सारिका तिवारी
हालांकि मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का वादा संविधान में किया गया है। इसे दस साल में पूरा करने का लक्ष्य भी तय किया गया था। लेकिन यह पूरा नहीं हो सका।इसके लिए सरकार के पास धन नहीं था। इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर किसी ठोस योजना की शुरुआत नहीं हो सकी।
साक्षरता और शिक्षा के मामले में भारत की गिनती दुनिया के पिछड़े देशों में होती है। अगर हम अपने देश की तुलना आसपास के देशों से करें तो चीन, श्रीलंका, म्यांमा, ईरान से भी पीछे हैं।
राज्यों के स्तर पर अलग-अलग प्रयास किए गए। स्वतंत्रता के बाद राज्य की गरिमा बढ़ाने के लिए कई राज्यों ने स्कूलों में उस राज्य की भाषा को शिक्षा का माध्यम चुना।
मुख्यतया प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा अपने बच्चों को अंगरेजी शिक्षा दिलाने के पक्ष में था, इसलिए उन्होंने अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों की बजाय प्राइवेट स्कूलों में दाखिल करवा दिया। ये निजी स्कूल कई तरह के थे- चर्चों द्वारा संचालित असंख्य स्कूल, लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग कान्वेंट, निजी संस्थाओं, रामकृष्ण मिशन और आर्य समाज, देव समाज आदि द्वारा संचालित स्कूल। यहां तक कि सरकारी कर्मचारी भी राज्य और नगर निगम के स्कूलों से दूरी बनाये हुए हैं। केंद्रीय विद्यालयों की स्थापना सरकारी राज्य सेवाकर्मियों के बच्चों के लिए और सैनिक स्कूलों की स्थापना मिलिटरी अफसरों के बच्चों के लिए हुई।
इन्हीं कुछ कारणों से सरकारी स्कूल गरीबों और अशिक्षितों के बच्चों का सहारा बने हुए हैं, जहां उन्हें नौकरशाही और शिक्षक संघों की दया पर रहना पड़ता है। इसके परिणामस्वरूप इन स्कूलों के लिए स्थापित मानकों-पाठ्यपुस्तकों की गुणवत्ता और प्रासंगिकता, विद्यार्थियों की उपलब्धियों का निरीक्षण का विकास थम गया। आज नब्बे प्रतिशत से ज्यादा सार्वजनिक खर्च की राशि भारतीय स्कूलों में अध्यापकों के वेतन और प्रशासन पर ही खर्च होती है। फिर भी विश्व में बिना अनुमति अवकाश लेने वाले अध्यापकों की संख्या भारत में सबसे अधिक है। हमारे स्कूलों में अध्यापक आते ही नहीं हैं और चार में से रोज कोई न कोई अध्यापक छुट्टी पर होता है।
हमारे यहां शिक्षा का जिम्मा राज्यों पर है, इसलिए सभी राज्यों ने इसकी चुनौतियों को अपने ढंग से हल किया। इसके अलग-अलग परिणाम सामने आए। जो राज्य स्कूलों में शिक्षा का विकास करने में सफल रहे उन्होंने गरीब बच्चों की शिक्षा संबंधी चुनौतियों को प्राथमिकता दी। इसकी अगुआई दक्षिण के राज्यों ने की, जिन्होंने सर्वशिक्षा में इतिहास रचा। मैसूर, त्रावणकोर, कोचीन और बड़ौदा जैसी दक्षिण रियासतें तो पहले से ही गरीबों के लिए शिक्षा पर जोर देती थीं और उनके महाराजाओं ने सर्वशिक्षा के लिए अनुदान और स्कूलों के लिए खजाने से राशि भी दी थी। त्रावणकोर और कोचीन में प्रत्येक जाति के लिए आधारभूत शिक्षा के आग्रह ने उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी के किंडरगार्टन और प्राइमरी स्कूलों के समान पल्लीकुड़म और कुड़ीपल्लीकुडम की स्थापना में सहायता की।
इसका मतलब है कि स्वतंत्रता के बाद उत्तर से कहीं ज्यादा दक्षिण की सरकारों ने गरीबों के लिए शिक्षा पर जोर दिया। तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री के. कामराज ने मिड-डे मील योजना को राज्य के स्कूलों में लागू किया, जिसे सन 1923 में मद्रास प्रेसीडेंसी ने प्रारंभ किया था। इस योजना की जिम्मेदारी स्कूल के बच्चों को एक वक्त का भोजन, यूनीफार्म और पाठ्यपुस्तकें उपलब्ध कराना था। केरल में स्कूलों को विविध सुधारवादी आंदोलनों से प्रेरणा मिली। इनकी अगुआई चर्चों, नायरों और वामपंथी दलों ने की और राज्य ने स्कूलों को सर्वव्यापी बनाने पर जोर दिया। राज्य अपनी पहली विधानसभा में शिक्षा को मुफ्त और जरूरी बनाने संबंधी संशोधन लाया और शिक्षा को सर्वव्यापी बनाने के लिए जल्दी ही उसने जमीनी संगठनों और अभिभावकों को इस मुहिम में अपने साथ कर लिया।
हालांकि, अन्य भारतीय राज्यों में शिक्षा का एक अलग ही चलन था। आज भारत के छह राज्यों में दो-तिहाई बच्चे स्कूल नहीं जाते- आंध्र प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल। इन राज्यों को जिन समस्याओं ने जकड़ा हुआ है वह है उनका इतिहास। कई सार्वजनिक समस्याएं हैं, जो अपने साथ राज्य की शिक्षा योजना को भी दूषित कर रही हैं जैसे कि ज़मींदारी पध्दति इससे इन समुदायों में कड़वाहट और गुस्से की परंपरा कायम हुई, जिसने एक ऐसी राजनीति को जन्म दिया, जिसे ‘बदले की राजनीति’ कहते हैं, जो आज तक चली आ रही है। इन क्षेत्रों में ध्यान प्रतिशोध पर केंद्रित रहता है और इन राज्यों में राजनीति से अभिप्राय है कि ‘आंखें मूंद कर अपने बड़ों के नक्शे कदम पर चलो’। परिणामस्वरूप वे कहते हैं, ‘यहां अभी तक मतदाताओं का शिक्षा के क्षेत्र में उपलब्धियों, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे में निवेश के प्रति ज्यादा झुकाव नहीं है।’
इन राज्यों में ये जातिगत मतभेद स्कूलों में पैठ करने लगे, विशेष रूप से गांवों में, जहां स्कूलों को ‘पिछड़े’ और ‘उच्च’ वर्गों में बांट दिया गया है। इस अलगाव ने और भी भयानक रूप तब लिया जब राज्यों के निवेश भी जाति के अनुसार बंटने लगे। मंत्री अपनी जाति विशेष के हितों के लिए काम करते रहे। इसलिए आप देख सकते हैं कि सरकारी स्कूल एक विशेष समुदाय क्षेत्र में ही बने, जहां ‘अन्य जातियां’ उसका लाभ नहीं उठा सकतीं। परिणामस्वरूप मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के ओबीसी और अनुसूचित जनजातियों के आधे गांवों में एक भी स्कूल नहीं है।
ये अव्यवस्था में डूबे हुए राज्य, जो स्कूली शिक्षा को ठंडे बस्ते में डाल देते हैं, वे इस क्षेत्र पर वार्षिक बजट का सबसे कम हिस्सा खर्च करते हैं। उन्होंने गरीब बच्चों के लाभ को नजरअंदाज किया, जो कि कई सफल राज्यों में कारगर रहा। इसलिए परिणाम निराशाजनक थे। पर अब जब सरकार हमारे प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों पर पहले से कहीं अधिक खर्च कर रही है, तब हम उस राशि को प्रभावशाली ढंग से इस्तेमाल करने के लिए संघर्षरत हैं। अगर यहां प्रगति करनी है, तो हमें राजनीतिक तौर पर प्रखर प्रश्नों का जवाब देना होगा। उदाहरण के लिए, शिक्षकों और प्रशासकों में जिम्मेदारी की समस्या के समाधान के बिना हमारे लिए स्कूलों के संकट का सामना करना नामुमकिन है।
देश और राज्य सरकारों के लिए यह कम लज्जा की बात नहीं है कि जिन कामों को उन्हें खुद करना चाहिए, उनके लिए अदालतों को आदेश देना पड़ता है। ताजा मामला उत्तर प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए इलाहाबाद में उच्च न्यायालय का दिया गया आदेश है। प्राथमिक स्कूलों में शिक्षा की बदहाली किसी से छिपी नही है। वैसे तो यह समस्या पूरे देश में है, लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश और राजस्थान के सरकारी स्कूलों की स्थिति बहुत खराब है। कई स्कूलों में तो शिक्षक पढ़ाने ही नहीं जाते, जहां जाते हैं वहां वे मन से नहीं पढ़ाते।
इन स्कूलों की दशा सुधारने के लिए बना तंत्र भी लगभग पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका है। किसी का किसी पर नियंत्रण नहीं है। आज पूरे तंत्र पर भ्रष्टाचार का बोलबाला है। सरकारी प्राथमिक स्कूलों की इस दशा को सुधारने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि सभी सरकारी अधिकारियों, निर्वाचित प्रतिनिधियों और न्यायिक कार्य से जुड़े अधिकारियों के लिए यह अनिवार्य कर दिया जाए कि वे अपने बच्चे को पढ़ने के लिए इन्हीं स्कूलों में भेजें। अगर वे ऐसा नही करते हैं तो उनके वेतन से निजी कान्वेंट स्कूल की फीस के बराबर धनराशि काट ली जाए और उसे सरकारी स्कूलों की दशा सुधारने में खर्च किया जाए।
आज भारत में साक्षरता पहले से कुछ बढ़ी है। अंगरेजों के शासन के अंत तक होने वाली यानी 1947 में भारत की साक्षरता दर केवल बारह प्रतिशत थी, जो 2011 में बढ़ कर 74.04 प्रतिशत हो गई। पहले से छह गुना अधिक, मगर विश्व की औसत शिक्षा दर से काफी कम। हालांकि साक्षरता के लिए सरकार काफी सक्रिय रही है। समय-समय पर कई तरह की योजनाएं लाती रही है। इसके बावजूद 1990 में किए गए अध्ययन के मुताबिक 2060 से पहले भारत विश्व की औसत साक्षरता दर को नहीं छू सकता, क्योंकि 2001 से 2011 तक के दशक में भारत की साक्षरता दर में वृद्धि केवल 9.2 प्रतिशत रही। 2006 और 2007 में किए गए अध्ययन से पता चला कि बच्चे पढ़ने तो जा रहे हैं, लेकिन धूप, शीत और बरसात में उनके लिए कोई कक्षा की व्यवस्था नहीं है।
ऐसे कई सरकारी स्कूल हैं, जहां बच्चों को पीने का साफ पानी भी मुहैया नहीं कराया गया है। लगभग 89 प्रतिशत सरकारी स्कूल ऐसे हैं, जहां शौचालय की सुविधा नहीं है। शहरों की झुग्गी बस्तियों और ग्रामीण इलाकों में चलने वाले स्कूलों में शिक्षक या तो नहीं हैं या फिर आते नहीं। इसलिए उन्हें दी जाने वाली शिक्षा की गुणवत्ता पर बड़ा सवालिया निशान लगा हुआ है।
प्राथमिक शिक्षा की हालत में सुधार के लिए आने वाले सालों में भारत को कठिन चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। खासकर शिक्षा को सार्वभौमिक अधिकार बनाने वाली योजनाओं की सफलता को लेकर कई स्तरों पर संशय कायम है। प्राथमिक शिक्षा की स्थिति सुधारने के लिए भारत दुनिया के कई देशों से आर्थिक मदद लेता है। लेकिन वैश्विक मंदी के कारण अगले सालों में इसमें कटौती हो सकती है। इसका प्रभाव हमारे सर्वशिक्षा अभियान पर भी पड़ेगा।