झारखंड में सिब्ते रज़ी के फैसले हमेशा किसी न किसी बहाने याद किए जाते रहेंगे.

क्या केंद्र में बीजेपी नहीं होती तो बची रह पाती गोवा सरकार

गोवा में बीजेपी की सरकार है. मनोहर पर्रिकर राज्य के मुख्यमंत्री हैं. खराब स्वास्थ की वजह से पर्रिकर गोवा, मुंबई, अमेरिका और दिल्ली के एम्स में इलाज कर वापस गोवा लौटे हैं.  कांग्रेस का आरोप है कि पर्रिकर बीमारी की वजह से सीएम का कार्यभार सुचारु रूप से नहीं संभाल पा रहे हैं. ऐसे में कांग्रेसी विधायकों ने एक पूर्णकालिक सीएम की मांग की है. यहां तक कि बहुमत साबित कर सरकार बनाने की अपील की है. मनोहर पर्रिकर के स्वास्थ्य पर होने वाली राजनीति को अस्सी के दशक में एन टी रामाराव के शासन काल से जोड़कर देखा जा सकता है. बस फर्क इतना है कि गोवा में राज्यपाल ने सरकार गिराने जैसी विवादास्पद और असंवैधानिक कोशिश नहीं की.

साल 1984 में एन टी रामाराव अपनी बीमारी के इलाज के लिए अमेरिका गए हुए थे. वो दिल की बीमारी से ग्रस्त थे और अमेरिका में उनका ऑपरेशन हुआ था. लेकिन जब तक एनटी रामाराव वापस लौटते उनकी सरकार गिर चुकी थी. आंध्र प्रदेश के राज्यपाल ठाकुर रामलाल ने रामाराव की सरकार को बर्खास्त कर दिया था. खास बात ये है कि रामाराव की सरकार पूर्ण बहुमत में थी और उसे जम्मू-कश्मीर में पीडीपी-कांग्रेस और नेशनल कॉन्फेंस की तरह सदन में बहुमत भी नहीं साबित करना था. इसके बावजूद ठाकुर रामलाल ने करियर की बड़ी रिस्क उठाई और बाद में कुर्सी गंवा कर कीमत भी चुकाई. उनकी जगह फिर शंकर दयाल शर्मा राज्यपाल बने और एन टी रामाराव दोबारा सीएम बने.

दरअसल, संघीय व्यवस्था में राज्यपाल केंद्र का प्रतिनिधित्व करते हैं. संवैधानिक आवरण से तैयार हुआ ये गौरवपूर्ण पद मूल रूप से विशुद्ध सियासी इस्तेमाल के लिए होता है. ऐसे में राज्यपाल के बयान से विपक्ष किसी अदालत के फैसले की सी उम्मीद नहीं कर सकता और न ही वो फैसला पत्थर की लकीर होता है. यही वजह होती है कि असंतोष फूटने पर राज्यपाल के फैसले के खिलाफ कोर्ट का दरवाजा खटखटाया जाता है.

जब बहुमत वाली बोम्मई सरकार को किया बर्खास्त

अस्सी के दशक में कर्नाटक में एस आर बोम्मई की सरकार ने भी राज्यपाल के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. कर्नाटक में तत्कालीन राज्यपाल पी वेंकटसुबैया ने बोम्मई सरकार को बर्खास्त कर दिया था. राज्यपाल का कहना था कि बोम्मई सरकार विधानसभा में अपना बहुमत खो चुकी थी. इस फैसले के खिलाफ बोम्मई ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और लौटा हुआ साम्राज्य हासिल किया.

पीडीपी की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ने सरकार बनाने का दावा पेश करने वाला पत्र सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दिया था. जिस पर जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने कहा कि सोशल मीडिया से न तो सरकार चलेगी और न बनेगी. इसी तरह पूर्व में बोम्मई सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि बहुमत होने न होने का फैसला विधानसभा में होना चाहिए, कहीं और नहीं.

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या दावा पेश करने वाली पार्टियों को सरकार बनाने का एक मौका नहीं दिया जाना चाहिए? भले ही वो दो सीटों वाले सज्जाद लोन की पार्टी होती या फिर पीडीपी-नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस का गठबंधन?

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अमूमन राज्यों की गैर कांग्रेसी सरकारों के खिलाफ राज्यपाल के विवादित फैसले ज्यादा सामने आए हैं.

हरियाणा के राज्यपाल जी डी तापसे ने देवीलाल के बहुमत के दावे के बावजूद भजनलाल को सरकार बनाने का न्योता दे दिया था. भजनलाल ने देवीलाल के विधायकों को तोड़कर सरकार बना ली थी. देवीलाल राज्यपाल को विधायकों के हस्ताक्षर का समर्थन वाला पत्र देकर सरकार बनाने के न्योते का इंतजार करते रह गए और राज्यपाल तापसे ने भजनलाल को सीएम पद की शपथ दिला दी.

हिंदुस्तान की सियासत में राज्यपालों की हैसियत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वो रातों-रात मौजूदा सरकार को बर्खास्त कर नया सीएम  नियुक्त कर देते हैं. बाद में भले ही उस नवनियुक्त सीएम की अवधि सिर्फ दो दिन ही क्यों न हो. जगदंबिका पाल को देश एक दिन के मुख्यमंत्री के तौर पर जानता है. साल 1998 में यूपी के राज्यपाल रोमेश भंडारी ने ऐसा कारनामा किया कि यूपी के सीएम ऑफिस में दो-दो सीएम नजर आ रहे थे.

दरअसल, 21 फरवरी की रात साढ़े दस बजे रोमेश भंडारी ने यूपी में कल्याण सिंह की सरकार को बर्खास्त कर दिया और जगदंबिका पाल को सीएम बना दिया. राज्यपाल के फैसले के खिलाफ कल्याण सिंह इलाहाबाद हाईकोर्ट चले गए. हाईकोर्ट ने राज्यपाल के फैसले को असंवैधानिक करार देते हुए कल्याण सरकार को बहाल कर दिया.

जब ‘लोकतंत्र की रक्षा’ के नाम पर बूटा सिंह ने विधानसभा भंग की

बिहार में साल 2005 के विधानसभा चुनाव में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था. जिसकी वजह से तत्कालीन राज्यपाल बूटा सिंह ने विधानसभा भंग कर डाली. उस समय केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी जबकि राज्य में एनडीए सरकार बनाना चाहती थी. एनडीए ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और सुप्रीम कोर्ट ने बूटा सिंह के फैसले को असंवैधानिक करार दिया और राज्य में नीतीश कुमार की सरकार बनी. राज्यपाल बूटा सिंह की दलील थी कि उन्होंने लोकतंत्र की रक्षा के लिए आधी रात को विधानसभा भंग कर दी.

इसी तरह साल 2005 में झारखंड में त्रिशंकु विधानसभा के बावजूद शिबू सोरेन को राज्य का मुख्यमंत्री बनने का मौका मिल गया. झारखंड के तत्काल राज्यपाल सैयद सिब्ते रज़ी ने शिबू सोरेन को सरकार बनाने का न्योता दिया. हालांकि शिबू सोरेन अपना बहुमत साबित नहीं कर सके. 9 दिनों के बाद सोरेन को इस्तीफा देना पड़ा और अर्जुन मुंडा की दूसरी बार सरकार बनी.

हाल ही में कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद किसी भी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला. हालांकि बीजेपी 104 विधायकों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. राज्यपाल वजूभाई वाला ने बीजेपी विधायक दल के नेता बी एस येदियुरप्पा को सरकार बनाने का न्योता भी दिया. लेकिन कांग्रेस ने जेडीएस का समर्थन करते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा दिया.  हालांकि कोर्ट ने येदियुरप्पा को सरकार बनाने से रोका नहीं लेकिन येदियुरप्पा सदन में बहुमत साबित नहीं कर सके और अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा.  जिसके बाद कांग्रेस ने जेडीएस के साथ मिलकर सरकार बना ली.

B S Yeduyurappa speaks at a meet the press

इससे पहले कर्नाटक में राज्यपाल की एक दूसरी तस्वीर भी देखने को मिली थी. साल 2009 में केंद्र में यूपीए की सरकार थी और यूपीए सरकार में कानून मंत्री रहे हंसराज भारद्वाज को कर्नाटक का राज्यपाल बनाया गया था. हंसराज भारद्वाज ने बीजेपी की येदियुरप्पा सरकार को बर्खास्त कर दिया था. बर्खास्ती के पीछे वजह ये बताई गई थी कि येदियुरप्पा ने बहुमत हासिल करने के लिए खरीद-फरोख्त का सहारा लिया था.

अब जम्मू-कश्मीर के मामले में राज्यपाल सत्यपाल मलिक का कहना है कि उन्होंने हॉर्स ट्रेडिंग को रोकने के लिए ही ये फैसला लिया है. दरअसल राजनीति की ये परंपरा है कि केंद्र में सत्तासीन होने के बाद अगर राज्य में दूसरी सरकारों को गिराने का मौका मिले तो चूकना नहीं चाहिए. कांग्रेस सरकार ने जो किया वही जनता पार्टी ने भी 1977 में केंद्र में सरकार बनाने के बाद किया था.

जम्मू-कश्मीर में अबतक आठ बार राज्यपाल शासन लग चुका है. जम्मू-कश्मीर में सरकारों को बर्खास्त करने का आगाज़ भी कांग्रेस के शासन के दौर में हुआ तो इसका सिलसिला भी उस दौर में तेजी से आगे बढ़ा. साल 1953 में शेख अब्दुल्ला की सरकार को सदर-ए-रियासत कहे जाने वाले डॉक्टर कर्ण सिंह ने बर्खास्त कर दिया था. 24 साल बाद 26 मार्च 1977 में एक बार फिर शेख अब्दुल्ला की सरकार को राज्यपाल एलके झा ने गिरा दिया. उस वक्त केंद्र में इंदिरा गांधी की सरकार थी. इसके बाद साल 1984 में फारूक अबदुल्ला और 1986 में गुलाम मोहम्मद शाह की सरकारें गिराई गईं.

बहरहाल, ये जरूरी नहीं कि राज्यपाल के विवेक पर लिए गए फैसले वाकई लोकतंत्र के हित में हों क्योंकि कुछ राज्यपालों के विवादास्पद फैसलों ने इस पद की गरिमा और विश्वसनीयता को ठेस पहुंचाने का काम किया है.

काश्मीर के रास्ते आपना फायदा ढूंढती कांग्रेस


कांग्रेस ने सिर्फ कश्मीर का हित नहीं देखा है. बल्कि लोकसभा चुनाव से पहले बड़ा राजनीतिक दाव चला है


जम्मू कश्मीर के राज्यपाल ने विधानसभा भंग करने का फैसला किया है. इस फैसले की आलोचना हो रही है. पीडीपी, कांग्रेस, नेशनल कॉन्फ्रेंस पहली बार एक साथ आ रहे थे. गवर्नर के फैसले के बाद ये सभी दल हतप्रभ हैं. अब ये दल बीजेपी पर आरोप लगा रहे हैं कि केंद्र सरकार के इशारे पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को रोका गया है.

PDP का रवैया ज्यादा तल्ख है. राज्यपाल के रवैये से नाराज़ पीडीपी की नेता ने कहा कि बीजेपी के नेता उनकी पार्टी को तोड़ने का प्रयास कर रहे थे, जब इसमें कामयाबी नहीं मिली तो केंद्रीय एजेंसियों का डर दिखाया गया, अब जब सरकार बनने जा रही थी तो बीजेपी ने राज्यपाल के ज़रिए ये फैसला करा दिया है.

कश्मीर के इस राजनीतिक शह मात में कांग्रेस को कामयाबी मिली है. कांग्रेस ने बीजेपी के बरअक्स ये साबित करने का प्रयास किया है कि वो राज्य में चुनी हुई सरकार को तरजीह दे रही थी. वहीं कांग्रेस ने पीडीपी के साथ जो तल्खी थी वो भी कम कर ली है. एनसी के साथ कांग्रेस के रिश्ते पहले से ही ठीक थे.

अब इस फैसले से कांग्रेस ने एक बड़ा राजनीतिक संदेश भी दिया है. कर्नाटक के बाद कश्मीर में भी कांग्रेस बीजेपी को रोकने के लिए कुर्बानी दे रही थी. इससे छोटे दलों को लोकसभा चुनाव से पहले एक मैसेज है कि कांग्रेस सब को साथ लेकर चलने के लिए तैयार है.

कई दौर की मंत्रणा के बाद फैसला

जम्मू कश्मीर में बीजेपी के समर्थन वापसी के बाद से ही कांग्रेस में कशमकश चल रही थी. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के यहां कई दौर की बैठक भी हुई, जिसमें राहुल गांधी भी शामिल हुए, कांग्रेस के सूत्रों का दावा है कि राजनीतिक हित की जगह कश्मीर के हित में फैसला लिया गया कि वहां घाटी की सबसे बड़ी पार्टियों के साथ ही जाना चाहिए.

इन बैठकों में कांग्रेस के राज्य के नेताओं के साथ बातचीत की गई, इसके अलावा जो लोग कश्मीर के बारे में जानकार हैं उनसे भी राय मशविरा किया गया था. कांग्रेस पहले भी राज्य में पीडीपी और एनसी को सरकार बनाने के लिए समर्थन दे चुकी है, इसलिए फैसला लेना मुश्किल नहीं था.

 

कांग्रेस का राजनीतिक दाव

कांग्रेस ने सिर्फ कश्मीर का हित नहीं देखा है. बल्कि लोकसभा चुनाव से पहले बड़ा राजनीतिक दाव चला है. कांग्रेस ने ये दिखाने की कोशिश की है कि जब कांग्रेस पीडीपी और एनसी को साथ ला सकती है, तो लोकसभा चुनाव में रीजनल पार्टियों को इकट्ठा कर सकती हैं. जिस तरह से दो दल साथ आए हैं उसको कांग्रेस उदाहरण के तौर पर पेश कर सकती है. जो रीजनल पार्टियां एक दूसरे के खिलाफ हैं, वो भी कांग्रेस के साथ आ सकती हैं. यही नहीं कांग्रेस ये भी दिखाने का प्रयास कर रही है कि सत्ता पाना महत्वपूर्ण नहीं है जितना बीजेपी को सत्ता में आने से रोकना है.

बीजेपी बनाम कांग्रेस

बीजेपी 2014 के बाद जिस तरह से मजबूत हुई है. उससे सहयोगी दलों के प्रति बीजेपी का रवैया बदला है. कश्मीर में पीडीपी से अलग होने का फैसला अचानक लिया गया था. इस तरह टीडीपी के साथ बीजेपी ने रिश्ता निभाने का प्रयास नहीं किया है. बल्कि टीआरएस और वाईएसआर कांग्रेस के साथ नज़दीकी बढ़ाई गई. यही हाल बिहार में आरएलएसपी के साथ हो रहा है. शिवसेना भी नाराज़ चल रही है. एआईडीएमके में टूट का आरोप भी बीजेपी पर है, लेकिन इन सब मुद्दों पर बीजेपी बेपरवाह नज़र आ रही है.

इस तरह का रवैया पहले मज़बूत कांग्रेस का रहता था. कांग्रेस पर कभी सहयोगी दलों को ही तोड़ने का आरोप लगाया जाता था. कांग्रेस के बारे में ये कहा जाता था कि जो नज़दीक गया उसका राजनीतिक वजूद खत्म हो जाता था. राजनीतिक बाज़ी उलट गयी है. अब यही आरोप बीजेपी पर लग रहा है. जो काम पहले अटल बिहारी वाजपेयी के समय बीजेपी करती थी वो अब कांग्रेस करने लगी है.

90 के दशक में बीजेपी ने शिवसेना की सरकार का समर्थन किया. ममता बनर्जी और नीतीश कुमार को पूरा सहयोग दिया. नेशनल कॉन्फ्रेंस को भी एनडीए के साथ रखा गया, डीएमके एनडीए की सहयोगी बनी रही, ओडिशा और आन्ध्र में नवीन पटनायक और टीडीपी के काम में कोई दखल नहीं दिया गया. यूपी में मुलायम सिंह की सरकार को बनवाने में बीजेपी की अहम भूमिका थी.

अब ये काम कांग्रेस कर रही है, कर्नाटक में जेडीएस का समर्थन, कश्मीर का फैसला सब यही दर्शाता है कि कांग्रेस गठबंधन को लेकर बीजेपी की नीति पर चल रही है. वही बीजेपी पुराने कांग्रेसी ढर्रे पर चल रही है.

महागठबंधन का एजेंडा

कांग्रेस लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी के सामने बड़ा गठबंधन खड़ा करने की कोशिश कर रही है. हालांकि अभी कोई खास सफलता नहीं मिल पाई है. लेकिन कश्मीर का फैसला कांग्रेस की राह आसान कर सकता है.

उत्तर भारत में कई राज्यों का चुनाव चल रहा है, इसमें कांग्रेस को महागठबंधन बनाने में कामयाबी नहीं मिली है. कांग्रेस को गंभीरता से इस ओर ध्यान देने की ज़रूरत है. हालांकि कई बड़े दल का साथ मिला है. कर्नाटक में जेडीएस का साथ मिला है जिसका अच्छा नतीजा उपचुनाव में देखने को मिला है.

टीडीपी के नेता चंद्रबाबू नायडू भी कांग्रेस के साथ हैं, जिसका नतीजा तेलंगाना चुनाव के बाद पता चलेगा. लेकिन टीडीपी के मुखिया कई सरकारों का सहयोग कर चुके हैं. 1996 में जनता दल की सरकार और बाद में एनडीए की सरकार के संयोजक भी थे. बीजेपी से हाल फिलहाल में ही अलग हुए हैं. कांग्रेस को साउथ में साथी मिल गए हैं, आंध्र और तेलंगाना में टीडीपी, कर्नाटक में जेडीएस, तमिलनाडु में डीएमके और केरल में यूडीएफ चल रहा है.

महाराष्ट्र में एनसीपी के साथ सीटों के तालमेल पर बातचीत जारी है. कांग्रेस के नज़रिए से अच्छा हल निकलने की उम्मीद है. लेकिन कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौती उत्तर और पूर्वोत्तर भारत में है.

 

कांग्रेस की चुनौती

कांग्रेस की बड़ी चुनौती उत्तर प्रदेश में है. जहां से लोकसभा की 80 सीट है. बीजेपी और सहयोगी दल के पास 73 सीट हैं. कांग्रेस के सामने परेशानी है कि एसपी-बीएसपी के प्रस्तावित गठबंधन में शामिल होने के लिए दोनों दलों को मनाए, ऐसा हो जाने पर सम्मानजनक सीट हासिल करने का सिर दर्द है. कांग्रेस के लिए यूपी में अपने सभी बड़े नेताओं को चुनाव लड़ाने के लिए सीटों की दरकार है.

दिल्ली में कांग्रेस तय नहीं कर पा रही है कि आप से कोई तालमेल करना है या अकेले लड़ना है. पार्टी के केंद्रीय नेताओं और राज्य के नेताओं के बीच मतभेद है. राज्य के नेता अकेले लड़ने के पैरोकारी कर रहे हैं. हालांकि बिहार में कांग्रेस का गठबंधन आरजेडी के साथ है, लेकिन इसमें आरएलएसपी या लोक जनशक्ति पार्टी के तड़के की ज़रूरत है.

कांग्रेस की सबसे बड़ा सिरदर्द बंगाल है. जहां टीएमसी और लेफ्ट को एक साथ लेकर चलना आसान नहीं है. हालांकि राज्य में बीजेपी की ताकत बढ़ रही है लेकिन दोनों दल आमने सामने है. ऐसे में टीएमसी की नेता को लेफ्ट के साथ लाना मुश्किल काम है. कश्मीर फॉर्मूला कितना कारगर होगा ये कयास लगाना आसान नहीं है

वहीं असम में बीजेपी मजबूत है. बीजेपी को हराने के लिए एआईयूडीएफ का साथ ज़रूरी है. लेकिन असम में इस गठबंधन को पार लगाने के लिए तरुण गेगोई को बैकसीट पर रखना ज़रूरी है. हालांकि जिस तरह राहुल गांधी तरुण गोगोई के साथ हैं उससे ये फैसला लेना आसान नहीं है.

कांग्रेस की मजबूरी

कांग्रेस की मजबूरी है कि उत्तर भारत के तकरीबन 175 सीटों पर बीजेपी के मुकाबले रीजनल पार्टियां हैं, कांग्रेस इन्हीं दलों के आसरे पर है. बीजेपी धीरे-धीरे ओडिशा और बंगाल में पैर पसार रही है. रीजनल पार्टियों और कांग्रेस का वोट बैंक एक समान है इसलिए तालमेल में परेशानी हो रही है