हिन्द में हिन्दी की त्रासदी — कब बनेगी हिन्दी, हिन्द के माथे की बिंदी ?
संविधान में वर्णित हिन्दी का इतिहास
एस.के.जैन, पंचकुला:
आज हिंदुस्तान को आजाद हुए 74 वर्ष का एक लंबा अंतराल बीत चुका है। अखण्ड कहे जाने वाला हमारा देश 30 खंडों में बंटा हुआ है। यहाँ हर 20 कि.मी. के बाद बोलचाल की भाषा यानि (Dialect ) और हर 50 कि.मी. के बाद संस्कृति बदल जाती है। याद करते हैं 14 सितंबर, 1949 का दिन। उस दिन हिन्दी भाषा को “राजभाषा” का दर्जा दिया गया था। भारतकोश के अनुसार हिन्दी को “राजभाषा” बनाने को लेकर संसद में 12 सितंबर से 14 सितंबर, 1949 को तीन दिन तक बहस हुई। भारतकोश पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार, संविधान सभा की भाषा विषयक बहस लगभग 278 पृष्ठों में मुद्रित हुई। इसमें डॉ. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी और गोपाल स्वामी आयंगर की अहम भूमिका रही थी। भारतीय संविधान के भाग 17 के अध्याय की धारा 343 (1 ) में वर्णित किया गया कि भारत संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। भारत संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अन्तर्राष्ट्रीय रूप होगा और अंग्रेजी भाषा का चलन आधिकारिक तौर पर 15 वर्ष बाद, प्रचलन से बाहर कर दिया जाएगा।
26 जनवरी, 1950 को जब हमारा संविधान लागू हुआ था तब देवनागरी लिपि में लिखी गई हिन्दी सहित 14 भाषाओं को आधिकारिक भाषाओं के रूप में आठवीं सूची में रखा गया था। संविधान के अनुसार 26 जनवरी, 1965 को अंग्रेजी की जगह हिन्दी को पूरी तरह से देश की राजभाषा बनानी थी। लेकिन दक्षिण भारत के राज्यों में हिन्दी विरोधी आंदोलन के बीच वर्ष 1963 में राजभाषा अधिनियम पारित किया गया था , जिसने 1965 के बाद अंग्रेजी को आधिकारिक भाषा के रूप में प्रचलन से बाहर करने का फैंसला पलट दिया था। दक्षिण भारत के राज्यों विशेष रूप से तमिलनाडु (तब का मद्रास ) में आंदोलन और हिंसा का एक जबरदस्त ज़ोर चला और कई छात्रों ने आत्मदाह तक किया। इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की कैबिनेट में सूचना एवं प्रसारण मंत्री रहीं इंदिरा गाँधी के प्रयासों से समस्या का समाधान निकला, जिसके परिणाम स्वरूप 1967 को राजभाषा में संशोधन किया और यह माना गया कि अंग्रेजी देश की आधिकारिक भाषा रहेगी। इस संशोधन के माध्यम से आज तक यह व्यवस्था जारी है।
अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी दिवस और संयुक्त राष्ट्रसंघ :
विश्व का पहला “अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन” 10 जनवरी, 1975 को नागपुर में आयोजित हुआ। तत्पश्चात विश्व हिन्दी दिवस को हर वर्ष 10 जनवरी को मनाए जाने की घोषणा तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह जी ने साल 2006 में की थी। यानि इसे हर वर्ष आधिकारिक तौर पर मनाने में 31 साल लग गये, कारण आप सोच सकते हैं। आज दुनिया के लगभग 170 देशों में हिन्दी किसी न किसी रूप में पढ़ाई व सिखाई जाती है। संयुक्त राष्ट्र संघ बनते समय 4 राज भाषाएं यानि चीनी, अंग्रेजी, फ्रांसीसी और रूसी स्वीकृत की गई थीं। जबकि 1993 में अरबी, स्पेनिश को जोड़ा गया लेकिन हिन्दी कहीं नहीं। जो भाषाएं राष्ट्र संघ में आने के लिए मचल रहीं हैं उनमें बंगाली, मलय, पुर्तगाली, स्वाहिली और टर्किश भी कई सालों से दस्तक दे रही हैं। हिन्दी भाषा का दावा इसलिए सबसे मजबूत है क्योंकि हिन्दी दुनिया की चौथी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है।
हिन्दी भाषा की त्रासदी :
13 सितंबर, 1949 को तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने संसद में चर्चा के दौरान तीन प्रमुख बातें कहीं थी ; यथा – 1 ) किसी विदेशी भाषा से कोई भी राष्ट्र महान नहीं हो सकता। 2 ) कोई भी विदेशी भाषा आमजन की भाषा नहीं हो सकती। 3 ) भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के हित में, ऐसा राष्ट्र जो अपनी आत्मा को पहचाने, जिसे आत्म विश्वास हो, जो संसार के साथ सहयोग कर सके, हमें हिन्दी को अपनाना चाहिए। कागज़ी तौर पर तो हिन्दी राजभाषा बनी रही लेकिन फलती- फूलती रही अंग्रेजी भाषा। इसके बाद अंग्रेजी मजबूत होती गई। “राष्ट्रभाषा प्रचार समिति” द्वारा प्रत्येक वर्ष 14 सितंबर 1953 से हिन्दी दिवस का आयोजन किया जाता रहा और हिन्दी सिर्फ “14 सितंबर” तक ही सीमित होकर रह गई। यह कितना विसंगतिपूर्ण है कि हमारी कोई एक राष्ट्रभाषा नहीं है और देश का कोई एक सुनिश्चित नाम भी नहीं है। भारतवर्ष, इंडिया, हिंदुस्तान नामों में पिछले 74 सालों से जंग जारी है। विजय पताका अभी तक किसी को भी नहीं मिली।
आज़ाद होने के बाद पूरे भारतवर्ष में एक भाषा और एक शिक्षा पद्धति की बातें उठी थीं। लेकिन अफसोस प्रदेशवाद और जातिवाद के बोझ तले सब कुछ दबकर रह गया। दुनिया के ज्यादातर विकसित देशों की अपनी एक राष्ट्रभाषा है। वहाँ की शिक्षा प्रणाली, प्रशासन व न्यायपालिका के सभी काम उनकी अपनी भाषा में होते हैं। वहाँ विद्यार्थियों के कंधों पर हमारे देश की तरह तीन-तीन भाषाओं का बोझ नहीं होता है। मुझे यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि हमारे देश के प्रसिद्ध समाचार पत्रों में ही करीब 30 प्रतिशत अंग्रेजी के शब्द देवनागरी में पढ़ने को मिलते हैं। दूरदर्शन और समाचार पत्रों के विज्ञापनों में हिन्दी शब्दों को रोमन लिपि में लिखा दिखाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अगर समाचार पत्रों और टी.वी. चैनलों में हिन्दी की यह दुर्दशा है तो कैसे बनेगी हिन्दी, हिन्द के माथे की बिन्दी। केंद्र व राज्य सरकारों की 9 हज़ार के लगभग वेबसाइट्स हैं , जो पहले अंग्रेजी के खुलती हैं फिर इनका हिन्दी विकल्प आता है। यही हाल हिन्दी में कंप्यूटर टाइपिंग का है। टाइप करते वक्त उसे रोमन लिपि में टाइप किया जाता है और बाद में उसे देवनागरी में बदला जाता है। इसमें भी कई फॉन्ट होते हैं। कई फॉन्ट तो कई कम्प्यूटरों में खुलते ही नहीं। यह हिन्दी के साथ घोर अन्याय है। चीन, रूस, जापान, फ़्रांस, यू.ए.ई. यहां तक की पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित बहुत से दूसरे देश कम्प्यूटर पर अपनी एक भाषा और एक फॉन्ट में काम करते हैं।
हम किसी भी प्रान्त, जाति, धर्म के हों, लेकिन जब बात एक देश की हो तो भाषा व लिपि भी एक ही जरूरी है। तभी हिन्दी के अच्छे दिन आएंगे। अभी हाल ही में अरब अमीरात ने एक ऐतिहासिक फैंसला लेते हुए अरबी व अंग्रेजी के बाद हिन्दी को अपनी तीसरी आधिकारिक भाषा के रूप में शामिल कर लिया है। यह हमारे लिए बहुत ही गर्व की बात है और एक हम हैं कि 74 सालों में हिन्दी को वह दर्जा नहीं दे सके जो इसे देना चाहिए। एक समाचार के मुताबिक तीन साल पहले हिन्दीभाषी उत्तरप्रदेश बोर्ड की परीक्षा में करीब 10 लाख बच्चे हिन्दी में अंउत्तीर्ण हो गए थे। यह हमारे लिए बहुत ही शर्म की बात है। सोचिए अगर उत्तर भारत में हिन्दी का यह हाल है तो भारत के दूसरे प्रांतों का क्या हाल होगा। इसका सबसे बड़ा कारण है कि कई दशकों से विद्यार्थियों को तमाम माध्यमों द्वारा यह बात सिखाई गई है कि जीवन में अगर कुछ करना है तो अंग्रेजी सीखों और उसी पर ध्यान दो।
उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव जी अंग्रेजी में पूछे गए सवालों का जवाब हिन्दी में देते हैं। हम इसे राष्ट्रवाद कहेंगे। इसके विपरीत दक्षिण भारत से काँग्रेस नेता शशि थरूर ने कहा था कि हिन्दी हम पर लादी जा रही है। वह अंग्रेजी के विद्वान माने जाते हैं और उन्होंने कई अंग्रेजी में पुस्तकें लिखी हैं। मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि आपने जब अंग्रेजी सीखी तो तब आप पर क्या वह लादी गई थी तो तब आपने इसका विरोध क्यों नहीं किया ? अंग्रेजी साम्राज्य के चलते अगर हम अंग्रेजी सीख सकते हैं तो क्या कारण है कि आज़ादी के बाद हम अपने ही देश में आज़ाद रहते हुए अपनी भाषा हिन्दी नहीं सीख सकते। इसका एक ही सबसे बड़ा कारण समझ में आता है और वह है कमज़ोर प्रजातंत्र यानि loose democracy , ऐसा मेरा मानना है।
कब तक शापित रहेगी हिन्दी :
स्वतंत्रता के सूर्योदय के साथ जिस हिन्दी को भारत माँ के माथे की बिन्दी बनना चाहिए उस हिन्दी की हालत आज़ादी के 74 वर्षों के बाद भी गुलामी के 200 वर्षों से बदतर सिद्ध हो रही है। जिस हिन्दी को आगे बढ़ाने के लिए अहिन्दी भाषी बंगाली राजा राम मोहन राय, ब्रह्म समाज के नेता केशवचन्द्र, सुभाष चंद्र बोस और राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने आस्था के दीये जलाए, वही हिन्दी आज अपने ही घर में बिलख रही है। आज हिन्दी अपनों से हारी है अब हिन्दी अस्मिता की पहचान नही है। आजादी मिलते ही हम पूरे गुलाम हो गये। अब अंग्रेजी मम्मी-डैडी की संस्कृति गाँव के चौपाल तक पहुँच गई है। पिता जी के अलावा बाकी सब अंकल हो गए है। जहां तक कि पालतू कुत्तों का भी अंग्रेजीकरण हो गया है। कालू, झबरु, मोती अब टाइसन, बुलैट, वगैरा हो गए हैं । कुकरमुत्ते की तरह उगते अँग्रेजी स्कूल ग्रामीण भारतीय संस्कृति को विनष्ट करने पर तुले हैं। जिस देश के लिए न जाने कितने जवानों ने स्वयं को बलिदान कर दिया , उस देश के लिए हमे मातृभाषा के प्रति मोहभंग करना पड़े तथा थोड़ी सी परेशानी उठानी पड़े तो उन जवानों के त्याग की तुलना में हमारा त्याग बहुत कम होगा। हमें यह त्याग करना पड़ेगा क्योंकि राष्ट्र की एकता आज हमारे लिए सर्वोपरि है।
वैसे तो हिंदी विदेशों में मारीशस, फिज़ी, सूरीनाम जैसे देशों में पल्लवित व पुष्पित है। हॉलेंड में इसका तो पढ़ाई के साथ -साथ शोध कार्य भी हो रहा है। परन्तु आज हिन्दीअपने ही घरों, में अंग्रेजी के आगे हार गई है। इतने हिन्दी भाषियों के रहते आखिर कब तक अभिशप्त रहेगी हिन्दी ?
विदेशी हिन्दी सेवियों के अवदान :
इस हिन्दी दिवस के महान अवसर पर हिन्दी के विद्वानों, लेखकों, साहित्कारों, आदि की बातें तो होंगी ही। इनमें लगभग सभी हिन्दी पट्टी के ही होंगे। क्या ही अच्छा हो कि इस अवसर पर हम उन हिन्दी सेवियों के अवदान को भी रेखांकित करें जो मूलत: भारतीय नहीं हैं। उनकी मातृभाषा भी हिन्दी नहीं हैं, बावजूद इसके उन्होंने हिन्दी सीखी, आगे की पीढ़ी को भी पढ़ाया और अपनी रचनाओं से हिन्दी भाषा को समृद्ध किया।
हिंदी सेवियों में पहला नाम फ़ादर कामिल बुल्के का सामने आता है। वह आजीवन हिंदी की सेवा में जुटे रहे। वे हिंदी अंग्रेजी शब्दकोश के निर्माण के लिए सामग्री जुटाने में सतत प्रयत्नशील रहे। उन्होंने इसमें 40 हजार नए शब्द जोड़े। बाइबल का हिंदी अनुवाद भी किया। वे रामचरित मानस के उदभट विद्वान थे और लगभग पूरा रामचरित मानस उन्हें कंठस्त था। इसी क्रम में 85 साल की कात्सू सान भी आती हैं। वे 1956 में भारत आंई थी। भारत को लेकर उनकी दिलचस्पी भगवान बौद्ध के कारण बढ़ी थी। अब भारत ही उन्हें अपना देश लगता है और वे मानती है कि भारत संसार का आध्यात्मिक विश्व गुरु है। कात्सू जी ने हिन्दी काका साहेब कालेलकर जी से सीखी थी और 40 वर्ष पहले भारत की नागरिकता ग्रहण कर ली थी। कुछ माह पहले राजधानी दिल्ली में संसद भवन की नई बनने वाली इमारत के भूमि पूजन के बाद सर्वधर्म प्रार्थना सभा का आयोजन किया गया था। जिसमें बौद्ध , यहूदी, पारसी, बहाई , सिख, ईसाई , जैन, मुस्लिम और हिन्दू धर्मों की प्रार्थनाएं की गईं ।
ब्रिटेन से संबंधित जिलियन राइट का नाम भी सामने आता है। वे लंदन में बी.बी.सी. में भी काम करती थीं । सत्तर के दशक में भारत आने के बाद राही मासूम रज़ा के उपन्यास “आधा गाँव” व श्री लाल शुक्ला के उपन्यास “राग दरबारी” का अनुवाद अंग्रेजी में कर दिया। भारत के चीन से संबंध कोई बहुत सौहार्दपूर्ण न भी रहे हों पर भारत चीन के हिन्दी प्रेमी प्रो. च्यांग चिंगख्वेइ के प्रति सम्मान का भाव अवश्य ही रखता है। वे दशकों से पेइचिंग यूनिवर्सिटी में हिन्दी पढ़ा रहे हैं। साल 2014 में जब केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी (एन.डी.ए) की सरकार बनी तो हिन्दी भाषा को सरकारी कामकाज व विदेश नीति तक में तरजीह मिलने लगी। अब नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी हिन्दी भाषा को प्राथमिकता दी जाने लगी है। इंजीनियरिंग और मेडिकल शिक्षा पाठ्यक्रम भी हिंदी भाषा में शुरू किए जा रहे हैं। हिन्दी के अच्छे दिन आने की संभावनाएं बढ़ती नज़र आ रही हैं और शायद हिन्दी को अपना वो अधिकार मिल सके जिसकी वह पिछले 74 वर्षों से हकदार थी।