कांग्रेस के सामने सरकार बनाने के बाद 10 दिनों में चुनावी वादों को पूरा करने की चुनौती है और ये वादा किसी और ने नहीं बल्कि खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने किया है
कांग्रेस शासित राज्यों में अगर चुनावी वादे पूरे नहीं होते हैं तो बीजेपी इसका इस्तेमाल सत्ता विरोधी लहर के रूप में कर सकती है
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पुरजोर भरोसे के साथ कह रहे हैं कि जिस तरह बीजेपी को अभी हराया है उसी तरह साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भी हराएंगे. कांग्रेस के आत्मविश्वास को संदेह से अब देखा नहीं जा सकता है क्योंकि चुनावी नतीजे गवाह हैं कि कांग्रेस ने किस तेजी से बीजेपी के खिलाफ तीन राज्यों में माहौल बदला. ये नतीजे लोकसभा चुनाव को लेकर बीजेपी के लिए खतरे की घंटी हैं.
लेकिन तीन राज्यों में मिली जीत के बावजूद कांग्रेस अपने ही बनाए चक्रव्यूह में फंस सकती है. क्योंकि कांग्रेस ने बीजेपी को हराने के लिए जिन मुद्दों और वादों का इस्तेमाल किया वही तीन महीने बाद उसके सामने मुंह खोल कर खड़े होंगे. कांग्रेस के सामने सरकार बनाने के बाद 10 दिनों में चुनावी वादों को पूरा करने की चुनौती है. ये वादा किसी और ने नहीं बल्कि खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने किया है.
दस दिनों में कर्ज नहीं किया माफ तो ग्यारहवें दिन बदल देंगे सीएम
बीजेपी के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने एक बार कहा था कि बीजेपी को उम्मीद नहीं थी कि बड़े-बड़े वादे करने के बाद वो सत्ता में भी आ जाएगी. शायद कांग्रेस को भी उम्मीद नहीं होगी कि उसके चुनावी वादे उसे सत्ता पर काबिज कर देंगे. तभी कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि तीन राज्यों में मिली जीत से कांग्रेस पर बड़ी जिम्मेदारी आई है. उनके इशारे को कर्जमाफी का वादा माना जा सकता है.
राहुल ने अपनी रैलियों में जगह-जगह ऐलान किया था कि राज्य में कांग्रेस की सरकार बनने पर दस दिनों में किसानों का कर्ज माफ कर दिया जाएगा वर्ना ग्यारहवें दिन सीएम बदल दिया जाएगा. अब कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने चुनावी वादे को पूरा करने की है क्योंकि कहीं ये वादे अधूरे छूटने पर 3 महीनों के भीतर ही सत्ता विरोधी लहर में न बदल जाएं.
बीजेपी को अब उन राज्यों में सतर्क रहने की जरूरत है जो 15 साल से उसके गढ़ थे. मध्यप्रदेश की 29, छत्तीसगढ़ की 11 और राजस्थान की 25 लोकसभा सीटों को जीतने के लिए नए समीकरण बनाने की जरूरत है क्योंकि जो मुद्दे विधानसभा चुनाव में हावी रहे वो ही लोकसभा चुनाव में भी हुंकार भरेंगे.
ऐसे में कर्जमाफी जैसे दूसरे वादे पूरा न कर पाने पर साल 2019 के लोकसभा चुनाव में इन राज्यों में कांग्रेस के खिलाफ ही सत्ता विरोधी लहर चल सकती है. जो लुभावने वादे कर कांग्रेस सत्ता में आई है अब वही वादे बीजेपी के लिए साल 2019 में माहौल बदलने के काम आ सकते हैं.
क्या कांग्रेस की जीत से बीजेपी को होगा फायदा?
कांग्रेस इस जीत से बेहद उत्साहित है. लेकिन बीजेपी के लिए राज्य की सत्ता से लोकसभा चुनाव से तीन-चार महीने पहले हटने के दूरगामी फायदे भी हो सकते हैं. बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने नतीजों पर कहा कि जनता ने दिल पर पत्थर रखकर कांग्रेस को वोट दिया. मायावती के बयान से क्या माना जाए कि जनता ने बीजेपी की राज्य सरकारों के प्रति गुस्से को कांग्रेस को वोट देकर निकाल बाहर कर दिया? अगर ये गुस्सा पंद्रह साल में उपजा तो फिर वोट शेयर में भारी गिरावट क्यों नहीं हुई.
मध्यप्रदेश में बीजेपी को 41 फीसदी वोट मिले जबकि कांग्रेस को 40.9 फीसदी. इसी तरह राजस्थान में भी बीजेपी को सत्ता विरोधी लहर के बावजूद 73 सीटें मिलीं. ये साफ संकेत है कि साल 2019 में इन राज्यों में वापसी के लिए बीजेपी के पास अभी कई मौके बाकी हैं.
हालांकि, साल 2019 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए बीजेपी के सामने इस बार चुनौती ज्यादा है. न सिर्फ पांच साल सरकार के कामकाज का हिसाब देना है बल्कि इस बार सामने साल 2014 की तरह न तो बिखरा हुआ विपक्ष है और न ही यूपीए के दस साल के शासन की सत्ता विरोधी लहर का मौका. इस बार बीजेपी के सामने एनडीए को बिखराव से बचाने की चुनौती भी है.
शिवसेना नाराज है तो चंद्रबाबु नायडू जैसे एनडीए के पूर्व संयोजक ही साथ छोड़ गए और विपक्ष का महागठबंधन तैयार करने में जुटे हुए हैं. एनडीए छोड़कर जाने वाले दलों की वजह से बीजेपी को सीटों का कुछ नुकसान हो सकता है लेकिन उसके फायदे के लिए एक नया रास्ता टीआरएस खोल रही है.
टीआरएस के दांव से किसे होगा फायद किसका होगा नुकसान
तेलंगाना में सत्ता वापसी करने वाले केसीआर ने साल 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए विपक्ष के नए गठबंधन की बात की है जो कि गैर कांग्रेसी और गैर-बीजेपी हो. केसीआर की इस नई कहानी से विपक्ष की एकता के प्रतीक महागठबंधन की परिकल्पना का पटाक्षेप हो जाता है. आखिर बीजेपी और कांग्रेस विरोधी कितने दल एक साथ अलग-अलग आएंगे?
केसीआर के इस दांव से फायदा बीजेपी को ही होगा तो नुकसान उस विपक्ष को जो बीजेपी को सत्ता में आने से रोकना चाहती है. अब जबकि राहुल विपक्ष के नंबर वन नेता बनकर उभरे हैं और उनकी लीडरशिप में विपक्षी महागठबंधन की संभावना दिखाई देती है तो टीआरएस नेता केसीआर का अलग राग विपक्षी महागठबंधन के तोड़ के रूप में नजर आता है.
भले ही राज्यों की हार की नैतिक जिम्मेदारी शिवराज, वसुंधरा और रमन सिंह ने ली लेकिन बीजेपी को ये नहीं भूलना चाहिए कि साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भी किसान, बेरोजगारी, नोटबंदी, जीएसटी और भ्रष्टाचार के आरोपों को कांग्रेस मुद्दा बनाएगी.
ऐसे में राहुल के हमलों को हल्के में लेने की भूल दोहरानी नहीं चाहिए क्योंकि जनता ने राहुल को अब विपक्ष के नंबर एक नेता के तौर पर स्थापित कर दिया है. साथ ही अब बीजेपी के उन जिम्मेदार नेताओं को ये कहने से भी बचना होगा कि राहुल जितनी रैलियां करेंगे उसका फायदा बीजेपी को ही मिलेगा. राहुल केंद्रित रणनीति का ठीक वैसा ही नुकसान हो सकता है जैसा कि साल 2014 में कांग्रेस और दूसरे दलों ने मोदी-केंद्रित प्रचार रखा था.
बीजेपी के पास फिलहाल ‘वेट एंड वॉच’ का विकल्प है. कांग्रेस शासित राज्यों में अगर चुनावी वादे पूरे नहीं होते हैं तो बीजेपी इसका इस्तेमाल सत्ता विरोधी लहर के रूप में कर सकती है. इतिहास गवाह रहा है कि तीन-तीन राज्यों में एक साथ चुनाव जीतने वाली पार्टी को भी छह महीने के भीतर ही एंटीइंकंबेंसी की वजह से लोकसभा चुनाव में खामियाजा भुगतना पड़ा है. इसलिए बीजेपी के लिए अभी सबकुछ खत्म नहीं हुआ है बल्कि नए सिरे से शुरू करने का अलार्म ही बजा है.