हम ध्यान भटकाने वाले मुद्दों में न उलझें और ना ही निरर्थक विवादों में पड़कर अपने लक्ष्यों से हटें:राष्ट्रपति


‘आज जो निर्णय हम ले रहे हैं, जो बुनियाद हम डाल रहे हैं, जो परियोजनाएं हम शुरू कर रहे हैं, जो सामाजिक और आर्थिक पहल हम कर रहे हैं– उन्हीं से यह तय होगा कि हमारा देश कहां तक पहुंचा है. हमारे देश में बदलाव और विकास तेजी से हो रहा है और इस की सराहना भी हो रही है.’ श्री कोविन्द 


स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति रामनाध कोविंद ने देश के नागरिकों को संबोधित किया. उन्होंने देशवासियों को 72वें स्वतंत्रता दिवस की बधाई देते हुए कई महत्वपूर्ण बातें कहीं. उन्होंने अपने संबोधन में महात्मा गांधी से लेकर देश की मौजूदा स्थिति पर अपने विचार देशवासियों से साझा किए.

शिक्षा का उद्देश्य

राष्ट्रपति कोविंद ने अपने संबोधन की शुरूआत प्राकर्तिक धरोहरों के संरक्षण की मांग से की. इसके बाद राष्ट्रपति ने शिक्षा व्यवस्था पर भी अपने विचार साझा किए. उन्होंने कहा कि शिक्षा का उद्देश्य केवल डिग्री या डिप्लोमा प्राप्त कर लेना ही नहीं है, बल्कि सभी के जीवन को बेहतर बनाने की भावना को जगाना भी है. ऐसी भावना से ही संवेदनशीलता और बंधुता को बढ़ावा मिलता है.

हिंसा पर काबू पाना गांधी से सीखें

राष्ट्रपति कोविंद ने अपने संबोधन में महात्मा गांधी का जिक्र करते हुए हिंसा पर लगाम कसने का संदेश भी दिया. उन्होंने कहा कि गांधीजी का महानतम संदेश यही था कि हिंसा की अपेक्षा, अहिंसा की शक्ति कहीं अधिक है. प्रहार करने की अपेक्षा, संयम बरतना, कहीं अधिक सराहनीय है. उन्होंने कहा, ‘हमारे समाज में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है.

दुनियाभर में मनाई जाएगी गांधी जी की 150वीं जयंती

कोविंद ने महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर देशभर में होने वाले समारोह की भी बात कही. उन्होंने कहा कि भारत के राष्ट्रपति के रूप में विश्व में हर जगह, जहां-जहां पर मैं गया, सम्पूर्ण मानवता के आदर्श के रूप में गांधीजी को सम्मान के साथ स्मरण किया जाता है. उन्हें मूर्तिमान भारत के रूप में देखा जाता है. हमें गांधीजी के विचारों की गहराई को समझने का प्रयास करना होगा.

निरर्थक विवादों में न पड़ें

कोविंद ने कहा, ‘आज हम एक निर्णायक दौर से गुजर रहे हैं. ऐसे में हमें इस बात पर जोर देना है कि हम ध्यान भटकाने वाले मुद्दों में न उलझें और ना ही निरर्थक विवादों में पड़कर अपने लक्ष्यों से हटें.’ उन्होंने कहा, ‘आज जो निर्णय हम ले रहे हैं, जो बुनियाद हम डाल रहे हैं, जो परियोजनाएं हम शुरू कर रहे हैं, जो सामाजिक और आर्थिक पहल हम कर रहे हैं– उन्हीं से यह तय होगा कि हमारा देश कहां तक पहुंचा है. हमारे देश में बदलाव और विकास तेजी से हो रहा है और इस की सराहना भी हो रही है.’

युवाओं को अवसर प्रदान करना सेनानियों का सपना

राष्ट्रपति कोविंद ने अपने संबोधन में स्वतंत्रता संग्राम में युवाओं और वरिष्ठ जनों के योगदान का जिक्र करते हुए कहा ‘जब हम अपने युवाओं की असीम प्रतिभा को उभरने का अवसर प्रदान करते हैं. तब हम अपने स्वाधीनता सेनानियों के सपनों का भारत बनाते हैं.

महिलाओं की देश निर्माण में है अहम भूमिका

कोविंद ने कहा कि भारतीय समाज में महिलाओ की एक विशेष भूमिका है. उन्होंने कहा महिलाओं के हक की बात करते हुए कहा कि एक राष्ट्र और समाज के रूप में हमें यह सुनिश्‍चित करना है कि महिलाओं को जीवन में आगे बढ़ने के सभी अधिकार और क्षमताएं सुलभ हों.

कांग्रेस ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ से भयभीत क्यों है ?


कांग्रेस को दरअसल इस बात का डर सता रहा है कि साल 1967 में जिस तरह उसकी 6 राज्यों में सत्ता छिनी, उसी तरह लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ होने पर कहीं उसके कब्जे के बचे हुए राज्यों से भी सफाया न हो जाए


ऐसी सियासी सूरत बन रही है कि लोकसभा और 11 राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ हो सकते हैं. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने विधि आयोग को लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाने की वकालत करते हुए चिट्ठी लिखी है. इससे पहले पीएम मोदी भी कई मौकों पर आम चुनाव और सभी विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की बात कर चुके हैं. वहीं राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी बजट सत्र के पहले दिन अपने अभिभाषण में ये बात दोहराई थी.

देखा जाए तो एक साथ चुनाव कराए जाने को लेकर बीजेपी या पीएम मोदी कुछ नया नहीं कह रहे हैं. साल 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त के बीजेपी के घोषणापत्र में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एकसाथ कराए जाने का जिक्र है. घोषणा-पत्र में बीजेपी ने लिखा था कि वो सभी दलों के साथ आम सहमति के जरिये ऐसा तरीका निकालना चाहेगी जिससे लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जा सकें.

दरअसल ये विचार उस इतिहास और व्यवस्था की तरफ वापस लौटने का है जिसकी शुरुआत साल 1952 में हुई थी और जो व्यवस्था साल 1967 तक पूरे देश में रही थी. इसके बावजूद कांग्रेस का विरोध समझ से परे है. कांग्रेस में इस विचार को लेकर कोहराम मचा हुआ है. कांग्रेस का कहना है कि इससे संवैधानिक व्यवस्था खतरे में पड़ जाएगी. कांग्रेस इसे अव्यवाहारिक और अतार्किक बता रही है. उसका कहना है कि ऐसा करने के लिए संविधान में संशोधन करना पड़ेगा.

लेकिन ऐसा कहने से पहले कांग्रेस को इतिहास के आईने में झांकना जरूरी है. आजादी के बाद से साल 1967 तक देश में आम चुनाव के साथ ही विधानसभा चुनाव हुए हैं. लेकिन इस संवैधानिक परंपरा को तोड़ने का काम खुद कांग्रेस ने ही किया है. देश में साल 1952 से लेकर 1967 तक चार लोकसभा चुनावों के साथ ही विधानसभा चुनाव भी हुए. तय नियम के मुताबिक पांच साल बाद यानी साल 1972 में लोकसभा चुनाव होने थे. लेकिन इंदिरा गांधी की तत्कालीन सरकार ने समय से पहले ही साल 1971 में मध्यावधि चुनाव करा दिए. जाहिर तौर पर मध्यावधि चुनाव करा कर हालात का सियासी फायदा उठाने की कोशिश की गई.

दरअसल साल 1969 में कांग्रेस में फूट पड़ने के बाद कांग्रेस के पास लोकसभा में बहुमत नहीं था. सरकार बचाने के लिए इंदिरा गांधी को कम्युनिस्ट पार्टी का समर्थन लेना पड़ा था. लेकिन तब इंदिरा गांधी ये नहीं चाहती थीं कि कम्युनिस्टों के समर्थन से बनी सरकार को तय समय तक जैसे-तैसे खींचा जाए. उस वक्त उन्हें लगा कि उनके फैसलों की वजह से देश में कांग्रेस के प्रति लोगों का विश्वास बढ़ा है. तभी प्रीवी पर्स की समाप्ति, बैंकों के राष्ट्रीयकरण और गरीबी हटाओ जैसे नारों का चुनावी फायदा उठाने के लिये मध्यावधि चुनाव का फैसला किया. इसके पीछे के दूसरी बड़ी वजह ये भी थी कि लगातार चार लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का ग्राफ गिरता जा रहा था. यहां तक कि साल 1967 में छह राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को भारी हार का सामना करना पड़ा था. क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस की सरकारों का सफाया कर दिया था.

कांग्रेस का ग्राफ साल 1952 में 74 फीसदी से गिरकर 1967 तक 54 फीसदी हो गया था. साल 1971 के आम चुनाव में ये 40 फीसदी ही रह गया था. उस वक्त आम चुनाव के साथ विधानसभा चुनाव होने की वजह से कांग्रेस का ग्राफ गिर रहा था. वहीं साल 1967 में छह राज्यों में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा था. तमिलनाडु में पूर्व मुख्यमंत्री कामराज की हार चौंकाने वाली थी. कांग्रेस का गढ़ माने जाने वाले तमिलनाडु में क्षेत्रीय पार्टी डीएमके ने मैदान मार लिया था. इसी तरह केरल, ओडीशा, गुजरात, और पश्चिम बंगाल में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा था.

कांग्रेस को डर था कि यही गिरता ग्राफ साल 1972 में होने वाले लोकसभा चुनाव को प्रभावित कर सकता है. तभी उसने मध्यावधि चुनाव का फैसला लेकर लोकसभा और विधानसभा चुनाव अलग अलग करने की शुरुआत कर डाली.

इसके बाद तय नियम के मुताबिक साल 1976 में होने वाले लोकसभा चुनावों को भी 1977 तक ढकेल दिया गया. इसके पीछे इमरजेंसी का हवाला दिया गया. कांग्रेस के इस फैसले को विपक्ष ने असंवैधानिक करार दिया. शरद यादव और समाजवादी नेता मधु लिमये जैसे नेताओं ने इसके विरोध में लोकसभा से इस्तीफा दे दिया था. ये और बात है कि आज शरद यादव कांगेस की छांव तले महागठबंधन बनाने की कवायद में जुटे हुए हैं.

1980 में इंदिरा गांधी ने सत्ता में वापसी की थी. सत्ता पर दोबारा काबिज होने के बाद उन्होंने सबसे पहले राज्यों की गैर कांग्रेसी सरकारों को भंग करने का काम किया. किसी सरकार के विश्वास मत खोने या फिर किसी आपातकाल की स्थिति में ही उस राज्य में चुनाव कराने का प्रावधान होता है.

जबकि ऐसा काम तो इन साढ़े चाल सालों में मोदी सरकार ने कभी नहीं किया. 22 राज्यों में बीजेपी अपने बूते या फिर गठबंधन के दम पर चुनाव जीतती आई है. उसने किसी गैर बीजेपी राज्य सरकार को बर्खास्त करने जैसा असंवैधानिक अपराध नहीं किया है.

ऐसे में बीजेपी पर आरोप लगाने से पहले कांग्रेस को अपने अतीत में तोड़ी गई संवैधानिक परंपरा का जवाब देना चाहिये. दरअसल कांग्रेस विरोध के पीछे साफतौर पर मोदी लहर का डर देखा जा सकता है. कांग्रेस अब केवल 4 राज्यों में सीमित है. कांग्रेस को लगता है कि एक साथ चुनाव कराए जाने से उसका पूरी तरह सफाया न हो जाए.

सबसे पहले साल 1983 में चुनाव आयोग ने सुझाव दिया था कि देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाने की प्रणाली विकसित की जानी चाहिये. उसके बाद बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने देश में एक साथ सारे चुनाव कराने की मांग की थी. एक देश-एक चुनाव के समर्थन में पूर्व चुनाव आयुक्त एचएस ब्रह्मा और एसवाई कुरैशी भी उतरे. उन्होंने माना कि बार-बार चुनावों की वजह से विकास की रफ्तार थम जाती है. चुनावों की वजह से सामान्य कामकाज पर असर पड़ता है. खुद पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी लगातार चुनावों पर अपनी चिंता जता चुके हैं. विधि मंत्रालय और चुनाव आयोग भी केंद्र और राज्य के चुनावों को साथ-साथ कराए जाने के पक्ष में अपने विचार पहले ही जता चुके हैं.

बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने लॉ कमीशन को लिखी अपनी चिट्ठी में ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ के फायदे गिनाते हुए कहा कि इससे चुनाव पर बेतहाशा खर्च पर लगाम लगाने और देश के संघीय स्वरूप को मजबूत बनाने में मदद मिलेगी.

दरअसल देश में हर साल चुनाव होते हैं. चुनावों की वजह से देश का विकास बाधित होता है. चुनाव के चलते लगने वाली अचार संहिता की वजह से कई काम प्रभावित होते हैं. न सिर्फ सरकारी खजाने पर असर पड़ता है बल्कि विकास पर भी बुरा असर पड़ता है.

साल दर साल चुनावों पर होने वाला खर्च बढ़ता जा रहा है जिसका असर देश के खजाने पर पड़ता है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में जहां चुनाव आयोग का खर्च 3426 करोड़ था तो वहीं तकरीबन कुल खर्च 35 हजार करोड़ का था. जबकि ठीक दस साल पहले यानी साल  2004 में चुनाव आयोग का खर्च 1114 करोड़ हुआ था जबकि तकरीबन कुल खर्च 10 हजार करोड़ हुआ था.

ऐसे में एक देश एक चुनाव के पीछे के वाजिब तर्कों को सियासी नजरिये से देखना देशहित में नहीं होगा. कांग्रेस के विरोध पर सवाल उठता है कि अगर एक देश-एक चुनाव या फिर साल 2019 के लोकसभा चुनाव के साथ 11 राज्यों का विधानसभा चुनाव कराया जाना लोकतंत्र का अपमान है तो फिर साल 1971 में कांग्रेस ने क्या किया था?

बहरहाल, अगले साल 11 राज्यों के साथ ही लोकसभा चुनाव कराए जा सकते हैं. जिन राज्यों में चुनाव एक साथ कराए जाने की बात हो रही है उनमें अधिकतर बीजेपी शासित राज्य हैं. इस साल के आखिर में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने हैं. ऐसे में इन तीनों राज्यों के चुनाव को टालकर 2019 में लोकसभा चुनाव के साथ ही कराए जाने के कयास हैं.

ये राज्य कुछ समय तक के लिए राज्य में राज्यपाल शासन की सिफारिश कर सकते हैं ताकि इन राज्यों के चुनाव भी लोकसभा चुनाव के साथ हो सकें. इसी तरह महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा के विधानसभा चुनाव भी लोकसभा चुनाव के साथ कराए जा सकते हैं. इन राज्यों में लोकसभा चुनाव के बाद चुनाव होने हैं. वहीं आंध्र प्रदेश, ओडिशा और तेलंगाना के विधानसभा चुनाव भी लोकसभा चुनाव के साथ ही होने हैं. ऐसे में चुनावी खर्च को कम करने के लिए मोदी सरकार एक बड़ा फैसला ले सकती है.

वन नेशन, वन इलेक्शन: भाजपा अपना दांव चल चुकी


बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने लॉ कमीशन को चिट्ठी लिखकर देश भर में एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराने का समर्थन किया.


बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने लॉ कमीशन को चिट्ठी लिखकर देश भर में एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराने का समर्थन किया. अमित शाह ने तर्क दिया कि एक साथ चुनाव कराए जाने पर बेतहाशा खर्च पर रोक लगेगी. इससे यह भी साफ हो सकेगा कि एक साथ पूरा देश इलेक्शन मोड में नहीं रहे.

बीजेपी अध्यक्ष के तर्क को देखा जाए तो इसमें काफी हद तक हकीकत दिखती है. लगभग सभी इस बात को मानते भी हैं कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव अलग-अलग वक्त पर होने के चलते चुनाव खर्च भी ज्यादा लगता है और सरकार खुलकर बड़े पैमाने पर कोई पॉलिसी डिसिजन नहीं ले पाती है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले भी इस तरह की वकालत कर चुके हैं. लेकिन, अब लॉ कमीशन को अमित शाह की तरफ से दिया गया सुझाव फिर से चर्चा में है. चर्चा इस बात की शुरू हो गई है कि क्या बीजेपी एक साथ लोकसभा के साथ ही विधानसभा का चुनाव चाह रही है. या फिर अगले साथ ही लोकसभा चुनाव 2019 के साथ कम-से-कम 11 राज्यों में विधानसभा का चुनाव कराने पर विचार हो रहा है.

इस तरह की खबरें आई कि 11 राज्यों में लोकसभा चुनाव के साथ चुनाव कराने पर विचार हो रहा है. अगले साल लोकसभा चुनाव के साथ ही आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और ओडीशा में विधानसभा का चुनाव होना है. 2019 में ही लोकसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में विधानसभा का चुनाव होना है. इन तीनों राज्यों में बीजेपी की सरकार है. लिहाजा, बीजेपी अगर चाहे तो इन तीनों ही राज्यों में विधानसभा का चुनाव पहले ही लोकसभा चुनाव के साथ कराया जा सकता है. इसके अलावा 2020 जनवरी में दिल्ली में विधानसभा का चुनाव होना है. अगर दिल्ली विधानसभा चुनाव भी पहले कराया जाए तो फिर सात राज्यों में लोकसभा के साथ चुनाव हो सकता है.

लेकिन, चर्चा मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मिजोरम में इस साल अक्टूबर और नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव को आगे बढ़ाने को लेकर है. सूत्रों के मुताबिक, इस दिशा में भी सहमति बनाने की कोशिश हो सकती है. इस परिस्थिति में चारों ही राज्यों में या तो विधानसभा का कार्यकाल संविधान संशोधन के जरिए बढा  दिया जाए या फिर चारों ही राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू कर अगले साल लोकसभा के साथ ही चुनाव करा लिए जाएं. इन दोनों ही विकल्पों के लिए संविधान संशोधन करना होगा और इसके लिए कांग्रेस समेत विपक्षी पार्टियों की भी सहमति लेनी होगी.

लेकिन , ऐसा होना आसान नहीं लग रहा है क्योंकि सभी पार्टियां बीजेपी के साथ इस मुद्दे पर आने से कतरा रही हैं. उन्हें ऐसा लग रहा है कि एक साथ विधानसभा का चुनाव होने की सूरत में बीजेपी को फायदा ज्यादा होगा. कई क्षेत्रीय पार्टियों को भी इस मुद्दे पर अपना वजूद खत्म होने का खतरा लग रहा है.

दूसरी तरफ, बीजेपी को लगता है कि एक साथ चुनाव होने की सूरत में राष्ट्रीय मुद्दे और बड़े चेहरे के दम पर चुनाव जीतना आसान होगा. अगर 2019 की बात करें तो फिर, एक साथ 11 राज्यों में विधानसभा का चुनाव होने की सूरत में बीजेपी को मोदी के नाम और चेहरे का फायदा होगा. इसीलिए इस तरह की अटकलें लगाई जा रही थीं कि बीजेपी अगले साल 11 राज्यों में चुनाव चाहती है. लेकिन, बीजेपी ने फिलहाल इस तरह की अटकलों को ही खारिज कर दिया है.

उधर,चुनाव आयोग की तरफ से मिल रहे संकेतों से नहीं लगता कि इस दिशा में बात जल्दी बनने वाली है. मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने न्यूज 18 से बातचीत में एक साथ चुनाव करने पर फिलहाल असमर्थता जताई है.

उन्होंने कहा, ‘2019 में लोकसभा चुनाव के साथ ही 11 राज्यों के विधानसभा चुनाव कराने के लिए हमारे पास पर्याप्त वीवीपैट मशीनें नहीं हैं. अगर ऐसी कोशिश की जाती है, तो इसके लिए नई वीवीपैट मशीनों का ऑर्डर देना होगा और इस बारे में एक या दो महीने में फैसला लेना होगा.’

वहीं चुनाव आयोग के कानूनी सलाहकार एसके मेंदीरत्ता ने एक इंटरव्यू में वीवीपैट मशीनों की इसी किल्लत की तरफ इशारा किया था. मेंदीरत्ता ने कहा, ‘ईवीएम और वीवीपैट मशीनों की मौजूदा संख्या को देखा जाए तो फिलहाल देश भर में एक साथ चुनाव नहीं कराए जा सकते. इसके लिए जरूरी मशीनों की खरीद के लिए आयोग को कम से कम तीन साल का वक्त लगेगा.’

खैर, इन सभी चर्चाओं के बीच लॉ कमीशन जल्द ही इस बारे में अपनी रिपोर्ट सौंपने वाला है. सूत्रों के मुताबिक, लॉ कमीशन के मौजूदा चेयरमैन बी.एस. चौहान अगस्त महीने के ही आखिर में रिटायर हो रहे हैं. इसके पहले आयोग की तरफ से रिपोर्ट सौंपे जाने की संभावना है. लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ कराने के लिए लॉ कमीशन ने एक ड्राफ्ट तैयार किया है. इसके तहत दो चरणों में चुनाव कराने का सुझाव था. पहले चरण में 2019 में जबकि दूसरे चरण में 2024 में लोकसभा चुनाव के साथ ही विधानसभा चुनाव का सुझाव था.

सूत्रों के मुताबिक, पहले चरण में उन विधानसभाओं को शामिल किया गया, जिनका कार्यकाल 2021 में पूरा हो रहा है. इन राज्यों में आंध्र प्रदेश, असम, बिहार महाराष्ट्र शामिल हैं. वहीं, दूसरे और आखिरी चरण में उत्तर प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, दिल्ली और पंजाब हैं.

फिलहाल, लॉ कमीशन की तरफ से सरकार को रिपोर्ट सौंपे जाने के बाद इस पर व्यापक बहस होगी. लेकिन, 2019 में इस तरह की संभावना फिलहाल नजर नहीं आ रही है. हो सकता है कि बीजेपी 2019 में आंध्र, तेलंगाना और ओडीशा के साथ अपने तीन राज्य महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में लोकसभा के साथ ही विधानसभा चुनाव कराने की तैयारी कर ले.

‘एक देश-एक चुनाव’ भाजपा घबरा गयी: गहलोत


अशोक गहलोत ने कहा कि प्रधानमंत्री पूरी तरह से घबराए हुए हैं, अगर संविधान संशोधन कर वह एकसाथ चुनाव करवाना चाहते हैं तो करवाए, कांग्रेस पूरी तरह से तैयार है


बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की ओर से लॉ कमीशन के समक्ष देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एकसाथ कराने की पैरवी किए जाने पर कांग्रेस ने मंगलवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती दी कि अगर वह ऐसा चाहते हैं तो लोकसभा को समयपूर्व भंग करें और फिर आगामी विधानसभा चुनावों के साथ लोकसभा चुनाव भी कराएं.

लॉ कमीशन को लिखे शाह के पत्र को ‘नाटक’ करार देते हुए कांग्रेस के संगठन महासचिव अशोक गहलोत ने संवाददाताओं से कहा, ‘शाह का पत्र कुछ नहीं, बल्कि राजनीतिक फ़ायदा हासिल करने का स्टंट है. बीजेपी हार के डर से यह नाटक कर रही है.’ गहलोत ने चुनौती देते हुए कहा, ‘बीजेपी और प्रधानमंत्री चाहें तो राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ समेत जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होना है उनके साथ लोकसभा चुनाव करवाएं. इसके लिए लोकसभा को समयपूर्व भंग किया जाए.’

उन्होंने आरोप लगाया, ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूरी तरह से घबराए हुए हैं. अगर संविधान संशोधन कर वह एकसाथ चुनाव करवाना चाहते हैं तो करवाए, कांग्रेस पूरी तरह से तैयार है.’

कांग्रेस के विधि प्रकोष्ठ के प्रमुख विवेक तन्खा ने कहा कि अगर सरकार मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव को टालने का प्रयास करती है तो कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट का रुख करेगी.

बीजेपी अध्यक्ष शाह ने लॉ कमीशन के प्रमुख को पत्र लिख कर कहा है कि ‘एक देश-एक चुनाव’ से खर्चों पर लगाम लगाने और देश के संघीय स्वरूप को मजबूत बनाने में सहायता मिलेगी.

भाजपा के वयोवृद्ध नेता ओर छत्तीस गढ़ के राज्यपाल बलराम जी दास टंडन नहीं रहे


छत्तीसगढ़ के राज्यपाल बलरामजी दास टंडन का मंगलवार को निधन हो गया. टंडन 90 साल के थे


छत्तीसगढ़ के राज्यपाल बलरामजी दास टंडन का मंगलवार को निधन हो गया. टंडन 90 साल के थे. उन्हें कार्डियक अरेस्ट आने पर रायपुर के मेडिकल कॉलेज अस्पताल में भर्ती कराया गया था. अस्पताल में ही इलाज के दौरान हालत बिगड़ती गई. इसके बाद अस्पताल के आईसीयू में ही अंतिम सांसे लीं.

सीएम डॉ रमन सिंह भी राज्यपाल की हालत जानने अस्पताल पहुंचे. राज्यपाल बलरामजी दास टण्डन के निधन की जानकारी सीएम डॉ रमन सिंह ने दी. सीएम डॉ रमन सिंह ने राज्यपाल के निधन पर गहरा शोक जताया है. बलरामजी दास टंडन ने 18 जुलाई 2014 को छत्तीसगढ़ में राज्यपाल पद की शपथ ली थी.

उनका पार्थिव शरीर चंडीगढ़ लाया गया। उनके पुत्र संजय टंडन ने बताया कि 16 अगस्त दोपहर डेढ़ बजे सैक्टर 25 के शमशान घाट में उनकी अंतेयष्टि की जाएगी। छतीस गढ़ के मुख्य मंत्री रमन सिंह ने राज्यपाल के निधन पर दु:ख व्यक्त करते हुये 7 दिन के राज्य शोक की घोषणा की।

सुबह करीब आठ बजे अचानक उनकी तबियत बिगड़ गई, जिसके बाद डॉक्टरों की सलाह पर उन्हें अस्पताल ले जाया गया था.

गौरतलब है कि केन्द्रीय गृह मंत्रालय द्वारा मार्च 2018 में जारी राजपत्र के अनुसार राज्यपालों के वेतन में वृद्धि की गई, जो 1 जनवरी 2016 से देय होगी. छत्तीसगढ़ के राज्यपाल बलरामजी दस टंडन ने बढ़ा हुआ वेतन लेने से इंकार कर दिया. राज्यपाल बलरामजी दास ने छत्तीसगढ़ के महालेखाकार को मई 2018 को पत्र लिखकर पुराना वेतनमान 1 लाख 10 हजार रुपए ही लेने की इच्छा जताई थी. इसके बाद राज्यपाल की चौतरफा तारीफ हुई और उन्होंने खूब सुर्खियां भी बंटोरी.

बता दें कि राज्यपाल बलरामजी दास टंडन का जन्म अमृतसर पंजाब में 1 नवम्बर 1927 को हुआ. अमृतसर में जन्मे बलरामजी दास टंडन ने लाहौर से स्नातक की उपाधि प्राप्त की. स्नातक करने के बाद निःस्वार्थ समाज सेवा में लगे रहे. इन्हे खेलों में भी काफी रुचि रही. कुश्ती, व्हालीबाल, तैराकी, कबड्डी के खिलाड़ी रहे. 1953 में पहली बार अमृतसर निगम से पार्षद चुने गए. कुल 06 बार अमृतसर से विधायक चुने गए. बलरामजी दास टंडन साल 1957, 1962, 1967, 1969, 1977 में विधायक चुने गए और 1975 से 1977 तक आपातकाल के दौरान जेल में रहे. साल 1997 में राजपुर विधानसभा सीट से विधायक चुने गए. 1979 से 1980 के दौरान पंजाब विधानसभा में नेता विपक्ष रहे. राज्यपाल टंडन के बेटे संजय टण्डन ने उनकी जीवनी पर एक पुस्तक ‘एक प्रेरक चरित्र’ लिखी है.

उत्तराखंड हाईकोर्ट ने खुद को घोषित किया गौवंश का रक्षक, गौहत्या-गौमांस की बिक्री पर लगाया बैन


उत्तराखंड हाईकोर्ट ने गौहत्या और गौमांस की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया है. कोर्ट ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में गौवंश की रक्षा के लिए खुद को कानूनी संरक्षक घोषित किया है


उत्तराखंड हाईकोर्ट ने गौहत्या और गौमांस की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया है. कोर्ट ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में गौवंश की रक्षा के लिए खुद को कानूनी संरक्षक घोषित किया है. कोर्ट ने गाय, बछड़ा और बैलों की हत्या के लिए उनके परिवहन और उनकी बिक्री पर भी प्रतिबंध लगा दिया है. इस संबंध में दायर एक जनहित याचिका में कहा गया है कि रूड़की के एक गांव में कुछ लोगों ने साल 2014-15 में पशुओं का वध करने और मांस बेचने की अनुमति ली थी जिसका बाद में कभी नवीनीकरण नहीं हुआ.

याचिका में कहा गया है कि हालांकि, अब भी कुछ लोग गायों का वध कर रहे हैं और गंगा में खून बहा रहे हैं. यह न केवल कानून के खिलाफ है बल्कि यह गांव के निवासियों के स्वास्थ्य के लिए भी खतरा है.

सड़क पर घूमते मिले आपके मवेशी तो होगी FIR

मुख्य न्यायाधीश राजीव शर्मा और न्यायाधीश मनोज कुमार तिवारी की खंडपीठ ने पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 के प्रावधानों के तहत आदेशों का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के आदेश दिए. कोर्ट ने उत्तराखंड गौवंश संरक्षण अधिनियम 2007 की धारा सात के तहत सड़कों, गलियों और सार्वजनिक स्थानों पर घूमते पाए जाने वाले मवेशियों के मालिकों के खिलाफ भी एफआईआर दर्ज करने को कहा.

पशुओं को अनावश्यक दर्द और कष्ट न सहना पड़े

आदेश में कहा गया है कि मुख्य अभियंता, अधिशासी अधिकारी और ग्राम प्रधान यह सुनिश्चित करेंगे कि गाय और बैल समेत कोई आवारा मवेशी उनके क्षेत्र में सडकों पर न आए और ऐसे पशुओं को सड़कों से हटाते समय उन पशुओं को अनावश्यक दर्द और कष्ट न सहना पड़े. कोर्ट ने पूरे प्रदेश के सरकारी पशु अधिकारियों और चिकित्सकों को सभी आवारा मवेशियों का इलाज करने के निर्देश देते हुए कहा कि उनके इलाज की जिम्मेदारी नगर निकायों, नगर पचायतों और सभी ग्राम पंचायतों के अधिशासी अधिकारियों की होगी.

इसके अलावा, अदालत ने जानवरों के इलाज और उनकी देखभाल के लिए राज्य सरकार को तीन सप्ताह के भीतर अस्पताल खोलने के निर्देश भी दिए. सभी नगर निगमों, नगर निकायों और जिलाधिकारियों को अपने क्षेत्रों में गौवंश और आवारा मवेशियों को रखने के लिए एक साल की अवधि में गौशालाओं का निर्माण करना होगा.

नींबू-मिर्ची के सहारे लड़ रहे हैं सिंधिया


कांग्रेस को लग रहा है कि बीजेपी ने कुछ तांत्रिकों को अपने पाले में कर लिया है और अपने काले जादू से कांग्रेस के नेताओं को खत्म करने के लिए निकल चुके हैं


एक खबर ये निकली है कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस के नेता और पार्टी की तरफ से मुख्यमंत्री मान लिए गए ज्योतिरादित्य सिंधिया सूबे में नींबू और मिर्ची की माला पहनकर घूम रहे हैं.

जिन लोगों ने रामसे बंधुओं की बनाई भूतिया फिल्में 90 के दशक में सिनेमाघरों में देखने का दुर्भाग्य झेला है या फिर बाद के वक्त में बॉलीवुड की फैक्ट्री से निकली ‘फूंक’ या ‘भूत’ मार्का फिल्में देखी हैं, उन्हे पता है कि नींबू और मिर्च का मतलब होता है- जादू-टोना और शैतानी आत्माओं के खुराफात को अपने से दूर भगाना.

तो फिर आखिर, सिंधिया खुद को किस बुरी बला से बचाने की कोशिश कर रहे हैं?

नारियल फेंककर किया घोर अधर्म!

कुछ दिनों पहले सिंधिया ने एक नारियल अपनी कार के विंडो से बाहर फेंका था. यह नारियल उन्हें पन्ना में दिया गया था. बीजेपी ने कहा कि नारियल फेंक कर सिंधिया ने ‘घोर अधर्म’ किया है. जी हां, चौंकिए मत, सूबे में प्रचार अभियान ऐसी ही बेसिर-पैर की बातों के सहारे चल रहा है. बीजेपी के इस आरोप के जवाब में सिंधिया की टीम ने जवाब दिया कि नारियल में जादू-टोना करके दिया गया था, इससे सिंधिया और पार्टी को खतरा था. सो, नारियल को फेंकना ही पड़ा.

अब आपको बात समझ में आ जानी चाहिए. सिंधिया को जादू-टोने से डर लग रहा है. कांग्रेस को लग रहा है कि बीजेपी ने कुछ तांत्रिकों को अपने पाले में कर लिया है और वे तांत्रिक ‘श्रूमन द ह्वाईट’ की तरह अपने काले जादू से कांग्रेस के नेताओं को खत्म करने के लिए निकल चुके हैं जबकि ये नेता अभी चुनावी अखाड़े में भी नहीं उतरे. लेकिन जैसा कि उस मशहूर शेर में कहा गया है कि ‘हुए तुम दोस्त जिसके, दुश्मन उसका आस्मां क्यों हो’ उसी तर्ज पर यहां कहा जा सकता है कि जब दोस्त ही कांग्रेस को बर्बाद करने की काबिलियत रखते हैं तो फिर इस काम के लिए कांग्रेस को काला जादू जैसा दुश्मन तलाशने की क्या जरूरत है ?

दो दशक में पहली बार ऐसा वक्त आया है जब कांग्रेस के पास बीजेपी को हराने का अच्छा मौका है. लगातार तीन दफे सत्ता की बागडोर संभालने वाले मौजूदा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए लोगों में कोई खास उत्साह का भाव नहीं है. मंदसौर में किसानों पर गोली चली, बेरोजगारी बढ़ी है, व्यापार-व्यवसाय ठहराव के शिकार हैं और बीएसपी के साथ गठबंधन होने के आसार मजबूत नजर आ रहे हैं. इन सारी बातों के कारण माहौल कांग्रेस के पक्ष में बनता दिख रहा है. लेकिन लगता है, पार्टी टेरेन्टिनो के रिजर्वॉयर डॉग्स की स्क्रिप्ट के हिसाब से काम कर रही है: आपसी विश्वास एक सिरे से गायब है और अंदरूनी तौर पर उठा-पटक करने वाले प्रतिद्वन्द्वियों को एकदम से खत्म कर देने की छुपी हुई हसरत जोर मार रही है.

कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का अलग तमाशा

सूबे के कांग्रेस महासचिव दीपक बवारिया पर जुलाई में कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने हमला किया था. बवारिया ने कहा था कि केवल कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया ही मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं. पार्टी के एक कद्दावर नेता अजय सिंह के समर्थक बवारिया की इस बात से भड़क उठे. दरअसल बवारिया ने अपनी बात रीवा में कही थी जहां अजय सिंह की स्थिति मजबूत है. कांग्रेस महासचिव का बयान उन्हीं पर भारी पड़ा, लोगों को एक भद्दा सा तमाशा देखना पड़ा कि महासचिव का कुर्ता फटा हुआ है और वे उसी दशा में बदहवास बाहर निकल रहे हैं.

इसके कुछ ही दिन बाद बवारिया के सामने कांग्रेस कार्यकर्ता एकबार फिर से आपस में भिड़ गए और बावरिया से कुछ करते ना बना. कांग्रेस कार्यकर्ताओं के शोर-शराबे और सिरफुटौव्वल से परेशान बवारिया ने उन्हें सलाह दी कि वे आरएसएस के अनुशासित कार्यकर्ताओं से सीख लें. उनके ऐसा कहने से कांग्रेस का मुंह मलिन हुआ और बीजेपी के चेहरे पर चमक आई.

बीजेपी के खेमे में जैसा जोश है उससे जमीनी स्तर पर निबट पाना कांग्रेस के लिए बहुत कठिन पड़ रहा है. जन आशीर्वाद यात्रा शुरू हो चुकी है और शिवराज सिंह चौहान की सभा में बड़ी संख्या में भीड़ जुट रही है. शिवराज सिंह चौहान आत्मविश्वास से लबरेज हैं और कांग्रेस पर पुरजोर ताकत से हमला बोल रहे हैं.

दूसरी तरफ कांग्रेस समय काटने में लगी है, संसाधनों की कमी के कारण वह लंबे समय तक खर्चीला चुनाव-अभियान जारी रख पाने के काबिल नहीं. उम्मीद जताई जा रही है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अगस्त के आखिर में मशहूर ओंकारेश्वर मंदिर से अपने अभियान की शुरुआत करेंगे. इसके पहले कांग्रेस के खेमे से बस यही संदेश निकलकर सामने आ रहा है कि धींगामुश्ती आपस में ही मची है और महत्वाकांक्षाओं के जोर में कांग्रेस के नेता एक-दूसरे से भिड़ रहे हैं. ऐसे में लोग-बाग एक-दूसरे से पूछने लगे हैं कि ये लोग आपस ही में लड़ने में लगे हैं तो फिर बीजेपी को पटखनी देने की कोई योजना कैसे बनाएंगे.

भैंस के आगे बीन बजाने गए, भैंस ने खदेड़ दिया

दरअसल कांग्रेस के कार्यकर्ता जब आपस में लड़ नहीं रहे होते तो ऐसे-ऐसे करतब कर दिखाते हैं कि वह मजाक का विषय बन जाए और लोगों की बरबस ही हंसी छूट निकले. एक मुहावरा है भैंस के आगे बीन बजाय-भैंस बैठी पगुराय. तो इसी मुहावरे से प्रेरित होकर रविवार के रोज कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने यह जताने के लिए कि शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने सूबे की समस्या से मुंह फेर रखा है, एक विरोध प्रदर्शन करने की ठानी और देवास (इंदौर और भोपाल के बीच की जगह) में वे सचमुच ही भैंस ले आए, बांसुरी भी आई ताकि मतदाताओं के गुस्से का इजहार किया जा सके. अब बदकिस्मत कहिए कि विरोध-प्रदर्शन के तमाशे को कामयाब बनाने का दारोमदार जिस नायिका यानी की भैंस पर था वह ऐन वक्त पर भड़क उठी और उसने कुछ कांग्रेस कार्यकर्ताओं को खदेड़ दौड़ाया और इस तरह नवंबर-दिसंबर में होने जा रहे चुनावी मुकाबले में उतरने से पहले ही कांग्रेस के कार्यकर्ता मैदान से बिदके घोड़े बनते नजर आए.

कांग्रेस के भितरखाने बतकही ये चल रही है कि बीएसपी, शरद यादव की अगुवाई वाले जेडी(यू), एसपी और एनसीपी के साथ महागठबंधन बनाकर बीजेपी को पटखनी दी जाए. इन दलों के नेताओं को यकीन है कि चुनाव की घोषणा होने के पहले महागठबंधन बन जाएगा. लेकिन महागठबंधन बनाने का मंसूबा अभी दूर की कौड़ी लग रहा है क्योंकि पार्टी के अलग-अलग गुट अभी आपस में ही लड़ने-भिड़ने में लगे हैं.

जादू-टोना भगाने के लिए सिंधिया भले ही नींबू और मिर्च की माला पहनकर घूमते नजर आए लेकिन चुनाव जीतने के लिए दरअसल उन्हें दबंग फिल्म के लोकप्रिय ‘आइटम सॉन्ग’ का वीडियो देखना चाहिए ताकि याद रहे कि पार्टी को आपस में जोड़ने की जरूरत है. जी हां, गीत की तर्ज पर कहें तो- फेविकोल से.

EC ने कानून ओर संविधान का हवाला दे कर एक साथ दोनों चुनावों में अपनी असमर्थता जताई


मुख्य चुनाव आयुक्त ओ पी रावत ने एक साथ चुनाव नहीं करवाने के लिए वीवीपैट मशीनों की कमी का हवाला दिया. साथ ही कहा कि इस फैसले को काफी मजबूती से इसे लागू करना होगा


देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव अभी एक साथ नहीं कराए जाएंगे। मुख्य चुनाव आयुक्त ओ पी रावत ने कहा कि एक साथ चुनाव कराने के लिए कानूनी और संवैधानिक बदलाव करने जरुरी हैं. उन्होंने कहा कि इसके लिए जनप्रतिनिधि कानून को बदलना होगा. इन बदलावों के बाद ही देश में एक साथ चुनाव संभव हैं.

उन्होंने एक साथ चुनाव नहीं करवाने के लिए पर्याप्त संख्या में वीवीपैट मशीनों की कमी का भी हवाला दिया. उन्होंने यह भी कहा कि इस फैसले (एक साथ चुनाव करवाने) को काफी मजबूती से इसे लागू करना होगा.

सोमवार को सूत्रों के हवाले से यह खबर आई थी कि केंद्र सरकार अगले साल होने वाले आम चुनाव के साथ-साथ देश के 11 राज्यों में भी विधानसभा चुनाव करवा सकती है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लंबे समय से लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की बात पर जोर देते रहे हैं. उनके मुताबिक इससे न सिर्फ ऊर्जा और समय की बचत होगी बल्कि देश हमेशा रहने वाले चुनावी मूड से भी बाहर निकलेगा.


बस यूँ ही पूछ लिया,

भाई, साहब को यह तो नहीं लग रहा की मोदी राज़ के दिन गए?

EC, बहाने भी बनाता है नहीं मालूम था। 

ॐ माथुर, मेनका और वरुण की अनुपस्थिति कहती है की सब कुछ ठीक नहीं है

 

लखनऊ।

2019 के लोकसभा चुनाव की रणनीति के लिए मेरठ में दो दिनों तक बीजेपी प्रदेश कार्यसमिति की बैठक चली। इसमें राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और सीएम योगी आदित्यानाथ सहित प्रदेश के सारे दिग्गज नेता शामिल हुए, लेकिन बीजेपी के तीन बड़े चेहरे इस बैठक में शामिल नहीं हुए, जिन्हें लेकर सवाल उठने लगे हैं। मोदी सरकार में महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी, सुल्तानपुर से सांसद वरुण गांधी और यूपी के प्रभारी ओम माथुर के नदारद रहने पर सियासी गलियारों में सुगबुगाहट तेज हो गई है। बता दें कि इस बैठक के पहले से बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और यूपी प्रभारी ओम माथूर किसी भी कार्यक्रम में नजर नहीं आ रहे हैं. इन नेताओं के शामिल न होने के राजनीतिक मायने निकाले जाने लगे हैं. यूपी बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष डा. महेंद्र नाथ पांडेय नेने बताया कि मेनका गांधी और वरुण गांधी ने हमें पहले सूचित किया था कि उनको व्यक्तिगत कार्यों से यूपी के बाहर जाना है। इसी कारण दोनों लोग बैठक में शामिल नहीं हो पाए।

नेताओं के बैठक में शामिल नहीं होने के सवाल पर समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम ने बताया कि मीडिया के माध्यम से ही सूचना मिलती है कि वरुण गांधी को लेकर पार्टी में कुछ ठीक नहीं चल रहा है। वहीं प्रदेश अध्यक्ष ने दावा किया कि 2019 के चुनाव में बीजेपी का उत्तर प्रदेश से सफाया हो जाएगा क्योंकि इन लोगों का भंड़ाफोड़ हो चुका है। उन्होंने कहा कि यूपी की जनता सब समझ चुकी है, जिसका जवाब आगामी 2019 के लोकसभा चुनाव में देगी। बीजेपी पर हमला बोलते हुए यूपी कांग्रेस के प्रवक्ता हिलाल नकवी ने दावा करते हुए कहा, 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश में एक बड़ी टूट होनी है। नकवी ने कहा कि वरुण गांधी और मेनका गांधी का नाम तो जग जाहिर है। इसके अलावा अपना दल और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी से गठबंधन तोड़ सकते हैं। हिलाल नकवी ने बताया कि ये बीजेपी के टूट की शुरुआत है क्योंकि इनके लोगों को अब मालूम हो चुका है कि 2019 में दोबारा देश में मोदी की सरकार बनने वाली नहीं है।

इससे पहले विधानसभा चुनाव में भी वरुण ने खुद को पार्टी के प्रचार से अलग रखा था। बीजेपी ने भी उन्हें ज्यादा तवज्जो नहीं दी थी। इसके बाद से ही वरुण गांधी यूपी में बीजेपी के किसी मंच पर दिखाई नहीं दिए। वरुण गांधी के साथ-साथ क्या उनकी मां मेनका गांधी भी पार्टी से नाराज है? ऐसे में मेनका गांधी के मेरठ की प्रदेश कार्यकारिणी में शामिल न होने से कई सवाल खड़े हो रहे हैं। वरुण को पार्टी में साइडलाइन किए जाने के चलते उनके अंदर भी नाराजगी है या फिर कोई और वजह है?

यूपी प्रभारी ओम माथुर अब यूपी के किसी कार्यक्रम में दिखाई नहीं देते हैं। बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से वे काफी कम दिखाई दे रहे हैं। कहा जा रहा है कि यूपी की नीतियां हो या संगठन का कामकाज, नजरअंदाज किए जाने से ओम माथुर आहत हैं और वे खुद यूपी प्रभारी का पद छोड़ने की पेशकश कर चुके हैं।

जवाबी गोलीबारी में पाक की संतरी पोस्ट और 2 जवान ढेर

 

श्रीनगर : उत्तरी कश्मीर के टंगडार(कुपवाड़ा) सेक्टर में भारतीय जवानों ने मंगलवार को पाकिस्तानी सेना द्वारा किए गए संघर्ष विराम के उल्लंघन का मुहतोड़ जवाब दिया है. सेना पाकिस्तान की अग्रिम निगरानी चौकी को तबाह कर दिया है. साथ ही उसके दो सैनिकों को भी मार गिराया है.

जानकारी के अनुसार, पाकिस्तानी सैनिकों ने मंगलवार सवा सात बजे के करीब टंगडार सेक्टर में एलओसी के साथ सटी भारतीय सेना की अनिल, चेतक और ब्लैक रॉक चौकियों व उनके दायरे में आने वाली अग्रिम नागरिक बस्तियों को निशाना बनाते हुए हलके और मध्यम दर्जे के हथियारों से निशाना बनाया.

शुरू के 15 मिनट तक भारतीय जवानों ने इसे महज उकसावे की कार्रवाई मानकर संयम रखा. लेकिन जब गोलाबारी की तीव्रता बढ़ी और गोले नागरिक  बस्तियों में गिरने लगे तो भारतीय जवानों ने भी जवाबी कार्रवाई की. अधिकारियों ने बताया कि आठ से नौ बजे के बीच दोनों  तरफ से भीषण गोलाबारी हुई.

इस दौरान भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना की एक अग्रिम निगरानी चौक जिसे संतरी पोस्ट कहा जाता है, को तबाह कर दिया है. रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता  राजेश कालिया ने जवाबी कार्रवाई में पाकिस्तानी सेना की एक निगरानी चौकी तबाह होने और दो पाकिस्तानी सैनिकों के मारे जाने की पुष्टि की है. फ़िलहाल दोनों तरफ से एक दूसरे के ठिकानों पर रुक-रुककर गोलीबारी जारी है. टंगडार सेक्टर में भारतीय सैन्य और नागरिक ठिकानों को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचा है.