हिन्दू ही क्यों धर्मनिरपेक्ष रहते हैं?

हिंदुओं के कंधों पर धर्मनिरपेक्षता की जो जिम्मेदारी वर्ष 1947 में डाल दी गई थी, हिंदू आज भी उसी जिम्मेदारी का पालन करते आ रहे हैं और बहुसंख्यक होने के बावजूद हिंदू आसानी से ध्रुवीकरण का शिकार नहीं होते. जबकि मुसलमानों के बीच ये ट्रेंड देखा जाता है कि जब भी उन्हें किसी पार्टी की नीतियों से खतरा लगता है तो वो उसकी विरोधी पार्टी को चुनाव में भारी अंतर से जिता देते हैं. अब आप ये सोचिए कि अगर मोहम्मद अली जिन्ना का 14 सूत्रीय कार्यक्रम आज के भारत में लागू होता तो स्थिति क्या होती?

तब ऐसी सीटों पर शायद हिंदुओं को वोटिंग का अधिकार भी नहीं होता. मुसलमान अपनी सीटों पर अपना उम्मीदवार चुनते जबकि हिंदू धर्मनिरपेक्षता को जिताने के लिए वोट डालते. दुनिया में करीब 50 देश ऐसे हैं जिनकी बहुसंख्यक आबादी मुस्लिम है. इनमें से करीब 20 देश खुद को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं लेकिन इनमें से भी ज्यादातर देशों में धर्मनिरपेक्षता सिर्फ नाम की है. इस्लाम में मूल रूप से धर्मनिरपेक्षता की कोई बात नहीं की गई है. अरबी भाषा में धर्मनिरपेक्षता जैसा कोई शब्द नहीं है.इसका कारण शायद ये है कि इस्लाम राजनीति और धर्म को अलग करके नहीं देखता है. जबकि साधारण भाषा में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है राज्य का धर्म से दूर रहना. यानी सभी धर्मों के प्रति तटस्थ बने रहना.लेकिन दुनिया के ज्यादातर मुस्लिम देशों में सरकारें खुद को धर्म से अलग नहीं रखतीं. इसलिए दुनिया के लगभग किसी भी इस्लामिक देश में कोई गैर मुस्लिम व्यक्ति राष्ट्र अध्यक्ष बनने का सपना भी नहीं देख सकता है.

दिल्ली चुनाव के नतीजे आने के बाद हमारे अंतरराष्ट्रीय सहयोगी चैनल WION ने दिल्ली के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर नजीब जंग से बात की थी.नजीब जंग का कहना था कि भारत अपनी बहुसंख्यक आबादी की वजह से धर्मनिरपेक्ष है. ना कि अल्पसंख्यक आबादी की वजह से. Pew Research Center के मुताबिक 2050 तक भारत में मुस्लिम आबादी 30 करोड़ से ज्यादा हो जाएगी और तब भारत दुनिया में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला देश होगा लेकिन समस्या मुसलमान आबादी का बढ़ना नहीं है. समस्या ये है कि भारत के मुसलमानों का तेजी से वहाबी करण किया जा रहा है. यानी उन्हें कट्टर इस्लाम की तरफ मोड़ा जा रहा है. इस्लाम के कट्टर रूप को सर्वश्रेष्ठ मानने वाले विकास की नहीं बल्कि शरिया की बात करते हैं. बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी वाले शहरों के शरियाकरण की शुरुआत सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के कई विकसित देशों में भी हो चुकी है. ऐसा ही एक देश ब्रिटेन है.ब्रिटेन ने ही आज़ादी से पहले भारत के हिंदुओं और मुसलमानों को बांटने की कोशिश की थी लेकिन आज ब्रिटेन के ही कई शहर ऐसे हैं जहां मुस्लिमों की आबादी मूल निवासियों से ज्यादा होने लगी है.

ब्रिटेन का बर्मिंघम (Birmingham)‌ भी एक ऐसा ही शहर बन चुका है.जहां कुछ वर्षों में मुसलमानों की संख्या मूल निवासियों से ज्यादा हो जाएगी. बर्मिंघम में 200 देशों से आए लोग रहते हैं.लेकिन इनमें बड़ी संख्या मुस्लिम अप्रवासियों की है. अमेरिकी मीडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक बर्मिंघम में कई ऐसे नो गो जोन बन चुके हैं, जहां गैर मुस्लिमों का जाना प्रतिबंधित है. इस रिपोर्ट के मुताबिक बर्मिंघम शहर ब्रिटेन में जेहादी विचारधारा की राजधानी बन गया है. बर्मिंघम के कई इलाके ऐसे हैं जहां 70 प्रतिशत से भी ज्यादा मुस्लिम आबादी रहती है. इन इलाकों में अपराध का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है. ब्रिटिश मीडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक ब्रिटेन में जेल की सजा भुगत रहे 250 आतंकवादियों में से 26 का रिश्ता बर्मिंघम से ही था.

बर्मिंघम का प्रतिनिधित्व 10 सांसद करते हैं जिनमें से 3 मुस्लिम हैं. बर्मिंघम में भी तुष्टिकरण और ध्रुवीकरण की राजनीति का हाल भारत के कई राज्यों जैसा ही है. इसलिए ब्रिटेन का जो शहर कभी विकास के लिए जाना जाता था, वो अब कट्टर इस्लाम और जेहादी विचरधारा का केंद्र बन गया है. कुल मिलाकर सिर्फ 60 वर्षों में बर्मिंघम विकास के केंद्र से कट्टर इस्लाम के केंद्र में बदल गया और अब वहां की पूरी डेमोग्राफी बदलने लगी और वहां के बहुसंख्य अंग्रेज़ कुछ ही वर्षों में अल्पसंख्यक बन जाएंगे. 

तस्वीर सिर्फ दिल्ली और बर्मिंघम  की ही नहीं बदल रही बल्कि हमारे देश की राजनीतिक तस्वीर भी तेज़ी से बदल रही है. इसलिए अगला विश्लेषण शुरू करने से पहले हम आपको एक तस्वीर दिखाना चाहते हैं. ये तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल है. इस तस्वीर में दो राजनीतिक दलों के चुनाव चिह्न दिख रहे हैं.कांग्रेस का चुनाव निशान हाथ.और आम आदमी पार्टी का चुनाव निशान झाड़ू.लेकिन, तस्वीर में जो संदेश दिया गया है, वो ये है कि…कांग्रेस का हाथ अपनी पहचान खो चुका है और ये हाथ आखिरकार अपना रूप बदलकर झाड़ू में तब्दील हो चुका है.

तो क्या ये मान लिया जाए कि कांग्रेस का अपना कोई अस्तित्व नहीं रह गया है और कांग्रेस अब सिर्फ आम आदमी पार्टी के भरोसे है? हमने जो सवाल उठाया है, वो खुद कांग्रेस के नेता भी सार्वजनिक तौर पर उठा रहे हैं. कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता, दिल्ली महिला कांग्रेस की अध्यक्ष और पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी ने ट्विटर पर कांग्रेस नेता और पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम को जो जवाब दिया है, उस पर आपको ध्यान देना चाहिए.

चिदंबरम ने दिल्ली चुनाव के नतीजों पर खुशी जताते हुए कहा था कि दिल्ली के लोगों ने AAP को जिता दिया और बीजेपी के खतरनाक एजेंडे को हरा दिया.इस पर शर्मिष्ठा मुखर्जी ने चिदंबरम से पूछा है कि क्या कांग्रेस ने बीजेपी को हराने की ज़िम्मेदारी क्षेत्रीय दलों को सौंप दी है ? शर्मिष्ठा का सवाल है कि कांग्रेस पार्टी AAP की जीत पर खुश होने के बदले अपनी हार की चिंता क्यों नहीं करती है और ऐसे में क्यों ना प्रदेश कांग्रेस कमेटियों को बंद कर दिया जाए? 

दरअसल कांग्रेस लगातार दूसरी बार दिल्ली विधानसभा चुनाव में अपना खाता नहीं खोल पाई है.यानी पार्टी का एक भी उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत पाया.इतना ही नहीं, पिछले चुनावों से दिल्ली में कांग्रेस का वोट शेयर भी लगातार कम होता गया और AAP का वोट प्रतिशत लगातार बढ़ता गया. जो तस्वीर हमने आपको शुरुआत में दिखाई थी, वो अब आंकड़ों के साथ देखिए.कांग्रेस को वर्ष 2008 में दिल्ली में 40 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि ये वोट शेयर घटते-घटते इस चुनाव में करीब 4 प्रतिशत पर पहुंच गया. दूसरी ओर आम आदमी पार्टी ने पिछले तीन विधानसभा चुनावों में शानदार प्रदर्शन किया.और इस चुनाव में करीब 53 फीसदी वोट हासिल किए हैं. कहा ये भी जा रहा है कि AAP को जो वोट मिले हैं, वो कांग्रेस के ही वोट हैं.यानी कांग्रेस के पंजे ने जो ताकत खोई है, वो ताकत AAP की झाड़ू को ही मिली है.

कांग्रेस इस देश की सबसे पुरानी पार्टी है, उसका जन्म 1885 में हुआ था.जबकि आम आदमी पार्टी का जन्म 2012 में हुआ.देखा जाए तो कांग्रेस उम्र में AAP से 127 साल बड़ी है.लेकिन, ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने खुद से 127 वर्ष छोटी पार्टी के आगे सरेंडर कर दिया है.AAP को अगर दिल्ली की राजनीति का सबसे सफल startup माना जाए तो ये भी कहा जा सकता है कि AAP ने दिल्ली में अब कांग्रेस को मर्ज कर लिया है.

क्या बंगाल बिहार में भी होगा शाहीन बाग वाला प्रयोग?

चुनाव परिणाम आते ही दिल्ली में शाहीन बाग की राजनीति का पटाक्षेप हो गया। धरना उठा लिया गया। शाहीन बाग भाजपा के विपक्षी दलों द्वारा प्रायोजित था। अब चूंकि यह प्रयोग सफल रहा विपक्षी दल इसे अपने अपने क्षेत्र में चुनावों के दौरान आजमाएंगे। और ध्रुवीकरण में सफल भी होंगे। अब भाजपा को इस नए अस्त्र की काट तालाशनी होगी, जो फिलवक्त भाजपा के चाणक्यों के पास नहीं है। अब इसी अस्त्र का किस प्रकार और कहाँ प्रयोग होगा यह तो समय ही बताएगा परंतु यह तय है की इसका प्रयोग होगा ज़रूर।

इस समय राष्ट्रीय राजनीति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कोई विकल्प नहीं है और उनके खिलाफ मुकाबले के लिए विपक्ष के पास कोई बड़ा चेहरा भी नहीं है. विपक्ष में एक तरफ शरद पवार, ममता बनर्जी, एम के स्टालिन और चंद्रबाबू नायडू जैसे नेता हैं तो दूसरी ओर राहुल गांधी और सोनिया गांधी जिनका महत्व लगातार कम हो रहा है. ऐसी स्थिति में अरविंद केजरीवाल विपक्ष के पोस्टर ब्वॉय बनने का दावा कर सकते हैं. अरविंद केजरीवाल ये कह सकते हैं कि देश की राजनीति में मोदी का विजय रथ रोकने की क्षमता उन्हीं में है. उन्होंने दिल्ली की लड़ाई में मोदी को लगातार दो बार हराया है.

Ravirendra-Vashisht
राजविरेन्द्र वशिष्ठ, संपादक
demoraticfront.com

देश में फिर से ‘मोदी बनाम ऑल’ की जंग शुरू हो गई है. विपक्ष आम आदमी पार्टी (AAP) की जीत में अपनी जीत देख रहा है. विपक्ष को मोदी का विकल्प केजरीवाल में दिख रहा है. दिल्ली में AAP की जीत पर शिवसेना बीजेपी पर निशाना साधा है. सामना में लिखा है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की हवाबाज नीति नाकाम हो गई. दिल्ली-मुंबई में AAP-शिवसेना का सीएम होना बीजेपी के लिए कलेजा चीरने वाला है. वहीं कांग्रेस के नेता कुछ इस अंदाज में बधाई दे रहे है जैसे कि आम आदमी पार्टी नहीं कांग्रेस जीती हो. मोदी के खिलाफ विपक्ष  ‘हसीन सपने’ देख रहा है. 

एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार ने कहा, “दिल्ली में पूरा देश बसा है. अब उनको परिवर्तन के लिए एक नया कोई रास्ता चाहिए ये बात देश के सामने उन्होंने दिखाया है. ये जो नतीजे हैं इससे देश में आगे जब चुनाव आएगा, तब क्या होगा इसकी एक झलक इससे साफ हो रही है.” नेता कांग्रेस पीएल पुनिया ने कहा, “बीजेपी और उनकी राजनीति को हराया जा सकता है. अच्छी तरह से ये एक संकेत है.” 

इस समय राष्ट्रीय राजनीति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कोई विकल्प नहीं है और उनके खिलाफ मुकाबले के लिए विपक्ष के पास कोई बड़ा चेहरा भी नहीं है. विपक्ष में एक तरफ शरद पवार, ममता बनर्जी, एम के स्टालिन और चंद्रबाबू नायडू जैसे नेता हैं तो दूसरी ओर राहुल गांधी और सोनिया गांधी जिनका महत्व लगातार कम हो रहा है. ऐसी स्थिति में अरविंद केजरीवाल विपक्ष के पोस्टर ब्वॉय बनने का दावा कर सकते हैं. अरविंद केजरीवाल ये कह सकते हैं कि देश की राजनीति में बीजेपी का विजय रथ रोकने की क्षमता उन्हीं में है. उन्होंने दिल्ली की लड़ाई में बीजेपी को दो बार हराया है. आने वाले समय में हो सकता है कि अरविंद केजरीवाल खुद को एक राष्ट्रीय नेता और आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी बताकर दूसरे राज्यों में भी प्रचार करें. अरविंद केजरीवाल जानते हैं कि अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विकल्प बनना है तो उन्हें राष्ट्रवाद और हिंदुत्व अपनाना ही होगा. 

अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के चुनाव में सॉफ्ट हिंदुत्व का भी सहारा लिया. चुनाव-प्रचार के दौरान उन्होंने हनुमान चालीसा का पाठ किया था तो आज जीत के बाद उन्होंने मंदिर जाकर हनुमान जी के दर्शन किए. इसके जरिए उन्होंने ये जताने की कोशिश की है कि वो सॉफ्ट हिंदुत्व का एक मजबूत चेहरा भी बन सकते हैं. यानी अरविंद केजरीवाल अपनी ऐसी छवि बनाने की कोशिश में हैं जिसमें विकास, राष्ट्रवाद और सॉफ्ट हिंदुत्व तीनों हो.

आज फिर संविधान के कुछ पन्ने बचाने में नाकामयाब रही काँग्रेस

संपादक
डेमोक्रेटिक्फ्र्ण्ट॰ कॉ

जब से मोदी सरकार ने अपना दूसरा कार्यकाल आरंभ किया है तभी से संविधान खतरे में आ गया है। तीन राज्य जीतने के पश्चात कांग्रेस के सुर बदल चुके हैं। पिछली चुनावी रैलियों में राहुल गांधी चुनाव प्रचार में मोदी को चोर कह कर बुलाते थे अब दिल्ली चुनावों में तो उन्होने मोदी को डंडे मारने का दंड भी सुना दिया। भारत के चुने हुए प्रधानमंत्री को दंड सुना देना और वह भी विपक्ष के एक साधारण सांसद द्वारा न केवल अशोभनीय है अपितु घोर निंदनीय है। परंतु राहुल और उसके दल को लगता है की संविधान खतरे में है। आज संसद भवन में प्रश्नकाल के दौरान डॉ॰ हर्षवर्धन और भाजपा ने सोचा भी नहीं होगा की डॉ॰ हर्षवर्धन का राहुल गांधी से उसके प्रधान मंत्री मोदी के लिए दिये गए घृणा से भरे हुए भाषण के लिए राहुल से माफी की मांग करना इतना भारी पड़ जाएगा की सदन ई गरिमा को तार तार करते हुए कोंग्रेसी सांसद उनसे हाथा पाई करने को लपक पड़ेंगे। सत्ता पक्ष के कुछ सांसदों द्वारा बीच बचाव किया गया अन्यथा आज काँग्रेस ने तो संविधान के कुछ पन्ने बचा ही लिए थे।

23 जनवरी, नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की 123वीं जयंती पर विशेष

उल्लेखनीय है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने 30 दिसंबर 1943 को पोर्ट ब्लेयर की सेल्युलर जेल में पहली बार तिरंगा फहराया था।

युद्धवीर सिंह लांबा,

नेताजी सुभाष चंद्र बोस एक ऐसे महान क्रांतिकारी थे, जिन्होंने अपने विचारों से देश के लाखों लोगों को प्रेरित किया था, आज नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 123वीं जयंती है । भारत की आजादी में अहम योगदान देने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में एक संपन्न बंगाली परिवार में हुआ था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के पिता का नाम ‘जानकीनाथ बोस’ और मां का नाम ‘प्रभावती’ था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल मिलाकर 14 संतानें थी, जिसमें 6 बेटियां और 8 बेटे थे। सुभाष चंद्र बोस उनकी नौवीं संतान और पांचवें बेटे थे।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अपनी प्रारंभिक पढ़ाई कटक के रेवेंशॉव कॉलेजिएट स्कूल में हुई। तत्पश्चात् उनकी शिक्षा कलकत्ता के प्रेजीडेंसी कॉलेज और स्कॉटिश चर्च कॉलेज से हुई । सुभाष चंद्र बोस के पिता जानकीनाथ बोस की इच्छा थी कि सुभाष आईसीएस बनें। यह उस जमाने की सबसे कठिन परीक्षा होती थी। इण्डियन सिविल सर्विस की तैयारी के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस इंग्लैंड के केंब्रिज विश्वविद्यालय चले गए। उन्होंने 1920 में चौथा स्थान प्राप्त करते हुए आईसीएस की परीक्षा पास कर ली।  1921 में भारत में बढ़ती राजनीतिक गतिविधियों का समाचार पाकर बोस ने अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली और  जून 1921 में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान में ट्राइपास (ऑनर्स) की डिग्री के साथ स्वदेश वापस लौट आये। सिविल सर्विस छोड़ने के बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जुड़ गए।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक, आजाद हिन्द फौज के संस्थापक और जय हिन्द और ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा’ का नारा देने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अंग्रेजों से कई बार लोहा लिया, इस दौरान ब्रिटिश सरकार ने उनके खिलाफ कई मुकदमें दर्ज किए जिसका नतीजा ये हुआ कि सुभाष चंद्र बोस को अपने जीवन में 11 बार जेल जाना पड़ा। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस 16 जुलाई 1921 को पहली बार, 1925 में दूसरी बार जेल गए थे ।

आजाद हिंद फौज की स्थापना टोक्यो (जापान) में 1942 में रासबिहारी बोस ने की थी लेकिन नेताजी सुभाष चंद्र बोस के रेडियो पर किए गए एक आह्वान के बाद रासबिहारी बोस ने 4 जुलाई 1943 को नेताजी सुभाष को इसका नेतृत्व सौंप दिया । नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आज़ाद हिन्द फौज में ही एक महिला बटालियन भी गठित की, जिसमें उन्होंने रानी झांसी रेजिमेंट का गठन किया था और उसकी कैप्टन लक्ष्मी सहगल थी ।

उल्लेखनीय है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने 30 दिसंबर 1943 को पोर्ट ब्लेयर की सेल्युलर जेल में पहली बार तिरंगा फहराया था।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने सिंगापुर में 1943 में 21 अक्टूबर के दिन आजाद हिंद फौज के सर्वोच्च सेनापति के रूप में स्वतंत्र भारत की प्रांतीय सरकार बनाई। इस सरकार को जापान, जर्मनी, इटली और उसके तत्कालीन सहयोगी देशों का समर्थन मिलने के बाद भारत में अंग्रेजों की हुकूमत की जड़े हिलने लगी थी।

महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहकर संबोधित किया जाता है, लेकिन बहुत कम लोग इस बात को जानते हैं कि उन्हें यह उपाधि किसने दी थी? महात्मा गांधी को सबसे पहले नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने राष्ट्रपिता कहा था, बात 4 जून 1944 की है जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने सिंगापुर में एक रेडियो संदेश प्रसारित करते हुए महात्मा गांधी को पहली बार ‘राष्ट्रपिता’ कहकर संबोधित किया था।

पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को मरणोपरांत भारत रत्न देने का प्रस्ताव किया था। यहां तक कि इस संबंध में प्रेस विज्ञप्ति तक जारी कर दी गई थी।  तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने 10 अक्टूबर 1991 को राष्ट्रपति आर वेंकटरमन को एक खत लिखा था। पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने लिखा था, ‘भारत सरकार सुभाषचंद्र बोस के देश के लिए दिए अमूल्य योगदान और स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी का सम्मान करते हुए उन्हें मरणोपरांत देश का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न देने का प्रस्ताव करती है’भारत सरकार ने इसके लिए खास आयोजन करने का सुझाव दिया था । इसके बाद नरसिम्हा राव ने राष्ट्रपति वेंकटरमन को एक और खत लिखा । उसमें कहा गया था कि अच्छा होगा अगर नेताजी को भारत रत्न देने का ऐलान 23 जनवरी को किया जाए. इस दिन सुभाषचंद्र बोस का जन्मदिन भी है । नरसिम्हा राव ने लिखा था कि मेरा दफ्तर इस बारे में निरंतर आपसे संपर्क स्थापित करता रहेगा

मेरा मानना है कि हमें नेताजी सुभाष चंद्र बोस जी के बताए हुए मार्ग पर चलना चाहिए। जब तक हम उनकी दी गई शिक्षाओं को नहीं अपनाते तब तक हमारा जीवन अधूरा है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस देश के ऐसे महानायकों में से एक हैं जिन्होंने आजादी की लड़ाई के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। 

स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता सुभाष चन्द्र बोस लोगों के प्रेरणास्त्रोत रहे हैं। मेरा यह मानना है कि नेताजी आज भी हमारे दिलों में बसते हैं। देश को आजादी दिलाने में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। आज के युवाओं को भी उनके पद चिन्हों पर चलते हुए देश सेवा में अपना योगदान करना चाहिए।     

लेखक: युद्धवीर सिंह लांबा, रजिस्ट्रार, दिल्ली टेक्निकल कैंपस, बहादुरगढ़.

जब छोटे-छोटे पड़ोसी मुल्कों में हैं नागरिकता रजिस्टर कानून! भारत में ही NRC का विरोध क्यों?

भारत में अवैध घुसपैठिए से किसको फायदा हो रहा है, ये घुसपैठिए किसके वोट बैंक बने हुए हैं। अभी हाल में पश्चिम बंगाल में बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष ने दावा किया कि बंगाल में तकरीबन 50 लाख मुस्लिम घुसपैठिए हैं, जिनकी पहचान की जानी है और उन्हें देश से बाहर किया जाएगा। बीजेपी नेता के दावे में अगर सच्चाई है तो पश्चिम बंगाल में मौजूद 50 घुसपैठियों का नाम अगर मतदाता सूची से हटा दिया गया तो सबसे अधिक नुकसान किसी का होगा तो वो पार्टी होगी टीएमसी को होगा, जो एनआरसी का सबसे अधिक विरोध कर रही है और एनआरसी के लिए मरने और मारने पर उतारू हैं।

नयी दिल्ली

असम एनआरसी के बाद पूरे भारत में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) बनाने की कवायद भले ही अभी पाइपलाइन में हो और इसका विरोध शुरू हो गया है, लेकिन क्या आपको मालूम है कि भारत के सरहद से सटे लगभग सभी पड़ोसी मुल्क मसलन पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका जैसे देशों में नागरिकता रजिस्टर कानून है।

पाकिस्तान में नागरिकता रजिस्टर को CNIC, अफगानिस्तान में E-Tazkira,बांग्लादेश में NID, नेपाल में राष्ट्रीय पहचानपत्र और श्रीलंका में NIC के नाम से जाना जाता है। सवाल है कि आखिर भारत में ही क्यों राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (NRC)कानून बनाने को लेकर बवाल हो रहा है। यह इसलिए भी लाजिमी है, क्योंकि आजादी के 73वें वर्ष में भी भारत के नागरिकों को रजिस्टर करने की कवायद क्यों नहीं शुरू की गई। क्या भारत धर्मशाला है, जहां किसी भी देश का नागरिक मुंह उठाए बॉर्डर पार करके दाखिल हो जाता है या दाखिल कराया जा रहा है।

भारत में अवैध घुसपैठिए से किसको फायदा हो रहा है, ये घुसपैठिए किसके वोट बैंक बने हुए हैं। अभी हाल में पश्चिम बंगाल में बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष ने दावा किया कि बंगाल में तकरीबन 50 लाख मुस्लिम घुसपैठिए हैं, जिनकी पहचान की जानी है और उन्हें देश से बाहर किया जाएगा। बीजेपी नेता के दावे में अगर सच्चाई है तो पश्चिम बंगाल में मौजूद 50 घुसपैठियों का नाम अगर मतदाता सूची से हटा दिया गया तो सबसे अधिक नुकसान किसी का होगा तो वो पार्टी होगी टीएमसी को होगा, जो एनआरसी का सबसे अधिक विरोध कर रही है और एनआरसी के लिए मरने और मारने पर उतारू हैं।

बीजेपी नेता के मुताबिक अगर पश्चिम बंगाल से 50 लाख घुसैपठियों को नाम मतदाता सूची से हटा दिया गया तो टीएमसी प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के वोट प्रदेश में कम हो जाएगा और आगामी विधानसभा चुनाव में बीजेपी को कम से कम 200 सीटें मिलेंगी और टीएमसी 50 सीटों पर सिमट जाएगी। बीजेपी नेता दावा राजनीतिक भी हो सकता है, लेकिन आंकड़ों पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि उनका दावा सही पाया गया है और असम के बाद पश्चिम बंगाल दूसरा ऐसा प्रदेश है, जहां सर्वाधिक संख्या में अवैध घुसपैठिए डेरा जमाया हुआ है, जिन्हें पहले पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकारों ने वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया।

ममता बनर्जी अब भारत में अवैध रूप से घुसे घुसपैठियों का पालन-पोषण वोट बैंक के तौर पर कर रही हैं। वर्ष 2005 में जब पश्चिम बंगला में वामपंथी सरकार थी जब ममता बनर्जी ने कहा था कि पश्चिम बंगाल में घुसपैठ आपदा बन गया है और वोटर लिस्ट में बांग्लादेशी नागरिक भी शामिल हो गए हैं। दिवंगत अरुण जेटली ने ममता बनर्जी के उस बयान को री-ट्वीट भी किया, जिसमें उन्होंने लिखा, ‘4 अगस्त 2005 को ममता बनर्जी ने लोकसभा में कहा था कि बंगाल में घुसपैठ आपदा बन गया है, लेकिन वर्तमान में पश्चिम बंगाल में वही घुसपैठिए ममता बनर्जी को जान से प्यारे हो गए है।

क्योंकि उनके एकमुश्त वोट से प्रदेश में टीएमसी लगातार तीन बार प्रदेश में सत्ता का सुख भोग रही है। शायद यही वजह है कि एनआरसी को लेकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सबसे अधिक मुखर है, क्योंकि एनआरसी लागू हुआ तो कथित 50 लाख घुसपैठिए को बाहर कर दिया जाएगा। गौरतलब है असम इकलौता राज्य है जहां नेशनल सिटीजन रजिस्टर लागू किया गया। सरकार की यह कवायद असम में अवैध रूप से रह रहे अवैध घुसपैठिए का बाहर निकालने के लिए किया था। एक अनुमान के मुताबिक असम में करीब 50 लाख बांग्लादेशी गैरकानूनी तरीके से रह रहे हैं। यह किसी भी राष्ट्र में गैरकानूनी तरीके से रह रहे किसी एक देश के प्रवासियों की सबसे बड़ी संख्या थी।

दिलचस्प बात यह है कि असम में कुल सात बार एनआरसी जारी करने की कोशिशें हुईं, लेकिन राजनीतिक कारणों से यह नहीं हो सका। याद कीजिए, असम में सबसे अधिक बार कांग्रेस सत्ता में रही है और वर्ष 2016 विधानसभा चुनाव में बीजेपी पहली बार असम की सत्ता में काबिज हुई है। दरअसल, 80 के दशक में असम में अवैध घुसपैठिओं को असम से बाहर करने के लिए छात्रों ने आंदोलन किया था। इसके बाद असम गण परिषद और तत्कालीन राजीव गांधी सरकार के बीच समझौता हुआ। समझौते में कहा गया कि 1971 तक जो भी बांग्लादेशी असम में घुसे, उन्हें नागरिकता दी जाएगी और बाकी को निर्वासित किया जाएगा।

लेकिन इसे अमल में नहीं लाया जा सका और वर्ष 2013 में मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। अंत में अदालती आदेश के बाद असम एनआरसी की लिस्ट जारी की गई। असम की राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर सूची में कुल तीन करोड़ से अधिक लोग शामिल होने के योग्य पाए गए जबकि 50 लाख लोग अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाए, जिनमें हिंदू और मुस्लिम दोनों शामिल हैं। सवाल सीधा है कि जब देश में अवैध घुसपैठिए की पहचान होनी जरूरी है तो एनआरसी का विरोध क्यूं हो रहा है, इसका सीधा मतलब राजनीतिक है, जिन्हें राजनीतिक पार्टियों से सत्ता तक पहुंचने के लिए सीढ़ी बनाकर वर्षों से इस्तेमाल करती आ रही है। शायद यही कारण है कि भारत में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर जैसे कानून की कवायद को कम तवज्जो दिया गया।

असम में एनआरसी सुप्रीम कोर्ट की दखल के बाद संपन्न कराया जा सका और जब एनआरसी जारी हुआ तो 50 लाख लोग नागरिकता साबित करने में असमर्थ पाए गए। जरूरी नहीं है कि जो नागरिकता साबित नहीं कर पाए है वो सभी घुसपैठिए हो, यही कारण है कि असम एनआरसी के परिपेच्छ में पूरे देश में एनआरसी लागू करने का विरोध हो रहा है। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि भारत में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर नहीं होना चाहिए। भारत में अभी एनआरसी पाइपलाइन का हिस्सा है, जिसकी अभी ड्राफ्टिंग होनी है। फिलहाल सीएए के विरोध को देखते हुए मोदी सरकार ने एनआरसी को पीछे ढकेल दिया है।

पूरे देश में एनआरसी के प्रतिबद्ध केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह कह चुके हैं कि 2024 तक देश के सभी घुसपैठियों को बाहर कर दिया जाएगा। संभवतः गृहमंत्री शाह पूरे देश में एनआरसी लागू करने की ओर इशारा कर रहे थे। यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि देश के विकास के लिए बनाए जाने वाल पैमाने के लिए यह जानना जरूरी है कि भारत में नागरिकों की संख्या कितनी है। पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में, वहां के सभी वयस्क नागरिकों को 18 वर्ष की आयु तक पहुंचने पर एक यूनिक संख्या के साथ कम्प्यूटरीकृत राष्ट्रीय पहचान पत्र (CNIC) के लिए पंजीकरण करना होता है। यह पाकिस्तान के नागरिक के रूप में किसी व्यक्ति की पहचान को प्रमाणित करने के लिए एक पहचान दस्तावेज के रूप में कार्य करता है।

इसी तरह पड़ोसी मुल्क अफगानिस्तान में भी इलेक्ट्रॉनिक अफगान पहचान पत्र (e-Tazkira) वहां के सभी नागरिकों के लिए जारी एक राष्ट्रीय पहचान दस्तावेज है, जो अफगानी नागरिकों की पहचान, निवास और नागरिकता का प्रमाण है। वहीं, पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश, जहां से भारत में अवैध घुसपैठिए के आने की अधिक आशंका है, वहां के नागरिकों के लिए बांग्लादेश सरकार ने राष्ट्रीय पहचान पत्र (NID) कार्ड है, जो प्रत्येक बांग्लादेशी नागरिक को 18 वर्ष की आयु में जारी करने के लिए एक अनिवार्य पहचान दस्तावेज है।

सरकार बांग्लादेश के सभी वयस्क नागरिकों को स्मार्ट एनआईडी कार्ड नि: शुल्क प्रदान करती है। जबकि पड़ोसी मुल्क नेपाल का राष्ट्रीय पहचान पत्र एक संघीय स्तर का पहचान पत्र है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के लिए विशिष्ट पहचान संख्या है जो कि नेपाल के नागरिकों द्वारा उनके बायोमेट्रिक और जनसांख्यिकीय डेटा के आधार पर प्राप्त किया जा सकता है।

पड़ोसी मुल्क श्रीलंका में भी नेशनल आइडेंटिटी कार्ड (NIC) श्रीलंका में उपयोग होने वाला पहचान दस्तावेज है। यह सभी श्रीलंकाई नागरिकों के लिए अनिवार्य है, जो 16 वर्ष की आयु के हैं और अपने एनआईसी के लिए वृद्ध हैं, लेकिन एक भारत ही है, जो धर्मशाला की तरह खुला हुआ है और कोई भी कहीं से आकर यहां बस जाता है और राजनीतिक पार्टियों ने सत्ता के लिए उनका वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करती हैं। भारत में सर्वाधिक घुसपैठियों की संख्या असम, पश्चिम बंगाल, बिहार और झारखंड में बताया जाता है।

भारत सरकार के बॉर्डर मैनेजमेंट टास्क फोर्स की वर्ष 2000 की रिपोर्ट के अनुसार 1.5 करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठ कर चुके हैं और लगभग तीन लाख प्रतिवर्ष घुसपैठ कर रहे हैं। हाल के अनुमान के मुताबिक देश में 4 करोड़ घुसपैठिये मौजूद हैं। पश्चिम बंगाल में वामपंथियों की सरकार ने वोटबैंक की राजनीति को साधने के लिए घुसपैठ की समस्या को विकराल रूप देने का काम किया। कहा जाता है कि तीन दशकों तक राज्य की राजनीति को चलाने वालों ने अपनी व्यक्तिगत राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण देश और राज्य को बारूद की ढेर पर बैठने को मजबूर कर दिया। उसके बाद राज्य की सत्ता में वापसी करने वाली ममता बनर्जी बांग्लादेशी घुसपैठियों के दम पर मुस्लिम वोटबैंक की सबसे बड़ी धुरंधर बन गईं।

भारत में नागरिकता से जुड़ा कानून क्या कहता है?

नागरिकता अधिनियम, 1955 में साफ तौर पर कहा गया है कि 26 जनवरी, 1950 या इसके बाद से लेकर 1 जुलाई, 1987 तक भारत में जन्म लेने वाला कोई व्यक्ति जन्म के आधार पर देश का नागरिक है। 1 जुलाई, 1987 को या इसके बाद, लेकिन नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2003 की शुरुआत से पहले जन्म लेने वाला और उसके माता-पिता में से कोई एक उसके जन्म के समय भारत का नागरिक हो, वह भारत का नागरिक होगा। नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2003 के लागू होने के बाद जन्म लेने वाला कोई व्यक्ति जिसके माता-पिता में से दोनों उसके जन्म के समय भारत के नागरिक हों, देश का नागरिक होगा। इस मामले में असम सिर्फ अपवाद था। 1985 के असम समझौते के मुताबिक, 24 मार्च, 1971 तक राज्य में आने वाले विदेशियों को भारत का नागरिक मानने का प्रावधान था। इस परिप्रेक्ष्य से देखने पर सिर्फ असम ऐसा राज्य था, जहां 24 मार्च, 1974 तक आए विदेशियों को भारत का नागरिक बनाने का प्रावधान था।

क्या है एनआरसी और क्या है इसका मकसद?

एनआरसी या नैशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन बिल का मकसद अवैध रूप से भारत में अवैध रूप से बसे घुसपैठियों को बाहर निकालना है। बता दें कि एनआरसी अभी केवल असम में ही पूरा हुआ है। जबकि देश के गृह मंत्री अमित शाह ये साफ कर चुके हैं कि एनआरसी को पूरे भारत में लागू किया जाएगा। सरकार यह स्पष्ट कर चुकी है कि एनआरसी का भारत के किसी धर्म के नागरिकों से कोई लेना देना नहीं है इसका मकसद केवल भारत से अवैध घुसपैठियों को बाहर निकालना है।

एनआरसी में शामिल होने के लिए क्या जरूरी है? एनआरसी के तहत भारत का नागरिक साबित करने के लिए किसी व्यक्ति को यह साबित करना होगा कि उसके पूर्वज 24 मार्च 1971 से पहले भारत आ गए थे। बता दें कि अवैध बांग्लादेशियों को निकालने के लिए इससे पहले असम में लागू किया गया है। अगले संसद सत्र में इसे पूरे देश में लागू करने का बिल लाया जा सकता है। पूरे भारत में लागू करने के लिए इसके लिए अलग जरूरतें और मसौदा होगा।

एनआरसी के लिए किन दस्तावेजों की जरूरत है?

भारत का वैध नागरिक साबित होने के लिए एक व्यक्ति के पास रिफ्यूजी रजिस्ट्रेशन, आधार कार्ड, जन्म का सर्टिफिकेट, एलआईसी पॉलिसी, सिटिजनशिप सर्टिफिकेट, पासपोर्ट, सरकार के द्वारा जारी किया लाइसेंस या सर्टिफिकेट में से कोई एक होना चाहिए। चूंकि सरकार पूरे देश में जो एनआरसी लाने की बात कर रही है, लेकिन उसके प्रावधान अभी तय नहीं हुए हैं। यह एनआरसी लाने में अभी सरकार को लंबी दूरी तय करनी पडे़गी। उसे एनआरसी का मसौदा तैयार कर संसद के दोनों सदनों से पारित करवाना होगा। फिर राष्ट्रपति के दस्तखत के बाद एनआरसी ऐक्ट अस्तित्व में आएगा। हालांकि, असम की एनआरसी लिस्ट में उन्हें ही जगह दी गई जिन्होंने साबित कर दिया कि वो या उनके पूर्वज 24 मार्च 1971 से पहले भारत आकर बस गए थे।

क्या NRC सिर्फ मुस्लिमों के लिए ही होगा?

किसी भी धर्म को मानने वाले भारतीय नागरिक को CAA या NRC से परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है। एनआरसी का किसी धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। यह भारत के सभी नागरिकों के लिए होगा। यह नागरिकों का केवल एक रजिस्टर है, जिसमें देश के हर नागरिक को अपना नाम दर्ज कराना होगा।

क्या धार्मिक आधार पर लोगों को बाहर रखा जाएगा?

यह बिल्कुल भ्रामक बात है और गलत है। NRC किसी धर्म के बारे में बिल्कुल भी नहीं है। जब NRC लागू किया जाएगा, वह न तो धर्म के आधार पर लागू किया जाएगा और न ही उसे धर्म के आधार पर लागू किया जा सकता है। किसी को भी सिर्फ इस आधार पर बाहर नहीं किया जा सकता कि वह किसी विशेष धर्म को मानने वाला है।

NRC में शामिल न होने वाले लोगों का क्या होगा?

अगर कोई व्यक्ति एनआरसी में शामिल नहीं होता है तो उसे डिटेंशन सेंटर में ले जाया जाएगा जैसा कि असम में किया गया है। इसके बाद सरकार उन देशों से संपर्क करेगी जहां के वो नागरिक हैं। अगर सरकार द्वारा उपलब्ध कराए साक्ष्यों को दूसरे देशों की सरकार मान लेती है तो ऐसे अवैध प्रवासियों को वापस उनके देश भेज दिया जाएगा।

आभार, Shivom Gupta

डिजिटल मीडिया विज्ञापन की पहली पसंद

Sarika Tiwari Editor, demokraticfront.com

आज सुबह ही एक दैनिक अंग्रेजी अखबार पढ़ते समय उसका एडवरटाइजमेंट पुल आउट देखते ही डिजिटल दुनिया के शक्ति प्रदर्शन की ओर ध्यान चला गया कि किस तरह लगातार मीडिया यानी अखबारों में रोजगार के अवसर कम से कमतर होते जा रहे हैं । कारण, मीडिया के बदलते रूप खासकर डिजिटलाइजेशन ने अखबारी दुनिया पर ठोस प्रहार किया है। बड़े-बड़े अखबारों में जहां पहले स्पेस मार्केटिंग और सरकुलेशन के पास संस्थान का बड़ा हिस्सा हुआ करता था वहीं आज विज्ञापन से संबंधित स्टाफ ज्यादा परिणाम नहीं दे पाता।

डिजिटल या कंप्यूटरीकरण से हमारे देखते-देखते काफी बदलाव आए। सबसे पहले संपादन के क्षेत्र में कई पद जैसे कि सब एडिटर चीफ सब एडिटर प्रूफ्रीडर टाइपिस्ट आदि धीरे धीरे लुप्त हो रहे थे लेकिन मार्केटिंग और सरकुलेशन के पास पास आशा की किरण बाकी थी । डिजिटल दुनिया के प्रभाव ने प्रिंट मीडिया से उसके विज्ञापन छीन लिए ।हालांकि अखबार ने अपना अस्तित्व बचाने के लिए नए नए प्रयोग कर रही हैं लेकिन सच माने तो मीडिया के हर एक नए अवतरण का असर सबसे पहले प्रिंट मीडिया पर पड़ता है। पहले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आने से अखबारों के एडवरटाइजिंग रेवेन्यू पर विपरीत असर पड़ा बल्कि सम्पादन टीम भी इलेक्ट्रॉनिक की ओर आकर्षित हुई। जहां पहले रिपोर्टर नाम से जाने जाते थे अब टी वी ने उसे पाठको और दर्शकों से रू-ब-रू कराया। लेकिन आज हम बात कर रहे हैं मीडिया के व्यवसाय की क्योंकि लगातार विज्ञापनदाता भी अब अखबारों की बजाए दूसरे माध्यमों की सेवाएं लेने लगे। डिजिटल मीडिया के आने से बहुत ही कम खर्च और कम समय में ज्यादा लोगों तक पहुंचना फायदेमंद है, हालांकि टीवी अभी भी ट्रेंड में है। वर्ष 2019 के आंकड़े देखें तो सामने आता है कि कुल विज्ञापन का 40% केवल टीवी विज्ञापन में गया। वर्ष 2019 में टीवी का व्यवसाय 15.4% बढा। अध्ययन करने वाली कंपनियों की माने तो वर्ष 2023 तक विज्ञापन वृद्धि लगातार 12.5% बढ़ने की संभावना है ।

अंतरराष्ट्रीय मीडिया ब्रांड अध्ययन संस्था मैग्ना का दावा है कि वर्ष 2020 में डिजिटल विज्ञापन में 15% और विज्ञापन में 25% वृद्धि की संभावना है ।मैग्ना का मानना है डिजिटल इंडस्ट्री का 73 प्रतिशत विज्ञापन मोबाइल के माध्यम से प्रसारित होते हैं ।

भारतीय उपमहाद्वीप में पाकिस्तान में विज्ञापन का 15% डिटेल माध्यम से प्रसारित किया जाता है, श्रीलंका मैं 14 प्रतिशत जबकि भारत 13% के साथ तीसरे स्थान पर है। डिजिटल के बाद टीवी अभी अपनी पकड़ बनाए हुए हैं हालांकि 30% लोग अब डाटा के माध्यम से टीवी देखते हैं फिर भी कुल विज्ञापन का 31% हिस्सा टेलीविजन के पास और इस वर्ष इसमें 14% की वृद्धि संभावित है। रेडियो में विज्ञापन 1. 2 % कम हुए हैं जबकि प्रिंट मीडिया में 8% गिरावट आई है। सोशल मीडिया इस समय विज्ञापन समाचार प्रसारण का बेताज बादशाह बन रहा है। ईमेल मार्केटिंग, ब्लॉगिंग, वीडियो, न्यूज़ और अन्य वेबसाइट पर ट्रैफिक बढ़ाने के लिए हर संभव प्रयत्न किये जा रहे हैं ।

यही कारण है अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी बड़े-बड़े पब्लिकेशन हाउसेस मैं भारी मात्रा में छटनी की गई । पारंपरिक विचारधारा भले ही कि प्रिंट मीडिया की खबर के मुकाबले ज्यादा प्रभावित करती है हालांकि मनोवैज्ञानिकों की माने तो यह काफी हद तक यह सच भी है लेकिन बदलती प्रिंट मीडिया के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है। लेकिन सराहनीय है कि प्रिंट मीडिया ने विचलित होने की बजाय अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए वेब दुनिया में भी अपनी हिस्सेदारी डाल रहा है।

मकर संक्रांति करने योग्य काम

हेमंत किगरं : पूर्व प्रदेश प्रधान ,हरियाणा पंजाबी महासभा

इस बात से तो सब वाकिफ ही हैं कि मकर संक्रांति का दिन हिंदू धर्म में कितने मायने रखता है और साथ ही इस दिन किए जाने वाला दान, तप, स्नान व हवन उससे भी अधिक महत्व रखता है। कहते हैं कि इस दिन किसी पवित्र नदी में स्नान करना चाहिए और कुछ लोग तो पूरे माघ माह ही पवित्र नदियों में स्नान करते हैं। लेकिन जो लोग कहीं नहीं जा पाते व मन में ही भगवान का नाम लेकर नहाने के पानी में गंगा जल मिलाकर स्नान कर सकते हैं। शास्त्रों के अनुसार इस दिन सूर्यदेव की आराधना की जाती है और पूरे माघ महीने में उन्हें जल चढ़ाने से आरोग्यता का वरदान मिलता है। वहीं आज हम आपको एक ऐसे मंत्र के बारे में बताने जा रहे हैं, जिससे कि आपको सूर्य देव से आशीर्वाद मिल सकता है।

 

  • मकर संक्रांति के दिन प्रातकाल स्नान के पश्चात तांबे के लोटे में शुद्ध जल भरकर उसमें लाल पुष्प, लाल चन्दन, तिल आदि डालकर ‘ॐ घृणि सूर्याय नमः’ मंत्र का जप करते हुए सूर्य को अर्घ्य देने से लाभ मिलेगा।
  • माना जाता है कि अर्घ्य देते समय इंसान की दृष्टि गिरते हुए जल में प्रतिबिंबित सूर्य की किरणों पर होनी चाहिए। 
  • भविष्य पुराण के अनुसार सूर्यनारायण का पूजन करने वाला व्यक्ति प्रज्ञा, मेधा तथा सभी समृद्धियों से संपन्न होता हुआ चिरंजीवी होता है। 
  • ऐसा माना गया है कि अगर कोई व्यक्ति सूर्य की मानसिक आराधना भी करता है तो वह समस्त रोगों से रहित होकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है। 

मकर संक्रांति अँग्रेजी साल का पहला हिन्दू त्योहार

उन त्योहार, पर्व या उत्सवों को मनाने का महत्व अधिक है जिनकी उत्पत्ति स्थानीय परम्परा, व्यक्ति विशेष या संस्कृति से न होकर जिनका उल्लेख वैदिक धर्मग्रंथ, धर्मसूत्र और आचार संहिता में मिलता है। ऐसे कुछ पर्व हैं और इनके मनाने के अपने नियम भी हैं। इन पर्वों में सूर्य-चंद्र की संक्रांतियों और कुम्भ का अधिक महत्व है। सूर्य संक्रांति में मकर सक्रांति का महत्व ही अधिक माना गया है। माघ माह में कृष्ण पंचमी को मकर सक्रांति देश के लगभग सभी राज्यों में अलग-अलग सांस्कृतिक रूपों में मनाई जाती है। आओ जानते हैं कि मकर संक्रांति के दिन कौन कौन से खास कार्य होते हैं…

1. क्यों कहते हैं मकर संक्रांति?

मकर संक्रांति में ‘मकर’ शब्द मकर राशि को इंगित करता है जबकि ‘संक्रांति’ का अर्थ संक्रमण अर्थात प्रवेश करना है। मकर संक्रांति के दिन सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है। एक राशि को छोड़कर दूसरे में प्रवेश करने की इस विस्थापन क्रिया को संक्रांति कहते हैं। चूंकि सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है इसलिए इस समय को ‘मकर संक्रांति’ कहा जाता है। हिन्दू महीने के अनुसार पौष शुक्ल पक्ष में मकर संक्रांति पर्व मनाया जाता है।

2. इस दिन से सूर्य होता है उत्तरायन

चन्द्र के आधार पर माह के 2 भाग हैं- कृष्ण और शुक्ल पक्ष। इसी तरह सूर्य के आधार पर वर्ष के 2 भाग हैं- उत्तरायन और दक्षिणायन। इस दिन से सूर्य उत्तरायन हो जाता है। उत्तरायन अर्थात उस समय से धरती का उत्तरी गोलार्द्ध सूर्य की ओर मुड़ जाता है, तो उत्तर ही से सूर्य निकलने लगता है। इसे सोम्यायन भी कहते हैं। 6 माह सूर्य उत्तरायन रहता है और 6 माह दक्षिणायन। अत: यह पर्व ‘उत्तरायन’ के नाम से भी जाना जाता है। मकर संक्रांति से लेकर कर्क संक्रांति के बीच के 6 मास के समयांतराल को उत्तरायन कहते हैं।

3. इस पर्व का भौगोलिक विवरण

पृथ्वी साढ़े 23 डिग्री अक्ष पर झुकी हुई सूर्य की परिक्रमा करती है तब वर्ष में 4 स्थितियां ऐसी होती हैं, जब सूर्य की सीधी किरणें 21 मार्च और 23 सितंबर को विषुवत रेखा, 21 जून को कर्क रेखा और 22 दिसंबर को मकर रेखा पर पड़ती है। वास्तव में चन्द्रमा के पथ को 27 नक्षत्रों में बांटा गया है जबकि सूर्य के पथ को 12 राशियों में बांटा गया है। भारतीय ज्योतिष में इन 4 स्थितियों को 12 संक्रांतियों में बांटा गया है जिसमें से 4 संक्रांतियां महत्वपूर्ण होती हैं- मेष, तुला, कर्क और मकर संक्रांति।

4. फसलें लहलहाने लगती हैं

इस दिन से वसंत ऋतु की भी शुरुआत होती है और यह पर्व संपूर्ण अखंड भारत में फसलों के आगमन की खुशी के रूप में मनाया जाता है। खरीफ की फसलें कट चुकी होती हैं और खेतों में रबी की फसलें लहलहा रही होती हैं। खेत में सरसों के फूल मनमोहक लगते हैं।

5. पर्व का सांस्कृतिक महत्व

मकर संक्रांति के इस पर्व को भारत के अलग-अलग राज्यों में वहां के स्थानीय तरीकों से मनाया जाता है। दक्षिण भारत में इस त्योहार को पोंगल के रूप में मनाया जाता है। उत्तर भारत में इसे लोहड़ी, खिचड़ी पर्व, पतंगोत्सव आदि कहा जाता है। मध्यभारत में इसे संक्रांति कहा जाता है। मकर संक्रांति को उत्तरायन, माघी, खिचड़ी आदि नाम से भी जाना जाता है।

6. तिल-गुड़ के लड्डू और पकवान

सर्दी के मौसम में वातावरण का तापमान बहुत कम होने के कारण शरीर में रोग और बीमारियां जल्दी लगती हैं इसलिए इस दिन गुड़ और तिल से बने मिष्ठान्न या पकवान बनाए, खाए और बांटे जाते हैं। इनमें गर्मी पैदा करने वाले तत्वों के साथ ही शरीर के लिए लाभदायक पोषक पदार्थ भी होते हैं। उत्तर भारत में इस दिन खिचड़ी का भोग लगाया जाता है। गुड़-तिल, रेवड़ी, गजक का प्रसाद बांटा जाता है।

7. स्नान, दान, पुण्य और पूजा

माना जाता है कि इस दिन सूर्य अपने पुत्र शनिदेव से नाराजगी त्यागकर उनके घर गए थे इसलिए इस दिन पवित्र नदी में स्नान, दान, पूजा आदि करने से पुण्य हजार गुना हो जाता है। इस दिन गंगासागर में मेला भी लगता है। इसी दिन मलमास भी समाप्त होने तथा शुभ माह प्रारंभ होने के कारण लोग दान-पुण्य से अच्छी शुरुआत करते हैं। इस दिन को सुख और समृद्धि का माना जाता है।

8. पतंग महोत्सव का पर्व

यह पर्व ‘पतंग महोत्सव’ के नाम से भी जाना जाता है। पतंग उड़ाने के पीछे मुख्य कारण है कुछ घंटे सूर्य के प्रकाश में बिताना। यह समय सर्दी का होता है और इस मौसम में सुबह का सूर्य प्रकाश शरीर के लिए स्वास्थवर्द्धक और त्वचा व हड्डियों के लिए अत्यंत लाभदायक होता है। अत: उत्सव के साथ ही सेहत का भी लाभ मिलता है।

9. अच्छे दिन की शुरुआत

भगवान श्रीकृष्ण ने भी उत्तरायन का महत्व बताते हुए गीता में कहा है कि उत्तरायन के 6 मास के शुभ काल में जब सूर्यदेव उत्तरायन होते हैं और पृथ्वी प्रकाशमय रहती है, तो इस प्रकाश में शरीर का परित्याग करने से व्यक्ति का पुनर्जन्म नहीं होता, ऐसे लोग ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। यही कारण था कि भीष्म पितामह ने शरीर तब तक नहीं त्यागा था, जब तक कि सूर्य उत्तरायन नहीं हो गया।

10. ऐतिहासिक तथ्‍य

हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार मकर संक्रांति से देवताओं का दिन आरंभ होता है, जो आषाढ़ मास तक रहता है। महाभारत काल में भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिए मकर संक्रांति का ही चयन किया था। मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होती हुई सागर में जाकर मिली थीं। महाराज भगीरथ ने अपने पूर्वजों के लिए इस दिन तर्पण किया था इसलिए मकर संक्रांति पर गंगासागर में मेला लगता है।

अभी भी महिला सशक्तिकरण मात्र एक दिवास्वप्न

Sarika Tiwari Editor, demokratikfront.com

घर के साथ नौकरी चलाने का जैसा दबाव महिलाओं के ऊपर होता है, पुरुष न तो वैसा दबाव झेलते हैं और न ही नियोक्ता से लेकर घर-समाज उनसे वे अपेक्षाएं करता है।
यह बड़ी विडंबना है कि एक तरफ महिलाओं के साथ उनका समाज कोई रियायत नहीं बरतता, तो दूसरी तरफ कार्यस्थल पर उन्हें यह कहकर कोई छूट नहीं मिलती कि उन्हें तो पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर चलना है। महिला सशक्तिकरण हो जाए और घर के कामकाज में स्त्री के हाथ लगने का सुभीता बना रहे, इसके लिए अध्यापन जैसे पेशे को महिलाओं के लिए सबसे उपयुक्त माना जाता है। कोई शिक्षिका यह नहीं कर सकती कि सुबह उठकर वह स्कूल जाने की तैयारी करे, पर घर का कामकाज न करे, परिवार के लिए भोजन न पकाए। जबकि उसी स्कूल में पढ़ाने वाले पुरुष शिक्षक घर में अखबार पढ़ने या चाय पीते हुए टीवी देखने से ज्यादा कोई योगदान शायद ही करते हों।

हम महिला सशक्तिकरण की चाहे जितनी डींगें हांक लें, लेकिन21वीं सदी में भी महिलाओं की स्थिति में कोई ज्यादा बदलाव नहीं आया है। वे पढ़-लिखकर कामकाजी जरूर हुई हैं, पर घर से बाहर उन्हें और ज्यादा परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। नौकरी के लिए निकलते हुए उन्हें अपने पति और सास-ससुर से इजाजत लेनी पड़ती है। मर्दों से कम वेतन पर उन्हें ज्यादा असुविधाजनक माहौल में काम करना पड़ता है, बॉलीवुड इसका जीता जागता उदाहरण है जहाँ हर स्तर पर महिला कलाकारों का पुरूष कलाकारों के मुकाबले पारिश्रमिक कम है।योग्यता होते हुए भी महिलाओं को कई क्षेत्रों में एक सहायिका की तरह तो रखा जाता है लेकिन एक एक्सपर्ट की हैसियत से उसके लिए कोई स्थान नहीं जैसे कि बॉलीवुड में मेकअप का क्षेत्र वहाँ महिलाओं को मेकअप के लिए काम नहीं मिलता क्योंकि मेकअप मैन एसोसिएशन महिलाओं को इस क्षेत्र में रोजगार पाने में बरसों से रोड़ा अटका रही है।
कई बार सार्वजनिक स्थानों पर यौन उत्पीड़न सहना पड़ता है और वे हिंसा का शिकार भी होती हैं। इसके बाद भी उन्हें घर के काम या अन्य जिम्मेदारियों से छूट नहीं मिलती।
विश्व बैंक की ‘महिला, कारोबार और कानून 2016’ रिपोर्ट में किया गया था। रिपोर्ट में कहा गया था कि यह घोर अन्याय है कि जिस समाज की उन्नति में महिलाएं अपना भरपूर योगदान देती हैं, वही समाज महिलाओं के नौकरी पाने की उनकी क्षमता या आर्थिक जीवन में उनकी भागीदारी पर पाबंदियां लगाता है। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि 30 देशों में विवाहित महिलाएं इसका चयन नहीं कर सकतीं कि उन्हें कहां रहना है और 19 देशों में वे अपने पति का आदेश मानने को कानूनन बाध्य होती हैं।

समाज तो जब बदलेगा, तब बदलेगा, लेकिन महिला कर्मचारियों को नियुक्त करने वाली कंपनियां-फैक्टरियां तो ऐसे प्रबंध कर ही सकती हैं कि वे कार्यस्थल पर महिलाओं के अनुकूल वातावरण बनाएं और उनकी अपेक्षाओं-जरूरतों को ध्यान में रखें। अभी हमारे देश में ऐसी पहलकदमी करने वाली कंपनियां उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं।

केन्द्र सरकार द्वारा बनाये कानून को मानना राज्य सरकार के लिये बाध्यकारी

दिनेश पाठक अधिवक्ता, विधि प्रमुख विश्व हिन्दु परिषद

देश मे इन दिनो कुछ राजनैतिक दलो एवं समुदाय विशेष द्वारा नागरिकता संशोधन अधिनियम (सी ए ए)और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर ( एन आर सी) पर विरोध प्रदर्शन कर रहे है जहां हिंसा का बोलबाला पूरे देश मे नजर आ रहा है !

पूरे देश मे अराजकता का माहौल है ऐसे समय मे संवैधानिक पद पर बैठे लोगों का यह बयान कि भारतीय संसद द्वारा पारित कानून को वो अपने राज्यो में लागू नही करेंगे आन्दोलित लोगो को और भ्रमित करता है!
हाल ही के दिनो मे भारतीय संसद ने नागरिकता संशोधन बिल पारित किया जो राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षरित होने के बाद कानून का रुप ले चुका है जबकि राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के बारे मे सरकार मे अभी कोई चर्चा भी नही हुई है इस बीच लगभग दस राज्यों के गैर भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री जिनमें बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ,राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ प्रमुख है का यह कहना कि वो नागरिकता संशोधन कानुन और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को अपने प्रदेश मे लागू नही करेंगे कितना जायज है !

क्या किसी संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति भारतीय संसद द्वारा बनाये कानून को लागू करने से मना कर सकता है? या यह लोगो में भ्रम पैदा कर पद का दुरुपयोग राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के लिये ऐसे बयान दिये जा रहे है !जबकि भारतीय संविधान में स्पष्ट कहा गया है कि कोई भी राज्य सरकार केन्द्र सरकार के बनाये कानून और उसके द्वारा दिये गये निर्देशों को मानने के लिये वह बाध्य है वह इसे मानने से इंकार नही कर सकती !
केन्द्र सरकार के कानून एवं निर्देशो का मानना किसी भी राज्य सरकार का दायित्व है यदि ऐसा करने से कोई भी राज्य सरकार इंकार करती है तो वह भारतीय संविधान मे दिये प्रावधानो की पालना नही करना माना जायेगा ! जिसके लिये राज्यों के खिलाफ कार्यवाही भी की जा सकती है !

भारतीय संविधान मे राज्य सरकार और केन्द्र सरकार के मध्य मुद्दो अथवा अधिकारों के बंटवारे के लिये विभिन्न अनुसूचियों को परिभाषित किया गया है इनमें से महत्वपूर्ण अनुच्छेद 245 और अनुच्छेद 246 के अन्तर्गत आते हैं!
भारतीय संविधान की सातवी अनुसूची राज्यो और संघ के मध्य अधिकारों को उल्लिखित करती है ! इसमें तीन सूचियों है
(1) संघ सूची (2) राज्य सूची (3) समवर्ती सूची
केन्द्रीय सूची की प्रविष्टि 17 में नागरिकता, देशीकरण,और अन्यदेशीय प्रविष्टि 18 में प्रत्यर्पण,प्रविष्टि 19 मे भारत में प्रवेश और उसमें उत्प्रवास और निष्कासन, पासपोर्ट और बीजा के बारे मे कानून बनाने का अधिकार देता है ! यानि यह स्पष्ट है कि नागरिकता के बारे में कानून बनाने का अधिकार और घुसपैठियों को बाहर निकालने का अधिकार केन्द्र सूची मे है और केन्द्र सरकार को इन पर कानून बनाने का अधिकार है ! इस प्रकार इन बिषयों पर केन्द्र सरकार को कानून बनाने का अधिकार है और राज्य सरकारों का दायित्व है कि वह ऐसे कानून का पालन करे और लागू करे !
सी ए ए नागरिकता कानून से सम्बंधित है और राज्य सरकारें इसे लागू न करने को कहती हैं या लागू नही करती है तो यह संविधानिक तंत्र का फेल माना जायेगा जिसका परिणाम संविधान के अनुच्छेद 356को लागू कर राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की व्यवस्था है,हो सकता है !
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 73 के अनुसार केन्द्र सरकार उन बिषयों पर कोई भी कार्यकारी आदेश जारी कर सकती है जिन पर संसद को कानून बनाने का अधिकार है ! इसके तहत केन्द्र सरकार नागरिकता कानून को लागू करने का कार्यकारी आदेश जारी करने की शक्ति रखती है !
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 256 के अनुसार ” प्रत्येक राज्य की कार्यपालिका शक्ति का इस प्रकार प्रयोग किया जायेगा जिससे संसद द्वारा बनाई गयी विधियों का और ऐसी विद्यमान विधियों का जो उस राज्य मे लागु है,अनुपालन सुनिश्चित रहे और संघ की कार्यपालक शक्ति का विस्तार किसी राज्य को ऐसे निर्देश देने तक होगा जो भारत सरकार को उस प्रयोजन के लिये आवश्यक प्रतीत हो ” अर्थात राज्य की कार्यपालिका शक्तियाँ इस तरह प्रयोग मे लाई जायें कि संसद द्वारा पारित कानूनो का पालन हो सके ! केन्द्र राज्य को ऐसे निर्देश दे सकता है जो इस सम्बन्ध में आवश्यक हों !
संविधान का अनुच्छेद 257 कुछ मामलो मे राज्य पर केन्द्र के नियंत्रण की बात करता है ! राज्य कार्यपालिका शक्ति इस तरह प्रयोग ली जाये कि वह संघ कार्यपालिका से संघर्ष न करे ! केन्द्र अनेक क्षेत्रो मे राज्य को उसकी कार्यपालिका शक्ति कैसे प्रयोग करे इस पर निर्देश दे सकता है ! यदि राज्य निर्देश पालन करने मे असफल रहा तो राज्य मे राष्ट्रपति शासन तक लगाया जा सकता है!

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 258 (2) के अनुसार संसद राज्य प्रशासनिक तंत्र को उस तरह प्रयोग लेने की शक्ति देता है जिनसे संघीय विधि पालित हो !
अनुच्छेद 365 के अनुसार संघ द्वारा दिये निर्देशो का अनुपालन करने मे या उनको प्रभावी करने मे असफल होने पर राष्ट्रपति के लिये यह मानना विधि पूर्ण होगा कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी है जिसमे उस राज्य का शासन संविधान के उपबन्धो के अनुसार नही चलाया जा रहा ! संविधान का अनुच्छेद 355 कहता है कि राज्य को बाहरी और अंदरूनी खतरे से सुरक्षित रखना केन्द्र की जिम्मेदारी है ! तथा केन्द्र देखे कि राज्य की सरकार संविधान के मुताबिक चल रही है !

इस प्रकार भारतीय संविधान मे दिये गये विभिन्न प्रावधानो के तहत भारतीय संसद मे पारित किये नागरिकता संशोधन कानून (सी ए ए) या राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एन आर सी) यदि संसद पारित करती है तो देश की प्रत्येक राज्य सरकार को लागू करना अनिवार्य है ! अन्यथा संविधान तंत्र का फेल माना जायेगा ! और केन्द्र सरकार संविधान के अनुच्छेद ,356 का उपयोग कर राज्य मे राष्ट्रपति शासन लगा सकता है ! इस प्रकार विभिन्न संवैधानिक पदो पर बैठे मुख्यमंत्री का यह बयान जारी करना कि वह नागरिकता संशोधन एक्ट (सी ए ए) या राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को अपने राज्य मे लागू नही करेगें गैर संवैधानिक है तथा लोगो को भ्रमित करने वाला है !