न्यायाइक राजवंश के विरुद्ध लाम बंद सरकार
सवाल है कि क्या अब भी सुप्रीम कोर्ट इस सच को स्वीकार कर समय रहते हुए सुधार का काम शुरू करेगा या नहीं.
मोदी सरकार ने आते ही कार्यकारी व्यवस्था में बदलाव लाने के प्रयास किए जिसमें “न्यायिक राजवंश” को भेदना भी शामिल था। 2016 से सरकार ओर कोलेजियम में इसी बात को ले कर खींच तान चल रह है। हो न हो चार न्यायाधीशों की पत्रकार वार्ता के पीछे यह भी एक वजह हो सकती है। सरकार द्वारा कई नामों को नकारने के बावजूद कोलेजियम अपने कुछ चहेतों के नाम बार बार सर्वोच्च नयायालय के नयायाधीश पद हेतु भेज रहा रहा है। सरकार द्वारा इलाहाबाद उच्च नयायालय की ओर से भेजे गए नामों को सार्वजनिक करना सरकार के इस राजवंशीय प्रणाली के प्रति उसके पक्षको स्थापित करता है।
2013 में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय कॉलेजियम ने उच्च न्यायालय (हाईकोर्ट) में जज के तौर पर नियुक्ति के लिए आठ वकीलों का नाम भेजा था. हाईकोर्ट के उस कॉलेजियम में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (अब सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश) ए.के. सिकरी, जस्टिस जसबीर सिंह और जस्टिस एस.के. मित्तल शामिल थे. इसी कॉलेजियम ने उच्च न्यायालय में जज के तौर पर नियुक्ति के लिए 8 वकीलों के नाम की सिफारिश की थी.
जिन वकीलों के नाम की अनुशंसा की गई थी, उसमें मनीषा गांधी (भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ए.एस. आनंद की बेटी), गिरीश अग्निहोत्री (पूर्व न्यायमूर्ति एमआर अग्निहोत्री के पुत्र), विनोद घई, बीएस राणा (न्यायमूर्ति एस.के. मित्तल के पूर्व जूनियर), गुरमिंदर सिंह और राजकरन सिंह बरार (न्यायमूर्ति जसबीर सिंह के पूर्व जूनियर), अरुण पल्ली (पूर्व न्यायमूर्ति पी.के. पल्ली के बेटे) और एच एस सिद्धू (पंजाब के अतिरिक्त महाधिवक्ता) के नाम शामिल थे.
न्यायिक राजवंश
कॉलेजियम से इन नामों को मंजूरी मिलने के तुरंत बाद ही, 1000 वकीलों ने राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी, प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश को एक हस्ताक्षरित ज्ञापन भेजा. इसमें कॉलेजियम की सिफारिशों को लेकर गंभीर सवाल उठाए गए थे.
ज्ञापन में कहा गया था- ‘पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के कॉलेजियम ने जिस तरह न्यायाधीश के रूप में प्रोन्नति के लिए 8 वकीलों के नामों की सिफारिश की है, वह भारतीय न्यायपालिका की आजादी और अखंडता को खतरे में डालती है. इस तरह के नामों की सिफारिश करने के पीछे जो कारण हैं, वह कॉलेजियम के फैसले पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा करते हैं. ऐसा प्रतीत होता है कि नामों का चुनाव करते वक्त उम्मीदवार की योग्यता और सत्यनिष्ठा के अलावा अन्य चीजों पर विचार किया गया. अब ऐसे वकीलों के नामों की सिफारिश करना, जो पूर्व न्यायाधीशों और मुख्य न्यायाधीशों के बेटे, बेटियां, रिश्तेदार और जूनियर हैं, एक परंपरा और सुविधा का विषय बन गया है.’
यह ज्ञापन मनीषा गांधी के नाम चयन में बरती गई गंभीर कोताही की ओर इशारा करता है. इस बारे में ज्ञापन में लिखा है, ‘जिनकी एकमात्र योग्यता यह है कि वह पूर्व सीजेआई ए.एस. आनंद की बेटी हैं. वह साल 2012 में केवल 36 केसेज (मामलों) में अदालत में उपस्थित हुईं. उसमें दो सीआरएम, आठ सीडब्ल्यूपी और अन्य 26 कंपनी अपील थे. 2013 से वह आज तक केवल सात कंपनी अपील में ही अदालत में उपस्थित हुईं. हाल ही में उन्हें पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय का अतिरिक्त महाधिवक्ता (एडिशनल एडवोकेट-जनरल) नियुक्त किया गया, ताकि कॉलेजियम जज बनाने के लिए उनके नाम पर विचार कर सके.’
गौरतलब है कि न्यायमूर्ति एस.के. मित्तल उच्च न्यायालय के कॉलेजियम का हिस्सा थे, फिर भी उन्होंने खुद से प्रत्यक्ष तौर पर जुड़े व्यक्तियों की सिफारिश की. जाहिर है, ऐसे निर्णय हितों के टकराव और निर्णय प्रक्रिया में शुचिता की कमी जैसे गंभीर मुद्दे को उठाते हैं.
इस मुद्दे पर शोर मचने के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने छह नामों को खारिज कर दिया और पल्ली और सिद्धू के नाम पुनर्विचार के लिए वापस भेज दिए. यह मामला न्यायिक नियुक्ति की वर्तमान सबसे बड़ी समस्या में से एक को उजागर करता है. सरल शब्द में इसे ‘न्यायिक राजवंश’ कहा जा सकता है. इसे एक ऐसा कॉलेजियम भी कहा जा सकता है, जो सिर्फ अपने रिश्तेदारों, दोस्तों, पूर्व सहयोगियों और जूनियरों की नियुक्ति करने का काम करता है.
तमाम आलोचनाओं और व्यक्तिगत संबंधों के कारण होने वाली नियुक्तियों के स्पष्ट मामलों के सामने आने के बावजूद, यह परंपरा पिछले कुछ दशकों में बढ़ गई है. क्योंकि अवमानना के डर से लोग भाई-भतीजावाद के उदाहरणों को सामने लाने से हिचकते हैं.
केन्द्र सरकार का सख्त रुख
हालांकि, नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली वर्तमान सरकार इस प्रवृत्ति को रोकना चाहती है और इसके लिए प्रयासरत भी है. जून 2016 में पहली बार, केंद्र सरकार ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के लिए 44 न्यायाधीशों की नियुक्ति पर रोक लगा दी थी. ये नाम उच्च न्यायालय कॉलेजियम द्वारा भेजे गए थे. जिन 44 नामों की सिफारिश की गई थी, उनमें से कम से कम सात नाम सेवारत या सेवानिवृत्त पूर्व न्यायाधीशों से संबंधित थे.
बुधवार को टाइम्स ऑफ इंडिया में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है. इसके मुताबिक, फरवरी में इलाहाबाद उच्च न्यायालय कॉलेजियम द्वारा भेजे गए 33 नामों की उम्मीदवारी का मूल्यांकन करने के बाद, केंद्र सरकार ने पाया है कि इन 33 नामों में से कम से कम 11 नाम सेवारत या सेवानिवृत्त न्यायाधीशों से संबंधित है. विभिन्न संवैधानिक विशेषज्ञों और कानूनी दिग्गजों ने इस मुद्दे पर बहस करते हुए कहा है कि किसी को भी न्यायिक कार्य में आने से सिर्फ इसलिए प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता, क्योंकि उम्मीदवार के परिवार का कोई सदस्य न्यायाधीश है. लेकिन, उन्होंने इस पर भी जोर दिया है कि लोगों के बीच विश्वास सुनिश्चित करने के लिए सिफारिश प्रक्रिया में अधिक से अधिक पारदर्शिता अपनाई जाए.
लेकिन सुधार की सभी बातों और सुझावों के बावजूद, उच्च न्यायपालिका ने इस मोर्चे पर कोई खास काम नहीं किया है. 2016 में फ़र्स्टपोस्ट के साथ एक बातचीत में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील अनुपम गुप्ता ने एक महत्वपूर्ण बिंदु पर बात की थी. उन्होंने बताया कि कैसे 2015 के एनजेएसी फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने इस समस्या को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया. हालांकि, इसने ‘हितों के टकराव’ सिद्धांत (न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका की भागीदारी के संबंध में) की ऐसी व्याख्या कर दी, जो किसी भी ज्ञात न्यायशास्र सीमा से परे है.
अब, इलाहाबाद उच्च न्यायालय कॉलेजियम द्वारा भेजी गई सूची में न्यायाधीशों के रिश्तेदारों के नामों को सार्वजनिक करके, केंद्र ने ‘एलीफैंट इन रूम’ (एक ऐसी समस्या, जिस पर कोई बात नहीं करना चाहता) वाली कहावत की कलई खोल दी है. सवाल है कि क्या अब भी सुप्रीम कोर्ट इस सच को स्वीकार कर समय रहते हुए सुधार का काम शुरू करेगा या नहीं.