मेनका गांधी होने के मायने….
-विक्रम बृजेन्द्र सिंह-
चौंतीस साल गुजर गए।वे 1984 की सर्दियों के दिन थे। हक़ की लड़ाई लड़ रही गांधी परिवार की छोटी बहू मेनका गांधी अमेठी की अपनी राजनीतिक विरासत के लिए जनता की चौखट पर थीं।राजीव गांधी के खिलाफ अमेठी संसदीय क्षेत्र से बहैसियत संयुक्त विपक्ष प्रत्याशी राष्ट्रीय संजय मंच की मुखिया के रुप में, शायद नामांकन के बाद शहर के खुर्शीद क्लब में जनता से रूबरू थीं।अपने साथ की गई ज्यादतियों को लेकर वे बिफर रहीं थीं। उस सभा के चश्मदीद लोगों को उनका वो आक्रामक अंदाज़ आज भी भूला नहीं है। लगभग घंटे भर के भाषण में उनके निशाने पर था गांधी परिवार। संजय गांधी की विमान हादसे में मौत के बाद से ही घर-परिवार-समाज और राजनीति में अपने वजूद को साबित करने के लिए जूझ रही मेनका पति की कर्मस्थली अमेठी में अपना हक चाहती थीं। क्योंकि संजय गांधी ने सियासत शुरू की थी अमेठी(तत्कालीन सुल्तानपुर जिले का संसदीय क्षेत्र)से।
..पर इंदिरा की शहादत से उपजी सहानुभूति लहर के आगे वे कामयाब न हो सकीं। कड़ी शिकस्त खाई मेनका फिर वापस नहीं लौटीं। अलबत्ता पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपनी पैठ बनाई और इस बीच बरेली,आंवला व पीलीभीत आदि सीटों से रिकॉर्ड मतों से जीत हासिल कर राजनीति में मेनका होने की सार्थकता सिद्ध की। सामाजिक सरोकार के मुद्दों व जीव जंतुओं के अधिकार और संरक्षण की बड़ी पैरोकार के तौर पर भी पहचान बनाने में कामयाब रहीं।
…लेकिन एक टीस कायम रही,वो थी पति की सियासी विरासत में अपना हक हासिल करने की चाहत। बस यही चाहत थी उनकी.. जो बेटे वरुण को उन्होंने 2014 के आम चुनाव में पिता की विरासत संभालने सुल्तानपुर भेजा। उनके चुनाव प्रचार में वे 29 वर्षों बाद आईं और पिता से कुछ अक्खड़ वरुण गांधी कामयाब रहे। उन्होंने अपने अंदाज में जिले के लिए कुछ ‘अलग’ करने की कोशिश करते हुए अमिट छाप भी छोड़ी।..लेकिन 2019 का आम चुनाव मेनका के लिए अलग सा है। हमेशा वे खुद अपनी सीट चुनती रहीं। इस बार हाईकमान के निर्देश पर वे बेटे की सीट पर पति की विरासत संभालने आई हैं। 30 मार्च को उन्होंने अपना चुनावी अभियान शुरू करते हुए क्षेत्र में ही लंगर डाल दिया है।पुराने रिश्ते जिंदा होने लगे हैं।जंग रोचक होगी, शक नहीं!…उनके सामने हैं पति संजय व जेठ राजीव के खास सिपहसालार संजय सिंह तो वहीं गठबंधन ने स्थानीय क्षत्रप चन्द्रभद्र सिंह को उतार कर लड़ाई को त्रिकोणीय बना दिया है। ..पर अब मेनका भी सन 84 सी नौसिखिया नहीं हैं। वे अब पहचान के लिए ‘गांधी परिवार’ की मोहताज भी नहीं रहीं।जिंदगी की रपटीली राहों से गुजरते हुए व तमाम उतार-चढ़ाव के बीच फौलाद बन चुकी हैं।
देखना है हमेशा ढाई-तीन लाख मतों के अंतर से जीतने वाली ये ‘छोटी बहू’ इसबार अपने पुराने हिसाब किस तरह और कैसे चुकता करेगी !! फिलहाल मेनका की चुनाव में अवध क्षेत्र से नुमाइंदगी, राहुल की परंपरागत सीट बन चुकी अमेठी समेत कई पड़ोसी सीटों पर भी असर डालेगी।ये तो तय है।