तुर्की के राष्ट्रपति एर्देगोन से मिले मोदी

 

 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार को कहा कि यहां ब्रिक्स सम्मेलन से इतर तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन के साथ उनकी बैठक बहुत अच्छी रही और इस दौरान भारत – तुर्की के बीच सहयोग के कई क्षेत्रों पर चर्चा हुई. मोदी ने कहा कि उन्होंने दोनों देशों के लोगों के फायदे के लिए द्विपक्षीय संबंधों को और प्रगाढ़ करने के तरीकों पर चर्चा की.

उन्होंने एर्दोगन के दोबारा राष्ट्रपति निर्वाचित होने पर उन्हें बधाई भी दी. 64 वर्षीय एर्दोगन राष्ट्रपति चुनाव में जीत हासिल करने के बाद जून में और पांच साल के कार्यकाल के लिए फिर से निर्वाचित हुए.

मोदी ने ट्वीट किया, ‘तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन के साथ बैठक बहुत अच्छी रही. हमारी वार्ता में भारत – तुर्की के बीच सहयोग के कई क्षेत्रों और अपने – अपने नागरिकों के फायदे के लिए द्विपक्षीय संबंधों को प्रगाढ़ करने के तरीकों को कवर किया गया.’

विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने तुर्की के राष्ट्रपति के साथ मोदी की दो तस्वीरें भी साझा की. कुमार ने ट्वीट किया, ‘…प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ब्रिक्स सम्मेलन 2018 से इतर तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयब एर्दोगन से मुलाकात की.’

उन्होंने बताया, ‘प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति एर्दोगन के दोबारा राष्ट्रपति निर्वाचित होने पर उन्हें बधाई दी.’ इससे पहले, दिन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मुलाकात की और अर्जेंटीना तथा अंगोला के राष्ट्रपतियों के साथ द्विपक्षीय बैठकें भी की.

सूचनाओं की गोपनीयता पर श्रीकृष्ण समिति ने सरकार को सौंपी रिपोर्ट


सरकार ने निजी जानकारियों की सुरक्षा के नियम कायदे पर सुझाव देने के लिए जुलाई 2017 में 10 सदस्यीय समिति गठित की थी


सूचनाओं की गोपनीयता के संरक्षण के संबंध में रूपरेखा तैयार कर रही उच्च स्तरीय समिति ने शुक्रवार को सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी. समिति ने निजी जानकारियों की सुरक्षा , सूचनाओं के प्रसंस्करण का दायित्व, लोगों के अधिकार और उल्लंघन पर जुर्माना आदि के बारे में सुझाव दिए हैं.

जस्टिस बीएन श्रीकृष्ण की अध्यक्षता वाली समिति ने सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) मंत्री रवि शंकर प्रसाद को रिपोर्ट सौंपी. संवेदन शील और विवादास्पद प्रकृतिक के इस काम को काफी विचार – विमर्श के साथ पूरा करने में एक साल लगे.

प्रसाद ने कहा, ‘यह एक बड़ महत्वपूर्ण कानून है. हम इस पर विस्तृत संसदीय विचार विमर्श कराना चाहेंगे. हम चाहते हैं कि भारतीय सूचना संरक्षण कानून वैश्विक स्तर पर आदर्श बने जो सुरक्षा , निजता एवं नवाचार को बढ़ावा देने वाला हो.’ उन्होंने कहा कि रिपोर्ट को मंत्रालयों के बीच परामर्श तथा मंत्रिमंडल एवं संसद की मंजूरी की प्रक्रिया से गुजरना होगा.

जस्टिस श्रीकृष्ण ने कहा कि निजता का विषय एक ज्वलंत मुद्दा हो गया है और इस कारण इसे संरक्षित रखने की कोशिश हर कीमत पर की जानी चाहिए. उन्होंने कहा कि इस रिपोर्ट के तीन पहलू हैं – नागरिक, राज्य और उद्योग. उन्होंने कहा कि यह रिपोर्ट पहला कदम है . प्रौद्योगिकी में बदलाव होने से उसके साथ कानूनों को उसके अनुकूल बनाए रखना जरूरी हो गया है.

सरकार ने निजी जानकारियों की सुरक्षा के नियम कायदे पर सुझाव देने के लिए जुलाई 2017 में 10 सदस्यीय समिति गठित की थी.

सोशल मीडिया का यह कहना कि वह सिर्फ एक प्लेटफॉर्म है, स्वीकार्य नहीं है : रविशंकर प्रसाद


सूचना एवं तकनीकी मंत्री ने कहा कि केंद्र सरकार सोशल मीडिया पर शेयर की जाने वाली गलत और झूठी खबरों की वजह से फैल रही हिंसा पर रोक लगाने लगातार काम कर रही है


केंद्र सरकार सोशल मीडिया पर शेयर की जाने वाली गलत और झूठी खबरों की वजह से फैल रही हिंसा पर रोक लगाने के लिए लामबंद और इसके लिए वो वॉट्सऐप और फेसबुक को लगातार निर्देश दे रही है और इस दिशा में काम कर रही है. सूचना एवं प्रसारण मंत्री रविशंकर प्रसाद ने ये बातें गुरुवार को संसद के मॉनसून सत्र में कहीं.

राज्यसभा में बोल रहे सूचना एवं तकनीकी मंत्री ने कहा कि ‘सरकार को इस बात का अहसास है कि सोशल मीडिया का इस्तेमाल भारत के रणनीतिक हित और आर्थिक स्थिरता को नुकसान पहुंचाने के लिए किया जा रहा है और भारत सरकार इस स्थिति से निपटने के लिए प्रतिबद्ध है.’

केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने गुरुवार को कहा कि सरकार ने व्हाट्सएप को नोटिस जारी किया है क्योंकि सोशल मीडिया कंपनियां अपने प्लेटफॉर्मो के दुरुपयोग के लिए जवाबदेह हैं। गुरुवार को राज्यसभा में सोशल मीडिया के दुरुपयोग पर चर्चा में प्रसाद ने कहा कि सोशल मीडिया पर फैलाई गईं अफवाहों से सबसे ज्यादा हिंसा की वारदातें होने के कारण सरकार ने व्हाट्सएप को नोटिस जारी किया है।

उन्होंने कहा कि इसके जवाब में व्हाट्सएप ने एक संदेश को फॉरवार्ड करने की अधिकतम सीमा सुनिश्चित कर पांच कर दी है।

उन्होंने कहा, “सोशल मीडिया का यह कहना कि वह सिर्फ एक प्लेटफॉर्म है, स्वीकार्य नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे कोई भड़काऊ समाचार प्रकाशित होने पर कोई समाचार पत्र यह नहीं कह सकता कि यह उसकी जिम्मेदारी नहीं है, उसी तरह सोशल मीडिया पर झूठी खबर फैलने पर अगर लोगों की मौत होती है या इसमें किसी की हत्या के लिए उकसावा होता है तो यह जिम्मेदारी उसकी है।”

हाफ़ीज़ का हाफ़िज़ खुदा


आतंकी हाफिज सईद का दावा था कि उसके सभी प्रत्‍याशी इन चुनावों में जीतेंगे, लेकिन पाकिस्‍तान की जनता ने उसके मंसूबों पर पानी फेर दिया

जब पाकिस्तान में चुनाव आईएसआई ओर आर्मी करवाती है तो आतंकी हाफिज़ की वास्तविक स्थिति विचारणीय है

आतंकी हाफ़ीज़ को पाकिस्तानी आवाम ने नकार दिया है तो फिर वह कौन हैं जो इसकी मजलिसों में जा कर अल्लाह – ओ – अकबर के नारे लगाते हैं 


साल 2008 मुंबई हमले का मास्टरमाइंड और जमात-उद-दावा चीफ हाफिज सईद को पाकिस्तान आम चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा है. आतंकी हाफिज सईद की पार्टी अल्लाह-ओ-अकबर तहरीक (एएटी) के सभी उम्मीदवार चुनाव हार गए हैं. हाफिज सईद ने 260 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे.

इस चुनाव में हाफिज का बेटा और दामाद भी किस्मत आजमा रहा था. लेकिन दोनों अपनी-अपनी सीट बुरी तरह से हार गए. बेटा हाफिज तल्हा सईद लाहौर से 200 किलोमीटर दूर सरगोधा सीट से चुनाव लड़ रहा था. हाफिज सईद यही का रहने वाला है.

आतंकी हाफिज सईद का दावा था कि उसके सभी प्रत्‍याशी इन चुनावों में जीतेंगे. लेकिन पाकिस्‍तान की जनता ने उसके मंसूबों पर पानी फेर दिया. हाफिज सईद ने लोगों से अपील कि थी कि वो ‘पाकिस्तान की विचारधारा’ के लिए मतदान करे.

हाफिज सईद ने मिल्‍ली मुस्लिम लीग (एमएमएल) के बैनर तले अपने प्रत्‍याशियों को मैदन में उतारा था. लेकिन बाद में चुनाव आयोग की ओर से मान्‍यता देने से इनकार कर दिया गया था. इसके बाद हाफिज सईद ने अल्‍लाह-ओ-अकबर के बैनर तले अपने प्रत्‍याशियों को मैदान में उतारा.

जमात-उद-दावा को अमेरिका ने जून 2014 में आतंकी संगठन घोषित किया था. ये संगठन लश्कर-ए-तैयबा से जुड़ा था जिसने साल 2008 में मुंबई हमले को अंजाम दिया था. अमेरिका ने सईद पर एक करोड़ डॉलर का इनाम भी घोषित कर रखा है.

उपेंद्र कुशवाह अभी पर्दा उठाना बाकी है


कुशवाहा की ना-नुकूर और सख्त और साफ लहजे में नीतीश कुमार के प्रति दिखाई गई तल्खी से सवाल खड़ा होने लगता है कि क्या एनडीए को छोड़ कर कुशवाहा अब दूसरे गठबंधन की तरफ तो हाथ नहीं बढ़ाने वाले हैं.


राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा का न्यूज 18 के साथ साक्षात्कार में दिया बयान बिहार की सियासी उथल-पुथल को बयां करने वाला है. अपने साक्षात्कार के दौरान आरएलएसपी अध्यक्ष ने कहा ‘नीतीश कुमार 15 सालों से बिहार के मुख्यमंत्री के पद पर हैं और अब समय आ गया है कि वो किसी और को मौका देने पर विचार करें.’

कुशवाहा ने कहा है ‘15 साल का वक्त किसी नेता को अपनी क्षमता साबित करने का लंबा वक्त होता है, लिहाजा अब समय आ गया है उन्हें अब एक और कार्यकाल की दावेदारी छोड़ देनी चाहिए.’

कुशवाहा ने क्यों दिया नीतीश के खिलाफ बयान ?

उपेंद्र कुशवाहा मौजूदा वक्त में बिहार में एनडीए के सहयोगी हैं. केंद्र सरकार में मंत्री भी हैं. लिहाजा उनकी तरफ से नीतीश कुमार के खिलाफ इस तरह का बयान आना एनडीए की सेहत के लिहाज से माकूल नहीं लग रहा है. आईए समझने की कोशिश करते हैं आखिरकार कुशवाहा ने ऐसा बयान क्यों दिया और इस बयान की टाइमिंग कितनी सटीक है ?

अभी इसी महीने की बारह तारीख को बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह पटना में थे. उस दिन पटना में नीतीश कुमार के साथ उनकी मुलाकात के बाद जो संकेत मिला उसमें साफ हो गया कि बिहार में लोकसभा चुनाव में बीजेपी नीतीश कुमार को पूरा सम्मान भी देगी और सीट शेयरिंग में भी उचित स्थान देगी.

गौरतलब है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार की जेडीयू अलग होकर चुनाव लड़ी थीं, जिसके चलते रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा की एनडीए में एंट्री हो गई थी. एलजेपी ने सात जबकि कुशवाहा की उस वक्त नई-नवेली पार्टी आरएलएसपी ने भी तीन सीटों पर चुनाव लड़ा था. एलजेपी ने छह और कुशवाहा की पार्टी ने सभी तीन सीटों पर चुनाव जीता था.

लेकिन, अब हालात बदल गए हैं. नीतीश कुमार की एनडीए में वापसी के बाद उपेंद्र कुशवाहा को लग रहा है कि उनकी हैसियत अब पहले की तुलना में घट रही है. बल्कि बीजेपी की तरफ से आ रहे संकेतों से भी एहसास होता रहा है कि नीतीश की घर वापसी के बाद बीजेपी के साथ-साथ उसके पुराने सहयोगियों को भी कुछ सीटों पर ‘त्याग’ करना होगा. बस यही बात कुशवाहा को अखर रही है.

उपेंद्र कुशवाहा की तरफ से आ रहे बयानों में बार-बार बीजेपी के बजाए नीतीश कुमार पर निशाना ज्यादा रहता है. कुशवाहा को लगता है कि नीतीश कुमार के एनडीए में इंट्री के चलते ही उनके बढ़ते कद पर विराम लगाने की कोशिश की जा रही है.

उनकी पार्टी के नेताओं की तरफ से आ रहे बयान से भी यह साफ हो जाता है. पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष नागमणि ने पहले ही साफ कर दिया है कि उनकी पार्टी आरएलएसपी नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू से बड़ी पार्टी है.

पिछले लोकसभा चुनाव में आरएलएसपी को तीन जबकि जेडीयू को महज दो सीटों पर ही जीत मिली थी. इसके अलावा नागमणि हर बार वोट बैंक और जातीय समीकरण के लिहाज से भी यह बताने की कोशिश करते रहते हैं कि नीतीश कुमार की तुलना में कुशवाहा की ताकत कहीं ज्यादा बड़ी है.

आरएलएसपी का दावा है कि नीतीश कुमार के पास महज एक से डेढ़ फीसदी का ही वोट बैंक बचा है, जबकि आरएलएसपी का वोट प्रतिशत दस फीसदी से भी ज्यादा है. ऐसा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जातीय समीकरण के हिसाब से आरएलएसपी दावा करती है.

नीतीश कुमार के लव-कुश समीकरण की हवा निकाल पाएंगे कुशवाहा ?

नीतीश कुमार ने बिहार में विकास के साथ-साथ सामाजिक समीकरण को भी ठीक तरीके से साधा है. लव-कुश समीकरण के सहारे नीतीश कुमार ने बिहार के वड़े वोट बैंक को साध कर रखा है. लव मतलब कूर्मी समुदाय का वोट और कुश मतलब कुशवाहा यानी कोईरी समुदाय का वोट.

अब उपेंद्र कुशवाहा इसी समीकरण में बिखराव कर अपने लिए जमीन तलाश रहे हैं. कुशवाहा और उनकी पार्टी के लोगों की भी यही दलील है कि कुशवाहा समुदाय का वोट बैंक नीतीश कुमार के लव यानी कूर्मी समुदाय के वोट बैंक से ज्यादा है. हालाकि अभी भी नीतीश कुमार के पास दोनों समुदायों में अच्छी पकड़ है.

लेकिन, उपेंद्र कुशवाहा और उनकी पार्टी के लोगों का दावा है कि इस बार उनकी पार्टी जिधर होगी उधर ही कुशवाहा समुदाय होगा. इसी वोट बैंक को मुद्दा बनाकर उपेंद्र कुशवाहा बीजेपी पर दबाव बनाने में लगे हैं.

लेकिन, बीजेपी इस बात को समझ रही है कि अभी भी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार प्रदेश में बड़े नेता हैं और उनको साथ लेकर आरजेडी को मात दी जा सकती है. लिहाजा बीजेपी ने नीतीश कुमार को बाकी सहयोगी दलों की तुलना में ज्यादा महत्व दिया है.

क्या होगा कुशवाहा का अगला कदम ?

ऐसे में गठबंधन के भीतर कुशवाहा की तरफ से अपने ही सहयोगी दल के मुख्यमंत्री को कुर्सी छोड़ने की नसीहत उनके अगले कदम को लेकर भी इशारा कर रही है. उपेंद्र कुशवाहा के दिल में मुख्यमंत्री पद पर बैठने की चाहत है. इसको लेकर उनकी पार्टी के लोग खुलकर बोलते भी रहे हैं. लेकिन, नीतीश कुमार के एनडीए में आने से कुशवाहा की यह चाहत आगे परवान चढ़ पाएगी ऐसा मुमकिन नहीं लग रहा है.

यही वजह है कि अब कुशवाहा की तरफ से खुलकर नीतीश कुमार के खिलाफ मोर्चा खोला जा रहा है. ऐसे वक्त में उपेंद्र कुशवाहा के अगले कदम को लेकर भी अटकलें लगती रहती हैं.

कुशवाहा की ना-नुकूर और सख्त और साफ लहजे में नीतीश कुमार के प्रति दिखाई गई तल्खी से सवाल खड़ा होने लगता है कि क्या एनडीए को छोड़ कर कुशवाहा अब दूसरे गठबंधन की तरफ तो हाथ नहीं बढ़ाने वाले हैं. आरजेडी के नेतृत्व वाले महागठबंधन में इस तरह की संभावना दिख भी जाती है, क्योंकि कुशवाहा को ज्यादा सीटें मिलने पर वो नीतीश के बजाए लालू के साथ रहना ज्यादा पसंद करेंगे.

नितिन गडकरी ने दिखाया बड़ा कद ज्योतिरादित्य से मांगी माफी

 

नई दिल्ली। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने गुरुवार को गुना से लोकसभा सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया से माफी मांगी। ज्योतिरादित्य ने अपने लोकसभा क्षेत्र में एक राजमार्ग के उद्घाटन समारोह में उन्हें आमंत्रित नहीं किए जाने और आमंत्रणपत्र में भी नाम नहीं दिए जाने पर लोकसभा अध्यक्ष को विशेषाधिकार हनन का नोटिस दिया था। उस समारोह में गडकरी मौजूद थे। लोकसभा में शून्यकाल शुरू होते ही सिंधिया ने कहा, “स्थानीय सांसदों को प्रोटोकाल के तहत ऐसे कार्यक्रमों में आमंत्रित किया जाना चाहिए।”

इसके जबाव में सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने माफी मांगी और स्वीकार किया कि यह नहीं होना चाहिए था। उन्होंने कहा कि उन्होंने मामले की जानकारी ली और इसे सत्य पाया।

वह कार्यक्रम संबद्ध मंत्रालय ने आयोजित किया था।

गडकरी ने कहा, “मुझे यह पता है और जब मैं वहां उपस्थित था, मुझे इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए। सांसद का नाम वहां होना चाहिए। सभी लोगों की तरफ से मैं माफी मांगता हूं और यह दोबारा नहीं होगा।”

इस दौरान कांग्रेस सांसद के.सी. वेणुगोपाल के सहयोग से सिंधिया और मध्य प्रदेश के सतना से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सांसद गणेश सिंह और ग्रामीण विकास मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के बीच वाकयुद्ध हुआ।

 भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ …आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुद्दा: दुष्यंत कुमार


बात दो जून की रोटी की नहीं रही क्योंकि इन बच्चियों के पास रोटी के दो निवाले भी नहीं थे


काम की तलाश में पिता घर से बाहर था. मां को होश नहीं था और भूख उसके तीन मासूमों को ‘निवाला’ बनाने में जुटी हुई थी. दिल्ली के एक मोहल्ले में बंद कमरे से तीन बेटियों के शव बरामद हुए. न तो उनके शरीर पर चोट के निशान थे और न ही उन्होंने जहर खाया था. पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में जो सच सामने आया उससे सरकारें ही नहीं बल्कि दिल्ली और हम सब शर्मसार हुए हैं. पोस्टमार्टम की रिपोर्ट कहती है कि ये तीन बच्चियां 8 दिनों से भूखी थीं और इन्हें भूख ही खा गई. बात दो जून की रोटी की होती है लेकिन इन बच्चियों के पास  रोटी के दो निवाले भी नहीं थे.

दिल्ली यानी राजधानी ही नहीं बल्कि वो शहर जिस पर देश-दुनिया की नजर होती है. यहां की छोटी सी खबर भी देश के लिये बड़ी होती है. दिल्ली के मायने सिर्फ राजधानी तक ही सीमित नहीं. चकाचौंध, ग्लैमर, सियासत की उठापटक का शहर, तरक्की की रफ्तार के साथ तेज भागती जिंदगी और बड़े चेहरों-बड़े नामों से अपनी पहचान बनाने वाली ऐतिहासिक दिल्ली में मासूमों की मौत ने ये साबित कर दिया कि यहां किसी कोने में छुपा अंधेरा कितना स्याह है.

कहां गईं वो कैंटीन जो गरीबों को मुफ्त खाना देने का एलान करती हैं. कहां गई राशन की वो व्यवस्था जो हर परिवार को मुफ्त अनाज देने का दावा करती है. ये कितना शर्मनाक है कि गरीबों के लिये तमाम सरकारी योजनाओं को लागू करने का केंद्र कहलाने वाली दिल्ली में बेटियां भूख से मर जाती हैं और किसी को पता तक नहीं चलता है कि बच्चियां 8 दिनों से भूखी थीं.

डिजिटल इंडिया के दौर में देश को दुनिया के कोने-कोने से कनेक्ट करने की कोशिश की जा रही है और समाज अपने ही मोहल्ले में इस कदर कटा हुआ है कि उसे खबर ही नहीं कि 3 बच्चियां 8 दिनों से भूखी हैं.

इसी दिल्ली में एक सीजन में लाखों शादियां होती हैं जो रिकॉर्ड बनाती हैं. लाखों रुपये का खाना बर्बाद होता है. इसी जगमगाती दिल्ली की चकाचौंध में गरीब बस्तियों के बंद कमरे में भूखे पेट सोने वाले झूठी उम्मीद के साथ सुबह का इंतजार कर रहे होते हैं.

ये सिर्फ दिल्ली के मंडावली की कहानी नहीं है. ये समाज के राजनीति के  संवेदनहीन होने के चलते देश के कई इलाकों की हकीकत  है. इससे पहले झारखंड के सिमडेगा में एक 11 साल की बच्ची की भूख से मौत हो गई थी. बच्ची के परिवार को अनाज इसलिये नहीं मिल सका था क्योंकि उसके राशन कार्ड से आधार कार्ड लिंक नहीं था. दोनों ही घटनाओं का लिंक भूख से है. यहां न राशन कार्ड था और न बनाने को राशन.


क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ

रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ


सियासत सवाल उठा रही है दिल्ली सरकार पर. सवाल उठ रहे हैं सीएम केजरीवाल और डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया पर. दिल्ली सरकार पर आरोप है कि वो फ्री पानी और फ्री वाईफाई तो दे सकती है लेकिन उसकी हुकूमत में मासूम भूख से मर रहे हैं. सवाल दिल्ली सरकार की तरफ से भी उठ रहे हैं कि उनकी डोर स्टेप राशन व्यवस्था ऐसी ही घटनाओं को रोकने के लिये है ताकि कोई भूख से न मरे.

सियासत आरोपों में उलझी हुई है और योजनाओं के फाइलों में फंसे होने की दलील दी जा रही है तो गरीबों के राशन कार्ड, बीपीएल कार्ड, पेंशन कार्ड जैसे न मालूम योजनाएं के कितने कार्ड न बनने के आरोप लग रहे हैं.

लेकिन बंद कमरों में भूख से बेटियों की मौत पर समाज के ठेकेदार मौन धरे हुए हैं. ये लोग उसी समाज का हिस्सा हैं जो कभी आरक्षण की मांग को लेकर सड़कों पर संग्राम छेड़ देते हैं तो कभी जाति और मजहब के नाम पर सड़कों पर आक्रोश दिखाते हैं. लेकिन ऐसी संवेदनशील घटनाओं पर चुप्पी मार जाते हैं. अपने ही इलाकों में आपस में अंजान रहने और खुद में सिमटे रहने की आदत ही भावनात्मक रूप से शून्य बनाने का काम कर रही है.

मशहूर शायर दुष्यंत कुमार ने लिखा था कि, ‘ इस शहर मे वो कोई बारात हो या वारदात….अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियां.’

मंडावली की ये घटना आज के संवेदनहीन समाज के आइने का असल अक्स है जिसमें सिर्फ अपना पेट और अपनी जेब की फिक्र में इंसान इंसानियत से कटता दिखाई दे रहा है.

तीन बेटियों की दर्दनाक मौत हो गई. सिस्टम और समाज की संवेदनहीनता के चलते बेटियां बचाईं नहीं जा सकी. भूख से मौत की बेबसी आत्मा को झकझोर कर रख देती है. ये शर्मसार कर जाती है उन सियासी और गैर-सियासी लोगों को जो अपने अपने स्वार्थ में डूबे हैं. इस मौत के जिम्मेदार हम सब ही हैं. भले ही हम सरकार पर उंगली उठा कर खुद को मुंसिफ करार देने की कोशिश करें.

दलील दी जा रही है कि किसी को पता नहीं था कि बच्चियां भूखी हैं. ये दलील सही भी है. किसी को वाकई नहीं मालूम कि इस देश का एक तबका भूखे पेट ही सोता है. न ये सरकारों को अहसास है और न ही समाज के लोगों में ये अहसास जग सका है. समाज इसी तरह सोता रहेगा तो न किसी को भूख से मौत की खबर होगी और न फिर कभी फर्क ही पड़ेगा.

ऐसे ही संवेदनहीन हालातों को देखकर दुष्यंत ने ये भी कहा था, ‘ भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ …आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुद्दा.’

Imran – Trump let’s wait and watch

Pakistan Election Results 2018: Despite anti-US poll rhetoric, ties likely to be stable under Imran Khan


 

Now that the military has succeeded in its mission of installing Imran Khan as the new prime minister of Pakistan (a euphemism of sorts for a glorified mayor), the world must engage with the politician who has finally been allowed to sit on the chair that he has been eyeing for the last two decades.

An Oxford-educated legendary cricketer who ruled the cricket pitches and London nightclubs with equal ease, Imran, in his avatar as a politician, has been at pains to shed his flamboyant image in favour of a sharp turn towards Islamism. He has shunned the western attire for a pristine white salwar kameez, carries along large praying beads and has put his past marriages to a high-profile British heiress and a British-Pakistani TV anchor behind, to get wedded to a ‘faith healer’ who prefers to stay behind the purdah.

File image of Imran Khan and Donald Trump. AP

File image of Imran Khan and Donald Trump. AP

Mercurial and enigmatic in equal parts, Imran has little administrative experience and even less appetite for policy positions. His own advisors and closest aides admit that he is not a “strategy guy” and has never gone beyond the skin on policies. Vice-president of Pakistan Tehreek-e-Insaaf (PTI) Asad Umar, tipped to be the finance minister in new cabinet, in an interview to The Times, UK, conceded that his boss ” has never been in an institution, and doesn’t know how to work in an institutional setting.”

What could be the impact of such a rookie administrator in managing Pakistan’s relationship with the US which has fallen into a state of dangerous disrepair?

As a candidate seeking to find a route to power, Imran has cashed in on the reflexive anti-Americanism that permeates the polity of Pakistan. He has bristled at US president Donald Trump’s accusations that Pakistan provides a safe heaven for terrorists. Trump has blamed Pakistan for undermining the “war on terror” by giving shelter to Afghan Taliban and Haqqani Network terrorists who ambush US and peacekeeping forces in Afghanistan and escape into the tribal regions of Pakistan to avoid retaliation.

Trump has responded by blocking military aid to Pakistan and cutting all other forms of aid to a trickle. He has also used an extensive drone campaign to ferret out the terrorists from their tribal hideouts in Pakistan’s northwestern regions. Imran has led demonstrations against US drone strikes and has called it “inhumane” and violative of human rights. He has also accused the Us of exploiting Pakistan and blamed own leaders for letting the country be used as a cat’s paw in America’s war on terror.

In respond to Trump’s tweet that Pakistan has taken billions and billions of dollars from the US in return for “lies” and “deceit”, a fiery Imran had called for immediately removing “excessive US diplomatic, non-diplomatic and intelligence personnel from Pakistan” and denying the US ground and air route support to troops in Afghanistan which Pakistan, he claimed, was providing “free of cost”. He also blamed the US for crippling  Pakistan by leaving its society polarised, causing “70,000 deaths and $100 billion in losses to the economy”.

A large part of this criticism could be put down to poll rhetoric. Imran had a compulsion to portray himself as a leader who will set the ourse for a “more equal” relationship with Washington rather than letting Islamabad be treated as a “doormat”. This position is perhaps a necessary ingredient of poll success in a country where 59 percent of people describe the United States as an “enemy”.

But, as Mehreen Zahara Malik writes in Foreign Policy, “Once Khan is finally and safely in power after prowling the margins of Pakistani politics for almost two decades, he may no longer need to surf Pakistan’s permanent wave of popular anti-American sentiment with such dedication. Once the work of statecraft begins, the rhetoric will self-calibrate.”

A little bit of that reality might have already set in when it became clear to Imran that it might be his turn at prime ministership. In January last year, Imran was breathing fire against the Trump administration’s decision to ban citizens from certain Muslim nations from visiting the US.

In his words, “I want to tell all Pakistanis today,I pray that Trump bans Pakistani Visas so that we can focus on fixing our country,” he said at a public rally. He also promised not to “beg” before the IMF for funds. “We will have to fix Pakistan and stand on our own two feet. And the day that we decide this is our home and we have to fix it, we won’t beg for loans from the US and the IMF.”

A year later in May, during a visit to the UK when he held a private meeting with an equity investment company, Imran reportedly admitted that Pakistan might have to approah the IMF for financial assistance.

This wasn’t just opportunistic re-positioning from Imran, but a pragmatic acceptance of a fact that Pakistan economy is in doldrums and it needs every bit of help that it can muster. It tells one that Imran is not immune to the sobering effect of power, and people were witness to more such recalibration from the PTI chief soon after he gave his victory speech.

In his maiden televised address to the nation, Imran made all the right noises on China, Afghanistan and even India, and called for mutually beneficial ties with the US. He stressed on a relationship that is “equal” in nature and not of a rent-seeking kind where Washington will force Pakistan to fight its war in exchange for money.

“With the US, we want to have a mutually beneficial relationship… up until now, that has been one way, the US thinks it gives us aid to fight their war… we want both countries to benefit, we want a balanced relationship,” said Imran.

At the risk of sounding repetitive, let it be clear that for all of Imran’s protestations and solemn declaration on foreign policy, he simply has no power in altering the country’s trajectory. The strings of Pakistan’s foreign and security policy are firmly in the hands of the military (also known as the establishment) and it will not allow any civilian leader to alter the course or establish the primacy of an elected government over unelected generals. Imran would have carefully noted the fate that befell Nawaz Sharif who paid a heavy price for his misadventure.

If the fundamentals of a relationship are not going to change under any civilian leader, how much importance should we give to Imran’s words? There are two things to consider. One, the trajectory of US-Pakistan relationship, seen as widely divergent in recent times, might see some sort of an alignment over Afghanistan.

Imran has long advocated a political solution for the war in Afghanistan and wants the Taliban and Afghanistan leadership to sit across the table. “The only way Pakistan can now help the Americans is to use the influence it has on the Taliban to get them across a table so that there is a political solution to this issue,” he has been quoted, as saying by Financial Times.

Recent indications are that Trump, who likes to “win”, is fed up with an unwinnable war in Afghanistan and has dispatched top envoys for South Asia to “talk directly” with the Taliban leadership in Doha to build on the ceasefire. Wall Street Journal says “ Ambassador Alice Wells , the State Department’s deputy assistant secretary for South and Central Asia, led the US delegation, which met with members of the Taliban’s political commission in Doha” to explore “all avenues to advance a peace process in close consultation with the Afghan government”.

There could some rapprochement here. Second, a civilian leadership that has less of a tension with the military (a position that the PTI government will enjoy) may find it easier to settle on policies without pulling in different directions. For all its fire and fury, Pakistan’s civilian leadership or the military cannot afford to antagonise the US beyond a point, and hedging strategies with China come bundled with own problems.

It is safe to assume that under Imran (handheld by the military), there might be a little more stability in US-Pakistan ties after a period of extreme turbulence.

विजय दिवस पीएसआर कांग्रेस ने दोहराया इतिहास

26 जुलाई, 1999 को भारत ने कारगिल युद्ध में विजय हासिल की थी। इस दिन को हर वर्ष विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन घुसपैठिए पाकिस्तानियों को हमारे जांबाजों ने खदेड़ बाहर किया था और कारगिल की चोटियों पर तिरंगा फहराया था। पूरा देश जहां कारगिल विजय दिवस के उल्लास में डूबा हुआ है वहीं सोशल मीडिया में एक वीडियो वायरल हो रहा है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राशिद अल्वी के इस वीडियो में कह रहे हैं, ”कारगिल युद्ध बीजेपी की लड़ाई थी, इस युद्ध से देश का कुछ लेना देना नहीं था।”

गौरतलब है कि 26 जुलाई, 1999 के भारतीय सेना ने घुसपैठिए पाकिस्तानियों को खदेड़ कर बाहर किया था और कारगिल की चोटियों पर तिरंगा फहराया था। इस युद्ध में भारत के 527 वीर सपूतों ने अपनी शहादत दी थी जबकि 1300 से अधिक सैनिक घायल हुए थे। हर देशवासी भारत मां के वीर सपूतों के बलिदान को सेल्यूट करता है, लेकिन कांग्रेस पार्टी और उनके नेता वीर शहीदों को सम्मान नहीं देती, और न ही सेना की इस उपलब्धि पर गर्व करती है। हालांकि ये वीडियो पुराना बताया जा रहा है, लेकिन यह साफ है कि कांग्रेस के नेता देश की सेना के लिए सम्मान का भाव नहीं रखते हैं। 

गौरतलब है कि 1999 के बाद से 2003 तक देश में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार रही। उस दौरान  हर साल संसद में कारगिल विजय दिवस मनाया जाता रहा, लेकिन मई 2004 में जैसे ही कांग्रेस के पास सत्ता आई तो सोनिया गांधी के आदेश से संसद में कारगिल विजय दिवस कार्यक्रम पर ही बैन लगा दिया गया। नतीजा रहा  कि 2004 से लेकर 2009 तक भारत की संसद में कारगिल के बलिदानियों को श्रद्धांजलि नहीं दी गई और न ही विजय दिवस मनाया गया। हालांकि जुलाई 2009 में एनडीए के राज्यसभा सांसद राजीव चंद्रशेखर ने जब मामले को उठाया तो संसद में खूब हंगामा हुआ। इसके बाद कारगिल विजय दिवस संसद में नियमित रूप से मनाया जाने लगा।

Did u know 2004-2009 Cong led UPA did not celebrate or honor
on July26 till I insistd in

इसी तरह 2009 में ही कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राशिद अल्वी ने खुलेआम कह दिया था कि कारगिल युद्ध बीजेपी की लड़ाई थी, इस युद्ध से देश का कुछ लेना देना नहीं था। दरअसल कांग्रेस नेताओं की मंशा ही नहीं बल्कि परम्परा ही हमेशा देश के सेना का अपमान करने की रही है।

21 जून, 2018

कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने सेना को नरसंहार करने वाला कहा।

11 जून, 2017

कांग्रेस नेता संदीप दीक्षित ने सेना प्रमुख को गुंडा कहा।

16 अप्रैल, 2017

कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने सेना को कश्मीरी लोगों का हत्यारा कहा।

04 अक्टूबर, 2016

कांग्रेस नेता संजय निरुपम ने सर्जिकल स्ट्राइक को Fake कहा।

15 अक्टूबर, 2015

कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने अर्धसैनिक बल के जवान को थप्पड़ मारा।

09 फरवरी, 2013

कांग्रेस नेता सलमान निजामी ने भारतीय सेना को रेपिस्ट कहा।

Nation is busy remembering ‘Kargil’ and Congress at it best

Today ABVP PU remembered Martyrs on the occasion of Vijay Diwas at Student center in Panjab University, Chandigarh. ‘ This pious land of Panjab University does not belong to the stone pelters who abuse Indian Army openly but to the heroes of the kargil war Captain Vikram Batra And Major Sagar, we must respect our Armed forces who protect us’ said senior ABVP leader Harmanjot Singh Gill. All the members of Party paid tribute to the heros and celebrated the Kargil Victory Day..

on the other hand Congress Party states:

courtesy HEADLINES TODAY