हैदराबाद में सत्ता के गलियारों में चर्चा चल पड़ी है कि शायद 2018 के जाड़ों में आम चुनाव कराने को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केसीआर को भरोसे में ले लिया है
मामला बिलकुल साफ है, शक की कोई गुंजाइश नहीं है. जब से तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से 15 जून को मिल कर दिल्ली से लौटे हैं, बीजेपी के खिलाफ गठबंधन की कोशिशें ठंडे बस्ते में चली गई जान पड़ती हैं. हालांकि केसीआर पिछले दिनों दिल्ली में थे, फिर भी वे केजरीवाल के घर मिलने गए चार मुख्यमंत्रियों की जमात में शामिल नहीं हुए. दिल्ली से आने के बाद रविवार को जब केसीआर का बयान आया कि वे तेलंगाना में वक्त से पहले चुनाव कराए जाने के समर्थन में हैं, तो पक्का हो गया कि दिल्ली और हैदराबाद के बीच सचमुच कुछ पक रहा है.
नतीजतन हैदराबाद में सत्ता के गलियारों में चर्चा चल पड़ी है कि शायद 2018 के जाड़ों में आम चुनाव कराने को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केसीआर को भरोसे में ले लिया है. गौर करने वाली बात ये है कि 1999 से ही आंध्र प्रदेश में विधानसभा चुनाव हमेशा आम चुनाव के साथ ही हुए. अगर नवंबर-दिसंबर में आम चुनाव होते हैं, तो इसका मतलब ये कि राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव भी उसी समय हो जाएंगे.
दरअसल इसका आभास तब हुआ, जब कांग्रेस नेता और पूर्व मंत्री दनम नागेंद्र ने केसीआर की पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति का दामन थाम लिया. नागेंद्र एक वक्त कांग्रेस के बड़े दमदार नेता थे, लेकिन पिछले चार साल से पार्टी आलाकमान से नाराज चल रहे थे. सूबे में पार्टी के अध्यक्ष बनना चाहते थे, लेकिन जब ये होता नहीं दिखा, तो उन्होंने केसीआर का हाथ थाम लिया. उनका केसीआर के साथ जाना तय तो था, लेकिन केसीआर चाहते थे कि चुनाव के करीब आ जाए, तो उन्हें अपनी पार्टी मे शामिल कराएं. यानी नागेंद्र के पार्टी में शामिल होने और जल्दी चुनाव पर केसीआर के बयान से साफ हो गया है कि आम चुनावों के साथ ही तेलंगाना में भी चुनाव हो जाएंगे.
जल्दी चुनाव हुए, तो केसीआर के पक्ष में होंगे नतीजे
जल्दी चुनाव हुए तो केसीआर को फायदा ही फायदा है, खोना कुछ नहीं है. कांग्रेस पहले से ही सूबे में मुश्किल में है, क्योंकि तेलंगाना प्रदेश कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष उत्तम कुमार रेड्डी के खिलाफ विद्रोह के सुर उभरने लगे हैं. टीडीपी और बीजेपी के कुछ नेताओं जैसे रेवंथ रेड्डी और नगम जनार्दन रेड्डी के कांग्रेस में शामिल होने को लेकर प्रदेश कांग्रेस के कुछ नेता बहुत नाराज हैं.
नतीजतन, ज़िला स्तर पर बहुत से कांग्रेस नेता टीआरएस में शामिल हो रहे हैं. दूसरी विपक्षी पार्टी टीडीपी तो किसी लावारिस मकान की तरह खंडहर में तब्दील हो रही है. 15 में से 13 विधायकों ने टीडीपी छोड़ दी है और न तो चंद्रबाबू नायडू और न ही उनके बेटे नारा लोकेश की ओर से पार्टी को फिर से खड़ा करने की कोई कोशिश हो रही है.
विडंबना ये है कि नायडू टीडीपी की सबसे बड़ी ताकत भी हैं और कमजोरी भी. पार्टी की सभाओं के लिए भीड़ फिलहाल सिर्फ उन्हीं के नाम पर जुटती है. सूबे के बंटने के पहले 1995 से 2004 के बीच बतौर मुख्यमंत्री नायडू ने हैदराबाद के लिए काफी काम किया था. लिहाजा यहां लोगों से उनका जमीनी संपर्क बहुत अच्छा है. हालांकि उनके उन संपर्कों का नुकसान उन्हें ये हो सकता है कि तब तेलंगाना राष्ट्र समिति इस बात का प्रचार करेगी कि नायडू तेलंगाना के हितों का नुकसान करने के लिए ऐसे लोगों से मिले हुए हैं, जिनके हित तेलंगाना के नहीं हैं.
केसीआर के खिलाफ बीजेपी रखेगी नरम रुख?
तेलंगाना के मैदान में तीसरे खिलाड़ी के तौर पर बीजेपी है, जो लोगों को समझाने की कोशिश कर रही है कि कांग्रेस और टीआरएस आपस में मिले हुए हैं. हालांकि इस कहानी पर भरोसा करना लोगों के लिए बड़ा मुश्किल है. खासकर मोदी-केसीआर की मुलाकात के बाद.
सूत्र बताते हैं कि बीजेपी के एक बड़े पदाधिकारी ने तेलंगाना बीजेपी के नेताओं को निर्देश दिए हैं कि वे मुख्यमंत्री केसीआर के खिलाफ भ्रष्टाचार का कोई आरोप न लगाएं. बीजेपी को दरअसल पता है कि लोकसभा चुनावों में अगर उनके पास अपने दम पर बहुमत नहीं हुआ, तो वो उन्हें केसीआर, नवीन पटनायक और जगनमोहन रेड्डी से समर्थन लेकर इकट्ठा करना पड़ेगा. इसलिए तेलंगाना बाजेपी नेताओं से कहा गया है कि वे नीतिगत मामलों तक ही अपनी आलोचना सीमित रखें.
कांग्रेस और टीआरएस में तुलना करें तो टीआरएस का पलड़ा भारी लग रहा है. केसीआर को अंदाजा लग गया था कि किसानों के वोट उनकी पार्टी की नैया डुबा सकते हैं. इसीलिए उन्होंने किसानों के लिए ‘रिथु-बंधु’ योजना भी चलाई, जिसके तहत खेत पर कर्ज लिए हुए किसान को साल में आठ हजार रुपए देने का प्रावधान रखा गया. हालांकि उनकी महत्वाकांक्षी सिंचाई योजना पर कांग्रेस ने कई सवाल खड़े किए हैं, लेकिन फिर भी खेतिहर जनता को उससे देर-सबेर लाभ जरूर मिलेंगे.
कांग्रेस के लिए लड़ाई जीतने का बस एक ही रास्ता बचता है और वह ये कि विपक्ष को मिलने वाले वोट न बंटे. और यह तभी हो पाएगा, जब वामपंथी पार्टियों, बीएसपी, कोदांदरम की तेलंगाना जनसमिति और टीडीपी को साथ लेकर गठबंधन बनाया जाए. टीडीपी के खम्मम जिले के संगठन ने पहले ही, ये कह कर कांग्रेस के साथ जाने की बात कही है कि अकेले चुनाव लड़ने से टीआरएस को ही मजबूती मिलेगी. सूबे में केसरिया रंग की ताकत कमजोर करने के लिए कांग्रेस को ये भी प्रचार करना होगा कि बीजेपी को वोट देने का मतलब टीआरएस को वोट देना.
राज्यसभा उपसभापति के चुनाव से साफ होगा मामला
लोकसभा और विधानसभा चुनावों से पहले, इसी साल जुलाई में तेलंगाना में पंचायत चुनाव होने हैं. हालांकि इन चुनावों में राजनीतिक दल नहीं लड़ते , लेकिन ये भी सच है कि राजनीतिक दल अपने अपने उम्मीदवारों को पीछे से इसके लिए धन-बल मुहैया कराते हैं.
लेकिन असल चुनावों से पहले एक जुलाई को राज्यसभा के डिप्टी चेयरमैन के पद का चुनाव होना है. और इसी चुनाव में पता चल जाएगा कि टीआरएस और बीजेपी साथ-साथ चलने के लिए राजी हैं भी या नहीं. सत्ता और विपक्ष दोनों के लिए राज्यसभा में 122 का आंकड़ा पाना मुश्किल है. ऐसे में टीआरएस, वाईएसआर कांग्रेस और बीजू जनता दल के वोट ही तय करेंगे कि किसकी जीत होगी. हो सकता है कि टीआरएस इस पद के लिए अपने सांसद केशव राव का नाम आगे करे. अगर केशव राव को जिताने के लिए बीजेपी ने टीआरएस का साथ दिया तो तय हो जाएगा कि ये दोस्ती आगे बीजेपी को फायदा पहुंचाएगी. हालांकि अभी ये तय नहीं हुआ है कि नायडू समेत बाकी विपक्ष भी टीआरएस के उम्मीदवार का समर्थन करेंगे या नहीं.
हालांकि अगर ऐसा हुआ, तो सवाल उठेगा कि राज्यसभा में सभापति और उपसभापति दोनों पदों पर तेलुगू नेता क्यों बैठाए गए हैं. एक और बात देखनी होगी कि केसीआर के करीबी, असदुद्दीन ओवैसी, टीआरएस-बीजेपी की दोस्ती पर क्या रुख रखते हैं.