अभी भी महिला सशक्तिकरण मात्र एक दिवास्वप्न
घर के साथ नौकरी चलाने का जैसा दबाव महिलाओं के ऊपर होता है, पुरुष न तो वैसा दबाव झेलते हैं और न ही नियोक्ता से लेकर घर-समाज उनसे वे अपेक्षाएं करता है।
यह बड़ी विडंबना है कि एक तरफ महिलाओं के साथ उनका समाज कोई रियायत नहीं बरतता, तो दूसरी तरफ कार्यस्थल पर उन्हें यह कहकर कोई छूट नहीं मिलती कि उन्हें तो पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर चलना है। महिला सशक्तिकरण हो जाए और घर के कामकाज में स्त्री के हाथ लगने का सुभीता बना रहे, इसके लिए अध्यापन जैसे पेशे को महिलाओं के लिए सबसे उपयुक्त माना जाता है। कोई शिक्षिका यह नहीं कर सकती कि सुबह उठकर वह स्कूल जाने की तैयारी करे, पर घर का कामकाज न करे, परिवार के लिए भोजन न पकाए। जबकि उसी स्कूल में पढ़ाने वाले पुरुष शिक्षक घर में अखबार पढ़ने या चाय पीते हुए टीवी देखने से ज्यादा कोई योगदान शायद ही करते हों।
हम महिला सशक्तिकरण की चाहे जितनी डींगें हांक लें, लेकिन21वीं सदी में भी महिलाओं की स्थिति में कोई ज्यादा बदलाव नहीं आया है। वे पढ़-लिखकर कामकाजी जरूर हुई हैं, पर घर से बाहर उन्हें और ज्यादा परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। नौकरी के लिए निकलते हुए उन्हें अपने पति और सास-ससुर से इजाजत लेनी पड़ती है। मर्दों से कम वेतन पर उन्हें ज्यादा असुविधाजनक माहौल में काम करना पड़ता है, बॉलीवुड इसका जीता जागता उदाहरण है जहाँ हर स्तर पर महिला कलाकारों का पुरूष कलाकारों के मुकाबले पारिश्रमिक कम है।योग्यता होते हुए भी महिलाओं को कई क्षेत्रों में एक सहायिका की तरह तो रखा जाता है लेकिन एक एक्सपर्ट की हैसियत से उसके लिए कोई स्थान नहीं जैसे कि बॉलीवुड में मेकअप का क्षेत्र वहाँ महिलाओं को मेकअप के लिए काम नहीं मिलता क्योंकि मेकअप मैन एसोसिएशन महिलाओं को इस क्षेत्र में रोजगार पाने में बरसों से रोड़ा अटका रही है।
कई बार सार्वजनिक स्थानों पर यौन उत्पीड़न सहना पड़ता है और वे हिंसा का शिकार भी होती हैं। इसके बाद भी उन्हें घर के काम या अन्य जिम्मेदारियों से छूट नहीं मिलती।
विश्व बैंक की ‘महिला, कारोबार और कानून 2016’ रिपोर्ट में किया गया था। रिपोर्ट में कहा गया था कि यह घोर अन्याय है कि जिस समाज की उन्नति में महिलाएं अपना भरपूर योगदान देती हैं, वही समाज महिलाओं के नौकरी पाने की उनकी क्षमता या आर्थिक जीवन में उनकी भागीदारी पर पाबंदियां लगाता है। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि 30 देशों में विवाहित महिलाएं इसका चयन नहीं कर सकतीं कि उन्हें कहां रहना है और 19 देशों में वे अपने पति का आदेश मानने को कानूनन बाध्य होती हैं।
समाज तो जब बदलेगा, तब बदलेगा, लेकिन महिला कर्मचारियों को नियुक्त करने वाली कंपनियां-फैक्टरियां तो ऐसे प्रबंध कर ही सकती हैं कि वे कार्यस्थल पर महिलाओं के अनुकूल वातावरण बनाएं और उनकी अपेक्षाओं-जरूरतों को ध्यान में रखें। अभी हमारे देश में ऐसी पहलकदमी करने वाली कंपनियां उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं।