09 दिसंबर को राम मंदिर निर्माण के लिए हुंकार भरेंगे लाखों रामभक्त

09 दिसंबर को दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित धर्म सभा में भगवा पताका के साथ लाखों कार्यकर्ताओं के पहुुंचने का लक्ष्य बना है। 1528 से लेकर 2018 तक 77 बार हिंदू समाज मंदिर निर्माण के लिए संघर्ष कर चुका है। इस दिशा में रामलीला मैदान में लाखों कार्यकर्ता अपनी भावनाओं का प्रदर्शन करेंगे। किसी पार्टी का झंडा नहीं होगा। इस रैली को सफल बनाने के लिए संत समाज के साथ पूरा संघ परिवार तैयारी में जुटा हुआ है। इस रामभक्त महासम्मेलन में लाखों रामभक्त 09 दिसंबर को रामलीला मैदान पहुँचकर राम मंदिर निर्माण का संकल्प लेंगे। सिर्फ भारत माता, भारत माता की जय एवं जय श्रीराम के जयकारे सुनाई देंगे।

सोशल मीडिया के प्लेयर्स ने बढ़ाए दाम, हो रही धन की बरसात…

 

आजकल डिजिटल का जमाना है। शहरों से लेकर गांवों तक स्मार्टफोन की उपलब्धता आसान होने से इंटरनेट यूज करने वाले लोगों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है। सभी तरह का कंटेंट इंटरनेट पर आसानी से उपलब्ध है। ऐसे में इन दिनों फेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब का इस्तेमाल करने वालों की संख्या में भी लगातार बढ़ोतरी होती जा रही है। अपने प्लेटफॉर्म पर यूजर्स की बढ़ती संख्या को देखते हुए ये कंपनियां भी अब इस मौके को भुनाने में जुट गई हैँ।

अंग्रेजी अखबार ‘द इकनॉमिक टाइम्स’ में छपी एक खबर के मुताबिक, विडियो शेयरिंग प्लेटफॉर्म यूट्यूब ने अपने होमपेज पर दिए जाने वाले एक दिन के विज्ञापन रेट 70 लाख रुपए से बढ़ाकर 1.4 करोड़ रुपए करने की घोषणा की है।

बताया जाता है कि मंथली एक्टिव यूजर्स (MAUs) की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि के बाद यूट्यूब ने यह कदम उठाया है। आंकड़ों के अनुसार, यूट्यूब के मंथली एक्टिव यूजर्स 250 मिलियन, फेसबुक के 220 मिलियन और इंस्टाग्राम के 68 मिलियन हो चुके हैं, जबकि ट्विटर की बात करें तो यह आंकड़ा 30.4 मिलियन तक पहुंच चुका है। रिपोर्ट के अनुसार, यूट्यूब के बाद अब फेसबुक और ट्विटर भी अपनी विज्ञापन दरें बढ़ा रहे हैं।

विशेषज्ञों के हवाले से अखबार ने कहा है कि वर्ष 2019 में भी फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम अपनी विज्ञापन दरों में सालाना 20 से 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी करना जारी रखेंगे, क्योंकि हर साल इन प्लेटफॉर्म्स पर यूजर्स पहले के मुकाबले ज्यादा समय बिताने लग जाते हैं। हालांकि, फेसबुक ने विज्ञापन की दरों में बढ़ोतरी से इनकार किया है।

Dentsu Aegis Network-e4m Digital की रिपोर्ट के अनुसार, इस समय ऐडवर्टाइजिंग इंडस्ट्री 55,960 करोड़ रुपए की इंडस्ट्री बन चुकी है और 32 प्रतिशत ‘compound annual growth rate’ (CAGR) के स�

Media Ecosystem: The wall falls down


बहुत से छोटे मँझोले ओर बड़े व्यापारियों  को अपनि वित्तीय स्थितियों के कारण अपने मार्केटिंग के तरीकोण का चयन करने में दिक्कत आती है वह यह निर्णय नहीं कर पाते की उनके लिए विज्ञापन का कौन सा माध्यम ठीक रहेगा?

किस माध्यम से उनके द्वारा निवेशित रूपये की पूरी वसूली हो सकेगी?

व्यापारी अपने व्यापार के लिए किस माध्यम पर भरोसा करे?

उत्तर हैरान कर देगा।


इस बात में कोई शक नहीं है कि आज के समय में ब्रैंड्स के लिए डिजिटल बहुत जरूरी हो गया है, हालांकि ऐडवर्टाइजर्स अभी भी टेलिविजन को प्राथमिकता दे रहे हैं और यह उनकी पहली पसंद बना हुआ है।

ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या ऐडवर्टाइजर्स और टेलिविजन के बीच का संबंध और मजबूत होता जा रहा है? क्या टेलिविजन आगे भी ऐडवर्टाइजर्स की पहली पसंद बना रहेगा? क्या डिजिटल इस स्थिति को बदल पाएगा? इन सब बातों को लेकर हमने कुछ विशेषज्ञों से बातचीत की कि आखिर आने वाले समय में क्या हालात रहने वाले हैं?

डिजिटल का जमाना है। पिछले कुछ वर्षों की बात करें तो ऐडवर्टाइजर्स भी इसके प्रभाव से अछूते नहीं हैं और इसे काफी पसंद भी कर रहे हैं। जितने भी बड़े ब्रैंड हैं, लगभग सभी ऑनलाइन प्लेटफॉंर्म पर मौजूद हैं और अब हालात ये हैं कि डिजिटल के बिना कोई भी मार्केट स्ट्रैटजी पूरी नहीं मानी जाती है।

‘केपीएमजी’ की रिपोर्ट ‘Media Ecosystem: The wall falls down’ के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2018 (FY18) में डिजिटल ऐडवर्टाइजिंग के रेवेन्यू में 35 प्रतिशत की ग्रोथ दर्ज की गई है और यह 116000 करोड़ रुपए हो गई है। जबकि टेलिविजन की ग्रोथ वित्तीय वर्ष 2018 में इसके मुकाबले कम रही है और यह 9.5 प्रतिशत के हिसाब से बढ़कर 65200 रुपए रही है।

इस बारे में ‘एचयूएल’ (HUL)  के सीईओ और एमडी संजीव मेहता का कहना है कि टेलिविजन आज भी प्रासंगिक है और आने वाले कई दशकों तक देश में इसका प्रभाव यूं ही बना रहेगा।

मेहता का कहना है, ‘आज टेक्नोलॉजी इतनी एडवांस हो गई है कि हम डिजिटल कम्युनिकेशंस के साथ अपने टार्गेट को प्लान कर सकते हैं। हालांकि कुछ चीजें कभी नहीं बदलने वाली हैं। मार्केट के फंडामेंटल यानी बेसिक बातें हमेशा यही बने रहेंगे। मार्केटिंग में कंज्यूमर हमेशा ही मुख्य रहेगा। नए जमाने का कंटेंट हमें नए तरीके से स्टोरीटैलिंग की कला सिखाएगा।’

वहीं इस बारे में ‘पारले प्रॉडक्ट्स’ (Parle products) के कैटगरी हेड मयंक शाह का कहना है कि चूंकि टेलिविजन की पहुंच बहुत ज्यादा है, इसलिए यह ब्रैड्स के लिए पसंदीदा माध्यम बना हुआ है। उनका मानना है कि ब्रैंड्स के लिए टेलिविजन पर विज्ञापन करना ज्यादा उचित है क्योंकि टीवी की पहुंच ज्यादा है।

शाह का कहना है, ‘इस बात में कोई शक नहीं कि डिजिटल काफी तेजी से ग्रोथ कर रहा है और यह काफी महत्वपूर्ण माध्यम भी बना हुआ है। लेकिन जब बात इसकी पहुंच की आती है, खासकर एफएमसीजी और दैनिक जरूरतें की चीजों के ब्रैंड के बारे में तो टीवी का प्रदर्शन बेहतर है।’ उनका कहना है कि टेलिविजन कुछ समय के लिए डिजिटल पर अपनी बढ़त बनाए रखेगा। डिजिटल उन ब्रैंड्स के लिए एक प्लेटफॉर्म है जो आडियंस के खास वर्ग को टार्गेट करना चाहते हैं।

इस बारे में ‘मैडिसन वर्ल्‍ड’ (Madison World) के सीओओ (Buying) नील कमल शर्मा का कहना है कि पिछले वर्ष के मुकाबले एक प्रतिशत की गिरावट के बावजूद ऐडवर्टाइजिंग के चार्ट में टेलिविजन अभी भी टॉप पर बना हुआ है।

नील कमल शर्मा का कहना है, ‘यह सही है कि देश में डिजिटल ऐडवर्टाइजिंग का रेवेन्यू काफी बढ़ा है और यह ट्रेंड अभी भी जारी है। लेकिन पिछले वर्ष के मुकाबले एक प्रतिशत की गिरावट के बावजूद टेलिविजन का ऐडवर्टाइजिंग रेवेन्यू अभी भी सबसे ज्यादा है।’

शर्मा का कहना है, ‘चूंकि कुल ऐडवर्टाइजिंग में 12 प्रतिशत और डिजिटल में 25 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है, ऐसे में टीवी और प्रिंट जैसे स्थापित माध्यमों के शेयर में भविष्य में कमी आने की संभावना है। लेकिन टेलिविजन की प्रासंगिकता बनी रहेगी। चूंकि ऐडवर्टाइजिंग कैटेगरी में टीवी सबसे टॉप पर है, इसलिए यह एफएमसीजी प्लेयर्स की पहली पसंद बना हुआ है। इसके अलावा स्मार्ट फोन, ट्रैवल और ओटीटी प्लेटफॉर्म भी अपनी ग्रोथ के लिए टीवी का इस्तेमाल करते हैं।’

डिजिटल मीडिया की ग्रोथ में एफएमसीजी, टेलिकॉम, बीएफएसआई, रियल एस्टेट और ई-कॉमर्स जैसी कैटेगरी का काफी योगदान है। हालांकि इनमें से कुछ का ट्रेडिशनल मीडिया में भी काफी प्रभाव है। डिजिटल प्लेटफॉर्म पर न्यूज, ऐंटरटेनमेंट और स्पोर्ट्स के कंटेंट का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है। खासकर, युवा वर्ग इन दिनों ट्रेडिशनल मीडिया से दूर होता जा रहा है और यही कारण है कि एफएमसीजी और टेलिकॉम जैसी कैटेगरी भी बड़े पैमाने पर डिजिटल प्लेटफॉर्मस का इस्तेमाल कर रही हैं।

‘बजाज एलायंज लाइफ इंश्योरेंस’ (Bajaj Allianz Life Insurance) के चीफ मार्केटिंग ऑफिसर चंद्रमोहन मेहरा का मानना है कि कम से कम तीन से पांच साल तक दोनों माध्यम सह-अस्तित्व में बने रहेंगे।

मेहरा का कहना है, ‘सबसे पहले मीडिया का सलेक्शन ऑब्जेक्ट के अनुसार करना है, टीवी और डिजिटल का चुनाव आपके काम पर निर्भर करता है। ब्रैंड्स के लिए इंटीग्रेटिड अप्रोच ज्यादा प्रभावी रहती है। टीवी पहुंच बढ़ाने और डिजिटल ब्रैंड को गहराई से जोड़ने के काम आता है।’

‘केपीएमजी’ की रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका जैसे मार्केट में व्यूअर्स टीवी से डिजिटल की ओर इसलिए मुड़ रहे हैं क्योंकि वहां पर डिजिटल का इंफ्रॉस्ट्रक्चर काफी मजबूत है और इसकी कम कीमत भी एक बड़ी वजह है। लेकिन, भारत में ग्रोथ और कीमत के मामले में टीवी काफी मजबूत स्थिति में है। इसके अलावा, डिजिटल का उतना इंफ्रास्ट्रक्चर भी नहीं है। ऐसे में, लोगों का टीवी की तरफ झुकाव हो जाता है।

‘वॉयकॉम 18’ (Viacom 18) के रीजनल टीवी नेटवर्क के हेड रवीश कुमार के अनुसार, कंज्यूमर्स तक पहुंच के मामले में टीवी सबसे बड़ा और सस्ता माध्यम है।

उनका कहना है, ‘टीवी के दर्शकों को मापना काफी आसान है जबकि डिजिटल में इसके लिए काफी समय लगता है। हालांकि कंटेंट के मामले में दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं लेकिन दोनों को एक-दूसरे से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि ब्रैंड्स के लिए टीवी पहली पसंद बना हुआ है।’

‘MullenLowe Lintas’ ग्रुप में ‘पाइंटनाइन लिंटास’ (PointNine Lintas) के नेशनल डॉयरेक्टर विधू सागर का मानना है कि अलग-अलग लोगों के लिए हमेशा अलग स्थिति होती है और सभी प्रकार के ऑडियंस के लिए सामान्य दृष्टिकोण लागू नहीं किया जा सकता है।

सागर का कहना है, ‘आज मीडिया की जो स्थिति है, उसमें आप पुराने दृष्टिकोण को नहीं अपना सकते हैं, क्योंकि समय के साथ चीजें बदलती रहती हैं। आज के समय में लॉन्च हो रहा कोई भी ब्रैंड टीवी और कई मामलों में प्रिंट के बिना कुछ नहीं कर सकता है।’

सागर का कहना है, ‘आप यदि बड़े पैमाने पर काम करना चाहते हैं तो आपको डिजिटल के साथ टीवी की जरूरत भी पड़ेगी। यदि आप अपने ब्रैंड के साथ कई अन्य पहलू सम्मान और विश्वसनीयता शामिल करना चाहते हैं तो आपको ब्रॉडकॉस्ट मीडिया के साथ जाना पड़ेगा।’

‘केपीएमजी’ की रिपोर्ट के अनुसार, देश में डिजिटल ऐडवर्टाइजमेंट मुख्य धारा में आ चुका है। वित्तीय वर्ष 2023 में डिजिटल पर विज्ञापन खर्च 40000 करोड़ रुपए होने का अनुमान है। वर्ष 2017 डिजिटल पर विज्ञापन खर्च का योगदान 86.2 बिलियन रुपए था और वर्ष 2023 तक सीएजीआर (CAGR)  ग्रोथ 30.9 तक बढ़ने का अनुमान है।

सागर का कहना है, ‘डिजिटल में तो काफी तेजी से वृद्धि हुई है लेकिन अधिकतर ऐडवर्टाइजर्स ने इस हिसाब से अपना बजट नहीं बढ़ाया है। इसलिए डिजिटल का रेवेन्यू दूसरे मीडिया से कटकर आ रहा है। यह रेडियो, सिनेमा और प्रिंट को प्रभावित कर रहा है।

मैगजींस लगभग समाप्ति की ओर हैं और कई जगह टेलिविजन भी प्रभावित हो रहा है। लेकिन टीवी की अपनी अलग बात है और कोई भी क्लाइंट अचानक से टीवी से हटकर एकदम से डिजिटल की ओर नहीं जाने वाला है।

इस समय भारतीय ओटीटी इंडस्ट्री ‘AVOD’ अथवा ‘freemium’ मॉडल पर काम कर रही है और ‘SVOD’ अभी आरंभिक अवस्था में है। टेल्को आधारित पेड सबस्क्रिप्शन के साथ 2-2.4 मिलियन सबस्क्राइबर्स सीधे ओटीटी प्लेटफॉर्म्स सबस्क्राइब कर रहे हैं। हालांकि ऐसे टेल्को आधारित सबस्क्रिप्शन में पिछले साल इजाफा हुआ है, लेकिन सीपीएम (CPM) रेट घटने से ऐडवर्टाइजमेंट रेवेन्यू को काफी चुनौती का सामना करना पड़ा है।

‘केपीएमजी’ के पार्टनर और हेड गिरीश मेनन का कहना है, ‘इस समय डिजिटल का सीपीएम कम है। इस वजह से भी डिजिटल के समक्ष काफी चुनौतियां हैं। प्रिंट में एक पेज के विज्ञापन के मुकाबले डिजिटल में काफी कम कमाई होती है। इसलिए सीपीएम बढ़ने से पहले आपको आरओआई (ROI) और मीजरमेंट की जरूरत होती है।’

‘केपीएमजी’ की रिपोर्ट के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2018 में भले ही टीवी की रफ्तार कम रही हो लेकिन उम्मीद है कि यह फिर वापसी करेगा और पिछले वर्षों की तरह फिर आगे बढ़ेगा।

बढ़ती पहुंच, विज्ञापन की बढ़ती मांग के कारण टीवी की सीएजीआर (CAGR) ग्रोथ 12.6 से होने की उम्मीद है।

Rupee dearer by fifty paisa against $


DF Bureau, Mombai:

The Indian rupee gained in the early trade on Thursday. It opened higher by 51 paise at 70.11 per dollar on Thursday versus against previous close 70.62.

Rupee strengthened against the US dollar and extended gains in the latter half of the session ahead of the important preliminary GDP number that was released from the US. In the last couple of sessions rally in domestic equities is also supporting the rupee with FIIs also turning net buyers after remaining sellers in September and October, said Motilal Oswal.

This month until now FIIs have poured in around USD 900 million of funds in equity and debt segment keeping the momentum positive for the currency. Today, USD-INR pair is expected to quote in the range of 70.20 and 70.80, it added.

मध्य प्रदेश की 230 विधानसभा सीटों पर बुधवार, 28 नवंबर को मतदान होगा

 

मध्य प्रदेश की 230 विधानसभा सीटों पर बुधवार, 28 नवंबर को मतदान होगा. सुबह 8:00 बजे से शाम 5:00 बजे तक  वोटिंग होगी जिसमें पांच करोड़ चार लाख वोटर 2899 उम्मीद्वारों की किस्मत का फैसला करेंगे. 11 दिसंबर को मतगणना होगी. चुनाव में सबसे बड़ा फैसला ये होना है कि शिवराज सिंह चौहान के सर पर चौथी बार मुख्यमंत्री का सेहरा बंधेगा या नहीं. कमलनाथ औऱ ज्योतिरादित्य सिंधिया चुनाव नहीं लड़ रहे हैं लेकिन दोनों के लिये भी ये सत्ता का सेहरा पहनने की बड़ी जंग है.

बुदनी से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान औऱ पूर्व केन्द्रीय मंत्री अरूण यादव आमने सामने हैं. दिग्विजय सिंह के बेटे जयवर्धन सिंह राघोगढ़ से, भाई लक्ष्मण सिंह चाचौड़ा से औऱ भतीजे प्रियव्रत सिंह खिलचीपुर से मैदान में हैं. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के भांजे औऱ सांसद अनूप मिश्रा भितरवार से किस्मत आजमा रहे हैं. अर्जुन सिंह के बेटे अजय सिंह अपनी परंपरागत चुरहट सीट से चुनाव लड़ रहे हैं. बीजेपी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के बेटे आकाश भी इंदौर तीन सीट से अपनी किस्मत आजमा रहे हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने माता पिता को चुनाव में घसीटने को मुद्दा बनाया तो राहुल गांधी ‘राग राफेल’ गाते रहे. अमित शाह ने मध्य प्रदेश में बीजेपी के राज में हुये विकास की बात उठाई तो कमल नाथ औऱ सिंधिया शिवराज के राज में हुये भ्रष्टाचार औऱ अधूरी घोषणाओं को मुद्दा बनाते रहे.

प्रदेश में 65341 पोलिंग बूथ बनाये गए हैं जिनमें 17000 संवेदनशील हैं. एक लाख अस्सी हजार पुलिसकर्मी चुनावी ड्यूटी में तैनात किये गये हैं जिनमें एक लाख दूसरे राज्यों से हैं. एमपी में प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी ने दस औऱ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने 21 रैलियां की. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पुराने सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए डेढ़ सौ सभाएं की.

बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने भी करीब तीस रैलियां औऱ रोड शो किए. कमल नाथ ने 55 औऱ ज्योतिरादित्य सिंधिया ने सवा सौ चुनावी सभाएं औऱ रोड शो किए. बीजेपी सभी 230 सीटों पर, कांग्रेस 229, बहुजन समाज पार्टी 227, समाजवादी पार्टी 51, सीपीआई 18, सीपीएम 13, आप 208, सपाक्स 110 औऱ सवर्ण समाज पार्टी 81 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। 1094 निर्दलीय प्रत्याशी मैदान में हैं. कुल ढाई सौ महिला उम्मीद्वार हैं

कांग्रेस पार्टी ने उस कहावत को आत्मसात कर लिया है कि, ‘जीतने की तरह हारते जाना भी एक आदत है


दुकानदार कहते हैं कि, ‘हम बीजेपी के वोटर हैं और किसी और पार्टी के बारे में सोच भी नहीं सकते

दिग्विजय सिंह का 1993-2003 का कार्यकाल, पुरानी पीढ़ी आज भी याद करती है। यही वजह है कि बुजुर्ग वोटर न सिर्फ कांग्रेस को लेकर आशंकित हैं, बल्कि पार्टी के पुराने दौर के कुशासन का जिक्र भी अक्सर कर बैठते हैं

ग्वालियर के महाराजा ज्योतिरादित्य सिंधिया और उद्योगपति कमलनाथ जैसे नेता, वोटरों में कोई उम्मीद नहीं जगाते. जनता को इस बात की उम्मीद ही नहीं है कि इन नेताओं की अगुवाई में कांग्रेस का रुख-रवैया बदलेगा

जहां तक कांग्रेस की बात है तो ऐसा लगता है कि पार्टी ने उस कहावत को आत्मसात कर लिया है कि, ‘जीतने की तरह हारते जाना भी एक आदत है


1990 के दशक में नरेंद्र मोदी बीजेपी के संगठन महामंत्री के तौर पर मध्य प्रदेश के प्रभारी थे. उस वक्त उन्हें एक उपनाम मिला था, ‘मास्टर साहब’. इसकी वजह बीजेपी का संगठन चलाने और पार्टी का वोट बैंक बढ़ाने का उनका तरीका था. मोदी की पुरजोर कोशिश बीजेपी के समर्थन का दायरा बढ़ाने की होती थी.

1998 में मध्य प्रदेश, बीजेपी के मजबूत गढ़ के तौर पर उभरा था. राज्य के शहरी ही नहीं, ग्रामीण वोटरों के बीच भी बीजेपी की मजबूत पकड़ थी. ऐतिहासिक रूप से भी मध्य प्रदेश को बीजेपी और उससे भी पहले भारतीय जनसंघ के मजबूत संगठन की मौजूदगी के लिए जाना जाता था. जमीनी स्तर पर पार्टी ने लगातार अच्छा काम कर के पकड़ बना ली थी.

राज्य में बीजेपी की बुनियाद मजबूत करने और इसके लगातार विस्तार में कुशाभाऊ ठाकरे का अहम रोल रहा था. कुशाभाऊ ठाकरे को संगठन का आदमी कहा जाता था. अपनी इसी खूबी के चलते, वो 1998 में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने.

कैसा था कुशाभाऊ ठाकरे का तरीका

लेकिन, कुशाभाऊ ठाकरे के काम करने का तरीका एकदम किताबी था. वो लीक पर चलने वाले नेता थे. उन्होंने संघ के आनुषांगिक संगठनों से कार्यकर्ताओं को बीजेपी में जोड़ा और उन्हें राजनीतिक कार्यकर्ता बनने की ट्रेनिंग दी. 1998 में जब मोदी मध्य प्रदेश के बीजेपी प्रभारी बने, तो उन्होंने संगठन में क्रांतिकारी बदलाव किए. पार्टी के उस वक्त के नेतृत्व को ये बात बिल्कुल नहीं सुहाई.

उन्होंने मोदी के तौर-तरीकों का विरोध किया. उस वक्त बीजेपी में मध्य प्रदेश से कई कद्दावर नेता थे. जैसे कि सुंदर लाल पटवा, विक्रम वर्मा और कैलाश जोशी. इसके अलावा उमा भारती जैसे उभरते हुए बेहद लोकप्रिय नेता भी थे. मोदी ने नए नेताओं को बढ़ावा दिया और संगठन को अनुसूचित जाति और जनजातियों के बीच अपना जनाधार बढ़ाने के लिए लगातार प्रेरित किया.

मोदी को लगता था कि वोटरों के इस तबके को अपनी पार्टी का समर्थक बनाने के लिए बहुत कम कोशिश करनी होगी. राज्य के बीजेपी नेताओं ने मोदी की इस कोशिश का कड़ा विरोध किया था. फिर भी, वो बीजेपी का सामाजिक दायरा बढ़ाने और नए सिरे से संगठित करने की अपनी रणनीति पर अमल करते रहे, ताकि समाज के हाशिए पर पड़े लोगों को हिंदुत्ववादी पार्टी के पाले में ला सकें.

मास्टर साहब की संगठन का असर

हालांकि बीजेपी 1998 का चुनाव हार गई थी. लेकिन, पार्टी का आदिवासियों, अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्ग के बीच हुआ संगठनात्मक विस्तार साफ दिखा. ये वो तबके थे जो परंपरागत रूप से कांग्रेस को वोट देते रहे थे. बीजेपी के ‘मास्टर साहब’ की संगठन के विस्तार की लगातार कोशिश का ही नतीजा था कि 2003 के चुनाव में पहले उमा भारती और फिर शिवराज चौहान विजयी नेता बन कर उभरे.

इसमें कोई दो राय नहीं कि बीजेपी को लगातार 15 साल तक राज करने की कीमत चुकानी पड़ रही है. बीजेपी के परंपरागत वोटर, यानी ऊंची जाति के जमींदार बहुत नाखुश हैं. लेकिन, इस बात की काफी संभावना है कि बीजेपी इस सियासी जमीन के बिखराव की भरपाई, हाशिए पर पड़े तबकों को अपने साथ लाकर कर लेगी. खास तौर से आदिवासियों, अनुसूचित जातियों और शहरी गरीबों को जोड़ने का बीजेपी को काफी फायदा होगा. हालांकि, हैरान करने वाली बात ये है कि बीजेपी के परंपरागत वोटरों के मुकाबले ये तबका उतना खुलकर पार्टी के साथ नहीं आता दिखता है.

मध्य प्रदेश के मालवा इलाके में बीजेपी की हालत उतनी कमजोर नहीं दिखती, जितनी चंबल और बुंदेलखंड इलाके में दिखती है। चंबल और बुंदेलखंड में बीजेपी के लिए लंबा राज ही चुनौती बन गया है। मालवा को मध्य प्रदेश का अमीर इलाका माना जाता है.

यहां शहरी आबादी ज्यादा है. कारोबार फल-फूल रहा है। जैसे कि इंदौर शहर को ही लीजिए, जिसे राज्य के लोग ‘मिनी मुंबई’ कहते हैं. इसकी वजह यहां खूब फल-फूल रहे उद्योग और कारोबार हैं। ये शहर खान-पान के शौकीनों के लिए भी जन्नत है। स्ट्रीट फूड के लिए इंदौर का सर्राफ़ा बाजार काफी मशहूर है। ये बाजार सोने, हीरे और गहनों के कारोबार का बड़ा केंद्र है. हालांकि पहले के मुकाबले यहां रौनक कम दिखती है।

नोटबंदी से निराशा 

दुकानदार मानते हैं कि, ‘हां, नोटबंदी के बाद से हमारा धंधा मंदा हुआ है।’ फिर भी वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति कोई बैर नहीं रखते। जब हम ने उनसे पूछा कि वो इस बार किस पार्टी को वोट देंगे, तो दुकानदार कहते हैं कि, ‘हम बीजेपी के वोटर हैं और किसी और पार्टी के बारे में सोच भी नहीं सकते।’

इंदौर बीजेपी का मजबूत गढ़ रहा है। लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन यहां से लगातार आठ बार चुनाव जीत चुकी हैं। पिछले एक दशक में इंदौर शहर देश के दूसरे शहरों के लिए मॉडल बन कर उभरा है। यहां की साफ-सफाई और दूसरी सुविधाएं, दूसरे शहरों के मुकाबले बहुत बेहतर हैं।

आज से केवल 15 साल पहले, दिग्विजय सिंह के राज में इंदौर शहर बहुत बुरी हालत में था। लेकिन, आज तो झुग्गी-झोपड़ियों की हालत भी संवर गई है। स्लम बस्तियों मे भी साफ सफाई दिखती है। इंदौर और आस-पास के शहरों के इस बदले हुए रूप को लोग पसंद करते हैं. समाज के निचले तबके से आने वाले लोग भी इस बदलाव की तारीफ करते हैं। इसलिए बीजेपी के इस गढ़ में सेंध लगने के कोई संकेत नहीं दिखते। गरीबों को घर बनाने में मदद करने, ग्रामीण इलाकों में बिजली और गैस कनेक्शन देने की केंद्र सरकार की योजनाएं भी मतदाताओं के बीच बहुत चर्चित हैं।

लोगों की उम्मीदें बढ़ीं 

इस में कोई दो राय नहीं कि पिछले कुछ बरसों में लोगों की उम्मीदों में कई गुना इजाफा हुआ है। किसी भी सरकार से उकता जाने के लिए 15 साल का कार्यकाल बहुत होता है। फिर भी मालवा का वोटर, बदलाव को लेकर आशंकित है। दिग्विजय सिंह का 1993-2003 का कार्यकाल, पुरानी पीढ़ी आज भी याद करती है। यही वजह है कि बुजुर्ग वोटर न सिर्फ कांग्रेस को लेकर आशंकित हैं, बल्कि पार्टी के पुराने दौर के कुशासन का जिक्र भी अक्सर कर बैठते हैं।

कांग्रेस के खिलाफ एक और बात जो जाती है, वो इसके चेहरे भी हैं. इनमें ग्वालियर के महाराजा ज्योतिरादित्य सिंधिया और उद्योगपति कमलनाथ जैसे नेता, वोटरों में कोई उम्मीद नहीं जगाते. जनता को इस बात की उम्मीद ही नहीं है कि इन नेताओं की अगुवाई में कांग्रेस का रुख-रवैया बदलेगा.

मालवा इलाके में बीजेपी अपनी सोशल इंजीनियरिंग और मजबूत संगठन के साथ-साथ मोदी की लोकप्रियता की वजह से मजबूत स्थिति में है. शिवराज सिंह चौहान के लिए मालवा में कोई खतरा नहीं है. जहां तक कांग्रेस की बात है तो ऐसा लगता है कि पार्टी ने उस कहावत को आत्मसात कर लिया है कि, ‘जीतने की तरह हारते जाना भी एक आदत है.’

Congress’ Hindutva shows death of ‘secularism’, gives BJP chance to set new inclusive agenda


Once the self-anointed custodian of ‘secular’ politics, the Congress is now desperate to be rebranded as a ‘Hindu party’. 

CP Joshi, was heard telling participants at a rally in Nathdwara that only Brahmins can talk about Hinduism, not Modi or Uma Bharti soon after, Rahul’s ‘gotra was leaked to the media

The Congress initially tried to solve this problem by driving a difference between ‘Hinduism’ and ‘Hindutva’, but it lacks the ideological conviction and political capital to communicate that strategy.

“You don’t need to offer education, jobs, bijlisadakpaani to secure Muslim votes. Just keep them insecure and keep offering them security. Muslims were perfect political hostage to ‘secular’ politics”. Yogendra Yadav


In 2006, Rahul Gandhi, then a newbie in politics, announced at the Congress plenary session that he follows two religions — flag and the party. Twelve years is a long time in politics. The Gandhi scion is now the Congress president, busy shedding his ‘secular’ credentials.

Rahul flaunts his ‘janeu‘ (sacred thread), pitches a journey to Kailash Mansarovar as the high point of his ‘Shiv bhakti‘, criss-crosses between temples across India during elections, sports a ’tilak’ on his forehead and tells the head priest in Pushkar that he is a ‘Dattatreya Kaul Brahmin’, by gotra(caste). Once the self-anointed custodian of ‘secular’ politics, the Congress is now desperate to be rebranded as a ‘Hindu party’. ‘Secularism’ has travelled a long way in India.

The ongoing election season reinforces the death of ‘secularist’ politics. While Assembly elections will be held in five states this year, the big one is next year, when Prime Minister Narendra Modi will seek to extend his mandate. Amid this dance of democracy, the absolute silence of Muslim voices points to a decisive shift in identity politics. Muslims, who were central to any election debate or campaign in India till 2014, suddenly find themselves sidelined, marginalised and even forgotten.

In a leaked video clip that has since gone viral, Madhya Pradesh Congress chief Kamal Nath was recently heard telling Muslim leaders that if the Congress does not get 90 percent of the total Muslim votes in the state, the party will “suffer a big loss”. There’s nothing wrong with the pitch, but the fact that the comments were made at a private, closed-door meeting, where Nath also pleaded with leaders from the community that “you will have to bear everything till the day of voting” and “we will deal with them (RSS and BJP) later”, indicates that the Congress is now scared of the ‘pro-Muslim’ tag that was ironically its calling card till 2014.

In a report, India Today quotes a Congress leader as saying that the party believes that being sympathetic to Muslim causes has “harmed its electoral prospects”.

This shift from a ‘pro-Muslim’ stance — as the AK Antony Committee had pointed out after the 2014 drubbing — to a ‘pro-Hindutva’ approach is not a preserve of the Congress. In West Bengal, for instance, Chief Minister Mamata Banerjee underwent a similar trajectory.

However, in recent years, Mamata has been busy celebrating Ram Navami, greeting the nation on Hanuman Jayanti or announcing a Rs 28 crore cash bonanza and power bill relief for Durga Puja organisers in the state.

A part of this shift has undoubtedly happened due to the rise of the BJP as the dominant force in national politics, but the crucial bit about the saffron party’s ascendancy has been the way it has forced a shift in mainstream political discourse from ‘secularism’ to ‘Hindutva’, so much so that other parties are being forced to play by its rules. The Congress initially tried to solve this problem by driving a difference between ‘Hinduism’ and ‘Hindutva’, but it lacks the ideological conviction and political capital to communicate that strategy.

Consequently, a desperate Congress shed all ‘secularist’ pretenses and embarked on an aggressive brand of Hindutva politics to beat the BJP in its own game — almost as if to show that the BJP is a ‘pseudo-Hindutva’ party just as the Congress is a ‘pseudo-secular’ one. Accordingly, All India Congress Committee general secretary and senior Congress leader in poll-bound Rajasthan, CP Joshi, was heard telling participants at a rally in Nathdwara that only Brahmins can talk about Hinduism, not Modi or Uma Bharti (who belong to a lower caste), in a constituency that has a sizeable portion of Brahmin representation.

Rahul Gandhi reveals his caste and gotra in Rajasthan’s Pushkar temple

Joshi was apparently “chided” by the party president, but soon after, Rahul’s ‘gotra‘ was leaked to the media, where his Brahmin credentials were reinforced to go with his janeu-dhaariappearance. After all, Congress spokesperson Randeep Surjewala did claim that his party has “Brahmin Samaj’s DNA in its blood”.

Meanwhile, the Congress manifesto in Madhya Pradesh vows to build the route taken by Lord Ram in his exile, cow shelters in every panchayat, commercial production of cow urine, opening of a spiritual department and developing the Narmada Parikrama, while senior Congress leaders are seen swearing by “Ganga jal” in their hands during news conferences.

This comical, competitive Hindutva seems to be a tactical attempt to reclaim the ground that Congress assumes it has lost to the BJP. The fact that it feels it will be in a better place to do so by revamping itself as a ‘Hindutva’ party, giving fewer tickets to Muslims instead of reinforcing its ‘secular’ credentials, speaks of the quiet death of ‘secularism’ as a driving force in Indian politics.

This isn’t a surprise because the Congress-championed ‘secularism’ — a model that was followed by all ‘secular’ parties — had long collapsed under the weight of its contradictions. Instead of an ideological anchor, it degenerated into a rent-seeking exercise.

As Swaraj India chief Yogendra Yadav writes in ‘The Print’, “Unlike other castes and communities, you don’t need to offer education, jobs, bijlisadakpaani to secure Muslim votes. Just keep them insecure and keep offering them security. Muslims were perfect political hostage to ‘secular’ politics. Anything that pandered to Muslim ‘sentiment’ as defined by its leadership was kosher, as secular politics was seen to be pro-minority. Any party opposed to the BJP could call itself secular.”

For the BJP, this presents an opportunity to replace the discredited concept of ‘secularism” and cement Hindutva as the new normal — an inclusive, ideological agenda that RSS sarsanghchalak Mohan Bhagwat speaks of — which isn’t complete without Muslims and celebrates diversity rather than feeling threatened by it. That may free Muslims from the bondage of rent-seeking ‘secularism’ and lead to true empowerment

Urjit before Parliamentary Committee believes economic growth to be positive


He, however, did not answer specific questions on government invoking Section 7 of the RBI Act, NPAs (non-performing assets), the autonomy of the central bank and other contentious issues, sources said.


RBI Governor Urjit Patel on Tuesday committed to a parliamentary committee to give in writing his views on some of the controversial issues, which may include the government citing its never-used powers to get the central bank on the discussion table, said sources.

Mr. Patel, who appeared before the 31-member Parliamentary Standing Committee on Finance, said the economy would get a boost from oil prices cooling off from four-year highs. He highlighted that fundamentals were “robust”, the sources said.

Mr. Patel also told the panel that credit growth was 15 per cent and the impact of the November 2016 demonetisation had a transient impact on the economy.

Mr. Patel was earlier scheduled to appear before the panel on November 12.

He, however, did not answer specific questions on the government invoking Section 7 of the RBI Act, NPAs (non-performing assets), the autonomy of the central bank and other contentious issues, the sources said.

Mr. Patel made a presentation on the state of the economy as well about the world economy to the committee and several members asked questions. His views on the economy were “optimistic”. “He stayed clear of controversial questions like government invoking special powers, instead he gave intelligent replies without saying anything,” the sources said.

Members also asked questions on the implementation of the Basel III capital adequacy norms for banks. To this, a source said, he replied that adherence to the global norms was India’s commitment to G-20 nations.

Large number of questions

Another source said that as there were a large number of questions, Mr. Patel was asked to file written replies in 10-15 days.

The RBI Governor appeared before the panel days after the RBI’s face-off with the finance ministry over issues ranging from the appropriate size of reserves to be maintained by the central bank to easing of lending norms for small and medium enterprises.

Former Prime Minister Manmohan Singh is also a member of the committee headed by senior Congress leader and former Union minister M. Veerappa Moily.

India’s banking system, particularly state-owned banks, are grappling with huge bad loans. Recently, there has been a liquidity crisis for the important NBFC (non-banking financial companies) sector following repayment default by IL&FS.

The Muzaffarpur shelter home case, ”Every time I read this file, I find it tragic. My hair stands on its ends,”: Justice Gupta


Supreme Court finds the Bihar police were lagging in their probe.”Every time I read this file, I find it tragic. My hair stands on its ends,” says Justice Gupta.


The CBI may take over the investigation into cases of abuse and aggravated sexual attacks on inmates of 17 shelter homes, nine of them housing children, after the Supreme Court on Tuesday found the Bihar police lagging in their probe.

The 11 FIRs registered by the State police did not contain serious offences or provided a true picture of the horrors perpetrated on the inmates, including children the court said.

“If a person is dead, the FIR filed is that of a case of ‘simple hurt’. Is this acceptable? A child is sodomised and theBihr government is saying it will file FIR after a week? The truth is not coming out,” a visibly angry Justice Madan B. Lokur addressed the Bihar Chief Secretary, who had been summoned in the previous hearing.

Justice Deepak Gupta said, “Every time I read this file, I find it tragic. My hair stands on its ends… yet this is the attitude of the Bihar government.”

Justice Abdul S. Nazeer said the State government’s assurances to the court that it would set everything right in the case and make amends in the FIRs seemed hollow. “They do not evoke confidence,” he addressed the Bihar government side.

‘Last serious offences put in FIRs’

Justice Gupta said usually the tendency of the police while registering FIRs was to include the most serious offences. “Here it is otherwise. The least serious offences have been put in these FIRs,” he pointed out.

Justice Lokur said the TISS report on the abuses in shelter homes in the state  came in May, but it was only now that the Bihar government had set its eyes on it. It was a survey team from the TISS (Tata Institute of Social Sciences) that brought to light the abuses and torture suffered by children in the Muzaffarpur shelter home run by an NGO.

The TISS had categoried the 17 shelter homes presently under the apex court scanner as ‘homes of grave concern’. While nine pertain to children, eight house beggars, destitutes and senior citizens.

The court gave a red-faced Bihar government 24 hours to show reasons why the probe into all the 17 homes should not be taken over by the CBI from the State police. The Muzaffarpur shelter home case is already under CBI investigation.

An affidavit filed by the Bihar government shows that as on November 1, 86 child care institutions (CCIs) in the State are run under the purview of the Social Welfare Department. These include 22 children’s homes for boys, 11 children’s homes for girls, nine open shelters and 28 specialised adoption agencies for children in need of care and protection. There is one children’s home for boys and girls each in Patna and another in Begusarai. All other homes in the State are being run through NGOs.

There are 14 observation homes, one place of safety and one special home run directly by the government.

राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने सुनील अरोड़ा को नया मुख्य निर्वाचन आयुक्त नियुक्त किया


2 दिसम्बर को ओ पी रावत से कार्यभार संभालेंगे


राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने सुनील अरोड़ा को नया मुख्य निर्वाचन आयुक्त नियुक्त किया है. अरोड़ा 2 दिसंबर को ओपी रावत से पदभार संभालेंगे. सुनील अरोड़ा एक पूर्व नौकरशाह हैं. उन्हें पिछले साल सितंबर में इलेक्शन बॉडी में नियुक्त किया गया था. इसके पहले 62 वर्षीय अरोड़ा, सूचना विकास और उद्यमिता मंत्रालय, और कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय में सचिव रहे थे.

अरोड़ा राजस्थान कैडर के 1980 बैच के आईएएस अधिकारी हैं. अरोड़ा ने वित्त, वस्त्र और योजना आयोग जैसे मंत्रालयों और विभागों में काम किया है.

उन्होंने 1999-2002 के दौरान नागरिक उड्डयन मंत्रालय में ज्वाइंट सेकरेट्री और इंडियन एयरलाइंस में सीएमडी के तौर पर पांच साल (दो साल अतिरिक्त प्रभार और तीन साल पूर्ण प्रभार) कार्य किया है.

अरोड़ा वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत की जगह लेंगे. रावत ने ईवीएम में किसी भी तरह की अनियमिता की जांच के लिए वीवीपैट मशीनों के व्यापक उपयोग के लिए आवाज उठाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इसके साथ ही उन्होंने फेक न्यूज के खतरों और चुनावी प्रक्रियाओं पर प्रतिकूल प्रभाव को भी रेखांकित किया है. इसके साथ ही केंद्रीय और राज्य स्तर पर एक साथ चुनाव कराना एक उचित कानूनी ढांचे के बिना लगभग असंभव हैं इस बात को भी बार बार दोहराते रहे हैं.