कर्म को लेकर हमारी सोच भी मायने रखती है
गलत काम की कीमत आप इसलिए नहीं चुकाते, क्योंकि आपवेश्या के यहां जाते हैं; आप कीमत इसलिए चुकाते हैं क्योंकि आप चालाकी करतेहैं। आप जाना वहां चाहते हैं, लेकिन सोचते हैं कि प्रवचन में जाने से आप स्वर्ग के अधिकारी बन जाएंगे। यही चालाकी आपको नरक में ले जाती है। अकसर यह कहा जाता है कि ‘अच्छे कर्म करोगे तो स्वर्ग मिलेगा। तो क्या केवल कर्म ही सब कुछ या कर्म को लेकर हमारी सोच भी मायने रखती है?
धर्म संस्कृति डेस्क, चंडीगढ़ :
दो मित्र अक्सर एक वेश्या के पास जाया करते थे। एक शाम जब वे वहां जा रहे थे, रास्ते में किसी संत का आध्यात्मिक प्रवचन चल रहा था। एक मित्र ने कहा कि वह प्रवचन सुनना पसंद करेगा। उसने उस रोज वेश्या के यहां नहीं जाने का फैसला किया। दूसरा व्यक्ति अपने मित्र को वहीं छोड़ कर उस वेश्या के यहां चला गया
अब जो व्यक्ति प्रवचन में बैठा था, वह अपने दूसरे मित्र के विचारों में डूबा हुआ था। सोच रहा था कि वह भी क्या आनंद ले रहा होगा। और कहां मैं इस खुश्क जगह में आ बैठा। मेरा मित्र ज्यादा बुद्घिमान है, क्योंकि उसने प्रवचन सुनने की बजाए वेश्या के यहां जाने का फैसला किया।
जो आदमी वेश्या के पास बैठा था, वह सोच रहा था कि उसके मित्र ने इसकी जगह प्रवचन में बैठने का फैसला करके मुक्ति का मार्ग चुना है, जबकि मैं अपनी लालसा में खुद ही आ फंसा। प्रवचन में बैठे व्यक्ति ने वेश्या के बारे में सोच कर बुरे कर्म बटोरे। अब वही इसका दुख भोगेगा। गलत काम की कीमत आप इसलिए नहीं चुकाते, क्योंकि आप वेश्या के यहां जाते हैं; आप कीमत इसलिए चुकाते हैं क्योंकि आप चालाकी करते हैं। आप जाना वहां चाहते हैं, लेकिन सोचते हैं कि प्रवचन में जाने से आप स्वर्ग के अधिकारी बन जाएंगे। यही चालाकी आपको नरक में ले जाती है।
आप जैसा महसूस करते हैं, वैसे ही आप बन जाते हैं। मान लीजिए कि आप जुआ खेलने के आदी हैं। हो सकता है कि अपने घर में मां, पत्नी या बच्चों के सामने आप जुआ के खेल को खराब बताते हों। इसका नाम तक मुंह पर नहीं लाते हों। लेकिन जैसे ही अपने गैंग से मिलते हैं, पत्ते फेंटने लगते हैं। जुआरियों के बीच जो व्यक्ति जुआ नहीं खेलता, वह जीने के काबिल नहीं है।
हर जगह ऐसा ही है। चोरों को क्या ऐसा लगता है कि किसी को लूटना बुरा है? जब आप चोरी में असफल होते हैं, तो वे सोचते हैं कि आप अच्छे चोर नहीं हैं। उनके लिए वह एक बुरा कर्म हो जाता है। कर्म ठीक उसी तरह से बनता है, जिस तरह से आप उसे महसूस करते हैं। आप जो कर रहे हैं उससे इसका संबंध नहीं है। जिस तरीके से आप उसको अपने दिमाग में ढोते हैं, उसका संबंध केवल उसी से है। हम हमेशा स्वीकृति की बात क्यों करते हैं, क्योंकि जब आप पूर्ण स्वीकृति में होते हैं, तब जीवन जो भी मांगता है, आप उसे सहज करते हैं।
समाज का भी अपना अहंकार होता है। उसे अपना ढांचा बनाए रखने के लिए कुछ नियमों की जरूरत होती है। आप देखेंगे कि किसी बेहद छोटी सी बात को ले कर पूरा समाज क्षुब्ध हो जाता है। हालांकि यह कतई जरूरी नहीं कि वह काम सच मुच गलत हो। जब अमेरिका में गर्मी का मौसम है, तब लोग बड़ी मुश्किल से कुछ पहनते हैं, वे मिनी स्कर्ट में होते हैं। तो कोई नकाब डाल ले तो लोग क्षुब्ध हो जाएंगे, यह क्या कर रही है? यह पूरी ढकी हुई क्यों है? यहां भारत में, अगर आपने पूरे कपड़े नहीं पहने तो लोग परेशान हो जाएंगे।
तो यह सब एक तरह के सामाजिक अहंकार का नमूना है। यही सामाजिक अहम् है, जो आपको व्यक्ति के रूप में क्षुब्ध बनाता है और आपका कर्म सामूहिक कर्म का एक हिस्सा बन जाता है। मैं चाहता हूं कि आप इसे वाकई एक खास गहराई से समझें। अच्छे और बुरे की सोच आपको सिखाई गई है। आप जिस सामाजिक परिवेश में रहे हैं, वहां से आपने इसे ग्रहण किया है। कर्म आपके जीवन के संदर्भ में होता है, न कि किए गए कार्य में।