जेल जाने से पहले लालू यादव को राहुल गांधी का वो अध्यादेश फाड़ना याद आ रहा होगा
रांची में सीबीआई की विशेष अदालत में सरेंडर करने जाने से पहले आरजेडी प्रमुख लालू यादव ने 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले सियासी हलचल पर भी बोला.
रांची में सीबीआई की विशेष अदालत में सरेंडर करने जाने से पहले आरजेडी प्रमुख लालू यादव ने 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले सियासी हलचल पर भी बोला. पिछले 110 दिनों से जेल से बाहर रह कर इलाज करा रहे लालू यादव ने अबतक चुप्पी साध रखी थी. मीडिया से दूर थे. लेकिन, जेल जाने से पहले अगले लोकसभा चुनाव में विपक्षी तालमेल और एकजुटता की संभावनाओं पर खुलकर बात की.
2019 में विपक्षी दलों के महागठबंधन के मसले पर लालू यादव ने कहा कि विपक्ष इस वक्त एक मंच पर है, कहीं किसी तरह का कोई ईगो नहीं है. लालू ने साफ कर दिया कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, टीएमसी सुप्रीमो और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, बीएसपी अध्यक्ष मायावती समेत सभी नेता मिलकर विपक्षी एकता के मुद्दे पर चर्चा कर लेंगे और सबकुछ ठीक-ठाक हो जाएगा.
दरअसल, विपक्षी एकता की जब भी चर्चा होती है तो उसके केंद्र में प्रधानमंत्री पद का मुद्दा सबसे पहले आ जाता है. सवाल यही उठता है कि मोदी को पटखनी देने के नाम पर सभी विपक्षी दल एक साथ होने की बात तो करते हैं लेकिन, चेहरा कौन होगा इस नाम पर सभी कन्नी काट जाते हैं. हकीकत यही है कि इस मुद्दे पर एक राय है ही नहीं.
लालू यादव का बयान भी उसी संदर्भ में देखा जा रहा है. चारा घोटाले में सजायाफ्ता लालू तो खुद तो चुनाव नहीं लड़ सकते हैं, ऐसे में उनके सपने देखने का तो कोई सवाल ही नहीं है. लेकिन, खुलकर लालू भी मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के युवा मुखिया राहुल गांधी के नाम पर हामी नहीं भर रहे हैं. शायद जेल जाने से पहले लालू यादव को राहुल गांधी का वो अध्यादेश फाड़ना याद आ रहा होगा, जिसमें सजायाफ्ता होने के बाद लालू को राहत नहीं मिल सकी थी.
कई मौकों पर लालू यादव से राहुल गांधी दूरी बनाते भी नजर आए हैं. लेकिन, राहुल गांधी के साथ लालू यादव के वारिस उनके छोटे बेटे तेजस्वी यादव की जुगलबंदी के बावजूद न ही लालू और न ही तेजस्वी ने राहुल गांधी के नाम पर हामी भरी है.
तेजस्वी यादव ने भी कई मौकों पर यह हिदायत दी है कि कांग्रेस को बिहार और यूपी जैसे राज्यों में अपने सहयोगियों के लिए त्याग करना होगा. दरअसल, बिहार में पिछले विधानसभा चुनाव के वक्त जेडीयू-आरजेडी और कांग्रेस ने मिलकर महागठबंधऩ बनाया था. इसका फायदा भी हुआ. बीजेपी की हार हुई थी. फायदा कांग्रेस को भी हुआ था. अब नीतीश कुमार के महागठबंधन से बाहर जाने के बाद कांग्रेस चुनाव में अपनी ज्यादा हिस्सेदारी की मांग कर रही है.
कांग्रेस की तरफ से लोकसभा की 40 सीटों में से 12 सीटों की मांग की जा रही है. कांग्रेस को लगता है कि जेल जाने के बाद लालू की गैर हाजिरी में अब आरजेडी से सौदेबाजी करना ज्यादा आसान होगा. लेकिन, आरजेडी इस बात को समझ रही है. तेजस्वी यादव ने पहले ही आरजेडी के खेमे में जीतनराम मांझी को शामिल कर लिया है. चर्चा उपेंद्र कुशवाहा को लेकर भी है. लिहाजा राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस से बिहार में त्याग करने की बात तेजस्वी की तरफ से की गई थी.
आरजेडी इस बात को समझती है कि कांग्रेस के मुकाबले अगर क्षेत्रीय दलों की तरफ से गठबंधऩ का नेतृत्व किया जाता है तो उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी ज्यादा मिलेगी. हकीकत यह भी है कि बिहार और यूपी जैसे राज्यों में कांग्रेस अब वैशाखी के ही सहारे चल रही है. ऐसे में अपनी वैशाखी के सहारे चलने वाली पार्टी को आरजेडी नहीं चाहेगी कि वो सत्ता के शिखर पर पहुंच कर नेतृत्व करे.
उधर, बात ममता बनर्जी और मायावती की करें तो उनकी तरफ से भी नेतृत्व के मुद्दे पर एक ही बात कही जा रही है कि चुनाव बाद इस मुद्दे को हल कर लिया जाएगा. यानी गठबंधन बनाने की बात तो हो रही है, लेकिन, इस गठबंधन का चेहरा कौन होगा इस पर विपक्षी दलों की तरफ से गोल-मोल जवाब दिया जा रहा है.
विपक्ष के गठबंधन की यही हकीकत भी है. विपक्ष के भीतर बीजेपी को हराने को लेकर एकजुटता की बात तो हो रही है, लेकिन, किसी एक को नेता मानने के लिए विपक्ष राजी नहीं हो रहा है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की तरफ से भी प्रधानमंत्री के पद पर अपनी दावेदारी करने और फिर इससे पीछे हटने के पीछे भी यही कहानी है.
लालू यादव के बयान से भी साफ है मोदी के खिलाफ हमलावर विपक्षी खेमे के भीतर सीटों के तालमेल से लेकर नेतृत्व के फैसले तक कोई ठोस योजना नहीं है.