अनुच्छेद 35A : संविधान का अदृश्य हिस्सा किताब में नहीं किन्तु अमल में है.
संविधान की किताबों में न मिलने वाला अनुच्छेद 35A जम्मू-कश्मीर की विधान सभा को यह अधिकार देता है कि वह ‘स्थायी नागरिक’ की परिभाषा तय कर सके
बँटवारे की वजह से बाजपुर से इस ब्राह्मण परिवार को भारत की सरजमीं पर आना पड़ा, आज इस बात को 70 साल हो गए, वह शरणार्थी ही हैं। उन्हे न तो मताधिकार प्राप्त है, न ही उन्हे बैंक अथवा कोई सरकारी संस्थान से आर्थिक लाभ अथवा सहायता मिल सकती है। छजजु राम वशिष्ठ जो कि इस परिवार के सबसे बड़े पुत्र हैं और रिश्ते मे मेरे भाई जो कि घाटी में करोड़ों के मालिक हैं जो कि किसी कारणवश चंडीगढ़ आए हुये हैं ने बताया,अगर उनकी पत्नी जम्मू की न होतीं तो वह यह मुकाम हासिल न कर पाते। उनका व्यापार आज विदेशों तक में फैला हुआ है, सिंगापुर मलेशिया ओर दुबई जैसी जगहों पर उनके यहाँ से बासमती और सोया के उत्पाद जाते हैं, मलेशिया में उनका ट्रांसपोर्ट का बिज़नस है जो उनका बड़ा बेटा देख रहा है, भारत में पैदा होने के बावजूद भी वह स्वयं को भारतीय नहीं कह सकता, उसका विवाह भी जम्मू की ही एक युवती से हुआ है तभी वह यहाँ पर उसके नाम पर व्यवसाय आरंभ कर सका।
राज्य को इस परिवार की संवैधानिक स्थिति से कोई मतलब नहीं, परंतु इस परिवार द्वारा कमाई गयी रकम से अपना हिस्सा करों के रूप में चाहिए, इतना ही नहीं जो धन यह परिवार विदेशों में कमा रहा है उसमें भी राज्य का हिस्सा चाहिए। मेरे पूछने पर मोंटी (घर का नाम) को मैंने पूछा की वह विदेश में क्यों नहीं बस जाता, तो उसने जवाब दिया की किस तरह वह विदेश में बस सकता है जब की उसके पास अपने देश ही की नागरिकता नहीं है, वह स्पेशल पासपोर्ट पर प्रवास करता है।
चाहे देश हो या विदेश ये लोग भारतीय संविधान और राज्य के रवैया इतना सौतेला रहा है कि इन लोगों को देश में दूसरे या तीसरे दर्जे की तो बात खैर क्या ही कहें इनको तो कोई दर्जा ही प्राप्त नहीं है
कहा जाता है कि 1952 में तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू की शह पर शेख अब्दुल्लाह ने चीन की पहाड़ियों से कुछ कबाईलियों को भारत बुला कर बसाया था, जिसका मकसद घाटी में एक अराजकता का माहौल बनाना और घाटी में हिन्दू मुसलानों की संख्या में संतुलन बिगाड़ना था। आज जो भी यहाँ के हालात हों उससे बेअसर इस परिवार की व्यथा है।
जब 47 से शरणार्थी बन रह रहे इन परिवारों को आज तक न्याय नहीं मिला तो काश्मीरी पंडितों को तो आस ही छोड़ देनी चाहिए
जून 1975 में लगे आपातकाल को भारतीय गणतंत्र का सबसे बुरा दौर माना जाता है. इस दौरान नागरिक अधिकारों को ही नहीं बल्कि भारतीय न्यायपालिका और संविधान तक को राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ा दिया गया था. ऐसे कई संशोधन इस दौर में किये गए जिन्हें आज तक संविधान के साथ हुए सबसे बड़े खिलवाड़ के रूप में देखा जाता है. लेकिन क्या इस आपातकाल से लगभग बीस साल पहले भी संविधान के साथ ऐसा ही एक खिलवाड़ हुआ था? ‘जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र’ की मानें तो 1954 में एक ऐसा ‘संवैधानिक धोखा’ किया गया था जिसकी कीमत आज तक लाखों लोगों को चुकानी पड़ रही है.
1947 में हुए बंटवारे के दौरान लाखों लोग शरणार्थी बनकर भारत आए थे. ये लोग देश के कई हिस्सों में बसे और आज उन्हीं का एक हिस्सा बन चुके हैं. दिल्ली, मुंबई, सूरत या जहां कहीं भी ये लोग बसे, आज वहीं के स्थायी निवासी कहलाने लगे हैं. लेकिन जम्मू-कश्मीर में स्थिति ऐसी नहीं है. यहां आज भी कई दशक पहले बसे लोगों की चौथी-पांचवी पीढ़ी शरणार्थी ही कहलाती है और तमाम मौलिक अधिकारों से वंचित है.
कई दशक पहले बसे इन लोगों की चौथी-पांचवी पीढ़ी आज भी शरणार्थी ही कहलाती है और तमाम मौलिक अधिकारों से वंचित है
एक आंकड़े के अनुसार, 1947 में 5764 परिवार पश्चिमी पकिस्तान से आकर जम्मू में बसे थे. इन हिंदू परिवारों में लगभग 80 प्रतिशत दलित थे. यशपाल भारती भी ऐसे ही एक परिवार से हैं. वे बताते हैं, ‘हमारे दादा बंटवारे के दौरान यहां आए थे. आज हमारी चौथी पीढी यहां रह रही है. आज भी हमें न तो यहां होने वाले चुनावों में वोट डालने का अधिकार है, न सरकारी नौकरी पाने का और न ही सरकारी कॉलेजों में दाखिले का.’
यह स्थिति सिर्फ पश्चिमी पकिस्तान से आए इन हजारों परिवारों की ही नहीं बल्कि लाखों अन्य लोगों की भी है. इनमें गोरखा समुदाय के वे लोग भी शामिल हैं जो बीते कई सालों से जम्मू-कश्मीर में रह तो रहे हैं. इनसे भी बुरी स्थिति वाल्मीकि समुदाय के उन लोगों की है जो 1957 में यहां आकर बस गए थे. उस समय इस समुदाय के करीब 200 परिवारों को पंजाब से जम्मू कश्मीर बुलाया गया था. कैबिनेट के एक फैसले के अनुसार इन्हें विशेष तौर से सफाई कर्मचारी के तौर पर नियुक्त करने के लिए यहां लाया गया था. बीते 60 सालों से ये लोग यहां सफाई का काम कर रहे हैं. लेकिन इन्हें आज भी जम्मू-कश्मीर का स्थायी निवासी नहीं माना जाता.
ऐसे ही एक वाल्मीकि परिवार के सदस्य मंगत राम बताते हैं, ‘हमारे बच्चों को सरकारी व्यावसायिक संस्थानों में दाखिला नहीं दिया जाता. किसी तरह अगर कोई बच्चा किसी निजी संस्थान या बाहर से पढ़ भी जाए तो यहां उन्हें सिर्फ सफाई कर्मचारी की ही नौकरी मिल सकती है.’
यशपाल भारती और मंगत राम जैसे जम्मू कश्मीर में रहने वाले लाखों लोग भारत के नागरिक तो हैं लेकिन जम्मू-कश्मीर राज्य इन्हें अपना नागरिक नहीं मानता. इसलिए ये लोग लोकसभा के चुनावों में तो वोट डाल सकते हैं लेकिन जम्मू कश्मीर में पंचायत से लेकर विधान सभा तक किसी भी चुनाव में इन्हें वोट डालने का अधिकार नहीं. ‘ये लोग भारत के प्रधानमंत्री तो बन सकते हैं लेकिन जिस राज्य में ये कई सालों से रह रहे हैं वहां के ग्राम प्रधान भी नहीं बन सकते.’ सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता जगदीप धनकड़ बताते हैं, ‘इनकी यह स्थिति एक संवैधानिक धोखे के कारण हुई है.’
ये लोग लोकसभा के चुनावों में तो वोट डाल सकते हैं लेकिन जम्मू कश्मीर में पंचायत से लेकर विधान सभा तक किसी भी चुनाव में इन्हें वोट डालने का अधिकार नहीं
जगदीप धनकड़ उसी ‘संवैधानिक धोखे’ की बात कर रहे हैं जिसका जिक्र इस लेख की शुरुआत में किया गया था. जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र के निदेशक आशुतोष भटनागर बताते हैं, ’14 मई 1954 को तत्कालीन राष्ट्रपति द्वारा एक आदेश पारित किया गया था. इस आदेश के जरिये भारत के संविधान में एक नया अनुच्छेद 35A जोड़ दिया गया. यही आज लाखों लोगों के लिए अभिशाप बन चुका है.’
‘अनुच्छेद 35A जम्मू-कश्मीर की विधान सभा को यह अधिकार देता है कि वह ‘स्थायी नागरिक’ की परिभाषा तय कर सके और उन्हें चिन्हित कर विभिन्न विशेषाधिकार भी दे सके.’ आशुतोष भटनागर के मुताबिक ‘यही अनुच्छेद परोक्ष रूप से जम्मू और कश्मीर की विधान सभा को, लाखों लोगों को शरणार्थी मानकर हाशिये पर धकेल देने का अधिकार भी दे देता है.’
आशुतोष भटनागर जिस अनुच्छेद 35A (कैपिटल ए) का जिक्र करते हैं, वह संविधान की किसी भी किताब में नहीं मिलता. हालांकि संविधान में अनुच्छेद 35a (स्मॉल ए) जरूर है, लेकिन इसका जम्मू-कश्मीर से कोई सीधा संबंध नहीं है. जगदीप धनकड़ बताते हैं, ‘भारतीय संविधान में आज तक जितने भी संशोधन हुए हैं, सबका जिक्र संविधान की किताबों में होता है. लेकिन 35A कहीं भी नज़र नहीं आता. दरअसल इसे संविधान के मुख्य भाग में नहीं बल्कि परिशिष्ट (अपेंडिक्स) में शामिल किया गया है. यह चालाकी इसलिए की गई ताकि लोगों को इसकी कम से कम जानकारी हो.’ वे आगे बताते हैं, ‘मुझसे जब किसी ने पहली बार अनुच्छेद 35A के बारे में पूछा तो मैंने कहा कि ऐसा कोई अनुच्छेद भारतीय संविधान में मौजूद ही नहीं है. कई साल की वकालत के बावजूद भी मुझे इसकी जानकारी नहीं थी.’
भारतीय संविधान की बहुचर्चित धारा 370 जम्मू-कश्मीर को कुछ विशेष अधिकार देती है. 1954 के जिस आदेश से अनुच्छेद 35A को संविधान में जोड़ा गया था, वह आदेश भी अनुच्छेद 370 की उपधारा (1) के अंतर्गत ही राष्ट्रपति द्वारा पारित किया गया था. लेकिन आशुतोष कहते हैं, ‘भारतीय संविधान में एक नया अनुच्छेद जोड़ देना सीधे-सीधे संविधान को संशोधित करना है. यह अधिकार सिर्फ भारतीय संसद को है. इसलिए 1954 का राष्ट्रपति का आदेश पूरी तरह से असंवैधानिक है.’
अनुच्छेद 35A (कैपिटल ए) संविधान की किसी किताब में नहीं मिलता. हालांकि संविधान में अनुच्छेद 35a (स्मॉल ए) जरूर है, लेकिन इसका जम्मू-कश्मीर से कोई सीधा संबंध नहीं
अनुच्छेद 35A की संवैधानिक स्थिति क्या है? यह अनुच्छेद भारतीय संविधान का हिस्सा है या नहीं? क्या राष्ट्रपति के एक आदेश से इस अनुच्छेद को संविधान में जोड़ देना अनुच्छेद 370 का दुरूपयोग करना है? इन तमाम सवालों के जवाब तलाशने के लिए जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र जल्द ही अनुच्छेद 35A को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने की बात कर रहा है.
वैसे अनुच्छेद 35A से जुड़े कुछ सवाल और भी हैं. यदि अनुच्छेद 35A असंवैधानिक है तो सर्वोच्च न्यायालय ने 1954 के बाद से आज तक कभी भी इसे असंवैधानिक घोषित क्यों नहीं किया? यदि यह भी मान लिया जाए कि 1954 में नेहरु सरकार ने राजनीतिक कारणों से इस अनुच्छेद को संविधान में शामिल किया था तो फिर किसी भी गैर-कांग्रेसी सरकार ने इसे समाप्त क्यों नहीं किया? इसके जवाब में इस मामले को उठाने वाले लोग मानते हैं कि ज्यादातर सरकारों को इसके बारे में पता ही नहीं था शायद इसलिए ऐसा नहीं किया गया होगा.
अनुच्छेद 35A की सही-सही जानकारी आज कई दिग्गज अधिवक्ताओं को भी नहीं है. जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र की याचिका के बाद इसकी स्थिति शायद कुछ ज्यादा साफ़ हो सके. लेकिन यशपाल भारती और मंगत राम जैसे लाखों लोगों की स्थिति तो आज भी सबके सामने है. पिछले कई सालों से इन्हें इनके अधिकारों से वंचित रखा गया है. यशपाल कहते हैं, ‘कश्मीर में अलगाववादियों को भी हमसे ज्यादा अधिकार मिले हुए हैं, वहां फौज द्वारा आतंकवादियों को मारने पर भी मानवाधिकार हनन की बातें उठने लगती हैं. वहीं हम जैसे लाखों लोगों के मानवाधिकारों का हनन पिछले कई दशकों से हो रहा है. लेकिन देश को या तो इसकी जानकारी ही नहीं है या सबकुछ जानकर भी हमारे अधिकारों की बात कोई नहीं करता.’
आशुतोष भटनागर कहते हैं, ‘अनुच्छेद 35A दरअसल अनुच्छेद 370 से ही जुड़ा है. और अनुच्छेद 370 एक ऐसा विषय है जिससे न्यायालय तक बचने की कोशिश करता है. यही कारण है कि इस पर आज तक स्थिति साफ़ नहीं हो सकी है.’ अनुच्छेद 370 जम्मू कश्मीर को कुछ विशेषाधिकार देता है. लेकिन कुछ लोगों को विशेषाधिकार देने वाला यह अनुच्छेद क्या कुछ अन्य लोगों के मानवाधिकार तक छीन रहा है? यशपाल भारती और मंगत राम जैसे लाखों लोगों की स्थिति तो यही बताती है.