कर्ज में फंसे हैं बटाईदार और माफी पा रहे जमींदार

सरकारों की तरफ से कृषि कर्ज माफी की घोषणा होने पर भू-स्वामी किसानों के बीच खुशी की लहर दौड़ जाती है. मीडिया और सोशल मीडिया पर भी इसे लेकर तमाम तरह की टिप्पणियां की जाती हैं

सरकारों की तरफ से कृषि कर्ज माफी की घोषणा होने पर भू-स्वामी किसानों के बीच खुशी की लहर दौड़ जाती है. मीडिया और सोशल मीडिया पर भी इसे लेकर तमाम तरह की टिप्पणियां की जाती हैं, लेकिन भारत में अमूमन चार तरह के किसान होते हैं.एक बड़े जोत का किसान जिसके पास बारह-पंद्रह बीघा या इससे भी अधिक जमीन है. दूसरा मध्यम जोत का काश्तकार जिसके पास पांच-छह बीघा जमीन है. तीसरा लघु किसान जिसके पास तीन बीघा से भी कम जमीन है. चौथा भूमिहीन बटाईदार किसान जिसके पास अपनी कोई जमीन नहीं होती और वे दूसरों की जमीन पर बटाई करते हैं.

कर्ज माफी या कृषि संबंधी अन्य लाभकारी योजनाओं का ज्यादातर लाभ बड़े किसानों को ही मिलता है. जबकि किसानों के बीच एक बड़ा तबका भूमिहीन बटाईदार किसानों का भी है, जिसे कर्ज माफी से कभी कोई राहत नहीं मिली है.

कर्ज माफी बना चुनावी कामयाबी का जरिया

हालिया कुछ वर्षों में कृषि कर्ज माफी के वादे अधिक होने लगे हैं. सियासी पार्टियां चुनावी रैलियों में किसानों से कर्ज माफी का यकीन दिलाने के साथ-साथ कर्ज माफी की मियाद भी तय करने लगी हैं. पिछले साल उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान बीजेपी ने कर्ज माफी की घोषणा की थी. मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ ने उसे पूरा करने का दावा भी किया.

यह दीगर बात है कि इसे लेकर अब भी कई सवाल मौजूद हैं. इस परिपाटी को आगे बढ़ाते हुए मध्य-प्रदेश और छत्तीसगढ़ के नव नियुक्त मुख्यमंत्रियों क्रमशः कमलनाथ और भूपेश बघेल ने अपने शपथ-ग्रहण के कुछ घंटे बाद ही कृषि कर्ज माफी का ऐलान किया. दो दिन बाद ही राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी कर्ज माफी की घोषणा कर दी.

अगले साल अप्रैल-मई में संसदीय चुनाव होने हैं. मध्य-प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सत्ता गंवाने के बाद बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व चिंतित है. 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद कमजोर रहा. लिहाजा पार्टी को यकीन है कि बरास्ते कर्ज माफी वह चुनावी कामयाबी हासिल कर सकती है. 2008 में कांग्रेस यह नुस्खा बखूबी आजमा चुकी है. जब यूपीए (प्रथम) सरकार अपने आखिरी साल में ‘कृषि ऋण माफी और ऋण राहत योजना’ (ए.डी.डब्ल्यू.डी.आर.एस) के तहत 52,259.86 करोड़ रुपये की कर्ज माफी की थी.

देश भर में 3.73 करोड़ किसानों को इसका फायदा मिला. वित्तीय अनियमितताओं की वजह से यह योजना भी सवालों के घेरे में रही लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में इसका जबरदस्त फायदा कांग्रेस को मिला और डॉ. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व में पुनः यूपीए की सरकार बनी. पिछले कई उपचुनाव और उत्तर भारत के तीन अहम राज्यों की सत्ता खोने के बाद संभवतः भाजपा नीत केंद्र सरकार भी कर्ज़ माफ़ी के इस प्रचलित विकल्प पर विचार कर सकती है.

वैसे भारतीय रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन समेत अर्थ-वित्त मामलों के कई जानकारों का मानना है कि कर्ज माफी कृषि क्षेत्र एवं किसानों की समस्याओं का समाधान नहीं है. वे आगाह कर चुके हैं कि कृषि कर्ज माफी के बढ़ते चलन से देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंच सकता है. सियासी पार्टियों को भी कमोबेश इसका इल्म है, लेकिन सत्ता जाने का खौफ शायद अर्थव्यवस्था के नुकसान पर भारी है.दस साल पहले यूपीए की सरकार में हुए कर्ज माफी पर जानकारों की अलग-अलग राय हो सकती है. लेकिन उस फैसले से वास्तविक किसानों को कोई फायदा नहीं मिला. इसके बरअक्स देश की अर्थव्यवस्था पर एक अतिरिक्त और अनावश्यक दबाव झेलना पड़ा. देशव्यापी कृषि कर्ज माफी का सकारात्मक असर तो दिखना चाहिए.

बावजूद इसके बीते दस वर्षों में किसानों की आत्महत्याओं में तो कोई कमी नहीं आई. लेकिन किसान आत्महत्या से प्रभावित राज्यों में इजाफा जरूर हुआ. साल 2008 में जो कृषि कर्जे माफ हुए उससे लाभान्वितों होने में एक बड़ी संख्या उन भू-स्वामियों की थी जिन्हें किसान नहीं कहा जा सकता. सरल शब्दों में कहें तो वे ऐसे भू-स्वामी थे जो अपनी जमीनें बटाई पर देकर परिवार सहित शहरों में रहते हैं.

कर्ज माफी का वह साल ऐसे भू-स्वामियों के लिए एक बड़ा तोहफा साबित हुआ. जिस पर उनके अधिकारों का कोई मतलब नहीं था. हममें से ज्यादातर पत्रकारों-लेखकों का ताल्लुक किसी न किसी गांव-कस्बों से रहा है. शायद आपने भी देखा और सुना होगा कि जिन भू-स्वामियों ने बैंकों से कृषि कर्ज लेकर उससे वाहन, भवन आदि का सुख प्राप्त किया. वैसे भू-स्वामियों के कृषि कर्ज जब माफ हुए तो, उन लोगों को पछतावा हुआ जिन्होंने कृषि कर्ज नहीं लिए थे. वहीं दूसरी तरफ साहूकारों के कर्ज के बोझ से दबे लाखों भूमिहीन बटाईदार किसानों को सरकारों द्वारा कर्ज माफी का एक पैसा भी नहीं मिलता.

यह एक भ्रामक तथ्य है कि किसान तो आखिर किसान हैं क्या भू-स्वामी, क्या बटाईदार! भारत में वास्तविक किसानों यानी बटाईदारों की संख्या कितनी है क्या ऐसा कोई आंकड़ा केंद्र व राज्य सरकारों के पास है? सरकारें इससे किनारा नहीं कर सकतीं क्योंकि आजादी के तुरंत बाद ही देश में किसानों के कई मुद्दे मसलन-जमींदारी प्रथा का विरोध, भूमिहीनों को भू-अधिकार और लगान निर्धारण, नहर सिंचाई दर जैसे सवालों पर कई आंदोलन हुए. बिहार जैसे राज्य में तो बटाईदारी कानून बनाने की भी मांग उठी.

यह अलग बात है कि इसे अमल में लाना तो दूर कोई भी दल इस पर बहस करने की जहमत नहीं उठाना चाहता. वह उस राज्य में जहां पिछले तीन दशकों से समाजवादी पृष्ठभमि की सरकारें शासन में हैं. सिर्फ भू-स्वामी होने मात्र से किसी को किसान मान लेना सही नहीं है. ऐसे में उन लाखों भूमिहीन किसानों का क्या, जो दूसरों की खेतों में बटाईदारी करते हैं.

यह बात तो दावे के साथ कही जा सकती है कि देश में किसानों से जुड़ी नीतियां बनाने वाले महकमों (कृषि मंत्रालय से लेकर नीति आयोग तक) को इस बात की ख़बर ही नहीं है कि मुल्क के करोड़ों किसानों में बटाईदार किसानों की संख्या कितनी है? और वैसे भू-स्वामी कितने हैं जो स्वयं खेती नहीं करते. अगर आजादी के सात दशक बाद भी देश में बटाईदार किसानों को चिन्हित नहीं किया गया है तो यह सरकारों द्वारा किया गया एक अपराध है.

बटाईदार किसानों के परिजनों नहीं मिलता मुआवजा

किसानों की त्रासदी यहीं खत्म नहीं होती! दरअसल, किसानों के बीच फर्क न कर पाने से वास्तविक किसानों को कई और खामियाजे भुगतने पड़ते हैं. सरकारी अभिलेख में बटाईदारों का उल्लेख नहीं होने एवं भू-स्वामित्व संबंधी दस्तावेज के अभाव में उन्हें सूचीबद्ध किसान नहीं माना जाता. किसान आत्महत्या से प्रभावित राज्यों में मौत और मुआवजे का यही विचित्र दृश्य देखने को मिलता है. आत्महत्या करने वाला अगर कोई बटाईदार किसान है तो, शोक-संतप्त उसके परिजनों को सरकारी मुआवजा और मदद नहीं मिलती. वजह मृतक किसान के परिवार में भू-स्वामित्व के दस्तावेज न होना.

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1990 के बाद देश भर में फसलों की नाकामी व कृषि घाटे के कारण तकरीबन 3,96,000 किसानों ने आत्महत्या की. गैर सरकारी आंकड़े इससे भी अधिक संख्या बताते हैं. इस आलेख के लेखक कुछ साल पहले मराठवाड़ा और तेलंगाना के गांवों में आत्महत्या करने वाले कई किसानों के परिजनों से मिले थे. पीड़ित परिवारों ने बताया कि बटाईदार होने की वजह से उन्हें कोई मुआवज़ा नहीं मिला. संबंधित जिला कलेक्टरों से जब इसकी सच्चाई पूछी तो, उन्होंने कहा कि कृषि व राजस्व विभाग के मुताबिक आत्महत्या करने वाले उन्हीं किसानों के परिजनों को सरकार द्वारा घोषित मुआवजे की रकम मिलती है जिनके पास भू-स्वामित्व से जुड़े प्रमाण-पत्र व दस्तावेज होंगे.

बटाईदारों को नहीं मिलता ‘किसान क्रेडिट कार्ड’

हर साल रबी और खरीफ फसल के सीजन में नई अनाज खरीद नीति की लेकर भी जिज्ञासाएं बनी रहती हैं क्योंकि इसके तहत किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का फायदा मिलता है. लेकिन बटाईदार किसानों को इसका भी लाभ नहीं मिलता. कारण भू-स्वामित्व के प्रमाण-पत्र संबंधी वही पुराना मामला. नतीजतन बटाईदार किसान औने-पौने दाम पर साहूकारों को अपनी उपज बेच देते हैं. या फिर अपनी उपज को भू-स्वामी की उपज बताकर सरकारी अनाज खरीद केंद्रों पर बेचते हैं. किसानों के बीच ‘केसीसी’ यानी ‘किसान क्रेडिट कार्ड’ काफी लोकप्रिय है.

इसकी शुरुआत वर्ष 1998 में हुई थी. वैसे तो इसके कई लाभ हैं लेकिन इसका फायदा किसे मिल रहा है, यह एक बड़ा सवाल है. दरअसल जिन किसानों को इसका वास्तविक लाभ मिलना चाहिए उन्हें नहीं मिल पाता. अपनी जमीनें बटाई देकर शहरों में रहने वाले भू-स्वामियों को जब किसान क्रेडिट कार्ड के तहत बैंकों से पैसा लेना होता है, तब वे ब्लॉक-सबडिवीजन आते हैं. राजस्व कर्मचारी से ‘मालगुजारी’ की रसीद और ‘लैंड पजेशन सर्टिफिकेट’ (एलपीसी) प्राप्त कर बैंक से कृषि कर्ज उठा लेते हैं.

जबकि निर्धारित भू-संबंधी प्रमाण-पत्र न होने से भूमिहीन बटाईदार किसानों को यह कर्ज नहीं मिल पाता. ओलावृष्टि, अतिवृष्टि-अनावृष्टि और बेमौसम बारिश होने पर खेतों में खड़ी फसलें जब तबाह हो जाती हैं तो राज्य सरकारों की तरफ से किसानों को सरकारी मदद मिलती है. लेकिन इसका भी फायदा उन्हीं किसानों को मिलता है जिनकी अपनी जमीनें हैं. यहां भी बटाईदार किसानों को निराश होना पड़ता है. वहीं खुद से खेती नहीं करने वाले ढेरों भू-स्वामी इसका भी लाभ उठा लेते हैं. सरकार और उसकी व्यवस्था के लिए इससे अधिक शर्म की स्थिति और क्या हो सकती है?

क्रॉप पैटर्न में बदलाव से होगा किसानों का भला

किसानों की आत्महत्या एक बड़ी समस्या बन चुकी है. भविष्य में ऐसी घटनाएं न हों इस बाबत ईमानदार प्रयास का अभाव दिखता है. किसानों को उपज का वाजिब दाम नहीं मिलना और फसलों का खराब होना इसकी प्रमुख वजह हो सकती है. लेकिन इसके कुछ कारण और भी हैं जिसकी चर्चाएं नहीं होती. ‘किसान आत्महत्या’ प्रभावित राज्यों की अध्ययन यात्राओं से कुछ अहम बातें समझ में आईं. मसलन नब्बे के दशक में ‘कैश क्रॉप’ और ‘हाइब्रिड सीड्स’ ने यहां के खेतों में अपनी जड़ें जमा लीं.

नतीजतन मराठवाड़ा, विदर्भ और तेलंगाना के किसान अपने परंपरागत खेती से दूर हो गए. बीजों का भंडारण और उसका पुनर्पयोग ‘संकर बीजों’ की मेहरबानी से समाप्त हो गया. बाकी कसर उन ‘कीटनाशकों’ ने पूरी कर दीं जिनके छिड़काव फसलों के लिए लाभदायक कीट-पतंगे भी नष्ट हो गए. हालत यह होते चली गए कि किसानों के महीने भर के राशन के खर्च के बराबर या उससे ज्यादा भाव में हाइब्रिड बीज और कीटनाशक मिलने लगे हैं. इन राज्यों के किसान पहले ऐसी फसलें उगाते थे जिससे पशुओं को भी चारा मिल जाता था.

लेकिन कपास की खेती शुरू होने के बाद दुधारू पशु गायब होने लगे. नकदी फसल के मोह में पशुपालन जो कृषि का ही रूप है, उससे किसान वंचित हो गए. यानी गाय-भैंस के दूध से जो आमदनी किसानों की होती वह बंद हो गई. किसानों के कर्जें माफ हों इसके लिए देश भर से किसान ‘दिल्ली कूच’ करते हैं लेकिन किसानों से हमदर्दी जताने वाले नेताओं और एनजीओ द्वारा कर्ज माफी के अलावा अन्य सार्थक विकल्पों जैसे, क्रॉप पैटर्न में बदलाव और कृषि और पशुपालन के संबंधों को मजबूत बनाने पर बल नहीं दिया जाता.

‘राजनैतिक मौसम वैज्ञानिक’ ने क्या सही में देश का मिजाज भांप लिया?

सभी विवादों के बाद अब एनडीए के भीतर सीट शेयरिंग का फॉर्मूला सुलझता नजर आ रहा है. लगता है पासवान का दबाव काम कर गया है

शुक्रवार शाम बिहार के मुख्यमंत्री और जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार के दिल्ली पहुंचने से पहले एनडीए की बिहार में दूसरी बडी घटक दल एलजेपी के पैंतरे ने बीजेपी की मुश्किलें बढ़ा दी थीं. लेकिन, सूत्रों के मुताबिक अब बात बन गई है. शनिवार को बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह, जेडीयू अध्यक्ष और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, एलजेपी अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान और उनके बेटे सांसद चिराग पासवान की मौजूदगी में बिहार में सीट बंटवारे का औपचारिक तौर पर ऐलान किया जा सकता है.

सूत्रों के मुताबिक, एलजेपी के खाते में लोकसभा की 6 सीटें गई हैं जबकि, बीजेपी अपने कोटे से राज्यसभा की एक सीट एलजेपी अध्यक्ष रामविलास पासवान को देगी. गौरतलब है कि जेडीयू और बीजेपी ने पहले ही बराबर-बराबर सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी थी. लेकिन, अब पासवान के साथ बन जाने और उपेंद्र कुशवाहा के एनडीए से बाहर होने के बाद तस्वीर साफ हो गई है.

एलजेपी को मिलेगी छह सीटें!

सूत्रों के मुताबिक, बिहार में तीनों दलों के साथ सीट शेयरिंग के फॉर्मूले के मुताबिक, 40 लोकसभा की सीटों में से बीजेपी और जेडीयू अपने पहले से तय समझौते के मुताबिक, 17-17 सीटों पर चुनाव लड़ेगी, जबकि, 6 सीटें एलजेपी खाते में जाएगी. इसके अलावा बीजेपी राज्यसभा की एक सीट एलजेपी को देगी.

दूसरे फॉर्मूले के मुताबिक, एलजेपी को मिलने वाली लोकसभा की एक सीट बीजेपी की तरफ से यूपी में दी जाएगी. इस तरह बीजेपी को बिहार मे एलजेपी की एक सीट मिल जाएगी और पार्टी 18 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. इस तरह दूसरे फॉर्मूले के मुताबिक, बिहार में बीजेपी के खाते में 18, जेडीयू के खाते में 17, एलजेपी के खाते में लोकसभा की 5 और एलजेपी को यूपी में लोकसभा की एक सीट जबकि राज्यसभा की एक सीट मिलेगी.

हालांकि, यह सबकुछ इतनी आसानी से नहीं हुआ. दो दिनों की मशक्कत और बैठकों के लगातार कई दौर के बाद बात बन पाई है. एलजेपी संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष और सांसद चिराग पासवान की तरफ से ट्वीट कर सीट बंटवारे को लेकर अपनी नाराजगी दिखाई गई थी. चिराग पासवान ने ट्विटर पर लिखा था कि टीडीपी व आरएलएसपी के एनडीए गठबंधन से जाने के बाद एनडीए गठबंधन नाजुक मोड़ से गुजर रहा है. ऐसे समय में भारतीय जनता पार्टी गठबंधन में फिलहाल बचे हुए साथियों की चिंताओं को समय रहते सम्मानपूर्वक तरीके से दूर करें.

चिराग ने एक दूसरे ट्वीट में लिखा था कि गठबंधन की सीटों को लेकर कई बार बीजेपी के नेताओं से मुलाकात हुई लेकिन अभी तक कुछ ठोस बात आगे नहीं बढ़ पाई है. इस विषय पर समय रहते बात नहीं बनी तो इससे नुकसान भी हो सकता है.

कुशवाहा के जाने के बाद चिराग का दबाव

चिराग की तरफ से बीजेपी पर दबाव बढ़ाने की कोशिश के तौर पर इसे देखा गया था. इसके अलावा राम मंदिर पर बयान देते हुए भी चिराग पासवान ने इसे एक पार्टी का एजेंडा बताया था न कि एनडीए का. इस तरह के बयानों से बीजेपी असहज महसूस कर ही रही थी कि चिराग पासवान की नोटबंदी पर वित्त मंत्री अरुण जेटली को लिखी गई उस चिट्ठी की बात सबके सामने आ गई.

दरअसल, इस चिट्ठी की टाइमिंग ही चर्चा का केंद्र बन गई. भले ही इस चिट्ठी की जानकारी 20 दिसंबर को मीडिया के सामने आई लेकिन, इसे पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आने और तीन राज्यों में बीजेपी की हार के अगले ही दिन 12 दिसंबर को लिखा गया था.

उधर, सूत्रों के मुताबिक, रामविलास पासवान पर कांग्रेस की तरफ से भी पासा फेंकने की कोशिश की जा रही थी. लिहाजा यह सवाल उठने लगे थे कि इस तरह बीजेपी और अपनी ही सरकार को लेकर दिखाए जा रहे तेवर का क्या मतलब है? क्या रामविलास पासवान एक बार फिर से दूसरा विकल्प तलाश रहे हैं? क्या पासवान भी कुशवाहा की तरह पाला बदलने की तो नहीं सोच रहे?

दो दिनों में बीजेपी ने सुलझाया मामला

लेकिन, इन तमाम सियासी गतिविधियों के बाद बीजेपी तुरंत हरकत में आई. दो दिनों तक चली कई दौर की बातचीत के बाद आखिरकार बात बनती नजर आ रही है. दो दिनों तक रामविलास पासवान और चिराग पासवान की बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह, वित्त मंत्री अरुण जेटली, बीजेपी के बिहार प्रभारी भूपेंद्र यादव और बिहार बीजेपी अध्यक्ष नित्यानंद राय के साथ कई दौर की बातचीत हुई, जिसके बाद सभी मुद्दों को सुलझाने में बीजेपी सफल हो पाई है.

हालांकि सूत्र बता रहे हैं कि बीजेपी चिराग पासवान की तरफ से सार्वजनिक तौर पर अपनी बात रखने के तरीके से खुश नहीं थी, लेकिन, बीजेपी की बिहार में दूसरी सहयोगी जेडीयू का कहना है कि एनडीए के भीतर किसी फोरम के नहीं होने के चलते इस तरह की नौबत आ रही है.

फ़र्स्टपोस्ट से बातचीत में जेडीयू के प्रधान महासचिव और प्रवक्ता के सी त्यागी ने कहा, ‘चिराग ने जो मुद्दे उठाए वो अंदर ही हो जाने चाहिए थे, लेकिन, एनडीए-1 की तरह एनडीए-2 में कोई समन्वय समिति नहीं है, जिससे ऐसा हो रहा है.’ त्यागी ने कहा, ‘पहले अटली जी, आडवाणी जी और जॉर्ज साहब जैसे नेता मिलकर सभी मुद्दों को सुलझा लेते थे.’ उन्होंने एनडीए के भीतर भी समन्वय समिति बनाने की मांग की.

लेकिन, इन सभी विवादों के बाद अब एनडीए के भीतर सीट शेयरिंग का फॉर्मूला सुलझता नजर आ रहा है. लगता है पासवान का दबाव काम कर गया है. पासवान को अपने पाले में बरकरार रखकर लगता है बीजेपी ने मौसम के रूख को अपनी तरफ मोड़ने में सफलता हासिल कर ली है.

चराग पासवान NDA छोडने को लेकर गंभीर, नोटबन्दी की सफलता पर लगाया प्रश्नचिन्ह

लोकसभा चुनाव नजदीक है. ऐसे में चुनावी सरगर्मियां भी धीरे-धीरे तेज हो रही हैं. वहीं राजनीतिक दलों में भी चुनावी गठजोड़ शुरू हो चुका है.

लोकसभा चुनाव नजदीक है. ऐसे में चुनावी सरगर्मियां भी धीरे-धीरे तेज हो रही हैं. वहीं राजनीतिक दलों में भी चुनावी गठजोड़ शुरू हो चुका है. इसको लेकर हाल ही में उपेंद्र कुशवाह ने खुद को एनडीए से अलग कर लिया है. वहीं लोक जनशक्ति पार्टी भी लगातार बीजेपी को आंखे दिखाने का काम चुनाव से पहले कर रही है. सूत्रों के मुताबिक अब चिराग पासवान ने नोटबंदी को लेकर सवाल उठाए हैं.

लोकसभा चुनाव के लिए सीट बंटवारे के बीच अब लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष चिराग पासवान ने नोटबंदी की सफलता को लेकर सवाल उठा दिए हैं. सूत्रों के मुताबिक उन्होंने पीएम मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली को चिट्ठी लिखकर नोटबंदी के फायदे के बारे में जानकारी मांगी है. हालांकि सीट बंटवारे के बीच नोटबंदी के मुद्दे को हवा देने के भी कई सियासी मायने देखा जा रहे हैं. वहीं आशंका जताई जा रही है कि LJP भी एनडीए से इस बार के चुनाव में खुद को अलग कर सकती है.

वहीं इससे पहले चिराग पासवान ने ट्वीट करते हुए लिखा था ‘टीडीपी और आरएलएसपी के एनडीए गठबंधन से जाने के बाद ये गठबंधन नाजुक मोड़ से गुजर रहा है. ऐसे समय में भारतीय जनता पार्टी गठबंधन में फिलहाल बचे हुए साथियों की चिंताओं को समय रहते सम्मानपूर्वक तरीके से दूर करें.’

दरअसल, 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के खाते में बिहार की 22 सीटें आई थी. वहीं केंद्रीय मंत्री रामविलास की पार्टी LJP ने 7 सीटों पर चुनाव लड़कर 6 में जीत हासिल की थी. इसके अलावा उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी आरएसएसपी 3 सीटों पर चुनाव लड़कर तीनों सीटों पर जीत हासिल की थी.

एसपी-बीएसपी के गठबंधन में कांग्रेस की नो एंट्री


यूपी की सियासत में गोरखपुर और फूलपुर की लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव दरअसल यूपी की सियासत में निर्णायक मोड़ लाने वाले माने जा सकते हैं  

यूपी में महागठबंधन पर अभी कुछ तय नहीं, एक-दो महीने तक इंतजार करें: कांग्रेस

कांग्रेस ने कहा वह राज्य में किसी भी धर्मनिरपेक्ष और ‘सम्मानजनक’ तालमेल का हिस्सा बनने को तैयार है, लेकिन अभी किसी नतीजे पर पहुंचना जल्दबाजी होगी


राजनीति सिर्फ अवसरों का ही नहीं बल्कि विडंबनाओं का भी खेल है. साल 2019 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर यूपी में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच गठबंधन होता दिखाई दे रहा है लेकिन कांग्रेस के लिए इसमें कोई गुंजाइश नहीं दिखती. तीन राज्यों में चुनाव जीतने वाली कांग्रेस का हाथ यूपी में एसपी-बीएसपी ने लगभग झटक दिया है.

खास बात ये है कि कांग्रेस को गठबंधन में शामिल न करने का फैसला वो बीएसपी ले रही है जिसने खुद 2014 के लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं जीती. वहीं उस वक्त राज्य में सत्ताधारी समाजवादी पार्टी भी सिर्फ कुनबे की ही 5 सीटें जीत सकी थीं. इसके बावजूद यूपी में सीटों के गठबंधन में कांग्रेस को अहमियत नहीं दी गई है बल्कि राष्ट्रीय लोकदल को तरजीह दी गई है. साथ ही समाजवादी पार्टी ने कुछ सीटें निषाद पार्टी और पीस पार्टी के नाम गोरखपुर में हुए उपचुनावों में इन पार्टियों से मिले समर्थन के बदले रखी हैं.

बीजेपी शासित हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस को उम्मीद थी कि यूपी में महागठबंधन के लिए उसका दावा मजबूत होगा. लेकिन मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में गठबंधन पर कांग्रेस से झटका खाने के बाद इन क्षेत्रीय दलों ने यूपी में हिसाब बराबर कर लिया. एसपी-बीएसपी ने ये बता दिया कि यूपी में इन्हीं पार्टियों की चलेगी.

इसके बावजूद एसपी-बीएसपी ने कांग्रेस को एक राहत देने का काम किया है. एसपी-बीएसपी के गठबंधन ने कांग्रेस के गढ़ अमेठी और रायबरेली की सीटों पर कोई उम्मीदवार न उतारने का भी फैसला किया है. दरअसल, राजनीतिक रिश्तों को बरकरार रखने और जिंदा रखने का ये शालीन तरीका होता है. साल 2012 में कांग्रेस ने भी मुलायम परिवार की बहू डिंपल यादव के लिए कन्नौज सीट पर हुए उपचुनाव में कोई उम्मीदवार नहीं उतारा था.

यूपी की सियासत में गोरखपुर और फूलपुर की लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव दरअसल यूपी की सियासत में निर्णायक मोड़ लाने वाले माने जा सकते हैं. 22 साल बाद एसपी और बीएसपी के बीच पुरानी अदावतों का दौर थमा और दोनों साथ आए. फूलपुर और गोरखपुर में उपचुनावों के नतीजों ने बीजेपी के साथ कांग्रेस की भी नींद उड़ाने का काम किया था. यूपी के सीएम और डिप्टी सीएम अपनी सीटें नहीं बचा सके तो कांग्रेस की दोनों सीटों पर जमानत जब्त हो गई थी जबकि बुआ-भतीजे की जोड़ी ने यूपी में सवा साल में ही बीजेपी के किले में सेंध लगा दी.

गोरखपुर-फूलपुर ने ही एसपी-बीएसपी को बीजेपी को हराने का फॉर्मूला दे दिया. वहीं कांग्रेस को भी ये समझ आया कि उसकी स्थिति अब अकेले बीजेपी को चुनावी टक्कर देने की नहीं रही. यही वजह रही कि कैराना में लोकसभा के उपचुनाव और नूरपुर में विधानसभा के उपचुनाव में कांग्रेस ने एसपी,बीएसपी और राष्ट्रीय लोकदल का समर्थन किया. कैराना से राष्ट्रीय लोकदल की उम्मीदवार तबस्सुम हसन चुनाव जीतीं तो नूरपुर से समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार नईम उल हक जीते.

योगी आदित्यनाथ यूपी में बीजेपी के सभी 9 उम्मीदवारों के राज्यसभा चुनाव जीतने से गदगद हैं

यूपी में हुए पिछले 1 साल में उपचुनावों ने सियासी समीकरणों को बड़ी तेजी से बदला. जहां एसपी-बीएसपी गठबंधन अप्रत्याशित रूप से दिखाई पड़ा तो वहीं नूरपुर और कैराना में हुए उपचुनाव में जाट-मुस्लिम-यादव और दलित-मुस्लिम गठजोड़ का समीकरण भी दिखा. ये सामाजिक और राजनीतिक बदलाव बीजेपी के लिए साल 2019 में सिरदर्द बन सकते हैं.

लगभग तय गठबंधन के मुताबिक समाजवादी पार्टी 37 और बहुजन समाज पार्टी 38 सीटों पर चुनाव लड़ सकते हैं जबकि राष्ट्रीय लोकदल को 3 सीटें दी गई हैं और कांग्रेस के लिए अमेठी और रायबरेली की सीट छोड़ी गई है.

अब कांग्रेस इसे आत्मसम्मान का मुद्दा बना कर अकेले मैदान में उतरने का फैसला कर सकती है लेकिन उसकी कोशिश आखिरी तक गठबंधन की ओट में चुनाव लड़ने की होगी ताकि नतीजे अगर उम्मीद के मुताबिक न हों तो इससे होने वाले नुकसान से भी बचा जाए.

यूपी विधानसभा चुनाव में हार के बाद कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के अलग अलग बयान थे कि गठबंधन का फैसला सही नहीं साबित हुआ. कुल मिलाकर ऐसे गठबंधन अगर जीत के अवसर पैदा करते हैं तो हार से होने वाली किरकिरी से बचने का भी जवाब तैयार करते हैं. गठबंधन दरअसल सभी राजनीतिक दलों के लिए चुनावी रण में तलवार भी है तो ढाल भी.

फिलहाल यूपी की सियासत अब गठबंधन की धार पर है और इस बार बीएसपी सुप्रीमो मायावती का जन्मदिन लोकसभा चुनाव के शंखनाद से कम नहीं होगा. इस मौके पर यूपी के गठबंधन का औपचारिक ऐलान हो सकता है.

कांग्रेस के लिए बेहतर यही होगा कि वो यूपी में लोकसभा चुनाव में अपनी भूमिका तय करे क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि उसका कोई फैसला वोट-कटवा की भूमिका निभाए जिसका फायदा अप्रत्यक्ष रूप में बीजेपी को ही मिले. वैसे भी यूपी की एक-एक सीट पर इस बार आर-पार की लड़ाई होनी है.

दरअसल, समाजवादी पार्टी से अलग हुए शिवपाल यादव अपनी नई पार्टी से एसपी के मुस्लिम-यादव वोटबैंक में ही सेंध लगाने का काम करेंगे. ऐसे में कांग्रेस सभी 80 सीटों पर जाट-मुस्लिम-यादव-दलित समीकरण के उम्मीदवार उतार कर बीजेपी के विरोध में बने एसपी-बीएसपी-रालोद गठबंधन का बंटाधार न कर जाए? कम से कम अब बीजेपी के साथ एसपी-बीएसपी को भी कांग्रेस को कमजोर आंकने की भूल नहीं करनी चाहिए.

सम्मान चाहिए पर विकल्प भी खुले हैं चराग पासवान


पासवान ने राहुल की जीत पर कहा, अगर आप किसी की आलोचना करते हैं और वही अच्छा परफॉर्म करे तो उसकी तारीफ करनी चाहिए

कुशवाहा कि तर्ज़ पर यदि सम्मान जनक सीटों का फैसला समय रहते नहीं होता तो विकल्प उनके लिए भी खुले हैं. पासवान को चुनावी मौसम का विशेषज्ञ बताया जाता है, यदि वह NDA छोड़ना चाहते हैं तो वाकई मौसम बदल रहा है.


लोक जनशक्ति पार्टी के नेता चिराग पासवान ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की तारीफ की है. उन्होंने कहा, ‘राहुल गांधी में निश्चित ही सकारात्मक बदलाव आया है. कांग्रेस पार्टी को काफी समय बाद जीत हासिल हुई है.’

पासवान ने राहुल की जीत पर कहा, ‘अगर आप किसी की आलोचना करते हैं और वही अच्छा परफॉर्म करे तो उसकी तारीफ करनी चाहिए. उन्होंने मुद्दों को सही तरह से चुना.’

चिराग ने कहा, ‘जिस तरह कांग्रेस ने किसानों और बेरोजगारों की समस्याओं का मुद्दा उठाया, वह बहुत सही समय पर किया गया फैसला था. हम केवल धर्म और मंदिर के पेचीदे मामले में ही उलझे रहे.’

पासवान ने कहा, ‘मैं सरकार से मांग करता हूं कि आने वाले समय में हमें एक बार फिर विकास के मुद्दे पर ध्यान देना चाहिए.’

गौरतलब है कि मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को शानदार जीत मिली है.

“..ज़िंदगी जिंदा-दिली को जान ऐ रोशन ..वरना कितने ही यहाँ रोज़ फ़ना होते हैं..।”शहीद ठाकुर रौशन सिंह

ठाकुर रोशन सिंह (अंग्रेज़ी: Thakur Roshan Singh; जन्म- 22 जनवरी, 1892, शाहजहाँपुर, उत्तर प्रदेश; शहादत- 19 दिसम्बर, 1927, नैनी जेल, इलाहाबाद) भारत की आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाले क्रांतिकारियों में से एक थे। 9 अगस्त, 1925 को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के पास ‘काकोरी’ स्टेशन के निकट ‘काकोरी काण्ड’ के अंतर्गत सरकारी खजाना लूटा गया था। यद्यपि ठाकुर रोशन सिंह ने ‘काकोरी काण्ड’ में प्रत्यक्ष रूप से भाग नहीं लिया था, फिर भी उनके आकर्षक व रौबीले व्यक्तित्व को देखकर डकैती के सूत्रधार रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ और राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी के साथ उन्हें भी फ़ाँसी की सज़ा दे दी गई।

जन्म तथा परिवार

ठाकुर रोशन सिंह का जन्म 22 जनवरी, 1892 को उत्तर प्रदेश के ख्याति प्राप्त जनपद शाहजहाँपुर में स्थित गांव ‘नबादा’ में हुआ था। उनकी माता का नाम कौशल्या देवी और पिता का नाम ठाकुर जंगी सिंह था। ठाकुर रोशन सिंह का पूरा परिवार ‘आर्य समाज’ से अनुप्राणित था। वे अपने पाँच भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। जब गाँधीजी ने ‘असहयोग आन्दोलन’ शुरू किया, तब रोशन सिंह ने उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर और बरेली ज़िले के ग्रामीण क्षेत्र में अद्भुत योगदान दिया था।

व्यक्तित्व

हिन्दू धर्म, आर्य संस्कृति, भारतीय स्वाधीनता और क्रान्ति के विषय में ठाकुर रोशन सिंह सदैव पढ़ते व सुनते रहते थे। ईश्वर पर उनकी आगाध श्रद्धा थी। हिन्दी, संस्कृत, बंगला और अंग्रेज़ी इन सभी भाषाओं को सीखने के वे बराबर प्रयत्न करते रहते थे। स्वस्थ, लम्बे, तगड़े सबल शारीर के भीतर स्थिर उनका हृदय और मस्तिष्क भी उतना ही सबल और विशाल था।

गिरफ़्तारी

ठाकुर रोशन सिंह 1929 के आस-पास ‘असहयोग आन्दोलन’ से पूरी तरह प्रभावित हो गए थे। वे देश सेवा की और झुके और अंतत: रामप्रसाद बिस्मिल के संपर्क में आकर क्रांति पथ के यात्री बन गए। यह उनकी ब्रिटिश विरोधी और भारत भक्ति का ही प्रभाव था की वे बिस्मिल के साथ रहकर खतरनाक कामों में उत्साह पूर्वक भाग लेने लगे। ‘काकोरी काण्ड’ में भी वे सम्म्लित थे और उसी के आरोप में वे 26 सितम्बर, 1925 को गिरफ़्तार किये गए थे।

मुखबिर बनाने की कोशिश

जेल जीवन में पुलिस ने उन्हें मुखबिर बनाने के लिए बहुत कोशिश की, लेकिन वे डिगे नहीं। चट्टान की तरह अपने सिद्धांतो पर दृढ रहे। ‘काकोरी काण्ड’ के सन्दर्भ में रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ की तरह ठाकुर रोशन सिंह को भी फ़ाँसी की सज़ा दी गई थी। यद्यपि लोगों का अनुमान था की उन्हें कारावास मिलेगा, पर वास्तव में उन्हें कीर्ति भी मिलनी थी और उसके लिए फ़ाँसी ही श्रेष्ठ माध्यम थी। फ़ाँसी की सज़ा सुनकर उन्होंने अदालत में ‘ओंकार’ का उच्चारण किया और फिर चुप हो गए। ‘ॐ’ मंत्र के वे अनन्य उपासक थे।

साथियों से प्रेम

अपने साथियों में रोशन सिंह प्रोढ़ थे। इसलिए युवक मित्रों की फ़ाँसी उन्हें कचोट रही थी। अदालत से बहार निकलने पर उन्होंने साथियों से कहा था “हमने तो ज़िन्दगी का आनंद खूब ले लिया है, मुझे फ़ाँसी हो जाये तो कोई दुःख नहीं है, लेकिन तुम्हारे लिए मुझे अफ़सोस हो रहा है, क्योंकि तुमने तो अभी जीवन का कुछ भी नहीं देखा।”

कारावास

उसी रात रोशन सिंह लखनऊ से ट्रेन द्वारा इलाहाबाद जेल भेजे गए। उन्हें इलाहाबाद की ‘मलाका’ जेल में फ़ाँसी दिए जाने का फैसला किया गया था। उसी ट्रेन से ‘काकोरी कांड’ के दो अन्य कैदी विष्णु शरण दुबलिस और मन्मथनाथ गुप्त भी इलाहाबाद जा रहे थे। उनके लिए वहाँ की नेनी जेल में कारावास की सज़ा दी गई थी। लखनऊ से इलाहाबाद तक तीनों साथी, जो अपने क्रांति जीवन और ‘काकोरी कांड’ में भी साथी थे, बाते करते रहे। डिब्बे के दूसरे यात्रियों को जब पता चला की ये तीनों क्रन्तिकारी और ‘काकोरी कांड’ के दण्डित वीर हैं तो उन्होंने श्रद्धा-पूर्वक इन लोगों के लिए अपनी-अपनी सीटें ख़ाली करके आराम से बेठने का अनुरोध किया। ट्रेन में भी ठाकुर रोशन सिंह बातचीत के दौरान बीच-बीच में ‘ॐ मंत्र’ का उच्च स्वर में जप करने लगते थे।

शहादत

‘मलाका’ जेल में रोशन सिंह को आठ महीने तक बड़ा कष्टप्रद जीवन बिताना पड़ा। न जाने क्यों फ़ाँसी की सज़ा को क्रियान्वित करने में अंग्रेज़ अधिकारी बंदियों के साथ ऐसा अमानुषिक बर्ताव कर रहे थे। फ़ाँसी से पहली की रात ठाकुर रोशन सिंह कुछ घंटे सोए। फिर देर रात से ही ईश्वर भजन करते रहे। प्रात:काल शौच आदि से निवृत्त होकर यथानियम स्नान-ध्यान किया। कुछ देर ‘गीता’ पाठ में लगाया, फिर पहरेदार से कहा- ‘चलो’। वह हैरत से देखने लगा कि यह कोई आदमी है या देवता। उन्होंने अपनी काल कोठरी को प्रणाम किया और ‘गीता’ हाथ में लेकर निर्विकार भाव से फ़ाँसी घर की ओर चल दिए। फ़ाँसी के फंदे को चूमा, फिर जोर से तीन बार ‘वंदे मातरम्’ का उद्घोष किया। ‘वेद मंत्र’ का जाप करते हुए वे 19 दिसम्बर, 1927 को फंदे से झूल गए। उस समय वे इतने निर्विकार थे, जैसे कोई योगी सहज भाव से अपनी साधना कर रहा हो।

अंतिम यात्रा

इलाहाबाद में नैनी स्थित मलाका जेल के फाटक पर हजारों की संख्या में स्त्री-पुरुष, युवा और वृद्ध रोशन सिंह के अंतिम दर्शन करने और उनकी अंत्येष्टि में शामिल होने के लिए खड़े थे। जैसे ही उनका शव जेल कर्मचारी बाहर लाए, वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने नारा लगाया “रोशन सिंह अमर रहें”। भारी जुलूस की शक्ल में शवयात्रा निकली और गंगा-यमुना के संगम तट पर जाकर रुकी, जहाँ वैदिक रीति से उनका अंतिम संस्कार किया गया।

ठाकुर रोशन सिंह ने 6 दिसम्बर, 1927 को इलाहाबाद की नैनी जेल की काल कोठरी से अपने एक मित्र को पत्र में लिखा-

“एक सप्ताह के भीतर ही फ़ाँसी होगी। ईश्वर से प्रार्थना है कि आप मेरे लिए रंज हरगिज न करें। मेरी मौत खुशी का कारण होगी। दुनिया में पैदा होकर मरना ज़रूर है। दुनिया में बदफैली करके अपने को बदनाम न करें और मरते वक्त ईश्वर को याद रखें, यही दो बातें होनी चाहिए। ईश्वर की कृपा से मेरे साथ यह दोनों बातें हैं। इसलिए मेरी मौत किसी प्रकार अफसोस के लायक नहीं है।

दो साल से बाल-बच्चों से अलग रहा हूँ। इस बीच ईश्वर भजन का खूब मौका मिला। इससे मेरा मोह छूट गया और कोई वासना बाकी न रही। मेरा पूरा विश्वास है कि दुनिया की कष्ट भरी यात्रा समाप्त करके मैं अब आराम की ज़िंदगी जीने के लिए जा रहा हूँ। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि जो आदमी धर्म युद्ध में प्राण देता है, उसकी वही गति होती है, जो जंगल में रहकर तपस्या करने वाले महात्मा मुनियों की…।”

पत्र समाप्त करने के पश्चात् उसके अंत में ठाकुर रोशन सिंह ने अपना निम्न शेर भी लिखा-

“..ज़िंदगी जिंदा-दिली को जान ऐ रोशन
..वरना कितने ही यहाँ रोज़ फ़ना होते हैं..।”

बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के लोगों के कारण मध्य प्रदेश के स्थानीय लोगों को नौकरी नहीं मिल पाती है: कमलनाथ


उत्तर प्रदेश से आकर मध्य प्रदेश में राजनीतिक करियर बनाने वाले कमलनाथ ने जब उनके ही जैसे संभावना तलाशते हुए यूपी से एमपी में आने वाले लोगों पर बयान दिया, तो वह खुद इस कटघरे में आ खड़े हुए 

कमलनाथ का जन्म उत्तर प्रदेश के कानपुर में हुआ, दून स्कूल से अपने स्कूल से पढ़ाई की, यहीं उनकी दोस्ती संजय से हुई, लॉ की पढ़ाई कानपुर विश्वविद्यालय के डीएवी कॉलेज से की और मध्यप्रदेश में अपनी राजनैतिक ज़मीन तलाशी


डेढ़ दशक के सूखे के बाद जब मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी, तो बनते ही विवादों में भी घिर गई. यह विवाद तब शुरू हुआ जब कांग्रेस के नव निर्वाचित मुख्यमंत्री कमलनाथ ने कहा कि बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के लोगों के कारण मध्य प्रदेश के स्थानीय लोगों को नौकरी नहीं मिल पाती है.

नव निर्वाचित मुख्यमंत्री के इस बयान के बाद न सिर्फ बिहार और यूपी  बल्कि तमाम राजनीतिक पार्टियों से इस बात का विरोध किया जाने लगा. कई लोगों ने तो खुद कमलनाथ पर ही सवालिया निशान उठा दिया. दरअसल कमलनाथ खुद भी उत्तर प्रदेश से हैं.

मध्य प्रदेश के नव निर्वाचित मुख्यमंत्री का जन्म 18 नवंबर 1946 में उत्तर प्रदेश के कानपुर में हुआ. कमलनाथ ने अपनी लॉ की पढ़ाई कानपुर विश्वविद्यालय के डीएवी कॉलेज से की थी. उन्होंने देहरादून के दून स्कूल से अपने स्कूल से पढ़ाई की थी. यहीं पर उनकी दोस्ती पूर्व प्रधानमंत्री के पुत्र और कांग्रेस के दिग्गज नेता संजय गांधी से हुई थी.

पहली बार छिंदवाड़ा से लड़ा था चुनाव

उत्तर प्रदेश में पैदा होने और पढ़ने वाले कमलनाथ ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत मध्य प्रदेश से की. उन्होंने साल 1980 में मध्य प्रदेश की छिंदवाड़ा सीट से कांग्रेस के टिकट पर पहली बार चुनाव लड़ा था. और आज वह इसी राज्य के मुख्यमंत्री हैं. इसी के साथ मध्य प्रदेश के नव निर्वाचित मुख्यमंत्री ने कहा कि मध्य प्रदेश में ऐसे उद्योगों को छूट दी जाएगी, जिनमें 70 प्रतिशत नौकरी मध्य प्रदेश के लोगों को दी जाएगी.

उत्तर प्रदेश से आकर मध्य प्रदेश में राजनीतिक करियर बनाने वाले कमलनाथ ने जब उनके ही जैसे संभावना तलाशते हुए यूपी से एमपी में आने वाले लोगों पर बयान दिया. तो वह खुद इस कटघरे में आ खड़े हुए. और तमाम राजनेताओं समेत आम लोगों के निशाने पर भी आ गए.

साथी दलों को क्या राहुल मंजूर नहीं?


मतलब साफ है ‘मोदी- विरोध’ तो इन सभी विपक्षी कुनबे के नेताओं को मंजूर तो है, लेकिन, मोदी विरोध के नाम पर एकजुट होकर किसी एक को ‘नेता’ मानने के सवाल पर इनकी आपसी महत्वाकांक्षा टकराने लगती है.


डीएमके प्रमुख एम.के. स्टालिन ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को विपक्ष की तरफ से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने का प्रस्ताव दिया है. 16 दिसंबर को चेन्नई के डीएमके मुख्यालय में एम. करुनानिधि की प्रतिमा के अनावरण के मौके पर आयोजित कार्यक्रम के मौके पर आयोजित समारोह में पार्टी प्रमुख की तरफ से यह बयान दिया गया.

एम.के. स्टालिन ने जब यह बयान दिया उस वक्त कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी मंच पर मौजूद थे. इसके अलावा टीडीपी अध्यक्ष और आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू, केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन, फिल्म स्टार और नेता रजनीकांत, बीजेपी के बागी नेता शत्रुघ्न सिन्हा और दक्षिण भारत के कई जाने-माने नेता और अभिनेता भी उस वक्त कार्यक्रम के दौरान मंच पर मौजूद थे.

इन सभी नेताओं की मौजूदगी में स्टालिन की तरफ से राहुल गांधी के बारे में दिया गया यह बयान कांग्रेस को खूब पसंद आ रहा होगा. जो बात कांग्रेस आलाकमान अबतक खुलकर नहीं बोल पा रहा था या विपक्षी एकता के नाम पर कुछ वक्त के लिए चुप्पी साधना ही मुनासिब समझ रहा था, वो काम डीएमके प्रमुख ने कर दी है. स्टालिन ने अपने बयान के आधार पर अब 2019 की लड़ाई को ‘मोदी बनाम राहुल’ करने की कोशिश कर दी है.

हालांकि, इसी साल मई में कर्नाटक विधानसभा चुनाव के वक्त राहुल गांधी ने एक सवाल के जवाब में अपने को प्रधानमंत्री पद के लिए तैयार बताया था. लेकिन, बाद में वे उस बयान से पलट गए थे. राहुल गांधी और उनकी पार्टी के रुख में ये नरमी सभी बीजेपी विरोधी दलों को साधने के लिए की गई थी, क्योंकि उस वक्त कांग्रेस की हालत ऐसी थी कि वो महज पंजाब तक ही सिमट कर रह गई थी.

लेकिन, अब स्टालिन का बयान ऐसे वक्त में आया है जब कांग्रेस ने तीन राज्यों में सरकार बना ली है. सोमवार 17 दिसंबर को राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में जब कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों का शपथग्रहण हुआ है, तो, ठीक उसके एक दिन पहले ही स्टालिन ने कांग्रेस अध्यक्ष के बढ़े हुए कद का एहसास करा दिया है.

लेकिन, स्टालिन की यह ‘पैरवी’ मोदी के खिलाफ विपक्षी एकजुटता में लगे दूसरे दलों को रास नहीं आ रही है. इसकी एक झलक स्टालिन के बयान के अगले ही दिन दिख गई जब राजस्थान समेत तीनों राज्यों में ‘कांग्रेसी सरकार’ के शपथ ग्रहण समारोह में जिस विपक्षी एकजुटता की उम्मीद कांग्रेस कर रही थी वो नहीं दिखी.

शपथग्रहण समारोह में दिखाने के लिए मंच पर तो ऐसे बहुत सारे नेता थे, मसलन, डीएमके अध्यक्ष एम के स्टालिन, टी.आर. बालू और कनिमोझी, एनसीपी से शरद पवार औऱ प्रफुल्ल पटेल, झारखंड से पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और बाबूलाल मरांडी, कर्नाटक से जेडीएस के नेता पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा, कर्नाटक के मुख्यमंत्री एच.डी. कुमारस्वामी और जेडीएस के दूसरे नेता दानिश अली मौजूद थे. इसके अलावा आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू, एलजेडी से शरद यादव और आरजेडी से तेजस्वी यादव मंच पर मौजूद रहे. कांग्रेस की तरफ से अध्यक्ष राहुल गांधी के अलावा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और लोकसभा में नेता मल्लिकार्जुन खड़गे भी मौजूद रहे.

लेकिन, इन सभी विपक्षी नेताओं की मौजूदगी के बीच विपक्षी एकता में दरार दिख रही थी. यह दरार पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के अलावा यूपी के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों अखिलेश यादव और मायावती की गैर-मौजूदगी के तौर पर दिख रही थी.

गौरतलब है कि इसी साल कर्नाटक में जब जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन की सरकार बन रही थी तो उस वक्त मोदी विरोधी मोर्चा के तौर पर विपक्षी कुनबे की एकता प्रदर्शित करने के लिए विपक्ष के सभी नेता पहुंचे थे. उस वक्त सोनिया गांधी के साथ मायावती की ‘केमेस्ट्री’ की भी चर्चा थी तो राहुल के साथ अखिलेश यादव की जुगलबंदी भी चर्चा में रही. लेफ्ट से लेकर टीएमसी तक सभी नेता एक साथ एक मंच पर दिख रहे थे. लेकिन, हकीकत यही है कि उस वक्त कांग्रेस के नहीं बल्की जेडीएस के नेता कुमारस्वामी मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रह थे.

लेकिन, इन छह महीने बाद तीन-तीन राज्यों में बीजेपी को पटखनी देने के बाद जब कांग्रेस सत्ता में आई है तो इस वक्त मंच पर ममता, माया, अखिलेश के अलावा लेफ्ट के नेता भी नदारद दिख रहे थे. तो क्या इन नेताओं को एम के स्टालिन की वो बात नागवार गुजरी है? क्या ये नेता राहुल गांधी के नेतृत्व को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं?

फिलहाल तो हालात देखकर ऐसा ही लग रहा है. अखिलेश यादव और मायावती पहले ही यूपी में महागठबंधन की बात कर रहे हैं. लेकिन, उन्हें, महागठबंधन के भीतर कांग्रेस का साथ मंजूर नहीं. इन दोनों को लग रहा है कि कांग्रेस के साथ रहने और नहीं रहने से यूपी के भीतर कोई खास फर्क नहीं पड़ता है. विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ ‘हाथ’ मिला चुके अखिलेश यादव इस बार कांग्रेस के साथ जाने से कतरा रहे हैं.

कुछ यही हाल मायावती का भी है. इन दोनों नेताओं को लगता है कि यूपी में कांग्रेस से उनको फायदा तो नहीं होगा लेकिन, उनके साथ गठबंधन में रहकर कांग्रेस कुछ सीटें जीत सकती है. यानी फायदा कांग्रेस को जरूर होगा. नेतृत्व के मामले में लोकसभा चुनाव बाद फैसला लेने की बात इनकी तरफ से हो रही है. ऐसा कर ये दोनों नेता अपना विकल्प खुला रखना चाह रहे हैं.

उधर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी सोनिया गांधी और राहुल गांधी से मुलाकात कर चुकी हैं. अपने दिल्ली दौरे के वक्त ममता बनर्जी ने मुलाकात के बाद प्रधानमंत्री के मसले पर लोकसभा चुनाव बाद फैसला करने की बात कही थी. माना जा रहा है कि ममता बनर्जी की भी ‘ख्वाहिशें’ बड़ी हैं, ऐसे में एम के स्टालिन का बयान ममता बनर्जी को तो नागवार गुजरेगा ही.

11 दिसंबर को संसद का सत्र शुरू होने से एक दिन पहले दिल्ली में लोकसभा चुनाव की तैयारियों पर मंथन को लेकर विपक्षी दलों की बैठक हुई थी, लेकिन, इस बैठक से भी अखिलेश यादव और मायावती ने दूरी बना ली. इन दोनों नेताओं ने अपने किसी प्रतिनिधि को भी इस बैठक में नहीं भेजा. यह साफ संकेत है कि ये दोनों ही नेता अभी अपने पत्ते नहीं खोलना चाहते. वे नहीं चाहते कि चुनाव से पहले यूपी में ऐसा कोई भी गठबंधन हो, जिसमें कांग्रेस भी शामिल रहे.

मतलब साफ है ‘मोदी- विरोध’ तो इन सभी विपक्षी कुनबे के नेताओं को मंजूर तो है, लेकिन, मोदी विरोध के नाम पर एकजुट होकर किसी एक को ‘नेता’ मानने के सवाल पर इनकी आपसी महत्वाकांक्षा टकराने लगती है. एम.के. स्टालिन के बयान ने भले ही बयान देकर मोदी बनाम राहुल की लड़ाई को हवा दे दी है, लेकिन, इस लाइन पर आगे बढ़ पाना कांग्रेस के लिए आसान नहीं होगा.

उपेंद्र कुशवाहा अकेले पड़े

राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी (RLSP) को शनिवार को तब एक बड़ा झटका लगा जब बिहार विधानसभा और विधान परिषद के उसके सभी सदस्यों ने घोषणा की कि वे अभी भी NDA में हैं. साथ ही RLSP सदस्यों ने पार्टी अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा पर आरोप भी लगाया कि उन्होंने गठबंधन से अलग होने की घोषणा में निजी हितों को तवज्जो दी.

आरएलएसपी के दोनों विधायकों सुधांशु शेखर और ललन पासवान और पार्टी के एकमात्र विधानपरिषद सदस्य संजीव सिंह श्याम ने एक संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में बयान जारी किया. तीनों ने शेखर को मंत्रिपद दिए जाने पर जोर दिया जो कि पहली बार विधायक बने हैं और तीनों में सबसे कम आयु के हैं.

श्याम ने कहा कि हम चुनाव आयोग से भी संपर्क करेंगे और दावा करेंगे कि हम असली आरएलएसपी का प्रतिनिधित्व करते हैं. हमें पार्टी के अधिकतर कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों का समर्थन हासिल हैं. उन्होंने ऐसा करके स्पष्ट किया कि आरएलएसपी एक बिखराव की ओर बढ़ रही है.

आरएलएसपी ने दो चुनाव एनडीए के साथ लड़ा था

आरएलएसपी ने 2014 लोकसभा चुनाव और 2015 बिहार विधानसभा चुनाव एनडीए के साथ लड़ा था. आरएलएसपी के कुल मिलाकर तीन सांसद हैं जिसमें कुशवाहा भी शामिल हैं. इसके साथ ही पार्टी के बिहार में दो विधायक और विधानपरिषद का एक सदस्य है.

तीनों विधायकों ने कुशवाहा से अलग होने की घोषणा की है. वहीं दो अन्य सांसदों जहानाबाद से अरुण कुमार और सीतामढ़ी से राम कुमार शर्मा है. अरुण कुमार पिछले दो वर्षों से अलग रास्ता अपनाए हुए हैं.

शर्मा ने शुरू में एनडीए और नीतीश कुमार के समर्थन में बयान दिया था लेकिन बाद में अपना रुख बदल लिया और उन्हें तब कुशवाहा के साथ दिल्ली में देखा गया था जब उन्होंने कैबिनेट से अपने इस्तीफे के साथ ही एनडीए से अलग होने के निर्णय की घोषणा की थी.

उपेंद्र कुशवाहा

श्याम ने कहा कि हम यह लंबे समय से कह रहे हैं कि हम आरएलएसपी के एनडीए के साथ रहने के पक्ष में हैं लेकिन कुशवाहा जिन्हें अपने निजी लाभ की चिंता थी उन्होंने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया.

कुशवाहा को सिर्फ अपने से मतलब

रालोसपा के विधानपरिषद सदस्य ने आरोप लगाया कि गत वर्ष मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के एनडीए में वापस लौटने के बाद रालोसपा के लिए मंत्रिपद पर विचार नहीं करने के बारे में बात करने में कुशवाहा ने देरी की. श्याम ने दावा किया वास्तव में उन्होंने इसको लेकर कभी प्रयास नहीं किया. जब सहयोगी दलों के बीच मंत्रिपदों का आवंटन किया जा रहा था वह पटना में घूम रहे थे.

उन्होंने कहा कि कुशवाहा केंद्र में अपने मंत्रिपद को लेकर खुश थे. उसके बाद उनका पूरा ध्यान ऐसे समझौते पर केंद्रित था जो उनके हितों की पूर्ति करे. उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं थी कि उनकी पार्टी से भी किसी को राज्य में मंत्रिपद मिलना चाहिए. एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि न तो उन्हें और न ही पासवान को मंत्रिपद चाहिए.

श्याम ने कहा कि हम चाहते हैं कि सुधांशु शेखर को राज्य मंत्रिपरिषद में शामिल किया जाए और यदि इसके लिए उनके नाम पर विचार नहीं किया जाता है तो हम बहुत निराश होंगे.

असली आरएलएसपी हमारी

उन्होंने कहा कि हम दलबदलू नहीं बल्कि असली आरएलएसपी की प्रतिनिधित्व करते हैं. हमारा रुख अधिकतर कार्यकर्ताओं और पार्टी के पदाधिकारियों की भावनाओं के अनुरूप है. हम अपने दावे को लेकर जल्द ही चुनाव आयोग से संपर्क करेंगे. इस घटना पर टिप्पणी के लिए बिहार में एनडीए के नेता उपलब्ध नहीं थे.

पार्टी में उठापटक पिछले महीने तब सामने आ गया था जब शेखर और पासवान उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी के आवास पर आयोजित बीजेपी विधायक दल की बैठक में शामिल होने पहुंचे थे.

राहुल पर भरोसा करने वाले अब भी समझ लें “धोखा स्वभाव है इनका!” कैलाश विजयवर्गीय


कांग्रेस द्वारा राफेल के मुद्दे को बार-बार उठाया गया, जिसके जवाब में बीजेपी ने अब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद उस पर पलटवार किया है


पिछले कुछ समय से एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनी राफेल डील को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसला दिया है. कोर्ट ने इस मामले में जांच की मांग वाली सारी याचिकाएं खारिज कर दी हैं. केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बड़ी राहत मिली है. कांग्रेस द्वारा राफेल के मुद्दे को बार-बार उठाया गया, जिसके जवाब में बीजेपी ने अब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद उस पर पलटवार किया है.

बीजेपी नेता कैलाश विजयवर्गीय ने कहा है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने झूठ फैलाया है, उसके लिए उन्हें माफी मांगनी चाहिए. उन्होंने ट्वीट कर कहा कि जिस राफेल डील के झूठ पर सवार होकर राहुल गांधी ने चुनाव प्रचार किया. सुप्रीम कोर्ट ने इस ढकोसले को सिरे से खारिज कर दिया है. अगर राफेल पर फैसला कुछ दिन पहले आया होता तो चुनाव परिणाम कुछ और ही होते. राहुल पर भरोसा करने वाले अब भी समझे ले, धोखा इनका स्वभाव है.


Kailash Vijayvargiya

@KailashOnline

जिस के झूठ पर सवार हो
राहुल गांधी ने पूरा चुनाव प्रचार किया
मा. ने इस ढकोसले को सिरे से खारिज कर दिया.. कुछ दिन पहले आया होता, तो चुनाव परिणाम कुछ और ही होते!

राहुल पर भरोसा करने वाले अब भी समझ लें
“धोखा स्वभाव है इनका!”


राफेल डील पर उठाए जा रहे सवालों पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस पर कोई संदेह नहीं है. सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा कि राफेल डील की खरीद प्रक्रिया में कोई कमी नहीं है. साथ ही कोर्ट ने कहा कि कीमत देखना कोर्ट का काम नहीं है. कोर्ट के इस फैसले को कांग्रेस के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है. दरअसल कांग्रेस लगातार मोदी सरकार का घेराव करते हुए राफेल डील में भ्रष्टाचार होने का आरोप लगाती आई है.

सुप्रीम कोर्ट में अदालत की निगरानी में इस डील को लेकर जांच किए जाने की मांग वाली याचिकाएं दाखिल की गई थी. इसके पहले 14 नवंबर को हुई सुनवाई में इसपर फैसला सुरक्षित रख लिया गया था.