देश में चीनी वस्तुओं के बहिष्कार की मुहिम चल रही है। पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का साथ देने वाले चीन से भारत को सारे साझे तोड़ लेने के लिए भारतीय परिदृश्य मचल पड़ा है। ऐसा वाकया सोशल साइट्स पर देखने को मिल रहा है। चीन के प्रति गुस्सा ठीक है, लेकिन अतिउत्साह में लोग विदेशी ब्रण्ड्स के खिलाफ मोर्चा खोल बैठे हैं। जब हमारे नयों ने स्वदेश अपनाने की बात की तो वह ‘मेक इन इंडिया’ को नहीं भूले थे। जिन वस्तुओं का उत्पाद भारत में हो रहा है फिर चाहे वह किसी भी कंपनी को हों (आज के परिवेश में चीनी कोंपनियों को छोड़ कर) आप उसे स्वदेशी ही मानें। क्योंकि उसके उत्पाद में भारतीय कामगारों का पसीना शामिल है। हाँ उसी कंपनि के विदेशी उत्पादों के बारे में निर्णय लेने को आप स्वतंत्र हैं। इसी आशय पर प्रकाश डालता हमारे सहयोगी सुशील पंडित का यह लेख।
सुशील पंडित, यमुनानगर – 18 मई:
ऐसा क्यों होता है कि जब भी परिस्थितिया विषम होती है तो हम अच्छा सोचने लगते हैं। क्या अच्छे हालात में अच्छा सोचना गलत है? पत्रकार होने की दृष्टि से मैं वर्तमान शासन के बारे में या तो बहुत अच्छा लिखता या शायद कुछ भी न लिखता। लेकिन बात है आम आदमी की मनोदशा की जो वर्तमान में असमंजस की स्थिति में है।
बात है स्वदेशी अपनाने की बहुत ही सराहनीय प्रयास है लेकिन अपनाया तो उसे जाता है जिसे कभी ठुकराया हो या आजमाया ही न हो मेरा सरोकार है सिर्फ़ आम आदमी से जो जीवन के आरम्भ से लेकर अंत तक स्वदेश भावना लेकर ही अपना जीवन व्यतीत करने में विश्वास रखता है। विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने का पाठ पढ़ाने की जरूरत तो उन लोगों या घरानों को हैं जो मुँह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए हैं। जिन्हें स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करने में हीनता का आभास होता है।
कोई भी सत्ता हो स्वदेशी आंदोलन पर जोर देकर खुद को देश प्रेम का प्रतीक बनाने की होड़ में लगी है। स्वतंत्रता संग्राम में भी गांधी जी ने “स्वदेशी अपनाओ” का नारा दिया था जो सफल भी रहा लेकिन ज्ञात हो परिस्थितिया उस समय भी प्रतिकूल थी अंग्रेजी हकूमत की वजह से और आज भी अर्थव्यवस्था के कारण। ये खेल तो बहुत लंबे समय से चल रहा है। जिसमें जीत जब भी हुई तो वो थी विदेशी वस्तुओं की। ये इतने विचार हमारे शासकों के मन में सामान्यतः क्यो नही आते। क्या ये सच में हमारी राष्ट्र की जरुरत है या फिर सभी सत्ताधारियों का खेल?
आम इंसान किसी दल,जाति, धर्म विशेष का नही होता उसे तो सिर्फ अपेक्षा होती है तो देश के राजा से और ये परम्परा तो आदि काल से चली आ रही है राजा का दायित्व बनता है कि वह प्रजा की जायज़ अपेक्षाओं पर खरा उतरने की हर संभव कोशिश करें। देश के हर आम नागरिक की सोच यहीं है कि वो स्वदेशी वस्तुओं का भोग अपने बजट में रह कर सरलता से कर सकें लेकिन जब बात आती है भारत के खास नागरिक तो आप सभी मुझे से कही अधिक जानते हैं। किसी भी सरकार का स्वदेशी अपनाओ का ढ़िढोरा पीटना और धरातल पर रह कर इसे गभीरता से सभी के लिए समान रूप से लागू करना ये दोनों इस समस्या के अलग अलग पहलू है। क्योंकि सरकार कोई भी रही हो या वर्तमान में हो, कथनी और करनी में जमीन आसमान का नही आसमान और पाताल का अंतर है परंतु वो कहते हैं उम्मीद पर दुनिया क़ायम है बस उसी उम्मीद पर हर बार आम नागरिक राजनीतिक दलों के प्रतिनिधयों से अपेक्षा लगाए उसी मोड़ पर खड़ा रहता है जहाँ वह आरम्भ से खड़ा है…. और बस…. वहीं खड़ा है।