Pak. elections are “negatively affected & unequal opportunity to campaign” EU observers

End of mission: Michael Gahler, chief observer of the EU election observer mission, Dimitra Loannou, left, its deputy chief, and press officer Sarah Fradgley in Islamabad. |


Imran Khan to form government with the support of allies, Independents; Opposition parties question results.


A European Union election observer mission to Pakistan has said that the July 25 election was “negatively affected” by the political environment in the country and suffered from an “unequal opportunity to campaign”.

The mission’s comments on Friday in Islamabad came as Imran Khan’s Pakistan Tehreek-e-Insaf (PTI) won 117 seats, Nawaz Sharif’s Pakistan Muslim League-Nawaz (PML-N) took 64 and the Bhutto-Zardari’s Pakistan People’s Party (PPP) tally stood at 43, Pakistan’s Election Commission said.

The Opposition — ranging from the PPP and the PML(N) to the religious parties grouped under the Muttahida Majlis-e-Amal (MMA) — have questioned the results as having been rigged and manipulated.

Nearly 48 hours after polling, an election commission official said the turnout for the National Assembly stood at 51.85%, three percentage points lower than in 2013.

The election was overshadowed by restrictions on freedom of expression and while voting was transparent, counting was “somewhat problematic” with staff not always following procedures, the 120-strong EU observer mission said.

In an editorial, the Karachi-based Dawn newspaper wrote: “The shocking mismanagement of the process of counting votes and announcing results at the polling station has made it necessary that the entire ECP [Election Commission of Pakistan] senior leadership resign after the election formalities are completed and a high-level inquiry be conducted at the earliest.”

Mr. Khan is, however, set to be sworn in as Prime Minister with the support of allies and Independents.

Independents are reported to have won 12 seats while the Muttahida Qaumi Movement-Pakistan (MQM-P), a potential PTI ally, has five. The new National Assembly is expected to meet by August 15.

Interestingly, Mr. Khan won all five of the seats he contested while Bilawal-Bhutto Zardari, Maulana Fazlur Rehman (Jamiat Ulema-e Islam-F), Asfandyar Wali (Awami National Party) lost in their traditional strongholds. Mr. Bilawal Bhutto, however, won in the traditional family constituency of Larkana while PML-N leader Shahbaz Sharif managed to win only one of the four seats he contested.

Pakistan also elected it’s first-ever Hindu from a general seat on the PPP ticket since non-Muslims were allowed to contest and vote in general seats in 2002. Mahesh Kumar Malani won the Tharparkar-II seat in Sindh province.

Roshan Pakistan Polling Agency estimated that a new, hardline religious party, the Tehreek-e-Labbaik, managed an 8-10% share of the vote in Punjab, causing the PML-N a staggering 14 National Assembly seats.

In the key province of Punjab, both the PML-N with 127 seats and PTI with 123 seats had said they would stake claim to form the government in a 297-member House. The PPP however, managed only six seats.

इमरान के प्रधान मंत्री घोषित होते ही जैश का 15 एकड़ में फैला जिहादी सेंटर सुर्खियों में


सेंटर में हजारों बच्‍चों को जिहाद के लिए कुर्बानी देने की ट्रेनिंग दी जाएगी. पंजाब सूबे के बहावलपुर के बाहरी इलाके में बड़ी बिल्डिंग बनाई जा रही है.

जब यह सर्वमान्य है कि आईएसआई ओर सेना ने मिल कर इमरान खान को एक कठपुतली प्रधान मंत्री बनाया है वहीं एक ओर यह भी सबको मालूम हो कि जैश ने इमरान की पख्तूनवा में बहुत मदद की ओर आईएसआई के साथ मिल कर नवाज़ को देश ओर इस्लाम का द्रोही तक करार दे दिया। अब इमरान के इन एहसानों का मूल्य चुकाने की बारी है।

यह आईएसआई ही है जो इस समय sikh referendum 2020 के पीछे है। आईएसआई के 12 मोड्युल्स इंग्लैंड मे स्क्रिय हो कर इस referendum 2020 के लिए काम कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर इसी referendum के बहाने आईएसआई पंजाब में एक बार फिर आतंकवाद को हवा दे रही है।

इमरान खान पर भरोसा नहीं किया जा सकता।

नवाज़ में इच्छाशक्ति तो थी यहाँ तो धारा ही उल्टी बह रही है।


आतंकी संगठन जैश ए मोहम्‍मद पाकिस्‍तान के बहावलपुर में 15 एकड़ में गुपचुप ट्रेनिंग सेंटर बना रहा है. इस सेंटर में हजारों बच्‍चों को जिहाद के लिए कुर्बानी देने की ट्रेनिंग दी जाएगी. पंजाब सूबे के बहावलपुर के बाहरी इलाके में बड़ी बिल्डिंग बनाई जा रही है. तस्‍वीरों से पता चलता है कि नई बिल्डिंग जैश के वर्तमान मुख्‍यालय से पांच गुना बड़ी होगी. तीन महीनों से इसका निर्माण कार्य चल रहा है.

देश में इमरान खान के उभरने और बाद में उनके चुनाव जीतने के समय में इस बिल्डिंग को बनाया जाना केवल एक संयोग नहीं हो सकता. जैश ने चुनावों में इमरान खान की पार्टी तहरीक ए इंसाफ को समर्थन दिया और नवाज शरीफ के खिलाफ जमकर प्रचार किया था. जैश ने शरीफ को पाकिस्‍तान व इस्‍लाम का गद्दार करार दिया था. सरकारी दस्‍तावेजों के अनुसार, बहावलपुर कॉम्‍प्‍लैक्‍स के लिए सीधे मसूद अजहर ने जमीन खरीदी है. जिस जगह जमीन खरीदी गई है वहां 80 से 90 लाख प्रति एकड़ के भाव हैं.

इस जगह को देखने वाले सूत्रों ने बताया कि इसमें रसोई, मेडिकल सुविधाएं और कमरे और जमीन के नीचे भी निर्माण किया जा रहा है. माना जा रहा है कि यहां पर इंडोर फायरिंग रेंज भी बनाई जाएगी. स्विमिंग पूल, तीरंदाजी रेंज और खेल का मैदान भी तैयार किया जाएगा.

कॉम्‍प्‍लैक्‍स बनाने के लिए हज जाने वाले यात्रियों से नकद पैसे लिए गए. 2017 में जमीन मालिकों से उशर के सहारे भी मदद ली गई. उशर फसल उत्‍पादन पर लगने वाला सरचार्ज होता है जो शहीदों, धार्मिक लड़ाकों की मदद के लिए लिया जाता है. अल रहमत नाम के ट्रस्‍ट के जरिए उशर देने का आह्वान किया गया था.

जैश के स्‍थानीय नेताओं ने पंजाब में मस्जिदों के लिए पैसे उगाहे. पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के पैतृक शहर रायविंड के पास पट्टोकी में रूक-ए-आजम मस्जिद में मौलाना अमार नाम के एक जैश नेता ने लोगों से पैसों की मदद करने का आ‍ह्वान करते हुए कहा था, ‘जिहाद शरिया का आदेश है.’

बता दें कि जैश ए मोहम्‍मद का सरगना मसूद अजहर भारत की मोस्‍ट वांटेड लिस्‍ट में शामिल है. वह 2001 संसद हमले और 2016 पठानकोट हमले का मास्‍टमाइंड है. भारत उसे वैश्विक आतंकी बनाने के लिए कोशिशें कर रहा है लेकिन चीन इसमें रोड़े अटका रहा है. नवाज शरीफ ने प्रधानमंत्री रहते हुए अजहर को गिरफ्तार करने के आदेश दिए थे. सूत्रों का कहना है कि अब सरकार बदलने के बाद जैश पहले से ज्‍यादा सक्रिय हो सकता है.

इमरान की बातों से अधिक उसके काम पर हो पैनी नज़र


पाकिस्तान के साथ आसानी से शांति की कल्पना ने पहले ही बहुत जानें ले ली हैं. इसलिए अब पाकिस्तान के अंग्रेज़ दां, नए प्रधानमंत्री की बातों में आने का वक्त नहीं है


विदेश मामलों के विशेषज्ञों का, अब भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर खासा दबाव रहेगा कि वे पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री इमरान खान के साथ भारत-पाक रिश्तों पर बातचीत के लिए पहल करें. वो बातचीत फिर से शुरू करें, जो कभी रुक गई थी. तर्क दिए जाएंगे कि क्रिकेटर से राजनेता बने इमरान खान के भारत में कई लोगों के साथ बहुत गर्माहट भरे रिश्ते हैं. साथ ही इमरान को पाक जनरलों का वरदहस्त भी प्राप्त है.

भारत के वे आशावादी, जिन्हें इमरान खान के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद, पाक से बड़ी उम्मीदें हैं, नहीं समझ पा रहे हैं कि दरअसल इन चुनावी नतीजों के मायने भारत के लिए क्या हैं. दरअसल कुछ नया नहीं होने जा रहा. प्रधानमंत्री इमरान खान के कुर्सी संभालने पर, कश्मीर को लेकर वही छोटी-मोटी लड़ाइयां जारी रहेंगी, जो अब तक होती रही हैं. दशकों से भारत-पाक रिश्तों में यही होता आया है. इन सबके अलावा राजनैतिक अस्थिरता भी बढ़ेगी, जो पाकिस्तान में धार्मिक रूप से कट्टर लोगों की ताकत और बढ़ाएगी. लिहाज़ा हमारे प्रधानमंत्री को चाहिए कि भारत की सीमाएं खोलने के बजाय, सरहदों पर सुरक्षा और मजबूत करें.

इमरान के कहने को तो अच्छी बातें लेकिन…

ये सच है कि इमरान खान के पास भारतीयों के बारे में कहने के लिए कुछ ‘अच्छी’ बातें हैं. हालांकि भारत के प्रति नवाज शरीफ की नीति पर अपने चुनाव प्रचार के वक्त वे जमकर बरसते रहे हैं. लेकिन सीएनएन-आईबीएन को 2011 में दिए एक इंटरव्यू में इमरान खान ने कहा था, ‘मैं हिंदुस्तान के प्रति नफरत लिए हुए पला-बढ़ा हूं. लेकिन जैसे-जैसे मैं भारत में और घूमा, मुझे लोगों का इतना प्यार मिला कि मैं वो सब भूल गया.’ अपने चुनाव प्रचार के बीच में भी उन्होंने कहा, ‘हमें भारत के साथ अमन और चैन रखना होगा क्योंकि कश्मीर के मुद्दे पर पूरा उपमहाद्वीप बंधक बना पड़ा है.’

आने वाले दिनों में निश्चित तौर पर इमरान खान मुहावरों के मुलम्मे में लिपटी भाषा में भारत के प्रति कुछ न कुछ अच्छी बात ज़रूर कहेंगे. ज़ाहिर है उसके बाद लोग प्रधानमंत्री मोदी से भी मांग करने लगेंगे कि वे इमरान की बात के जवाब में दोस्ती का हाथ बढ़ाएं.

ये भी सच है कि इमरान खान जो भी कहेंगे, वह पूरी तरह बेतुकी बात ही होगी. पाकिस्तान में, विदेशी मामलों की जानकार आयेशा सिद्दीका कहती हैं, ‘लोकतांत्रिक शासन का मतलब ये नहीं है कि सुरक्षा और कूटनीति पर से पाक फौज अपना नियंत्रण छोड़ देगी. अफगानिस्तान, काफी हद तक ईरान भी, भारत, चीन और अमरीका पहले से ही रावलपिंडी में आर्मी जनरल हेडक्वार्टर्स के हितों को लेकर कड़ी आलोचना करते रहे हैं. अब ये मामले तो ऐसे हैं कि इन पर कोई समझौता नहीं हो सकता.’

नवाज शरीफ और जरदारी का उदाहरण ले लीजिए

2013 में प्रधानमंत्री बनने के बाद नवाज़ शरीफ ने सीएनएन-आईबीएन को दिए एक इंटरव्यू में वादा किया था कि वे हर वह काम करेंगे जो एक भारतीय उनसे उम्मीद करता है. उन्होंने कश्मीर मुद्दे का शांतिपूर्ण हल निकालने की बात कही और वादा किया कि वो पूरी कोशिश करेंगे कि भारत के खिलाफ आतंक फैलाने की किसी भी कोशिश को वे पाक धरती पर फलने-फूलने नहीं देंगे. उन्होंने दोनों देशों के बीच व्यापार बढ़ाने की बात भी कही थी. उन्होंने ये भी वादा किया था कि वे मुंबई के 26/11 हमले में आईएसआई का हाथ होने के आरोपों की भी जांच करवाएंगे. वादा ये भी था कि करगिल युद्ध के सभी रहस्यों पर से वे पर्दा भी उठाएंगे.

शरीफ को ये श्रेय तो देना होगा कि उन्होंने जो भी कहा, उसे करने की भी पूरी कोशिश की. 2014-15 में कश्मीर में भारतीय सेना पर जिहादी हमलों में कमी आई. इंडियन मुजाहिदीन जैसे आतंकी गुटों की लगाम उन्होंने खींच कर रखी. उन्होंने खुलकर कहा कि पठानकोट पर हुए हमले का ज़िम्मेदार जैश-ए-मोहम्मद है.

लेकिन आखिर में हुआ क्या, सबको पता है. पाक फौज ने शरीफ पर उलट वार किया, पद से हटाए गए नवाज शरीफ के खिलाफ मैच फिक्स किया और जैसा कि पाकिस्तान के कानून विशेषज्ञ बब्बर सत्तार कहते हैं, ‘शरीफ की निष्ठा के बारे में कोई कुछ भी कहे, उनके खिलाफ जो मुकदमा चला, वह कानूनी तौर पर बहुत लचर और कमज़ोर मामला था.’

लेकिन नवाज़ शरीफ का तख्ता पलट कोई नई बात नहीं. याद करें, 2008 में पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी ने ऐलान किया था, ‘भारत कभी भी पाकिस्तान के लिए ख़तरा नहीं रहा.’ उन्होंने कश्मीर के इस्लामी घुसपैठियों को आतंकवादी बताया और कहा कि उम्मीद की कि भविष्य में पाकिस्तान की सीमेंट फैक्ट्रियां भारत की बढ़ी ज़रूरतों की पूर्ति करेंगी. पाकिस्तानी बंदरगाहों की वजह से भारत के भरे पड़े बंदरगाहों की मदद भी हुई. ज़रदारी ने ये भी ऐलान कर दिया था कि उनकी योजना जल्दी ही कुख्यात आईएसआई पर से फौज का नियंत्रण हटाने की है.

जांच से पता चलता है कि ये वही वक्त था जब अजमल कसाब और लश्कर-ए-तैयबा के उसके 9 साथी 26/11 हमले की तैयारी कर रहे थे. और ये हमला आईएसआई की ओर से संदेश था कि पाकिस्तान को वही चलाते हैं, कोई और नहीं.

इससे पहले फरवरी, 1999 में नवाज़ शरीफ और अटल बिहारी वाजपेयी ने लाहौर घोषणापत्र पर दस्तखत किए थे, जिसके मुताबिक दोनों देशों ने वादा किया था कि शिमला समझौते को शब्दश: लागू किया जाएगा. हम सब जानते हैं कि तब क्या हुआ. इधर लाहौर घोषणापत्र पर दस्तखत हो रहे थे और उधर पाकिस्तानी फौजें लाइन ऑफ कंट्रोल को पार करने की तैयारी कर रही थीं.

पाकिस्तानी फौज के अस्तित्व का संकट है भारत

पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों की तरह ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भी शुरुआती नीति यही थी कि बातचीत और व्यापार और आर्थिक संबंधों के बढ़ने पर संबंधों में नरमी आएगी. इस बात पर किसी को ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि मोदी की ये खुशफहमी, पठानकोट हमले और लाइन ऑफ कंट्रोल के पार हुए हमलों के बाद ग़लतफहमी में बदल गई. ये सोच कि बातचीत जारी रहने से संकट से बचा जा सकता है, बस दिखने में हसीन है, असलियत में एकदम निराधार. इतिहास गवाह है कि 1914 की शुरुआत में यूरोप आर्थिक और कूटनीतिक रूप से जितना एकीकृत था, उतना पहले कभी नहीं. यहां भी मामला मामला वही है.

सेना की जानकार सी क्रिस्टाइन फेयर ने कहा था कि फौज एक ऐसा समुदाय है जिसके पास बहुत ज्ञान होता है और उनका फैसला लेने का तरीका अपने पूर्ववर्तियों से सीखा हुआ होता है. भारत से पाकिस्तान के रिश्ते अगर सामान्य हुए तो ये पाकिस्तानी फौज के लिए अस्तित्व का संकट ले आएगा. पाकिस्तानी फौज की नींव ही इस मिथक पर रखी गई है कि अपने से बड़े और ताकतवर पड़ोसी के खिलाफ युद्ध ही पाकिस्तानी फौज के अस्तित्व की वजह है. इससे पाक फौज, हिंदू भारत के खिलाफ इस्लामिक पाकिस्तान के रक्षक की भूमिका में दिखता है. और आसान तरीके से कहें तो, भारत-पाक के बाच शांति कराकर पाकिस्तानी सेना खुद को खत्म नहीं करना चाहती.

सच्ची बात तो ये है कि भारत के पास कोई विकल्प नहीं है. भारत-पाकिस्तान की बात करें तो भारत को सबसे बड़े फायदे युद्ध से ही हुए हैं, बातचीत से नहीं. नियंत्रण रेखा पर युद्धविराम हो या 2003 के बाद कश्मीर में हिंसा में आई कमी की बात, ये सब 1999 के करगिल युद्ध के बाद ही मुमकिन हो पाया. 2001-02 में भी दोनों देश युद्ध के करीब आ गए थे. लड़ाई आसन्न थी और ये एक ऐसा संकट था जिसे झेलना भारत के लिए तो मुश्किल होता, लेकिन पाकिस्तान तो टूट ही गया होता.

लेकिन ये रास्ते भारत के हितों के मुताबिक नहीं हैं. जो संभावित खतरे हैं, वे बहुत ज़्यादा बड़े हैं. ‘राष्ट्रवादियों के गर्व’ की बात परे रखें तो ये सच है कि 2016 में भारतीय सेना के सीमा पार कर सर्जिकल स्ट्राइक करने के बाद, कश्मीर में हिंसा की वारदातें बढ़ी हैं. सर्जिकल स्ट्राइक के बाद के हफ्तों में पाकिस्तान की ओर से जिहादी हमले और तेज़ हुए और तब से लेकर अब तक वारदातें रुकी नहीं हैं. 2001-02 में आई युद्ध की स्थिति का विश्लेषण करें तो ये कहा जा सकता है कि पाकिस्तान को अपनी फौजें पीछे हटाने के लिए बाध्य किया जा सकता है. लेकिन भारत के कूटनीतिक प्रतिष्ठान मानते हैं कि इसके लिए हमारे देश को जो कीमत चुकानी पड़ेगी, वो बहुत ज़्यादा है.

किसी खुशफहमी में न रहें पीएम मोदी

ज़िंदगी की तरह ही राजनीति में भी इससे ज़्यादा बढ़िया सलाह नहीं हो सकती कि अगर कोई चीज़ इतनी अच्छी लगे कि वो सच से परे है, तो ये मान लेना चाहिए कि वो झूठी है. इंग्लैंड में पढ़ा, खूबसूरत क्रिकेट स्टार, जो अब पाकिस्तान पर राज करेगा, पाकिस्तान को नॉर्थ यूरोपियन वेलफेयर स्टेट की तरह एक इस्लामिक मुलम्मे में लिपटा वेलफेयर स्टेट बनाना चाहता है. भारत में भी ऐसे एलीट लोग हैं जो चाहते हैं कि हमारे यहां भी कोई ऐसा ही नेता कुर्सी पर बैठे. बहरहाल, इमरान खान भारत-पाक दोस्ती के हरकारे या शांतिदूत नहीं हैं.

भारत के पास अब भी वही पुराना विकल्प सबसे अच्छा है. बगैर युद्ध की स्थिति लाए, आतंकविरोधी क्षमता को बढ़ाने पर ध्यान देना, कश्मीर में राजनैतिक संकट का हल निकालना क्योंकि सूबे में हिंसा वहीं से पनप रही है, पाकिस्तान समर्थित आतंक से निपटने के लिए दूसरे सैन्य तरीकों का विकास, ये ही वे तरीके हैं जिन पर भारत को ध्यान देना होगा.

इन सब कामों के लिए वक्त और मेहनत दोनों चाहिए. वे काम, राजनेताओं के काम और वादों की तरह लुभावने नहीं हैं कि अपने वोटर्स को हर बार नया खिलौना देकर बहला लिया जाए. पाकिस्तान के साथ आसानी से शांति की कल्पना ने पहले ही बहुत जानें ले ली हैं. इसलिए अब पाकिस्तान के अंग्रेज़ दां, नए प्रधानमंत्री की बातों में आने का वक्त नहीं है.

हाफ़ीज़ का हाफ़िज़ खुदा


आतंकी हाफिज सईद का दावा था कि उसके सभी प्रत्‍याशी इन चुनावों में जीतेंगे, लेकिन पाकिस्‍तान की जनता ने उसके मंसूबों पर पानी फेर दिया

जब पाकिस्तान में चुनाव आईएसआई ओर आर्मी करवाती है तो आतंकी हाफिज़ की वास्तविक स्थिति विचारणीय है

आतंकी हाफ़ीज़ को पाकिस्तानी आवाम ने नकार दिया है तो फिर वह कौन हैं जो इसकी मजलिसों में जा कर अल्लाह – ओ – अकबर के नारे लगाते हैं 


साल 2008 मुंबई हमले का मास्टरमाइंड और जमात-उद-दावा चीफ हाफिज सईद को पाकिस्तान आम चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा है. आतंकी हाफिज सईद की पार्टी अल्लाह-ओ-अकबर तहरीक (एएटी) के सभी उम्मीदवार चुनाव हार गए हैं. हाफिज सईद ने 260 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे.

इस चुनाव में हाफिज का बेटा और दामाद भी किस्मत आजमा रहा था. लेकिन दोनों अपनी-अपनी सीट बुरी तरह से हार गए. बेटा हाफिज तल्हा सईद लाहौर से 200 किलोमीटर दूर सरगोधा सीट से चुनाव लड़ रहा था. हाफिज सईद यही का रहने वाला है.

आतंकी हाफिज सईद का दावा था कि उसके सभी प्रत्‍याशी इन चुनावों में जीतेंगे. लेकिन पाकिस्‍तान की जनता ने उसके मंसूबों पर पानी फेर दिया. हाफिज सईद ने लोगों से अपील कि थी कि वो ‘पाकिस्तान की विचारधारा’ के लिए मतदान करे.

हाफिज सईद ने मिल्‍ली मुस्लिम लीग (एमएमएल) के बैनर तले अपने प्रत्‍याशियों को मैदन में उतारा था. लेकिन बाद में चुनाव आयोग की ओर से मान्‍यता देने से इनकार कर दिया गया था. इसके बाद हाफिज सईद ने अल्‍लाह-ओ-अकबर के बैनर तले अपने प्रत्‍याशियों को मैदान में उतारा.

जमात-उद-दावा को अमेरिका ने जून 2014 में आतंकी संगठन घोषित किया था. ये संगठन लश्कर-ए-तैयबा से जुड़ा था जिसने साल 2008 में मुंबई हमले को अंजाम दिया था. अमेरिका ने सईद पर एक करोड़ डॉलर का इनाम भी घोषित कर रखा है.

Imran – Trump let’s wait and watch

Pakistan Election Results 2018: Despite anti-US poll rhetoric, ties likely to be stable under Imran Khan


 

Now that the military has succeeded in its mission of installing Imran Khan as the new prime minister of Pakistan (a euphemism of sorts for a glorified mayor), the world must engage with the politician who has finally been allowed to sit on the chair that he has been eyeing for the last two decades.

An Oxford-educated legendary cricketer who ruled the cricket pitches and London nightclubs with equal ease, Imran, in his avatar as a politician, has been at pains to shed his flamboyant image in favour of a sharp turn towards Islamism. He has shunned the western attire for a pristine white salwar kameez, carries along large praying beads and has put his past marriages to a high-profile British heiress and a British-Pakistani TV anchor behind, to get wedded to a ‘faith healer’ who prefers to stay behind the purdah.

File image of Imran Khan and Donald Trump. AP

File image of Imran Khan and Donald Trump. AP

Mercurial and enigmatic in equal parts, Imran has little administrative experience and even less appetite for policy positions. His own advisors and closest aides admit that he is not a “strategy guy” and has never gone beyond the skin on policies. Vice-president of Pakistan Tehreek-e-Insaaf (PTI) Asad Umar, tipped to be the finance minister in new cabinet, in an interview to The Times, UK, conceded that his boss ” has never been in an institution, and doesn’t know how to work in an institutional setting.”

What could be the impact of such a rookie administrator in managing Pakistan’s relationship with the US which has fallen into a state of dangerous disrepair?

As a candidate seeking to find a route to power, Imran has cashed in on the reflexive anti-Americanism that permeates the polity of Pakistan. He has bristled at US president Donald Trump’s accusations that Pakistan provides a safe heaven for terrorists. Trump has blamed Pakistan for undermining the “war on terror” by giving shelter to Afghan Taliban and Haqqani Network terrorists who ambush US and peacekeeping forces in Afghanistan and escape into the tribal regions of Pakistan to avoid retaliation.

Trump has responded by blocking military aid to Pakistan and cutting all other forms of aid to a trickle. He has also used an extensive drone campaign to ferret out the terrorists from their tribal hideouts in Pakistan’s northwestern regions. Imran has led demonstrations against US drone strikes and has called it “inhumane” and violative of human rights. He has also accused the Us of exploiting Pakistan and blamed own leaders for letting the country be used as a cat’s paw in America’s war on terror.

In respond to Trump’s tweet that Pakistan has taken billions and billions of dollars from the US in return for “lies” and “deceit”, a fiery Imran had called for immediately removing “excessive US diplomatic, non-diplomatic and intelligence personnel from Pakistan” and denying the US ground and air route support to troops in Afghanistan which Pakistan, he claimed, was providing “free of cost”. He also blamed the US for crippling  Pakistan by leaving its society polarised, causing “70,000 deaths and $100 billion in losses to the economy”.

A large part of this criticism could be put down to poll rhetoric. Imran had a compulsion to portray himself as a leader who will set the ourse for a “more equal” relationship with Washington rather than letting Islamabad be treated as a “doormat”. This position is perhaps a necessary ingredient of poll success in a country where 59 percent of people describe the United States as an “enemy”.

But, as Mehreen Zahara Malik writes in Foreign Policy, “Once Khan is finally and safely in power after prowling the margins of Pakistani politics for almost two decades, he may no longer need to surf Pakistan’s permanent wave of popular anti-American sentiment with such dedication. Once the work of statecraft begins, the rhetoric will self-calibrate.”

A little bit of that reality might have already set in when it became clear to Imran that it might be his turn at prime ministership. In January last year, Imran was breathing fire against the Trump administration’s decision to ban citizens from certain Muslim nations from visiting the US.

In his words, “I want to tell all Pakistanis today,I pray that Trump bans Pakistani Visas so that we can focus on fixing our country,” he said at a public rally. He also promised not to “beg” before the IMF for funds. “We will have to fix Pakistan and stand on our own two feet. And the day that we decide this is our home and we have to fix it, we won’t beg for loans from the US and the IMF.”

A year later in May, during a visit to the UK when he held a private meeting with an equity investment company, Imran reportedly admitted that Pakistan might have to approah the IMF for financial assistance.

This wasn’t just opportunistic re-positioning from Imran, but a pragmatic acceptance of a fact that Pakistan economy is in doldrums and it needs every bit of help that it can muster. It tells one that Imran is not immune to the sobering effect of power, and people were witness to more such recalibration from the PTI chief soon after he gave his victory speech.

In his maiden televised address to the nation, Imran made all the right noises on China, Afghanistan and even India, and called for mutually beneficial ties with the US. He stressed on a relationship that is “equal” in nature and not of a rent-seeking kind where Washington will force Pakistan to fight its war in exchange for money.

“With the US, we want to have a mutually beneficial relationship… up until now, that has been one way, the US thinks it gives us aid to fight their war… we want both countries to benefit, we want a balanced relationship,” said Imran.

At the risk of sounding repetitive, let it be clear that for all of Imran’s protestations and solemn declaration on foreign policy, he simply has no power in altering the country’s trajectory. The strings of Pakistan’s foreign and security policy are firmly in the hands of the military (also known as the establishment) and it will not allow any civilian leader to alter the course or establish the primacy of an elected government over unelected generals. Imran would have carefully noted the fate that befell Nawaz Sharif who paid a heavy price for his misadventure.

If the fundamentals of a relationship are not going to change under any civilian leader, how much importance should we give to Imran’s words? There are two things to consider. One, the trajectory of US-Pakistan relationship, seen as widely divergent in recent times, might see some sort of an alignment over Afghanistan.

Imran has long advocated a political solution for the war in Afghanistan and wants the Taliban and Afghanistan leadership to sit across the table. “The only way Pakistan can now help the Americans is to use the influence it has on the Taliban to get them across a table so that there is a political solution to this issue,” he has been quoted, as saying by Financial Times.

Recent indications are that Trump, who likes to “win”, is fed up with an unwinnable war in Afghanistan and has dispatched top envoys for South Asia to “talk directly” with the Taliban leadership in Doha to build on the ceasefire. Wall Street Journal says “ Ambassador Alice Wells , the State Department’s deputy assistant secretary for South and Central Asia, led the US delegation, which met with members of the Taliban’s political commission in Doha” to explore “all avenues to advance a peace process in close consultation with the Afghan government”.

There could some rapprochement here. Second, a civilian leadership that has less of a tension with the military (a position that the PTI government will enjoy) may find it easier to settle on policies without pulling in different directions. For all its fire and fury, Pakistan’s civilian leadership or the military cannot afford to antagonise the US beyond a point, and hedging strategies with China come bundled with own problems.

It is safe to assume that under Imran (handheld by the military), there might be a little more stability in US-Pakistan ties after a period of extreme turbulence.

विजय दिवस पीएसआर कांग्रेस ने दोहराया इतिहास

26 जुलाई, 1999 को भारत ने कारगिल युद्ध में विजय हासिल की थी। इस दिन को हर वर्ष विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन घुसपैठिए पाकिस्तानियों को हमारे जांबाजों ने खदेड़ बाहर किया था और कारगिल की चोटियों पर तिरंगा फहराया था। पूरा देश जहां कारगिल विजय दिवस के उल्लास में डूबा हुआ है वहीं सोशल मीडिया में एक वीडियो वायरल हो रहा है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राशिद अल्वी के इस वीडियो में कह रहे हैं, ”कारगिल युद्ध बीजेपी की लड़ाई थी, इस युद्ध से देश का कुछ लेना देना नहीं था।”

गौरतलब है कि 26 जुलाई, 1999 के भारतीय सेना ने घुसपैठिए पाकिस्तानियों को खदेड़ कर बाहर किया था और कारगिल की चोटियों पर तिरंगा फहराया था। इस युद्ध में भारत के 527 वीर सपूतों ने अपनी शहादत दी थी जबकि 1300 से अधिक सैनिक घायल हुए थे। हर देशवासी भारत मां के वीर सपूतों के बलिदान को सेल्यूट करता है, लेकिन कांग्रेस पार्टी और उनके नेता वीर शहीदों को सम्मान नहीं देती, और न ही सेना की इस उपलब्धि पर गर्व करती है। हालांकि ये वीडियो पुराना बताया जा रहा है, लेकिन यह साफ है कि कांग्रेस के नेता देश की सेना के लिए सम्मान का भाव नहीं रखते हैं। 

गौरतलब है कि 1999 के बाद से 2003 तक देश में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार रही। उस दौरान  हर साल संसद में कारगिल विजय दिवस मनाया जाता रहा, लेकिन मई 2004 में जैसे ही कांग्रेस के पास सत्ता आई तो सोनिया गांधी के आदेश से संसद में कारगिल विजय दिवस कार्यक्रम पर ही बैन लगा दिया गया। नतीजा रहा  कि 2004 से लेकर 2009 तक भारत की संसद में कारगिल के बलिदानियों को श्रद्धांजलि नहीं दी गई और न ही विजय दिवस मनाया गया। हालांकि जुलाई 2009 में एनडीए के राज्यसभा सांसद राजीव चंद्रशेखर ने जब मामले को उठाया तो संसद में खूब हंगामा हुआ। इसके बाद कारगिल विजय दिवस संसद में नियमित रूप से मनाया जाने लगा।

Did u know 2004-2009 Cong led UPA did not celebrate or honor
on July26 till I insistd in

इसी तरह 2009 में ही कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राशिद अल्वी ने खुलेआम कह दिया था कि कारगिल युद्ध बीजेपी की लड़ाई थी, इस युद्ध से देश का कुछ लेना देना नहीं था। दरअसल कांग्रेस नेताओं की मंशा ही नहीं बल्कि परम्परा ही हमेशा देश के सेना का अपमान करने की रही है।

21 जून, 2018

कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने सेना को नरसंहार करने वाला कहा।

11 जून, 2017

कांग्रेस नेता संदीप दीक्षित ने सेना प्रमुख को गुंडा कहा।

16 अप्रैल, 2017

कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने सेना को कश्मीरी लोगों का हत्यारा कहा।

04 अक्टूबर, 2016

कांग्रेस नेता संजय निरुपम ने सर्जिकल स्ट्राइक को Fake कहा।

15 अक्टूबर, 2015

कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने अर्धसैनिक बल के जवान को थप्पड़ मारा।

09 फरवरी, 2013

कांग्रेस नेता सलमान निजामी ने भारतीय सेना को रेपिस्ट कहा।

पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने को भारत को ही आगे आना होगा: इमरान


भारत पर बोलते हुए इमरान खान ने कहा कि सेना के जरिए दोनों देशों के मसले ठीक नहीं हो सकते. कश्मीर समस्या का हल बातचीत के जरिए होगा

अमरीका ओर चीन से रिश्ते ओर सुधरेंगे ओर मजबूत होंगे 


पाकिस्‍तान क्रिकेट टीम के पूर्व कप्‍तान और पीटीआई चीफ इमरान खान एक और बड़े खिताब के काफी करीब पहुंच गए हैं. उनकी इस कामयाबी के लिए उन्हें दुनियाभर से बधाई मिल रही हैं. इमरान खान ने चुनाव के नतीजे घोषित होने से पहले प्रेस कॉन्फ्रेंस की है. इसमें उन्होंने भारत और पाकिस्तान के रिश्ते अच्छे करने पर जोर डाला है.

भारत पर बोलते हुए इमरान खान ने कहा कि सेना के जरिए दोनों देशों के मसले ठीक नहीं हो सकते. कश्मीर समस्या का हल बातचीत के जरिए होगा. भारत एक कदम बढ़ाएगा तो पाकिस्तान दो कदम बढ़ाएगा. भारत के साथ अच्छे संबंध के साथ भारत के साथ मजबूत व्यापारिक रिश्ते चाहते हैं.

इमरान खान ने कहा कि कश्मीरी लंबे समय से दुख झेल रहे हैं. हमें कश्मीर का मुद्दा बातचीत के जरिए सुलझाना होगा. अगर भारत का नेतृत्व चाहता है तो हम दोनों मिल कर इस मुद्दे का सामाधान निकाल सकते हैं. यह इस उपमहाद्वीप के लिए अच्छा होगा.

राष्ट्र को संबोधित करते हुए पीटीआई चीफ इमरान खान ने कहा कि जिस तरह से मुझे भारतीय मीडिया में पेश किया गया उससे मुझे दुख पहुंचा. मैं उन पाकिस्तानियों में से हूं जो भारत के साथ अच्छे संबंध चाहता हूं. अगर हम उपमहाद्वीप को गरीबी से मुक्त कराना चाहते हैं तो हमें दोनों देशों के बीच अच्छे संबंध रखने होंगे और व्यापारिक रिश्ते अच्छे करने होंगे.

अपने संबोधन में इमरान खान ने कहा कि अफगानिस्तान एक ऐसा देश है जिसने आतंकवाद का सबसे बुरा दौर देखा है. अगर वहां पर शांति हो सकती है तो पाकिस्तान में क्यों नहीं. उन्होंने कहा कि मैं चाहूंगा कि दोनों देशों के बीच बॉर्डर को खोला जाए.

इमरान खान ने कहा कि इस चुनाव के दौरान मेरे पर सबसे ज्यादा व्यक्तिगत हमले हुए. हम बदले की भावना से कोई कार्रवाई नहीं करेंगे. उन्होंने कहा कि जनता से किए गए हर वादे को पूरा करूंगा.

खान ने राष्ट्र के संबोधन में कहा कि पहले हुक्मरान, शासन करने वाले अपने आप पर खर्च करते थे. आज से यह नहीं होगा. म सादगी से रहेंगे, इतने बड़े पीएम हाउस में नहीं. छोटी जगह देखेंगे कोई. मैं आवाम के टैक्स की हिफाजत करूंगा.

उन्होंने कहा कि हमें गरीबी से लड़ाई लड़नी है. यह एक बड़ी चुनौती है. उन्होंने कहा कि चीन हमारे सामने एक उदाहरण की तरह है जिसने पिछले 30 साल में 70 करोड़ लोगों को गरीबी से बाहर निकाला. यह अभूतपूर्व था.

पीटीआई अध्यक्ष इमरान खान ने कहा कि हम लोग पाकिस्तान के लोकतंत्र को मजबूत होते हुए देख रहे हैं. तमाम आतंकी हमलों के बाद भी चुनावी प्रक्रिया सफल रही. उन्होंने सुरक्षा बलों को धन्यवाद भी दिया.

इमरान खान ने कहा कि वह जिन्‍ना के सपनों को पूरा करने के लिए राजनीति में आए थे. पाकिस्‍तानी सरकारों को गिरते देखा है. नया पाकिस्‍तान बनाना मेरा लक्ष्‍य है. हम देश में लोकतंत्र को मजबूत होते हुए देख रहे हैं.

राष्ट्र को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि 22 सालों की मेहनत रंग लाई है. उन्होंने बलूचिस्तान के लोगों को धन्यवाद भी दिया है. उन्होंने कहा कि अल्लाह ने मुझे मौका दिया है.

अनिल अंबानी ने राहुल को लिखी चिट्ठी मांगा मिलने का समय

राफेल सौदा मिलने के समय रिलायंस डिफेंस के पास रक्षा क्षेत्र के मैन्युफैक्चरिंग का किसी तरह के अनुभव न होने के राहुल गांधी के आरोप का अनिल अंबानी ने लेटर लिखकर जवाब दिया था. राहुल गांधी को भेजे गए एक पत्र में अनिल अंबानी ने कहा था कि रिलायंस डिफेंस के पास पानी वाले जहाज यानी शिप बनाने का अनुभव था. इस लेटर की कॉपी इंडिया टुडे-आजतक के पास है.

यूपीए सरकार ने जब राफेल सौदा किया था, तब अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस डिफेंस का कोई नामोनिशान नहीं था. इस कंपनी का गठन मार्च 2015 में हुआ और इसके करीब डेढ़ साल बाद सितंबर 2016 में मोदी सरकार ने फ्रांस के साथ राफेल विमान के लिए नया सौदा किया.

गौरतलब है कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने दिसंबर, 2017 में मोदी सरकार पर हमला बोलते हुए कहा था कि सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) को नजरअंदाज कर अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस लिमिटेड के पक्ष में फैसला लिया, जिसे हवाई जहाज बनाने का इससे पहले का कोई अनुभव नहीं है.

नए समझौते के मुताबिक भारत में राफेल विमानों के निर्माण का काम रिलायंस डिफेंस के द्वारा ही किया जाएगा. 28 मार्च, 2015 को अनिल अंबानी के रिलायंस समूह ने रक्षा क्षेत्र में कदम रखते हुए रिलायंस डिफेंस नामक कंपनी का गठन किया गया. इसके बाद 23 सितंबर, 2016 को एनडीए सरकार ने फ्रांस के साथ राफेल विमानों की खरीद का समझौता किया. इसके ढाई महीने बाद ही 16 दिसंबर, 2016 को रिलायंस ने राफेल के साथ मिलकर एक संयुक्त उद्यम रिलायंस राफेल स्थापित किया.

रोचक यह है कि पीएम मोदी ने रिलायंस डिफेंस की भारत में स्थापना के 13 दिन बाद ही फ्रांस के अपने दौरे पर 10 अप्रैल, 2015 को रफाल सौदे की घोषणा की.

इंडिया टुडे-आजतक के पास उस लेटर की कॉपी है, जो अनिल अंबानी ने राहुल गांधी को लिखी है. इस लेटर में उन्होंने तर्क दिया है कि रिलायंस को यह सौदा इसलिए मिला क्योंकि उसके पास डिफेंस शिप बनाने का अनुभव था. यह लेटर 12 दिसंबर, 2017 का है.

इस लेटर में अनिल अंबानी ने लिखा था, ‘मुझे यह जानकर व्यक्तिगत रूप से काफी दुख हुआ है कि कांग्रेस के कुछ नेता मेरे और मेरे समूह के बारे में दुर्भाग्यपूर्ण बयान दे रहे हैं. साथ ही दसॉ के साथ हमारे जेवी के बारे में भी तमाम तरह की टिप्पणियां की गई हैं. कांग्रेस के आपके कई सहयोगियों ने कहा है कि रिलायंस को डिफेंस सेक्टर का कोई अनुभव नहीं है. आपको यह जानकर खुशी होगी कि रिलायंस डिफेंस के पास गुजरात के पिपावाव में निजी क्षेत्र का सबसे बड़ा शिपयार्ड है.’

अनिल अंबानी ने लिखा, ‘राहुल जी, मेरे सम्माननीय पिता स्वर्गीय पद्मविभूषण श्री धीरु भाई अंबानी ने तो औपचारिक शिक्षा भी हासिल नहीं की थी. उन्हें कोई भी अनुभव या विरासत हासिल नहीं था, लेकिन उन्होंने दुनिया का सबसे बड़ा पेट्रोकेमिकल एवं रिफाइनरी कॉम्प्लेक्स स्थापित किया और एक दृष्ट‍ि वाले उद्यमी के रूप में उन्होंने भारत में कई बड़े उद्यम स्थापित किए.’

अनिल अंबानी ने राहुल से मुलाकात का भी अनुरोध किया था. उन्होंने लिखा कि यदि राहुल जल्दी मिलने का समय दें तो उन्हें बड़ी खुशी होगी.

दंगों के दोषी हार्दिक पटेल को मिली 2 साल की सज़ा साथ ही मिली जमानत


गुजरात के बीजेपी विधायक रुशिकेश पटेल के दफ्तर में तोड़फोड़ करने के मामले में पाटीदार आंदोलन समिति के नेता हार्दिक पटेल को दोषी करार दिया गया


गुजरात के बीजेपी विधायक रुशिकेश पटेल के दफ्तर में तोड़फोड़ करने के मामले में पाटीदार आंदोलन समिति के नेता हार्दिक पटेल को दोषी करार दिया गया है. हार्दिक को दो साल की सजा सुनाई गई है. इसके अलावा उनके दो साथियों को भी इस मामले में विसनगर कोर्ट ने दोषी करार दिया है. मेहसाणा दंगा मामले में हार्दिक पटेल और लालजी पटेल समेत तीन लोगों को दोषी करार दिया गया है.

तीनों दोषियों को दो-दो साल की सजा सुनाई गई है. जब कि मामले से जुड़े 14 अन्य लोगों को बरी कर दिया गया है. आपको बता दें कि पटेल आरक्षण आंदोलन के दौरान हुई हिंसा की पहला घटना 23 जुलाई, 2015 को बीजेपी विधायक ऋषिकेश पटेल के दफ्तर में हुई थी. इस दौरान आगजनी और जमकर तोड़फोड़ की गई थी.

कोर्ट ने तीनों को IPC की धारा 120/बी (साजिश रचने), 435 (आगजनी), 427 (सरकारी सामान को नुकसान पहुंचाना) और IPC की धारा 143, 147, 148 (दंगा फैलाना) के तहत दोषी माना है.

शुरुआती समय में हार्दिक पटेल और लालजी पटेल एक साथ थे. बाद में हार्दिक पटेल पाटीदार आंदोलन अनामत समिति के नेता हो गए और लालजी पटेल ने सरदार पटेल ग्रुप बनाया. पाटीदार आंदोलन की शुरुआत 23 जुलाई साल 2015 में हुई थी.

23 जुलाई 2015 को हुई इस घटना के कुल 17 नामजद दोषियों में से 14 अन्य को अदालत ने बरी कर दिया। अदालत ने तीनों को 50 – 50 हजार रूपये के जुर्माने की भी सजा सुनायी और इस रकम में से दस हजार रूपये शिकायतकर्ता और एक समाचार चैनल के कैमरामैन सुरेश वणोल (जिन पर भी भीड़ ने हमला कर कैमरा तोड़ दिया था)को देने के आदेश दिये। इसके अलावा इस रकम से घटना के दौरान आगजनी में जली कार के मालिक बाबूजी ठाकोर को एक लाख रूपये और 40 हजार रूपये तत्कालीन विधायक श्री पटेल को भी बतौर मुआवजा देने के आदेश दिये। ज्ञातव्य है कि उक्त रैली के दौरान भीड़ ने पटेल के कार्यालय में तोडफ़ोड़ की थी और आगजनी कर एक कार को भी जला दिया था। अदालत ने तीनो को केवल दंगा करने यानी रायटिंग की धारा के तहत ही दोषी ठहराया है, कई अन्य धाराओं में बरी कर दिया है।

2019: कांग्रेस के पास 272 के ‘मैजिक फिगर’ के लिये कोई जादुई छड़ी नहीं है

क्या कांग्रेस 1977 के चुनावी फॉर्मूले को लेकर 2019 का चुनाव जीतने का ख्वाब संजो रही है? 1977 में जिस तरह से कांग्रेस के खिलाफ समूचा विपक्ष एकजुट हुआ था क्या वो ही तस्वीर 2019 में बीजेपी के खिलाफ दिखाई देगी?

दरअसल बीजेपी की इस वक्त मजबूत स्थिति 1960 और 1970 के दशक में कांग्रेस की स्थिति को दर्शा रही है. कांग्रेस की ही तरह बीजेपी आज देश की सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर राज्य दर राज्य अपनी विजय यात्रा जारी रखे हुए है. बीजेपी के विजयी रथ को रोकने के लिये कांग्रेस वर्किंग कमेटी में गहन मंथन हुआ. पूर्व गृहमंत्री पी चिदंबरम ने 2019 के लोकसभा चुनाव के लिये ‘मिशन 300’ का प्लान पेश किया है.

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चिदंबरम का मानना है कि 12 राज्यों में कांग्रेस के मजबूत जनाधार को देखते हुए 150 सीटों का लक्ष्य रखा जाए. कांग्रेस अगर अपनी मौजूदा सीटों की संख्या को तीन गुना बढ़ा कर 150 तक पहुंचा ले तो बाकी 150 सीटों का बचा हुआ काम क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन पूरा कर सकते हैं. जिससे 272 के ‘मैजिक फिगर’ को यूपीए-3 पार कर सकती है.

चिदंबरम का मानना है कि तकरीबन 270 सीटें ऐसी हैं जहां क्षेत्रीय दलों के साथ रणनीतिक गठबंधन की मदद से 150 सीटें जीती जा सकती हैं. चिदंरबरम फॉर्मूले के तहत कांग्रेस 300 सीटों पर अकेले और 250 सीटों पर रणनीतिक गठबंधन के साथ चुनाव लड़े.

साल 2004 में भी कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में 145 सीटें मिली थीं जिसके बाद उसने केंद्र में यूपीए-1 की सरकार बनाई थी. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस केवल 44 सीटें ही जीत सकी थी.

कांग्रेस की रणनीति ये हो सकती कि वो जिन राज्यों में मजबूत स्थिति या फिर नंबर दो पर हो वहां बीजेपी से सीधा मुकाबला करे. लेकिन जिन राज्यों में उसकी स्थिति नंबर 4 की हो तो वहां क्षेत्रीय दलों को बीजेपी से टक्कर के लिये आगे बढ़ाए और खुद पीछे रह कर समर्थन करे.

एनसीपी नेता शरद पवार ने भी ऐसा ही सुझाव कांग्रेस को सुझाया था. पवार ने चुनाव पूर्व महागठबंधन की कल्पना अव्यावाहरिक बताया था. उन्होंने महागठबंधन के आड़े आ रही क्षेत्रीय दलों की निजी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की मजबूरी को सामने रखा था. उनका कहना था कि चुनाव में क्षेत्रीय दल पहले अपनी राजनीतिक स्थिति को मजबूत करना चाहेंगे. भले ही बाद में बीजेपी विरोधी दल समान विचारधारा के नाम पर एक छाते के नीचे महागठबंधन बना लें.

लेकिन सवाल ये उठता है कि कांग्रेस के लिये आखिर 150 का आंकड़ा भी कैसे और किन राज्यों से आ सकेगा? इमरजेंसी के बाद कांग्रेस ने जिस तरह से सत्ता में धमाकेदार वापसी की थी, वैसा ही करिश्मा दिखाने के लिये कांग्रेस के पास आज न ज़मीन है और न ही चेहरा.

दरअसल इमरजेंसी के बाद कांग्रेस की सत्ता में वापसी की सबसे बड़ी वजह खुद जनता पार्टी भी थी. जनता पार्टी की सरकार अंदरूनी कलह की वजह से गिर गई थी. जिसका फायदा उठाते हुए कांग्रेस जनता को ये समझाने में कामयाब रही कि सिर्फ कांग्रेस ही देश में शासन चला सकती है. उस वक्त कांग्रेस के पास इंदिरा गांधी जैसा करिश्माई चेहरा भी था. पाकिस्तान से 1971 की जंग जीतने के सेहरा उनके राजनीतिक बायोडाटा में दर्ज था. ‘इंदिरा इज़ इंडिया’ जैसे नारों की गूंज थी. लेकिन आज कांग्रेस के पास बीजेपी के भीतर भूचाल लाने वाले चेहरे का शून्य साफ देखा जा सकता है.

जहां कांग्रेस के लिये यूपीए 3 को लेकर चुनाव पूर्व गठबंधन की राहें इतनी आसान नहीं है तो वहीं चुनाव बाद महागठबंधन को लेकर भी आशंकाएं दिनों-दिन गहराने का ही काम कर रही हैं. अविश्वास प्रस्ताव में बीजेडी और टीआरएस जैसी पार्टियों के रुख ने कांग्रेस को झटका देने का काम किया है. इन दोनों ही पार्टियों ने खुद को वोटिंग से अलग रख कर बीजेपी का ही एक तरह से साथ दिया है. जबकि महागठबंधन को लेकर एसपी,बीएसपी और टीएमसी जैसी पार्टियों ने अब तक अपना रुख साफ नहीं किया है. कांग्रेस के साथ गठबंधन करने में इन पार्टियों को अपने जनाधार खिसकने का भी डर है.

समान विचारधारा के नाम पर भी ये पार्टियां यूपीए3 का हिस्सा बनने से कतरा रही हैं क्योंकि कांग्रेस के ‘मुस्लिम पार्टी’ के ठप्पा का डर इन्हें भी लगने लगा है. यूपी विधानसभा चुनाव में एसपी का मुस्लिम-यादव समीकरण का सत्ता दिलाने का हिट फॉर्मूला फेल हो गया तो बीएसपी की सोशल इंजीनियरिंग का किला भी ध्वस्त हो गया था. साफ है कि अब एसपी-बीएसपी भी लोकसभा चुनाव में हर कदम फूंक-फूंक कर रखेंगीं. ऐसे में कमजोर कांग्रेस के साथ चुनावी तालमेल की संभावना सियासी सौदेबाजी के कई चरणों के बाद ही हो सकती है.

बिहार की राजनीति में कांग्रेस अपने ही वजूद के लिये संघर्ष कर रही है. ऐसे में यहां उसके पास यूपीए के सहयोगी आरजेडी के सामने सरेंडर करने के अलावा कोई चारा नहीं है. बिहार की राजनीति में मुख्य लड़ाई आरजेडी और बीजेपी-जेडीयू के बीच ही होगी.

जबकि पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी पार्टी टीएमसी की नेता ममता बनर्जी का ज्यादा जोर थर्ड फ्रंट बनाने पर दिखता रहा है. लेकिन टीआरएस के बदले-बदले से मिजाज को देखकर वो भी अब खुद की पार्टी को ही चुनाव में मजबूत करने का काम करना चाहेंगीं. इसी तरह तमिलनाडु और केरल जैसे दूसरे राज्यों में भी कांग्रेस की उम्मीदें डीएमके और सीपीएम जैसी पार्टियों पर है. इन राज्यों में कांग्रेस को अपने ही धैर्य का इम्तिहान लेना होगा. सीपीएम कभी हां-कभी ना के साथ कांग्रेस के साथ दिखाई देती है तो वहीं डीएमके भी बदलते राजनीतिक समीकरणों के चलते कोई नया दांव चल सकती है.

दरअसल सवाल सभी क्षेत्रीय दलों के अपने वजूद का भी है जो कि मोदी लहर की वजह से गड़बड़ाने के बाद अबतक सम्हल नहीं सका है.

ऐसे में कांग्रेस को मिशन 150 के लिये बीजेपी की मिशन 300+ की रणनीति से ही कुछ सीक्रेट फॉर्मूले निकालने होंगे. एक वक्त तक बीजेपी को सवर्णों की पार्टी कहा जाता था तो कांग्रेस को दलित-मुसलमानों के मसीहा के तौर पर प्रोजेक्ट किया जाता था. लेकिन आज बीजेपी ने सवर्णों की पार्टी के टैग को हटा कर सोशल इंजीनियरिंग की जो मिसाल पेश की उसकी काट किसी के पास नहीं है. कांग्रेस को भी एक नए समीकरण की तलाश करनी होगी क्योंकि उसका वोट बैंक क्षेत्रीय दल लूट चुके हैं.

यूपी में कांग्रेस को फिलहाल मंथन करने की जरूरत नहीं है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को केवल 2 सीटें ही मिलीं. जबकि साल 2017 के विधानसभा चुनाव में उसे सिर्फ 7 सीटें मिलीं. गोरखपुर और फूलपुर के उपचुनाव में उसकी जमानत भी जब्त हुई. ऐसे में यहां ज्यादा एक्सपेरीमेंटल होने की जरुरत नहीं है. यूपी की 80 लोकसभा सीटों को देखते हुए कांग्रेस को एसपी-बीएसपी गठबंधन पर ही भरोसा दिखाना होगा. कांग्रेस के पास यूपी में कोई करिश्माई चेहरा नहीं है. ऐसे में कांग्रेस सौदेबाजी की हालत में नहीं है. यहां वो दर्शन ठीक है कि जो मन का हो जाए तो ठीक है और न हो तो और भी ठीक है.

हालांकि साल 2009 की तर्ज पर कांग्रेस यहां सभी 80 सीटों पर दांव भी खेल सकती है क्योंकि उसके पास यहां खोने को कुछ नहीं है. अगर दांव चल गया तो कांग्रेस के लिये सबसे अप्रत्याशित एडवांटेज होगा.

गुजरात में लोकसभा की 26 सीटें हैं. साल 2014 में गुजरात में कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पाई थी. लेकिन गुजरात विधानसभा चुनाव में ‘ट्रेलर’ दिखाने वाली कांग्रेस का दावा है कि वो लोकसभा चुनाव में पूरी ‘पिक्चर’ दिखाएगी. गुजरात कांग्रेस का दावा है कि वो लोकसभा चुनाव में सभी बीजेपी विरोधी ताकतों को साथ लाकर मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलेगी.

गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी जैसे नेताओं के साथ गठबंधन कर बीजेपी के ‘क्लीन-स्वीप’ के तिलिस्म को तोड़ दिया था. ऐसे में इस बार गुजरात में कांग्रेस को संभावना दिख रही हैं जो कि उसकी 150 सीटों के लक्ष्य को हासिल करने के लिये बूंद-बूंद से घड़ा भरने का काम कर सकती है.

इस बार पंजाब और राजस्थान को लेकर कांग्रेस आत्मविश्वास से लबरेज है. पंजाब में कांग्रेस ने सत्ता में वापसी की है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर में हारी कांग्रेस ने 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में जबरदस्त वापसी की. इस चुनाव से न सिर्फ उसकी सीटों में इजाफा हुआ बल्कि वोट प्रतिशत में भी बढ़ोतरी हुई. विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 38.5 फीसदी मत मिले. वहीं गुरुदासपुर लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में मिली जीत से कांग्रेस उत्साहित है. ऐसे भी संकेत मिल रही हैं कि लोकसभा चुनाव में बीजेपी और शिरोमणि अकाली दल को कड़ी टक्कर देने के लिये कांग्रेस आम आदमी पार्टी से भी हाथ मिला सकती है. आम आदमी पार्टी ने पंजाब के विधानसभा चुनाव को त्रिकोणीय मुकाबले में बदल दिया था.

इसी साल मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में चुनाव होने वाले हैं. मध्य प्रदेश में लोकसभा की 29 सीटों में कांग्रेस के पास केवल 2 ही सीटें हैं. ये सीटें ज्योतिरादित्य सिंधिया ने गुना और कमलनाथ ने छिंदवाड़ा में जीती थीं. लेकिन इस बार कांग्रेस को एमपी में एंटीइंकंबेंसी से काफी उम्मीदें हैं. शिवराज के 15 साल के शासनकाल में उपजी सत्ताविरोधी लहर के भरोसे कांग्रेस न सिर्फ विधानसभा चुनाव जीतने का सपना देख रही है बल्कि उसे लोकसभा सीटें मिलने की भी उम्मीदें है.

इसी तरह छत्तीगढ़ में लोकसभा की 11 सीटें हैं. लेकिन कांग्रेस के पास यहां विद्याचण शुक्ल जैसा पुराना चेहरा नहीं है. नक्सली हमले में कांग्रेस ने अपने कई बड़े नेताओं को खो दिया था. बीजेपी के मुख्यमंत्री रमन सिंह का फिलहाल कांग्रेस के पास यहां कोई तोड़ नहीं दिखाई देता है.

राजस्थान में कांग्रेस को सत्ता में आने का पूरा भरोसा है. यहां हर पांच साल में सरकार बदलने की परंपरा है. विधानसभा चुनाव के साथ ही कांग्रेस को यहां लोकसभा सीटें भी जीतने की उम्मीद है. साल 2014 में राजस्थान की 25 लोकसभा सीटों में से एक भी सीट कांग्रेस नहीं जीत सकी थी. लेकिन इस बार उपचुनावों में उसने लोकसभा की दो और विधानसभा की एक सीट जीती.

उत्तर-पूर्वी राज्यों में एक वक्त कांग्रेस का एकछत्र राज होता था. लेकिन बीजेपी ने अपनी रणनीति के तहत उत्तर-पूर्वी राज्यों में ताकत झोंक दी. बीजेपी ये जानती है कि यूपी में साल 2014 का करिश्मा दोहरा पाना आसान नहीं होगा. इसलिये उसने वैकल्पिक सीटों के लिये उत्तर-पूर्वी राज्यों को खासतौर से टारगेट किया. ये इलाके कांग्रेस और लेफ्ट का गढ़ होने के बावजूद अब भगवामय हो चुके हैं.

असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और त्रिपुरा में बीजेपी की सरकार है. वहीं नागालैंड में नागा पीपुल्स फ्रंट-लीड डेमोक्रेटिक गठबंधन को बीजेपी का समर्थन मिला हुआ. ऐसे में कांग्रेस को उत्तर-पूर्वी राज्यों में कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी क्योंकि बीजेपी ने पूर्वोत्तर की 25 लोकसभा सीटों के लिये साल 2014 से ही तमाम परियोजनाओं के जरिये साल 2019 की तैयारी शुरू कर दी थी.

सबसे ज्यादा असम के पास 14 लोकसभा सीटें हैं. असम में बीजेपी की सरकार है. बीजेपी ने पूर्वोत्तर को कांग्रेस मुक्त बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. कांग्रेस पांच राज्यों से सिमट कर मेघालय और मिजोरम तक ठहर गई है.

महाराष्ट्र को लेकर कांग्रेस थोड़ी सी आशान्वित हो सकती है. महाराष्ट्र के वोटरों में हर पांच साल में सरकार बदलने की मानसिकता रही है. यूपी के बाद महाराष्ट्र ही लोकसभा की सबसे ज्यादा 48 सीटें देता है. यहां असली मुकाबला कांग्रेस-एनसीपी और बीजेपी-शिवसेना गठबंधन के बीच है. फिलहाल जो राजनीतिक हालात हैं उसे देखकर लग रहा है कि बीजेपी यहां पर अकेले दम पर चुनाव लड़ सकती है क्योंकि शिवसेना के साथ रिश्ते काफी बिगड़ चुके हैं. कांग्रेस और एनसीपी इसका फायदा उठा सकते हैं.

कर्नाटक में भले ही कांग्रेस दोबारा सरकार नहीं बना पाई लेकिन उसे जेडीएस के रूप में साल 2019 का लोकसभा पार्टनर मिल गया है. कर्नाटक की 28 लोकसभा सीटों में कांग्रेस को साल 2014 में केवल 9 सीटें ही मिली थीं. ऐसे में कांग्रेस और जेडीएस का गठबंधन इस बार चुनाव में बीजेपी का गेम-प्लान बिगाड़ने का काम कर सकता है.

चिदंबरम के गेम-प्लान के मुताबिक अगर कांग्रेस को 150 सीटें हासिल करनी है तो उसे मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश और पूर्वोत्तर के राज्यों में जोरदार मेहनत करनी होगी तो वहीं क्षेत्रीय दलों के वर्चस्व वाले राज्यों में गठबंधन को ही रणनीति बनानी होगी.

चिदंबरम के फॉर्मूले में अंकगणित के हिसाब से कागजों पर कांग्रेस करिश्मा देख सकती है. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि मोदी-विरोधी मोर्चा केंद्र सरकार के खिलाफ किन मुद्दों पर मैदान में ताल ठोंक सकेगा? सिर्फ मोदी विरोध के नाम पर चुनाव जीतने की गलतफहमी कांग्रेस को साल 2014 की ही तरह दोबारा ‘हाराकीरी’ पर मजबूर ही करेगी.

कांग्रेस को अपनी रणनीति बदलनी होगी. पीएम मोदी के खिलाफ आपत्तिजनक बयानों से बचना होगा. इसकी शुरुआत खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को ही करनी पड़ेगी तभी दूसरे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता जबान पर लगाम रखेंगे. अब राहुल भी ये जान चुके हैं कि ‘आंखों में आंख न डाल पाने वाले’ मोदी अविश्वास प्रस्ताव पर कैसे विरोधियों को धूल चटा गए हैं.

कांग्रेस में पीएम मोदी पर बोलने के नाम पर ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का ‘भरपूर इस्तेमाल’ करने वाले नेता ही अपनी पार्टी का काम तमाम करते आए हैं. तभी राहुल को सीडब्लूसी की बैठक में बड़बोले नेताओं की बोलती बंद करने के लिये कड़ी कार्रवाई की धमकी देनी पड़ी है.

बहरहाल, कांग्रेस ये सोचकर खुद में आत्मविश्वास भर सकती है कि इस साल लोकसभा की दस सीटों पर हुए उपचुनावों में बीजेपी 8 सीटों पर हारी है. वहीं बीजेपी भी 8 सीटों की हार से 2019 के अपने मिशन 300+ की दोबारा समीक्षा कर सकती है. फिलहाल सौ साल पुरानी कांग्रेस को 150 सीटों की सख्त दरकार है. ये चुनौती इसलिये भी बड़ी है क्योंकि कांग्रेस के पास 272 के ‘मैजिक फिगर’ के लिये कोई जादुई छड़ी नहीं है.