राजस्थान छात्रसंघ चुनाव नतीजे दोनों प्रमुख दलों को थोड़ी ख़ुशी थोड़ा गम
राजस्थान में 10 दिन तक बेसब्री से इंतजार किए गए छात्र संघ चुनावों के नतीजे आ गए हैं. इन नतीजों ने इस बार दोनों ही प्रमुख दलों को थोड़ी खुशी ज्यादा गम दिया है
राजस्थान में 10 दिन तक बेसब्री से इंतजार किए गए छात्र संघ चुनावों के नतीजे आ गए हैं. इन नतीजों ने इस बार दोनों ही प्रमुख दलों को थोड़ी खुशी ज्यादा गम दिया है. बीजेपी (आरएसएस) की स्टूडेंट विंग एबीवीपी और कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआई इन नतीजों का अपने-अपने ढंग से विश्लेषण कर रहे हैं.
जोधपुर को छोड़कर पूरे राज्य में 31 अगस्त को छात्र संघ चुनाव हुए थे. जबकि जोधपुर की जय नारायण व्यास यूनिवर्सिटी और इसके संघटक कॉलेजों में 10 सितंबर को चुनाव सम्पन्न हुए हैं. इसकी वजह ये थी कि उन दिनों जोधपुर संभाग में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया अपनी गौरव यात्रा निकाल रही थीं.
राजस्थान यूनिवर्सिटी से जुड़ा टोटका
राजस्थान में कुल 14 सरकारी विश्वविद्यालय हैं. इनमें सबसे बड़ा जयपुर का राजस्थान विश्वविद्यालय है. माना जाता है और लगभग हर बार ये साबित भी हुआ है कि जो राजस्थान विश्वविद्यालय के छात्र संघ कार्यालय पर अपना आधिपत्य जमा लेता है वही राज्य में सरकार बनाने में भी कामयाब रहता है. चुनावी साल में तो कांग्रेस और बीजेपी के बीच इसे सबसे बड़ा टोटका माना जाता है.
2013 में आमतौर पर अशोक गहलोत की सरकार को लेकर एंटी इंकमबैंसी फैक्टर महसूस नहीं किया जा रहा था. जुलाई-अगस्त, 2013 में मोदी लहर इतना जोर भी नहीं पकड़ पाई थी. तब राज्य में बीजेपी कमजोर विपक्ष की भूमिका में थी. वसुंधरा राजे और केंद्रीय नेतृत्व की अदावत के कारण धारणा बन रही थी कि बीजेपी जीतना तो दूर कांग्रेस को कड़ी टक्कर भी नहीं दे पाएगी.
राजस्थान यूनिवर्सिटी में भी माहौल कुल मिलाकर एनएसयूआई के पक्ष में ही लग रहा था. लेकिन अप्रत्याशित रूप से यहां एबीवीपी के कान्हा राम जाट ने जीत दर्ज की. इसके बाद का इतिहास तो सबके सामने है. कुछ महीनों बाद विधानसभा चुनाव में कांग्रेस आजादी के बाद अपने सबसे बुरे प्रदर्शन का गवाह बन रही थी. 200 में से कांग्रेस के 2 दर्जन विधायक भी नहीं जीत पाए थे.
नतीजे खुशी से ज्यादा दे गए गम!
इस बार के चुनावी नतीजे मिले जुले से रहे हैं. छात्रों ने न एबीवीपी को खुशी का पूरा मौका दिया है और न ही एनएसयूआई को. राजस्थान यूनिवर्सिटी की बात करें तो यहां लगातार तीसरे साल निर्दलीय अध्यक्ष चुना गया है. विनोद जाखड़ हालांकि एनएसयूआई के बागी उम्मीदवार थे. लेकिन जाखड़ ने एबीवीपी के उम्मीदवार को 1789 वोटों के बड़े मार्जिन से शिकस्त दी है. उपाध्यक्ष और महासचिव पद पर भी निर्दलीय उम्मीदवार ही जीते हैं. यहां एबीवीपी को सिर्फ संयुक्त सचिव पद पर जीत मिली. मीनल शर्मा ने इस पद पर जीत दर्ज की.
बाकी विश्वविद्यालयों और ज्यादातर कॉलेजों में भी कमोबेश ऐसे ही नतीजे रहे. जोधपुर की जय नारायण व्यास यूनिवर्सिटी, कोटा यूनिवर्सिटी, बीकानेर की महाराजा गंगा सिंह यूनिवर्सिटी में भी निर्दलीय उम्मीदवार अध्यक्ष बने हैं. उदयपुर की मोहनलाल सुखाड़िया यूनिवर्सिटी, अजमेर की महर्षि दयानंद सरस्वती यूनिवर्सिटी और जयपुर की राजस्थान संस्कृत यूनिवर्सिटी में जरूर एबीवीपी को जीत हासिल हुई है.
अब तक चुनावी साल में राजनीतिक पंडितों के लिए विश्वविद्यालयों के चुनाव नतीजे, विधानसभा की भविष्यवाणी करने का मजबूत आधार होते थे. लेकिन इस बार निर्दलीयों की भारी जीत ने सभी को चक्करघिन्नी बना दिया है. छात्रों ने जो मैंडेट दिया है वो मिलाजुला है. तो क्या समझें कि इस बार विधानसभा त्रिशंकु रह सकती है?
2013 में वसुंधरा राजे के चाणक्य कहे गए और अब निर्दलीय मोर्चा का बैनर खड़ा कर रहे चंद्रराज सिंघवी ने तो इन नतीजों को चेतावनी करार दिया है. सिंघवी ने दावा किया है कि युवाओं ने दोनों पार्टियों को नकार दिया है. आने वाली सरकार में भी निर्दलीयों के ‘की रोल’ की उन्होंने भविष्यवाणी कर दी.
पहली बार ‘वंचितों’ को कमान
बीजेपी-कांग्रेस या निर्दलीय की बहस के इतर एक सबसे अहम बदलाव ने इस बार सबका ध्यान खींचा है. आजादी के बाद इन 70 सालों में पहली बार कोई एससी छात्र देश के सबसे बड़े राज्य की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी का अध्यक्ष चुना गया है. इस बार उपाध्यक्ष पद पर भी अनुसूचित जनजाति (एसटी) की अनुराधा मीना चुनी गई हैं.
हालांकि पिछले 15 साल में 2 बार एसटी वर्ग का अध्यक्ष रह चुका है लेकिन ये पहली बार ही है जब अध्यक्ष और उपाध्यक्ष दोनों अनुसूचित जाति (एससी) और जनजाति (एसटी) वर्ग से हैं. 20 साल पहले तक आमतौर पर ब्राह्मण या राजपूत छात्र ही चुनाव जीतते थे. लेकिन पिछली सदी के आखिरी कुछ वर्षों से ओबीसी छात्रों का छात्रसंघ कार्यालयों में दबदबा बढ़ा. इस बार 2 शीर्ष पदों पर वंचित वर्गों के छात्रों ने जीतकर बदलाव की बयार का स्पष्ट संकेत दे दिया है.
युवा हर चुनाव में एक डिसाइडिंग फैक्टर होते हैं. पिछले कुछ समय से सभी पार्टियां युवाओं पर फोकस कर रही हैं. 2014 में सबने देखा कि युवाओं के समर्थन के बूते ही नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद तक पहुंच पाए. लेकिन राजस्थान में इस बार बीजेपी और कांग्रेस के अलावा भी क्या युवा और विकल्प तलाश रहा है? लग रहा है कि सोशल मीडिया के इस दौर में युवा मतदाता अब पार्टी नहीं ‘पर्सन’ देख कर फैसला करने की ओर बढ़ रहा है.