हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर विशेष:
सरिका तिवारी
रूको, अरे सुनो , नए फैशन के पत्रकार ।
ऐसा कौन सा कर्म-कुकर्म तुमने कर डाला, जो तुम्हारे गले की हड्डी की तरह फंसा हुआ है : कलम को तोप नहीं, तमंचा को परमाणु मानते हैं यह जर्नलिस्ट : तुम्हें इतना ही डर लगता है, तो पत्रकारिता को क्यों बदनाम करते हो : दास्तान-ए-डरपोंक पत्रकार-एक :
‘‘चाहिए स्वराज्य के लिए एक संपादक। वेतन-दो सूखी रोटियां, एक गिलास ठंडा पानी और प्रत्येक संपादकीय के लिए दस साल जेल और विशेष अवसर पे अपना सिर कटाने के लिये तैयार, योग्य कलमकार’’
ढम्म, ढम्म, ढम्म।
सुनो, सुनो।
आज के कुछ पत्रकारों की कहानी सुनो।
बिलकुल नएदौर के पत्रकारों की कहानी।
नये टेस्ट वाले पत्रकारों की कहानी।
अनोखे बिजूखा-टाइप नये-नये अंदाज के पत्रकारों की कहानी।
बिना कलम वाले पत्रकारों की कहानी। बिना किसी खबर वाले पत्रकारों की कहानी।
बकलोल पत्रकारों की कहानी।
बहादुर होने का चोला पहन कर डर पोंक रहे पत्रकारनुमा पत्रकारों की कहानी।
सिर्फ दलाली पर आमादा पत्रकारों की कहानी। खबर लिखने की तमीज नहीं, लेकिन इन्हें भय बहुत है।
इतने भयभीत हैं यह पत्रकार, कि उन्हें गनर चाहिए। सरकारी गनर, विद कारबाइन।
ढम्म, ढम्म, ढम्म।
जी हां, आइये ऐसे पत्रकारों की कहानी सुनिये, जो कर्म से भले पत्रकार न हों, लेकिन खुद को पत्रकार के तौर पर यत्र-तत्र-सर्वत्र विचरण करते रहते हैं। मनुष्यरूपेण मृगाचरन्ति। यह गजब कहानी है पत्रकारिता के उन पहरूओं की, जिनका पत्रकारिता से धेला भर लेना-देना नहीं होता। वे दावा तो करेंगे कि वह करते हैं पत्रकारिता, लेकिन डर-डर कर। इतना डरेंगे कि डरपोंक मारेंगे। डर के मारे नानी मरती है इन बहादुर पत्रकारों की। लिखने की तमीज भले न हो, लेकिन उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए वे यत्र-तत्र-सर्वत्र चिल्ल-पों करते दिख जाते हैं। जिस किस की भी चरण-धूलि अपने माथे पर टीका की तरह सजा लेंगे और फिर भिक्षा में मांगेंगे गनर। सरकारी गनर। सरकारी स्टेनगन के साथ वाला गनर।
उस समय सबकी ज़रूरत सिर्फ और सिर्फ आजादी थी और उसे किसी भी हाल में हासिल करने का एकमात्र उद्देश्य लोगों के ज़हन में था। बंदूक, तलवार, तोपें और तमाम बड़े-बड़े हथियारों से क्रांतिकारी स्वतंत्रता की जंग लड़ रहे थे किंतु क्रांति का हर प्रयास सिर्फ निराशा को ही देने वाला था और इसका परिणाम था 1857 की क्रांति की विफलता। बस इसी दौर में हथियारों से परे आजादी की अलख जगाने का जिम्मा कलमकारों ने अपने हिस्से लिया और कलम की ताकत कुछ ऐसी चमकी, कि मशहूर शायर अकबर इलाहबादी को कहना पड़ा-
“खींचों न कमानों को न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो”
जुझारू पत्रकारों के इस अमिट योगदान को बयाँ करने के लिये महान् कवियत्री महादेवी वर्मा को कहना पड़ा “पत्रकारों के पैरों के छालों से आज का इतिहास लिखा जाएगा”
इतना ही नहीं, ‘स्वराज्य’ नामक अखबार ने अपने संपादक पद के लिए छपा यह विज्ञापन इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है- ‘‘चाहिए स्वराज्य के लिए एक संपादक। वेतन-दो सूखी रोटियां, एक गिलास ठंडा पानी और प्रत्येक संपादकीय के लिए दस साल जेल और विशेष अवसर पे अपना सिर कटाने के लिये तैयार, योग्य कलमकार’’
स्वदेशी आंदोलन के समय 1907 में उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद के निवासी शांति नारायण भटनागर ने अपनी जमीन-जायदाद बेचकर स्वराज्य नामक साप्ताहिक अखबार निकाला। स्वराज्य अखबार के सम्पादकों को कुल 125 वर्ष के काले पानी की सजा हुई, फिर भी डिगे नहीं। स्वराज के संस्थापक भटनागर जी ‘रायजादा’ कहलाते थे उन्हें भी सरकार ने नहीं छोड़ा। तीन वर्षों का सश्रम कारावास हुआ। स्वराज प्रेस जब्त कर लिया गया। नया प्रेस खुला। बलिदानी सम्पादकों ने फिर कमान संभाल ली। होती लाल वर्मा को 10 वर्ष तथा बाबू राम हरि को 11 अंकों के प्रकाशन के बाद 21 वर्षों की सजा हुयी। मुंशी राम सेवक नये सम्पादक के रूप में कलेक्टर को अपना घोषणा पत्र ही दे रहे थे कि उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। कलेक्टर ने चुनौती दी कि और भी कोई है इस तख्त पर गद्दीनशीन होने के लिये। तब आगे आये देहरादून के नंद गोपाल चोपड़ा। जिन्हें 12 अंकों के सम्पादन के बाद 30 वर्षों की सजा दी गयी। तब एकदम से 12 नामों की सूची सम्पादक बनने के लिए आयी। सभी ने कहा हम करेंगे सम्पादन। किंतु पंजाब के फील्ड मार्शल कहे जाने वाले लद्धा राम कपूर सम्पादक बने। उन्हें तीन सम्पादकीय लिखने पर प्रति सम्पादकीय 10 वर्ष अर्थात् कुल तीस वर्षों की सजा हुई। इसके पश्चात अमीर चन्द्र जी इसके सम्पादक बने। किन्तु यहां महत्व का विषय यह है कि हर सम्पादक के जेल जाने के बाद स्वराज में एक विज्ञापन छपता था ‘सम्पादक चाहिए- वेतन दो सूखे ठिक्कड़ (रोटी), एक गिलास ठंडा पानी, हर सम्पादकीय लिखने पर 10 वर्ष काले पानी की कैद’। फिर भी लोग डरे नहीं, दमन के सम्मुख झुके नहीं। स्वाभाविक रूप से उनकी प्रेरणा का आधार बिगड़ती व्यवस्था का अंर्तनाद ही था।
लेकिन अब इन्हें अपने पेशे को चमकाने के लिए खबरों और व्याकरणों की जरूरत नहीं पड़ती है। बल्कि उसके ठीक उलट, उन्हें अपना धंधा चमकाने के लिए सरकारी स्टेनगन लादे एक सरकारी गनर की जरूरत पड़ती है, जिसके साथ वे खड़े हों और छाती ठोंक कर यह प्रदर्शन करने की मूर्खता कर सकें कि उनकी सुरक्षा अब सरकार का जिम्मा बन चुका है। जाहिर है कि वह दलाली ही है, जिसका दारोमदार इस नये दौर के पत्रकारों ने थाम लिया है। इनमें से ही कई लोग भी हैं, जो खुद को वरिष्ठ पत्रकार के तौर पर पेश करते हैं, लेकिन अपनी काली-करतूतों के चलते गनर हासिल कर उसका सार्वजनिक प्रदर्शन करते रहते हैं।
जी हां, अब नतीजा यह कि पत्रकारिता अब कलम के सिपहसालारों की संख्या अब बेहद न्यून होती जा रही है। उनकी जगह ले लिया है बनावटी और दिखावटी पत्रकारों ने, जिनको पत्रकारिता का ककहरा तक नहीं आता, लेकिन झूठ और चापलूसियों की ऐसी-ऐसी लन्तरानियां उछालने में माहिर हैं यह पत्रकार।