तेजस्वी की नसीहत कांग्रेस की फजीहत

 

बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने एक साक्षात्कार में कहा है कि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में अन्य दलों को ड्राइविंग सीट पर रखना चाहिए जहां कांग्रेस सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी नहीं है. तेजस्वी ने 2019 में बीजेपी से मुकाबला करने के लिए अहंकार को दूर रखने की जरूरत पर बल दिया है. तेजस्वी ने संविधान बचाने के वास्ते सभी विपक्षी दलों को साथ आने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा कि विपक्ष अगर एक साथ आए तो जीत सकता है.

तेजस्वी यादव के बयान में कांग्रेस के लिए नसीहत भी है और एक बड़ा संदेश भी. संदेश साफ है कि यूपी-बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस काफी कमजोर है. कांग्रेस यूपी में एसपी, बीएसपी के मुकाबले तीसरे नंबर की विपक्षी दल की हैसियत में है जबकि बिहार में कमोबेश यही हाल है. बिहार में भी कांग्रेस पिछले कई सालों से लगातार आरजेडी के पीछे-पीछे ही चल रही है.

अब जबकि 2019 के चुनाव के पहले कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी सभी विपक्षी दलों को साथ लाने की तैयारी कर रहे हैं, तो आरजेडी ने उन्हें हैसियत भी बताने की कोशिश की है. राहुल गांधी और तेजस्वी यादव के बीच केमेस्ट्री बहुत अच्छी रही है. दोनों बीजेपी को रोकने के लिए बिहार में साथ मिलकर चलने पर सहमत हैं, लेकिन, तेजस्वी यादव का बयान उस कड़वी सच्चाई को बयां कर रहा है जिसे मानने से कांग्रेस के कई नेता आनाकनी कर जाते हैं.

हकीकत तो यही है कि बिहार में कांग्रेस के पास अभी न कोई बड़ा नेता है और न ही कार्यकर्ताओं की बड़ी फौज. वैशाखी के सहारे कांग्रेस पिछले दो दशकों से भी ज्यादा वक्त से अपनी सियासत कर रही है. अब लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस को फिर से ड्राइविंग सीट छोड़ने की नसीहत देकर तेजस्वी यादव ने बिहार में अपना दावा ठोक दिया है.

कांग्रेस के पास ड्राइविंग सीट छोड़ने के अलावा दूसरा कोई विकल्प भी नहीं है. कांग्रेस को भी पता है कि यूपी, बिहार, बंगाल समेत कई दूसरे राज्यों में उसकी हैसियत कम हो गई है. फिर भी विपक्षी दलों के भीतर नंबर वन की हैसियत यानी मुख्य विपक्षी दल की हैसियत वो खोना नहीं चाहती.

कांग्रेस की रणनीति के मुताबिक, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और गुजरात जैसे प्रदेशों में जहां उसकी सीधी लड़ाई बीजेपी से है वहां वो सभी सीटों पर लड़ना चाहती है, लेकिन, यूपी-बिहार जैसे प्रदेशों में भी वो एक सम्मानजनक समझौता चाहती है जिससे देश भर में विपक्षी दलों की सीटों में उसकी सीटों की तादाद सबसे ज्यादा रहे. इससे चुनाव बाद परिणाम आने की सूरत में मोदी विरोध के नाम पर जुटे सभी दलों में कांग्रेस का दबदबा बना रहेगा और सबसे बड़े दल के नाते बडी कुर्सी पर भी दावा किया जा सकेगा.

लेकिन, कांग्रेस की इस रणनीति से दूसरे क्षेत्रीय दल राजी नहीं होते दिख रहे हैं. अगर ऐसा होता तो साल भर पहले ही यूपी विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी के साथ गलबहियां करने वाले अखिलेश यादव कांग्रेस के साथ चुनाव से पहले गठबंधन से आनाकानी नहीं करते दिखते.

अखिलेश यादव को भी पता है कि यूपी विधानसभा चुनाव के वक्त भी कांग्रेस से गठबंधन का उन्हें कोई खास फायदा नहीं हुआ था, लिहाजा कांग्रेस से ज्यादा मायावती से हाथ मिलाने को लेकर उनकी आतुरता ज्यादा दिख रही है. 90 के दशक में पिता मुलायम सिंह यादव की तरह एसपी- बीएसपी गठबंधन की तर्ज पर गठबंधन बनाने को लेकर अखिलेश की दिलचस्पी ज्यादा दिख रही है.

लगता है कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की तरफ से कर्नाटक चुनाव के दौरान खुद को प्रधानमंत्री बनने के बारे में दिए गए बयान पर भी अखिलेश यादव ज्यादा असहज दिख रहे हैं. क्योंकि एसपी चाहती है कि चुनाव से पहले नहीं बल्कि बाद में प्रधानमंत्री पद को लेकर कोई फैसला हो.

उधर, पश्चिम बंगाल में भी कांग्रेस के लिए मुश्किल है क्योंकि ममता बनर्जी कांग्रेस को ज्यादा तवज्जो देने के मूड में नहीं लग रही हैं. दूसरी तरफ, तेलंगाना में के.सी.आर भी कांग्रेस से दूरी बनाए हुए हैं. ऐसे में कांग्रेस के लिए यूपीए -3 को चुनाव पूर्व एक आकार देना मुश्किल हो रहा है. मोदी विरोध के नाम पर सभी पार्टियां एक हो भी जाएं तो भी उनके भीतर के अंतरविरोध चुनाव से पहले कई राज्यों में परेशानी का सबब बन रहे हैं.

इस हालात में कांग्रेस को भी यह बात समझनी होगी कि ड्राइविंग सीट पर यूपी और बिहार में उसे एसपी-बीएसपी और आरजेडी को ही रखना होगा. तेजस्वी की नसीहत को मानना कांग्रेस के लिए जरूरी भी है और मजबूरी भी. क्योंकि इस नसीहत को नजरअंदाज करने पर मुश्किल कांग्रेस को ही होगी.

शिया मुस्लमान होंगे 2019 में भाजपा के साथ


बुक्कल नवाब ने बताया कि शिया मुसलमान राम मंदिर निर्माण के पक्ष में हैं


राष्ट्रीय शिया समाज (आरएसएस) ने आगामी लोकसभा चुनाव में बीजेपी का साथ देने का ऐलान किया है. आरएसएस के अध्यक्ष बीजेपी विधान परिषद सदस्य बुक्कल नवाब ने बताया कि शिया मुसलमान अगले लोकसभा चुनाव में बीजेपी और पीएम मोदी का साथ देंगे. हम अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के पक्ष में हैं.

उन्होंने कहा कि बीजेपी को छोड़कर दूसरा कोई भी दल शिया मुसलमानों के हितों का ख्याल नहीं रखता है, लिहाजा इस बार भी यह कौम बीजेपी और मोदी का साथ देगी. बीजेपी का सहयोग करने के कारण के बारे में पूछे जाने पर नवाब ने कहा कि पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी की कोशिशों की वजह से ही लखनऊ में शिया मुसलमानों के जुलूस पर लगा 20 साल पुराना प्रतिबंध खत्म हुआ था.

उन्होंने कहा कि बीजेपी ने ही केन्द्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी, प्रदेश के राज्यमंत्री मोहसिन रजा, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष ग़यूरुल हसन, उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष हैदर अब्बास जैसे शिया मुसलमानों को अहम ओहदों पर बैठाया.

हनुमान मंदिर में घंटा अर्पण करते हुए बुक्कल नवाब

नवाब ने आरोप लगाया कि प्रदेश की पूर्ववर्ती सपा और बसपा सरकारों ने शिया मुसलमानों को प्रताड़ित किया. बसपा प्रमुख मायावती के राज में खुद उन्हें जेल में डाला गया था. वहीं, सपा के शासनकाल में उसके नेता आजम खां ने शिया समुदाय को सताने की हर मुमकिन कोशिश की. बाकी सियासी पार्टियों के रवैये को देखते हुए शिया समुदाय ने इस बार बीजेपी का साथ देकर उसकी जीत सुनिश्चित की.

इस बीच, ऑल इंडिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रवक्ता मौलाना यासूब अब्बास ने अगले लोकसभा चुनाव में शिया मुसलमानों द्वारा बीजेपी का साथ दिए जाने के बुक्कल नवाब के बयान पर कहा कि वह अभी इस बारे में कुछ नहीं कहना चाहते. यह एक संवेदनशील मामला है और वह उलेमा से राय लेकर ही इस बारे में कुछ कह सकेंगे.

शिया धर्मगुरु मौलाना कल्बे जव्वाद ने कहा कि बुक्कल नवाब और उनके साथियों ने जो फैसला लिया है, वह उनकी निजी राय है. बाकी शिया समाज ने वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में किसी दल को समर्थन देने का अभी तक कोई फैसला नहीं लिया है.

उन्होंने कहा कि उलेमा के साथ बैठक करके सलाह-मशविरे के बाद ही इस बारे में कोई निर्णय लिया जाएगा. वर्ष 2016 में गठित हुए अपने संगठन का सूक्ष्म नाम आरएसएस रखे जाने के औचित्य के बारे में पूछे जाने पर बुक्कल नवाब ने कहा कि यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का ही एक अवतार है.

प्रधान मंत्री पद की दावेदारी गठबंधन पर पड़ेगी भारी

 

साल 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को रोकने के लिए कांग्रेस की उम्मीदें केवल एक ही सहारे पर टिकी हुई हैं. वो सहारा है महागठबंधन. कांग्रेस को लगता है कि महागठबंधन के समुद्र मंथन से ही सत्ता का अमृत पाया जा सकता है. महागठबंधन का वैचारिक आधार है-मोदी विरोध. महागठबंधन की बात बार-बार दोहराकर कांग्रेस इसकी अगुवाई का भी दावा कर रही है ताकि भविष्य में पीएम पद को लेकर महाभारत न हो. लेकिन दूसरे राजनीतिक दलों में गूंजने वाली अलग-अलग प्रतिक्रियाएं महागठबंधन के वजूद पर अभी से ही सवालिया निशान लगा रही हैं.

एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार चुनाव से पहले महागठबंधन की कल्पना को व्यावहरिक ही नहीं मानते हैं. उनका मानना है कि क्षेत्रीय दलों की मजबूती की वजह से महागठबंधन व्यावहारिक नहीं दिखाई देता है. पवार का राजनीतिक अनुभव और दूरदर्शिता उनके इस बयान से साफ दिखाई देता है.

जिन क्षेत्रीय दलों की मजबूती को कांग्रेस एक महागठबंधन में देखना चाहती है दरअसल यही मजबूती ही क्षेत्रीय दलों को चुनाव बाद के गठबंधन में सौदेबाजी का मौका देगी. क्षेत्रीय दलों की यही ताकत उन्हें चुनाव बाद एकजुट होने की परिस्थिति में उनके फायदे के लिये ‘सीधी बात’ कहने का आधार देगी और सत्ता में भागेदारी का बराबरी से अधिकार भी देगी.

शरद पवार ये मानते हैं कि हर राज्य में अलग-अलग पार्टियों की अपनी स्थिति और भूमिका है. कोई पार्टी किसी राज्य में नंबर 1 है तो उसकी प्राथमिकता राष्ट्रीय स्तर पर अपनी स्थिति को और मजबूत करने की होगी. जाहिर तौर पर ऐसी स्थिति में कोई भी पार्टी चुनाव पूर्व महागठबंधन के फॉर्मूले में कम से कम अपने गढ़ में तो ऐसा कोई समझौता नहीं करेगी जिससे उसके वोट प्रतिशत और सीटों का नुकसान हो.

वहीं इस महागठबंधन के आड़े आने वाला सबसे बड़ा व्यावहारिक पक्ष ये है कि बीजेपी के खिलाफ एकजुट होने वाले क्षेत्रीय दल लोकल स्तर पर एकजुटता कैसे दिखा पाएंगे? वो पार्टियां जो अबतक एक दूसरे के खिलाफ आग उगलकर चुनाव लड़ती आई हैं वो राष्ट्रीय स्तर पर कैसे एकता दिखा सकेंगी? उन सभी के किसी न किसी रूप में वैचारिक मतभेद हैं जिनका किसी न किसी रूप में समझौते पर असर पड़ेगा.

सबसे बड़ी चुनौती जमीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं को लेकर होगी जिनके लिए महागठबंधन के बाद एक साथ काम कर पाना आसान नही होगा क्योंकि कई राज्यों में वैचारिक मतभेद से उपजा खूनी संघर्ष भी इतिहास में कहीं जिंदा है.

बड़ा सवाल ये है कि सिर्फ मोदी को रोकने के लिए क्या पश्चिम बंगाल में टीएमसी और वामदल आपसी रंजिश को भुलाकर कांग्रेस के साथ आ सकेंगे? क्या तमिलनाडु में डीएमके और आआईएडीएमके, बिहार में लालू-नीतीश, यूपी में अखिलेश-मायावती और दूसरे राज्यों में गैर कांग्रेसी क्षेत्रीय दलों के साथ कांग्रेस का गठबंधन साकार हो सकेगा?

महागठबंधन को साल 2015 में पहली कामयाबी बिहार में तब मिली जब लालू-नीतीश की जोड़ी ने बीजेपी के विजयी रथ को रोका. इसी फॉर्मूले का नया अवतार साल 2018 में यूपी में तब दिखा जब बीजेपी को हराने के लिए पुरानी रंजिश भूलकर एसपी-बीएसपी गोरखपुर-फूलपुर के लोकसभा उपचुनाव में साथ आए तो फिर कैराना में रालोद के साथ गठबंधन दिखा. यूपी-बिहार के गठबंधन के गेम से ही कांग्रेस उत्साहित है और वो महागठबंधन का सुनहरा ख्वाब संजो रही है.

लेकिन एक दूसरा सवाल ये भी है कि अपने-अपने राज्यों के क्षत्रप आखिर कांग्रेस के नेतृत्व में महागठबंधन से जुड़ने को अपना सौभाग्य क्यों मानेंगे? खासतौर से तब जबकि हर क्षेत्रीय दल का नेतृत्व खुद में ‘पीएम मैटेरियल’ देख रहा हो.

कांग्रेस राहुल के नेतृत्व में महागठबंधन की अगुवाई करना चाहती है. जबकि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में गैर-बीजेपी दलों के हित में जारी महागठबंधन की अपील को ठुकरा चुकी हैं. ममता बनर्जी तीसरे मोर्चे की कवायद में ज्यादा एक्टिव दिखाई दे रही हैं. वो दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों और क्षेत्रीय नेताओं के लगातार संपर्क में हैं. बीजेपी को हराने के लिए वो हर बीजेपी विरोधी नेता से हाथ मिलाने को तैयार हैं. उन्होंने गुजरात चुनाव में बीजेपी की नजदीकी जीत के बाद हार्दिक-अल्पेश-जिग्नेश की तिकड़ी की तारीफ की और हार्दिक पटेल को पश्चिम बंगाल का सरकारी मेहमान तक बना डाला.

हाल ही में उन्होंने दिल्ली के सीएम केजरीवाल के एलजी ऑफिस में धरने के वक्त तीन अलग राज्यों के सीएम के साथ पीएम से मुलाकात की. ये मुलाकात साल 2019 को लेकर कांग्रेस के लिए भी बड़ा इशारा था. एक तरफ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी दिल्ली में केजरीवाल के धरने को ड्रामा बता रहे थे तो दूसरी तरफ ममता बनर्जी की अगुवाई में चार राज्यों के सीएम केजरीवाल का सपोर्ट कर रहे थे.

महागठबंधन से पहले किसी विचारधारा या फिर मुद्दे पर कांग्रेस और गैर-कांग्रेसी दलों में एकता दिखाई नहीं दे रही है. ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि किसी भी कीमत पर मोदी और बीजेपी को साल 2019 में सत्ता में आने से रोकने के लिए महागठबंधन की नींव पड़ भी गई तो इमारत बनाने के लिए ईंटें कहां से आएंगी?

मोदी को रोकने के लिए महागठबंधन तो बन सकता है लेकिन महागठबंधन के नेतृत्व को लेकर कांग्रेस आम सहमति कैसे बना पाएगी? साल 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस राहुल गांधी को पीएम के तौर पर प्रोजेक्ट कर चुकी है. यहां तक कि खुद राहुल गांधी भी कर्नाटक चुनाव प्रचार के वक्त कह चुके हैं कि वो देश का पीएम बनने को तैयार हैं. जबकि मुंबई में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जब राहुल से महागठबंधन के नेतृत्व पर सवाल पूछा गया तो वो जवाब टाल गए.

पीएम बनने की महत्वाकांक्षा आज के दौर में हर क्षेत्रीय पार्टी के अध्यक्ष के मन में है और यही महागठबंधन की महाकल्पना के साकार होने में आड़े भी आएगी. क्योंकि क्षेत्रीय दल सिर्फ सीटों तक की सौदेबाजी को लेकर महागठबंधन के समुद्र मंथन में नहीं उतरेंगे बल्कि वो पीएम पद को लेकर भी बंद दरवाजों  से लेकर खुले मैदान में शक्ति-परीक्षण के जरिये सौदेबाजी करने का मौका नहीं चूकेंगे

महागठबंधन पर बात न बन पाने की सूरत में कांग्रेस के पास यही विकल्प बचता है कि या तो वो गैर कांग्रेसी दलों को पीएम पद सौंपने पर राजी हो जाए या फिर यूपीए 3 के नाम से अपने प्रगतिशील गठबंधन के दम पर लोकसभा चुनाव में उतरे और चुनाव बाद महागठबंधन को लेकर फॉर्मूला बनाए.

सिर्फ विधानसभा चुनाव और उपचुनावों से लोकसभा चुनाव का मूड नहीं भांपा जा सकता है. यूपीए ने भी साल 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले उपचुनावों में जीत हासिल की थी. वहीं इस साल 15 सीटों पर हुए उपचुनावों में महागठबंधन को सिर्फ चार सीटों पर ही जीत मिली है. ऐसे में महागठबंधन को लेकर बनाई जा रही हवा कहीं हवा-हवाई न साबित हो जाए.

क्षेत्रीय दलों को सिर्फ एक ही बात की चिंता है कि साल 2019 में भी कहीं ‘मोदी लहर’ की वजह से उनके राजनीतिक वनवास की मियाद पांच साल और न बढ़ जाए. यही डर उन्हें महागठबंधन में लाने को मजबूर कर सकता है लेकिन सत्ता में भागीदारी का लालच उन्हें पीएम पद की तरफ भी आकर्षित करता है. तभी पीएम पद की बाधा-रेस महागठबंधन में सबसे बड़ा अड़ंगा डालने का काम कर सकती है क्योंकि इस मुद्दे पर चुनाव से पहले कोई भी पार्टी राजी होने को तैयार नहीं होगी.

कांग्रेस ये कभी नहीं चाहेगी कि वो पीएम पद के बारे में चुनाव बाद उभरे राजनीतिक हालातों के बाद फैसला करे. वो ये चाहेगी कि इस मामले में तस्वीर अभी से एकदम साफ रहे और पूरा चुनाव राहुल बनाम मोदी ही लड़ा जाए.

बहरहाल सिर्फ मोदी-विरोध के नाम पर अलग-अलग राज्यों में विपक्षी दलों के सियासी समीकरण साधना भी इतना आसान नहीं है क्योंकि ये जातीय समीकरणों में भी उलझे हुए हैं. सिर्फ मोदी-विरोध का एक सूत्रीय कार्यक्रम देश की सभी विपक्षी पार्टियों के लिए साल 2019 के लोकसभा चुनाव में आत्मघाती साबित हो सकता है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव हारने के बाद कांग्रेस की अंदरूनी रिपोर्ट को बाकी विपक्षी दलों को किसी ऐतिहासिक दस्तावेज की तरह जरूर पढ़ना चाहिये और ये भी समझना चाहिये कि कि उनका सियासी इस्तेमाल सिर्फ कांग्रेस के प्रतिशोध तक ही तो सीमित नहीं है. फिलहाल कांग्रेस के लिए महागठबंधन बना पाना उसी तरह असंभव दिखाई दे रहा है जिस तरह अपने बूते साल 2019 का लोकसभा चुनाव जीतना.

मदरसों के आधुनिकीकरण की और बढ़ती सरकार


इसके तहत मदरसों की जियो टैगिंग और उनका किसी भी मदरसा बोर्ड या राज्य बोर्ड से संबद्ध होना अनिवार्य कर दिया जाएगा


एमएचआरडी देश में मदरसा शिक्षा व्यवस्था में गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा प्रदान करने की स्कीम (एसपीक्यूईएम) के तहत सुधार और बदलाव करने की योजना पर काम कर रही है. इसके तहत मदरसों का किसी भी मदरसा बोर्ड या राज्य बोर्ड से संबद्ध होना अनिवार्य कर दिया जाएगा. एचआरडी मंत्रालय के सूत्रों ने बताया कि राज्यों ने अपने प्रस्तावों को पेश कर दिया है, इसका अध्ययन किया जा रहा है और बजट को देखते हुए मदरसा शिक्षा व्यवस्था में सुधार की व्यापक योजना को लागू किया जाएगा.

सूत्र ने बताया कि ‘एसपीक्यूईएम का उद्देश्य मदरसा शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाना है और छात्रों को औपचारिक विषयों में राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली के मानकों को प्राप्त करने में सक्षम बनाना है. इसके साथ ही साथ सरकार मदरसों को मदरसा बोर्ड या राज्य स्कूल बोर्डों से अनिवार्य रूप से संबद्ध बनाने की योजना भी बना रही है.’

इस सुधार के तहत सरकार देश के मदरसों को जीपीएस के आधार पर चिह्नित करने की योजना पर भी काम कर रही है. सूत्र ने बताया कि ‘इसके लिए मंत्रालय मदरसों का पता लगाने के लिए विशेष पहचान को अनिवार्य कर सकती है ताकि जीपीएस के जरिए उनके लोकेशन का पता लगाया जा सके.’

पिछले साल मंत्रालय ने एपीक्यूएम योजना में शामिल मदरसों से कहा था कि वो अपना जीपीएस लोकेशन दें. जिस मदरसे ने जीपीएस लोकेशन नहीं दिया, उनके शिक्षकों का वेतन रोक दिया गया. कुछ मदरसे सरकार के इस कदम का विरोध कर सकते हैं क्योंकि वे इसे अपने स्वायत्ता में ‘सरकारी हस्तक्षेप’ मानते हैं.

इस योजना की मौजूदा विशेषताएं मदरसे को विज्ञान, गणित, भाषा, सामाजिक अध्ययन आदि जैसे औपचारिक विषयों के सिलेबस के मानदंड को बेहतर करके और शिक्षकों को ज्यादा वेतन देने के माध्यम से क्षमताओं को मजबूत करने में सक्षम बनाती हैं. इससे पहले भी मदरसों को नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओपेन स्कूल से संबद्ध करके और शिक्षण सामग्री को को बेहतर करके मदरसों को बेहतर बनाने की कवायद की जा चुकी है. इसके जरिए इस तरह के मदरसों में पढ़ने वालों बच्चों को 5वीं, 6ठी, 10वीं और 12वीं के सर्टिफिकेट लेने में आसानी हुई. मुस्लिम-बहुल इलाकों में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सरकार नई एकीकृत योजना में और स्कूल खोलने की योजना बना रही है, जिसे ‘समग्र शिक्षा अभियान’ कहा जा रहा है.

डीडीसीए की चुनावी ऐय्यारियां

 

कभी कोई दावा करता है कि चेतन चौहान अपने ग्रुप से अलग उस ग्रुप को सपोर्ट करने लगे हैं, जो मदन लाल के खिलाफ है. कभी भारतीय ओलिंपिक संघ के अध्यक्ष दावा करते हैं कि बीसीसीआई के कार्यवाहक अध्यक्ष सीके खन्ना ने उनका मोबाइल नंबर ‘क्लोन’ कर लिया है. उस नंबर से मैसेज भेजे जा रहे हैं.

कभी कोई एक ग्रुप कहीं पार्टी का आयोजन करता है, तो दूसरा ग्रुप म्यूजिकल नाइट पर उतर आता है. यह दिल्ली एवं जिला क्रिकेट संघ यानी डीडीसीए के इलेक्शन की दास्तां है. यहां मीडिया में बड़ा नाम और चैनल के मालिक रजत शर्मा एक तरफ हैं. सुप्रीम कोर्ट के वकील विकास सिंह दूसरी तरफ और क्रिकेटर मदन लाल तीसरी तरफ. तीन ग्रुप चुनाव मैदान में हैं.

 

एक को बंसल ग्रुप कहा जाता है. दावे किए जा रहे हैं कि इस ग्रुप को अरुण जेटली का समर्थन हासिल है. हालांकि जेटली खुद डीडीसीए से दूर रहने का फैसला कर चुके हैं. लेकिन उनके वर्षों से मित्र रजत शर्मा इसी ग्रुप से अध्यक्ष पद के दावेदार हैं. एक समय डीडीसीए के कोषाध्यक्ष रहे बत्रा इसी ग्रुप के पक्ष में दूसरे ग्रुप पर आरोप लगा रहे हैं और कानूनी कार्रवाई की धमकी दे रहे हैं.

इस कहानी में सब कुछ है. एक्शन, ड्रामा, सस्पेंस… लेकिन इन सबसे बड़ी बात की भविष्य की बीसीसीआई इसमें है. 27 जून से 30 जून तक होने वाले इलेक्शन में ग्रुप देखकर ही समझा जा सकता है कि भविष्य किस ओर जा रहा है.

 

अंदाजा लगाइए. उपाध्यक्ष पद पर उम्मीदवार हैं शशि खन्ना, जो डीडीसीए के महारथी कहे जाने वाले सीके खन्ना की पत्नी है. सीके खन्ना वही हैं, जिनके पास प्रॉक्सी के जमाने में हर चुनाव की चाबी होती थी. प्रॉक्सी यानी वोटर्स को खुद को वोट डालने की जरूरत नहीं. उसने अपना वोट डालने का अधिकार किसी और को दे दिया. ये सारे अधिकार सीके खन्ना और उनके समर्थकों के पास होते थे. इस बार प्रॉक्सी नहीं है. इसके बावजूद सीके खन्ना की ताकत को कम आंकना ठीक नहीं है.

ताकत कम न आंकने की वजह परिवार हैं. वोटर्स परिवारों में हैं. चुनाव की घोषणा के वक्त प्रेस कांफ्रेंस करने वाले विकास सिंह ने तब कहा था कि कुछ परिवारों के पांच से आठ वोट हैं. उनका यह कमेंट बताता है कि परिवारवाद से बचना आसान नहीं. जिस परिवार के पांच से आठ वोट हैं, उनमें सीके खन्ना भी शामिल हैं.

दूसरी तरफ स्नेह बंसल हैं. उनके भाई राकेश बंसल उपाध्यक्ष पद के लिए खड़े हैं. बंसल डीडीसीए अध्यक्ष रहे हैं. पूर्व डायरेक्टर बृज मोहन गुप्ता के पुत्र आलोक मित्तल और संयुक्त सचिव रवि जैन के पुत्र अपूर्व जैन डायरेक्टर पद के लिए हैं. महिला डायरेक्टर में भी रिश्तेदारों का दबदबा है.

पूर्व उपाध्यक्ष चेतन चौहान इस समय बता रहे हैं कि डीडीसीए से उनका कोई मतलब नहीं है. वो उत्तर प्रदेश में मंत्री हैं. लेकिन उनके भाई पुष्पेंद्र चौहान संयुक्त सचिव के दावेदार हैं. यह कुछ वैसा ही है, जैसे पंचायत चुनाव में महिला आरक्षण होने के बाद सरपंचों ने अपनी पत्नी के जरिए कमान संभालने का फैसला किया था. या लालू यादव ने अपनी जगह राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया था.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले और लोढ़ा कमेटी की सिफारिशों के बाद तमाम प्रशासक अब अयोग्य हैं. उनकी जगह उनके रिश्तेदार चुनाव लड़ रहे हैं. हिमाचल में अनुराग ठाकुर के भाई की एंट्री हो गई है. इस तरह पूर्व सचिव निरंजन शाह के बेटे ने भी बीसीसीआई में दस्तक दे दी है. डीडीसीए चुनाव उसी सिलसिले को आगे बढ़ाने का या यूं कहें कि भविष्य की तस्वीर तय करने का काम कर सकता है.

सिर्फ दो ऐसे क्रिकेटर मैदान में हैं, जिन्हें लोग जानते हैं. पहले, मदन लाल, जो सीके खन्ना ग्रुप की तरफ से उम्मीदवार हैं. वही सीके खन्ना, जिन्हें ज्यादातर पूर्व क्रिकेटर डीडीसीए की बरबादी का जिम्मेदार मानते हैं. दूसरे क्रिकेटर सुरिंदर खन्ना हैं. वो उस पोस्ट (डायरेक्टर, क्रिकेट) के लिए हैं, जो सिर्फ पूर्व क्रिकेटरों के लिए है. उसके बावजूद सुरिंदर खन्ना ही अकेला ऐसा नाम हैं, जिन्हें क्रिकेट सर्किल में जाना जाता है.

ऐसे में अगर क्रिकेटर की जीत होती है, तो महज इस वजह से, क्योंकि वो उसी खेमे का हिस्सा हैं, जिसे लेकर वो सालों से आवाज उठाते रहे हैं. मदन लाल को उन्हीं सीके खन्ना की मदद लेनी पड़ी. यही बताता है कि किसी फेडरेशन का हिस्सा बनने के लिए क्रिकेटर को क्या चाहिए. दूसरा, क्रिकेट में करप्शन दूर करने के लिए लोढ़ा कमेटी की सिफारिशें परिवारवाद का करप्शन दूर नहीं कर पाई है. अब वोटिंग भले ही प्रॉक्सी न हो, लेकिन पदों पर प्रॉक्सी उम्मीदवार हैं. यही डीडीसीए का पैटर्न है. यही बीसीसीआई का पैटर्न होगा.

ज्ञान चाँद गुप्ता ने सम्पर्क अभियान के तहत अपनी सरकार के 4 सालों का लेखा जोखा दिया

ज्ञान चाँद गुप्ता (फाइल फोटो)

 

स्थानीय विधायक एवं मुख्य सचेतक ज्ञानचंद गुप्ता ने कहा कि नये समाज एवं राष्ट्र का निर्माण करने के लिए समाज और देश के लिए उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल करने वाले प्रमुख लोगों का योगदान बहुत जरूरी है, इसलिए देश में समाज के लिए सराहनीय कार्य करने वाले 40 हजार और हरियाणा प्रदेश में 2 हजार लोगों से संपर्क का समर्थन अभियान के तहत घर जाकर मुलाकात की जा रही है। इस दौरान समाज के प्रमुख लोगों को केन्द्र सरकार की चार साल की उपलब्धियों का लेखा-जोखा भी दिया जा रहा है।

विधायक एवं मुख्य सचेतक ज्ञानचंद गुप्ता ने सेक्टर 12 में समाज और देश के लिए सराहनीय कार्य करने वाले सेवानिवृत लै० कर्नल एसएस गुलेरिया एवं उनकी धर्मपत्नी व सुप्रसिद्ध पंजाबी लोक गायिका डौली गुलेरिया के मकान नंबर 865 स्थित निवास पर पहुंचे। विधायक के उनके घर पहुंचने पर दोनो ने परंपरा अनुसार सादगी के साथ स्वागत किया। विधायक ने सबसे पहले सेवानिवृत लै० कर्नल एसएस गुलेरिया व उनकी धर्मपत्नी व सुप्रसिद्ध पंजाबी लोक गायिका डौली गुलेरिया को केन्द्र सरकार के चार वर्ष के लेखा-जोखा से संबंधित एक बुकलेट भेंट की। लै० कर्नल एसएस गुलेरिया ने आश्वासन देते हुए कहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं एवं कार्यक्रमों के दूरगामी परिणाम सामने आ रहे हैं।

उल्लेखनीय है कि सुप्रसिद्ध पंजाबी लोक गायिका डौली गुलेरिया का प्रसिद्ध लोकगीत अंबरसरे दे पापड़ वे मैं खांदी ना, तू करना आकड़ वे मैं सहंदी ना, काफी लोकप्रिय हुआ। इनके तीन पुत्र-पुत्रियां हैं जिनमें सुनैनी शर्मा, दिलप्रीत गुलेरिया व अमनप्रीत गुलेरिया शामिल हैं जो अपने व्यवसाय व नौकरी में लगे हुए हैं।
इससे पूर्व विधायक ने संपर्क का समर्थन अभियान के तहत समाज के लिए सराहनीय कार्य करने वाले उद्यौगपति एवं सामाजिक कार्यकर्ता ब्रिज लाल गुप्ता, सेवानिवृत आईएएस धर्मवीर, अहसास अदब सोसायटी के प्रधान बीडी कालिया हमदम, भवन विद्यालय स्कूल की प्रधानाचार्या शषि बैनर्जी, सेवानिवृत आईपीएस वीके कपूर, इंडियन एयर फोर्स के सेवानिवृत कर्नल आरएस कौशल, सेवानिवृत आईएएस एसडी भांबरी, सेवानिवृत शिक्षाविद् प्रो० एके सहजपाल, भवन एवं मैट्रो रेलवेज में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले एसपी सिंगला इत्यादि के निवासों पर पहुंच पर उन्हें केन्द्र सरकार के चार वर्ष के लेखा-जोखा से संबंधित एक बुकलेट भेंट की। इस अवसर पर वरिष्ठ भाजपा कार्यकर्ता डीपी सोनी भी विधायक के साथ उपस्थित रहे।

चिकित्सकों को अब सरकारी अस्पतालों में अतिरिक्त क्लिनिकल ड्यूटी देनी होगी: अनिल विज

 

हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज ने कहा कि प्रदेश के लोगों को उत्कृष्ट चिकित्सा सेवाएं एवं चिकित्सकों की सहज उपलब्धता के लिए प्रशासनिक पदों पर तैनात हरियाणा नागरिक चिकित्सा सेवा, हरियाणा दंत सेवा तथा जिला आयुर्वेदिक चिकित्सकों को अब सरकारी अस्पतालों में अतिरिक्त क्लिनिकल ड्यूटी देनी होगी।
स्वास्थ्य मंत्री ने कहा कि केवल प्रशासनिक कार्य कर रहे चिकित्सकों द्वारा ओपीडी करने से न केवल डॉक्टर्स की कमी दूर की जा सकेगी बल्कि सरकारी अस्पतालों में आने वाले मरीजों को भी इंतजार नही करना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि राज्य के अन्य विभागों में कार्यरत या प्रतिनियुक्ति पर गए चिकित्सकों पर यह आदेश लागू नही होगा। यदि किन्हीं कारणों से कोई चिकित्सक यह ड्यूटी करने मे असमर्थ रहता है तो उसे अगले सप्ताह अतिरिक्त कार्य दिया जाएगा।
विज ने बताया कि इसके तहत स्वास्थ्य महानिदेशक एवं अतिरिक्त स्वास्थ्य महानिदेशक को सप्ताह के किसी भी दिन 2 घंटे तथा राज्य के सभी सिविल सर्जन एवं समकक्ष अधिकारियों को सप्ताह में एक दिन चिकित्सीय कार्य करना होगा। इसी प्रकार प्रधान चिकित्सा अधिकारी, चिकित्सा अधिक्षक, उप सिविल सर्जन, वरिष्ठ चिकित्सा अधिकारी तथा समकक्ष अधिकारियों को भी सप्ताह में दो दिन चिकित्सीय ड्यूटी करनी होगी।
स्वास्थ्य मंत्री ने कहा कि इनके अलावा स्वास्थ्य महानिदेशालय, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, एचएमएससीएल, एचएसएचआरसी, एड्स कंट्रोल सोसाएटी तथा एसआईएचएफडब्ल्यू में तैनात उपनिदेशक (सीनियर स्केल), उपनिदेशक, वरिष्ठï चिकित्सा अधिकारी, चिकित्सा अधिकारियों तथा दंत चिकित्सकों को सप्ताह में 2 दिन क्लिनिकल ड्यूटी करनी होगी। इसी प्रकार आयुष विभाग के जिला आयुर्वेदिक अधिकारियों को भी सप्ताह में 2 दिन चिकित्सीय कार्य करना होगा।
विज ने बताया कि प्रशासनिक पदों पर तैनात चिकित्सकों को चिकित्सकीय कार्यों के लिए अपना अस्पताल चयन करने की छूट होगी। इसके लिए स्वास्थ्य महानिदेशक द्वारा चिकित्सीय ड्यूटी का पूरा रिकार्ड रखा जाएगा तथा क्लिनिकल ड्यूटी नही करने वाले चिकित्सक के खिलाफ नियमानुसार सख्त कार्रवाई की जाएगी। इसके लिए चिकित्सकों को अलग से कोई मानदेय नही दिया जाएगा परन्तु अन्य स्थान पर ड्यूटी के लिए टीए/डीए के हकदार होंगे। इस संबंध में निरीक्षण रिपोर्ट प्रत्येक सप्ताह संकलित की जाएगी।

रक्षा मंत्री सीतारमण ने अमरनाथ यात्रा की सुरक्षा व्यवस्था को सुनिश्चित किया

रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने वार्षिक अमरनाथ यात्रा के सुरक्षा इंतजामों की समीक्षा के लिए सोमवार को जम्मू एवं कश्मीर के बालटाल बेस कैंप का दौरा किया। रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों ने कहा कि सीतारमण ने सेना के वरिष्ठ कमांडरों के साथ अमरनाथ यात्रा के लिए तीन स्तरीय सुरक्षा इंतजामों का जायजा लिया। अमरनाथ यात्रा 28 जून से शुरू हो रही है।

शीतकालीन राजधानी जम्मू से बालटाल और दक्षिण कश्मीर के पहलगाम के दो बेस कैंप से लगभग 400 किलोमीटर यात्रा मार्ग को सुरक्षित रखने के लिए अद्र्धसैनिक बलों की 213 अतिरिक्त कंपनियां तैनात की गई हैं। अमरनाथ गुफा समुद्र तल से 12,756 फीट की ऊंचाई पर है।

तीर्थयात्रियों को पहलगाम रास्ते से तीर्थस्थल पहुंचने में चार दिनों का समय लगता है। बालटाल मार्ग से जाने वाले लोग अमरनाथ गुफा में प्रार्थना करने के बाद उसी दिन बेस कैंप लौटते हैं। दोनों मार्गों पर हेलीकॉप्टर सेवा भी उपलब्ध है।

आम आदमी खुश हुआ, दिल्ली में अब नहीं कटेंगे पेड़


  • पेड़ कटाई मामले पर विवाद खड़ा होने के बाद एनजीटी इस पर 2 जुलाई को सुनवाई करेगा
  • क्या किसी भी प्रकार के विकास के नाम पर पेड़ों का काटना ही एक मात्र विकल्प है?
  • क्या हम पेड़ों का स्थानान्त्र्ण नहीं कर सकते?
  • क्या हमारे हॉर्टिकल्चर विभाग के लोग इस कार्य में दक्ष नहीं हैं?

दक्षिण दिल्ली के कई इलाकों में मकान बनाने के नाम पर सरकारी विभाग द्वारा 16 हजार पेड़ों की कटाई का मामला तूल पकड़ने लगा है. दिल्ली हाईकोर्ट ने इसे लेकर दाखिल याचिका पर सुनवाई करते हुए 4 जुलाई तक पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दिया है.

कोर्ट ने 4 जुलाई को इस मामले की अगली सुनवाई की तारीख मुकर्रर की है.

कोर्ट ने सुनवाई के दौरान नेशनल बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन कोर्पोरेशन (एनबीसीसी) से पूछा कि- क्या दिल्ली सड़कों के और इमारतों के विकास के लिए पेड़ों की कटाई की कीमत चुका सकता है? इसपर एनबीसीसी की ओर से कहा गया कि एनजीटी में ये मामला बहुत साल चला और अंत मे एनजीटी ने पेड़ काटने की अनुमति दे दी.

एनबीसीसी और पीडब्ल्यूडी ने कोर्ट को आश्वासन दिया है कि अगली सुनवाई तक वो पेड़ों को नहीं काटेंगे.

आम आदमी, अपनी सरकार के फैसलों पर रोक से खुश अब पेड़ नहीं कटेंगे

बता दें कि वकील के के मिश्रा ने पेड़ों की कटाई पर रोक लगाने के लिए दिल्ली हाईकोर्ट में जनहित याचिका (पीआईएल) दाखिल की थी. मिश्रा ने कहा कि सरकार दक्षिण दिल्ली में 20 हजार से भी ज्यादा पेड़ों को काटना चाहती है.

उन्होंने सीएजी की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि दिल्ली में 9 लाख पेड़ों की पहले से कमी है.

वहीं राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) 2 जुलाई को इस मामले की सुनवाई करेगा.

बयान विवादित है


हरियाणवी डांसर और लोक गायक सपना चौधरी लोकसभा और विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के लिए प्रचार कर सकती है


हरियाणवी डांसर और लोक गायक सपना चौधरी लोकसभा और विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के लिए प्रचार कर सकती हैं। बीते शुक्रवार को सपना चौधरी कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और उनकी मां सोनिया गांधी से मुलाकात करने दिल्ली पहुंचीं थी। सपना चौधरी के कांग्रेस में शामिल होने की अटकलों पर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) सांसद ने विवादित बयान दिया है। करनाल से सासंद अश्विनी कुमार चोपड़ा ने कहा कि कांग्रेस को देखना है कि उन्हें ठुमके लगाने वाले चाहिए या चुनाव जीतने वाला।
सासंद अश्विनी कुमार चोपड़ा ने कहा, कांग्रेस में ठुमके लगाने वाले जो हैं, वही ठुमके लगाएंगे, ये उनको देखना है कि ठुमके लगाने हैं या चुनाव जीतना है।
आपको बता दें कि 22 जून को सपना चौधरी कांग्रेस मुख्यालय गई थी और कांग्रेस की वरिष्ठ नेता सोनिया गांधी और पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी से प्रभावित होने की बात कही थी। कांग्रेस मुख्यालय पहुंचने के बाद सपना ने संवाददाताओं से कहा था, मुझे सोनिया, राहुल और प्रियंका गांधी बहुत अच्छी लगती हैं। मैं उनसे मिलने पहुंची थी लेकिन उनसे नहीं मिल पाई। जल्द ही मैं उनसे मिलूंगी।