फीफा ने बढ़ाए हवाई यात्रा के दाम

भारत के संबंध में कहा जाता है कि यहां क्रिकेट से बड़ा कोई खेल नहीं है। लेकिन जब बात विश्व की हो तो सबसे पहले नाम फुटबॉल का आता है। फुटबॉल फैंस के लिए यह कोई खेल नहीं बल्कि एक धर्म है और फुटबॉल वर्ल्ड कप महाकुंभ से कम नहीं है। चार साल में एक बार होने वाले इस महाकुंभ में हर फैंस शामिल होना चाहता है। इस बार फुटबॉल वर्ल्ड कप 2018 रूस में हो रहा है और इसे देखते हुए हवाई किराए में रिकॉर्ड बढ़ोत्तरी हुई है। रूस की सरकार एयरलाइन एरोफ्लोट के दिल्ली से मॉस्को किराए में 150 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है।

वहीं अन्य प्रसिद्ध एयरलाइन कंपनियों के टिकट कीमत में लगभग 100 फीसदी तक की बढ़ोत्तरी हुई है। रूस और भारत की दोस्ती जग जाहिर है। वहीं फुटबॉल वर्ल्ड कप के मौके पर रूस के लिए फ्लाइट सर्च के वॉल्यूम में बढ़ोत्तरी हुई है।

मई में नई दिल्ली से मॉस्को तक के टिकट की कीमत जहां 25,645 रुपए थी, वहीं जून में ये बढ़कर 66,070 रुपए हो गई है। फीफा की आधिकारिक टिकट बेचने वाली एजेंसी ने बताया कि टिकट बुकिंग के मामले में भारत टॉप 10 देशों में शामिल है। इस लिस्ट में अमेरिका सबसे ऊपर है।

अमेरिकी के अलावा इस लिस्ट में अर्जन्टीना, कोलंबिया, मेक्सिको, ब्राजील, पेरू, जर्मनी, चीन, ऑस्ट्रेलिया और भारत शामिल है। कटिंग एज के अध्यक्ष मयंक खंडेलवाल ने बताया कि फीफा ट्रैवल के लिए बुकिंग नवंबर 2015 में खोली गई थी और हमें अपने साथ रूस चलने के लिए 2000 लोगों को चुना। सभी टिकट होल्डर्स को स्टेडियम में एंट्री के लिए टिकट के साथ एक फैन आईडी रखनी होगी। फैन आईडी होने पर वीजा फ्री एंट्री मिल रही है।

फीफा मैच जीतने की ख़ुशी में मेक्सिको में आया भूकम्प

 

फीफा वर्ल्ड कप-2018 के ग्रुप-एफ के पहले मुकाबले में डिफेडिंग चैंपियन जर्मनी को मेक्सिको के खिलाफ हार का सामना करना पड़ा है। स्टार खिलाड़ियों से सजी जर्मनी की टीम बुरी तरह फ्लॉप रही और एक बार भी मेक्सिको के डिफेंस को भेद नहीं सकी। मुकाबले का इकलौता गोल पहले हाफ में हआ। यह गोल जेवियर हर्नान्डेज के पास पर हिरविंग लोजानो ने किया। इस जीत के साथ ही मेक्सिको ने पिछले साल कॉन्फेडेरशन कप में जर्मनी से मिली हार का बदला भी चुका लिया है

बड़ी बात यह नहीं के मेक्सिको जर्मनी से जीत गया बल्कि मेक्सिको के SIMMSA के ट्विटर अकाउंट से इसकी जानकारी दी गई। इसके मुताबिक बताया गया कि जब मेक्सिको की तरफ से वर्ल्ड कप का पहला गोल हुआ तो पूरे मेक्सिको में जश्न में एकसाथ इतने लोग कूदे कि वहां आर्टिफिशियल भूकंप आ गया। जिस समय गोल हुआ, उस समय दो सेंसर देखने को मिले।

हम प्रदेश की सभी 230 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ेंगे : अहिरवार

 

बसपा प्रदेश अध्यक्ष ने कहा कि कांग्रेस के साथ गठबंधन करने के बारे में केंदीय नेतृत्व से अब तक कोई दिशानिर्देश नहीं मिले हैं. अहिरवार ने यह भी बताया कि हम प्रदेश की सभी 230 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ेंगे.

राज्य विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय दलों से गठबंधन की आस लगाए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को बहुजन समाज पार्टी ने झटका दिया है. बसपा ने ऐलान किया है कि वो मध्य प्रदेश में कांग्रेस से गठबंधन नहीं करेगी और इस साल के अंत तक होने वाले विधानसभा चुनाव में 230 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ेगी.

मध्य प्रदेश बीएसपी के अध्यक्ष नर्मदा प्रसाद अहिरवार ने कहा कि मुझे मीडिया से पता चला है कि कांग्रेस नेता कह रहे हैं कि आगामी विधानसभा चुनाव के लिए बीएसपी के साथ गठबंधन के लिए कांग्रेस की बातचीत चल रही है. उन्होंने कहा कि मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि इस गठबंधन के संबंध में राज्य स्तर पर हमारी कोई बातचीत नहीं हो रही है.

अहिरवार ने कहा कि कांग्रेस के साथ गठबंधन करने के बारे में केंदीय नेतृत्व से अब तक कोई दिशा-निर्देश नहीं मिले हैं. अहिरवार ने यह भी बताया कि हम प्रदेश की सभी 230 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ेंगे.

बता दें कि मध्य प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव में 6.29 फीसदी वोट मिले थे और पार्टी ने कुल चार सीटें जीती थीं. वहीं, भाजपा को 44.88 फीसदी वोट, कांग्रेस को 36.38 फीसदी वोट मिले थे. 2013 के चुनाव में राज्य की 230 विधानसभा सीटों में भाजपा ने 165, कांग्रेस ने 58 सीटें जीतीं थी.

बहुजन समाज पार्टी और इंडियन नेशनल लोकदल ने भरी चुनावी हुंकार

आगामी लोकसभा चुनाव में बीजेपी का मुकाबला करने के लिए बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और  अभय चौटाला की इंडियन नेशनल लोकदल (INLD) के बीच गठबंधन हो गया है. अब दोनों दल साल 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव और यूपी व हरियाणा में होने वाले विधानसभा चुनावों को एक साथ मिलकर लड़ेंगे. इस गठबंधन का मकसद बीजेपी और कांग्रेस के खिलाफ तीसरा मोर्चा तैयार करना है. यह तीसरा मोर्चा बसपा सुप्रीमो मायावती के नेतृत्व में बनेगा. हालांकि इस मसले पर समाजवादी पार्टी (सपा) और बसपा की राय जुदा है.

इससे पहले सपा प्रमुख अखिलेश यादव कह चुके हैं कि साल 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को हराने के लिए कांग्रेस समेत सभी दलों को एक मंच पर लाना होगा यानी तीसरे मोर्चे में कांग्रेस भी शामिल होगी. जबकि मायावती और अभय चौटाला की पार्टी के बीच हुए इस गठबंधन के बाद कहा गया कि यह तीसरा मोर्चा बीजेपी और कांग्रेस के खिलाफ है. दोनों दलों ने देश को लूटा है और अब इनको सत्ता से बाहर किया जाएगा.

यह तीसरा मोर्चा किसानों और दलितों को एक मंच पर लाने का काम करेगा. बीजेपी के आने के बाद से हरियाणा अब तक तीन बार जल चुका है. आईएनएलडी और बसपा के हाथ मिलाने से एक बात तो साफ हो गई है कि हरियाणा में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव को दोनों दल मिलकर लड़ेंगे, लेकिन साल 2019 में होने वाले चुनावी गठबंधन को लेकर फिलहाल तस्वीर साफ होती नहीं दिख रही है. इसकी वजह यह है कि यूपी में चुनावी गठबंधन करने वाली बसपा और सपा के बीच तीसरे मोर्चे में कांग्रेस को शामिल करने को लेकर मतभेद है.

सपा इस चुनावी मोर्चे में कांग्रेस को साथ लेकर चलने की पक्षधर है, जबकि बसपा और आईएनएलडी इस मोर्चे से कांग्रेस को बाहर रखने की बात कर रहे हैं. इन दोनों दलों का कहना है कि तीसरा मोर्चा सिर्फ बीजेपी ही नहीं, बल्कि कांग्रेस के भी खिलाफ होगा. कांग्रेस और बीजेपी दोनों ने देश को लूटा है. आगामी लोकसभा चुनाव लड़ने को लेकर बसपा और सपा के बीच मतभेद मुश्किल पैदा कर सकते हैं. मालूम हो कि बसपा से पहले सपा कांग्रेस के साथ मिलकर यूपी विधानसभा चुनाव लड़ चुकी है. हालांकि हालिया उप चुनाव बसपा और सपा ने मिलकर लड़ा था, जिसमें बीजेपी के खिलाफ जीत भी मिली थी.

अपने लोगों ने अग्रेजों का साथ दिया, जिससे रानी लक्ष्मीबाई को बलिदान देना पड़ा था : शिवराज सिंह चौहान

 

विधानसभा चुनाव की आहट के बीच सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और विपक्षी दल कांगे्रस एक-दूसरे पर हमले का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहते हैं। भाजपा ने महारानी लक्ष्मीबाई के बलिदान दिवस की आड़ में सिंधिया राजघराने पर निशाना साधने की कोशिश की है। राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बीते दिनों बच्चों से संवाद के दौरान महारानी लक्ष्मीबाई की बहादुरी और उनके साथ हुए विश्वासघात का जिक्र किया और सिंधिया राजघराने का नाम लिए बगैर हमला बोला। उन्होंने कहा, ‘‘महारानी लक्ष्मीबाई अग्रेजों से संघर्ष करते हुए ग्वालियर पहुंच गई थीं, लेकिन अपने लोगों ने अग्रेजों का साथ दिया, जिससे रानी लक्ष्मीबाई को बलिदान देना पड़ा था।’’

गौरतलब है कि जनसंघ से लेकर भाजपा की स्थापना और विकास में राजघराने की विजयाराजे सिंधिया की अहम भूमिका रही है। इसी घराने से नाता रखने वाली और विजयाराजे की दो बेटियां वसुंधरा राजे सिंधिया और यशोधरा राजे सिंधिया अब भी भाजपा में हैं, और उनकी रिश्तेदार माया सिंह राज्य सरकार में मंत्री हैं। वहीं, दूसरी ओर ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस में हैं और कांग्रेस के भावी मुख्यमंत्री के दावेदार भी हैं। ज्योतिरादित्य पर हमले की कोशिश में भाजपा पूरे खानदान को ही निशाने पर रख रही है।

लोकतांत्रिक जनता दल के नेता गोविंद यादव का कहना है, ‘‘भाजपा और कांग्रेस के लिए सत्ता पहले, समाज और देश बाद में है। यही कारण है कि भाजपा सिंधिया राजघराने पर हमला कर रही है। यह वह राजघराना है, जिसके सहयोग से भाजपा पली-बढ़ी है, भाजपा को यह भी बताना चाहिए कि देश की आजादी में उसके किस नेता ने योगदान दिया। राजघराने ने जो किया, वही तो भाजपा या इस विचारधारा से जुड़े लोग भी अंग्रेजों के लिए करते रहे हैं, इसे उन्हें भूलना नहीं चाहिए।’’

राज्य सरकार के मंत्री और सिंधिया राजघराने के प्रखर विरोधी के तौर पर पहचाने जाने वाले जयभान सिंह पवैया ने कहा, ‘‘रानी लक्ष्मीबाई झांसी से कूच कर ग्वालियर पहुंचीं, लेकिन ग्वालियर की सिंधिया रियासत में उन्हें प्रवेश करने से रोक दिया गया, तोपें लगा दी गईं, और उन दिनों आजादी के सेनानियों को तोपों का सामना करना पड़ा। रानी जहां वीरगति को प्राप्त हुईं, उस स्थान पर वर्ष 2000 से बलिदान मेला (17 एवं 18 जून) लगाया जा रहा है।’’

विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह का कहना है, ‘‘किसी की देशभक्ति और राष्ट्रभक्ति पर उंगली उठाने का भाजपा को कोई नैतिक अधिकार नहीं है। उसे यह बताना चाहिए कि वर्ष 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का उसके पितृ संगठन आरएसएस ने क्यों विरोध किया था, भाजपा को बनाने और बढ़ाने वाली विजयाराजे सिंधिया थीं। अगर भाजपा वास्तव में देशभक्त है तो सबसे पहले उसे वसुंधरा और यशोधरा को भाजपा से बाहर करना चाहिए, साथ ही विजयराजे ने जो उसकी मदद की, उसे सूद सहित वापस लौटाए।’’

पकड़े गए हिन्दू आतंकवादी आरएसएस से होते हैं : दिग्गी राजा

कांग्रेस नेता और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने रविवार को झबुआ में आरएसएस को आतंक और नफरत फैलाने वाला संगठन कहा है. दिग्विजय सिंह इस वक्त मध्य प्रदेश में एकता यात्रा कर रहे हैं. दिग्विजय सिंह इस दौरान झबुआ पहुंचे और वहां उन्होंने कहा कि ‘जितने भी हिंदू धर्म वाले आतंकी पकड़े गए हैं सब संघ के कार्यकर्ता रहते हैं. नाथूराम गोडसे, जिसने महात्मा गांधी की हत्या की थी, वो भी संघ का हिस्सा रहा था. यह विचारधारा नफरत फैलाती है, नफरत से हिंसा होती है जो आतंकवाद को पैदा करती है.’

इससे पहले भी दिग्विजय सिंह आरएसएस पर आतंकवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगा चुके हैं.

कुछ दिन पहले अपनी एकता यात्रा के दौरान ही दिग्विजय सिंह ने सागर में कहा था कि मैंने हिंदू आतंकवाद नहीं, बल्कि संघी आंतकवाद की बात कही है. उन्होंने कहा कि मैंने कई मामले उठाए जिसमें सजा भी हुई है. हिंदू शब्द का जिक्र वेदों और पुराणों में भी नहीं है.

सागर में दिग्विजय सिंह ने अपने हिंदू विरोधी आरोपों को खारिज करते हुए कहा था कि लोग मुझ पर आरोप लगाते हैं कि मैं मुस्लिम परस्त हूं और हिंदू विरोधी हूं. मैं पूछना चाहता हूं कि एक बीजेपी नेता ऐसा बता दे जिसने नर्मदा, ओंकारेश्वर और गोवर्धन परिक्रमा की हो या एकादशी का व्रत रखा हो. उन्होंने कहा कि मैंने जितनी धार्मिक यात्राएं की और हिंदू धर्म पालन किया उतना BJP के एक भी नेता ने नहीं की है.

मध्य प्रदेश में कांग्रेस की समन्वय समिति के अध्यक्ष दिग्विजय सिंह इन दिनों एमपी में कांग्रेसजनों के बीच एकता यात्रा पर निकले हैं. इस दौरान वे कांग्रेस कार्यकर्ताओं से चर्चा भी कर रहे हैं. दिग्विजय सिंह इससे पहले भी कई मौकों पर आतंकवाद को लेकर संघ पर हमला बोलते रहे हैं. कई नेताओं द्वारा उनके बयान की आलोचना होती रही है.

Who is the Finance Minister of India? : Manish Tiwari

 

Congress leader Manish Tewari on Monday cited information on the PMO and finance ministry websites and asked Prime Minister Narendra Modi to clear the ‘ambiguity’ around the person in charge of the finance ministry — Arun Jaitley or Piyush Goyal.

Referring to the information available on PMO and ministry of finance websites, Tewari asked:

“Who is finance minister of India? PMO’s website says one thing, finance ministry website tells another story. The gentleman designated without portfolio on PMO website, is holding meetings via video conference. PM needs to tell country who is his finance minister.”

On May 14, Piyush Goyal was given additional charge of finance ministry following the medical treatment of Arun Jaitley. Jaitley underwent a successful kidney transplant at the All India Institute of Medical Sciences (AIIMS) later that month.

During the period of indisposition of Jaitley, the portfolios of minister of finance and minister of corporate affairs held by him, were temporarily assigned to Goyal, in addition to his existing portfolios, a communique from the President’s office stated.

India will pitch for “responsible” crude pricing

India will pitch for “responsible” crude pricing at the upcoming conference organised by oil producers’ cartel OPEC, Union minister Dharmendra Pradhan said on Monday.

On the rising oil prices in the country, the minister assured that the government would leave no stone unturned to keep these products within the reach of the common man.

“There will be an OPEC conference in Vienna on June 22 … whenever we have met OPEC members, we have told them that crude oil prices should be controlled, reasonable, responsible and should meet demand. We will raise this issue there,” the oil minister told reporters here at a CII conference.

Retail prices of petrol and diesel are currently at Rs 75 a litre and Rs 68 a litre amid the global surge in crude prices.

“There was a time when oil producing countries were playing a lead role. We do not want crude at $25 per barrel. But oil price should not be out of reach. “Why should the price go beyond $55 to 60 per barrel. India is consistent on that. Today’s oil prices are pinching us and creating problem for us. We will raise this issue in OPEC conference,” he said.

He said if the Oil and Petroleum Exporting Countries (OPEC) do not price the crude responsibly then we would push hard for electric vehicles, renewables and bio fuels.

“We will not keep the prices of petroleum out of the poor people’s reach. We will do whatever is required for that,” he said.

About former finance minister P Chidambaram’s claim that petrol prices can be cut by Rs 25 per litre, Pradhan said: “If Chidambaram has some morality then he should speak truth to the nation.”

“In their UPA tenure, they had put burden of debt in the form of oil bonds on our economy. We are paying principal and interest both on that. That is an irresponsible comment.”

 

विपक्षी एकता बनाम कांग्रेसी चुप्पी

 

 

देश की राजधानी दिल्ली में अचानक विपक्षी एकता का जबरदस्त प्रदर्शन देखने को मिला. नीति आयोग की बैठक में आए 4 राज्यों (पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और केरल) के मुख्यमंत्रियों ने उपराज्यपाल-दिल्ली सरकार विवाद में अरविंद केजरीवाल का साथ देने का खुला एलान कर दिया. इन मुख्यमंत्रियों ने पहले उपराज्यपाल के दफ्तर में धरने पर बैठे केजरीवाल से मिलने की इजाजत मांगी. उपराज्यपाल ने इसकी इजाजत नहीं दी, इसके बाद इन मुख्यमंत्रियों ने प्रधानमंत्री और गृह मंत्री से मामला सुलझाने की अपील की.

मामला यही नहीं थमा. इन चारों राज्यों के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के घर जाकर उनकी पत्नी से मिले और उसके बाद साझा प्रेस कांफ्रेंस की. इसमें केंद्र सरकार पर उपराज्यपाल का इस्तेमाल कर के दिल्ली सरकार को अस्थिर करने का इल्जाम लगाया गया. पिछले 4 साल में यह पहला मौका है, जब एक साथ कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने इस तरह किसी एक मामले में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर के मोदी सरकार को घेरने की कोशिश की है.

एकजुटता दिखाने वाले सभी मुख्यमंत्री राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण राज्यों के मुखिया हैं. आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और पश्चिम बंगाल को मिलाएं तो इन राज्यों से लोकसभा की 115 सीटें आती हैं. इसलिए केजरीवाल के समर्थन में लिया गया मुख्यमंत्रियों का स्टैंड विपक्षी एकता के लिए गहरे राजनीतिक मायने रखता है.

लेकिन ममता बनर्जी, एच.डी कुमारस्वामी, पी. विजयन और चंद्रबाबू नायडू के शक्ति प्रदर्शन के बीच एक सवाल लगातार हवा में तैरता रहा. आखिर कांग्रेस पार्टी परिदृश्य से गायब क्यों थी? क्या विपक्षी एकता की धुरी होने के नाते कांग्रेस को इस शक्ति प्रदर्शन के केंद्र में नहीं होना चाहिए था?

लगभग महीना भर पहले यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी और कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी इन्हीं नेताओं के साथ एक मंच पर थे, जब जेडीएस के साथ चुनाव के बाद हुए समझौते के आधार पर कर्नाटक में नई सरकार बनाई जा रही थी. उस वक्त कांग्रेस ने इस बात का साफ संकेत दिए थे कि विपक्षी एकता कायम करने के लिए वह हर मुमकिन कुर्बानी देने को तैयार है.

कर्नाटक में कांग्रेस ने इसका सबूत भी दिया था, जब अपने मुकाबले आधी सीटें लानेवाली जेडीएस को उसने गठबंधन सरकार में मुख्यमंत्री का पद दिया ताकि बीजेपी को सरकार बनाने से रोका जा सके. ऐसे में सवाल उठना स्वभाविक है कि कर्नाटक में इतनी दरियादिली दिखाने वाली कांग्रेस आखिर दिल्ली में इतना काइंयापन क्यों बरत रही है?

अरविंद केजरीवाल मोदी सरकार पर इस देश के संघीय ढांचे को तोड़ने-मरोड़ने और लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करने के इल्जाम लगाते आए हैं. कांग्रेस भी केंद्र सरकार पर लगभग इसी तरह के इल्जाम लगाती है. ऐसे में जब केजरीवाल ने केंद्र सरकार और उपराज्यपाल के खिलाफ लड़ाई छेड़ रखी है तो कांग्रेस ने इन सवालों से पल्ला क्यों झाड़ लिया? समर्थन देना तो दूर दिल्ली कांग्रेस के कई नेताओं ने केजरीवाल को नौटंकीबाज करार दिया और पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने उन्हे नियम-कायदों के हिसाब से चलने की घुट्टी पिलाई.

कई लोग यह मान रहे हैं कि अगर कांग्रेस का यही रवैया रहा तो 2019 के चुनाव के लिए जिस विपक्षी एकता की बात की जा रही है, वह बनने से पहले ही टूट जाएगी. इस आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता है. लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि विपक्षी एकता का रास्ता अतर्विरोध के तंग गलियारों से होकर निकलता है. इस मामले को बेहतर ढंग से समझने के लिए पहले दिल्ली और फिर पूरे देश में कांग्रेस की स्थिति पर नजर डालना जरूरी है.

बेशक दिल्ली विधानसभा के पिछले चुनाव में कांग्रेस का खाता भी नहीं खुला लेकिन यहां उसकी अपनी राजनीतिक जमीन बहुत मजबूत रही है. आम आदमी पार्टी के उदय से पहले कांग्रेस दिल्ली में लगातार 3 बार विधानसभा चुनाव जीत चुकी थी. 2014 तक दिल्ली की सभी 7 लोकसभा सीटों पर कांग्रेस का कब्जा था.

2014 के आम चुनाव में इन सातों सीटों पर कांग्रेस को मिली करारी हार के लिए मोदी लहर के साथ आम आदमी पार्टी (आप) भी जिम्मेदार रही. झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाली बड़ी आबादी, मुसलमान और पूर्वांचल के लोगो के एकमुश्त वोट कांग्रेस को जाते थे. मगर आप ने कांग्रेस का यह वोट बैंक लगभग निगल लिया और नतीजा यह हुआ कि पार्टी हर जगह तीसरे नंबर पर फिसल गई.

लेकिन इतना होते हुए भी 2014 में कांग्रेस को दिल्ली में करीब 15 फीसदी वोट मिले थे. किसी भी सीट पर उसे 1 लाख से कम वोट नहीं मिले थे. जाहिर है, दिल्ली में कमजोर स्थिति में होते हुए भी कांग्रेस की हालत यूपी-बिहार वाली नहीं है. कांग्रेस यह उम्मीद कर सकती है कि अगर आम आदमी पार्टी कमजोर होगी तो उसके कोर वोटर वापस लौटेंगे. 2019 के चुनाव में अभी वक्त है. ऐसे में कांग्रेस किसी भी हालत में यह संदेश नहीं देना चाहती कि वह आम आदमी पार्टी की पिछलग्गू बनने को तैयार है. यही कारण है कि एनडीए विरोधी गोलबंदी की संभावित घटक होने के बावजूद `आप’ के खिलाफ कांग्रेस लगातार आक्रामक है.

कांग्रेस पार्टी मौजूदा केंद्र सरकार को लोकतंत्र के लिए खतरा मानती है. ऐसे में अगर वह प्रधानमंत्री के खिलाफ सबसे ज्यादा मुखर रहे केजरीवाल के खिलाफ कोई स्टैंड लेती है, तो क्या इससे उन वोटरों में गलत संदेश नहीं जाएगा, जो विकल्प की तलाश में हैं? यकीनन ऐसा संदेश जा सकता है. तो फिर सवाल यह है कि कांग्रेस आम आदमी पार्टी को लेकर अपना रुख कब साफ करेगी? कांग्रेस यह कब बताएगी कि 2019 के लिए `आप’ के साथ उसका कोई तालमेल संभव है या नहीं?

आप के सहारे भाजपा को टक्कर देगी कांग्रेस

कांग्रेस से जुड़े तमाम नेता बार-बार एक ही बात कह रहे हैं- कुछ महीने इंतजार कीजिए, हवा का रुख बदल जाएगा. इशारा राजस्थान, मध्य-प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों की तरफ है. इन तीनों राज्यों में सत्तारूढ़ बीजेपी के खिलाफ कांग्रेस सीधी लड़ाई में है. सरकार बीजेपी की है तो जाहिर है, एंटी इनकंबेंसी भी होगी.

चुनाव पूर्व सर्वेक्षण यह बता रहे हैं कि छत्तीसगढ़ में बीजेपी अब भी मजबूत है. लेकिन मध्य-प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस की स्थिति बहुत बेहतर है. इसके संकेत लोकसभा और विधानसभा उपचुनावों में भी मिले हैं, जहां कांग्रेस ने ज्यादातर सीटें जीती हैं. अगर कांग्रेस ने पूरी तैयारी के साथ चुनाव लड़ा तो इन राज्यों में उसकी सत्ता में वापसी हो सकती है. अगर ऐसा हुआ तो राष्ट्रीय राजनीति एक झटके में बदल जाएगी.

बेजान कांग्रेस में एक नई जान आ जाएगी, जीत का सेहरा राहुल गांधी के सिर बंधेगा. सबसे बड़ी बात यह कि कांग्रेस सभी गठबंधन साझीदारों के साथ मोल-भाव की स्थिति में होगी. इसलिए कांग्रेस का पूरा जोर फिलहाल आनेवाले विधानसभा चुनावों पर है. वो बीजेपी विरोधी पार्टियों से संवाद बनाए रखना तो चाहती है लेकिन फिलहाल खुलकर किसी फॉर्मूले की तरफ बढ़ने से बच रही है.

लेकिन इस कहानी में अभी बहुत अगर-मगर हैं. राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव कब होते हैं, इन इलेक्शन और 2019 के आम चुनाव के बीच कितना फासला रहता है और नतीजे क्या आते हैं, इन बातों से देश की भावी राजनीति तय होगी. यह भी कहा जा रहा है कि लोकसभा चुनाव तय सीमा से पहले भी कराए जा सकते हैं. असाधारण चुनावी मशीनरी और अमित शाह जैसे सिपाहसलार से लैस बीजेपी रणनीति बनाने और मुश्किल बाजी पलटने में माहिर है. ऐसे में क्या यह मुनासिब होगा कि कांग्रेस अपने पत्ते खोलने के लिए विधानसभा चुनावों तक का इंतजार करे?

 

साल भर पहले तक यह माना जा रहा था कि 2019 का चुनाव एक तरह से एनडीए के लिए केक वॉक होगा. लेकिन हालात बहुत तेजी से बदले हैं. बेशक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब भी बहुत लोकप्रिय हैं लेकिन उनके पॉपुलैरिटी ग्राफ में गिरावट आई है. गुजरात चुनाव की तगड़ी लड़ाई के बाद से कांग्रेस एक अलग तेवर में है. कर्नाटक में उसने जिस तरह का राजनीतिक दांव खेलकर हार को जीत में बदल दिया उससे कार्यकर्ताओं में नया जोश आया है.

उधर क्षत्रपों ने भी ताकत दिखाई है. एसपी-बीएसपी के लगभग 3 दशक बाद हाथ मिलाने से उत्तर प्रदेश का गणित अब बदल चुका है. बिहार में आरजेडी मजबूत नजर आ रही है. दूसरी तरफ एनडीए कुनबे में लगातार बिखराव दिखाई दे रहा है.

इन हालात ने यह उम्मीद जगाई है कि विपक्ष 2019 में मोदी को ना सिर्फ कड़ी टक्कर दे सकता है बल्कि कुछ अप्रत्याशित नतीजे भी ला सकता है. इन संभावनाओं ने क्षेत्रीय पार्टियों के मन में बड़े सपने भी जगा दिए हैं. ममता बनर्जी तीसरे मोर्चे का आइडिया आगे बढ़ा रही हैं. हर क्षत्रप को लगता है कि अनिश्चिता भरी स्थितियों के बीच उसके प्रधानमंत्री बनने का सपना उसी तरह पूरा हो सकता है, जिस तरह 1996 में एच.डी देवगौड़ा का पूरा हुआ था. राहुल गांधी भी यह कह चुके हैं कि अगर कांग्रेस गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरती है तो वो प्रधानमंत्री बन सकते हैं.

लेकिन ख्याली पुलावों के बीच राजनीतिक धरातल का सच यह है कि मोदी को टक्कर देने के लिए विपक्ष का एकजुट होना अभी बाकी है. कांग्रेस के अगुआई वाले यूपीए और तीसरे मोर्चे का ख्वाब देख रहे क्षेत्रीय पार्टियों को एक साथ आना ही पड़ेगा. इस संभावना के साकार होने में कई पेंच हैं. कांग्रेस पार्टी को इस कोशिश में कप्तान की भूमिका भी निभानी है और जरूरत पड़ने पर बारहवां खिलाड़ी भी बनना है. यूपी में कांग्रेस को हाशिए पर रहना होगा लेकिन जरूरत पड़ने पर एसपी-बीएसपी के बीच रेफरी की भूमिका निभानी होगी.

कांग्रेस को अपनी खोई राजनीतिक जमीन हासिल करनी है और साझीदारों के प्रति इतनी दरियादिली भी दिखानी है कि वो उसके साथ चलने को तैयार हो सकें. यह सब करने के लिए असाधारण राजनीतिक कौशल की जरूरत है. 2004 में सोनिया गांधी ने यह कारनामा कर दिखाया था. मगर क्या 14 साल बाद उनके बेटे राहुल गांधी फिर से ऐसा कोई करिश्मा दोहरा पाएंगे?

राहुल वक्त के साथ राजनीतिक रूप से थोड़े परिपक्व हुए हैं, लेकिन वो सोनिया गांधी जैसी सूझबूझ दिखा पाएंगे, यह मान लेना फिलहाल संभव नहीं है. केजरीवाल प्रकरण में कांग्रेस ने अपनी राजनीतिक अपरिपक्वता जिस तरह उजागर की, उससे लगता है कि रास्ता मुश्किल है. जब सारी विपक्षी पार्टियां केजरीवाल के साथ खड़ी हैं, वहां कांग्रेस यह कह सकती थी कि वो दिल्ली सरकार के कामकाज से खुश नहीं है, लेकिन केंद्र का रवैया संघीय ढांचे को नुकसान पहुंचाने वाला है. लेकिन कांग्रेस आश्चर्यजनक ढंग से बीजेपी के पाले में खड़ी नजर आई, भले ही उसकी नीयत ऐसा करने की ना रही हो.

Delhi High Court pulled up Kejriwal-led Government

 

As the Aam Aadmi Part’s(AAP) protest entered its eighth day on Monday, the Delhi High Court pulled up the Arvind Kejriwal-led government and asked who had authorised the sit-in protest by the chief minister and his cabinet colleagues — Manish Sisodia, Gopal Rai and Satyender Jain — at the Lieutenant Governor (LG) Anil Baijal’s office. “You are sitting inside the LG’s office. If it’s a strike, it has to be outside the office,” the court said.

Kejriwal, on the other hand, in a fresh appeal, reassured IAS officers that he would ensure their “safety and security” while urging them to call off their “strike.” The party on Sunday had planned a march till the Prime Minister’s house in Lok Kalyan Marg on Sunday but was stopped near the Parliament Street police station.

After Mamata Banerjee, N Chandrababu Naidu, Pinarayi Vijayan and HD Kumaraswamy, Kejriwal received support from MK Stalin, Omar Abdullah and Prakash Raj among others. CPI (M) general secretary Sitaram Yechury briefly joined the protesters at the Mandi House circle.

Kejriwal and company have been staging a sit-in protest at LG’s office since last Monday over the bureaucratic impasse in the National Capital due to the IAS officers “strike.” Satyendar Jain, who along with Manish Sisodia was on an indefinite hunger strike, was rushed to hospital on Sunday after his health deteriorated.