सरकार ने 25 जनवरी की शाम को प्रणब मुखर्जी, नानाजी देशमुख और भूपेन हजारिका को भारत रत्न सम्मान से नवाजने की घोषणा की है
देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न की लिस्ट में तीन नए नाम शामिल हो चुके हैं. गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, समाजसेवी नानाजी देशमुख और संगीतकार/गायक भूपेन हजारिका को भारत रत्न से नवाजने का एलान किया गया. प्रणब मुखर्जी जहां बंगाल से ताल्लुक रखते हैं, वहीं स्वर्गीय भूपेन हजारिका को असम की शान माना जाता है, जबकि स्वर्गीय नानाजी देशमुख की पहचान संघ के बड़े और जमीनी नेता के तौर पर की जाती है.
दरअसल इन तीनों विभूतियों को भारत रत्न देकर मोदी सरकार ने पश्चिम बंगाल और असम के लोगों के साथ-साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को भी खुश करने की कोशिश की है. जाहिर है कि बीजेपी को आगामी लोकसभा चुनाव में बंगाल और असम की जनता के भरपूर समर्थन के साथ संघ के मार्गदर्शन और मदद की सख्त दरकार है, ताकि नतीजों को अपने पक्ष में किया जा सके.
लगभग सभी सरकारें पुरस्कारों के जरिए सियासी समीकरण साधती हैं
वैसे अगर कोई यह सोचता है कि, भारत रत्न और पद्म पुरस्कार केवल योग्यता और उपलब्धियों के आधार पर दिए जाते हैं, तो यकीनन वह शख्स बहुत मासूम है. इतिहास गवाह है कि, लगभग सभी सरकारें पुरस्कारों के जरिए सियासी समीकरण साधती आई हैं. ज्यादातर पुरस्कार कोई न कोई राजनीतिक संकेत दे ही देते हैं. देश को मिले तीन नए भारत रत्न का मामला भी इससे परे नजर नहीं आता है. इस साल अपने तीन पसंदीदा लोगों को भारत रत्न से सम्मानित कर के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने सीधा राजनीतिक संकेत देने की कोशिश की है. हालांकि कई लोग इस बात पर बहस कर सकते हैं कि, भारत रत्न के एलान के पीछे सरकार का कोई वास्तविक राजनीतिक उद्देश्य है भी या नहीं. लेकिन ज्यादातर लोगों को सरकार के इस फैसले में सिर्फ राजनीति ही नजर आ रही है.
संकेतों से पता चलता है कि, धीरे-धीरे लेकिन पक्के तौर पर देश का इतिहास खुद को दोहरा रहा है. अतीत में दबाए-कुचले गए ‘विचार’ अब सामने आ रहे हैं. स्वच्छ, शुद्ध और परिष्कृत भारत का विचार एक विशेष वंश परंपरा या संगठन की ओर से स्थापित करने के प्रयास हो रहे हैं. यह एक धीमा, स्थिर और कभी न पलटने वाला बदलाव है, जो राजनीतिक सत्ता परिवर्तन होने पर भी रुकने वाला नहीं है.
पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी एक विशुद्ध कांग्रेसी और नेहरूवादी समाजवादी रहे हैं. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार के उन्हें भारत का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार दिए जाने का फैसला, देश की दलगत राजनीति और सियासी छुआछूत की दीवार को गिराता नजर आता है. वहीं यह भी लगता है कि, मोदी सरकार का मकसद कांग्रेस के उन दिग्गज नेताओं की पहचान करना है, जो कभी वंशवाद के पक्ष में नहीं रहे. ऐसे में भारत रत्न के लिए पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी नरसिम्हा राव एक बेहतर विकल्प हो सकते थे.
प्रणब मुखर्जी को भारत रत्न प्रदान कर कांग्रेस को घेरने की कोशिश की
प्रणब मुखर्जी की प्रोफाइल और राजनीतिक रिकॉर्ड बेजोड़ रहे हैं. लेकिन यह भी तथ्य है कि, कांग्रेस पार्टी ने उन्हें हमेशा एक अपरिहार्य असुविधाजनक व्यक्ति माना. लिहाजा मोदी सरकार ने प्रणब मुखर्जी को भारत रत्न प्रदान कर कांग्रेस को घेरने की कोशिश की है. पांच दशकों तक कांग्रेस के कर्मठ सिपाही रहे प्रणब मुखर्जी को दो बार प्रधानमंत्री बनते-बनते चूक गए. दोनों बार कांग्रेस की वंशवादी परंपरा ने उन्हें पीएम की कुर्सी पर बैठने से रोक दिया. हालांकि दोनों अवसरों पर वह ही सबसे वरिष्ठ नेता और सबसे योग्य उम्मीदवार थे.
प्रणब बाबू का कांग्रेस और सत्ता के केंद्रों के साथ लंबा जुड़ाव रहा है, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उम्मीद थी कि, वो ही देश के प्रधानमंत्री के रूप में कार्यभार संभालेंगे. लेकिन तब उनकी जगह राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने और वंशवाद का विरोध करने के चलते प्रणब मुखर्जी को पार्टी छोड़नी पड़ी. जिसके बाद प्रणब दा ने राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस नाम की पार्टी की स्थापना की, जो साल 1989 में राजीव के नेतृत्व वाली कांग्रेस में विलय हो गई. इस विलय के बाद कांग्रेस में प्रणब मुखर्जी की पुरानी हैसियत फिर से बहाल हुई थी.
प्रणब मुखर्जी को भारत रत्न दिए जाने के एलान के बाद राजीव गांधी की जीवनी लिखने वाले मशहूर लेखक मिन्हाज मर्चेंट ने ट्विटर पर लिखा, ‘श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या की खबर सुनने के बाद प्रणब मुखर्जी 31 अक्टूबर, 1984 को कलकत्ता-दिल्ली की विशेष फ्लाइट पर सवार हुए. उनके सहयात्री कौन थे? राजीव गांधी और अन्य कांग्रेस नेता. पूरी उड़ान के दौरान प्रणब दा अकेले बैठे रहे, बतौर वरिष्ठतम कांग्रेसी नेता उम्मीद थी कि पीएम के पद पर उन्हें ही नियुक्त किया जाएगा. आगे का सब इतिहास है.’
Minhaz Merchant✔@MinhazMerchant
Pranab Mukherjee boarded special Calcutta-Delhi flight on Oct 31, 1984 after hearing about Mrs Gandhi’s assassination. Co-passengers? Rajiv Gandhi & other Cong leaders. Throughout flight Pranabda sat alone, expecting as seniormost Cong leader to be appointed PM. Rest is history.2,66410:28 PM – Jan 25, 2019
मनमोहन सिंह पर भरोसा कर प्रणब मुखर्जी को दरकिनार कर दिया
प्रणब मुखर्जी को प्रधानमंत्री बनने का दूसरा मौका साल 2004 में मिला था. उस समय संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाले एनडीए को हराकर सत्ता में आया था. लेकिन तब सोनिया गांधी ने डॉ. मनमोहन सिंह जैसे एक टेक्नोक्रेट पर भरोसा कर के मुखर्जी को दरकिनार कर दिया था. मनमोहन सिंह अनुभव और वरिष्ठता के मामले में प्रणब मुखर्जी से काफी पीछे थे. साल 1982 में महज 47 साल की उम्र में प्रणब मुखर्जी भारत के सबसे कम उम्र के वित्त मंत्री बने थे. बाद में उन्होंने वित्त मंत्रालय को एक बार और संभाला. इसके अलावा वो देश के रक्षा और विदेश मंत्री भी रह चुके हैं.
हालांकि वक्त के साथ प्रणब मुखर्जी गांधी परिवार के काफी करीबी भी बने, लेकिन दोनों पक्षों के बीच विश्वास की कमी हमेशा महसूस की गई. ऐसा कहा जाता है कि, प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति पद के लिए भी सोनिया गांधी की पहली पसंद नहीं थे. यूपीए चेयरपर्सन सोनिया तब स्पष्ट रूप से हामिद अंसारी को राष्ट्रपति बनाए जाने के पक्ष में थीं, लेकिन अंतत: परिस्थितियों के दबाव में उन्हें अपना फैसला बदलना पड़ा था.
प्रणब मुखर्जी को देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार से सम्मानित कर के मोदी सरकार ने एक साथ कई संदेश दिए हैं. पहला यह कि, प्रणब जैसे कांग्रेसी नेता को भारत रत्न देकर बीजेपी ने अपनी निष्पक्षता को दर्शाने की कोशिश की है. बीजेपी ने यह जताने का प्रयास किया है कि, कांग्रेस ने भले ही अटल बिहारी वाजपेयी जैसे विपक्षी नेता को वह सम्मान न दिया हो, जिसके वो हकदार थे, लेकिन बीजेपी देश के लिए योगदान देने वाले सभी नेताओं को बराबरी की नजर से देखती है.
मोदी सरकार ने अपने फैसले के बहाने कांग्रेस के भीतर की गुटबाजी और पार्टी में गांधी परिवार के दबदबे को भी उजागर करने की कोशिश की है. इंदिरा गांधी की हत्या के साथ बाद गांधी परिवार से संबंध बिगाड़ने वाले नेता को पुरस्कार देकर मोदी सरकार ने कांग्रेस में बागी सुर रखने वालों को सब्जबाग भी दिखाने की कोशिश की है. मोदी सरकार अपने फैसले से यह भी साबित करना चाहती है कि, कांग्रेस में योग्यता का नहीं बल्कि वंश विशेष का बोलबाला है, वहीं बीजेपी में किसी व्यक्ति को पद और सम्मान उसकी काबिलियत और योगदान के आधार पर दिए जाते हैं.
प्रणब मुखर्जी को भारत रत्न देने के पीछे RSS मुख्यालय का दौरा हो सकता है
पूर्व राष्ट्रपति मुखर्जी को भारत रत्न दिए जाने की एक वजह उनका वर्ष 2018 में आरएसएस मुख्यालय का किया गया दौरा भी हो सकता है. दरअसल आरएसएस के एक कार्यक्रम में व्याख्यान देने के लिए प्रणब नागपुर गए थे, जिसके चलते उन्हें कांग्रेस नेतृत्व की तगड़ी नाराजगी झेलना पड़ी थी. लेकिन प्रणब बाबू को मिले भारत रत्न का महत्व बीजेपी-कांग्रेस की राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता से कहीं ज्यादा है. लोकसभा चुनाव काफी नजदीक है. ऐसे में बीजेपी हर हाल में पूर्वी भारत में भारी बढ़त हासिल करना चाहती है, ताकि हिंदी भाषी क्षेत्र (उत्तर भारत) में होने वाले अपेक्षित नुकसान की भरपाई कर सके. लिहाजा बीरभूम के रहने वाले बंगाली भद्रलोक (बंगाली सज्जन) को पुरस्कार थमाकर मोदी सरकार ने बंगाली समुदाय को लुभाने का प्रयास किया है. बीजेपी को उम्मीद है कि, आने वाले लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में पार्टी के अच्छे प्रदर्शन में प्रणब दा का पुरस्कार कारगार साबित हो सकता है. इसके अलावा बीजेपी ने अपनी चाल के जरिए राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को भी घेरने की कोशिश की है.
दिलचस्प बात यह है कि, तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की प्रमुख ममता बनर्जी ने अभी तक भारत रत्न से सम्मानित किए जाने पर पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को बधाई नहीं दी है. हालांकि इसे सभी बंगालियों के लिए गर्व का पल माना जा रहा है. ममता ने हाल ही में क्षेत्रीय गौरव और बंगाल की सांस्कृतिक पहचान पर जोर देना शुरू किया है. ममता ने संभवत: यह रणनीति बीजेपी की बढ़ती चुनौती से निपटने के लिए बनाई है, क्योंकि बंगाल में बीजेपी को ‘उत्तर भारतीय पार्टी’ के रूप में देखा जाता है. लगता है कि, ममता की इसी रणनीति की काट के लिए बीजेपी ने प्रणब दा को भारत रत्न से नवाजा है. लिहाजा बंगाली कौमपरस्ती और संस्कृति की झंडाबरदार बनीं ममता ने ‘भद्रलोक’ के प्रतीक कहे जाने वाले प्रणब दा को पुरस्कार मिलने पर बधाई देने के बजाए अब तक अपनी जुबान बंद रखी है. दरअसल ममता बनर्जी अपने किसी बयान से यह जाहिर नहीं करना चाहती हैं कि, उन्हें इस वक्त किन राजनीतिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है.
भूपेन हजारिका के बहाने असम की जनता को साधने की कोशिश की है
भारत रत्न पुरस्कार के एलान में निहित मोदी सरकार का यह संकेत दो अन्य पुरस्कार विजेताओं के मामले में भी देखा जा सकता है. गायक भूपेन हजारिका को मरणोपरांत भारत रत्न देकर सरकार ने न सिर्फ उनकी प्रतिभा और योगदान को सराहा है, बल्कि असम की जनता को भी साधने की कोशिश की है. दरअसल नागरिकता संशोधन विधेयक (एनआरसी बिल) को लेकर असम की जनता सरकार से खासी नाराज है. लिहाजा भूपेन हजारिका को भारत रत्न देकर केंद्र सरकार ने असम के लोगों की नाराजगी को कुछ हद तक कम करने का प्रयास किया है. इसी तरह, नानाजी देशमुख को मरणोपरांत भरत रत्न से सम्मानित कर के मोदी सरकार ने आरएसएस के कोर बेस को खुश करने की कोशिश की है. दरअसल संघ समर्थकों के बीच नानाजी देशमुख बेहद लोकप्रिय हैं. ज्यादातर संघ कार्यकर्ता नानाजी को अपना आदर्श मानते हैं. यह भी तथ्य है कि, सामाजिक कार्यों, ग्रामीण विकास और शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान के लिए स्वर्गीय नानाजी देशमुख को अबतक वह उचित सम्मान नहीं मिला था जिसके वह हकदार थे.
नानाजी देशमुख को भारत रत्न दिए जाने के एलान के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट कर कहा, ‘ग्रामीण विकास के लिए नानाजी देशमुख के महत्वपूर्ण योगदान ने गांवों में रहने वाले लोगों को सशक्त बनाने की कोशिशों को सही दिशा दिखाकर नया प्रतिमान (मिसाल) स्थापित किया. उन्होंने दलितों के प्रति हमेशा विनम्रता, करुणा और सेवा का परिचय दिया. वह सच्चे अर्थों में भारत रत्न हैं!’
Narendra Modi✔@narendramodi Nanaji Deshmukh’s stellar contribution towards rural development showed the way for a new paradigm of empowering those living in our villages.
He personifies humility, compassion and service to the downtrodden. He is a Bharat Ratna in the truest sense!22.9K8:32 PM – Jan 25, 2019
शिक्षाविद् क्रिस्टोफ जेफरलोट ने अपनी किताब ‘रेलीजन, कास्ट एंड पॉलिटिक्स ऑफ इंडिया’ में नानाजी देशमुख को ‘असाधारण तौर पर गतिशील प्रचारक’ कहा है, जिन्होंने सरस्वती शिशु मंदिर स्कूलों के माध्यम से ग्रामीण भारत में शैक्षिक आंदोलन शुरू किया था.
यकीनन पुरस्कार कई मायने में बहुत राजनीतिक महत्व रखते हैं, लेकिन सवाल यह उठता है कि, क्या भारत रत्न के लिए तीन नई विभूतियों के नाम का एलान बीजेपी के लिए लाभकारी साबित होगा. यहां तक कि, सबसे अच्छे चुनाव विश्लेषक (सैफोलॉजिस्ट) या राजनीतिक वैज्ञानिक भी पक्के तौर पर यह नहीं बता सकते हैं कि, देश की जनता क्षेत्रीय गर्व और अस्मिता जैसे रोजमर्रा के साधारण आवेगों और अमूर्त विचारों के आधार पर वोट देती है या नहीं.
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