धार्मिक ही नहीं सामाजिक महत्व भी रखता है माता खीर भवानी का मेला
कश्मीर में आतंक का साया होने के बाद भी हर साल हज़ारों की संख्या में देश और दुनिया में बसे कश्मीरी पंडित मेले में शामिल होने के लिए आते हैं। इस यात्रा के लिए सरकार की तरफ से भी यात्रियों की सुविधा के लिए पर्याप्त इंतज़ाम किए जाते हैं और उन्हें हरसंभव सहायता दी जाती है। लेकिन दुर्भाग्य से लोग इस साल मेले का आनंद नहीं ले पाएंगे। क्षीर भवानी माता के लिए लोगों की आस्था के कारण आज क्षीर भवानी मेले में न सिर्फ कश्मीरी पंडित बल्कि अन्य राज्य के लोग भी भाग लेते है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि माता क्षीर भवानी कौन थी और आखिर मंदिर में मौजूद कुंड कैसे अपना रंग बदल लेता है? अगर नहीं जानते तो आज इस लेख में आपको क्षीर भवानी के विषय में पूरी जानकारी दी जाएगी। उम्मीद करते हैं कि इस लेख में चमत्कारी क्षीर भवानी मंदिर और मेले के बारे में बताई गयी बातों को पढ़ने के बाद मेले के आयोजित न होने की निराशा में थोड़ी कमी आएगी
धर्म/संस्कृति डेस्क, डेमोक्रेटिकफ्रंट॰कॉम – चंडीगढ़ :
कौन हैं माता क्षीरभवानी?
श्रीनगर से 24 किलोमीटर दूर कश्मीर घाटी में स्थित खीर भवानी मंदिर हिंदू देवी रगन्या को समर्पित है। क्षीरभवानी माता, को शामा नाम से भी जाना जाता था। दंतकथाओं के अनुसार माता रगन्या पहले श्रीलंका में विराजमान थीं, लेकिन रावण के शासनकाल के दौरान वे श्रीलंका से कश्मीर आ गईं। ऐसा कहा जाता है कि वैष्णवी प्रवृत्ति होने के चलते माता रगन्या राक्षसों के तौर-तरीकों और उनकी गलत कर्मों से नाराज़ हो गईं। रावण के पाप का घड़ा जब भर गया तो भगवान श्रीराम का आगमन वहां हुआ और उन्होंने रावण का वध कर दिया।
रावण की मृत्यु के बाद श्रीराम ने हनुमानजी को आदेश दिया कि वे मां को उनके मनचाहे स्थान पर छोड़ आएं। माता क्षीर भवानी ने सतीसर (कश्मीर भूमि) जाने की इच्छा ज़ाहिर की। तब देवी रगन्या की आज्ञा का पालन करते हुए हनुमानजी उन्हें 360 नागों के साथ श्रीनगर ले आए। कश्मीर में गंदरबल जिले के तुलमुला क्षेत्र में माता क्षीरभवानी का प्रमुख मंदिर स्थापित है, जिसकी स्थापना महाराजा प्रताप सिंह ने की थी। इस मंदिर में पानी का एक कुंड भी है, जिसे चमत्कारिक माना जाता है।
हज़ारों दीये और विशेष खीर से होती है माँ की पूजा
क्षीरभवानी मेले के समय क्षीर भवानी मंदिर में माहौल भक्तिमय बना रहता है। माता के मंदिर में सुबह और शाम दो समय आरती का आयोजन होता है, जिसमें एक साथ हजारों दीये जलाये जाते हैं। एक साथ इतने सारे दीयों को जलना लोगों के बीच आकर्षण का केंद्र रहता है। सूरज की पहली किरण के साथ ही मंदिर में भक्तों का पहुँचना शुरू हो जाता है।
पूजा के दौरान मां का श्रृंगार कर विभिन्न किस्म का भोग लगाया जाता है। प्रसाद के रूप में ड्राई फ्रूट, कंड(शूगर कैंडी से बना)दूध और विशेष रूप से खीर चढ़ाई जाती है। मंदिरों में फूलों से विशेष सजावट की जाती है। मेले के दौरान सड़क से लेकर मंदिर परिसर तक दर्जनों स्टाल लगाए जाते हैं। ये स्टाल वहां के स्थानीय लोग लगाते हैं। क्षीर भवानी मंदिर में श्रद्धालुओं द्वारा भजन कीर्तन भी किया जाता है। इस साल मेला नहीं लगने से वहां के कई स्थानीय लोग, जो मेले के आसपास दुकानें लगाते थे और जिनकी कमाई में इससे बढ़ोतरी होती थी, वो लोग मुश्किल मे आ जाएंगे।
भविष्यवाणी करता है क्षीरभवानी मंदिर का कुंड
श्रीनगर से 24 किलोमीटर की दूरी पर स्थित माता क्षीरभवानी मंदिर में एक रहस्य्मयी पानी का कुंड भी है। इस कुंड के विषय में यह कहा जाता है कि दुनिया में जब भी कोई आपदा आने वाली होती है, तो इस कुंड के पानी का रंग बदल जाता है। स्थानीय लोगों के अनुसार माता आज भी इस जलकुंड में वास करती हैं। कश्मीरी पंडित लोगों का कहना है कि 90 के दशक में जब कश्मीर में हालात खराब हो गए थे, तो उस समय इस जल कुंड का रंग एकदम काला हो गया था, जो कि बुरे समय का प्रतीक है। हर साल ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की अष्टमी में होने वाले पूजा से पहले इस कुंड में वहाँ के पुरोहित दूध और खीर डालते हैं। इस खीर से कुंड का पानी रंग बदल जाता है। इस कुंड और मंदिर के दर्शन करने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं।
मां क्षीर भवानी का मेला सिर्फ मेला न होकर मिलन स्थली है, अपनी जड़ों से जुड़ने, अपनी साझा विरासत को फिर से मजबूत बनाने का जरिया है। कई लोगों के लिए यह मेला उनके घर में चूल्हा जलाने का जरिया है। कोरोना के संक्रमण के खतरे को देखते हुए इस बार यह मेला रद्द कर दिया गया है। इससे कश्मीर के कई लोग मायूस भी हैं क्योंकि इस बार उन्हें अपने पुराने दोस्तों, पड़ोसियों से मिलने का मौका नहीं मिलेगा। इस साल यह मेला 18 जून को है।
ज्येष्ठ अष्टमी के दिन माता क्षीर भवानी की वार्षिक पूजा होती है। आतंकवाद के कारण जब कश्मीरी पंडितों को वादी में सामूहिक पलायन करना पड़ा तो करीब तीन वर्ष तक मेले में लोगों की संख्या नाममात्र रही, लेकिन बाद में यह मेला फिर परवान चढ़ने लगा। बीते 30 सालों में यह मेला सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं रह गया बल्कि यह एक मिलन स्थली बन चुका है। देश-विदेश में बसे कश्मीरी पंडित ही नहीं, वादी के कई मुस्लिम परिवार भी तुलमुला गांदरबल में इस मेले का इंतजार करते हैं।
कश्मीरी हिन्दू वेलफेयर सोसाइटी के सचिव चुन्नी लाल ने कहा कि परिस्थितियां ही कुछ ऐसी हैं कि मेला स्थगित हुआ है। वर्ष 1991-92 के दौरान भी यहां मेला नहीं लगा था। हमारे कई रिश्तेदार जो यहां से चले गए हैं, वह इसी मेले में भाग लेने के लिए आते हैं। मेले के दौरान ही हमारा मिलना-जुलना होता है।
लॉकडाउन खुलते ही कश्मीर बुलाया
जम्मू में रहने वाले दीपक जी कौल ने कहा कि माता क्षीर भवानी का मेला हमारे लिए अपनी जड़ों से जुड़ने का मौका देता है। वर्ष 1996 के बाद से अपने पूरे परिवार के साथ तुलमुला जाता हूं। हमारे बच्चों को हमारी सभ्यता और संस्कृति का पता होना चाहिए, इसलिए उन्हें भी लेकर जाता हूं। नटीपोरा में हमारे एक पड़ोसी सुभान साहब अपने बेटे के साथ मेले में हमारा इंतजार करते हैं। इस बार नहीं जा रहे हैं। गत रविवार को ही उनसे फोन पर बात की है। उन्होंने मुझसे वादा लिया है कि लॉकडाउन खुलते ही मैं कश्मीर में पहुंच जाऊं।
स्थानीय लोगों को रोजगार भी देता है मेला
माता क्षीर भवानी का मेला स्थानीय अर्थव्यवस्था में भी सहयोग करता है। माता राघेन्या की पूजा के लिए श्रद्धालु जो थाली लेकर जाते हैं, उसमें दीया और दूध स्थानीय मुस्लिम समुदाय द्वारा उपलब्ध कराया जाता है। मेले के दौरान मंदिर में ही पूजा के लिए लगभग आठ हजार लीटर दूध चढ़ाया जाता है। करीब सवा लाख दीये आरती में इस्तेमाल होते हैं। यह सभी दीये स्थानीय कुम्हारों द्वारा बनाए जाते हैं। प्रत्येक दीये की कीमत उसके आकार के मुताबिक पांच रुपये से 50 रुपये तक होती है। खाने-पीने की सामग्री के स्टॉल भी खूब सजते हैं।
श्रीनगर के करालयार इलाके के रहने वाले सज्जाद अहमद ने कहा कि मेले में अगर 25 हजार श्रद्धालु आते हैं और औसतन एक श्रद्धालु पांच दीये खरीदे तो यह संख्या सवा लाख होगी। कई श्रद्धालु एक तो कई श्रद्धालु 11 दिए भी लेते हैं। इस बार अगर मेला नहीं होगा तो कई कुम्हार मुश्किल मे आ जाएंगे और उनमें एक मैं भी हूं।