सोनिया राहुल के रहते कोई भी युवा नेता सक्षम नहीं हो सकता

राजविरेन्द्र वशिष्ठ

सोनिया गांधी के खिलाफ कॉंग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने वाले राजेश्वर प्रसाद सिंह विदूड़ी उर्फ राजेश पायलट के बेटे होने की सज़ा भुगत रहे हैं सचिन पायलट। यह आधा अधूरा सच है, असल में काबिल युवा नेता होने के कारण सचिन की अनदेखी कारवाई जा रही है। कल को सिंधिया, देवड़ा, सचिन आदि युवा नेता राहुल गांध से सक्षम साबित हों और क्षेत्रीय क्षत्रप जो वह अभी हैं की भूमिका से आगे बढ़ कर पार्टी में अपनी महती भूमिका तलाश लें और राहुल की अकर्मण्यता एवं प्रियंका गांधी वाड्रा की छवि को भेद दें तो क्या हो। कांग्रेस हाई कमान को यह चिंता सताती है। इसीलिए रहल गांधी के समक्ष कोई भी युवा नेता काबिल नहीं दिखना चाहिए, शायद यही बात राहुल भी समझने लगे हैं।

इक शेर याद आ रहा है,

कांग्रेस की ग्रह-दशा अभी तो ऐसी चल रही है कि कोई मामूली ज्योतिषी भी सटीक भविष्यवाणी कर सकता है. कांग्रेस के राज्य सभा उम्मीदवारों की जो सूची सोनिया गांधी ने फाइनल की है वो भी कांग्रेस के भीतर संभावित घटनाओं की तरफ साफ इशारा करती है.

बाकी राज्यों में कांग्रेस नेताओं के अंसतोष को तो टाला भी जा सकता है, लेकिन राजस्थान का मामला काफी नाजुक लगता है. मालूम नहीं राहुल गांधी और सोनिया गांधी हालात की गंभीरता को किस तरह से ले रहे हैं. राजस्थान से राज्य सभा उम्मीदवार तय करने में जिस तरह से सचिन पायलट की आपत्तियों को खारिज कर अशोक गहलोत की बात मान ली गयी है – ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस छोड़ कर चले जाने के बाद ये फैसला हैरान करने वाला लगता है. सिंधिया की बगावत के बाद मध्य प्रदेश में कमलनाथ भले ही सरकार कुछ दिन बचा लें लेकिन वे गिनती के ही दिन होंगे.

राहुल गांधी सिंधिया को जानते ज़रूर थे, लेकिन शायद समझते नहीं थे

सिंधिया के कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी ज्वाइन करने पर राहुल गांधी ने मीडिया में आकर कहा कि वो उन्हें अच्छी तरह जानते हैं. सही बात है जानते जरूर थे, लेकिन शायद समझने की कोशिश नहीं किये. कुछ तो मजबूरियां रही होंगी. सवाल ये है कि क्या वैसी ही मजबूरियां सचिन पायलट की मुश्किलों को समझने में आड़े आ रही हैं?

सचिन पायलट को कितना जानते हैं राहुल गांधी

2017 के गुजरात चुनाव में राहुल गांधी को नये अवतार में देखा गया था और उन दिनों भी उनके दो साथी करीब ही नजर आते थे – ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट. गुजरात चुनाव खत्म होने के बाद और नतीजे आने से पहले राहुल गांधी ने अध्यक्ष की कुर्सी संभाली थी. तब से सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया की सियासी मुश्किलें ऐसे नजर आयीं जैसे जुड़वां भाइयों की समस्याएं होती हैं. दोनों ही के सामने दो सीनियर और गांधी परिवार के करीबी नेता चुनौती बन गये. दोनों ने विधानसभा चुनाव में बराबर मेहनत की, लेकिन सत्ता हासिल होने पर मलाई खाने दूसरे नेता आ डटे. सचिन पायलट तो डिप्टी सीएम बना दिये गये, लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया की कौन कहे, उनके किसी समर्थक विधायक को भी ये ओहदा देने के लिए पार्टी नेतृत्व राजी नहीं हुआ – और सिंधिया झोला उठाकर दूसरे फकीरों की टोली में पहुंच गये.

ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस छोड़ने पर जिस तरीके से सचिन पायलट ने रिएक्ट किया है, उस एक ही ट्वीट में राहुल गांधी और सोनिया गांधी के लिए बड़ा संदेश है. अगर राहुल गांधी और सोनिया गांधी जान बूझ कर ऐसी चीजों को नजरअंदाज करते हैं तो ये मान लेना बिलकुल गलत नहीं होगा कि बिगड़ी बातों को बनाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है

सोनिया गांधी और राहुल गांधी मां-बेटे जरूर हैं, लेकिन दोनों के कुर्सी पर होते कांग्रेस के भीतर की तमाम चीजें एक दूसरे के उलट ही देखने को मिली हैं. राहुल गांधी ने कुर्सी संभालते ही जिस तरह पुराने नेताओं को ठिकाने लगा दिया था, सोनिया गांधी ने भी वही व्यवहार किया है. नतीजा ये हुआ है कि राहुल गांधी की वजह से कांग्रेस में दबदबा रखने वाले नेता उनके कुर्सी छोड़ते ही असुरक्षित महसूस करने लगे हैं. ज्योतिरादित्य सिंधिया से पहले हरियाणा कांग्रेस के अध्यक्ष रहे अशोक तंवर के मामले में जो हुआ सबके सामने ही है. अशोक तंवर तो सोनिया के भी करीबी हुआ करते थे, लेकिन एक झटके में सब खत्म हो गया.

हरियाणा के साथ ही महाराष्ट्र चुनाव भी हुए थे और तब ज्योतिरादित्य सिंधिया महाराष्ट्र के चुनाव प्रभारी बनाये गये थे. जरा याद कीजिये संजय निरूपम ने प्रेस कांफ्रेंस करके क्या कहा था. संजय निरूपम के निशाने पर भी कांग्रेस के बुजुर्गों की टीम ही रही. मिलिंद देवड़ा भी तो जब तक ऐसे मुद्दे उठाते रहे हैं. आम चुनाव के दौरान जितिन प्रसाद ने भी तो बागी रुख अख्तियार कर ही लिया था. नवजोत सिंह सिद्धू भी तो कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन के ही शिकार लगते हैं. कुछ नेताओं की अपनी अलग मजबूरी हो सकती है, लेकिन सचिन पायलट और मिलिंद देवड़ा के मामले में तो कम से कम ऐसा नहीं लगता.

क्या ऐसा नहीं लगता कि सोनिया गांधी ने राहुल गांधी की टीम के ज्यादातर नेताओं को सिंधिया बनने के लिए छोड़ दिया है – और सचिन पायलट भी मुहाने पर ही खड़े हैं. अब ये राहुल गांधी को ही देखना होगा कि वो सचिन पायलट को कितना जानते हैं और कितना समझना चाहते हैं.

ये तो बहुत नाइंसाफी है

अगर राहुल गांधी ये कहते हैं कि राज्य सभा चुनाव में उनका कोई रोल नहीं रहा तो क्या उनके करीबी नेताओं को सिर्फ नाम पर ही टिकट दे दिया गया, जबकि एक एक टिकट के लिए तगड़ी रेस लगी रही. आखिर कैसे राजस्थान से केसी वेणुगोपाल टिकट पा गये और तारिक अनवर से लेकर राजीव अरोड़ा और भंवर जितेंद्र सिंह से लेकर गौरव वल्लभ तक बस मुंह देखते रह गये. आखिर कैसे राजीव साटव महाराष्ट्र से बाजी मारने में कामयाब रहे और मुकुल वासनिक और रजनी पाटिल मन मसोस कर रह गये. आखिर ये दोनों नेता टिकट पाने में सफल तो राहुल गांधी के कारण ही रहे. ऐसा कैसे हो सकता है कि एक बार भी राहुल गांधी से उनकी राय न पूछी गयी हो – राहुल गांधी भले ही कहते फिरें कि वो वायनाड के सांसद भर हैं, लेकिन जिस तरीके से दिल्ली चुनाव और दंगे प्रभावित इलाकों में भाषण देते रहे, वायनाड क्या केरल का कोई नेता या कांग्रेस का ही दूसरा कोई नेता बोल सकता है क्या?

क्या बदले हुए नाजुक हालात में भी राहुल गांधी को एक बार नहीं लगा कि सचिन पायलट की बातों को बार बार नजरअंदाज नाइंसाफी नहीं तो क्या है?

सचिन पायलट हमेशा से मुखर रहे हैं. ज्योतिरादित्य सिंधिया के मुद्दे पर तो बोला ही है, जब सोनिया गांधी ने कोटा अस्पताल भेज कर ग्राउंट रिपोर्ट मांगी थी वो पहुंचे और मौके पर भी बरस पड़े. अपनी ही सरकार और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को सारी गलतियों का जिम्मेदार बता डाला था.

राजस्थान से कांग्रेस के दो उम्मीदवार तय किये गये हैं – केसी वेणुगोपाल और नीरज डांगी. पता चला है कि सचिन पायलट को जैसे ही राज्य सभा के लिए उम्मीदवारों की फाइल सूची का पता चला, वो सक्रिय हो गये और विरोध करने लगे. सचिन पायलट को केसी वेणुगोपाल को लेकर आपत्ति का तो मतलब भी नहीं था, लेकिन नीरज डांगी को लेकर कड़ा ऐतराज जताया. इतना ही नहीं, सचिन पायलट ने अपनी तरफ से एक नाम का भी सुझाव दिया था, लेकिन उसे खारिज कर दिया गया.

सचिन पायलट ने नीरज डांगी की जगह कुलदीप इंदौरा का नाम सुझाया था. दिलचस्प बात ये रही कि सचिन पायलट और अशोक गहलोत के सुझाये नामों में बहुत सारी समानता देखने को मिलती है.

  1. नीरज डांगी तीन बार और कुलदीप इंदौरा दो बार विधानसभा का चुनाव लड़ चुके हैं और दोनों में कोई भी जीत नहीं पाया.
  2. नीरज डांगी और कुलदीप इंदौरा दोनों ही राजस्थान प्रदेश युवक कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके हैं.
  3. नीरज डांगी के पिता दिनेशराय डांगी और कुलदीप इंदौरा के पिता हीरालाल इंदौरा भी राजस्थान सरकार में मंत्री रह चुके हैं.
  4. नीरज डांगी और कुलदीप इंदौरा दोनों ही अनुसूचित जाति से आते हैं.

दोनों के करियर ग्राफ पर गौर करें तो और भी कई समानताएं नजर आती हैं, बड़ा फर्क सिर्फ ये है कि सचिन पायलट ने जिसका नाम सुझाया था वो दो बार विधानसभा चुनाव हार चुका है और अशोक गहलोत ने जिसका सपोर्ट किया वो तीन बार.

देखा जाये तो भी सचिन पायलट का कैंडीडेट, अशोक गहलोत के उम्मीदवार से थोड़ा बेहतर रहा – लेकिन सोनिया गांधी ने अशोक गहलोत के उम्मीदवार पर ही मुहर लगायी है. ये कोई बहुत बड़ी बात भी नहीं है, लेकिन जब मालूम है कि पार्टी की स्थिति डांवाडोल है और छोटी छोटी चीजों से बात बिगड़ सकती है तो ये महंगा भी पड़ सकता है.

जैसा कि राहुल गांधी बता रहे थे कि वो ज्योतिरादित्य सिंधिया को अच्छी तरह जानते हैं, बिलकुल वैसे ही न सही लेकिन जानते तो सचिन पायलट को भी होंगे ही. सचिन पायलट की विचारधारा को भी जानते ही होंगे. सचिन पायलट के सामने भी वैसे ही राजनीतिक हालात हैं जैसे सिंधिया के पास रहे. जिस तरह ज्योतिरादित्य सिंधिया चुनावों में शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ मैदान में डटे रहे, सचिन पायलट भी वैसे ही वसुंधरा राजे के खिलाफ मोर्चे पर बने रहे और मुकाबले करते रहे. बीजेपी के हिसाब से सोचें तो मध्य प्रदेश की ही तरह राजस्थान की हर गतिविधि पर वैसी ही पैनी नजर है. बस एक मौके की तलाश है.

सचिन की खामोशी पर कयास न लगाएँ

मध्य प्रदेश के सियासी संकट में जिस प्रकार कॉंग्रेस के तमाम छोटे बड़े नेता बढ़ चढ़ कर अपनी भूमिका निभा रहे हैं वहीं सिंधिया के मित्र राजस्थान के उप मुख्य मंत्री एवं राजस्थान प्रदेश कॉंग्रेस कमेटी के अध्यक्ष सचिन पाइलट की खामोशी बहुत कुछ कयास लगाने पर मजबूर करती है। वैसे रास्थान में सचिन की स्थिति सिंधिया से बिलकुल उलट है। सच्न को वह सब पहले ही से मिला हुआ है जिसकी सिंधिया अपनी पार्टी से अपेक्षा रखते थे। कयास लगाने के कारण मात्र उनकी(सचिन) और अशोक गहलोत में कभी कभार मुद्दों पर होने वाली असहमति है। आज सोशल मीडिया पर सचिन को अगला सिंधिया कहा जा रहा है जबकि इसकी कोई वजह नहीं दीखती। मौजूदा घटनाक्रम को देखते हुए काँग्रेस पार्टी एक और युवा एवं प्रभावशाली नेता को नहीं खोना चाहेगी, जिससे सचिन की मोलभाव की शक्ति उभरती ही दीखेगी।

जयपुर:

मध्यप्रदेश में चल रहे सियासी संकट से कांग्रेस पार्टी को उबारने में जहां दिल्ली से लेकर राजस्थान के नेताओं ने पूरी ताकत झोंक रखी है. वहीं इन सबके बीच एक नाम बिल्कुल खामोश और नदारद है. वह नाम है प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और सरकार में उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट का. पिछले 2 दिनों में जिस तरह का सियासी घटनाक्रम हुआ है उस पर पायलट की तरफ से ना कोई रिएक्शन आया है ना ही उनकी टि्वटर हैंडल पर कोई ट्वीट देखने को मिला है. इतना ही नहीं जब राजस्थान में सरकार मध्य प्रदेश के कांग्रेस के विधायकों को बचाए रखने की जद्दोजहद में जुटी है तब भी पायलट की गैरमौजूदगी कई सवाल खड़े करती है.

देश में कांग्रेस अपने सबसे बड़े सियासी संकट से जूझ रही है. मध्यप्रदेश कांग्रेस को सियासी संकट से उबरने में दिल्ली से लेकर राजस्थान तक के कांग्रेसी नेताओं ने अपनी पूरी ताकत लगा रखी है. मध्य प्रदेश कांग्रेस के विधायकों को टूटने से बचाने और उनका मनोबल बनाए रखने के लिए जयपुर के दो रिसोर्ट में ठहराया गया है. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उनकी विश्वस्त साथियों की टीम इस पूरे ऑपरेशन में जुटी हुई है. इस पूरे घटनाक्रम के बीच जहां कांग्रेस के क्षेत्रीय और राष्ट्रीय नेताओं के अलग-अलग बयान सामने आए हैं वहीं सचिन पायलट पिछले 2 दिनों से इस पूरे घटनाक्रम से नदारद रहे हैं.

पायलट की तरफ से इस मसले को लेकर ना किसी तरह का कोई बयान आया है ना उनकी तरफ से कोई ट्वीट दिखाई दिया है. पिछले दो दिनों में सचिन पायलट के टि्वटर हैंडल से 4 ट्वीट किए गए हैं, लेकिन यह सभी ट्वीट कांग्रेस नेताओं को जन्मदिवस की बधाई और नियुक्ति पर बधाई संदेश के अलावा कुछ नहीं है. इन सबके बीच मध्य प्रदेश के कांग्रेसी विधायकों को जब जयपुर लाया गया है. उसके बावजूद पायलट की गैरमौजूदगी हैरान करने वाली है.

हालांकि, महाराष्ट्र कांग्रेस के सियासी घटनाक्रम के दौरान भी पूरे ऑपरेशन की कमान अशोक गहलोत और उनकी टीम के पास ही थी, लेकिन सचिन पायलट उस समय जयपुर में मौजूद रहे थे. इस पूरे घटनाक्रम में सचिन पायलट की गैर मौजूदगी और चुप्पी दोनों ही हैरानी का विषय बनी हुई है. कोई नहीं जानता है कि इसके पीछे वजह क्या है और सचिन पायलट का अगला कदम क्या हो सकता है.

कांग्रेस की सियासत को समझने वाले नेताओं का मानना है कि पायलट पूरे हालातों को मापने और समझने में लगे हैं. हालांकि, मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य और राजस्थान में सचिन पायलट की भूमिका और पोजीशन में जमीन आसमान का अंतर है. जिस तरीके से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के साथ सचिन पायलट के तल्ख रिश्तों की खबरें आती रही हैं उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि यहां पर भी कांग्रेस के भीतर हालात ठीक नहीं है, लेकिन इन सबके बावजूद पर यहां पर सचिन पायलट पीसीसी चीफ और उपमुख्यमंत्री की दोहरी भूमिका में है.

उनकी सत्ता और संगठन दोनों में जिम्मेदारी हैं. उनके विश्वस्त लोगों को सरकार में मंत्री भी बनाया गया है, लेकिन इसके ठीक उलट ज्योतिरादित्य सिंधिया के हाथ मध्यप्रदेश में बिलकुल खाली थे. उन्हें पीसीसी चीफ नहीं बनने दिया गया. राज्यसभा की सीट से भी इंकार कर दिया गया तब जाकर उन्होंने पार्टी छोड़ने का निर्णय लिया. भले ही राजस्थान में सचिन पायलट अभी खामोश हैं, लेकिन इसमें कहीं कोई दो राय नहीं है कि जो हालात मध्यप्रदेश में पैदा हुए हैं उसके चलते राजस्थान में उनकी पोजीशन को मजबूती मिली है.

यहां भी आने वाले दिनों में पीसीसी चीफ की अपनी भूमिका को कंटिन्यू कर सकते हैं. साथ ही राजनीतिक नियुक्तियों मंत्रिमंडल विस्तार और 2 दिनों में होने वाली राज्य सभा सीट के लिए नामों का ऐलान में उनकी बारगेनिंग पावर काफी हद तक बढ़ जाएगी.

शाहीन बाग का झूठ क्या है?

शिव प्रकाश मिश्र :

सबसे बड़ा झूठ

शाहीन बाग का का सबसे बड़ा झूठ है कि यह धरना, प्रदर्शन, आंदोलन संशोधित नागरिक कानून और एनआरसी के विरुद्ध है और यह मुस्लिम महिलाओं द्वारा स्वत: स्फूर्त संचालित है. इसका जेएनयू जामिया और एएमयू से कोई लेना देना नहीं है.आम आदमी पार्टी और कांग्रेस का इससे दूर दूर का कोई रिश्ता नही।

शाहीन बाग का केवल झूठ जानने से स्थित स्पष्ट नहीं होती इसलिए ये भी जानिए कि इसका सच क्या है ?

शाहीन बाग का सच

शाहीन बाग का सच यह है कि इसका एकमात्र उदेश्य आम आदमी पार्टी को चुनाव में जीत सुनिश्चित करना था और इसकी पूरी योजना का खाका अरिन्द केजरीवाल को रणनीतिक सलाह देने वाले प्रशान्त किशोर ने बनाया था और इसका सञ्चालन फिरोजशाह कोटला रोड पर आप के वॉर रूम से किया जा रहा था . कांग्रेस भी मुश्लिम वोट मिलने की खुशफहमी का शिकार हुयी जबकि इसका उद्देश्य उसका वोट बैंक भी लूट कर आम आदमी पार्टी को देना था. सब कुछ बहुत योजना वद्ध तरीके से हुआ. शायद इतिहास में पहलीवार हिन्दुओं का ध्रुवीकरण रोकते हुए ,जमकर मुश्लिम धुर्वीकरण किया गया। वास्तव में ये एक नायाब प्रयोग था। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी का ये कहना कि ये संयोग नही प्रयोग है अक्षरसः सत्य है। आप के सभी मुस्लिम उम्मीदवार रिकार्ड मतो से जीते। उन्हें प्राप्त मतों का प्रतिशत 76% तक गया । ये अपने आप मे एक रिकॉर्ड है ।जो भी हो इस नए प्रयोग से आम आदमी पार्टी की चुनाव में शानदार जीत हुई और शाहीन बाग़ आन्दोलन की “हैप्पी इंडिंग” भी . भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनआंदोलन से उपजी एक पार्टी ने मुफ्त खोरी या/और रिश्वत खोरी का बहुत ही ईमानदारी से उपयोग किया और संविधान और लोकतंत्र की कमजोर कड़ियों को जोड़ कर , सामाजिक ताने बाने को तोड़कर , हिंदुस्तान की आत्मा को रौंदते हुए , देश की बिषम परस्थितयों को अपने फायदे के लिए निचोड़ लिया । ये अभिनव प्रयोग है ऐसा तो कभी कांग्रेस भी नही कर सकी जिसने अमेरिका की एक एजेंसी को चुनाव सलाहकार के रूप में लगा रखा था।

(आम आदमी पार्टी की जीत के बाद शाहींन बाग़ उजड़ गया)

शाहींन बाग की प्रष्ठभूमि

राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर पहले भारतीय जनता पार्टी के लिए काम करते थे । 2014 में लोकसभा चुनाव में भाजपा की विजय के बाद और मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद प्रशांत किशोर की सीधे-सीधे राजनीति में आकर कौशल दिखाने की लालसा जागृत हो गई । सूत्रों के अनुसार उन्होंने अपनी इस इच्छा को अमित शाह के सामने प्रकट किया और अनुरोध किया कि उन्हें भाजपा में पार्टी संगठन में कोई बड़ा पद दिया जाए । भारतीय जनता पार्टी कैडर वाली पार्टी है और प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति ,मुख्यमंत्री ,राज्यपाल समेत कई बड़े नेता, कार्यकर्ता से यहां तक पहुंचे हैं .पार्टी में वैसे चाहे जितनी कमियां हो लेकिन एक बहुत अच्छी चीज है कि बाहर से आए हुए नेताओं को संगठन में किसी बड़े पद पर नहीं बैठाया जाता है ।पार्टी बाहर से आए नेताओं को विधानसभा, लोकसभा का टिकट तो दे सकती है उन्हें विधान परिषद और राज्यसभा भेज सकती है लेकिन संगठन में महत्वपूर्ण पद पर नहीं बैठा सकती . कहा जाता है कि श्री प्रशांत किशोर की मांग पूरी नहीं हो सकी लेकिन अमित शाह के कहने पर उन्हें जेडीयू में न केवल शामिल किया गया बल्कि उपाध्यक्ष भी बना दिया गया । प्रशांत किशोर को इससे बहुत कुछ हासिल नहीं हुआ और उनकी फर्म विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के लिए कार्य करती रही । इस बीच भारतीय जनता पार्टी से उनके रिश्ते बिगड़ते रहे ।हाल ही में इसकी पराकाष्ठा तब हो गई जब उन्होंने पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को लोक सभा और विधानसभा चुनाव के लिए अपनी फर्म का रणनीतिक सलाह हेतु अनुबंध कर लिया । लोकसभा चुनाव में प्रशांत किशोर के अथक प्रयासों के बावजूद भी भारतीय जनता पार्टी पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को सीधी टक्कर देकर 42 में से 18 सीटें जीतने में भी सफल रही । इसबीच अरविंद केजरीवाल ने भी प्रशांत किशोर को दिल्ली विधान सभा चुनाव हेतु अनुबंधित कर लिया। प्रशांत किशोर ने पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के लिए संशोधित नागरिकता कानून और एनआरसी को जीत का थीम बना कर योजना बनाई. इस बीच CAA और NRC को लेकर प्रशान्त किशोर के सम्बन्ध भाजपा से इतने ख़राब हो गये कि अमित शाह की सिफारिस पर जेडीयू में लिए गए प्रशांत किशोर को अमित शाह की नाराजगी के बाद ही बाहर का रास्ता दिखाया गया .

(जीत की खुशी- प्रशांत किशोर और केजरीवाल )

जहां पश्चिम बंगाल में स्वयं ममता बनर्जी संशोधित नागरिकता कानून के विरोध में सड़कों पर है, वही दिल्ली में केजरीवाल को इस मुहिम से दूर रखते हुए शाहीन बाग को बहुत सोच समझ कर आन्दोलन का केंन्द्र बनाया गया । लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सभी सातों सीटों पर जीतने वाली भाजपा को हर विधानसभा क्षेत्र में मुस्लिम महिलाओं ने जमकर वोट किए थे । जिसके पीछे तीन तलाक और हलाला खत्म करने की खुशी थी। इसलिए जानबूझकर शाहीन बाग में महिलाओं को आगे किया गया ताकि इन मुस्लिम महिलाओं को भाजपा को वोट देने से रोका जा सके और इस तरह मुस्लिमों को एकजुट करके एकमुश्त वोट आप को दिलवाया जा सके । परोक्ष रूप से आम आदमी पार्टी ने खासतौर से उसके मुस्लिम नेताओं और कुछ मुस्लिम संगठनों ने शाहीन बाग को वित्त पोषित किया । प्रदर्शनकारियों के लिए बहुत ही अच्छे खाने-पीने के इंतजाम किए गए ताकि उनको लंबे समय तक रोका जा सके । प्रदर्शनकारियों में बड़ी संख्या में दिहाड़ी मजदूर और अल्प आय वर्ग के लोग थे । कहा तो यह भी जाता है कि उन्हें प्रतिदिन के हिसाब से भुगतान किया जा रहा है . इसका नतीजा यह हुआ कि शाहीन बाग में आगे महिलाएं और पीछे एक बहुत बड़ा तंत्र या षड्यंत्र था ।आम आदमी पार्टी की जीत पर शाहीन बाग में जमकर उल्लास मनाया गया लोग एक दूसरे से गले मिले और बिरयानी बांटी गई । धीरे-धीरे कम प्रदर्शन कारी और भी कम होने लगे हैं और वित्त पोषक भी दूर हो रहे हैं . अब शाहीन बाग का आंदोलन अपने आप खत्म हो रहा है क्योंकि उद्देश्य पूरा हो चुका है। जे एन यू, जामिया, और ए एम यू भी अब शांत हो जाएंगे । पूरे घटना क्रम में कांग्रेस एक “आत्मघाती दल” के रूप में उभरा है। उन्हें भाजपा के न जीत पाने या कांग्रेस द्वारा भाजपा को रोक देने की बेहद खुशी है। राहुल, प्रियंका और सोनिया सब बेहद खुश हैं । उन्हें इस बात का जरा भी गुमान नही कि उन्होंने स्वयं कांग्रेस में आत्मघाती टाइम बंम लगा दिया है । अगर स्थिति यही रही तो कांग्रेस स्वयं कांग्रेस मुक्त भारत का सपना साकार कर देगी। कांग्रेस वहीं जीत सकती है जहां वह भाजपा के मुख्य मुकाबले में है जैसा मप्र , छत्तीसगढ़ और राजस्थान में हुआ। जहाँ कहीं भी कांग्रेस ने किसी तीसरे दल को भाजपा के सामने खड़ा कर दिया वहां कांग्रेस फिर कभी खड़ी नही हो पाई। यदि दिल्ली में कांग्रेस और आप के संयुक्त वोट प्रतिशत का औसत निकालें तो भाजपा से 8% से भी ज्यादा कम हैं । इसका मतलब ये है कि कांग्रेस अगर ठीक से चुनाव लड़ती तो भाजपा जीत जाती। ये भी निष्चित है कि कभी आप हारेगी तो जीतने वाली भाजपा होगी। कांग्रेस तो दिल्ली से सदा सर्वदा के लिए विदा हो गई।

कह सकते हैं कि शाहीन बाग आंदोलन का मुख्य मकसद मुस्लिम पुरुष और महिला वोटों को एकजुट करके आम आदमी पार्टी के खाते में डालना था ताकि अरविंद केजरीवाल की जीत सुनिश्चित की जा सके . इसमें कांग्रेस ने भी बहुत सहयोग किया । एक तरफ मणिशंकर अय्यर, शशि थरूर, दिग्विजय सिंह और सलमान खुर्शीद जैसे फायर ब्रांड नेताओं ने जहरीला माहौल बनाया और उन्हें भारतीय जनता पार्टी के विरुद्ध खड़ा किया दूसरी तरफ कांग्रेस की युवा बिग्रेड राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश से पूर्वी उत्तर प्रदेश तक और शाहीन बाग से इंडिया गेट व जंतर मंतर तक कानून व्यवस्था को तार-तार करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी । जेएनयू, जामिया और एएमयू भी रह रह कर रंग बदलते रहे और केंद्र सरकार को उलझाने का काम करते रहे . इतनी बड़ी पटकथा के लेखक को नमन करना चाहिये , हम लोगों को नही , कम से कम राजनीतिक लोगों को

क्रांतिकारी, विचारक और लेखक राष्ट्रवादी वीर सावरकर कांग्रेस की परेशानी

शायद ही कभी जिन्ना की निंदा खुले मंच से हुई हो, जिस जिन्ना ने भारत माता के विभाजन में सबसे अग्रणी भूमिका निभाई थी. यहाँ तक कि पाकिस्तान के निर्माता जिन्ना के लिए तो अलीगढ़ में भाजपा सरकार का विरोध तक कर डाला. इतनी निंदा उन अंग्रेजो की नहीं की गई जिन्होंने देश को लगभग 200 साल लूटा. हजारों वर्ष अत्याचार करने वाले मुगलों को महान बताया गया , क्योकि जिन्दा रखने थे तथाकथित सेकुलरिज्म के नकली सिद्धांत.

लेकिन जब भी और जिस भी मंच से भाषण दिया गया, वहां वीर सावरकर को अपमानित किया गया. अपने पूर्वजो का इतिहास कभी न बताने वालों ने वीर सावरकर को अपमानित कर के किसका वोट हासिल किया ये सभी जानते हैं. उनके भी वोट हासिल करने की कोशिश सावरकर को अपमान कर के की गई जो भारत की सेना और पुलिस बल के खिलाफ दिन रात मोर्चा खोले रहते हैं.

ये निंदा स्थानीय नेताओं के बजाय सर्वोच्च पदों पर आसीन राहुल गाँधी जैसो ने की. उनका इशारा पाते ही बाकी सब भी उनके सुर में सुर मिलाते रहे और अनगिनत हिन्दुओं के हत्यारे मुग़ल आक्रान्ता टीपू सुलतान की जय जयकार करने वाली कांग्रेस आजादी के नायक, हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रणेता अमर हुतात्मा वीर सावरकार के खिलाफ तनकर खड़ी हो गई. कांग्रेस की राजस्थान सरकार ने सरकार ने नए पाठ्यक्रम में विनायक दामोदर सावरकर को वीर और देशभक्त नहीं, बल्कि जेल से बचने के लिए अंग्रेजों से दया मांगने वाला बता दिया. इतना ही नही मध्यप्रदेश में कांग्रेस के युवा टीम सावरकर जी पर अनैतिक संबंध बनाने का आरोप लगाया. यद्दपि देश देखता रहा ये सब और राष्ट्रीय जनादेश ऐसा करने वालों के विरुद्ध गया.

राजवीरेन्द्र वशिष्ठ, चंडीगढ़:

न ही भाजपा-संघ वाले स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर के बारे में बात करते थकते हैं और न ही कॉन्ग्रेस वाले हिन्दू महासभा के नेता रहे विनायक दामोदर सावरकर में नुक्स निकालते। इन दोनों राजनीतिक ध्रुवों के बीच जो खो जाता है, वह है लेखक, इतिहासकार, विचारक सावरकर- जिसने शायद एक व्यक्ति या नेता से आगे जाकर भारत में ब्रिटिश शासन की जड़ें खोद दीं। जिसने दशकों बाद पहली बार भारत-भूमि को याद दिलाया कि 1857 में महज कुछ दिशाहीन, अनुशासन-विहीन सैनिकों की हिंसा नहीं, स्वतंत्रता का पहला संग्राम हुआ था। जिसके ‘मास्टर-प्लान’ पर काम करते हुए बारीन्द्र घोष, शचीन्द्रनाथ सान्याल, रासबिहारी बोस आदि ने अपनी उम्र झुलसा दी और बिस्मिल, बाघा जतीन, राजेन्द्र लाहिड़ी आदि अनगिनत वीरों ने प्राणोत्सर्ग किया। जिसकी प्रेरणा से अध्यक्ष चुने जाने के बावजूद कॉन्ग्रेस में हाशिये पर धकेल दिए गए सुभाष चन्द्र बोस आज़ाद हिन्द फ़ौज के ‘नेताजी’ बनने नजरबंदी से भाग निकले। जिसकी किताबें इतनी लोकप्रिय थीं कि भगत सिंह उसकी प्रतियाँ बेचकर बंदूकें खरीदने का पैसा जुटा सकते थे!

‘1857 दोहरा कर ही मिलेगी आज़ादी’

1857 के विद्रोह को दबाने में अंग्रेजों ने जो क्रूरता और निर्ममता दिखाई थी, वह अनायास या अकारण ही नहीं थी। पूरी ब्रिटिश शासन व्यवस्था ब्रिटिश सेना के संरक्षण पर टिकी थी और ब्रिटिश सेना (चाहे वह ईस्ट इंडिया कम्पनी की हो या बाद में ब्रिटिश क्राउन की) में केवल मुट्ठी-भर अंग्रेज अफ़सर होते थे- भारतीयों को विदेशियों का गुलाम बना कर रखने वाली असली ताकत भारतीय सैनिक ही थे; उन राजाओं की सेनाओं के, जिनकी कम्पनी बहादुर या ब्रिटेन के राजपरिवार के साथ संधि हुई थी, या सीधे ब्रिटेन की गुलामी में पड़े हुए भू-भाग की ब्रिटिश इंडियन आर्मी के सैनिक। अतः 1857 को क्रूरता से कुचलना अंग्रेजों के लिए ज़रूरी था, ताकि आने वाली पीढ़ियों तक किसी सैनिक के दिमाग में अपने गोरे मालिकों पर बंदूक तानने की जुर्रत न आए। इसीलिए उन्होंने न केवल लोमहर्षक निर्ममता के साथ इस संग्राम को कुचला (किवदंतियाँ हैं कि मंगल पाण्डे के घर वालों की पहचान करने में नाकाम रहने पर उन्होंने कानपुर से बैरकपुर तक के हर गाँव के हर पाण्डे उपनाम वाले बच्चे-बूढ़े-औरत को गाँवों के पेड़ों से फाँसी पर लटका दिया था), बल्कि इतिहास में इसे अधिक महत्व न देते हुए महज़ एक अनुशासनहीन विद्रोह के रूप में दिखाया। वह सावरकर ही थे जिन्होंने पहले मराठी और फिर अंग्रेजी में प्रकाशित ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’/The Indian War of Independence के ज़रिए इस लड़ाई के असली रूप को जनचेतना में पुनर्जीवित किया।

1909 में प्रकाशित इस किताब में उन्होंने न केवल इस विद्रोह की राजनीतिक चेतना को रेखांकित किया बल्कि इसके राष्ट्रीय स्वरूप के पक्ष में भी तर्क रखे। यही नहीं, उन्होंने यह भी अनुमानित कर लिया था कि अगर भारत को ब्रिटिश शासन के चंगुल से मुक्त होना है तो अंततः यही रास्ता फिर से पकड़ना होगा। ब्रिटिश सेना को पुनः राष्ट्रवादी, देशभक्त सैनिकों से भरना होगा जो वर्षों तक चुपचाप सेना में अपनी पैठ बनाएँ, प्रभुत्व स्थापित करें, अन्य सैनिकों की निष्ठा विदेशी शासन से इस देश की जनता की ओर मोड़ें। अंत में जब संख्याबल आदि सभी प्रकार से मजबूत हो जाएँ तो अपने नेता के इशारे पर, सही समय पर विद्रोह कर दें। महत्वपूर्ण रणनीतिक संसाधनों, हथियारों, रसद, आपूर्ति मार्गों आदि पर कब्ज़ा कर अंग्रेजों की व्यवस्था को घुटने पर ले आएँ।

सारे जहाँ में प्रतिबंधित

बौखलाए अंग्रेजों ने किताब और सावरकर पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया। लंदन के सभी प्रकाशकों को इस किताब के अंग्रेजी अनुवाद/संस्करण के प्रकाशन के खिलाफ़ आगाह कर दिया गया। फ़्रांस ने भी अंग्रेज़ी दबाव में घुटने टेक दिए। अंततः किताब का अंग्रेज़ी संस्करण हॉलैंड (अब नीदरलैंड) में प्रकाशित हुआ- वह भी इसलिए कि ‘काली’ और ‘भूरी’ दुनिया को गुलाम बनाने में इंग्लैण्ड और हॉलैंड में ऐतिहासिक दौड़ मची थी। दोनों एक-दूसरे के औपनिवेशिक शासन को कमजोर करना चाहते थे। इस किताब को भारत में बाँटे जाने के लिए ब्रिटिश साहित्य के पन्नों में छिपा कर, या उसकी जिल्द चढ़ाकर लाया जाता था।

पीटर होपकिर्क अपनी किताब On Secret Service East of Constantinople में लिखते हैं कि इसके बाद अंग्रेजों ने सावरकर की किताब को ब्रिटिश लाइब्रेरी की सूची तक में जगह नहीं दी, ताकि भारतीय छात्रों को इसके बारे में पता न चल जाए। इसी किताब में वह यह भी बताते हैं कि सावरकर की किताब को ‘तस्करी’ कर भारत में लाने के लिए चार्ल्स डिकेंस का मशहूर उपन्यास ‘पिकविक पेपर्स’ काफ़ी इस्तेमाल हुआ है।

भगत सिंह

भगत सिंह ने न केवल सावरकर के साहित्य का खुद गहन अध्ययन किया (उनकी जेल डायरियों और लेखन में सावरकर से अधिक उद्धृत केवल एक लेखक हैं), बल्कि कई इतिहासकारों की राय है कि वे अपने क्रांतिकारी संगठन में भी सावरकर के अध्ययन को प्रोत्साहित करते थे। यही नहीं, सावरकर की ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ और इसके अंग्रेजी संस्करण की आमजन के बीच भारी माँग और प्रतिबंध के चलते आपूर्ति में किल्लत को देखते हुए भगत सिंह के इसकी व्यवसायिक पैमाने पर तस्करी करने के भी उद्धरण इतिहास में मिलते हैं। इस किताब को ऊँचे दामों पर बेचकर उनका संगठन अंग्रेजों के खिलाफ़ क्रांति के लिए हथियार खरीदने का धन उगाहता था। इस किताब का दूसरा संस्करण प्रकाशित करवाने में भगत सिंह की भूमिका का ज़िक्र विक्रम सम्पत द्वारा लिखित सावरकर की जीवनी में है। यही नहीं, भगत सिंह ने सावरकर की केवल इस किताब ही नहीं, ‘हिन्दू पदपादशाही’ का भी ज़िक्र अपने लेखन में किया है।

सावरकर भी भगत सिंह का काफी सम्मान करते थे। इसकी एक बानगी यह है कि सावरकर की मृत्यु के उपरांत 1970 में प्रकाशित उनकी जीवनी ‘आत्माहुति’ का विमोचन भगत सिंह की माता माताजी विद्यावती देवी के हाथों हुआ। इस समारोह में उनके छोटे भाई भी शरीक हुए थे।

आज यह कतई ज़रूरी नहीं है कि जो कुछ सावरकर ने लिखा है, वह सही ही हो। बहुत कुछ ऐसा भी हो सकता है जो उस समय भले सही रहा हो, लेकिन आज प्रासंगिक न हो। सावरकर के जीवनकाल में ही ‘हिंदुत्व’ और हिंदूवादी राजनीति की उनसे अलग परिभाषाएँ रहीं हैं। ऐसा माना जाता है कि डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के हिन्दू महासभा छोड़ने के पीछे एक महती कारण पाकिस्तान को लेकर उनमें और सावरकर में पाकिस्तान के अस्तित्व को स्वीकार कर लेने (डॉ. मुखर्जी का मत) बनाम पुनः एक दिन अखण्ड हिंदुस्तान की सावरकर की परिकल्पना का गंभीर मतभेद था। ‘हिंदुत्व’ शब्द सावरकर के पहले भी था और सरसंघचालक मोहन भागवत ने यह कई बार साफ़ किया है कि आज का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गोलवलकर-सावरकर से आगे बढ़ चुका है। ऐसे में यदि सावरकर को यदि जीवित रखना है तो उनके प्रशंसकों, उनके अनुयायियों को उन्हें दोबारा पढ़ना होगा, उन्हें दोबारा ‘खोजना’ होगा।

क्या करें जब जीवनदाता ही हत्यारा बन जाए?

गर्भपात कराना यानी कि भ्रूण हत्या एक कानूनी जुर्म है। और यह एक गैर कानूनी अपराध सिर्फ तब तक नहीं है जब तक इसकी सीमाओं को लांघा नहीं गया और इसकी सीमा है 24 हफ्ते तक का दर्द अगर किसी भी महिला ने 24 हफ्ते के गर्भ के बाद गर्भपात करवाया तो इसको कानूनी जुर्म देखा जाएगा और कानून के दायरे में रखते हुए जिसने गर्भपात करवाया है उसे 3 वर्ष और जिस एजेंट डॉक्टर ने गर्भपात किया है। जिसने गर्भपात की सुविधा उपलब्ध कराई है। उस डॉक्टर को 7 वर्ष की कैद। निश्चित है।

विशेष:

पुरनूर
purnoorv@gmail.com

इस कथन का नाता किसी ऐसी घटना से नहीं है। जिसमें किसी माता या किसी पिता ने अपनी ही औलाद को मौत के घाट उतारा हो या उसके साथ किसी भी प्रकार की बदसलूकी की हो। बल्कि यहां पर जीवनदाता उसको कहा गया है जिसे हमारे भारत में भगवान का दर्जा भी दिया जाता है। यानी कि डॉक्टर को हमारे भारत देश में भगवान जीवनदाता के नाम से आदर सत्कार के साथ बुलाया जाता है और वह सिर्फ इसलिए क्योंकि सिर्फ डॉक्टर ही हैं जो कड़ी से कड़ी मुश्किल भारी बीमारियों से मरीजों को बाहर निकाल कर लाते हैं और उन को एकदम भला चंगा कर देते हैं। और इनके इसी कार्य की वजह से भारत ही नहीं पूरी दुनिया भर के लोग उन पर पूरी तरह से निर्भर हैं, अपनी सेहत अपने स्वास्थ्य को लेकर।

जिस क्षेत्र में डॉक्टर काम करते हैं, उस क्षेत्र को मेडीवेशन कहा जाता है और मेडीवेशन के क्षेत्र में डॉक्टर सिर्फ एक प्रकार का ही नहीं बल्कि विभिन्न प्रकारों का होता है। जैसे पौधों का डॉक्टर पेड़ों का डॉक्टर जानवरों का डॉक्टर पक्षियों का डॉक्टर वह इंसानों का डॉक्टर और इंसानों का डॉक्टर कोई सिर्फ एक ही नहीं होता। वह भी भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। जैसे दिमाग का डॉक्टर अलग दिल का डॉक्टर अलग किडनी का अलग महिलाओं का अलग पुरुषों का अलग वहीं बच्चों का अलग डॉक्टर पाया जाता है।

जैसा कि आप जानते हैं कि भारत में तो डॉक्टर को भगवान का नाम देकर आदर सत्कार के साथ बुलाया जाता है। लेकिन पूरे विश्व भर में हर व्यक्ति मैडिविजन क्षेत्र का आभारी है। क्योंकि केवल यही क्षेत्र है जो कि ना उन्हें सिर्फ उनकी बीमारियों से छुटकारा पाने में मदद करता है बल्कि उस बीमारी को झेलने की ताकत भी देता है। क्योंकि इस क्षेत्र में मनोवैज्ञानिकों की भी सुविधा उपलब्ध है। परंतु इस चित्र में सबसे ज्यादा महिलाओं के डॉक्टर यानी कि प्रसूतिशास्त्री

यहाँ माएं अपनी प्रसूति समस्याएं लेकर आती हैं और यही वह डॉक्टर हैं जो एक मां को उनकी संतान से मिलवाते हैं। लेकिन यह हर बार एक संतान को उसकी मां से नहीं मिलवा पाते, बहुत बार यह हत्यारे भी बन जाते हैं जो कि एक अजन्मी जान को मौत के घाट उतार देते हैं। गर्भपात के बारे में तो हम सब जानते हैं और यह भी जानते हैं कि गर्भपात कराना यानी कि भ्रूण हत्या एक कानूनी जुर्म है। और यह एक गैर कानूनी अपराध सिर्फ तब तक नहीं है कि जब तक इसकी सीमाओं को लांघा नहीं गया और इसकी सीमा है 3 माह है। अगर किसी भी महिला ने 3 माह के गर्भ के बाद गर्भपात करवाया तो इसको कानूनी जुर्म देखा जाएगा। कानून के अनुसार जिसने गर्भपात करवाया है उसे 3 वर्ष और जिस एजेंट – डॉक्टर ने गर्भपात किया है अथवा जिसने गर्भपात की सुविधा उपलब्ध कराई है उस डॉक्टर को 7 वर्ष की कैद निश्चित है। जबकि मेरे विचार से इस हत्या कि सज़ा तो उम्रक़ैद होनी चाहिए।

माँ तेरे आँचल में छिप जाने को मन करता है,
तेरी गोद में सो जाने को मन करता है |
जब तू है साथ मेरे,जिन्दगी जीने का  मन करता है |
तू ही है जिसके साथ,मै खुश हूँ ,
बस तेरे दामन में ही मह्फुस हूँ,
पर माँ, जब तू भी दुश्मन बन जाती है,
मेरी नन्ही सांसों को, जब तू ही खामोश कर जाती है|
क्या कसूर होता है मेरा, जो तू भी पराया कर जाती है |
मुझे जिन्दगी के बजाय, मौत के आगोश में सुला देती है|
डरती है रूह मेरी, न जाने कब क्या होगा ,
जब तू भी साथ ना है माँ ,तो कौन मेरा अपना होगा ,
कौन मेरा अपना होगा ????

साभार कवियत्री: कर्णिका पाठक

हमारे ग्रन्थों में भ्रूण हत्यारे अश्वत्थामा को तो मणि विहीन कर शापित अमरता का दंड मिला है। महाभारत युद्ध के पश्चात जब अश्वत्थामा ने अभिमन्यु कि पत्नी उत्तरा के गर्भस्थ शिशु कि हत्या का प्रयास किया तब श्री कृष्ण ने न केवल उस गर्भ कि रक्षा की अपितु अश्वत्थामा की मस्तिष्क मणि निकाल कर उसे उसी रिसते घाव के साथ अमर होने का श्राप दिया। एक क्षणिक उन्मादी को शास्त्रोचित दंड मिला, परंतु इन लोगों को इस दंड का कोई भय नहीं।

अभी कल ही पंचकूला की एक ऐसी घटना सामने आई है। जिसमें पंचकूला सेक्टर 6 के जनरल हॉस्पिटल की गायनी विभाग की डॉ पूनम भार्गव ने अपने ही घर में गर्भपात का सारा इंतजाम कर रखा था। और इसकी शिकायत। अमन राजपूत और विनय अरोड़ा जी ने दी।डॉ. पूनम भार्गव के कारनामों के बारे में जानकारी दी थी। इसलिए वह ट्रैप लगवाना चाहते थे। लेकिन पुलिस की ओर से सहयोग न मिलने के चलते डॉ. पूनम भार्गव रंगे हाथों पकड़े जाने से बच गई। अमन राजपूत अपने साथ जिस महिला को गर्भपात के लिए पूनम भार्गव के घर लेकर गए थे, उसके गर्भ में बच्चे को मारने के लिए पहले तो महिला को गोली खिला दी और उसके बाद अमन से पैसे देने के लिए कहा। अमन ने जब कहा कि उसके पास अभी तीन हजार रुपये ही हैं तो वह भड़क गई थी और महिला को घर पर ही बैठा लिया था। इसके बाद अमन पांच हजार रुपये और लेकर आया था। दो वकीलों को लेकर पहुंची डॉक्टर। बीते सोमवार को इस मामले की जांच कमेटी कर रही थी और कमेटी के सामने डॉक्टर पूनम भार्गव उपलब्धि रही और वह अपने साथ दो वकील लेकर आई थी उनके वकील 9:00 पर शिकायतकर्ता अमन और विनय ने ऐतराज जाहिर किया और उनके एतराज के चलते हैं कोर्ट से बाहर कर दिया गया। और इसके बाद पूनम भार्गव का वीडियो भी हम दोनों शिकायत कर्ताओं ने दिखाया जिसमें वह इससे बाबत डीलिंग करती हुई नजर आ रही है और वह बोल रही है। इस वीडियो में यह देखने को मिला कि वह किससे बात कर रही है? क्या बात कर रही हो और डीलिंग में कितने पैसे ले रही हैं? डील चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी असिस्टेंट। बलजिंदर कौर के जरिए शुरू हुई थी। जिसमें बलजिंदर अमन से कह रही थी कि गर्भपात डॉक्टर पूनम भार्गव कर देंगी लेकिन उसके लिए उन्हें पैसे देने होंगे।

डॉक्टर पूनम ने कमेटी के समक्ष यह कबूल कर लिया कि। उन्होंने गर्भपात करने के लिए अमन से ₹8000 नकद ली थी। जिसे वह मौके पर ही कमेटी के समक्ष जमा कर दिए। गर्भपात विशेषज्ञ डॉक्टर को कानून क्या सज़ा देते हैं यह एक अलग शोध का विषय रहेगा।

जय प्रकाश जेपी की मदद से हुड्डा निपटाएंगे जेजेपी को

धर्मपाल वर्मा, चंडीगढ़:

कांग्रेस के नेता व पूर्व मुख्यमंत्री चौधरी भूपेंद्र सिंह हुड्डा और उनके पुत्र पूर्व सांसद दीपेंद्र सिंह हुड्डा ने जहां राज्य भर में अपना जनसंपर्क अभियान छेड़ रखा है वही भविष्य में वे हिसार लोकसभा क्षेत्र में जननायक जनता पार्टी की कमर तोड़ने का काम करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से लग पड़े हैं l इंडियन नेशनल लोकदल और जननायक जनता पार्टी में युवा प्रदेश इकाई के अध्यक्ष रह चुके उमेद लोहान और जस्सी पेटवाड़ का कांग्रेस में और वह भी भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में पाला बदलना भी इस बात का एक संकेत है।

चौधरी भूपेंद्र सिंह हुड्डा और उनकी टीम ने आगामी 1 नवंबर को हरियाणा दिवस के उपलक्ष्य में उचाना जिला जींद में 500000 लोगों की रिकॉर्ड हाजिरी वाली रैली आयोजित करने का ऐलान अभी से कर दिया है और इस कुरुक्षेत्र पर नजर डालने से ऐसा एहसास होता है कि हुड्डा रूपी अर्जुन के कृष्ण रूपी सारथी जयप्रकाश जेपी बनने जा रहे हैं।

बैनर कांग्रेसका परंतु ताकत हुड्डा की, यह सब जगह देखा जा रहा है। हुड्डा के उपरोक्त कार्यक्रम इन दोनों पिता-पुत्र के इर्द गिर्द घूम रहे हैं इसलिए लाभ भी उन्हें ही होगा।

अब दीपेंद्र सिंह हुड्डा रोहतक, सोनीपत, झज्जर और पानीपत के बाहर भी जनाधार मजबूत कर रहे हैं और इन क्षेत्रों पर खास फोकस करके चल रहे हैं जहां जेजेपी का असर नजर आता है lपिछले दिनों इसी क्षेत्र में हिसार जिले के नारनौंद विधानसभा क्षेत्र में राजनीति में सक्रिय और स्थापित दो नेता उमेद लोहान और जस्सी पेटवाड़ भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में कांग्रेस में शामिल हुए lइनमें जस्सी इनेलो से तो उमेद सिंह जेजेपी मूल के हैंl यह दोनों अपने-अपने दलों में युवा इकाई के अध्यक्ष रहे हैं l

अभी रविवार को जस्सी ने अपने पैतृक गांव पेटवाड़ में एक बड़ी सभा का आयोजन किया l हाजरी और जन जोश चर्चा का विषय विषय बने हुए हैंl इस आयोजन में भूपेंद्र सिंह हुड्डा दीपेंद्र सिंह हुड्डा कई कांग्रेसी विधायक और नेता तथा जींद कैथल और हिसार जिलों में लंबी राजनीति करते आ रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री जयप्रकाश जेपी विशेष भूमिका में नजर आए l

रैली में अधिकांश बस वक्ता यह संदेश देते दिखे कि भविष्य में हिसार लोकसभा क्षेत्र के लोग श्री हुड्डा की बात मानने की आदत डालें और जेजेपी को सिरे से नकारने की समझदारी का परिचय दें l

आपको बता दें कि नारनौल ऐसा विधानसभा क्षेत्र है जहां हरियाणा बनने के बाद एक बार भी कांग्रेस अपना खाता नहीं खोल पाई है और जयप्रकाश जेपी भी जस्सी और उमेद की तरह इनेलो के युवा प्रदेश अध्यक्ष रह चुके हैं lइस सभा में नेताओं ने लोगों को यह संदेश देने की कोशिश की कि जेजेपी ने भाजपा से मिलकर एक राजनीतिक साजिश की , विश्वासघात किया और नशे को बढ़ावा देते हुए स्वार्थ पूर्ण राजनीति की है l इसलिए इन्हें पूरी तरह से रिजेक्ट करने का वक्त आ गया है lयह सब नेता इस बात पर फोकस करते नजर आए कि भाजपा को जमनापार भेजने का दावा कर वोट मांगने वाले जे जे पी के नेता आज भाजपा की गोद में जा बैठे हैं तो लोग सिर हिला हिला कर अपनी स्वीकृति देते हैं तालियां बजाते हैं l

आने वाले समय में हुड्डा परिवार जेजेपी को घेरने में सफल होता नजर आ रहा है। लगता है पिछले चुनाव में कांग्रेस के दिग्गज जाट नेताओं चौधरी निर्मल सिंह जयप्रकाश और रणदीप सिंह सुरजेवाला का चुनाव हारना भी चौधरी भूपेंद्र सिंह हुड्डा के काम आएगा lउधर कांग्रेस में प्रदेश अध्यक्ष कुमारी शैलजा पार्टी के नेताओं की विश्वस्त जरूर है परंतु वह भूपेंद्र सिंह हुड्डा की तरह कोई जनसंपर्क अभियान चलाने में रुचि नहीं ले रही हैं l न ही वे इस तरह की राजनीति करने के लिए जानी जाती हैं। इसीलिए यह लाभ भी भूपेंद्र सिंह हुड्डा को ही मिल रहा है।

प्रेम और आत्मसम्मान

यह कोई नये शब्द नहीं है जहां जहां प्रेम की बात होती है वहां पर आत्मसम्मान का पाठ पढ़ाया जाता है क्योंकि किसी भी इंसान जिसमें रीढ़ की हड्डी मजबूत हो जो अपने स्वाभिमान के साथ जीता हो उसके लिए उसका आत्मसम्मान ही सबसे बड़ी चीज होती है। लेकिन जब बात आती है प्रेम की वहां अक्सर लोग अपना आत्मसम्मान खोते नजर आते हैं चाहे प्रेम में पड़कर हो चाहे सामने वाले के साथ तालमेल बिठाने को लेकर। एक हद तक यह सही भी होता है कि प्रेम को की पूर्ति करने के लिए कई बार अपने सम्मान को थोड़ा किनारे रखकर लोग आगे बढ़ते हैं क्योंकि किसी भी रिश्ते को खत्म करने से बेहतर होता है कि थोड़ासा एडजस्ट किया जाए रिश्ते रोज नहीं बनते लेकिन जब बनते हैं तो उन्हें सच्चे मन से निभाने वाले इंसान ही सच्चे होते हैं।

अब सवाल आता है आत्मसम्मान कए साथ एडजस्ट कहां किया जाए किसके साथ किया जाए किसके साथ आप करना चाहेंगे जिसके साथ आप करते हैं जो आपसे प्रेम करता है? जो आपसे प्रेम करता होगा वह आपको कभी भी आपके सम्मान के साथ समझौता नहीं करने देगा उसे महसूस होगा कि आपके सम्मान को ठेस पहुंच रही है तो वो आपसे एक कदम ज्यादा आगे बढ़कर उन शर्तों में बदलाव कर देगा लेकिन इसके लिए सामने वाले के दिल में आपके लिए निश्छल प्रेम का होना जरूरी है।

जहां प्रेम स्थिति समय और सुविधानुसार किया जाएगा वह कभी भी सामने वाला आपको वह सम्मान नहीं दिला पाएगा जो आपका अधिकार है और जिस प्रेम में अधिकारों को बताना पड़े जताना पड़े मांगना पड़े प्रेम नहीं सिर्फ परिस्थितियों में उलझा हुआ रिश्ता है। पर ऐसे रिश्ते में मन को बहलाने के लिए आप चाहे तो जीवन भर रह सकते हैं लेकिन याद रखिए जब जब सच्चाई की कसौटी पर यह रिश्ता परखेंगे तब तब आपको ठेस पहुंचेगी या तो आप खुद को तैयार कर लीजिए कि जब जब आपको ठोकर लगेगी आप अकेले गिरेंगे रोएंगे सम्भलेंगे और फिर उठ जाएंगे। लेकिन यह सब सिर्फ कुछ समय तक ही चल पाता है बार-बार अपमान के घूंट आपको इतना अंधेरों में धकेलेंगे कि आप चाह कर भी फिर नहीं उभर पाएंगे। कोई भी रिश्ता हो लेकिन चुनाव सिर्फ आपका होना चाहिए। कितना चलना है कैसे चलना है आपकी भूमिका कितनी होगी यह आप खुद तैयार कीजिए प्रेम में पड़कर भी किसी को इतना हक मत दीजिए कि सामने वाला आपको कठपुतली की तरह नचा सके। खुद का सम्मान करे तभी कोई और आपका सम्मान करेगा।

कांग्रेस में अभी सब कुछ ठीक नहीं चल रहा

ज्योतिरादित्य सिंधिया और शर्मिष्ठा मुखर्जी जैसे नेताओं के ट्वीट से पार्टी में वरिष्‍ठ व युवा नेताओं की खाई एक बार फिर उजागर हो गई है.

चंडीगढ़ :  

Ravirendra-Vashisht
राज्विरेन्द्र वशिष्ठ
संपादक:
डेमोक्रटिकफ्रंट.कॉम

कांग्रेस में अभी सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. राहुल गांधी का धड़ा अध्‍यक्ष का पद दोबारा पाने को बेताब है तो सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) का धड़ा अभी कोई बदलाव के मूड में नहीं दिख रहा. हालांकि दिल्‍ली विधानसभा चुनाव में एक बार फिर शून्‍य पर आने और सोनिया गांधी के स्‍वास्‍थ्‍य को लेकर पार्टी में चिंता की लकीरें खिंच गई हैं. फिर भी वरिष्‍ठ नेता अप्रैल में होने वाले राज्‍यसभा चुनावों तक नेतृत्‍व में कोई बदलाव किए जाने के पक्ष में नहीं है. अप्रैल में छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्य प्रदेश में राज्यसभा की कई सीटें खाली हो रही हैं. मोतीलाल वोहरा, दिग्विजय सिंह, कुमारी शैलजा, मधुसूदन मिस्त्री और हुसैन दलवई जैसे कांग्रेसी राज्यसभा से रिटायर हो रहे हैं. राहुल गांधी इन सीटों पर युवा नेताओं ज्योतिरादित्य सिंधिया, रणदीप सुरजेवाला, मिलिंद देवड़ा, जितिन प्रसाद और आरपीएन सिंह आदि को भेजने के पक्ष में हैं. यही बात वरिष्‍ठ नेताओं को पच नहीं रही है. इस वर्ष कांग्रेस के कुल 18 कांग्रेस सदस्य राज्यसभा से सेवानिवृत्त हो रहे हैं, लेकिन कांग्रेस राज्यसभा में सिर्फ 9 सदस्य भेज सकती है.

राहुल गांधी के समर्थक चाहते हैं कि सोनिया गांधी के स्‍वास्‍थ्‍य को देखते हुए राहुल गांधी को फिर से अध्‍यक्ष पद की जिम्‍मेदारी दी जाए, लेकिन वरिष्‍ठ नेताओं की राय है कि इससे पार्टी कार्यकर्ताओं में गलत संदेश जाएगा. वरिष्ठ नेता राहुल गांधी को अंतिम रूप से बहाल किए जाने से पहले गांधी परिवार से बाहर के किसी नेता को अध्यक्ष चुने जाने की वकालत कर रहे हैं. इसी कारण राहुल गांधी के समर्थक बेचैन हो रहे हैं.

दिल्ली विधानसभा चुनावों में शर्मनाक हार के बाद युवा नेताओं ने आक्रोशित होकर ट्वीट किए हैं. ज्योतिरादित्य सिंधिया और शर्मिष्ठा मुखर्जी जैसे नेताओं के ट्वीट से पार्टी में वरिष्‍ठ व युवा नेताओं की खाई एक बार फिर उजागर हो गई है. पार्टी मुख्‍यालय में अप्रैल में होने वाले राज्यसभा चुनाव के बाद नेतृत्व में बदलाव को लेकर उठापटक चल रही है. होली के बाद AICC कन्वेंशन की तारीख तय होनी है. उसी में राहुल गांधी को अध्यक्ष चुने जाने की योजना है.

क्या भाजपा दिल्ली विधानसभा में जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभा पाएगी?

2 किश्तियों पर सवार आदमी हमेशा ही डूबता है, उसे कोई नहीं बचा सकता।

गृह मंत्री आदरणीय अमित शाह जी, आप, कह रहे है कि गोली मारो, हिंदुस्तान पाकिस्तान का मैच, शाहीन बाग़ का करंट नारों ने BJP को दिल्ली इलेक्शन में नुकसान पहुंचाया है। पर मेरा विश्लेषण है कि इन्ही नारों की बजह से भाजपा की 8 seats आई है , नही तो शायद कोई भी सीट नही आती ।

अर्श अग्रवाल

क्या अमित शाह भी अब मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति के लंबरदार बनेंगे। समझ नहीं आती कि गद्दारों को गोली मारने की बात विवादास्पद कैसे हो सकत है, विवादास्पद तो वह था जब सीसोदिया ने कहा था कि वह शाहीन बाग के प्रोटेस्टोर्स के साथ खड़ा है।शाहीन बाग को जब पीएफ़आई प्रायोजित कर रहा था और साथ ही पाकिस्तान के मंत्रियों के बयान मोदी को हारने के लिए आए तो भारत पाक का मैच भी कैसे विवादास्पद हुआ? आप कई मामलों में मामला विचारधीन हा कह कर बच निकलते हैं, जिससे आपकी छवि जनता में धूमिल ही हुई है। आपके आज के बयान से यह लगता है कि अब आपको देश विरोधी नारे निराश नहीं करेंगे। शाह साहब, यह अवश्य याद रखें, 2 किश्तियों में पैर रखने वालों को पानी में डूबने से कोई भी नही बचा सकता ।

चंडीगढ़: 

Ravirendra-Vashisht
रविरेन्द्र वशिष्ठ
संपादक
डेमोक्राटिकफ्रंट.कॉम

दिल्ली में हार के बाद सार्वजनिक तौर पर पहली बार बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अपनी हार स्वीकार कर ली. उन्होंने कहा कि ‘देश के गद्दारों को, गोली मारो…’ और ‘भारत-पाक मैच’ जैसे बयान नहीं देने चाहिए थे. हो सकता है कि इस तरह के बयानों के कारण पार्टी को नुकसान उठाना पड़ा हो. शाह ने कहा भाजपा भले ही हार गई हो, लेकिन उसने ‘अपनी विचारधारा का विस्तार किया.’ उन्होंने कहा कि भाजपा दिल्ली विधानसभा में जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभाएगी.

जिम्मेदार विपक्ष, केजरीवाल के आगे आप पक्ष ही साबित करें यही गनीमत होगी। विपक्ष में तो आप पिछले 22 वर्षों से हैं तब भी दिल्ली घोटालों कि शिकार हुई तब जिम्मेदार विपक्ष कहाँ था?

गृह मंत्री शाह ने स्वीकार किया कि उनका दिल्ली चुनावों में 45 सीटें प्राप्त करने का आकलन गलत साबित हुआ. उन्होंने कहा, “मेरा आकलन 45 सीटों का था. यह गलत साबित हुआ.”

आपके आंकलन तो कई राज्यों में गलत साबित हुए, वह राजस्थान हो, मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ झारखंड या फिर महाराष्ट्र, आपने हर राज्य को भाजपा मुक्त करने कि ठानी है या फिर मंथन में अगला चुनाव कैसे हारना है इस पर सहमति बनाते हैं।

उन्होंने अपने ईवीएम से करंट लगाने के बयान का तो बचाव किया, लेकिन कहा कि भाजपा नेताओं द्वारा चुनाव प्रचार के दौरान की गईं कुछ टिप्पणियां अनुचित थीं. उन्होंने कहा, “भाजपा ने उनसे (नेताओं के विवादित बयानों से) खुद को अलग किया था.”

गृहमंत्री शाह ने पीएफआई-शाहीन बाग लिंक पर कहा, ”पीएफआई को लेकर हमें कुछ जांच एजेंसियों की रिपोर्ट मिली है. गृह मंत्रालय उसकी जांच कर रहा है. जांच में जो भी सामने आएगा, हम उस हिसाब से कार्रवाई करेंगे.”

वाड्रा, पर जांच चलते हुए कितने साल हो गए? आपके राज में तो सजायाफ्ता भी बचते नज़र आ रहे हैं। जांच के बाद मुक़द्दमे और फिर वही तारीख पे तारीख, सोनिया राहुल, हुड्डा – वोरा, 6 साल पहले इनके भ्रष्टाचार को चुनावी मुद्दा बना कर आप सत्तासीन हुए, और अभी तक या तो जांच पूरी नहीं हुई या फिर मामला मुकद्दमों में उलझा दिया गया। क्या आप के शासन काल में भ्रष्टाचारियों पर दंडात्मक कार्यवाही होगी भी, या मामला विचाराधीन है यही सुनने को मिलता रहेगा।

शाह ने कहा, ”मैं 3 दिनों के भीतर समय दूंगा, जो कोई भी मेरे साथ नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) से संबंधित मुद्दों पर चर्चा करना चाहता है.”

क्या यह ठीक होगा? अमित शाह एक नए धडे को यह संदेश देंगे की संसद में जनप्रतिनिधियों द्वारा लिया गया फैसला अब संसद के बाहर सुलझाया जाएगा, क्या यह एक नयी परिपाटी का आरंभ होगा? क्या भारत में प्रत्यक्षलोक तंत्र है कि भीड़ इकट्ठे होकर फैसले लेगी। और अमित शाह मिलेंगे भी तो किससे, आआपा ने तो संसद में कोई विरोध नहीं उठाया था जबकि शाहीन बाग के साथ वह खड़े थे। यदि केजरीवाल ही से बात करनी है तो वह तो दिल्ली के चुनावों आपको आपकी स्थित बता ही दी है।

बता दें कि भाजपा की दिल्ली विधानसभा चुनावों में करारी हार हुई है. पार्टी को सिर्फ आठ सीटें मिली हैं, जबकि आआपा को 62 सीटों पर जीत मिली है.

ठाकुर और वर्मा के भड़काऊ बयान

गौरतलब है कि चुनाव प्रचार के दौरान बीजेपी सांसद अनुराग ठाकुर ने दिल्ली के रिठाला क्षेत्र में रैली के संबोधन के दौरान भड़काऊ टिप्पणी की थी. उन्होंने कहा था, “देश के गद्दारों को, गोली मारो .. को.”

वहीं, प्रवेश वर्मा ने कथित रूप से कहा था कि राष्ट्रीय राजधानी में 500 सरकारी संपत्तियों पर मस्जिदों और श्मशानों का निर्माण किया गया है, जिसमें अस्पताल और स्कूल भी शामिल हैं. उन्होंने कहा कि ये अवैध निर्माण जिन क्षेत्रों में हुए हैं, वह दिल्ली विकास प्राधिकरण, दिल्ली नगर निगम, दिल्ली जल बोर्ड और कई अन्य सरकारी एजेंसियों की जमीन है.

वर्मा के बयान मान लिया विवादास्पद है जो कि नहीं हैं, परंतु उनके आरोपों कि जांच होनी चाहिए थी कि नहीं, या वह भी अब मुस्लिम तुष्टीकरण कि भेंट चढ़ाये जाएँगे?

ठाकुर और वर्मा पर चुनाव आयोग ने दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए चुनाव प्रचार पर क्रमश: 72 और 96 घंटे की पाबंदी लगाई गई थी.इन दोनों को चुनाव आयोग द्वारा दंडित किया गया और आपको दिल्ली द्वारा।

हिन्दू ही क्यों धर्मनिरपेक्ष रहते हैं?

हिंदुओं के कंधों पर धर्मनिरपेक्षता की जो जिम्मेदारी वर्ष 1947 में डाल दी गई थी, हिंदू आज भी उसी जिम्मेदारी का पालन करते आ रहे हैं और बहुसंख्यक होने के बावजूद हिंदू आसानी से ध्रुवीकरण का शिकार नहीं होते. जबकि मुसलमानों के बीच ये ट्रेंड देखा जाता है कि जब भी उन्हें किसी पार्टी की नीतियों से खतरा लगता है तो वो उसकी विरोधी पार्टी को चुनाव में भारी अंतर से जिता देते हैं. अब आप ये सोचिए कि अगर मोहम्मद अली जिन्ना का 14 सूत्रीय कार्यक्रम आज के भारत में लागू होता तो स्थिति क्या होती?

तब ऐसी सीटों पर शायद हिंदुओं को वोटिंग का अधिकार भी नहीं होता. मुसलमान अपनी सीटों पर अपना उम्मीदवार चुनते जबकि हिंदू धर्मनिरपेक्षता को जिताने के लिए वोट डालते. दुनिया में करीब 50 देश ऐसे हैं जिनकी बहुसंख्यक आबादी मुस्लिम है. इनमें से करीब 20 देश खुद को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं लेकिन इनमें से भी ज्यादातर देशों में धर्मनिरपेक्षता सिर्फ नाम की है. इस्लाम में मूल रूप से धर्मनिरपेक्षता की कोई बात नहीं की गई है. अरबी भाषा में धर्मनिरपेक्षता जैसा कोई शब्द नहीं है.इसका कारण शायद ये है कि इस्लाम राजनीति और धर्म को अलग करके नहीं देखता है. जबकि साधारण भाषा में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है राज्य का धर्म से दूर रहना. यानी सभी धर्मों के प्रति तटस्थ बने रहना.लेकिन दुनिया के ज्यादातर मुस्लिम देशों में सरकारें खुद को धर्म से अलग नहीं रखतीं. इसलिए दुनिया के लगभग किसी भी इस्लामिक देश में कोई गैर मुस्लिम व्यक्ति राष्ट्र अध्यक्ष बनने का सपना भी नहीं देख सकता है.

दिल्ली चुनाव के नतीजे आने के बाद हमारे अंतरराष्ट्रीय सहयोगी चैनल WION ने दिल्ली के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर नजीब जंग से बात की थी.नजीब जंग का कहना था कि भारत अपनी बहुसंख्यक आबादी की वजह से धर्मनिरपेक्ष है. ना कि अल्पसंख्यक आबादी की वजह से. Pew Research Center के मुताबिक 2050 तक भारत में मुस्लिम आबादी 30 करोड़ से ज्यादा हो जाएगी और तब भारत दुनिया में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला देश होगा लेकिन समस्या मुसलमान आबादी का बढ़ना नहीं है. समस्या ये है कि भारत के मुसलमानों का तेजी से वहाबी करण किया जा रहा है. यानी उन्हें कट्टर इस्लाम की तरफ मोड़ा जा रहा है. इस्लाम के कट्टर रूप को सर्वश्रेष्ठ मानने वाले विकास की नहीं बल्कि शरिया की बात करते हैं. बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी वाले शहरों के शरियाकरण की शुरुआत सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के कई विकसित देशों में भी हो चुकी है. ऐसा ही एक देश ब्रिटेन है.ब्रिटेन ने ही आज़ादी से पहले भारत के हिंदुओं और मुसलमानों को बांटने की कोशिश की थी लेकिन आज ब्रिटेन के ही कई शहर ऐसे हैं जहां मुस्लिमों की आबादी मूल निवासियों से ज्यादा होने लगी है.

ब्रिटेन का बर्मिंघम (Birmingham)‌ भी एक ऐसा ही शहर बन चुका है.जहां कुछ वर्षों में मुसलमानों की संख्या मूल निवासियों से ज्यादा हो जाएगी. बर्मिंघम में 200 देशों से आए लोग रहते हैं.लेकिन इनमें बड़ी संख्या मुस्लिम अप्रवासियों की है. अमेरिकी मीडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक बर्मिंघम में कई ऐसे नो गो जोन बन चुके हैं, जहां गैर मुस्लिमों का जाना प्रतिबंधित है. इस रिपोर्ट के मुताबिक बर्मिंघम शहर ब्रिटेन में जेहादी विचारधारा की राजधानी बन गया है. बर्मिंघम के कई इलाके ऐसे हैं जहां 70 प्रतिशत से भी ज्यादा मुस्लिम आबादी रहती है. इन इलाकों में अपराध का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है. ब्रिटिश मीडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक ब्रिटेन में जेल की सजा भुगत रहे 250 आतंकवादियों में से 26 का रिश्ता बर्मिंघम से ही था.

बर्मिंघम का प्रतिनिधित्व 10 सांसद करते हैं जिनमें से 3 मुस्लिम हैं. बर्मिंघम में भी तुष्टिकरण और ध्रुवीकरण की राजनीति का हाल भारत के कई राज्यों जैसा ही है. इसलिए ब्रिटेन का जो शहर कभी विकास के लिए जाना जाता था, वो अब कट्टर इस्लाम और जेहादी विचरधारा का केंद्र बन गया है. कुल मिलाकर सिर्फ 60 वर्षों में बर्मिंघम विकास के केंद्र से कट्टर इस्लाम के केंद्र में बदल गया और अब वहां की पूरी डेमोग्राफी बदलने लगी और वहां के बहुसंख्य अंग्रेज़ कुछ ही वर्षों में अल्पसंख्यक बन जाएंगे. 

तस्वीर सिर्फ दिल्ली और बर्मिंघम  की ही नहीं बदल रही बल्कि हमारे देश की राजनीतिक तस्वीर भी तेज़ी से बदल रही है. इसलिए अगला विश्लेषण शुरू करने से पहले हम आपको एक तस्वीर दिखाना चाहते हैं. ये तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल है. इस तस्वीर में दो राजनीतिक दलों के चुनाव चिह्न दिख रहे हैं.कांग्रेस का चुनाव निशान हाथ.और आम आदमी पार्टी का चुनाव निशान झाड़ू.लेकिन, तस्वीर में जो संदेश दिया गया है, वो ये है कि…कांग्रेस का हाथ अपनी पहचान खो चुका है और ये हाथ आखिरकार अपना रूप बदलकर झाड़ू में तब्दील हो चुका है.

तो क्या ये मान लिया जाए कि कांग्रेस का अपना कोई अस्तित्व नहीं रह गया है और कांग्रेस अब सिर्फ आम आदमी पार्टी के भरोसे है? हमने जो सवाल उठाया है, वो खुद कांग्रेस के नेता भी सार्वजनिक तौर पर उठा रहे हैं. कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता, दिल्ली महिला कांग्रेस की अध्यक्ष और पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी ने ट्विटर पर कांग्रेस नेता और पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम को जो जवाब दिया है, उस पर आपको ध्यान देना चाहिए.

चिदंबरम ने दिल्ली चुनाव के नतीजों पर खुशी जताते हुए कहा था कि दिल्ली के लोगों ने AAP को जिता दिया और बीजेपी के खतरनाक एजेंडे को हरा दिया.इस पर शर्मिष्ठा मुखर्जी ने चिदंबरम से पूछा है कि क्या कांग्रेस ने बीजेपी को हराने की ज़िम्मेदारी क्षेत्रीय दलों को सौंप दी है ? शर्मिष्ठा का सवाल है कि कांग्रेस पार्टी AAP की जीत पर खुश होने के बदले अपनी हार की चिंता क्यों नहीं करती है और ऐसे में क्यों ना प्रदेश कांग्रेस कमेटियों को बंद कर दिया जाए? 

दरअसल कांग्रेस लगातार दूसरी बार दिल्ली विधानसभा चुनाव में अपना खाता नहीं खोल पाई है.यानी पार्टी का एक भी उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत पाया.इतना ही नहीं, पिछले चुनावों से दिल्ली में कांग्रेस का वोट शेयर भी लगातार कम होता गया और AAP का वोट प्रतिशत लगातार बढ़ता गया. जो तस्वीर हमने आपको शुरुआत में दिखाई थी, वो अब आंकड़ों के साथ देखिए.कांग्रेस को वर्ष 2008 में दिल्ली में 40 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि ये वोट शेयर घटते-घटते इस चुनाव में करीब 4 प्रतिशत पर पहुंच गया. दूसरी ओर आम आदमी पार्टी ने पिछले तीन विधानसभा चुनावों में शानदार प्रदर्शन किया.और इस चुनाव में करीब 53 फीसदी वोट हासिल किए हैं. कहा ये भी जा रहा है कि AAP को जो वोट मिले हैं, वो कांग्रेस के ही वोट हैं.यानी कांग्रेस के पंजे ने जो ताकत खोई है, वो ताकत AAP की झाड़ू को ही मिली है.

कांग्रेस इस देश की सबसे पुरानी पार्टी है, उसका जन्म 1885 में हुआ था.जबकि आम आदमी पार्टी का जन्म 2012 में हुआ.देखा जाए तो कांग्रेस उम्र में AAP से 127 साल बड़ी है.लेकिन, ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने खुद से 127 वर्ष छोटी पार्टी के आगे सरेंडर कर दिया है.AAP को अगर दिल्ली की राजनीति का सबसे सफल startup माना जाए तो ये भी कहा जा सकता है कि AAP ने दिल्ली में अब कांग्रेस को मर्ज कर लिया है.