तुम अख़बार हो तो बेखबर मैं भी नहीं

‘पुरनूर’ कोरल, चंडीगढ़ :

मीडिया में बाज़ार का दखल प्रत्यक्ष रूप में बढ़ता जा रहा है हालांकि कुछ अखबारें हमेशा से ही स्वयं को उपभोग वस्तु की श्रेणी में शामिल करती रही है जैसे कि लिख देना अ प्रोडक्ट ऑफ ….। लेकिन खबरों से ज़्यादा विज्ञापनों को स्थान देने के लिए अखबार के पन्नों में इज़ाफ़ा कर दिया गया।

अब अखबार मिशन नहीं व्यवसाय बन गया है । आजकल मिशन रखने वाले पत्रकारों को पागल कहते हैं अखबार रंगदार हो गए। धन और ताकत का स्रोत बन गए हैं । असल मे वर्ष 1995 में तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने उदारीकरण के नाम पर अर्थव्यवस्था खोल दी थी यह उसी का नतीजा है।

अमर्यादित तरीके से विज्ञापन हथियाने के लिए राजनेताओं और व्यवसायियों की चाटूकारिता करना , जहाँ ये न चले वहाँ ब्लैकमेलिंग के हथियार खुलकर इस्तेमाल किये जाते हैं।

बहुत बदल गया है मीडिया

आज माँ से बात कर रही थी तो उन्होंने बताया कि पहले सम्पादक स्वयं एक संस्था होते थे जो अब कमज़ोर हो गई पहले सम्पादक अपने संवादाताओं से अक्सर कहते थे इन विज्ञापन वालों से दूर रहना । बहुत चिढ़ते थे अखबार की मार्केटिंग टीम से लेकिन अब सब बदल गया। अखबारों के प्रबंधन किसी सम्पादक की नियुक्ति के समय टारगेट बाँध देते है और इसी तरह सम्पादक भी अपने अधीनस्थ पत्रकारों के टारगेट फिक्स कर देते हैं। जनरल मैनेजर (मार्केटिंग) सम्पादक का पर्याय बन गया है।

मीडिया में बाज़ारवाद का प्रभाव इस कद्र बढ़ गया है कि दौलत का अंबार ठिकाने लगाने के लिए इन संस्थाओं द्वारा अलग नामों से नित्य नए अखबार और चैनल चलाये जा रहे हैं।

एक और चीज़ ” मीडिया ट्रायल”

बहुत ही भयानक साबित होता है कई बार। हालांकि कई मामलों में यह कारगार भी साबित हुआ लेकिन ज़्यादातर सेल्फ स्टाइल्ड जासूसी पत्रकार जल्दबाजी में कानूनी प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं।

समाचारों और विचारों में बाज़ार इस कदर हावी है कि ख़बर और विज्ञापन में अन्तर कर पाना मुश्किल लगता है। यहाँ तक कि कुछ अख़बार तो श्राद्ध पक्ष के दौरान भी पुष्य नक्षत्र के आगमन के प्रायोजित समाचार छापकर पाठकों को बेवकूफ़ बनाने से बाज नहीं आते. तमाम अख़बार ख़रीदारी के लिए तरह-तरह के मेले लगाने को अपना परम कर्त्तव्य मान बैठे हैं. यह पाठकों के खिलाफ़ एक गहरी मीडियाई साजिश है।

रौनकें कहाँ दिखायी देती हैं अब पहले जैसी,
अख़बारों के इश्तेहार बताते हैं, कोई त्यौहार आया है!

ज्येष्ठ अमावस्या, 2021

ज्येष्ठ अमावस्या यह हिन्दी कैलेंडर का ज्येष्ठ महीना चल रहा है। इस महीने में पड़ने वाले अमावस्या तिथि को ज्येष्ठ अमावस्या कहते हैं। शास्त्रों में ज्येष्ठ अमावस्या का बड़ा महत्व है। दरअसल ज्येष्ठ अमावस्या के दिन ही शनि जयंती और वट सावित्री व्रत का पर्व मनाया जाता है।

ज्येष्ठ माह में आने वाली 15वीं तिथि ज्येष्ठ अमावस्या कहलाती है। हिंदू धर्म में ज्येष्ठ अमावस्या का खास महत्व होता है. इस साल ज्येष्ठ अमावस्या10 जून को मनाई जाएगी।ज्येष्ठ अमावस्या के मौके पर भगवान शिव-पार्वती, विष्णुजी और वट वृक्ष की पूजा की परंपरा है। अमावस्या के दिन स्नान और दान का काफी महत्व होता है।

धर्म/संस्कृति डेस्क, डेमोक्रेटिकफ्रंट॰कॉम :

हिन्दी पंचांग के अनुसार, ज्येष्ठ मास की अमावस्या तिथि का प्रारंभ 9 जून 2021 दिन बुधवार को दोपहर 01 बजकर 57 मिनट से हो रहा है, जिसका समापन 10 जून 2021 दिन गुरुवार को शाम 04 बजकर 20 मिनट पर हो रहा है। स्नान दान के लिए उदया तिथि आज 10 जून को प्राप्त हो रही है। ऐसे में ज्येष्ठ अमावस्या 10 जून को है। इस दिन ही धार्मिक कार्य किए जाएंगे।

ज्येष्ठ अमावस्या के दौरान स्नान करने को महत्वपूर्ण बताया गया है। प्राचीन काल से यह परंपरा चली आ रही है. तीर्थ स्नान के बाद सूर्य को अर्घ्य देकर पितरों की शांति के लिए तर्पण किया जाता है। इसके बाद ब्राह्मण भोजन और जल दान का संकल्प लेना चाहिए। इस दिन अन्न और जल दान करने से पितर संतुष्ट होते हैं, जिससे परिवार में समृद्धि आती है। इस दिन स्नान करने से नकारात्मक तत्व दूर होते हैं और मानसिक बल मिलता है. ज्येष्ठ अमावस्या के मौके पर आइए जानते हैं कौन सी चीजें नहीं करनी चाहिए।

ज्येष्ठ अमावस्या की पूजा

अमावस्या के दिन प्रात: पवित्र नदी, जलाशय अथवा कुंड आदि में स्नान करना चाहिए। हालांकि इस समय महामारी का समय है, तो आप घर पर ही स्नान कर लें, यह उत्तम रहेगा। चाहें तो बाल्टी के पानी में गंगा जल डालकर स्नान कर सकते हैं। इस दिन सूर्य देव को अर्घ्य देने के बाद पितरों का तर्पण करना चाहिए। तांबे के पात्र में जल, लाल चंदन और लाल रंग के पुष्प डालकर सूर्य देव को अर्घ्य देना चाहिए। पितरों की आत्मा की शांति के लिए उपवास करें। अमावस्या के दिन किसी गरीब व्यक्ति को दान-दक्षिणा दें।

ज्येष्ठ अमावस्या क्यों है खास

हिन्दू पंचांग के अनुसार, ज्येष्ठ अमावस्या के दिन शनि जयंती और वट सावित्री व्रत रखा जाता है। इस बार ज्येष्ठ अमावस्या खास है क्योंकि इसी दिन सूर्य ग्रहण भी लग रहा है। यह इस साल का पहला सूर्य ग्रहण होगा। ग्रहण दोपहर 01:42 बजे से शुरू होगा, जो शाम 06:41 बजे समाप्त होगा।

  • ज्येष्ठ अमावस्या के दिन अगर आपके घर में कई गरीब मांगने वाला आता है तो उसे कभी भी मना नहीं करना चाहिए या खाली हाथ लौटाना नहीं चाहिए. उसे घर में बैठाएं और भोजन कराएं.
  • ज्येष्ठ अमावस्या को शनि जयंती के नाम से भी जाना जाता है इसलिए शनिदेव का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए इस दिन तन और मन से शुद्धता बनाए रखनी चाहिए. इस दिन भूलकर भी मांस-मदिरा के सेवन करने से बचना चाहिए. वरना शनिदेव नाराज हो सकते हैं.
  • ज्येष्ठ अमावस्या के दिन महिलाओं को बाल खोलकर नहीं रहना चाहिए. ऐसा अशुभ माना जाता है. अमावस्या की तिथि पर महिलाओं को हमेशा अपना बाल बांधकर रखने चाहिए.
  • ज्येष्ठ अमावस्या के दिन लोहा, कांच या सरसों का तेल आदि शनि से संबंधित किसी भी चीज की खरीदारी नहीं करनी चाहिए, ऐसा करना अशुभ बताया गया है. इन चीजों पर शनि व राहु-केतु का संबंध माना गया है.

यूपी भाजपा में घमासान क्या योगी के बिना संभव है मिशन 2024 ?

अरविंद शर्मा वाराणसी मॉडल तैयार कर सकते हैं या लखनऊ में बैठकर सूबे के बाकी जिलों पर भी नजर रख सकते हैं, लेकिन बीजेपी को लेकर जनता में योगी आदित्यनाथ जैसी खलबली नहीं मचा सकते – न ही वैसा जोश भर सकते हैं जिसकी बीजेपी को यूपी में अभी ही नहीं अगले आम चुनाव तक जरूरत पड़ेगी। कयास तो योगी आदित्यनाथ की कुर्सी पर खतरे के भी लगाये जा रहे थे, लेकिन लगता है पर ये संभावना कम है. वैसे भी लाख दिक्कतों के बावजूद बीजेपी अभी इस स्थिति में तो बिलकुल नहीं है कि उत्तराखंड की तरह यूपी में मुख्यमंत्री बदलने के बारे में सोच सके।

सारिका तिवारी:

यूपी विधानसभा चुनाव में अब महज नौ महीने ही बचे हैं और बीजेपी के लिए यूपी विधानसभा चुनाव जीतने का मकसद सिर्फ सत्ता में वापसी भर नहीं है, बल्कि अगले आम चुनाव के लिए भी मजबूत दावेदारी सुनिश्चित करना भी है। ये बात बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा हाल ही में यूपी के बीजेपी सांसदों के साथ वर्चुअल मुलाकात में भी कह चुके हैं। देश के बाकी सांसदों की ही तरह जेपी नड्डा यूपी मे सांसदों को भी बाहर निकल कर लोगों के बीच जाने और उनकी समस्याएं सुनने और आश्वस्त करने की सलाह दे चुके हैं।

अब योगी आदित्यनाथ की कैबिनेट में वैसे ही पूर्व नौकरशाह अरविंद शर्मा के शामिल होने और बड़ी जिम्मेदारी दिये जाने की चर्चा जोरों पर है। ध्यान देने वाली बात ये है कि योगी कैबिनेट में भी अगर ऐसा ही बदलाव होता है तो वो भी मोदी की ही मर्जी से होगी, न कि योगी की पसंद से। भाजपा ऐसी पार्टी है जो सूत्रों पर आधारित जिसके नाम की भी खबरें चलने लगती हैं पार्टी उसे मंत्रीमंडल में शामिल करने का इरादा कर भी रही होती है तो उसका नाम इस अवसर से कट जाता है। ऐसा कई बार हो चुका है आडवाणी और मनोज सिन्हा को कौन भूल सकता है हालांकि ऐसे दांव-पेंच में एके शर्मा जैसी शख्सियत की संभावित जिम्मेदारियों का रास्ता रोकने का कोई साहस नहीं कर सकता। क्योंकि ये बात तो सोलह  आने सही है कि वो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के करीबी, पसंदीदा और विश्वसनीय हैं।

 सियासी गलियारों में ये कहावत बहुत प्रसिद्ध है कि दिल्ली का रास्ता उत्तरप्रदेश से होकर जाता है। जवाहर लाल नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक सभी का संबंध उत्तरप्रदेश से रहा है। यहां तक कि जब प्रधानमंत्री बनने की बात आई तो लंबे समय तक गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके नरेंद्र मोदी को भी उत्तरप्रदेश का ही रुख करना पड़ा। 90 के दशक में जब राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस पार्टी की स्थिति डगमगाई तब क्षेत्रीय दलों ने मिलकर दिल्ली की राजनीति में महत्ता हासिल कर ली। ऐसे मे भी उनकी राजनीति में भी प्रधानमंत्री पद के लिए प्रमुखता से उत्तरप्रदेश से ही कई नाम रहे। एक बार फिर बीजेपी के अंदरखाने सियासी गलियारों में घमासान मचा है, जिससे अटकलों का दौर चल पड़ा है।

लेकिन क्या ये सियासी घमासान 2022 को टारगेट करके हो रहा है या फिर 2024 की केंद्रीय राजनीति का प्लॉट तैयार हो रहा है। राजनीति में राजनेता दूर की सोचकर निर्णय लेते हैं. शह-मात का खेल चलता रहता है और अचानक से कोई विजयी की भूमिका में सामने आ जाता है। सियासी चर्चाओं के बीच उत्तर प्रदेश में चुनावी वर्ष की शुरुआत हो चुकी है। जीत कैसे मिले इस पर काम चल रहा है। रणनीतिक तैयारियों के तहत बीजेपी के राष्ट्रीय महामंत्री संगठन बीएल संतोष और यूपी प्रभारी राधामोहन सिंह की रिपोर्ट केंद्रीय नेतृत्व के पास पहुंच चुकी है। रिपोर्ट मिलने के बाद राधामोहन सिंह दोबारा लखनऊ का दौरा करते हैं।

राजभवन में मुलाकात के पीछे गहरे मायने

राजभवन पहुंचकर राज्यपाल से मिलते हैं फिर बाहर आकर बताते हैं कि शिष्टाचार मुलाकात थी। उसी दिन वे विधानसभा अध्यक्ष से भी मिलते हैं और उसे पुराने संबंधों के आधार पर की गई मुलाकात बताते हैं। विधानसभा अध्यक्ष हृदयनारायण दीक्षित कहते हैं कि दोनों नेताओं में राष्ट्रवाद और प्राचीन इतिहास पर बात हुई है। एक दिन में दो संवैधानिक पदों पर बैठे हुए व्यक्तियों से मुलाकात के गहरे मायने हो सकते हैं। क्या पार्टी सदन में किसी विषम परिस्थिति में आने वाली है। प्रदेश मे अंदरखाने पक रही खिचड़ी के सवाल पर वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव 1982 का दौर याद करते हैं और कहते हैं कि 1982 में विश्वनाथ प्रताप सिंह उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री हुआ करते थे और श्रीपति मिश्र विधानसभा अध्यक्ष हुआ करते थे।

सियासत दांव पेंच का खेल

वे उन दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि बेहमई कांड हो चुका था। कानून-व्यवस्था पर सवाल उठने शुरू हुए थे. डकैतों पर कार्रवाई चल रही थी, इसी बीच वीपी सिंह के भाई की डकैतों ने हत्या कर दी और वीपी सिंह ने मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया था और तब एकदम से विधानसभा अध्यक्ष श्रीपति मिश्र मुख्यमंत्री बना दिए गए थे और बाद मे वीपी सिंह को केंद्रीय राजनीति मे लेकर मंत्री बना दिया गया. वे कहते हैं कि सियासत दांव पेंच के साथ ही संयोगों का खेल भी है जिससे कोई भी नई स्थिति उभरकर सामने आ सकती है जिसके बारे मे आमतौर पर सोचा भी नहीं जा सकता।

राजस्थान के व्यापारियों दुकानदारों जागो और सारे बाजार खुलने का ज्ञापन अभी दो

करणीदानसिंह राजपूत

राजस्थान में लॉकडाउन 8 जून सुबह तक बढाए जाने की गाइड लाइन में लिखा है कि जहां स्थिति सुधार पर होगी वहां 1 जून से छूट दी जाएगी। राजस्थान में किराना व्यापारियों की दुकानें पहले 5 दिन खुलती थी अब 4 दिन की अनुमति दी गई है लेकिन बाकी दुकानें बंद है और उन में पड़ा हुआ माल रेत गर्द में खराब हो रहा है।

कोरोना के विस्तार को रोकने के लिए हमेशा ही बाजार बंद का फैसला पहले नंबर पर रखा जाता रहा। व्यापारी संगठन अपनी आवाज नहीं उठा पाए। इस कमजोरी के कारण ही प्रशासन और शासन का पहला काम बाजार बंद करवाना रहा। बाजार में कुछ संख्या आती है जबकि सैकड़ों गुना संख्या शहर में होती है। शहर में मोहल्लों में गलियों में घूमने पर कानून कायदे तोड़ने पर कोई नियंत्रण नहीं है। कोई देख रेख नहीं है। बस!प्रशासन का आदेश व्यापारियों पर लागू हो जाता है। 

अब 8 जून तक के लॉक डाउन की गाइड लाइन में 1 जून से सुविधाएं शुरू होंगी जहां पर प्रशासन मानेगा की सब कुछ ठीक-ठाक है। अगर व्यापारी संगठन चुप रहे अपने आवाज को बुलंद नहीं कर पाए तो किराना के अलावा अन्य बहुत सी दुकानें बंद ही रहेंगी। सच तो यह है कि जो दुकाने अब बंद पड़ी हैं उनके बिना भी व्यक्ति का काम नहीं चल सकता। उनका खोला जाना भी अति आवश्यक है। 

व्यापारी कमजोर इसलिए पड़ रहा है कि उसने कभी भी यह नहीं कहा कि दुकानों से कोरोना नहीं फैला। दुकानदारों ने कोरोना नहीं फैलाया। यह दुकानदारों की बहुत बड़ी कमजोरी रही है। अब भी दुकानदारों और  व्यापारिक संगठनों का जागना बहुत जरूरी है।

श्री गंगानगर में संयुक्त व्यापार संगठन की ओर से जिला कलेक्टर को समस्त बाजार खोलने की मांग रखी गई है। यह कदम बहुत ही अच्छा और पहल करने वाला है। जिला कलेक्टर व उपखंड अधिकारी ही तय करेंगे कि 1 जून को बाजार कहां कहां खोला जा सकता है। 

राजस्थान के अन्य स्थानों के जिला मुख्यालय के संगठनों को अपने अपने जिला कलेक्टरों को आजकल में ही सारा बाजार खोलने का ज्ञापन दे देना चाहिए।  जहां उपखंड है वहां व्यापारिक संगठनों को उपखंड अधिकारी और जिला कलेक्टर दोनों को ही ज्ञापन 1 जून से छूट और पूरा बाजार खुलने की अनुमति प्रदान करने का आज ही दे दिया जाना चाहिए।

* व्यापारिक संगठन यह कोशिश रखें कि बाजार में मास्क और सोशल डिस्टेंस की शत प्रतिशत पालना हो सके और कोई चालान नहीं हो। चालान हों तो बहुत कम हो। तब प्रशासन के सामने बाजार खोलने से इनकार करने का कोई बिंदु नहीं रहेगा। 

रिपोर्ट यह आनी चाहिए कि फलां जगह बाजारों में दुकानदारों ने नागरिकों ने मास्क लगाने और सोशल डिस्टेंस 2 गज की दूरी का पूरा पूरा पालन किया है।  यह एक बहुत बड़ा प्रमाण होगा और 1 जून को किराना व्यापार के अलावा भी अन्य बहुत से व्यापार शुरू हो सकेंगे।

बाजार बंद रहने से सभी के धंधे चौपट हो रहे हैं और अपने घर की पूंजी को ही लोग खा कर के खत्म कर रहे हैं। सभी बर्बादी के कगार पर हैं इसलिए आजकल में ही अपने क्षेत्र के उपखंड अधिकारी जिला कलेक्टर आदि को 1 जून से बाजार खोलने का ज्ञापन जरूर दें।अपने क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों विधायकों, सांसद आदि को भी ज्ञापन जरूर दें और अपने साथ खड़ा रखें।

बाजार खोले जाने का समय सुबह 6 से 11 के बजाय उपयुक्त समय 9 बजे से शाम 7 बजे तक तो अवश्य हो।

ममता बनर्जी के मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण में नरेन्द्र मोदी एवं अमितशाह को तो आमंत्रित करना चाहिए था

करणीदानसिंह राजपूत, सूरतगढ़:

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने हैट्रिक जीत दर्ज कर इतिहास रच दिया। ममता ने महत्वपूर्ण इतिहास रचा है और भाजपा के बड़बोले नेताओं को ऐसी पटखनी दी है कि वे पांच साल तक अपनी चोटों से कराहते रहेंगे।

यह जीत इसलिए मायने रखती है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी,गृहमंत्री अमितशाह और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी.नड्डा ने ममता को हराने के लिए सब कुछ किया। ममता हारी नहीं और जे.पी.नड्डा जैसे दिग्गज धरना लगाने वाले स्तर पर पहुंच गए।

टीएमसी की मुखिया ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के तौर पर आज यानि बुधवार को राजभवन में शपथ ग्रहण करेंगी। कोविड-19 महामारी के चलते शपथ ग्रहण समारोह बेहद सादगी भरा होगा। 

बताया जा रहा है कि शपथ ग्रहण समारोह के लिए पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य, निवर्तमान सदन के नेता प्रतिपक्ष अब्दुल मन्नान और माकपा के वरिष्ठ नेता बिमान बोस को कार्यक्रम का निमंत्रण भेजा गया है। 

ममता का मुख्यमंत्री पद की शपथ का समारोह चाहे कितना साधारण रखा गया हो उसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह को तो जरूर बुलाना था। जो कहते थे कि 2 म ई को दीदी गई,उन्हें दिखलाना था कि दीदी नहीं गई। 

इधर, बंगाल में हिंसा की खबरों के बीच भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और दिलीप घोष धरना भी देंगे। 

 देश में कोविड-19 महामारी की वर्तमान परिस्थितियों के मद्देनजर अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों और अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं को समारोह में आमंत्रित नहीं किया गया है। उन्होंने कहा, ‘कोविड-19 महामारी को देखते हुए ममता बनर्जी के शपथ ग्रहण समारोह को बेहद साधारण रखने का निर्णय लिया गया है। 

बुधवार को केवल ममता बनर्जी अकेले शपथ लेंगी। यह बेहद संक्षिप्त कार्यक्रम होगा।’ 

तृणमूल कांग्रेस के सूत्रों ने कहा कि राजभवन में पांच मई को सुबह 10:45 बजे होने वाले शपथग्रहण समारोह में पार्टी सांसद अभिषेक बनर्जी, चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर और पार्टी के वरिष्ठ नेता फिरहाद हाकिम के भी शामिल होने की उम्मीद है। 

सूत्रों ने कहा कि शपथ ग्रहण करने के तुरंत बाद ममता बनर्जी राज्य सचिवालय जाएंगी, जहां उन्हें कोलकाता पुलिस सलामी देगी। पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में टीएमसी 292 में से 213 सीटें जीतकर लगातार तीसरी बार सत्ता में आई है। बीजेपी को 77 सीटों पर जीत हासिल हुई है। वहीं, दो सीटों पर अन्य ने जीत दर्ज की है।

इधर चुनावी नतीजों के बाद से बंगाल में जारी हिंसा की खबरों के बीच भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा कोलकाता पहुंचे हैं। बंगाल में हिंसा के खिलाफ भाजपा आज यानी बुधवार को पूरे देशभर में धरना देगी। कोलकाता में जेपी नड्डा और दिलीप घोष खुद धरने पर बैठेंगे। इससे पहले भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा ने मंगलवार को कहा गया कि पश्चिम बंगाल में चुनाव बाद हुई व्यापक हिंसा ने उन अत्याचारों की याद दिला दी है जिसका सामना लोगों को देश के विभाजन के दौरान करना पड़ा था। नड्डा ने राज्य में पार्टी कार्यकर्ताओं को ”क्रूरता के विरूद्ध लोकतांत्रिक तरीके से लड़ने के लिए प्रेरित किया।

कौन हैं ममता बनर्जी

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी के शानदार प्रदर्शन के बाद ममता बनर्जी की छवि एक ऐसे सैनिक और कमांडर के रूप में बनी है जिसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व वाली भाजपा की चुनावी युद्ध मशीन को भी हरा दिया। तीसरी बार की यह जीत न सिर्फ राज्य में बनर्जी की स्थिति को और मजबूत करेगी, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने में भी मदद करेगी।

2019 से पहले बिना चुनौती के दीदी ने किया शासन

ममता बनर्जी ने एक दशक से अधिक पहले सिंगूर और नंदीग्राम में सड़कों पर हजारों किसानों का नेतृत्व करने से लेकर आठ साल तक राज्य में बिना किसी चुनौती के शासन किया। आठ साल के बाद उनके शासन को 2019 में तब चुनौती मिली जब भाजपा ने पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव में 18 सीटों पर अपना परचम फहरा दिया। ममता बनर्जी (66) ने अपनी राजनीतिक यात्रा को तब तीव्र धार प्रदान की जब उन्होंने 2007-08 में नंदीग्राम और सिंगूर में नाराज लोगों का नेतृत्व करते हुए वाम मोर्चा सरकार के खिलाफ राजनीतिक युद्ध का शंखनाद कर दिया। इसके बाद वह सत्ता के शक्ति केंद्र ‘नबन्ना तक पहुंच गई।

यूपीए और एनडीए में भी बनीं मंत्री

पढ़ाई के दिनों में बनर्जी ने कांग्रेस स्वयंसेवक के रूप में अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी। यह उनके करिश्मे का ही कमाल था कि वह संप्रग और राजग सरकारों में मंत्री बन गईं। राज्य में औद्योगीकरण के लिए किसानों से ‘जबरन भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर वह नंदीग्राम और सिंगूर में कम्युनिस्ट सरकार के खिलाफ दीवार बनकर खड़ी हो गईं और आंदोलनों का नेतृत्व किया। ये आंदोलन उनकी किस्मत बदलने वाले रहे और तृणमूल कांग्रेस एक मजबूत पार्टी के रूप में उभरकर सामने आई। बनर्जी ने कांग्रेस से अलग होने के बाद जनवरी 1998 में तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की और राज्य में कम्युनिस्ट शासन के खिलाफ संघर्ष करते हुए उनकी पार्टी आगे बढ़ती चली गई।

2011 में लेफ्ट की सरकार को उखाड़ फेंका था

पार्टी के गठन के बाद राज्य में 2001 में जब विधानसभा चुनाव हुआ तो तृणमूल कांग्रेस 294 सदस्यीय विधानसभा में 60 सीट जीतने में सफल रही और वाम मोर्चे को 192 सीट मिलीं। वहीं, 2006 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की ताकत आधी रह गई और यह केवल 30 सीट ही जीत पाई, जबकि वाम मोर्चे को 219 सीटों पर जीत मिली। वर्ष 2011 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की पार्टी ने ऐतिहासिक रूप से शानदार जीत दर्ज करते हुए राज्य में 34 साल से सत्ता पर काबिज वाम मोर्चा सरकार को उखाड़ फेंका। उनकी पार्टी को 184 सीट मिलीं, जबकि कम्युनिस्ट 60 सीटों पर ही सिमट गए। उस समय वाम मोर्चा सरकार विश्व में सर्वाधिक लंबे समय तक सत्ता में रहने वाली निर्वाचित सरकार थी।

पांच बार लोकसभा सांसद भी रह चुकी हैं दीदी

ममता बनर्जी अपनी पार्टी को 2016 में भी शानदार जीत दिलाने में सफल रहीं और तृणमूल कांग्रेस की झोली में 211 सीट आईं। इस बार के विधानसभा चुनाव में बनर्जी को तब झटके का सामना करना पड़ा जब उनके विश्वासपात्र रहे शुभेन्दु अधिकारी और पार्टी के कई नेता भाजपा में शामिल हो गए। बंगाली ब्राह्मण परिवार में जन्मीं बनर्जी पार्टी के कई नेताओं की बगावत के बावजूद अंतत: अपनी पार्टी को तीसरी बार भी शानदार जीत दिलाने में कामयाब रहीं। इस चुनाव में भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी, लेकिन बनर्जी एक ऐसी सैनिक और कमांडर निकलीं जिन्होंने भगवा दल की चुनावी युद्ध मशीन को पराजित कर दिया। वह 1996, 1998, 1999, 2004 और 2009 में कोलकाता दक्षिण सीट से लोकसभा सदस्य भी रह चुकी हैं।

कोरोना विशेष: बाजारों को बंद रखना इसलिए है जरूरी

करणीदान सिंह, सूरतगढ़:

करणीदान सिंह, सूरतगढ़:

शासन और प्रशासन की दृष्टि में तो यह माना जा रहा है कि धर्म और चुनाव रैलियों जिनमें लाखों लोग एक दूजे से सटे हुए भी कोरोना नहीं फैलाते। राजनीतिक लोग कार्यक्रम करते हैं वहां से भी कोरोना नहीं फैलता। भीड़ होती है लेकिन कोरोना नहीं फैलता।इनसे कोरोना फैलता तो सरकारें रोक लगाती। **

कोरोना दुकानों से फैलता है। यह सरकारों ने माना है। इसलिए बाजारों को बंद करवाना जरूरी होता है।

हालांकि किरयाना दुकान पर सौ के लगभग ग्राहकों से भी कोरोना नहीं फैलता। लेकिन फिर भी आशंका रहती है। इसलिए इनको कुछ घंटों की छूट है।
बाकी दुकानों में ग्राहक तो 15-20, या 40-50 ही आते हैं। भीड़ बिल्कुल नहीं होती।लेकिन सरकारों ने पक्का मान लिया है कि इनसे कोरोना फैलता है। यहां से कोरोना की चेन यानि कड़ी को तोड़ना है सो इनको बंद कराना पहला कदम है।
पूरे दिन बाजार खुले तो भीड़ नहीं होती लेकिन सरकारों ने समय कम कर दिया। भीड़ हो जाती है लेकिन इस पर नजर नहीं। बाजार बंद कोरोना की चेन खत्म होगी।
दुकानदार माल बेचने का तर्क ग्राहक पर तो आजमाता है लेकिन सरकारो से तर्क नहीं करता। बस,इसलिए मान कर ही चलें कि दुकानदार ही कोरोना के वाहक हैं प्रसारक हैं।

इसलिए बाजारों को बंद रखना जरूरी है। इसलिए अधिकारी जैसे जैसे बोलता है व्यापारी प्रतिनिधि नेता हां में हां मिलाते हैं और अधिकारी से भी ज्यादा करने की हां भी करते हैं। अधिकारी साल दो साल के लिए आता है। उसके साथ फोटो खिंचवा कर खुश। अधिकारी भी ऐसे व्यापारी नेताओं से खुश। इसलिए सभी मान लेते हैं कि दुकानों से फैलता है कोरोना। बाजारों को बंद करने का निर्णय प्रशासन के आदेश से पहले ही कर लेते हैं।

कहीं माध्यम वर्ग को समाप्त करने कि साज़िश तो नहीं कोरोना?

कोरोना के बढ़ते हुए मामलों को देख कर राजनैतिक कार्यक्रमों में जहां भीड़ होती है उनकी विवेचना और उन पर रोक की कार्रवाई न करके केवल बाजार बंद लॉकडाउन कर्फ्यू पर निर्णय हो जाता है।

 सोशल साइट पर और ग्रुपों में संचालक समाजसेवा करने वालों द्वारा ऐसा माहौल बनाया जाता है कि लॉकडाउन हो जाए। बड़ी तत्परता से ऐसे समाचार प्रसारित किए जाते हैं कि लॉक डाउन होने का हव्वा खड़ा हो जाए।

 सबसे बड़ा प्रश्न है कि:

  • क्या बाजार में दुकानदार व्यवसायी कोरोना रोग फैलाने में है? 
  • क्या उनके बाजार खोलने से कोरोना फैल रहा है? आखिर यह समीक्षा क्यों नहीं हो रही?

 प्रशासनिक अधिकारी जब बैठक करता है तब व्यापारियों के अगुआ नेता हां में हां मिलाते हुए बाजार बंद का निर्णय,कम समय तक खोलने का निर्णय कर बैठते हैं। ये प्रतिनिधि उपखंड में बैठक में 5- 7 ही होते हैं। 15:20 मिनट की बैठक में यह निर्णय हो जाता है। 

व्यापारियों ने दुकानदारों ने आपस में बैठकर कभी चर्चा की?कोरोना रोगी जिस किसी शहर में मिले हैं तो उनकी हिस्ट्री देखी गई? क्या उस हिस्ट्री में दुकान से या बाजार से कोरोनावायरस फैलना सामने आया?

व्यापारी प्रतिनिधि हां में हां मिलाते हुए बंद का,लोक डाउन कर्फ्यू निर्णय कर लेते हैं। व्यापारियों ने कभी भी उपखंड अधिकारी को लिखित में यह क्यों नहीं दिया कि केवल व्यापार पर अंकुश लगाया जाता है। राजनीतिक रैलियों चाहे वह किसी भी पार्टी की हो उन पर रोक क्यों नहीं है? उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई क्यों नहीं है? यह समीक्षा क्यों नहीं हो रही कि दुकानदार व्यापारी कोरोना फैलाते हैं या नहीं फैलाते? इसकी समीक्षा होनी चाहिए। रेलें,बसें चल रही है जिनमें भीड़ होती है। वहां कोरोना फैलने का खतरा अधिक है। यहां तक कि चिकित्सालयों में रजिस्ट्रेशन के लिए कतारों में,प्रचार रैलियों को झंडी दिखाने में,कोरोनावारियों को सम्मानित करने के फोटोशूट,मंत्रियोंअधिकारियों को भेंट ज्ञापन में कोई सोशल डिस्टेंस नहीं होता।

हिंदुस्तान में पिछले 1 साल से व्यापार बहुत बुरी हालत के अंदर है। दुकानदार व्यापारी जिनसे लाखों करोड़ों लोग परिवार पलते हैं। उनके कर्मचारी पलते हैं। वे सभी लोकडाउन और बंद से बेहाल हो जाते हैं। बाजार खुलते हैं तो अनेक प्रकार के कार्य भी मजदूरी और रोजगार साथ साथ चलते हैं। बाजार बंद होने से मजदूरी करने वाले रेहड़ी,थड़ी,खोमचे  लगाने वाले भी प्रभावित होते हैं। 

 हिंदुस्तान में अधिकतर बल्कि कहना चाहिए कि 90% व्यापारी दुकानदार मध्यम वर्गीय और कम आय वाले परिवारों से जुड़े हुए हैं। बंद से उनकी रोजी रोटी पर संकट आता है तो मध्यमवर्गीय परिवारों के हर प्रकार के कार्य रुक जाते हैं। अच्छा खासा परिवार जमीन पर आ पड़ता है। 

उसे घर चलाने के लिए और दुर्भाग्य से कोई बीमारी हो जाए तो कर्जा भी लेना पड़ जाता है।

 यहां स्पष्ट रूप से कहा जाना चाहिए कि शासन और प्रशासन दुकानदारों पर अंकुश लगाने के लिए आगे रहने की प्रवृति और सोच बंद करे। 

राजनीतिक रैलियों पर राजनेताओं के कार्यक्रमों की भीड़ पर किसी प्रकार की रोक नहीं लगाता।

 बाजार में जो लोग मास्क के बिना घेरे में आते हैं उन पर तो जुर्माना लग जाता है लेकिन रैलियों की भीड़ पर किसी प्रकार का कोई जुर्माना नहीं लगता। आज तक शासन प्रशासन ने रैलियां निकालने वाले नेताओं के विरुद्ध कोई मुकदमे दर्ज नहीं किए और किसी को गिरफ्तार नहीं किया। 

ये सारे सवाल व्यापारी नेताओं को लिखित में शासन प्रशासन को देना चाहिए। 

आखिर अकेले व्यापारी और दुकानदार ही क्यों बंद और जुर्माने के शिकार किए जाते रहें जब उनकी कोई गलती नहीं है। 

उनकी कोई भूल भी नहीं है तो हमेशा सरकार का कड़ा निर्णय व्यापारियों पर ही लागू क्यों होता है? 

व्यापारी संगठनों को सोशल मीडिया चलाने वाले स्थानीय ग्रुप वालों से भी सीधा सवाल करना चाहिए और मिलना चाहिए कि वह ग्रुपों में केवल व्यापारियों के पीछे ही हाथ धो करके क्यों पड़े रहते हैं? व्यापार बंद कराने से दुकानें बंद कराने से सोशल मीडिया वालों को क्या लाभ है? यह कौनसी समाजसेवा है? 

स्थानीय राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के विरुद्ध ग्रुपों में क्यों नहीं लिखते? व्यापारी ही उनको कमजोर नजर आते हैं इसलिए जब चाहे व्यापारियों के विरुद्ध माहौल बनाना शुरू कर दिया जाता है? 

व्यापारी नेताओं को शासन प्रशासन के सामने सीधा एक ही सवाल करना चाहिए कि देश में कानून सबके लिए बराबर है।  उनके अनुसार ही कार्रवाई हो। राजनीतिक रैलियों की राजनेताओं द्वारा भीड़ इकट्ठी करने की छूट है तो व्यापारी तो केवल अपनी दुकान करता है जिसके अंदर भीड़ नहीं होती। शासन प्रशासन से बात करने के लिए लिखित में देने के लिए वे प्रतिनिधि भेजे जाने चाहिए जो मुंह के ताला लगाए और हाथ बांधे हों। सरकार धार्मिक आयोजनों पर रोक लगाने से भी कतराती है यह साबित हो रहा है। 

सरकार के पास नौकरियां जरूरत के अनुसार है नहीं और होती भी नहीं है। लोग निजी क्षेत्रों में रोजी रोटी पाते हैं। 

कोरोना से बचाव के लिए तय गाइड लाईन का सख्ती से पालन हो और उस पर शासन प्रशासन को जोर लगाना चाहिए।

साभार : करणीदानसिंह राजपूत

सद्दाम गद्दाफ़ी की चुनावी प्रक्रिया बता कर अपनी ही पार्टी का सच बता बैठे राहुल

राहुल ने यहां तक कहा कि सद्दाम हुसैन और गद्दाफी जैसे लोग भी चुनाव आयोजित कराते थे और जीत जाते थे. लेकिन तब ऐसा कोई फ्रेमवर्क नहीं था, उन्हें मिले वोट की रक्षा कर सके. राहुल अमेरिका की ब्राउन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर आशुतोष के साथ चर्चा कर रहे थे। इस दौरान राहुल ने कहा कि कि हमें किसी दूसरे देश की संस्था से लोकतंत्र को लेकर सर्टिफिकेट नहीं चाहिए लेकिन उन्होंने जो कहा, वो बिल्कुल सही है। भारत में इस वक्त जितना हमने सोचा है, हालात उससे ज्यादा बदतर हैं। राहुल इस ब्यान को देते समय अपनी ही पार्टी की पोल खोल रहे थे। पार्टी अध्यक्ष के तौर पर जब उन्होने अपनी ही पार्टी के आंतरिक चुनाव लड़े थे तब ऊनके ही एक रिश्तेदार शहजाद पूनावाला ने उनके विरोध में नामांकन भरा था। आज शहजाद पूनावाला अपनी ही पार्टी से निकाल दिये गए। यही वह मॉडल है जिसकी चर्चा राहुल कर रहे थे। लें अपनी ही पार्टी के इस चरित्र को वह नहीं पहचान पाते। हर समय अभिव्यक्ति की आज़ादी पर अंकुश की बात कराते हैं, लेकिन उतनी ही आज़ादी से नरेंद्र मोदी के खिलाफ बोलते गरियाते पाये जाते हैं, निर्भीकता से। क्या यह दोहरे माप दंड नहीं?

  • सद्दाम-गद्दाफ़ी इन्दिरा के थे अच्छे दोस्त सोशल मीडिया पर ट्रोल हुए राहुल
  • चुनाव मतलब सिर्फ यह नहीं कोई जाए और बटन दबाकर मताधिकार का इस्तेमाल कर दे
  • साल 2016 से 2020 के बीच 170 से अधिक कांग्रेसी विधायकों ने पार्टी छोड़ दी
  • नहीं दिख रहा दम, पांच चुनावी राज्यों में गठबंधन के सहारे चुनावी मैदान में कांग्रेस

सरीका, चंडीगढ़:/नयी दिल्ली:

राहुल गाँधी ने ब्राउन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर को दिए अपने हालिया इंटरव्यू में भारतीय जनता पार्टी पर पर ये कहकर निशाना साधा कि सद्दाम हुसैन और मोहम्मद गद्दाफी ने भी तो चुनाव जीता था। केंद्र सरकार को लेकर कॉन्ग्रेस के पूर्व अध्यक्ष ने कहा कि सद्दाम हुसैन और गद्दाफी को भी वोट की जरूरत नहीं थी, उन्होंने सत्ता पर कब्जा करने के लिए चुनावी प्रक्रिया का इस्तेमाल किया था।

दरअसल, कॉन्ग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी ने पिछले दिनों वी-डेम इंस्टिट्यूट की रिपोर्ट के हवाले से देश के लोकतांत्रिक न होने को लेकर दावे किए थे। इसी पर ब्राउन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय ने उनकी टिप्पणी पर सवाल किए, जिसके जवाब में राहुल गाँधी ने उक्त बात कही।

हालाँकि, राहुल की बात पर गौर देने से पहले ये जानना दिलचस्प है कि जिस गद्दाफी का उन्होंने उदाहरण दिया, वह सन् 1969 में लीबिया में सैन्य तख्तापलट होने के कारण नेता चुना गया था। उसने शासन पाने के लिए ब्रिटिश समर्थित नेता इदरीस को सत्ता से उखाड़ फेंका था, न कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया से कुर्सी पर अधिकार पाया था।

इसी तरह से सद्दाम हुसैन को साल 2003 में अमेरिकी फोर्स ने पकड़ा था। साल 2006 में वह मानवता के विरुद्ध किए गए अपराधों का दोषी पाया गया था। इसके बाद उसे मौत की सजा सुनाई गई थी।

अब जाहिर है कि ऐसे तानाशाहों का नाम लेकर राहुल गाँधी पूरे मामले में सिर्फ़ और सिर्फ विदेशी चीजों को घुसाकर अपनी बात को दमदार साबित करने की कोशिश कर रहे हैं, इसके अतिरिक्त उनकी बातों का और कोई मतलब नहीं है।

इंटरव्यू के दौरान उन्होंने आरएसएस पर भी निशाना साधा। उन्होंने दावा किया कि आरएसएस और शिशु मंदिर सिर्फ़ भारत को तोड़ने के लिहाज से बने हैं और इनका इस्तेमाल जनता से पैसे लेने के लिए किया जाता है। एक और चौंकाने वाले बयान में उन्होंने दावा किया कि आरएसएस की विचारधारा और रणनीति मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड के समान है।

संसद सत्र में बंद हुए माइक वाली घटनाओं को उदाहरण देते हुए राहुल गाँधी मानते हैं कि भाजपा ने चुनावी प्रक्रिया का इस्तेमाल करके सत्ता हथियाई है। उनके मुताबिक, केंद्र के पास नए आइडिया के लिए कोई भी कोना नहीं है। सबसे हास्यास्पद बात यह है कि 5 लाख आईटी सेल सदस्यों को हायर करने के बाद कॉन्ग्रेस के पूर्व अध्यक्ष आरोप लगाते हैं कि भारत में फेसबुक का हेड भाजपाई है। वह गलत ढंग से चुनावी नैरेटिव को कंट्रोल करता है।

इस सब के बाद राहुल गांधी ट्रोल भी हुए:

एक दैनिक समाचार पत्र के अनुसार सोनिया गांधी के बेटे राहुल ने जिस सद्दाम हुसैन का हवाला दिया है, उसका भारत और खासकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से बेहतरीन संबंध था। साल 1975 में इंदिरा गांधी इराक गईं तो सद्दाम हुसैन ने उनका सूटकेस उठा लिया। अखबार के अनुसार इंदिरा गांधी जब रायबरेली से लोकसभा चुनाव वे हार गईं तो सद्दाम ने उन्हें इराक की राजधानी बगदाद में स्थाई आवास की पेशकश कर दी। इतना ही नहीं, सद्दाम के नेतृत्व वाली बाथ सोशलिस्ट पार्टी के प्रतिनिधि कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशनों में शामिल हुआ करते थे। ऐसे में कांग्रेस नेता राहुल गांधी के इस बयान को लेकर सोशल मीडिया पर यूजर्स लताड़ लगा रहे हैं।

दिल्ली एलजी की शक्तियाँ बढ़ाता कानून और आम आदमी पार्टी(आआपा)

किसानों के आंदोलन का समर्थन करते – करते दिल्ली के मुख्यमंत्री आज फिर से धरणे – प्रदर्शन पर उतर आए हैं। यह सारी कवायद सत्ता बनाए रखने और उस ताकत को पुन: हासिल करने की है जिसे इस नए कानून ने तकरीबन – तकरीबन ठंडे बस्ते में डाल दिया है। जिस प्रस्तावित विधेयक में केंद्र सरकार की कैबिनेट ने जिन संशोधनों पर मुहर लगाई है, उनमें दिल्ली सरकार के लिए कमोबेश सभी विधायी और प्रशासनिक निर्णयों में उपराज्यपाल से सहमति लेना अनिवार्य कर दिया गया है। कोई भी विधायी प्रस्ताव दिल्ली सरकार को 15 दिन पहले और कोई भी प्रशासनिक प्रस्ताव सात दिन पहले उपराज्यपाल को भिजवाना होगा। अगर उपराज्यपाल उस प्रस्ताव से सहमत नहीं हुए तो वे उसे अंतिम निर्णय के लिए राष्ट्रपति को भी भेज सकेंगे। अगर कोई ऐसा मामला होगा, जिसमें त्वरित निर्णय लिया जाना होगा तो उपराज्यपाल अपने विवेक से निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र होंगे।

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सारिका तिवारी, नयी दिल्ली/ चंडीगढ़:

राजधानी दिल्ली में एक बार फिर एलजी बनाम मुख्यमंत्री की जंग शुरू हो चुकी है। पिछले कई सालों में अलग-अलग मुद्दों को लेकर एलजी और दिल्ली सरकार के बीच टकराव देखने को मिला, लेकिन इस बार केंद्र सरकार इसे लेकर एक बिल लाई है। जिसमें दिल्ली के उपराज्यपाल की शक्तियां बढ़ाई गई हैं। संसद में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र संशोधन विधेयक (2021) पेश होने के बाद दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार ने बीजेपी पर हमला बोला और कहा कि मोदी सरकार पिछले दरवाजे से अब दिल्ली पर शासन करना चाहती है। आइए जानते हैं क्या है ये नया संशोधन और इससे दिल्ली सरकार के अधिकारों पर क्या असर पड़ने वाला है।

केंद्र सरकार की तरफ से संसद में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र संशोधन विधेयक (2021) पेश किया गया. जिसमें दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल की शक्तियों को लिखित तौर पर बताया गया है। बिल पेश होने के बाद मुख्यमंत्री केजरीवाल के अलावा आम आदमी पार्टी के नेताओं ने इसका जमकर विरोध किया और प्रवक्ताओं ने प्रेस कॉन्फ्रेंस भी कीं। जिन्होंने इस संशोधन को लोकतंत्र और संविधान के खिलाफ बताया।

क्या है राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र संशोधन विधेयक (2021)?

बिल में जिस लाइन पर सबसे ज्यादा विवाद हो रहा है और आआपा जिसे सीधे लोकतांत्रिक तौर पर चुनी हुई सरकार पर हमला बता रही है, वो है- “राज्य की विधानसभा द्वारा बनाए गए किसी भी कानून में सरकार का मतलब उपराज्यपाल होगा.” ये विधेयक के सेक्शन 21 के सब सेक्शन-2 में बताया गया है। इसीलिए मुख्यमंत्री केजरीवाल और उपमुख्यमंत्री सिसोदिया का कहना है कि केंद्र सरकार अब दिल्ली में एलजी को ही सरकार बनाने जा रही है। इसके अलावा संशोधन विधेयक में जो विवादित मसले हैं, उनमें –

  • “कोई भी मामला जो विधानसभा की शक्तियों के दायरे से बाहर है”, उसमें एलजी की मंजूरी लेनी होगी. इसका सीधा मतलब है कि उपराज्यपाल को अब एडिशनल कैटेगरी के बिलों पर रोक लगाने की शक्ति और अधिकार दिया गया है। यहां एलजी की शक्तियों को बढ़ाने का काम किया गया है।
  • राज्य सरकार को खुद या फिर उसकी कमेटियों को राजधानी के रोजमर्रा के प्रशासनिक मामलों में कोई भी नियम बनाने या फिर फैसला लेने से पहले उपराज्यपाल से मंजूरी लेनी होगी। अगर ऐसा नहीं किया गया तो इस अधिनियम के तहत उस फैसले को शून्य माना जाएगा।
  • मंत्री परिषद या किसी मंत्री को किसी भी फैसले से पहले और उसे लागू करने से पहले एलजी के पास फाइल भेजनी होगी, यानी उनकी मंजूरी लेनी होगी।सभी तरह की फाइलों को पहले एलजी को भेजा जाएगा और उनकी राय जरूरी होगी।

इस बिल में कहा गया है कि ये विधायिका (लेजिस्लेचर) और कार्यपालिका (एग्जिक्यूटिव) के बीच तालमेल को और ज्यादा बेहतर करने का काम करेगा। साथ ही ये विधेयक उपराज्यपाल और चुनी हुई सरकार की जिम्मेदारियों को भी परिभाषित करने का काम करेगा, जो दिल्ली में शासन के संवैधानिक नियमों के तहत है।

सुप्रीम कोर्ट ने दिया था अहम फैसला

बीजेपी के तमाम नेता इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के साथ जोड़कर देख रहे हैं। दिल्ली सरकार बनाम एलजी की जंग को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने 4 जुलाई 2018 को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया था. सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने इस फैसले में कहा गया था –

  • दिल्ली में चुनी हुई सरकार को जमीन, पुलिस और कानून व्यवस्था के अलावा सभी मामलों पर फैसला लेने का अधिकार है। मंत्रिमंडल जो फैसला लेगा, उसकी सूचना उपराज्यपाल को देनी होगी।
  • कैबिनेट का हर मंत्री अपने मंत्रालय के लिए जिम्मेदार है। हर राज्य की विधानसभा के दायरे में आने वाले मुद्दों पर केंद्र सरकार जबरन दखल अंदाजी न करे, संविधान ने इसके लिए पूरी स्वतंत्रता दी है।
  • दिल्ली में विधानसभा तीन मसलों को छोड़कर बाकी सभी चीजों को लेकर कानून बना सकती है। कैबिनेट और विधानसभा को ये अधिकार है। एलजी के पास तीन मुद्दों को लेकर एग्जीक्यूटिव पावर है. इन्हें छोड़कर बाकी सभी मुद्दों की एग्जीक्यूटिव पावर दिल्ली सरकार के पास हैं।
  • अगर किसी मामले में एलजी और मंत्री के बीच मतभेद है और ये रेयरेस्ट ऑफ रेयर केस है तो इस मामले में एलजी दखल दे सकते हैं। हर मुद्दे पर ऐसा नहीं होगा. मंत्री और मंत्रालय को एलजी के पास जरूर बिल या कानून की कॉपी भेजनी होगी। लेकिन जरूरी नहीं है कि इस पर एलजी की स्वीकृति हो।
  • दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता है, क्योंकि दिल्ली की स्थिति बाकी राज्यों से अलग है. अराजकता की कोई जगह नहीं, सब अपनी जिम्मेदारी निभाएं. उपराज्यपाल मनमाने तरीके से दिल्ली सरकार के फैसलों को रोक नहीं सकते।

यानी इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया था कि एलजी के पास दिल्ली सरकार के हर फैसले को पलटने का अधिकार नहीं है। साथ ही ये भी बताया था कि हर फैसले पर जरूरी नहीं है कि एलजी की स्वीकृति हो. सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने तब कहा था कि, एलजी को चुनी हुई सरकार की कैबिनेट की सलाह माननी चाहिए। अरविंद केजरीवाल सरकार ने तब इस फैसले को लोकतंत्र की जीत बताया था। कुल मिलाकर इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने ये बता दिया था कि दिल्ली में बॉस चुनी हुई सरकार को ही माना जाएगा।

एलजी और दिल्ली सरकार में कब-कब हुआ टकराव?

लेकिन केंद्र सरकार जो विधेयक लाई है, उसमें उपराज्यपाल की शक्तियों को बढ़ाया गया है और सीधे ये कहा गया है कि सभी फाइलों को पहले एलजी के पास से गुजरना होगा। यानी अगर ये संशोधन विधेयक पारित हो जाता है तो एक बार फिर दिल्ली में सरकार बनाम एलजी के बीच एक बड़ी लड़ाई देखने को मिल सकती है। अब लड़ाई का जिक्र हुआ है तो एक नजर पिछले कुछ बड़े विवादों पर भी डाल लेते हैं, जिनमें एलजी और दिल्ली सरकार में टकराव देखने को मिला था।

  • कोरोना महामारी के बाद कई मसलों को लेकर दिल्ली सरकार और एलजी भिड़े थे। अनलॉक प्रक्रिया के दौरान ट्रायल के तौर पर होटल और साप्ताहिक बाजार खोलने के दिल्ली सरकार के फैसले को एलजी ने पलट दिया था।
  • दिल्ली के प्राइवेट अस्पतालों में 80 फीसदी आईसीयू बेड कोरोना मरीजों के लिए रिजर्व रखने के फैसले को भी एलजी ने मंजूरी नहीं दी थी. इसके अलावा जब कोरोनाकाल में बाहरी लोगों की बजाय दिल्ली के लोगों को प्राथमिकता की बात आई तो भी एलजी ने फैसले पर रोक लगा दी थी।
  • दिल्ली सरकार ने कम लक्षण वाले कोरोना मरीजों को जब होम क्वारंटीन में रखने का फैसला किया था, तो एलजी ने इसे पलटते हुए सभी मरीजों को इंस्टीट्यूशनल क्वारंटीन में रहने का आदेश दिया, विवाद के बाद फिर आदेश वापस लिया गया।
  • नॉर्थ-ईस्ट दिल्ली में हुई हिंसा के मामले में दिल्ली सरकार की कैबिनेट ने पुलिस पर पक्षपात के आरोप लगाए थे और दिल्ली पुलिस के वकीलों का पैनल खारिज कर दिया था. सरकार ने खुद का पैनल बनाया, लेकिन एलजी ने उसे खारिज कर दिया।
  • इससे पहले एंटी करप्शन ब्यूरो में अधिकारियों की नियुक्ति के मामले में भी एलजी और दिल्ली सरकार में टकराव देखा गया, एलजी ने सरकार की नियुक्तियों को खारिज कर कहा कि एंटी करप्शन ब्यूरो के बॉस वो हैं और दिल्ली सरकार इन अधिकारियों की नियुक्ति नहीं कर सकती।

विधेयक पर क्या कह रही है दिल्ली सरकार

सिसोदिया ने कहा कि अगर हर फाइल एलजी को ही भेजनी होगी और सरकार का मतलब एलजी है तो फिर ये लोकतांत्रिक होने का ढ़ोंग क्यों किया जा रहा है। क्यों चुनाव कराए जा रहे हैं। डिप्टी सीएम ने कहा कि केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पूरी तरह उलट दिया है। वहीं सीएम अरविंद केजरीवाल ने कहा कि दिल्ली में बीजेपी को जनता ने पूरी तरह से नकार दिया है, इसीलिए अब दिल्ली पर शासन करने के लिए वो बिल लेकर आई है और सरकार की शक्तियां छीनने की कोशिश कर रही है।

आआपा की तरफ से बताया गया है कि अब केंद्र के इस विधेयक के खिलाफ पार्टी नेता सड़कों पर उतरेंगे। बुधवार 17 मार्च को मुख्यमंत्री केजरीवाल और पार्टी के तमाम विधायक और मंत्री पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करेंगे।

समाचारपत्रों का बंद होते जाना सभी के लिए आत्मघाती होगा

करणीदानसिंह राजपूत

कुछ साल पहले तक अपना समाचार पत्र प्रकाशित करने की होड़ लगी रहती थी। नए-नए समाचार पत्रों का छोटे से छोटे कस्बों तक में प्रकाशित होने कि यह होड़ बहुत गजब की होती थी। आज समाचार पत्रों के बंद होने की चिंताजनक स्थिति है। एक के बाद दूसरा समाचार पत्र बंद होते बहुत कम संख्या में दैनिक साप्ताहिक और पाक्षिक बचे हैं।

कहना यह चाहिए कि जो बचे हैं वे समाचार पत्र जीवित रह पाने का संघर्ष कर रहे हैं। हालात बहुत नाजुक है।

आज जो पत्र प्रकाशित हो रहे हैं उनकी भी अधिकांश की आर्थिक हालत खराब और कर्जदार स्थिति में है। उनमें से भी कितने जीवित बचेंगे यह अभी कहा नहीं जा सकता। समाचार पत्रों के प्रकाशन में पहले होड़ रहती थी और आज बंद होने की स्थिति में भी वैसे ही हालात हैं। एक ने प्रकाशन बंद किया तो दूसरा भी बंद कर रहा है।

ये क्या परिस्थितियां हुई है जिनके कारण समाचार पत्रों और पत्रकारिता क्षेत्र में आने वाले लोग भयभीत होने लगे हैं।

पत्रकार और समाचार पत्र समाज का दर्पण कहलाते थे। आज स्थिति में इतना बदलाव हो गया है कि कोई भी इन दर्पणों में मुंह देखना नहीं चाहता। समाज के इस बदलाव से समाचार पत्र खरीदना उनमें विभिन्न प्रकार के विज्ञापन देना बंद से हो रहे हैं।

सरकार का बहुत बड़ा हाथ समाचार पत्रों के प्रकाशन में विज्ञापन देकर एक प्रकार से सहायता करने का रहा था जो अब केंद्र व राज्य सरकारों के उदासीन रुख के कारण खत्म हो गया है। केंद्र और राज्य सरकारों की नीतियां समाचार पत्रों को खत्म कर रही है।

अनेक लोग पत्रकारिता क्षेत्र में जीवन संघर्ष कर रहे हैं।

समाज और जनता समाचार पत्रों और पत्रकारों से सहयोग की इच्छा रखते हैं लेकिन बिना समाज के जनता के सहयोग के समाचार पत्र का प्रकाशन नहीं हो सकता। यह संयोग खरीद कर समाचार पत्र पढ़ना और समाचार पत्र को विज्ञापन देने से ही संभव है। राजनीतिक दल सामाजिक संगठन कर्मचारियों आदि के संगठन व्यापारिक संगठन समाचार पत्रों से हर समय अपने समाचार अपने संघर्ष अपनी मांगे ज्ञापन आदि के प्रकाशन की आशा रखते हैं और समाचार पत्र बढ़-चढ़कर सहयोग भी देते हैं। लेकिन वापसी में सहयोग के नाम पर समाचार पत्र को पत्रकार को जो सहयोग मिलना चाहिए वह नहीं मिल पा रहा। सभी संगठन व जनता अपने समाचार चित्र सहित समाचार पत्रों में देखना चाहते हैं,मगर साल में दो चार बार भी विज्ञापन आदि देकर सहयोग की इच्छा नहीं रखते।

समाचार पत्र का प्रकाशन केवल हवाई बातों से या पत्रकार से हेलो हेलो की दोस्ती से ही पूरा नहीं होता।

समाचार पत्रों के प्रकाशन की होड़ आज समाचार बंद होने की एक के बाद एक बंद होने की जो स्थिति पैदा हो गई है, उसमें राजनीतिक दलों सामाजिक संगठनों कर्मचारी संगठनों व्यापारिक संगठनों की यह उदासीनता अनदेखी भी बड़ा कारण है।

आखिर इस हालात में कैसे परिवर्तन किया जाए? कैसे वापस पुरानी स्थिति लाई जाए? इस पर गहन विचार किया जाना चाहिए। समाचार पत्र संचालकों पत्रकारों को भी इन संगठनों के बीच यह चर्चा व्यापक रूप से शुरू करनी चाहिए ताकि प्रकाशन बंद होने के बदलाव को रोका जा सके। आज मोबाइल पर ही सबकुछ देखने पढने की ईच्छा बढ रही है लेकिन जब पत्रकार ही नहीं रहेंगे तब मोबाइल पर जानकारियां कहां से आएंगी? मोबाइल पर आने वाली हर जानकारी पर विश्वास भी नहीं होता। सोशल साइट्स पर जो जानकारियां सूचनाएं समाचार आते हैं उनमें से अनेक झूठी निकलती हैं और लोग अखबारों को टटोलते हैं। लेकिन अखबारों के दम तोड़ते जाने पर विश्वास वाली सूचनाएं कहां से मिलेंगी।

संगठनों के आंदोलनों को समाचारपत्रों से बड़ी शक्ति मिलती रही है और आज भी मिल रही है और इस शक्ति को खत्म कर दिया गया तो आत्मघाती होगा।