इससे पहले भी राहुल गांधी अपने विदेशी दौरे में देश के अंदरूनी हालात और सियासी मुद्दों को उठाकर विवादों को हवा दे चुके हैं
राहुल गांधी राजनीति की उस मानसिकता के द्योतक हैं जहा “इन्दिरा इस इंडिया” कहा जाता था, उसी के चलते वह ‘इंडिया इस मोदी’ मान कर चलते हैं ओर मोदी विरोध में वह कब भारत विरोध कर देते हैं उन्हे पता ही नहीं चलता।
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी यूरोप में दो देशों के दौरे पर हैं. विदेशी जमीन पर एक बार फिर उन्होंने देश के अंदरूनी मुद्दों को उठाया. मोदी सरकार पर निशाना साधते हुए उन्होंने बताया कि देश में मॉब लिंचिंग की असली वजह बेरोजगारी है. साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि अगर दलित और अल्सपसंख्यक जैसे समुदायों की विकास की दौड़ में अनदेखी हुई तो देश में आईएस की तरह विद्रोही और आतंकवादी ग्रुप बन सकते हैं.
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या आज देश में नोटबंदी और जीएसटी की वजह से गृहयुद्ध के हालात हैं? आखिर क्यों राहुल को इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठन की देश में उभार की आशंका दिखाई दे रही है? लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि आखिर राहुल को ये आत्मज्ञान कहां से मिला?
आखिर राहुल कैसे कह सकते हैं कि देश में दलितों की अनदेखी होने पर आतंकवादी संगठन बन सकते हैं? क्या राहुल को देश के हालात गृहयुद्ध जैसे नजर आते हैं? आखिर राहुल गांधी कैसे नोटबंदी, जीएसटी, बेरोजगारी के मुद्दे पर देश के हालातों की तुलना इराक की अराजकता से कैसे कर सकते हैं? क्या पिछले 4 साल में वाकई देश में हालात राहुल के मुताबिक ऐसे हो गए हैं कि यहां अल्पसंख्यक आईएस जैसा आतंकवादी संगठन तैयार कर सकते हैं?
बात सिर्फ अल्पसंख्यक और दलित समुदायों की असुरक्षा या अनदेखी की नहीं रही. राहुल ने इस मौके पर बेरोजगारी को लेकर नया फंडा दे डाला. उन्होंने कहा कि बीजेपी सरकार ने जिस तरह से देश में नोटबंदी और जीएसटी लागू की उससे कई लोगों के उद्योग चौपट हो गए और लाखों लोग बेरोजगार हो गए. राहुल के मुताबिक बेरोजगारी की वजह से पनपा गुस्सा ही मॉब लिंचिंग की शक्ल में सामने आ रहा है. इस तरह, राहुल ने दो अलग अलग समस्याओं को नोटबंदी, जीएसटी, बेरोजगारी, दलित-पिछड़े-अल्पसंख्यकों की अनदेखी से जोड़कर देश को इराक के बरक्स खड़ा कर दिया.
देश में मॉब लिंचिंग की जितनी भी घटनाएं हुईं उनकी अलग अलग वजहें मानी जाती रहीं हैं. कहीं पर गौ-तस्करी के आरोप में लोग भीड़ के हमले का शिकार हुए तो कहीं बच्चा-चोर जैसी अफवाहों ने भीड़ के उन्माद को हत्यारा बनाने का काम किया. सवाल उठता है कि क्या उन्मादी भीड़ में शामिल लोग वो थे जो नोटबंदी का शिकार हो गए थे? मॉब लिंचिंग में शामिल लोग वो थे जिनका कारोबार जीएसटी की वजह से ठप हो गया था?
राहुल कहते हैं ‘अगर देश के लोगों को विकास से बाहर रखा गया तो देश में आईएस जैसे आतंकी संगठन बन सकते हैं.’ आखिर वो कौन लोग हैं जिनकी देश की विकास यात्रा में अनदेखी की गई या की जा रही है?
जिस देश का राष्ट्रपति दलित समुदाय से हो वहां क्या दलित समुदाय इराक के इस्लामिक स्टेट को अपनी प्रेरणा बना सकता है? इस देश के दलितों की प्रेरणा हमेशा गांधी और आंबेडकर जैसे महापुरूष रहे हैं. लेकिन ये विडंबना ही है कि दलित वर्ग का मसीहा कहलाने वाले राजनीतिक दलों ने हमेशा ही इनका शोषण किया.
आज राहुल विदेशी जमीन पर बैठकर जिन दलित और मुस्लिम समुदाय की बात कर रहे हैं, वो ये भूल रहे हैं कि कभी दलित-मुस्लिम ही कांग्रेस के कोर वोटर हुआ करते थे. उसके बावजूद आज ये वर्ग हाशिए पर क्यों है? खासतौर से तब जबकि देश में पचास साल से ज्यादा कांग्रेस का शासन रहा. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने तो कांग्रेस शासन के वक्त ही देश के मुसलमानों की बदहाल तस्वीर को नुमाया किया.
जर्मनी के हैम्बर्ग में छात्रों से बात करते हुए राहुल ने कहा कि साल 2003 में इराक पर अमेरिकी हमले के बाद एक कानून लाया गया जिसने वहां की एक विशेष जनजाति को सरकार और सेना में नौकरी पाने से रोक दिया था. राहुल ने कहा कि इराक सरकार के उस फैसले की वजह से कई लोग विद्रोही हो गए और ये विद्रोही संगठन इराक से लेकर सीरिया तक फैल गया जो बाद में IS जैसा खतरनाक ग्रुप बन गया.
राहुल की इस्लामिक स्टेट को लेकर सोच पर सवाल उठते हैं. क्या इराक में इस्लामिक स्टेट का उभार बेरोजगारी और समाज में भागेदारी में अनदेखी की वजह से हुआ?
साल 2003 में इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के अपदस्थ होने के बाद हालात गृहयुद्ध की तरफ बढ़ चुके थे. इराक में शिया-सुन्नियों के बीच बम धमाकों के चलते नफरत और अविश्वास की खाई गहराती चली गई थी. ‘बांटो और राज करो’ की नीति के जरिये अमेरिका इराक में सुन्नियों के प्रभुत्व को कम करने में जुटा हुआ था. इस वजह से शिया-सुन्नी के बीच अमेरिका की वजह से नफरत की दीवार बड़ी होती चली गई.
इराक का आम सुन्नी खुद को अपदस्थ राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन से जोड़ कर देखता था. सद्दाम हुसैन में आम इराकी को ही अपना गौरव और शौर्य दिखाई देता था. खुद सद्दाम हुसैन सुन्नी थे लेकिन इसके बावजूद सद्दाम के दौर में इराक में कभी शिया-सुन्नी विवाद नहीं था. शिया बहुल इराक में सुन्नी शासन था. सद्दाम की बाथ पार्टी में शिया और सुन्नी बराबरी से थे और किसी एक समुदाय की अनदेखी नहीं थी.
लेकिन सद्दाम की फांसी ने शिया और सुन्नियों के बीच की नफरत को झुलसा कर रख दिया. इराक की शिया सरकार ने अमेरिका के इशारे पर फांसी की सजा सुनाई थी. उन तेजी से बदलते हालातों में इराकी सरकार के इशारे पर सेना ने सुन्नियों पर जमकर कहर बरपाया. जिससे वहां सुन्नी, कुर्दों और तमाम कबीलों में अमेरिका और इराकी सरकार के खिलाफ नफरत बढ़ती चली गई जिससे हिंसा बढ़ती गई. उस नाजुक मौके का कुख्यात आतंकी संगठन अल कायदा ने भरपूर फायदा उठाया. अमेरिकी सेना के खिलाफ जंग के नाम पर विद्रोही अलकायदा के साथ इकट्ठे होते चले गए.
लेकिन जब इराक में अलकायदा का कमांडर अबू मुसाब अल जरकावी मारा गया तो इराक में अलकायदा कमजोर पड़ने लगा. अलकायदा के कमजोर होने पर इस्लामिक स्टेट का उभार होता चला गया. अबू बक्र अल बगदादी के इस संगठन से तमाम कबीले, लड़ाके, विद्रोही जुड़ते चले गए और देखते ही देखते इस्लामिक स्टेट दुनिया का सबसे दुर्दांत और अमीर आतंकी संगठन बन गया.
सवाल उठता है कि आखिर राहुल इराक की राजनीतिक और समाजिक परिस्थितियों से भारत की तुलना कैसे कर सकते हैं? बल्कि अपनी इस सोच के जरिए राहुल देश के दलितों और अल्पसंख्यकों को लेकर विदेशी जमीन पर कौन सा विज़न रख रहे हैं?
विदेश जमीन पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी मोदी सरकार पर बरसने का कोई भी मौका नहीं छोड़ते. लेकिन इस तरह भारत की छवि पर भी सवाल उठते हैं. राहुल के जवाब से दुनिया में ये संदेश जा सकता है कि आतंकवाद को मिटाने के नाम पर दुनिया के तमाम देशों को एक साथ लाने की मुहिम में जुटे भारत में ही अस्थिरता का आलम ये है कि यहां इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठन सिर उठा सकते हैं. कम से कम राष्ट्र की आंतरिक सुरक्षा और अखंडता को लेकर राहुल गांधी को इस तरह के बयानों से बचना चाहिए.
इससे पहले सिंगापुर और मलेशिया के दौरे पर राहुल गांधी ने देश के अंदरूनी हालातों पर सवाल उठाया था. सुप्रीम कोर्ट के जजों की प्रेस कॉन्फ्रेंस के मामले में राहुल ने सिंगापुर में कहा था कि लोग इंसाफ के लिए न्यायपालिका के पास जाते हैं, लेकिन पहली बार चार जज इंसाफ के लिए लोगों के पास आए.
इससे पहले बहरीन में भी उन्होंने मोदी सरकार पर हमला करते हुए कहा था कि देश में विघटन के हालात पैदा हो रहे हैं. राहुल ने कहा था कि मोदी सरकार देश में नौकरियां पैदा नहीं कर पा रही है जिससे लोगों में गुस्सा है.
वहीं सितंबर 2017 में अमेरिका की बर्कले यूनिवर्सिटी में राहुल ने नोटबंदी के फैसले पर निशाना साधते हुए कहा था कि नोटबंदी की वजह से भारत में नई नौकरियां बिलकुल पैदा नहीं हो रही हैं. आखिर राहुल अपने सियासी फायदे के लिए विदेशी धरती पर देश की कौन सी छवि रखना चाहते हैं? वो अप्रवासी भारतीयों को कौन सा संदेश देना चाहते हैं?
राहुल दरअसल इस तरह से देश की छवि खराब करने का ही काम कर रहे हैं. वो विभिन्न समुदायों, पंथों, धर्मों, जातियों, भाषाओं से बने और समरसता के एक सूत्र में पिरोए हुए भारत को दरअसल बंटा और टूटा हुआ बता रहे हैं. वो ये बताना चाह रहे हैं कि भारत में राष्ट्रीयता के मूल्य इतने कमजोर हैं कि यहां इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठन खड़े हो सकते हैं.
राहुल को ये सोचना चाहिए कि भारत वो मुल्क है जो भौगोलिक परिस्थितियों की वजह से सिर्फ नक्शे में ही बंटा हुआ दिख सकता है. जबकि राहुल अपने सियासी नजरिए से देश को विघटन की कगार पर देख रहे हैं.