जो वाड्रा हित कि बात करेगा वही राजस्थान पर राज करेगा

 


राजस्थान में ‘कौन बनेगा मुख्यमंत्री’ पर पेंच फंसा हुआ है।


राजस्थान में मुख्यमंत्री पद के 2 दावेदार हैं सचिन पाइलट और अशोक गहलोत दोनों ही का अपना अपना जनाधार और अपना अपना समर्थक दल है, वह दल अपने अपने कुनबे के ही पात्र को मुख्यमंत्री पद पर देखना चाहते हैं। कांग्रेस में मुख्य मंत्री पद पर कौन सुशोभित होगा यह विधायक दल से प्रमुख परिवार द्वारा कहलवा दिया जाएगा।

आज दोपहर ही से मुख्यमंत्री पद के लिए माथापच्ची हो रही है। कांग्रेस का मुख्य परिवार अपने अपने विचारों को आस में बाँट रहे हैं। सभी हैरान हो रहे हैं की सोनिया राहुल का आपस में विचार विमर्श करना तो ठीक और समझ में आने वाला है प्रतु प्रियंका वाडरा के आने के बाद सुगबुगाहट बढ़ गयी है। अब तो वहाँ उपसिथित लोग भी प्रियंका के आने का औचित्य समझने में लग गए हैं।

जहां राहुल गांधी सचिन पाइलट को राजस्थान का मुख्य मंत्री देखना चाहते हैं और वहीं दूसरी ओर सोनिया गांधी गहलोत को राजस्थान का मुख्य मंत्री पद देना चाहते हैं। प्रियंका का आगमन भी यही संदेश देता है कि श्रीमती रोबर्ट वाड्रा वहाँ अपने निजी स्वार्थ हेतु उपस्थित हुईं हैं।

असल में तीन राज्यों के चुनाव परिणाम के साथ ही आल कमान जागृत हो उठा था, कांग्रेस के सभी दिग्गज नेता हों या फिर साधारण कार्यकर्ता उन्हे आला कमान कि बात को ही ब्रहम वाक्य मानना होता है। यही परंपरा है ।

अब बात करें मुख्यमंत्री पद कि, तो गहलोत कांग्रेस के प्रथम परिवार के मुख्य मंत्री के रूप में पहली पसंद हैं राहुल को छोड़ कर। श्रीमति वाड्रा को यकीन है कि उनके परिवार पर छाए ईडी के बादल छांट सकते हैं। सनद रहे कि वाड्रा पर कई करोड़ के जमीनी घोटाले में फंसे हुए ईडी कि गिद्ध दृष्टि पद रही है। उसके बचाव का एक ही उपाय है कि अहमद पटेल गुट के व्यक्ति को ही मुख्य मंत्री पद सौंपा जाये।

मध्य प्रदेश में कमल खिला


राहुल गांधी ने ट्विटर पर कैप्शन लिखा है कि दो सबसे शक्तिशाली योद्धा धैर्य और समय हैं


कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने गुरुवार को कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया से मुलाकात के बाद एक ट्वीट किया है जो एमपी में सीएम पद के लिए चल रही चर्चा पर सबकुछ बयां कर रही है. इस तस्वीर के साथ उन्होंने कैप्शन लिखा है कि दो सबसे शक्तिशाली योद्धा धैर्य और समय हैं.

मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक मध्यप्रदेश में कमलनाथ सीएम हो सकते हैं. हालांकि राजस्थान में अभी तक सीएम पद के लिए रेस चल रही है. अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच सस्पेंस अब तक बरकरार है.

राहुल गांधी से मीटिंग के बाद कमलनाथ ने कहा, ‘मैं भोपाल जा रहा हूं. विधायकों के साथ बैठक के बाद सीएम का ऐलान होगा.’

वहीं ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कहा, ‘यह कोई दौड़ नहीं है. यह कुर्सी की बात नहीं है. हम मध्य प्रदेश के लोगों की सेवा के लिए हैं. मैं भोपाल जा रहा हूं और आज आपको फैसले की जानकारी मिल जाएगी.’

राजस्थान में सीएम पद के लिए चर्चाओं पर कांग्रेस नेता अशोक गहलोत ने कहा, ‘मैं समर्थकों से शांति बनाए रखने की अपील करता हूं. हमने बहुत मेहनत की और जो भी फैसला आएगा, हम उसे मानेंगे. राहुल जी सभी नेताओं से बात कर रहे हैं.’

दिग्विजय सिंह मध्य प्रदेश के कांग्रेस अध्यक्ष हो सकते हैं


चुनावी जीत के साथ ही जो राजनीतिक हालात बने हैं वे भी बयां कर रहे हैं कि कमलनाथ के साथ सिंह को भी समानांतर पावर के साथ देखा जा रहा है


अब इस बात के राजनीतिक कयास शुरू हो गए हैं कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस के चाणक्य साबित हुए दिग्विजय सिंह क्या प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बन सकते हैं. कमलनाथ के मुख्यमंत्री बनते ही ये पद खाली होगा. 2019 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए सिंह इस पद के लिए सबसे प्रबल दावेदार दिखाई दे रहे हैं.

पिछले तीन दिन का घटनाक्रम भी इस बात के साफ संकेत दे रहा है कि दिग्विजय सिंह किसी पद पर नहीं रहते हुए भी एक समानांतर पावर में आ गए हैं. भावी मुख्यमंत्री कमलनाथ के साथ उनका समन्वय और मध्यप्रदेश में दस साल मुख्यमंत्री रहने के कारण वो प्रशासनिक जमावट से लेकर कई मामलों में अहम रोल निभा रहे हैं.

टकराहट नहीं

राजस्थान में मुख्यमंत्री पद को लेकर जितनी टकराहट है वैसा माहौल मध्यप्रदेश में नहीं है. इसका एकमात्र कारण कमलनाथ और दिग्विजय सिंह का एक होना है. 90 से ज्यादा विधायक इन दोनों के समर्थक हैं.

कांग्रेस के स्टार कैंपेनर ज्योतिरादित्य सिंधिया इस दौड़ में पीछे रह गए हैं. कांग्रेस हलकों में चर्चा है कि कमलनाथ के मुख्यमंत्री बनते ही पहला फैसला प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष को लेकर करना होगा. मुख्यमंत्री रहते हुए वे एक साथ दो पद पर काबिज नहीं हो सकते.

2019 की चुनौती

चार महीने बाद ही लोकसभा का चुनाव है. जो कांग्रेस के लिए सबसे ज्यादा चुनौती वाला है. फिलहाल यहां की 29 में से 26 सीट बीजेपी के पास हैं. विधानसभा चुनाव का रिजल्ट बता रहा है कि कांग्रेस ने करीब 14 सीट को कवर कर लिया है.

2019 में भी कांग्रेस इतनी ताकत झोंकती है तो बीजेपी का किला ढहाना उसके लिए मुश्किल नहीं है. हालात बता रहे हैं कि ऐसे में कमलनाथ किसी रबर स्टेंप अध्यक्ष के साथ संगठन चलाने का जोख़िम नहीं ले सकते

रबर स्टेंप नहीं चल सकता

अरुण यादव, अजय सिंह, सुरेश पचौरी के नाम भी अध्यक्ष पद की दौड़ में हो सकते हैं. लेकिन इनकी संभावना कम नज़र आती है.

2019 के मद्देनजर कांग्रेस को ऐसे अध्यक्ष की ज़रूरत होगी जो सभी गुटों पर अपना प्रभाव और दमखम रखता हो. वहां दिग्विजय सिंह जैसे कद्दावर नेता का नाम ही सामने आ रहा है.

सिंह की राय खास

चुनावी जीत के साथ ही जो राजनीतिक हालात बने हैं वे भी बयां कर रहे हैं कि कमलनाथ के साथ सिंह को भी समानांतर पावर के साथ देखा जा रहा है. कई मुद्दों पर कमलनाथ स्वयं सिंह से राय लेने या मिलने के लिए कह रहे हैं.

खास तौर पर प्रशासनिक मामलों में सिंह की राय को महत्वपूर्ण माना जा रहा है. टीम कमलनाथ में कौन अधिकारी होंगे इसका फैसला सिंह की सहमति के साथ होता दिखाई दे रहा है.

प्रदेश से दूर रहे

कमलनाथ मध्यप्रदेश से सांसद रहे, केंद्र में मंत्री रहे लेकिन मध्यप्रदेश में उनकी इस तरह मौजूदगी या दखल कभी नहीं रहा. दिग्विजय सिंह का दस साल तक मुख्यमंत्री रहते हुए संपर्क और कई पुराने अधिकारियों के साथ उनके अनुभव को देखते हुए वे उनके साथ हर बात साझा कर रहे हैं.

कांग्रेस ने नहीं भाजपा को NOTA ने हराया


कांग्रेस ने नहीं भाजपा को नोटा ने हराया उपरोक्त तालिका इसका समर्थन करती है

यह सच है की आप सबको खुश नहीं रख सकते, पर किसे रखना है यह तो तय कर सकते हैं।


राजवीरेन्द्र वासिष्ठ

चुनाव निकल चुके हैं, 5 राज्य भाजपा मुक्त हो चुके हैं। हार की कारणों की खोज जारी है, पर्यवेक्षकों के दिमाग की दहि हो रही है, अभूत जल्दी ही समीक्षक अपनी अपनी राय ले कर आएंगे और हमें बड़े बड़े आंकड़ों से समझाएँगे की भाजपा क्यों और कैसे हारी।

सच्चाई हमारे सामने है भाजपा राहुल के बारे में कहती रही की ” पप्पू सेल्फ गोल करते हैं” बस इस मुगालते में भाजपा ने अपने कुछ लोगों को अनदेखा कर दिया, वही इसकी हार का कारण बने।

एक बात जो लोगों को हज़म नहीं होती वह है भाजपा का जुमला,” मामला न्यायालय में है” किसी भ्रष्टाचारी को सज़ा दिलवानी हो, किसी मंदिर की बात हो तो बस यह जुमला उनकी ज़ुबान पर चासनी की तरह चिपका रहता है।

पर जब बात सावर्णों की हो, समाज में फैले अभिशप्त क़ानूनों की हो और सर्वोच्च न्यायालय के किसी सवर्ण राहत के फैसले की हो तो अध्यादेश आ कर इन्हे दलित विरोधी होने से रोकता है।

भाजपा को भाजपाइयों ने ही हराया है।

यह सच है की आप सबको खुश नहीं रख सकते, पर किसे रखना है यह तो तय कर सकते हैं।

चुनाव जीतते ही गिनती भूले राहुल

जय हो;  आपके आगे तो शास्त्र भी मौन हैं

बीएसपी की जीत के मायने …..


बीएसपी ने राजस्थान में 2013 के मुकाबले अच्छा प्रदर्शन किया है. यहां 4.0 फीसदी वोट के साथ उसे 6 सीटें हासिल हुई हैं


राजस्थान में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजों में इस बार कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है. इसके बाद बीजेपी को सबसे ज्यादा सीटें मिली हैं. इससे हटकर एक अन्य पार्टी भी है जिसे मिली तो 6 सीटें हैं, लेकिन ये पिछली बार के मुकाबले 2 गुना है. इन चुनावों में बीएसपी को 6 सीटों पर जीत मिली है.

जीतने वाले उम्मीदवारों में राजस्थान की करौली सीट से लखन सिंह, नदबाई से जोगिंदर सिंह अवाना, नगर से वाजिब अली, उदयपुर वटी से राजेंद्र सिंह गोधा, तिजारा से संदीप कुमार और किशनगढ़बास से दीप चंद हैं. अपनी जीत के बाद दीप चंद ने इलाके में विजय जुलूस निकाला और जनता से सारे वादे पूरा करने का भी वादा किया.

बीएसपी ने राजस्थान में 2013 के मुकाबले अच्छा प्रदर्शन किया है. यहां 4.0 फीसदी वोट के साथ उसे 6 सीटें हासिल हुई हैं, जबकि पिछले चुनाव में 3.37 फीसदी मत के साथ उसे महज सिर्फ 3 सीटें मिली थीं. हालांकि वो 2008 के अपने सबसे अच्छे प्रदर्शन को नहीं दोहरा सकी है. तब उसके खाते में 7.60 फीसदी वोट के साथ 6 सीटें आई थीं. पार्टी महासचिव राम अचल राजभर का कहना है कि कार्यकर्ताओं ने खूब मेहनत की इसलिए उसे हर वर्ग के लोगों का समर्थन मिला.

इन चुनावों में बीएसपी का प्रदर्शन का पार्टी में जान फूंकने वाला भी साबित हो सकता है क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनावों से शुरू हुई पार्टी की दुर्गति अभी तक लगातार जारी थी. यूपी में, जहां पार्टी का सबसे मजबूत जनाधार है, पिछले लोकसभा में पार्टी का खाता भी नहीं खुल पाया था तो जख्मों पर नमक छिड़का विधानसभा चुनावों ने. 18 सीट जीतकर पार्टी इस हैसियत में भी नहीं बची कि अपना एक सांसद राज्यसभा भेज सके.

अब राजस्थान में 6 सीटों से मिली संजीवनी का इस्तेमाल मायावती ने भविष्य की राजनीति के लिए करना भी शुरू कर दिया है. दरअसल कांग्रेस मध्य प्रदेश और राजस्थान में सबसे बड़ी पार्टी तो बन गई लेकिन बहुमत के जादुई आंकड़े से थोड़ा पीछे रह गई. मायावती ने बिना समय गंवाए कांग्रेस को दोनों राज्यों में समर्थन देकर सिर्फ तात्कालिक संकट दूर नहीं किया बल्कि 2019 की रणभेरी से पहले ही एक नए गठबंधन की सुगबुगाहट भी तेज कर दी है.

This is not Exit Poll of 2019 for BJP, history says so


Congress victories should not dishearten BJP; history shows 2019 polls likely to be a different ball game


Way back in March 1998, the National Democratic Alliance government under the leadership of Atal Bihari Vajpayee was sworn in at the Centre. The BJP won 182 Lok Sabha seats, a tremendous achievement (by then standards). The Congress was down to 141.

By end of that year, Assembly elections were held in Delhi, Rajasthan and Madhya Pradesh. The BJP was routed. The Congress scored massive victories, snatching Delhi and Rajasthan from the BJP and Djivijaya Singh triumphantly returned to power for a second term in undivided Madhya Pradesh.

Four months later, in April 1999, the Vajpayee government fell by one vote. Fresh parliamentary elections followed. The BJP under Vajpayee was back in power at the Centre, winning all seven seats from Delhi and performing well in the Hindi heartland.

Turn to December 2013, the BJP, the prime contender for power in New Delhi, lost the Assembly election to a newly founded Aam Aadmi Party, but won all seven Lok Sabha seats in April-May 2014 parliamentary elections.

Beyond a doubt, 11 December, 2018, will go down as an important date in the Indian political calendar: the day the Congress snatched power from the BJP in three Hindi heartland states. It is a big moment for the Congress — and an undoubtedly joyous one — and its president Rahul Gandhi, who tasted success after a string of failures.

Consider the results of Madhya Pradesh, Rajasthan, Chhattisgarh and Telangana and the percentage of votes major parties received:

The Madhya Pradesh House is basically hung, with the Congress emerging as the single largest party with 114 seats, but falling two short of the majority mark. The BJP is a close second with 109 seats. Ironically, the BJP secured more votes than the Congress: the saffron party received 15,642,980 votes and a 41 percent vote share while the Congress got 15,595,153 votes with 40.9 percent vote share. After being in power for three terms, it was a commendable performance by Shivraj Singh Chouhan, BJP workers and leaders.

Rajasthan again is a Hung House, Congress as the single largest party with 99 seats with two short of majority. The BJP won 73 seats. The difference between Congress and the BJP is only .50 percent. The Congress got 39.3 percent and BJP received 38.8 percent of vote. In Chhattisgarh, Congress won in a landslide.

Thus, for the BJP, results are not as bad as they looked at first glance. Madhya Pradesh has 25 Lok Sabha seats, Rajasthan 25, and Chhattisgarh 11.

Another important state which went to the polls in South India was Telangana. Some opinion polls predicted that Congress-TDP-Left coalition would give a tough fight to ruling TRS and may derail Chief Minister K Chandrashekar Rao, but Tuesday’s results showed a remarkable victory for KCR-led TRS. The party won 88 of 119 seats that went to the polls. Its poll percentage was 46.9, way ahead of Congress’s 28.4 percent. Chandrababu Naidu’s TDP only won two seats.

There is speculation, informed or otherwise, of a tacit understanding between BJP and TRS for a post-poll alliance. The Telangana Assembly result puts the new friendship between Rahul and Chandrababu under stress. It remains to be seen whether they go to parliamentary polls as allies or separate in fewer than six months.

“The Union government at present is not considering any loan waiver scheme for farmers,”Parshottam Rupala


  • Write-offs encourage defaulters, affect credit culture, Union Minister of State for Agriculture Parshottam Rupala tells Lok Sabha. 

  • During the campaign for the Assembly election, Congress president Rahul Gandhi had vowed to waive farmers’ loans in Madhya Pradesh and Chhattisgarh within 10 days of coming to power.


On a day when the BJP’s loss in three State elections was partly attributed to rural distress and the Congress’s promise to waive farm loans, the government told the Lok Sabha that it was not considering any loan waiver scheme as it would affect the credit culture, incentivise defaulters, create a moral hazard and perpetuate demands for further waivers.

In a written reply to Shiv Sena MP Bhavana Gawali Patil, Union Minister of State for Agriculture Parshottam Rupala said “the Union government at present is not considering any loan waiver scheme for farmers.”

During the campaign for the Assembly election, Congress president Rahul Gandhi had vowed to waive farmers’ loans in Madhya Pradesh and Chhattisgarh within 10 days of coming to power.

In his reply on Tuesday, Mr. Rupala listed out the negative consequences of waiving farm loans.

“Such waivers may impact the credit culture of a State by incentivising the defaulters even if they are in a position to repay the loan and thus create/amplify the moral hazard by discouraging those borrowers who have been regular in repaying their loans,” he said. “Further, each waiver granted makes it even more difficult to reject any future similar demand.”

Alternative steps

Mr. Rupala admitted that according to the National Crime Records Bureau data, bankruptcy or indebtedness, and farming-related issues were reported as the major causes for suicides among farmers. While the Centre would not consider loan waivers, it had initiated a number of measures to reduce the debt burden of farmers and to increase availability of institutional credit to farmers, he said.

Mayavati Supported Congress unconditionally but with heavy heart

BSP Supreemo Mayawati addressing press conference at her official residence in Lucknow 


  • ‘apne dil par patthar rakhkar’, much against their wishes, they voted for the Congress after seeing it as the main contender for power

  • To prevent the BJP from sticking to power, she said her party was extending the support to the Congress in government formation in Rajasthan and Madhya Pradesh


BSP supremo Mayawati on Wednesday said that people voted for the Congress much against their wishes because they saw it as the prime challenger to the BJP in Madhya Pradesh, Chhattisgarh, and Rajasthan.

Mayawati told the media that this was unfortunate as the poor, Dalits, marginalized and religious minorities had suffered during the past governments of the Congress.

“So, ‘apne dil par patthar rakhkar’, much against their wishes, they voted for the Congress after seeing it as the main contender for power.”

Charging the Congress with ignoring the path shown by Dalit icon BR Ambedkar, Mayawati said it was because of this that people from the Dalit community had to float parties of their own and even the BJP flourished due to the wrong policies of the Congress.

She admitted that despite the best efforts and hard work of its cadres, the elections in the three states were not that positive to the Bahujan Samaj Party.

But she said the voters in Rajasthan, Chhattisgarh and Madhya Pradesh had given “a befitting reply to the anti-people policies” pursued by the Bharatiya Janata Party (BJP) governments, she said in a statement.

To prevent the BJP from sticking to power, she said her party was extending the support to the Congress in government formation in Rajasthan and Madhya Pradesh.

किसानों की कर्ज़ माफी पर भाजपा रखेगी पैनी नज़र


कांग्रेस के सामने सरकार बनाने के बाद 10 दिनों में चुनावी वादों को पूरा करने की चुनौती है और ये वादा किसी और ने नहीं बल्कि खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने किया है 

कांग्रेस शासित राज्यों में  अगर चुनावी वादे पूरे नहीं होते हैं तो बीजेपी इसका इस्तेमाल सत्ता विरोधी लहर के रूप में कर सकती है


कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पुरजोर भरोसे के साथ कह रहे हैं कि जिस तरह बीजेपी को अभी हराया है उसी तरह साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भी हराएंगे. कांग्रेस के आत्मविश्वास को संदेह से अब देखा नहीं जा सकता है क्योंकि चुनावी नतीजे गवाह हैं कि कांग्रेस ने किस तेजी से बीजेपी के खिलाफ तीन राज्यों में माहौल बदला. ये नतीजे लोकसभा चुनाव को लेकर बीजेपी के लिए खतरे की घंटी हैं.

लेकिन तीन राज्यों में मिली जीत के बावजूद कांग्रेस अपने ही बनाए चक्रव्यूह में फंस सकती है. क्योंकि कांग्रेस ने बीजेपी को हराने के लिए जिन मुद्दों और वादों का इस्तेमाल किया वही तीन महीने बाद उसके सामने मुंह खोल कर खड़े होंगे. कांग्रेस के सामने सरकार बनाने के बाद 10 दिनों में चुनावी वादों को पूरा करने की चुनौती है. ये वादा किसी और ने नहीं बल्कि खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने किया है.

दस दिनों में कर्ज नहीं किया माफ तो ग्यारहवें दिन बदल देंगे सीएम

बीजेपी के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने एक बार कहा था कि बीजेपी को उम्मीद नहीं थी कि बड़े-बड़े वादे करने के बाद वो सत्ता में भी आ जाएगी. शायद कांग्रेस को भी उम्मीद नहीं होगी कि उसके चुनावी वादे उसे सत्ता पर काबिज कर देंगे. तभी कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि तीन राज्यों में मिली जीत से कांग्रेस पर बड़ी जिम्मेदारी आई है. उनके इशारे को कर्जमाफी का वादा माना जा सकता है.

राहुल ने अपनी रैलियों में जगह-जगह ऐलान किया था कि राज्य में कांग्रेस की सरकार बनने पर दस दिनों में किसानों का कर्ज माफ कर दिया जाएगा वर्ना ग्यारहवें दिन सीएम बदल दिया जाएगा. अब कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने चुनावी वादे को पूरा करने की है क्योंकि कहीं ये वादे अधूरे छूटने पर  3 महीनों के भीतर ही सत्ता विरोधी लहर में न बदल जाएं.

बीजेपी को अब उन राज्यों में सतर्क रहने की जरूरत है जो 15 साल से उसके गढ़ थे. मध्यप्रदेश की 29, छत्तीसगढ़ की 11 और राजस्थान की 25 लोकसभा सीटों को जीतने के लिए नए समीकरण बनाने की जरूरत है क्योंकि जो मुद्दे विधानसभा चुनाव में हावी रहे वो ही लोकसभा चुनाव में भी हुंकार भरेंगे.

ऐसे में कर्जमाफी जैसे दूसरे वादे पूरा न कर पाने पर साल 2019 के लोकसभा चुनाव में इन राज्यों में कांग्रेस के खिलाफ ही सत्ता विरोधी लहर चल सकती है. जो लुभावने वादे कर कांग्रेस सत्ता में आई है अब वही वादे बीजेपी के लिए साल 2019 में माहौल बदलने के काम आ सकते हैं.

क्या कांग्रेस की जीत से बीजेपी को होगा फायदा?

कांग्रेस इस जीत से बेहद उत्साहित है. लेकिन बीजेपी के लिए राज्य की सत्ता से लोकसभा चुनाव से तीन-चार महीने पहले हटने के दूरगामी फायदे भी हो सकते हैं. बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने नतीजों पर कहा कि जनता ने दिल पर पत्थर रखकर कांग्रेस को वोट दिया. मायावती के बयान से क्या माना जाए कि जनता ने बीजेपी की राज्य सरकारों के प्रति गुस्से को कांग्रेस को वोट देकर निकाल बाहर कर दिया? अगर ये गुस्सा पंद्रह साल में उपजा तो फिर वोट शेयर में भारी गिरावट क्यों नहीं हुई.

मध्यप्रदेश में बीजेपी को 41 फीसदी वोट मिले जबकि कांग्रेस को 40.9 फीसदी. इसी तरह राजस्थान में भी बीजेपी को सत्ता विरोधी लहर के बावजूद 73 सीटें मिलीं. ये साफ संकेत है कि साल 2019 में इन राज्यों में वापसी के लिए बीजेपी के पास अभी कई मौके बाकी हैं.

हालांकि, साल 2019 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए बीजेपी के सामने इस बार चुनौती ज्यादा है. न सिर्फ पांच साल सरकार के कामकाज का हिसाब देना है बल्कि इस बार सामने साल 2014 की तरह न तो बिखरा हुआ विपक्ष है और न ही यूपीए के दस साल के शासन की सत्ता विरोधी लहर का मौका. इस बार बीजेपी के सामने एनडीए को बिखराव से बचाने की चुनौती भी है.

शिवसेना नाराज है तो चंद्रबाबु नायडू जैसे एनडीए के पूर्व संयोजक ही साथ छोड़ गए और विपक्ष का महागठबंधन तैयार करने में जुटे हुए हैं. एनडीए छोड़कर जाने वाले दलों की वजह से बीजेपी को सीटों का कुछ नुकसान हो सकता है लेकिन उसके फायदे के लिए एक नया रास्ता टीआरएस खोल रही है.

टीआरएस के दांव से किसे होगा फायद किसका होगा नुकसान

तेलंगाना में सत्ता वापसी करने वाले केसीआर ने साल 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए विपक्ष के नए गठबंधन की बात की है जो कि गैर कांग्रेसी और गैर-बीजेपी हो. केसीआर की इस नई कहानी से विपक्ष की एकता के प्रतीक महागठबंधन की परिकल्पना का पटाक्षेप हो जाता है. आखिर बीजेपी और कांग्रेस विरोधी कितने दल एक साथ अलग-अलग आएंगे?

केसीआर के इस दांव से फायदा बीजेपी को ही होगा तो नुकसान उस विपक्ष को जो बीजेपी को सत्ता में आने से रोकना चाहती है. अब जबकि राहुल विपक्ष के नंबर वन नेता बनकर उभरे हैं और उनकी लीडरशिप में विपक्षी महागठबंधन की संभावना दिखाई देती है तो टीआरएस नेता केसीआर का अलग राग विपक्षी महागठबंधन के तोड़ के रूप में नजर आता है.

भले ही राज्यों की हार की नैतिक जिम्मेदारी शिवराज, वसुंधरा और रमन सिंह ने ली लेकिन बीजेपी को ये नहीं भूलना चाहिए कि साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भी किसान, बेरोजगारी, नोटबंदी, जीएसटी और भ्रष्टाचार के आरोपों को कांग्रेस मुद्दा बनाएगी.

ऐसे में राहुल के हमलों को हल्के में लेने की भूल दोहरानी नहीं चाहिए क्योंकि जनता ने राहुल को अब विपक्ष के नंबर एक नेता के तौर पर स्थापित कर दिया है. साथ ही अब बीजेपी के उन जिम्मेदार नेताओं को ये कहने से भी बचना होगा कि राहुल जितनी रैलियां करेंगे उसका फायदा बीजेपी को ही मिलेगा. राहुल केंद्रित रणनीति का ठीक वैसा ही नुकसान हो सकता है जैसा कि साल 2014 में कांग्रेस और दूसरे दलों ने मोदी-केंद्रित प्रचार रखा था.

बीजेपी के पास फिलहाल ‘वेट एंड वॉच’ का विकल्प है. कांग्रेस शासित राज्यों में  अगर चुनावी वादे पूरे नहीं होते हैं तो बीजेपी इसका इस्तेमाल सत्ता विरोधी लहर के रूप में कर सकती है. इतिहास गवाह रहा है कि तीन-तीन राज्यों में एक साथ चुनाव जीतने वाली पार्टी को भी छह महीने के भीतर ही एंटीइंकंबेंसी की वजह से लोकसभा चुनाव में खामियाजा भुगतना पड़ा है. इसलिए बीजेपी के लिए अभी सबकुछ खत्म नहीं हुआ है बल्कि नए सिरे से शुरू करने का अलार्म ही बजा है.