2019: कांग्रेस के पास 272 के ‘मैजिक फिगर’ के लिये कोई जादुई छड़ी नहीं है

क्या कांग्रेस 1977 के चुनावी फॉर्मूले को लेकर 2019 का चुनाव जीतने का ख्वाब संजो रही है? 1977 में जिस तरह से कांग्रेस के खिलाफ समूचा विपक्ष एकजुट हुआ था क्या वो ही तस्वीर 2019 में बीजेपी के खिलाफ दिखाई देगी?

दरअसल बीजेपी की इस वक्त मजबूत स्थिति 1960 और 1970 के दशक में कांग्रेस की स्थिति को दर्शा रही है. कांग्रेस की ही तरह बीजेपी आज देश की सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर राज्य दर राज्य अपनी विजय यात्रा जारी रखे हुए है. बीजेपी के विजयी रथ को रोकने के लिये कांग्रेस वर्किंग कमेटी में गहन मंथन हुआ. पूर्व गृहमंत्री पी चिदंबरम ने 2019 के लोकसभा चुनाव के लिये ‘मिशन 300’ का प्लान पेश किया है.

chidambaram

चिदंबरम का मानना है कि 12 राज्यों में कांग्रेस के मजबूत जनाधार को देखते हुए 150 सीटों का लक्ष्य रखा जाए. कांग्रेस अगर अपनी मौजूदा सीटों की संख्या को तीन गुना बढ़ा कर 150 तक पहुंचा ले तो बाकी 150 सीटों का बचा हुआ काम क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन पूरा कर सकते हैं. जिससे 272 के ‘मैजिक फिगर’ को यूपीए-3 पार कर सकती है.

चिदंबरम का मानना है कि तकरीबन 270 सीटें ऐसी हैं जहां क्षेत्रीय दलों के साथ रणनीतिक गठबंधन की मदद से 150 सीटें जीती जा सकती हैं. चिदंरबरम फॉर्मूले के तहत कांग्रेस 300 सीटों पर अकेले और 250 सीटों पर रणनीतिक गठबंधन के साथ चुनाव लड़े.

साल 2004 में भी कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में 145 सीटें मिली थीं जिसके बाद उसने केंद्र में यूपीए-1 की सरकार बनाई थी. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस केवल 44 सीटें ही जीत सकी थी.

कांग्रेस की रणनीति ये हो सकती कि वो जिन राज्यों में मजबूत स्थिति या फिर नंबर दो पर हो वहां बीजेपी से सीधा मुकाबला करे. लेकिन जिन राज्यों में उसकी स्थिति नंबर 4 की हो तो वहां क्षेत्रीय दलों को बीजेपी से टक्कर के लिये आगे बढ़ाए और खुद पीछे रह कर समर्थन करे.

एनसीपी नेता शरद पवार ने भी ऐसा ही सुझाव कांग्रेस को सुझाया था. पवार ने चुनाव पूर्व महागठबंधन की कल्पना अव्यावाहरिक बताया था. उन्होंने महागठबंधन के आड़े आ रही क्षेत्रीय दलों की निजी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की मजबूरी को सामने रखा था. उनका कहना था कि चुनाव में क्षेत्रीय दल पहले अपनी राजनीतिक स्थिति को मजबूत करना चाहेंगे. भले ही बाद में बीजेपी विरोधी दल समान विचारधारा के नाम पर एक छाते के नीचे महागठबंधन बना लें.

लेकिन सवाल ये उठता है कि कांग्रेस के लिये आखिर 150 का आंकड़ा भी कैसे और किन राज्यों से आ सकेगा? इमरजेंसी के बाद कांग्रेस ने जिस तरह से सत्ता में धमाकेदार वापसी की थी, वैसा ही करिश्मा दिखाने के लिये कांग्रेस के पास आज न ज़मीन है और न ही चेहरा.

दरअसल इमरजेंसी के बाद कांग्रेस की सत्ता में वापसी की सबसे बड़ी वजह खुद जनता पार्टी भी थी. जनता पार्टी की सरकार अंदरूनी कलह की वजह से गिर गई थी. जिसका फायदा उठाते हुए कांग्रेस जनता को ये समझाने में कामयाब रही कि सिर्फ कांग्रेस ही देश में शासन चला सकती है. उस वक्त कांग्रेस के पास इंदिरा गांधी जैसा करिश्माई चेहरा भी था. पाकिस्तान से 1971 की जंग जीतने के सेहरा उनके राजनीतिक बायोडाटा में दर्ज था. ‘इंदिरा इज़ इंडिया’ जैसे नारों की गूंज थी. लेकिन आज कांग्रेस के पास बीजेपी के भीतर भूचाल लाने वाले चेहरे का शून्य साफ देखा जा सकता है.

जहां कांग्रेस के लिये यूपीए 3 को लेकर चुनाव पूर्व गठबंधन की राहें इतनी आसान नहीं है तो वहीं चुनाव बाद महागठबंधन को लेकर भी आशंकाएं दिनों-दिन गहराने का ही काम कर रही हैं. अविश्वास प्रस्ताव में बीजेडी और टीआरएस जैसी पार्टियों के रुख ने कांग्रेस को झटका देने का काम किया है. इन दोनों ही पार्टियों ने खुद को वोटिंग से अलग रख कर बीजेपी का ही एक तरह से साथ दिया है. जबकि महागठबंधन को लेकर एसपी,बीएसपी और टीएमसी जैसी पार्टियों ने अब तक अपना रुख साफ नहीं किया है. कांग्रेस के साथ गठबंधन करने में इन पार्टियों को अपने जनाधार खिसकने का भी डर है.

समान विचारधारा के नाम पर भी ये पार्टियां यूपीए3 का हिस्सा बनने से कतरा रही हैं क्योंकि कांग्रेस के ‘मुस्लिम पार्टी’ के ठप्पा का डर इन्हें भी लगने लगा है. यूपी विधानसभा चुनाव में एसपी का मुस्लिम-यादव समीकरण का सत्ता दिलाने का हिट फॉर्मूला फेल हो गया तो बीएसपी की सोशल इंजीनियरिंग का किला भी ध्वस्त हो गया था. साफ है कि अब एसपी-बीएसपी भी लोकसभा चुनाव में हर कदम फूंक-फूंक कर रखेंगीं. ऐसे में कमजोर कांग्रेस के साथ चुनावी तालमेल की संभावना सियासी सौदेबाजी के कई चरणों के बाद ही हो सकती है.

बिहार की राजनीति में कांग्रेस अपने ही वजूद के लिये संघर्ष कर रही है. ऐसे में यहां उसके पास यूपीए के सहयोगी आरजेडी के सामने सरेंडर करने के अलावा कोई चारा नहीं है. बिहार की राजनीति में मुख्य लड़ाई आरजेडी और बीजेपी-जेडीयू के बीच ही होगी.

जबकि पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी पार्टी टीएमसी की नेता ममता बनर्जी का ज्यादा जोर थर्ड फ्रंट बनाने पर दिखता रहा है. लेकिन टीआरएस के बदले-बदले से मिजाज को देखकर वो भी अब खुद की पार्टी को ही चुनाव में मजबूत करने का काम करना चाहेंगीं. इसी तरह तमिलनाडु और केरल जैसे दूसरे राज्यों में भी कांग्रेस की उम्मीदें डीएमके और सीपीएम जैसी पार्टियों पर है. इन राज्यों में कांग्रेस को अपने ही धैर्य का इम्तिहान लेना होगा. सीपीएम कभी हां-कभी ना के साथ कांग्रेस के साथ दिखाई देती है तो वहीं डीएमके भी बदलते राजनीतिक समीकरणों के चलते कोई नया दांव चल सकती है.

दरअसल सवाल सभी क्षेत्रीय दलों के अपने वजूद का भी है जो कि मोदी लहर की वजह से गड़बड़ाने के बाद अबतक सम्हल नहीं सका है.

ऐसे में कांग्रेस को मिशन 150 के लिये बीजेपी की मिशन 300+ की रणनीति से ही कुछ सीक्रेट फॉर्मूले निकालने होंगे. एक वक्त तक बीजेपी को सवर्णों की पार्टी कहा जाता था तो कांग्रेस को दलित-मुसलमानों के मसीहा के तौर पर प्रोजेक्ट किया जाता था. लेकिन आज बीजेपी ने सवर्णों की पार्टी के टैग को हटा कर सोशल इंजीनियरिंग की जो मिसाल पेश की उसकी काट किसी के पास नहीं है. कांग्रेस को भी एक नए समीकरण की तलाश करनी होगी क्योंकि उसका वोट बैंक क्षेत्रीय दल लूट चुके हैं.

यूपी में कांग्रेस को फिलहाल मंथन करने की जरूरत नहीं है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को केवल 2 सीटें ही मिलीं. जबकि साल 2017 के विधानसभा चुनाव में उसे सिर्फ 7 सीटें मिलीं. गोरखपुर और फूलपुर के उपचुनाव में उसकी जमानत भी जब्त हुई. ऐसे में यहां ज्यादा एक्सपेरीमेंटल होने की जरुरत नहीं है. यूपी की 80 लोकसभा सीटों को देखते हुए कांग्रेस को एसपी-बीएसपी गठबंधन पर ही भरोसा दिखाना होगा. कांग्रेस के पास यूपी में कोई करिश्माई चेहरा नहीं है. ऐसे में कांग्रेस सौदेबाजी की हालत में नहीं है. यहां वो दर्शन ठीक है कि जो मन का हो जाए तो ठीक है और न हो तो और भी ठीक है.

हालांकि साल 2009 की तर्ज पर कांग्रेस यहां सभी 80 सीटों पर दांव भी खेल सकती है क्योंकि उसके पास यहां खोने को कुछ नहीं है. अगर दांव चल गया तो कांग्रेस के लिये सबसे अप्रत्याशित एडवांटेज होगा.

गुजरात में लोकसभा की 26 सीटें हैं. साल 2014 में गुजरात में कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पाई थी. लेकिन गुजरात विधानसभा चुनाव में ‘ट्रेलर’ दिखाने वाली कांग्रेस का दावा है कि वो लोकसभा चुनाव में पूरी ‘पिक्चर’ दिखाएगी. गुजरात कांग्रेस का दावा है कि वो लोकसभा चुनाव में सभी बीजेपी विरोधी ताकतों को साथ लाकर मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलेगी.

गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी जैसे नेताओं के साथ गठबंधन कर बीजेपी के ‘क्लीन-स्वीप’ के तिलिस्म को तोड़ दिया था. ऐसे में इस बार गुजरात में कांग्रेस को संभावना दिख रही हैं जो कि उसकी 150 सीटों के लक्ष्य को हासिल करने के लिये बूंद-बूंद से घड़ा भरने का काम कर सकती है.

इस बार पंजाब और राजस्थान को लेकर कांग्रेस आत्मविश्वास से लबरेज है. पंजाब में कांग्रेस ने सत्ता में वापसी की है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर में हारी कांग्रेस ने 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में जबरदस्त वापसी की. इस चुनाव से न सिर्फ उसकी सीटों में इजाफा हुआ बल्कि वोट प्रतिशत में भी बढ़ोतरी हुई. विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 38.5 फीसदी मत मिले. वहीं गुरुदासपुर लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में मिली जीत से कांग्रेस उत्साहित है. ऐसे भी संकेत मिल रही हैं कि लोकसभा चुनाव में बीजेपी और शिरोमणि अकाली दल को कड़ी टक्कर देने के लिये कांग्रेस आम आदमी पार्टी से भी हाथ मिला सकती है. आम आदमी पार्टी ने पंजाब के विधानसभा चुनाव को त्रिकोणीय मुकाबले में बदल दिया था.

इसी साल मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में चुनाव होने वाले हैं. मध्य प्रदेश में लोकसभा की 29 सीटों में कांग्रेस के पास केवल 2 ही सीटें हैं. ये सीटें ज्योतिरादित्य सिंधिया ने गुना और कमलनाथ ने छिंदवाड़ा में जीती थीं. लेकिन इस बार कांग्रेस को एमपी में एंटीइंकंबेंसी से काफी उम्मीदें हैं. शिवराज के 15 साल के शासनकाल में उपजी सत्ताविरोधी लहर के भरोसे कांग्रेस न सिर्फ विधानसभा चुनाव जीतने का सपना देख रही है बल्कि उसे लोकसभा सीटें मिलने की भी उम्मीदें है.

इसी तरह छत्तीगढ़ में लोकसभा की 11 सीटें हैं. लेकिन कांग्रेस के पास यहां विद्याचण शुक्ल जैसा पुराना चेहरा नहीं है. नक्सली हमले में कांग्रेस ने अपने कई बड़े नेताओं को खो दिया था. बीजेपी के मुख्यमंत्री रमन सिंह का फिलहाल कांग्रेस के पास यहां कोई तोड़ नहीं दिखाई देता है.

राजस्थान में कांग्रेस को सत्ता में आने का पूरा भरोसा है. यहां हर पांच साल में सरकार बदलने की परंपरा है. विधानसभा चुनाव के साथ ही कांग्रेस को यहां लोकसभा सीटें भी जीतने की उम्मीद है. साल 2014 में राजस्थान की 25 लोकसभा सीटों में से एक भी सीट कांग्रेस नहीं जीत सकी थी. लेकिन इस बार उपचुनावों में उसने लोकसभा की दो और विधानसभा की एक सीट जीती.

उत्तर-पूर्वी राज्यों में एक वक्त कांग्रेस का एकछत्र राज होता था. लेकिन बीजेपी ने अपनी रणनीति के तहत उत्तर-पूर्वी राज्यों में ताकत झोंक दी. बीजेपी ये जानती है कि यूपी में साल 2014 का करिश्मा दोहरा पाना आसान नहीं होगा. इसलिये उसने वैकल्पिक सीटों के लिये उत्तर-पूर्वी राज्यों को खासतौर से टारगेट किया. ये इलाके कांग्रेस और लेफ्ट का गढ़ होने के बावजूद अब भगवामय हो चुके हैं.

असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और त्रिपुरा में बीजेपी की सरकार है. वहीं नागालैंड में नागा पीपुल्स फ्रंट-लीड डेमोक्रेटिक गठबंधन को बीजेपी का समर्थन मिला हुआ. ऐसे में कांग्रेस को उत्तर-पूर्वी राज्यों में कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी क्योंकि बीजेपी ने पूर्वोत्तर की 25 लोकसभा सीटों के लिये साल 2014 से ही तमाम परियोजनाओं के जरिये साल 2019 की तैयारी शुरू कर दी थी.

सबसे ज्यादा असम के पास 14 लोकसभा सीटें हैं. असम में बीजेपी की सरकार है. बीजेपी ने पूर्वोत्तर को कांग्रेस मुक्त बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. कांग्रेस पांच राज्यों से सिमट कर मेघालय और मिजोरम तक ठहर गई है.

महाराष्ट्र को लेकर कांग्रेस थोड़ी सी आशान्वित हो सकती है. महाराष्ट्र के वोटरों में हर पांच साल में सरकार बदलने की मानसिकता रही है. यूपी के बाद महाराष्ट्र ही लोकसभा की सबसे ज्यादा 48 सीटें देता है. यहां असली मुकाबला कांग्रेस-एनसीपी और बीजेपी-शिवसेना गठबंधन के बीच है. फिलहाल जो राजनीतिक हालात हैं उसे देखकर लग रहा है कि बीजेपी यहां पर अकेले दम पर चुनाव लड़ सकती है क्योंकि शिवसेना के साथ रिश्ते काफी बिगड़ चुके हैं. कांग्रेस और एनसीपी इसका फायदा उठा सकते हैं.

कर्नाटक में भले ही कांग्रेस दोबारा सरकार नहीं बना पाई लेकिन उसे जेडीएस के रूप में साल 2019 का लोकसभा पार्टनर मिल गया है. कर्नाटक की 28 लोकसभा सीटों में कांग्रेस को साल 2014 में केवल 9 सीटें ही मिली थीं. ऐसे में कांग्रेस और जेडीएस का गठबंधन इस बार चुनाव में बीजेपी का गेम-प्लान बिगाड़ने का काम कर सकता है.

चिदंबरम के गेम-प्लान के मुताबिक अगर कांग्रेस को 150 सीटें हासिल करनी है तो उसे मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश और पूर्वोत्तर के राज्यों में जोरदार मेहनत करनी होगी तो वहीं क्षेत्रीय दलों के वर्चस्व वाले राज्यों में गठबंधन को ही रणनीति बनानी होगी.

चिदंबरम के फॉर्मूले में अंकगणित के हिसाब से कागजों पर कांग्रेस करिश्मा देख सकती है. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि मोदी-विरोधी मोर्चा केंद्र सरकार के खिलाफ किन मुद्दों पर मैदान में ताल ठोंक सकेगा? सिर्फ मोदी विरोध के नाम पर चुनाव जीतने की गलतफहमी कांग्रेस को साल 2014 की ही तरह दोबारा ‘हाराकीरी’ पर मजबूर ही करेगी.

कांग्रेस को अपनी रणनीति बदलनी होगी. पीएम मोदी के खिलाफ आपत्तिजनक बयानों से बचना होगा. इसकी शुरुआत खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को ही करनी पड़ेगी तभी दूसरे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता जबान पर लगाम रखेंगे. अब राहुल भी ये जान चुके हैं कि ‘आंखों में आंख न डाल पाने वाले’ मोदी अविश्वास प्रस्ताव पर कैसे विरोधियों को धूल चटा गए हैं.

कांग्रेस में पीएम मोदी पर बोलने के नाम पर ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का ‘भरपूर इस्तेमाल’ करने वाले नेता ही अपनी पार्टी का काम तमाम करते आए हैं. तभी राहुल को सीडब्लूसी की बैठक में बड़बोले नेताओं की बोलती बंद करने के लिये कड़ी कार्रवाई की धमकी देनी पड़ी है.

बहरहाल, कांग्रेस ये सोचकर खुद में आत्मविश्वास भर सकती है कि इस साल लोकसभा की दस सीटों पर हुए उपचुनावों में बीजेपी 8 सीटों पर हारी है. वहीं बीजेपी भी 8 सीटों की हार से 2019 के अपने मिशन 300+ की दोबारा समीक्षा कर सकती है. फिलहाल सौ साल पुरानी कांग्रेस को 150 सीटों की सख्त दरकार है. ये चुनौती इसलिये भी बड़ी है क्योंकि कांग्रेस के पास 272 के ‘मैजिक फिगर’ के लिये कोई जादुई छड़ी नहीं है.

Mark my words BJP will get maximum 150 in 2019: Mamta Banerjee


Announces mega rally in brigade parade ground on January 19, where she will call opposition political leaders for the initiation of  “The Federal Front”


A day after the Narendra Modi-led NDA government defeated the no-confidence motion in Lok Sabha, Trinamool Congress chief Mamata Banerjee said that the BJP have no numbers outside the House and will be ousted from power in 2019 by a federal front alliance of regional parties.

Mamata Banerjee also announced a mega rally to be held in the iconic Brigade Parade Ground on January 19 where she will invite all opposition political leaders for the initiation of the federal front against BJP.

“On January 19 in brigade parade ground, we will hold a mega rally. The rally will mark the beginning of BJP end. I will call all political leaders (opposition parties). It will mark the beginning of the federal front. Bengal will show the path in the Lok Sabha polls. But we are not hungry for chair,” she said.

Speaking at the 25th anniversary of ‘July 21 TMC Martyr’s Day’ at Esplanade situated in the heart of Kolkata, the TMC supremo said that the no-confidence motion showed how the party is fast losing numbers and allies.

“Yesterday, BJP somehow managed to slip through no-confidence motion by 325:126 votes. They somehow managed to get the numbers inside the House. Those are 2014 numbers. In 2019, they will be ousted. They pulled it off because of AIADMK’s support. Had Jayalalithaa been alive, BJP would have never got their vote. But they lost their oldest ally Shiv Sena. BJP is fast losing numbers and allies. They won the no-confidence motion through ‘acquaintances’,” Mamata Banerjee said.

“M K Stalin (DMK working president) will defeat AIADMK in Tamil Nadu. In UP, if Akhilesh and Mayavati come together, their alliance will win 50 of the 80 seats. In Madhya Pradesh, they had got 28 seats but this time they will not win even 8 seats. In Rajasthan, they won 25 seats but this time they will not even win 5 seats there. In Gujarat, they will get zero. In Bihar, Laluji will grasp all the seats. In West Bengal, people will show them the doors. In Odhisa Navin Patnaik will get the seats. In Punjab, Amarinder Singh will thwart them. Where will they get the seats,” said Mamata Banerjee.

“Now they (BJP) have 325 (Lok Sabh seats). I doubt they can cross 100 in 2019 (Lok Sabha polls). They will get maximum 150. They will not get the majority. Mark my words,” said Mamata Banerjee.

She stated that BJP and NDA had started to disintegrate. “Yesterday, the allies did not vote for them. Shiv Sena, their ally did not vote for them.

Bengal chief minister also targeted BJP on raging issues like lynchings and farmer suicides. “Lynchings have become so common which shows the way they are preaching hatred among the people. They are changing the names of the railway stations. I do not hate the old-timers of the BJP-RSS as they do not play such dirty games. They are not like the Talibanis that rule the country today. Hundreds of people have been killed in Uttar Pradesh in the name of encounters. More than 12,000 farmers are committing suicide every year,” she said.

“It is Bengal where farmers have tripled their income and we also give for a loan waiver. But cant the central government learn from us.

Lakhs of Trinamool Congress workers hit the streets on Saturday and all major thoroughfares were jam-packed. The rally also saw, leaders like Chandan Mitra(former BJP Rajya Sabha member and noted journalist), Ritabrata Bandopadhyay (CPIM Rajya Sabha member) and a number of Congress MLA joining Trinamool Congress.

हामीद अंसारी की परेशानी जोशी की जुबानी

 

नई दिल्ली. संघ और भाजपा से जुड़े रहे पूर्व प्रचारक संजय विनायक जोशी फिर से जोश में आ गए हैं. अचानक उन्होंने एक ब्लॉग लिखकर अपने तेवर दिखा दिए हैं. यूं तो उन्होंने पूर्व उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी पर निशाना साधा है लेकिन सीधे तौर पर उनके निशाने पर भारत ही नहीं दुनियां भर के मुसलमान और इस्लाम तो है ही, उनकी तरफदारी करने वाले लोग भी हैं. इस ब्लॉग को उनकी फौरी प्रतिक्रिया के तौर पर देखा जाए या भविष्य का कोई संकेत, ये तो आने वाले वक्त में ही पता चलेगा, लेकिन उनके तेवर काफी सख्त हैं.

जोशी बिना लाग लपेट के सीधे हामिद अंसारी पर सवाल उठाते हुए लिखते हैं कि, ‘हाल ही में पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने कहा था कि देश के मुस्लिमों में बेचैनी का अहसास और असुरक्षा की भावना है. अभी-अभी आ रही एक बेहद सनसनीखेज खबर से साबित हो गया है कि आखिर हामिद अंसारी जैसे लोगों में असुरक्षा की भावना क्यों पनप रही है. खबर है कि उत्तराखंड में मदरसों में पढ़ने वाले करीब 2 लाख मुस्लिम बच्चे रातों-रात गायब हो गए हैं’. दरअसल उन्होंने व्यंग्यात्मक लहजे में आधार लिकिंग के बाद उत्तराखंड में वजीफों में आई कमी को हामिद अंसारी के बयान से जोड़ दिया है.

वो आगे लिखते हैं, ‘ये तो अकेले उत्तराखंड का मामला है, अब आप खुद ही समझ सकते हैं कि जब सीएम योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश में मदरसों को अपना रजिस्ट्रेशन करवाने को कहा तो क्यों इतना हंगामा खड़ा कर दिया गया. इस बात से साबित हो गया है कि बीजेपी की सरकार आने के बाद से मुस्लिम खुद को क्यों असुरक्षित महसूस कर रहे हैं’. वजीफे के मुद्दे पर ही नहीं वो मदरसों को और भी बातों के लिए निशाने पर लेते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में तो और भी काफी कुछ चल रहा है. सरकारी पैसों की लूट वहां भी ऐसे ही की जा रही है, साथ ही खुफिया एजेंसियों ने ये भी अलर्ट दिया है कि कई मदरसों में बच्चों को कट्टरपंथी शिक्षा भी दी जा रही है. इस तरह की गड़बड़ियों को देखते हुए सीएम योगी ने सभी मदरसों का रजिस्ट्रेशन जरूरी कर दिया है. राज्य में कई मदरसे बिना रजिस्ट्रेशन के चल रहे हैं, उन्हें फंड कहाँ से आता है, इसकी किसी को कोई जानकारी तक नहीं है.इन मदरसों में क्या पढ़ाया जा रहा है, इस पर भी सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होता. जबकि ऐसे छात्रों को लगातार अल्पसंख्यक कल्याण योजनाओं के तहत तमाम फायदे मिलते रहते हैं.’.

हामिद अंसारी पर निशाना साधते हुए संजय जोशी लिखते हैं, ‘उत्तर प्रदेश सरकार राज्य में चल रहे लगभग 800 मदरसों पर प्रतिवर्ष 4000करोड़ रुपये खर्च करती है. मगर हैरत की बात है कि इसका एक बड़ा हिस्सा छात्रों तक पहुंचने की जगह उन लोगों की जेब में जा रहा है, जिन्हें लेकर हामिद अंसारी जैसे लोग परेशान हो रहे हैं’. मदरसों के बाद वो अपने ब्लॉग में इंटरनेशनल लेवल पर हो रही घटनाओं को इस्लाम से जोड़ देते हैं, ‘वैसे देखा जाय तो पाकिस्तान में मुसलमानों को कौन मार रहा है ? अफगानिस्तान में मुसलमानों को कौन मार रहा है? सीरिया में मुसलमानों की हत्या कौन कर रहा है? यमन में मुसलमानों को कौन मार रहा है? इराक में मुसलमानों को कौन मार रहा है? लीबिया में मुसलमानों की हत्या कौन कर रहा है? कौन है जो मिस्र में मुसलमानों को मार रहा है? जो सोमालिया में मुसलमानों को मार रहा है? बलूचिस्तान में भी मुसलमानों को मार रहा है? अब मैं सोच रहा हूँ जब ये सभी देश इस्लामिक हैं… तब शान्ति कहाँ है? मैं इस्लाम पर सवाल नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि सभी लोग जानते हैं की इस्लाम एक शांतिपूर्ण धर्म है… लेकिन शांति रहस्यमय रूप से से गायब है….!! अफगानिस्तान, इराक, सीरिया, लेबनान, यमन और मिस्र को किसने बर्बाद किया है ? या वहां दंगा करने के लिए कौन जिम्मेदार हैं ?’.

लग रहा है कि संजय जोशी इस्लाम से जुड़े एक एक पहलू पर लिखने के मूड में थे, वो देश की बात भी करते हैं और उसके ‘गद्दारों’ की भी, ‘अजीब विडम्बना है , कुछ गद्दारों के लियें यहाँ इशरत बेटी है, कन्हैया बेटा है, दाऊद भाई है, अफजल गुरू है, लेकिन भारत माता नहीं !आखिर…ऐसा क्यों है……..’.

वो आगे लिखते हैं, ‘अब थोड़ा और ध्यान दीजिए…मुस्लिम + हिन्दू = समस्या, मुस्लिम + बौद्ध =समस्या, मुस्लिम + ईसाई = समस्या, मुस्लिम + सिख = समस्या, मुस्लिम + नास्तिक = समस्या, मुस्लिम + मुस्लिम =बहुत बड़ी समस्या! उदाहरण देखिए, हां-जहां मुस्लिम बहुसंख्यक है, वहाँ वे सुखी नहीं रहते हैं और न दूसरे को रहने देते हैं!

देखिए …मुस्लिम सुखी नहीं, गाजा में मुस्लिम सुखी नहीं ,म्हलचज में मुस्लिम सुखी नहीं, लीबिया में मुस्लिम सुखी नहीं ,मोरोक्को में मुस्लिम सुखी नहीं, ईरान में मुस्लिम सुखी नहीं, ईराक में मुस्लिम सूखी नहीं, यमन में मुस्लिम सुखी नहीं, अफगानिस्तान में मुस्लिम सुखी नहीं, किस्तान में मुस्लिम सुखी नहीं ,सीरिया में मुस्लिम सुखी नहीं ,लेबनान में मुस्लिम सुखी नहीं ,नाइजीरिया में मुस्लिम सुखी नहीं ,केन्या में मुस्लिम सुखी नहीं सूडान में ,अब गौर कीजिए ………! मुस्लिम सुखी वहां हैं, जहाँ कम संख्या में है…? मुस्लिम सुखी है आस्ट्रेलिया में, मुस्लिम सुखी है इंग्लैंड में, मुस्लिम सुखी है बेल्जियम में, मुस्लिम सुखी है फ्रांस में, मुस्लिम सुखी है इटली में, मुस्लिम सुखी है जर्मनी में, मुस्लिम सुखी है स्वीडन में, मुस्लिम सुखी है कनाडा में, मुस्लिम सुखी है भारत में, मुस्लिम सुखी है नार्वे में, मुस्लिम सुखी है नेपाल में, क्योंकि यहां जेहाद के नाम पर सब कुछ संभव हैं.

आखिरी लाइन वो उस विषय पर लिखते हैं जोकि उनके ब्लॉग का टाइटल है, ‘आतंकवादी का मजहब क्या होता है?’. वो लिखते हैं, ‘मुसलमान हर उस देश में सुखी है ! जो इस्लामिक देश नही है ……..और देखिये कि वो उन्हीं देशो को दोषी ठहराते है जो इस्लामिक नहीं हैं….! या जहां मुस्लिमो की लीडरशिप नही है…..! मुस्लिम हमेशा उन देशो को ब्लेम करते है जहां वे सुखी हैं…….! और मुस्लिम उन देशों को बदलना चाहते हैं….. जहां वे सुखी हैं ! और बदल कर वे उन देशों की तरह कर देना चाहते हैं! जहां वे सुखी नही हैं……..!और अंत तक वो इसके लिए लड़ाई करते हैं….! और इसको ही बोलते हैं..आदि और भी हैं ऐसे ही इस्लामिक जेहादी आतंकवादी संगठन! अब इतना तो आप सभी, जरूर समझ गए होंगे कि……आतंकवादी का मजहब क्या होता है…..?’

संजय जोशी अपने आप को बीजेपी का सदस्य कहते हैं, ये अलग बात है कि बीजेपी उन्हें आधिकारिक रूप से कही नहीं बुलाती. अब ऐसे में उनका ये ‘मुस्लिम विरोधी’ ब्लॉग विवादों में आता है, या उन्हीं की तरह गुमनामी में जाएगा, वक्त ही बताएगा.

Mangal Pandey ‘The Lone Runner’


The chapters of India’s independence chapter began to be written in true sense in 1857 but it is said that the rebel of the rebellion against Angaji’s rule was played by the soldier with one of them. The aura of that soldier was such that when the forerunners ordered the other soldiers to confront him, they all retreated and the turn of martyrdom turned out to be the executioners refused to hang him.


The chapters of India’s independence chapter began to be written in true sense in 1857 but it is said that the rebel of the rebellion against Angaji’s rule was played by the soldier with one of them. The aura of that soldier was such that when the forerunners ordered the other soldiers to confront him, they all retreated and the turn of martyrdom turned out to be the executioners refused to hang him. Perhaps that Indian soldier was a warrior of independence. He was none other than Mangal Pandey, born in 1827 in a Sarayuparan Brahmin family in Nagawa, a small village in Ballia, Uttar Pradesh. Today (July 19th) is the birth anniversary of Mangal Pandey. Pandey was admitted to the army of East India Company at the age of 22 as a constable. He was a soldier of the East India Company’s 34th Bengal Infantry. In the memory of Mangal Pandey, the Government of India issued a stamp in 1984. Films and dramas have become their life. Historians have different opinions about Mangal Pandey’s revolt.

One of the historians wrote that rumors of Indian soldier being killed by the European soldiers for making and opposing Indian soldiers forcibly terrorized Mangal Pandey and on 29 March 1857, in the drunken cannabis, Had rebelled against the rule. Some historians said that due to the rebellion he became an enfield gun, in which the cartridge had to be cut off by teeth. When the soldiers came to know that the outer shell of the cartridge was made of cow and pig fat to save the seal, Mangal Pandey had raised the voice against it. English historian Kim E. Wagner wrote in his book “The Great Fear of 1857 – Rumors, Conspiracy and Making of the Indian Unmissing”, “Knowing the fear of the sepoys, Major General J. B. Heyersi, on the Hindustani soldiers It was quite rumored to have called the assault as rumor, but it is quite possible that the heresy was able to spoil the situation by confirming the rumors reached to the soldiers. The soldiers who were terrorized by Major General’s speech were also Mangal Pandey of the 34th Bengal Native Infantry. “

British historian Rosie Lilvelan Jones has also presented some similar arguments in his book “The Great Upcoming In India 1857 – 58 Untold Stories, Indian and British”. According to these historians, Mangal Pandey fired at Sergeant Major James Hewison but he survived. This incident has been told by the hand of Sheikh Paltu. During the conflict, when the lieutenant Benpade Bag reached the spot, Pandey shot him, but the target missed, Bagh also fired on Pandey with his pistol, he did not even target. If the British officers asked the soldiers to capture Mangal Pandey, all the chase was withdrawn. Paltu tried to overcome Pandey.According to Jones, when Paltu told the jamadar Ishwari Pandey that he sent four soldiers to capture Mangal Pandey, Ishwari Prasad had told Paltu a gun and said that if Mangal does not let Pandey escape then he will shoot him.

According to Jones, Mangal Pandey has cursed his colleagues and said that “you people have provoked me and now you are not with me”, and many pedestrians, including the cavalry, come towards him, Pandey has put a gun in his chest with his chest The trigger was pressed by thumb but he was saved. On April 8, 1857, Pandey was executed by the hangers of Kolkata on refusal by local hangers.

Ishwar Prasad was also hanged after Mangal Pandey. This spark of rebellion imposed by Mangal Pandey is not extinguished again. After a month, on May 10, 1857, a revolt was started in Meerut Cantonment and after seeing this fire took the whole of North India into its grip. It is said that the British had imposed 34,735 laws on Indian revolt with the rebellion so that no one like Mangal Pandey could retain his head again.

Arif Mohammad Khan’s statement valid till date

A piece of news has barely scratched the surface of our consciousness. It involves a powerful and influential local cleric from Bareilly’s Dargah Aala Hazrat seminary issuing a fatwa against a woman, asking locals and the faithful to ostracize her. Nida Khan, according to the cleric, has committed a “grave crime”. A victim of ‘triple talaq’, Nida had the temerity to campaign against the practice of instant divorce in Indian Muslim communities.

Congress president Rahul Gandhi. PTI

What makes Nida’s “crime” even “greater” is that she runs an NGO in Bareilly, Uttar Pradesh, through which the courageous crusader supports Muslim women — a voiceless, marginalised group on the fringes of community space — who have been victimised by triple talaq or ‘nikah halala’ (the custom that dictates that a divorced couple can remarry only if the woman marries another man, consummates her new marriage and then proceeds to divorce).

According to a nation wide survey involving over 4,700 married Muslim women across 10 states conducted by Bharatiya Muslim Mahila Andolan (BMMA) — a women’s rights organisation that has been at the forefront of the fight against triple talaq, polygamy and nikah halala — more than 90 percent respondents want the ritual of instant divorce and polygamy to be banned in India. The survey also showed that 88 percent Muslim women favour divorce through “talaq-e-ahsan” — a practice spread over three months and involving negotiation.

In a landmark ruling in April last year, a five-judge bench of the Supreme Court had set aside the Hanafi tradition of triple talaq as a “manifestly arbitrary” practice not covered by Article 25 (freedom of religion) of the Constitution. In delivering the judgment, justice Rohinton Fali Nariman had observed that it is “not possible for the court to fold its hands when petitioners (Muslim women) come to court for justice,” according to a report in The Hindu.

For Nida’s “crime”, however, cleric Mufti Afzaal Razvi wrote in the fatwa: “If Hinda (Nida Khan) does not apologise, she should be boycotted. Nobody should talk or greet her and people should stop eating with her, should not visit her if she is taken ill and if she dies, they should not read her last prayer or let her be buried in a graveyard,” reported Times of India which claimed to possess a copy of the “fatwa’.

The newspaper report also mentions that Nida suffered a miscarriage after allegedly being beaten by her husband in 2015 and she was eventually divorced by her husband through triple talaq a year later. The fatwa forbids Muslims from meeting her. It says: “Any person, including her family and triple talaq victims, who will meet her and do not follow Sharia decision, will stand at the same position as Nida.”

It doesn’t end here.According to a report by ABP News, the Bareilly cleric “ostracized” Nida and another woman — Farhat Naqvi, who happens to be the sister of Union Minister Mukhtar Abbas Naqvi and also runs an organisation to support Muslim women — for daring to raise their voices against triple talaq. The fiery Nida has dismissed the ‘fatwa’ and slammed the All India Muslim Personal Law Board — the self-styled gatekeepers of shariah law. “We don’t accept the AIMPLB but Islam, which came to us 1400 years ago. We will continue fighting for our daughters. These people have always subjugated women but now the time has changed,” the report quoted her, as saying.

The saddest part is, for campaigning against a practice deemed unconstitutional by the Supreme Court and considered un-Islamic in several Muslim-majority nations, Nida has been extended police protection.

There has hardly been any voice in Nida’s support. The self-righteous Left, which has huge similarities with Islamism in its way of controlling the thoughts and actions of its followers and prioritization of group identity over individual rights, is expectedly looking the other way. The liberals are silent because hounding of Muslim women by clerics doesn’t fit into its majoritarian narrative.


The Congress, whose president recently proclaimed himself as the “eraser” of hatred and fear and announced that he stands with the “exploited, marginalised and the persecuted”, is trying his best to scuttle the Muslim Women (Protection of Rights on Marriage) Bill, 2017, so that it doesn’t turn into a law. Introduced by the NDA government after Supreme Court set aside the practice of ‘triple talaq’, the bill seeks to make it easier for Muslim women to approach the law seeking subsistence allowance and custody of minor children. It declares instant divorce as “illegal” and “void”.

The Bill has been passed in Lok Sabha, where the BJP has a majority. It is stuck in the Upper House because the Opposition wants to send it to a “select committee” for “closer scrutiny”. In reality, it is a delaying tactic by the Congress-led Opposition which has been caught in a no man’s land. The Opposition is non-committal and desperate to buy time because it doesn’t want to be seen coming out against a legislation that seeks to address legitimate grievances of Muslim women. On the other hand, it is wary of backing the Bill and courting the ire of the powerful mullahs’ club.

If Rahul Gandhi was truly the fellow traveler of the “exploited, marginalised and the persecuted”, he would have led Congress in unconditionally backing the triple talaq Bill and undoing his father Rajiv Gandhi’s historic blunder who — in order to appease male Muslim leaders — used his brute majority in Parliament to overturn a Supreme Court verdict in 1986 and deny Shah Bano Begum, a poor, septuagenarian, divorced Muslim woman her alimony.

On Congress’ decision to block the triple talaq Bill in Rajya Sabha, former Union minister Arif Mohammad Khan who resigned from the Rajiv Gandhi cabinet in protest against the decision to overturn the Shah Bano verdict, had this to say to India Today: “The Congress party is acting at the behest of Muslim Personal law board, the way its members have congratulated Congress is a testimony to this and it is a very unfortunate situation… Congress party doesn’t care about victims and individuals, but those who promise vote bank, like the Muslim personal law board.”

What the fatwa against Nida and the fate of triple talaq Bill tells us is that the fate of real minorities — such as Muslim women — remains endangered in India because the political system is unable to help them and the civil society finds it easier to indulge in pop activism than tackle uncomfortable realities and lived experiences.

Hashtag campaigns such as #TalkToAMuslim dominate social media — championed by the likes of actor and globally acclaimed public intellectual Swara Bhasker — that are condescending (if well-meaning), reductive and serve to alienate Muslims further through an exclusive focus on religious identities. Instead of such bubblegum activism in echo chambers, it might be worthwhile listening to the voices of courageous Muslim women in India who are still being persecuted for resisting obscurantist practices propagated by misogynistic men. Talk to them.

चन्दन मित्रा ने भाजपा छोड़ि

चंदन मित्रा ने अभी पार्टी छोड़ने की कोई वजह नहीं बताई है. इस बात का भी खुलासा नहीं किया है कि वह आगे क्या करेंगे

कयास यह है कि मित्रा टीएमसी में जाएँगे।


सीनियर बीजेपी लीडर चंदन मित्रा ने बुधवार को पार्टी छोड़ दी. मित्रा ने कहा, ‘मैंने इस्तीफा दे दिया है. मैंने अभी यह फैसला नहीं किया है कि कब और कहां ज्वाइन करूंगा. मैं अभी इस बात का खुलासा नहीं करूंगा.’ वैसे खबरों की माने तो मित्रा टीएमसी में जा सकते हैं. वहींं, सीपीएम के वरिष्ठ नेता ऋतब्रत बनर्जी के भी पार्टी छोड़कर टीएमसी में जाने के कयास लगाए जा रहे हैं.

पूर्व राज्यसभा सांसद मित्रा पायोनीयर के एडिटर और मैनेजिंग डायरेक्टर हैं. मित्रा अगस्त 2003 से 2009 के बीच राज्यसभा सांसद थे. जून 2010 में बीजेपी ने मध्यप्रदेश से राज्यसभा सांसद बनाया था. उनका कार्यकाल 2016 में खत्म हुआ था.

बीजेपी के दिल्ली सर्किल में मित्रा पार्टी का अहम चेहरा थे. कई अहम मुद्दों पर उन्होंने पार्टी का बचाव किया है. मित्रा को पार्टी में लालकृष्ण आडवाणी का करीब माना जाता था. नरेंद्र मोदी और अमित शाह के आगे आने के बाद वह साइडलाइन हो गए हैं.

4-2 से फ्रांस ने फिफा 2018 अपने नाम किया


फ्रांस ने फाइनल में क्रोएशिया को 4-2 से पराजित किया. वो 1998 में पहली बार विश्व कप में फाइनल खेली थी और जीतने में सफल रही थी


 

रेफरी की अंतिम सीटी बजते ही फ्रांस जश्न में डूब गया. मैच के अंतिम पलों में ही बेंच पर बैठे उसके खिलाड़ी, कोच, सपोर्ट स्टाफ और फैंस जश्न में मूड में आ गए थे. फ्रांस ने रविवार को मास्को के लुज्निकी स्टेडियम में फीफा विश्व कप के 21वें संस्करण में एक बार फिर अपनी बादशाहत साबित कर दी. महत्वपूर्ण मौकों पर स्कोर करने की अपनी काबिलियत और भाग्य के दम पर उसने रोमांचक फाइनल में दमदार क्रोएशिया को 4-2 से हराकर दूसरी बार विश्व चैंपियन बनने का गौरव हासिल किया.

 

फ्रांस ने इससे पहले 1998 में विश्व कप जीता था. तब उसके कप्तान डिडियर डेस्चैम्प्स थे जो अब टीम के कोच हैं. इस तरह से डेस्चैम्प्स खिलाड़ी और कोच के रूप में विश्व कप जीतने वाले तीसरे व्यक्ति बन गए हैं. उनसे पहले ब्राजील के मारियो जगालो और जर्मनी फ्रैंज बेकनबॉर ने यह उपलब्धि हासिल की थी.

फ्रांस ने 18वें मिनट में मारियो मांजुकिच के आत्मघाती गोल से बढ़त बनाई, लेकिन इवान पेरिसिच ने 28वें मिनट में बराबरी का गोल दाग दिया. फ्रांस को हालांकि जल्द ही पेनल्टी मिली जिसे एंटोनी ग्रीजमैन ने 38वें मिनट में गोल में बदला जिससे फ्रांस मध्यांतर तक 2-1 से आगे रहा.

पॉल पोग्बा ने 59वें मिनट में तीसरा गोल दागा, जबकि किलियन एम्बाप्पे ने 65वें मिनट में फ्रांस की बढ़त 4-1 कर दी. जब लग रहा था कि अब क्रोएशिया के हाथ से मौका निकल चुका है तब मांजुकिच ने 69वें मिनट में गोल करके उसकी उम्मीद जगाई. क्रोएशिया पहली बार फाइनल में पहुंचा था. उसने अपनी तरफ से हर संभव प्रयास किए और अपने कौशल और चपलता से दर्शकों का दिल भी जीता, लेकिन आखिर में ज्लाटको डॉलिच  की टीम को उप विजेता बनकर ही संतोष करना पड़ा. निसंदेह क्रोएशिया ने बेहतर फुटबॉल खेली लेकिन फ्रांस ने अधिक प्रभावी और चतुराईपूर्ण खेल दिखाया. यही उसकी असली ताकत है जिसके दम पर वह 20 साल बाद फिर चैंपियन बनने में सफल रहा.

दोनों टीमें 4-2-3-1 के संयोजन के साथ मैदान पर उतरी. क्रोएशिया ने इंग्लैंड की खिलाफ जीत दर्ज करने वाली शुरुआती एकादश में बदलाव नहीं किया तो फ्रांसीसी कोच डेस्चैम्प्स ने अपनी रक्षापंक्ति को मजबूत करने पर ध्यान दिया. क्रोएशिया ने अच्छी शुरुआत और पहले हाफ में न सिर्फ गेंद पर अधिक कब्जा जमाए रखा, बल्कि इस बीच आक्रामक रणनीति भी अपनाए रखी. उसने दर्शकों में रोमांच भरा, जबकि फ्रांस ने अपने खेल से निराश किया. यह अलग बात है कि भाग्य फ्रांस के साथ था और वह बिना किसी खास प्रयास के दो गोल करने में सफल रहा.

मैच की महत्वपूर्ण बातें

फ्रांस के पास पहला मौका 18वें मिनट में मिला और वह इसी पर बढ़त बनाने में कामयाब रहा. फ्रांस को दायीं तरफ बॉक्स के करीब फ्री किक मिली. ग्रीजमैन का क्रास शॉट गोलकीपर डेनियल सुबासिच की तरफ बढ़ रहा था. लेकिन तभी मांजुकिच ने उस पर हेडर लगा दिया और गेंद गोल में घुस गई. इस तरह से मांजुकिच विश्व कप फाइनल में आत्मघाती गोल करने वाले पहले खिलाड़ी बन गए. यह वर्तमान विश्व कप का रिकॉर्ड 12वां आत्मघाती गोल है.

पेरिसिच ने हालांकि जल्द ही बराबरी का गोल करके क्रोएशियाई प्रशंसकों और मांजुकिच में जोश भरा. पेरिसिच का यह गोल दर्शनीय था जिसने लुज्निकी स्टेडियम में बैठे दर्शकों को रोमांचित करने में कसर नहीं छोड़ी. क्रोएशिया को फ्री किक मिली और फ्रांस इसके खतरे को नहीं टाल पाया. मांजुकिच और डोमागोज विडा के प्रयास से गेंद विंगर पेरिसिच को मिली. उन्होंने थोड़ा समय लिया और फिर बाएं पांव से शॉट जमाकर गेंद को गोल के हवाले कर दिया. फ्रांसीसी गोलकीपरी ह्यूगो लॉरिस के पास इसका कोई जवाब नहीं था.

लेकिन इसके तुरंत बाद पेरिसिच की गलती से फ्रांस को पेनल्टी मिल गई. बॉक्स के अंदर गेंद पेरिसिच के हाथ से लग गई. रेफरी ने वीएआर की मदद ली और फ्रांस को पेनल्टी दे दी. अनुभवी ग्रीजमैन ने उस पर गोल करने में कोई गलती नहीं की. यह 1974 के बाद विश्व कप में पहला अवसर है जबकि फाइनल में मध्यांतर से पहले तीन गोल हुए.

क्रोएशिया ने दूसरे हाफ में भी आक्रमण की रणनीति अपनाई और फ्रांस को दबाव में रखा. खेल के 48वें मिनट में लुका मोड्रिच ने एंटे रेबिच का गेंद थमाई, जिन्होंने गोल पर अच्छा शॉट जमाया. लेकिन लॉरिस ने बड़ी खूबसूरती से उसे बचा दिया.

लेकिन गोल करना महत्वपूर्ण होता है और इसमें फ्रांस ने फिर से बाजी मारी. दूसरे हाफ में वैसे भी उसकी टीम बदली हुई लग रही थी. खेल के 59वें मिनट में किलियन एम्बाप्पे ने दाएं छोर से गेंद लेकर आगे बढ़े. उन्होंने पोग्बा तक गेंद पहुंचाई जिनका शॉट विडा ने रोक दिया. रिबाउंड पर गेंद फिर से पोग्बा के पास पहुंची जिन्होंने उस पर गोल दाग दिया.

इसके छह मिनट बाद एम्बाप्पे ने ने स्कोर 4-1 कर दिया. उन्होंने बाएं छोर से लुकास हर्नाडेज से मिली गेंद पर नियंत्रण बनाया और फिर 25 गज की दूरी से शॉट जमाकर गोल दाग दिया जिसका विडा और सुबासिच के पास कोई जवाब नहीं था. एम्बाप्पे ने 19 साल, 207 दिन की उम्र में गोल दागा और वह विश्व कप फाइनल में गोल करने वाले सबसे कम उम्र के खिलाड़ी बन गए. पेले ने 1958 में 17 साल की उम्र में गोल दागा था.

क्रोएशिया लेकिन हार मानने वाला नहीं था. तीन गोल से पिछड़ने के बावजूद उसका जज्बा देखने लायक था. लेकिन उसने दूसरा गोल फ्रांसीसी गोलकीपर लॉरिस की गलती से किया. उन्होंने तब गेंद को ड्रिबल किया जबकि मांजुकिच पास में थे. क्रोएशियाई फारवर्ड ने उनसे गेंद छीनकर आसानी से उसे गोल में डाल दिया. इसके बाद भी क्रोएशिया ने हार नहीं मानी. उसने कुछ अच्छे प्रयास किए, लेकिन उसके शॉट बाहर चले गए. इस बीच इंजरी टाइम में पोग्बा को अपना दूसरा गोल करने का मौका मिला, लेकिन वह चूक गए.

हाँ मैंने 2 बच्चे बेचे, मुझे नहीं मालूम वोह कहाँ हैं: नन, अणिमा


राज्य की राजधानी रांची स्थित मिशनरीज ऑफ चैरिटी की नन ने स्वीकार किया है कि मैंने दो अन्य शिशुओं को भी बेचा है, नन ने कहा है कि मुझे नहीं पता कि अब वे कहा हैं


झारखंड में नवजात शिशुओं के बेचे जाने के मामले में एक नन के कबूलनामे का एक वीडियो सामने आया है. राज्य की राजधानी रांची स्थित मिशनरीज ऑफ चैरिटी की नन ने स्वीकार किया है कि मैंने दो अन्य शिशुओं को भी बेचा है. नन ने अपने कबूलनामे में कहा है कि मुझे नहीं पता कि अब वे कहा हैं.

रांची पुलिस ने चाइंलड ट्रैफिकिंग के आरोप में 9 जुलाई को दो नन को गिरफ्तार किया था. यह नन भी उसी में शामिल है. पुलिस ने बताया कि बेचे गए 4 शिशुओं में से 3 को बरामद कर लिया गया है.

रांची पुलिस के सामने गुनाह कबूल करते हुए नन ने कहा है कि उसने 50-50 हजार रुपए में दो बच्चों को बेचा है जबकि एक बच्चे को एक लाख बीस हजार रुपए में बेचा था. बेचे गए अन्य बच्चे के बारे में नन को पूरी जानकारी नहीं है.

कैसे हुआ मामले का खुलासा

यह मामला तब खुला जब यूपी के सोनभद्र जिले के ओबरा निवासी सौरभ अग्रवाल और प्रीति अग्रवाल ने चाइल्ड वेलफेयर कमेटी (सीडबल्यूसी) के पास शिकायत लेकर पहुंचे कि उन्हें उनका बच्चा वापस नहीं दिया जा रहा है. इस बच्चे को उन्होंने पांच मई को 1.20 लाख में खरीदा था.

एफआईआर में दर्ज जानकारी के मुताबिक गुमला की रहनेवाली एक रेप पीड़िता अविवाहित गर्भवती लड़की यहां रह रही थी. उसने बीते एक मई को रांची सदर अस्पताल में बच्चा को जन्म दिया. इस नवजात को कर्मचारी अनिमा इंदवार ने सिस्टर कोंसिलिया के मिलीभगत से अग्रवाल दंपती को बेच दिया. उस वक्त नवजात चार दिन का ही था. इधर 30 जून को सीडबल्यूसी के सदस्यों ने संस्था का दौरा किया था. इससे डरकर अनिमा ने उसी दिन अग्रवाल दंपति को फोन कर कहा कि बच्चे को अदालत में पेश करना है, उसे लेकर रांची आ जाइए.

इसके बाद बच्चे को दो जुलाई अनिमा को दे दिया. तीन जुलाई को बच्चे की जानकारी लेने वह संस्था पहुंचे, जहां उन्हें बच्चे से नहीं मिलने दिया गया. इसके बाद उसी दिन उन्होंने इसकी शिकायत सीडबल्यूसी से की. सूचना मिलते ही चेयरमैन रूपा कुमारी निर्मल हृदय पहुंची. पूरी छानबीन के बाद जब कड़ाई से पूछताछ की गई तो अनिमा ने स्वीकारा कि उन तीनों ने मिलकर बच्चे को बेच दिया है.

बंगाल मे खस्ता हल कांग्रेस टूटने की कगार पर


समय कम है और राज्य स्तर के नेताओं पर दबाव काफी है, लेकिन ये तो तय है कि राहुल गांधी का जो भी फैसला होगा-उससे कांग्रेस में भगदड़ तो मचेगी.


2019 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस के लिए करो या मरो का चुनाव है. गठबंधन की गाड़ी पर सवार कांग्रेस हर राज्य में अपना साथी तलाश रही है. बड़े-बड़े राज्यों पर खास तौर से कांग्रेस की नजर है. ऐसे ही एक बड़े राज्य पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की गाड़ी अटक रही है. साथी की तलाश में बंगाल में उसके सामने दो विकल्प हैं और यही विकल्प उसके लिए गले की हड्डी बने हुए हैं. कांग्रेस में चुनावी तालमेल के सवाल पर दो गुट आमने-सामने हैं.

इनमें से एक गुट सीपीएम की अगुवाई वाले वाममोर्चा के साथ तालमेल जारी रखने की वकालत कर रहा है तो दूसरा गुट तृणमूल कांग्रेस के साथ एक बार फिर हाथ मिलाने के पक्ष में है. ऐसे में कांग्रेस काफी पसोपेश में है. वामदलों ने 2004 में कांग्रेस की यूपीए सरकार को समर्थन दिया था और यहीं से केंद्र में उनकी दोस्ती शुरू हो गई थी, जबकि राज्य में कांग्रेस और वामदल धुरविरोधी थे. आपातकाल के बाद कांग्रेस का विरोध कर ही वामपंथी दलों ने बंगाल पर जीत हासिल की थी. उस जीत का साइड इफेक्ट इतना भयंकर रहा कि कांग्रेस बंगाल में खत्म सी हो गई है.

पश्चिम बंगाल में कांग्रेस

देश के आजादी के बाद पश्चिम बंगाल में 1967 तक कांग्रेस का शासन रहा. उसके बाद राज्य में समस्याओं का दौर शुरू हो गया. 1967 से 1980 के बीच का समय पश्चिम बंगाल के लिए हिंसक नक्सलवादी आंदोलन, बिजली के गंभीर संकट, हड़तालों और चेचक के प्रकोप का समय रहा. इन संकटों के बीच राज्य में आर्थिक गतिविधियां थमी सी रहीं. साथ ही राज्य में राजनीतिक अस्थिरता भी चलती रही. 1947 से 1977 तक राज्य में सात मुख्यमंत्री बदले और तीन बार राष्ट्रपति शासन रहा. आपातकाल के देश में परिवर्तन की लहर चली तो पश्चिम बंगाल में भी सत्ता का परिवर्तन हुआ और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में वाममोर्चा या लेफ्ट फ्रंट ने सत्ता संभाली.

वाममोर्चे के नीतियों का वहां की जनता पर काफी सकारात्मक असर हुआ और राज्य में कांग्रेस की स्थिति लगातार इतनी कमजोर होती गई कि अगले 34 सालों तक यानी वर्ष 2011 तक राज्य में वामपंथियों को सत्ता से कोई हटा नहीं पाया. हालांकि कांग्रेस के अनुभवी नेता प्रणब मुखर्जी का कांग्रेस में दबदबा कायम रहा लेकिन वे पश्चिम बंगाल में ऐसी जमीन तैयार नहीं कर पाए जहां खड़े होकर वे वाममोर्चे को चुनौती देते.

प्रियरंजन दासमुंशी जैसे लोकप्रिय नेता भी हुए लेकिन उनका क़द कभी इतना बड़ा नहीं हो सका कि वे वामपंथियों के लिए कांग्रेस को चुनौती के रूप में खड़ा करते. अलबत्ता युवा कांग्रेस के जरिए राजनीति में आईं तेज-तर्रार नेता ममता बैनर्जी ने अपनी जमीन जरूर तैयार की और उसका पर्याप्त विस्तार भी किया. पहले उन्होंने कांग्रेस छोड़कर अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस बनाई और फिर धीरे-धीरे अपनी पार्टी को कांग्रेस से बड़ा कर लिया. अब ममता बनर्जी की पार्टी की स्थिति वही है जो कि अस्सी या नब्बे के दशक में बंगाल में जो स्थिति वामपंथ की थी.

उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के बाद देश में सबसे ज्यादा लोकसभा सीट वाला राज्य है पश्चिम बंगाल. यहां पर लोकसभा की 42 सीटें हैं. साल 2014 में तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में मौजूद 42 सीटों में से 34 सीटों पर अपना कब्जा जमाया था. जबकि कांग्रेस को चार, वामदलों को दो और बीजेपी को दो सीटें मिली थी. साल 2016 में पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने बंगाल में अपने धुरविरोधी रहे वामदलों के साथ गठबंधन किया था लेकिन कांग्रेस को खास सफलता नहीं मिली. विधानसभा के कुल 294 सीटों में से कांग्रेस सिर्फ 44 पर ही जीत मिली.

कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) को 26 सीटें मिली थीं. बीजेपी को एक और तृलमूल कांग्रेस ने भारी जीत के साथ 211 सीटों पर कब्जा किया था. अब पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस बड़े भाई की भूमिका में है और कांग्रेस उसकी छोटी सहयोगी पार्टी के रूप में. वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में मिलकर चुनाव लड़ा था. उस वर्ष तृणमूल कांग्रेस को 19 सीटें और कांग्रेस को छह सीटें हासिल हुई थीं. वामदल को 15 और बीजेपी को एक सीट हासिल हुई थी.

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पर पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन करने का दबाव बना रहे हैं. पार्टी के ज्यादातर नेताओं ने ममता के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की पैरवी की है. पार्टी के राष्ट्रीय सचिव और विधायक मोइनुल हक सहित लगभग आधा दर्जन विधायक तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन न होने की सूरत में पार्टी छोड़ सकते हैं.

ऐसे में कांग्रेस के सामने पश्चिम बंगाल में पार्टी को टूट से बचाने की चुनौती खड़ी हो गई है. मोइनुल हक ने बयान दिया था कि अगर हम अकेले भी लड़ते हैं तो कोई फायदा होने वाला नहीं है. अगर हम तृणमूल कांग्रेस के साथ जाएंगे तो कुछ सीटें आ जाएंगी. लेफ्ट के साथ जाने का मतलब खुदकुशी करना है. कांग्रेस को ममता बनर्जी साथ लेगी तो उनको भी फायदा है इनको भी फायदा है.’

राहुल की मुश्किल यह है कि पार्टी का एक खेमा वामपंथी दलों के साथ तालमेल करने की बात कर रहे हैं तो वहीं तरफ कुछ नेता ऐसे भी हैं, जो पार्टी को मजबूत करने के लिए अकेले चुनाव लड़ने पर जो डाल रहे हैं. प्रदेश अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी का झुकाव वामपंथ की तरफ है. उनका कहना है कि कांग्रेस के जमीनी कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटेगा अगर कांग्रेस ने तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन किया. इससे पार्टी और कमजोर होगी.

तृणमूल कांग्रेस ने वामदल का कैडर तोड़ कर अपनी तरफ कर लिया है. वहीं तरीका वो कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ भी कर रही है. पार्टी के कुछ नेताओं का मानना है कि ममता के साथ जाने का मतलब बंगाल से कांग्रेस का नामोनिशान खत्म करना है. वहीं दीपा दासमुंशी जैसे कुछ नेता पार्टी को मजबूत करने की बात कर रहे हैं यानी पार्टी अकेले चुनाव लड़े. इनका मानना है कि हो सकता है पार्टी को कम सीटें मिले लेकिन जमीनी कार्यकर्ताओं को बल मिलेगा और कांग्रेस की जमीन मजबूत होगी.

बंगाल में बीजेपी की बढ़त

कांग्रेस नेताओं की दूसरी परेशानी बीजेपी का राज्य में बढ़त कायम करना है. पंचायत चुनाव में बीजेपी दूसरी बड़ी पार्टी बन कर उभरी है. बंगाल में बीजेपी ने करीब 32000 ग्राम पंचायत सीटों में से 5700 से अधिक में जीत दर्ज की थी. 2014 लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 17.02 वोट शेयर हासिल करने में सफलता पाई थी जो 2009 की तुलना में करीब 6.4 प्रतिशत अधिक था.

2016 के विधानसभा चुनाव में उसे 10.16 प्रतिशत वोट शेयर प्राप्त हुए थे. पंचायत चुनाव में अच्छा-प्रदर्शन करके बीजेपी ने बता दिया है कि जमीनी स्तर पर भी अब उसने आपको मजबूत कर लिया है. ये स्थिति कांग्रेस के नेताओं को डरा रही है. बीजेपी की बढ़त और हिन्दुत्व की तरफ लोगों का रुझान कांग्रेस के नेताओं के लिए सरदर्द बनता जा रहा है. बंगाल के भद्रलोगों में बीजेपी काफी लोकप्रिय हो रही है.

ममता बनर्जी की चुप्पी

हालांकि ममता बनर्जी ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं. बताया जाता है कि प्रधानमंत्री मोदी की बांग्लादेश यात्रा में ममता के शामिल होने पर राहुल गांधी ने तंज कसा था- ममता बनर्जी और प्रधानमंत्री मोदी के बीच सांठ-गांठ का आरोप लगाते हुए कहा था कि जब यूपीए की सरकार थी और तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बांग्लादेश जाना चाहते थे तब ममता बनर्जी ने हमसे कहा, ‘नहीं, एकला चलो रे’. लेकिन जब प्रधानमत्री मोदी गए तो ममता वहां पर चल दी. ममता को ये बयान काफी तीखा लगा था.

फिर उन्हें कांग्रेस और वामदलों की नजदीकी भी पसंद नहीं आई थी. कांग्रेस ने ममता बनर्जी के बजाय वाम दलों को ज्यादा तरजीह देते हुए पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में वाम दलों के साथ गठबंधन किया था, जबकि ममता कांग्रेस के साथ गठबंधन करने को इच्छुक थीं. पश्चिम बंगाल में बड़ी जीत के बाद ममता बनर्जी ने कहा था कि किस तरह वह विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस से गठबंधन के लिए दिल्ली में तीन दिनों तक थीं, लेकिन पार्टी के किसी नेता ने बात तक नहीं की.

यही वजह थी कि ममता बनर्जी तीसरे मोर्चे के लिए बेकरार थीं. इसके प्रयास में उन्होंने दिल्ली से हैदराबाद तक नेताओं से मुलाकात की थी. उन्होंने सोनिया गांधी से भी मुलाकात की लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से मिलने से बचती रहीं. कहीं ना कहीं वो ये संदेश देना चाह रही थीं कि राहुल गांधी का नेतृत्व उन्हें पसंद नहीं हालांकि खुल कर उन्होंने कुछ नहीं बोला.

अभी चुनावों में काफी वक्त बाकी है और कांग्रेस के साथ ममता बनर्जी का गठबंधन होता है तो ये देखने वाली बात होगी कि वो बंगाल में कांग्रेस के लिए कितनी सीटें छोड़ती हैं. अगर वो अपनी पार्टी के बूते अकेले बंगाल में चुनाव लड़ती हैं तो उनका प्रदर्शन काफी बेहतर होगा. लेकिन अगर कांग्रेस ने 10-12 सीटें मांगीं तो वो नहीं देंगी क्योंकि वो जानती हैं कि कांग्रेस यहां पर कमजोर है.

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस राज्य में इतनी ताकतवर हो गई है कि उसे कांग्रेस की जरूरत नहीं है. अलबत्ता कांग्रेस के जिन नेताओं को चुनाव लड़ना है, वो तृणमूल कांग्रेस के साथ तालमेल करना चाहते हैं. बीजेपी की बढ़त के चलते कांग्रेस के लोगों का मानना है कि वामदल से तालमेल में ना कांग्रेस के हाथ कुछ आएगा बल्कि वोट भी बंटेगे. लेकिन तृणमूल कांग्रेस के साथ तालमेल के बाद कांग्रेस बीजेपी को ज्यादा मजबूत चुनौती देगी. इस मुद्दे पर पार्टी के करीब छह विधायक और एक सांसद पार्टी छोड़ने को तैयार बैठे हैं.

राजनीतिक जानकारों का मानना है कि कांग्रेस नेतृत्व के कुंआ-खाई वाली स्थिति है. अगर तृणमूल से तालमेल नहीं करेगी तो चुनाव से पहले पार्टी से लोग भांगेंगे वहीं दूसरी तरफ तालमेल के बावजूद कांग्रेस को कुछ लाभ होगा भी ये अंदाजा लगाना मुश्किल है.

तृणमूल अपने में मजबूत पार्टी है लेकिन उसकी मजबूती से कांग्रेस को क्या लाभ होगा इसका अनुमान लगाना फिलहाल मुश्किल है. अब फैसला राहुल गांधी को लेना होगा कि कांग्रेस अपना तालमेल किससे करेगी. इस मुद्दे पर उन्होंने राज्य स्तर के नेताओं के साथ बैठक की है लेकिन अभी तक किसी फैसले पर नहीं पहुंचे. समय कम है और राज्य स्तर के नेताओं पर दबाव काफी है, लेकिन ये तो तय है कि राहुल गांधी का जो भी फैसला होगा-उससे कांग्रेस में भगदड़ तो मचेगी.

एक राष्ट्र एक चुनाव मे दुविधा में कांग्रेस्स


क्षेत्रीय पार्टियों ने आशंका जताई है कि एक साथ चुनाव कराने पर राष्ट्रीय पार्टियां और राष्ट्रीय मुद्दे चुनावी माहौल में ज्यादा हावी हो जाएंगे और इसका नुकसान छोटी पार्टियों को उठाना पड़ेगा


देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने को लेकर गंभीर विचार-विमर्श जारी है. कई पार्टियों ने इसके समर्थन में हामी भरी है तो कांग्रेस और लेफ्ट जैसी पार्टियों ने इसमें दिलचस्पी नहीं दिखाई है.

तेलंगाना के मुख्यमंत्री और तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) अध्यक्ष के. चंद्रशेखर राव ने एकसाथ चुनाव कराए जाने का समर्थन किया है और इस बाबत विधि आयोग को पत्र भी लिखा है.

समाजवादी पार्टी के नेता राम गोपाल यादव ने भी अपना समर्थन जाहिर करते हुए कहा कि उनकी पार्टी एक देश-एक चुनाव के पक्ष में है लेकिन यह 2019 से शुरू होना चाहिए. यादव ने मांग की कि कोई जनप्रतिनिधि अगर पार्टी बदलता है या खरीद-फरोख्त में लिप्त पाया जाता है तो उसके खिलाफ एक हफ्ते में कार्रवाई का प्रावधान होना चाहिए.

तृणमूल कांग्रेस, सीपीआई ओर डीएमके ने पुरजोर विरोध जताया है

इस बीच, क्षेत्रीय पार्टियों ने आशंका जताई है कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने पर राष्ट्रीय पार्टियां और राष्ट्रीय मुद्दे चुनावी माहौल में ज्यादा हावी हो जाएंगे और इसका नुकसान छोटी पार्टियों को उठाना पड़ेगा. तृणमूल कांग्रेस और सीपीआई ने विधि आयोग की बैठक में हिस्सा तो लिया लेकिन दोनों पार्टियों ने एक साथ चुनाव कराने के विचार का जोरदार विरोध किया. दक्षिण की पार्टी डीएमके के कार्यकारी अध्यक्ष एमके स्टालिन भी इसके विरोध में हैं. उनके मुताबिक एकसाथ चुनाव कराया जाना संविधान के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है.

उधर, एनडीए की सहयोगी पार्टी शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) ने एक साथ चुनाव कराने का समर्थन करते हुए कहा कि इससे पार्टियों के खर्च में कमी आएगी और विकास कार्यों को रोकने वाली आदर्श आचार संहिता की अवधि कम होगी. एसएडी का प्रतिनिधित्व पार्टी के राज्यसभा सदस्य नरेश गुजराल ने किया. उन्होंने लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ कराने के लिए किसी विधानसभा का कार्यकाल बढ़ाए जाने की स्थिति में राज्यसभा चुनावों पर पड़ने वाले प्रभाव का मुद्दा उठाया.

बीजेपी नेता सुब्रह्मणियम स्वामी ने एक साथ चुनाव कराए जाने के प्रस्ताव का समर्थन किया है और कहा है कि यह विपक्षी पार्टियों के ऊपर है कि वे इसका समर्थन करते हैं विरोध.स्वामी ने कहा, यह कांग्रेस और सीपीएम पर निर्भर करता है कि वे इसका समर्थन करते हैं या नहीं. उन्होंने कहा, बार-बार चुनावों पर इतना ज्यादा पैसा खर्च करने का क्या मतलब.

टीएमसी और सीपीआई ने इस प्रस्ताव को ‘अव्यावहारिक और अलोकतांत्रिक’ बताया है

तमिलनाडु में सत्ताधारी एआईएडीएमके ने कहा कि यदि जरूरी ही है तो एक साथ चुनाव 2024 में कराए जाएं और उससे पहले कतई नहीं. सूत्रों ने बताया कि पार्टी का यह भी मानना है कि तमिलनाडु विधानसभा को अपना कार्यकाल पूरा करने की इजाजत दी जानी चाहिए और लोकसभा चुनाव अपने कार्यक्रम के अनुसार कराए जाने चाहिए.

टीएमसी ने एक साथ चुनाव कराने के प्रस्ताव को ‘अव्यावहारिक और अलोकतांत्रिक’ बताया है. सीपीआई, एआईडीयूएफ और गोवा फॉरवर्ड पार्टी ने भी ऐसी ही राय जाहिर की है.

कांग्रेस ने कहा कि वह इस बाबत अपने कदम पर फैसला करने से पहले अन्य विपक्षी पार्टियों से विचार-विमर्श करेगी.

विधि आयोग का क्या है प्रस्ताव?

विधि आयोग के एक प्रस्ताव में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ कराने की सिफारिश की गई है लेकिन कहा गया है कि यह चुनाव दो चरणों में कराए जाएं और इसकी शुरुआत 2019 से हो. आयोग के दस्तावेज के मुताबिक, एक साथ चुनाव का दूसरा चरण 2024 में होना चाहिए. इस दस्तावेज में संविधान और जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन का प्रस्ताव किया गया है ताकि इस कदम को प्रभावी बनाने के लिए विधानसभाओं के कार्यकाल में विस्तार किया जाए या कमी की जाए.

पहले चरण में उन राज्यों को शामिल किया जाएगा जहां 2021 में विधानसभा चुनाव होने हैं. उत्तर प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, दिल्ली और पंजाब जैसे राज्य दूसरे चरण में शामिल होंगे. इन राज्यों में लोकसभा के साथ विधानसभा चुनाव कराने के लिए इनकी विधानसभाओं के कार्यकाल बढ़ाने होंगे.