Saturday, March 15


इससे दो चीजें बहुत साफ हैं. पहली कि मुख्यधारा की राजनीति एक ठहराव पर आ कर खड़ी हो गई है. और दूसरी ये कि घाटी में स्थिति और खराब होने की आशंका है.


जम्मू-कश्मीर की दो बड़ी पार्टियों नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी की ओर से पंचायत और शहरी निकाय चुनावों के बहिष्कार के ऐलान से वहां की उथल-पुथल और राजनीतिक अस्थिरता साफ झलकती है. ये अस्थिरता और मजबूत होती दिख रही है, क्योंकि उग्रवाद वहां के आम लोगों के भीतर गहरे जड़ें जमा चुका है.

दोनों राजनीतिक दलों ने अपने बहिष्कार की वजह अदालत में चल रहे उस मामले को बताया है, जो धारा 35 (ए) से ताल्लुक रखता है, जिसके जरिए जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा हासिल है. लेकिन यहां पिछले कुछ सालों में हुई घटनाओं को ध्यान से देखें, तो साफ लगेगा कि इसकी वजह दरअसल ये है कि घाटी में 2016 में सामने आए लोगों के गुस्से के बाद से मुख्यधारा की राजनीति के लिए जगह नहीं बची.

बीजेपी के साथ सत्ता सुख भोगने वाली पीडीपी के लिए तो उनके अपने किले दक्षिण कश्मीर में ही जनता उनके खिलाफ हो गई.

पिछले दो सालों में तो हालात इतने खराब हो चले हैं कि मुख्यधारा की राजनीति करने वाले नेताओं में से किसी ने भी दक्षिण कश्मीर का कोई दौरा नहीं किया. कई नेता तो दक्षिण कश्मीर के इलाके में अपने घर तक भी नहीं गए. बीजेपी-पीडीपी राज में 300 नागरिक और 450 आतंकी मारे गए. पिछले साल ऑपरेशन ऑल आउट भी लॉन्च किया गया. मुफ्ती सरकार अनंतनाग की खाली लोकसभा सीट पर चुनाव भी कराने की हिम्मत नहीं कर सकी. इस सीट पर परिवारवाद का ज्वलंत उदाहरण पीडीपी ने पेश किया जब मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने अपने भाई तस्सदुक मुफ्ती को उम्मीदवार बना दिया. कभी दक्षिण कश्मीर को अपना किला मानने वाली पीडीपी के लिए ये उदाहरण कलंक की तरह है.

मुख्यधारा की राजनीति करने वाली पार्टियों के लिए कभी वोट देने वाले लोग न सिर्फ अब उनके विरोधी हो गए हैं, बल्कि सड़क पर उतर कर अपना विरोध दर्ज भी कर रहे हैं. दरअसल इसी बदलाव की वजह से ये दोनों पार्टियां चुनावों के बहिष्कार और हुर्रियत की नीतियों के समर्थन पर मजबूर हुई हैं. इस रवैये ने इस बात की तस्दीक की है कि कश्मीर में मुख्यधारा की राजनीति की फिलहाल जगह नहीं दिख रही.

धारा 35(ए) पर चुनावों का बहिष्कार

5 सितंबर 2018 को नेशनल कॉन्फ्रेंस अध्यक्ष और सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्लाह ने कहा कि केंद्र सरकार दरअसल पंचायत चुनावों का इस्तेमाल कुछ ऐसे कर रही है कि, धारा 35(ए) के मामले की कोर्ट में सुनवाई में देरी हो और उसे फायदा मिले. उन्होंने हाल ही में ट्वीट किया, ‘केंद्र सरकार को धारा 35(ए) पर सफाई देनी चाहिए. ये ठीक नहीं है कि पंचायत और निगम चुनावों का इस्तेमाल, धारा 35(ए) पर कोर्ट में चल रही कार्यवाही में देर करने के लिए की जाए.”

नेशनल कॉन्फ्रेंस भले ही चुनाव के बहिष्कार की वजह धारा 35 (ए) बता रही हो, श्रीनगर की स्थिति देखते हुए कहा जा सकता है कि सच्चाई दरअसल कुछ और है. सभी दल समझ चुके हैं कि जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानने वाली विचारधारा की अब कोई जगह नहीं है.

बहिष्कार के नेशनल कॉन्फ्रेंस के ऐलान के बाद पीडीपी ने भी चुनावों में हिस्सा न लेने का एक प्रस्ताव पास कर दिया. उनके इस ऐलान पर किसी को कोई अचरज भी नहीं हुआ क्योंकि घाटी में वे बड़े स्तर पर जन-समर्थन खो चुके हैं. इस खोए जन-समर्थन को पाने के लिए उन्हें अपनी नीतियों में खासा बदलाव लाना होगा और इसे सामान्य होने में वक्त भी लगेगा.

अपने प्रस्ताव में पीडीपी ने कहा, ‘भय और संदेह के इस वातावरण में चुनाव कराने की कोई भी कोशिश लोगों का भरोसा और तोड़ेगी और तब चुनाव का जो असल उद्देश्य है, वह खत्म हो जाएगा.’

पीडीपी ने भी अपने बहिष्कार की वजह धारा 35 (ए) ही बताई थी, लेकिन उनक प्रस्ताव की एक लाइन ‘ भय का वातावरण ’ साफ कर देती है कि मामला कुछ और है. ये और कुछ नहीं, दरअसल, सरकार गिरने के बाद पीडीपी के खिलाफ लोगों की नाराज़गी ही बताता है. लोग सिर्फ नाराज़ नहीं हैं, बल्कि वे बदला लेना चाहते हैं क्योंकि महबूबा मुफ्ती क मुख्यमंत्री रहते वहां लोग मारे गए. पीडीपी ने भी साबित किया था कि उन्हें लोगों की जान की कीमत पर ही सही, सत्ता में बने रहना है. ठीक वही, जो नेशनल कॉन्फ्रेंस ने 1990 में किया था.

90 के दशक में जब आतंकवाद अपने चरम पर था और अंदरूनी झगड़ों और सेना द्वारा मानवाधिकारों के जबरदस्त उल्लंघन के कारण धीरे-धीरे कमजaर हो रहा था, तो फारूक अब्दुल्ला को सत्ता में वापस लाया गया था. सोचा ये गया था कि नेशनल कॉन्फ्रेंस को 1996 के चुनावों से वापस सत्ता में लाकर कश्मीर के इलाको में अमन-चैन की भी वापसी की जाए. फारूक को वापस सत्ता में लाने वाली ताकत थी ‘इख्वान’ या आतंकियों के खिलाफ जवाबी कार्रवाई करने वाले लोग. इनमें से कुछ को तो इनाम के तौर पर फारूक ने विधानसभा का सदस्य भी बना दिया था.

‘इख्वान’ की खूनी मदद से फारूक अब्दुल्लाह सत्ता में वापस तो आ गए, लेकिन आजादी मांगने वालों की जान की कीमत पर. आज कश्मीर उसी मुकाम पर फिर आ खड़ा हुआ है, जहां घाटी में स्थिति को सामान्य करने और उस पर नियंत्रण करने के लिए चुनावों का इस्तेमाल किया जा रहा है. आज अगर ओमर अब्दुल्ला के पास ‘इख्वान’ होते, या फिर पीडीपी के पास ‘पीछे के दरवाजे से मदद’ 2002 की तरह मौजूद होती , तो शायद दोनों पार्टियां चुनाव का बहिष्कार करने का फैसला न लेतीं. लेकिन परिस्थितियां इतनी बदल चुकी हैं कि अब कोई तरीका कारगर साबित नहीं हो सकता.

जम्मू-कश्मीर पुलिस की एक रिपोर्ट के मुताबिक बीते अगस्त में 327 आतंकी सक्रिय हुए, जिसमें से 211 स्थानीय हैं और 116 विदेशी. रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ दक्षिण कश्मीर के चार जिलों में 166 स्थानीय आतंकी सक्रिय हैं.

इसमें कोई शक नहीं है कि घाटी में माहैल तेजी से बदल रहा है. दक्षिण कश्मीर के जिलों में पुलिस वालों के रिश्तेदारों के अपहरण की घटना बहुत से संकेत करती है. इसके बाद डीजीपी का भी ट्रांसफर हो गया. इससे दो चीजें बहुत साफ हैं. पहली कि मुख्यधारा की राजनीति एक ठहराव पर आ कर खड़ी हो गई है. और दूसरी ये कि घाटी में स्थिति और खराब होने की आशंका है.