‘लोकतन्त्र बचाने’ के नाम पर विधान सभाएं भंग होती रहीं हैं
इतिहास के आइने में देखें तो कांग्रेस के केंद्र में रहने के दौरान राज्यों की गैर-कांग्रेसी सरकारों पर गिरती रही है राज्यपाल की गाज, भंग होती रही हैं विधानसभा और बर्खास्त होती रही हैं सरकारें
जम्मू-कश्मीर की घाटी में सियासी बवाल है. राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा भंग कर दी है. ये फैसला उस वक्त लिया गया जब जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने की कवायद चल रही थी. एक दूसरे के विरोधी माने जाने वाले पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस राज्य में सरकार बनाने के लिए गठबंधन पर विचार कर रहे थे. पीडीपी ने सरकार बनाने का दावा भी पेश कर दिया था. लेकिन राज्यपाल ने विधानसभा भंग करते हुए कहा कि वो अयोग्य गठबंधन को सरकार बनाने का मौका नहीं दे सकते हैं.
राज्यपाल के इस बयान पर बहस छिड़ गई है. सवाल उठ रहे हैं कि विरोधी विचारधारा वालों को सरकार बनाने से रोकने का फैसला कोई राज्यपाल भला कैसे कर सकता है? नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अबदुल्ला ने कहा कि. ‘साल 2015 में भी बीजेपी और पीडीपी ने विपरीत विचारधारा के बावजूद गठबंधन किया था.’
उस गठबंधन को जन्नत में बनी जोड़ी तो नॉर्थ और साउथ पोल का मिलन भी कहा गया था. ऐसे में पीडीपी-नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के संभावित गठबंधन पर राज्यपाल का एतराज समझ से परे है. बहरहाल, फैसले से विवाद खड़ा हो गया और सियासी घमासान भी तेज हो गया है. लेकिन ऐसा नहीं है कि जम्मू-कश्मीर के सियासी इतिहास में पहली दफे ऐसा फैसला लिया गया हो. कई दफे देश के तमाम राज्यों में सियासी जरुरतों के मुताबिक सरकारें बर्खास्त तो विधानसभा भंग की गई हैं.
इतिहास के आइने में झांकने पर ऐसे तमाम राज्यपालों की तस्वीरें मिलती हैं. उन राज्यपालों ने सरकार गिराने का फैसला लेकर राजनीतिक तूफान पैदा किया तो विवाद कोर्ट की दहलीज तक भी पहुंचे.
कर्नाटक के पूर्व राज्यपाल हंसराज भारद्वाज, यूपी के पूर्व राज्यपाल रोमेश भंडारी, बिहार में बूटा सिंह और झारखंड में सिब्ते रज़ी के फैसले हमेशा किसी न किसी बहाने याद किए जाते रहेंगे.
क्या केंद्र में बीजेपी नहीं होती तो बची रह पाती गोवा सरकार
गोवा में बीजेपी की सरकार है. मनोहर पर्रिकर राज्य के मुख्यमंत्री हैं. खराब स्वास्थ की वजह से पर्रिकर गोवा, मुंबई, अमेरिका और दिल्ली के एम्स में इलाज कर वापस गोवा लौटे हैं. कांग्रेस का आरोप है कि पर्रिकर बीमारी की वजह से सीएम का कार्यभार सुचारु रूप से नहीं संभाल पा रहे हैं. ऐसे में कांग्रेसी विधायकों ने एक पूर्णकालिक सीएम की मांग की है. यहां तक कि बहुमत साबित कर सरकार बनाने की अपील की है. मनोहर पर्रिकर के स्वास्थ्य पर होने वाली राजनीति को अस्सी के दशक में एन टी रामाराव के शासन काल से जोड़कर देखा जा सकता है. बस फर्क इतना है कि गोवा में राज्यपाल ने सरकार गिराने जैसी विवादास्पद और असंवैधानिक कोशिश नहीं की.
साल 1984 में एन टी रामाराव अपनी बीमारी के इलाज के लिए अमेरिका गए हुए थे. वो दिल की बीमारी से ग्रस्त थे और अमेरिका में उनका ऑपरेशन हुआ था. लेकिन जब तक एनटी रामाराव वापस लौटते उनकी सरकार गिर चुकी थी. आंध्र प्रदेश के राज्यपाल ठाकुर रामलाल ने रामाराव की सरकार को बर्खास्त कर दिया था. खास बात ये है कि रामाराव की सरकार पूर्ण बहुमत में थी और उसे जम्मू-कश्मीर में पीडीपी-कांग्रेस और नेशनल कॉन्फेंस की तरह सदन में बहुमत भी नहीं साबित करना था. इसके बावजूद ठाकुर रामलाल ने करियर की बड़ी रिस्क उठाई और बाद में कुर्सी गंवा कर कीमत भी चुकाई. उनकी जगह फिर शंकर दयाल शर्मा राज्यपाल बने और एन टी रामाराव दोबारा सीएम बने.
दरअसल, संघीय व्यवस्था में राज्यपाल केंद्र का प्रतिनिधित्व करते हैं. संवैधानिक आवरण से तैयार हुआ ये गौरवपूर्ण पद मूल रूप से विशुद्ध सियासी इस्तेमाल के लिए होता है. ऐसे में राज्यपाल के बयान से विपक्ष किसी अदालत के फैसले की सी उम्मीद नहीं कर सकता और न ही वो फैसला पत्थर की लकीर होता है. यही वजह होती है कि असंतोष फूटने पर राज्यपाल के फैसले के खिलाफ कोर्ट का दरवाजा खटखटाया जाता है.
जब बहुमत वाली बोम्मई सरकार को किया बर्खास्त
अस्सी के दशक में कर्नाटक में एस आर बोम्मई की सरकार ने भी राज्यपाल के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. कर्नाटक में तत्कालीन राज्यपाल पी वेंकटसुबैया ने बोम्मई सरकार को बर्खास्त कर दिया था. राज्यपाल का कहना था कि बोम्मई सरकार विधानसभा में अपना बहुमत खो चुकी थी. इस फैसले के खिलाफ बोम्मई ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और लौटा हुआ साम्राज्य हासिल किया.
पीडीपी की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ने सरकार बनाने का दावा पेश करने वाला पत्र सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दिया था. जिस पर जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने कहा कि सोशल मीडिया से न तो सरकार चलेगी और न बनेगी. इसी तरह पूर्व में बोम्मई सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि बहुमत होने न होने का फैसला विधानसभा में होना चाहिए, कहीं और नहीं.
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या दावा पेश करने वाली पार्टियों को सरकार बनाने का एक मौका नहीं दिया जाना चाहिए? भले ही वो दो सीटों वाले सज्जाद लोन की पार्टी होती या फिर पीडीपी-नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस का गठबंधन?
अमूमन राज्यों की गैर कांग्रेसी सरकारों के खिलाफ राज्यपाल के विवादित फैसले ज्यादा सामने आए हैं.
हरियाणा के राज्यपाल जी डी तापसे ने देवीलाल के बहुमत के दावे के बावजूद भजनलाल को सरकार बनाने का न्योता दे दिया था. भजनलाल ने देवीलाल के विधायकों को तोड़कर सरकार बना ली थी. देवीलाल राज्यपाल को विधायकों के हस्ताक्षर का समर्थन वाला पत्र देकर सरकार बनाने के न्योते का इंतजार करते रह गए और राज्यपाल तापसे ने भजनलाल को सीएम पद की शपथ दिला दी.
हिंदुस्तान की सियासत में राज्यपालों की हैसियत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वो रातों-रात मौजूदा सरकार को बर्खास्त कर नया सीएम नियुक्त कर देते हैं. बाद में भले ही उस नवनियुक्त सीएम की अवधि सिर्फ दो दिन ही क्यों न हो. जगदंबिका पाल को देश एक दिन के मुख्यमंत्री के तौर पर जानता है. साल 1998 में यूपी के राज्यपाल रोमेश भंडारी ने ऐसा कारनामा किया कि यूपी के सीएम ऑफिस में दो-दो सीएम नजर आ रहे थे.
दरअसल, 21 फरवरी की रात साढ़े दस बजे रोमेश भंडारी ने यूपी में कल्याण सिंह की सरकार को बर्खास्त कर दिया और जगदंबिका पाल को सीएम बना दिया. राज्यपाल के फैसले के खिलाफ कल्याण सिंह इलाहाबाद हाईकोर्ट चले गए. हाईकोर्ट ने राज्यपाल के फैसले को असंवैधानिक करार देते हुए कल्याण सरकार को बहाल कर दिया.
जब ‘लोकतंत्र की रक्षा’ के नाम पर बूटा सिंह ने विधानसभा भंग की
बिहार में साल 2005 के विधानसभा चुनाव में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था. जिसकी वजह से तत्कालीन राज्यपाल बूटा सिंह ने विधानसभा भंग कर डाली. उस समय केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी जबकि राज्य में एनडीए सरकार बनाना चाहती थी. एनडीए ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और सुप्रीम कोर्ट ने बूटा सिंह के फैसले को असंवैधानिक करार दिया और राज्य में नीतीश कुमार की सरकार बनी. राज्यपाल बूटा सिंह की दलील थी कि उन्होंने लोकतंत्र की रक्षा के लिए आधी रात को विधानसभा भंग कर दी.
इसी तरह साल 2005 में झारखंड में त्रिशंकु विधानसभा के बावजूद शिबू सोरेन को राज्य का मुख्यमंत्री बनने का मौका मिल गया. झारखंड के तत्काल राज्यपाल सैयद सिब्ते रज़ी ने शिबू सोरेन को सरकार बनाने का न्योता दिया. हालांकि शिबू सोरेन अपना बहुमत साबित नहीं कर सके. 9 दिनों के बाद सोरेन को इस्तीफा देना पड़ा और अर्जुन मुंडा की दूसरी बार सरकार बनी.
हाल ही में कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद किसी भी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला. हालांकि बीजेपी 104 विधायकों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. राज्यपाल वजूभाई वाला ने बीजेपी विधायक दल के नेता बी एस येदियुरप्पा को सरकार बनाने का न्योता भी दिया. लेकिन कांग्रेस ने जेडीएस का समर्थन करते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा दिया. हालांकि कोर्ट ने येदियुरप्पा को सरकार बनाने से रोका नहीं लेकिन येदियुरप्पा सदन में बहुमत साबित नहीं कर सके और अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा. जिसके बाद कांग्रेस ने जेडीएस के साथ मिलकर सरकार बना ली.
इससे पहले कर्नाटक में राज्यपाल की एक दूसरी तस्वीर भी देखने को मिली थी. साल 2009 में केंद्र में यूपीए की सरकार थी और यूपीए सरकार में कानून मंत्री रहे हंसराज भारद्वाज को कर्नाटक का राज्यपाल बनाया गया था. हंसराज भारद्वाज ने बीजेपी की येदियुरप्पा सरकार को बर्खास्त कर दिया था. बर्खास्ती के पीछे वजह ये बताई गई थी कि येदियुरप्पा ने बहुमत हासिल करने के लिए खरीद-फरोख्त का सहारा लिया था.
अब जम्मू-कश्मीर के मामले में राज्यपाल सत्यपाल मलिक का कहना है कि उन्होंने हॉर्स ट्रेडिंग को रोकने के लिए ही ये फैसला लिया है. दरअसल राजनीति की ये परंपरा है कि केंद्र में सत्तासीन होने के बाद अगर राज्य में दूसरी सरकारों को गिराने का मौका मिले तो चूकना नहीं चाहिए. कांग्रेस सरकार ने जो किया वही जनता पार्टी ने भी 1977 में केंद्र में सरकार बनाने के बाद किया था.
जम्मू-कश्मीर में अबतक आठ बार राज्यपाल शासन लग चुका है. जम्मू-कश्मीर में सरकारों को बर्खास्त करने का आगाज़ भी कांग्रेस के शासन के दौर में हुआ तो इसका सिलसिला भी उस दौर में तेजी से आगे बढ़ा. साल 1953 में शेख अब्दुल्ला की सरकार को सदर-ए-रियासत कहे जाने वाले डॉक्टर कर्ण सिंह ने बर्खास्त कर दिया था. 24 साल बाद 26 मार्च 1977 में एक बार फिर शेख अब्दुल्ला की सरकार को राज्यपाल एलके झा ने गिरा दिया. उस वक्त केंद्र में इंदिरा गांधी की सरकार थी. इसके बाद साल 1984 में फारूक अबदुल्ला और 1986 में गुलाम मोहम्मद शाह की सरकारें गिराई गईं.
बहरहाल, ये जरूरी नहीं कि राज्यपाल के विवेक पर लिए गए फैसले वाकई लोकतंत्र के हित में हों क्योंकि कुछ राज्यपालों के विवादास्पद फैसलों ने इस पद की गरिमा और विश्वसनीयता को ठेस पहुंचाने का काम किया है.