खेहरा को कांग्रेस के आदेश पर हटाया गया : बेंस
पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व पंजाब में रिमोट कंट्रोल के जरिए सियासी गतिविधियां चलाने पर आमादा है
केजरीवाल के कट्टर समर्थकों और केजरीवाल के तौर-तरीकों वाली सियासत को नापसंद करने वालों के बीच एक जंग छिड़ गई है
आप के भीतर चलने वाली उठापटक बहुत निराश करने वाली है. पिछले उपचुनावों में पार्टी को बहुत कम वोट मिले जिससे जाहिर हो चुका है लोगों का पार्टी से मोहभंग हो रहा है
दिल्ली में भारी-भरकम जीत दर्ज करने बाद आम आदमी पार्टी के लिए सबसे अच्छा मौका पंजाब में था जहां मतदाता कांग्रेस, शिरोमणि अकाली दल और उसके सहयोगी बीजेपी की अदल-बदलकर बनती सरकारों से परे किसी और विकल्प की तलाश में था. साल 2014 में जब मोदी की लहर अपने चरम उफान पर थी तो अरविंद केजरीवाल की पार्टी को देश में बाकी जगहों पर कोई सीट हाथ नहीं लगी लेकिन पंजाब में मतदाताओं ने पार्टी के सभी चार सांसदों को जीत दिलाई.
लेकिन इसके बाद से पंजाब में आम आदमी पार्टी के लिए सियासी सफर ढलान का रहा है और पार्टी ने खुद के पाले में ही कई गोल मार लिए हैं. दिल्ली में पार्टी के नेतृत्व की तरफ से सूबे की इकाई को अपने अंकुश में रखने की लगातार कोशिश हुई और इस कोशिश की प्रतिक्रिया के नतीजे में पार्टी के कई विधायकों ने खुलेआम बगावत का बिगुल फूंक दिया.
सुखपाल सिंह खैरा को बेढंगे तरीके से हटाने से शुरू हुआ संकट
सूबे में पार्टी फिलहाल नए संकट से जूझ रही है. इसकी शुरुआत पंजाब विधानसभा में पार्टी के नेता सुखपाल सिंह खैरा को उनके पद से बेढंगे तरीके से हटाने से हुई. खैरा की पहचान एक जुझारू नेता के रूप में है. वे सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ भी डटकर खड़े हुए हैं और उन्होंने अपनी पार्टी के नेताओं से भी लोहा लिया है. आम आदमी पार्टी पंजाब विधानसभा की विपक्ष की बेंच पर सबसे बड़ी तादाद वाली पार्टी है और विपक्ष के नेता का ओहदा कैबिनेट रैंक का होता है. इस ओहदे से खैरा को पार्टी के पंजाब प्रभारी मनीष सिसोदिया ने ट्विटर के जरिए हटाया और ऐसा करना आग में घी डालने के समान साबित हुआ.
ट्विटर पर जारी संदेश में मात्र इतना कहा गया था कि पार्टी के एक दलित विधायक हरपाल सिंह चीमा को सदन में विपक्ष के नेता के रूप में नियुक्त किया गया है. लेकिन लोकतांत्रिक तरीका तो यही है कि विधायक दल का नेता किसी पार्टी के निर्वाचित विधायक मिल-बैठकर चुनें. लेकिन इस मामले में हुआ यह है कि विधायकों को वॉट्सऐप और ईमेल के जरिए पार्टी ने सूचित भर कर दिया कि उनका नेता किसे बनाया गया है.
अचरज नहीं कि इससे सूबे की पार्टी इकाई में तूफान मच गया और पार्टी के नेता जो सूबे की पार्टी इकाई पर थोपे जा रहे मनमाने फैसले से अपमान झेल रहे थे, बगावत के झंडे लेकर उठ खड़े हुए. हालांकि खैरा और उनके समर्थकों का दावा था कि पार्टी के 20 विधायकों में से ज्यादातर विधायक इंसाफ की मांग करते हुए रैली में शामिल होंगे लेकिन रैली में शामिल हुए केवल सात विधायक. मगर इससे यह साबित नहीं होता कि बाकी विधायक केंद्रीय नेतृत्व के रवैये से संतुष्ट या खुश हैं. इससे इतना ही भर पता चलता है कि तनातनी को कम करने की कोशिशें की गईं. बगावत का बिगुल फूंकने वाले विधायकों ने हालांकि सूबे की पार्टी इकाई को केंद्रीय नेतृत्व से स्वायत्त घोषित कर दिया है लेकिन उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई है.
सूबे में रिमोट कंट्रोल से पार्टी को चलाना चाहता है शीर्ष नेतृत्व
हैरत और अफसोस की बात यह है कि पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व पंजाब में रिमोट कंट्रोल के जरिए सियासी गतिविधियां चलाने पर आमादा है और सूबे में पार्टी के नेताओं की लगातार बेइज्जती कर रहा है.
पार्टी ने जिस तरीके से सूबे में अपने एक संस्थापक सदस्य और बाद के वक्त में प्रदेश में पार्टी इकाई के प्रमुख रहे सुच्चा सिंह छोटेपुर को भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर हटाया या फिर जिस तरीके से सूबे के बाहर के व्यक्ति को विधानसभा चुनावों के वक्त उम्मीदवारों के चयन की जिम्मेदारी दी गई और फिर पार्टी के चार सांसदों में से दो को निलंबित किया गया, वह सब जाहिर करता है कि पार्टी एक के बाद एक संकट के भंवर में फंसते जा रही है.
लेकिन एक वक्त वो भी था जब माना जा रहा था कि यह पार्टी प्रदेश के चुनावों में जीत दर्ज करेगी. विधानसभा चुनावों के लिए बाकी पार्टियों की शुरुआती तैयारी के बहुत पहले से आम आदमी पार्टी ने पूरे तरतीब से अपनी तैयारियां शुरू कर दी थीं. पार्टी हर मतदान केंद्र के लिए समिति बनाने में कामयाब रही और ग्रामीण इलाकों में समर्थन जुटाने के लिए खूब जोर-शोर से काम किया. जो पंजाबवासी विदेशों में रह रहे हैं, उनका भी पार्टी को सहयोग और समर्थन मिला लेकिन केंद्रीय नेतृत्व ने सूबे में पार्टी के नेताओं के साथ अपने बरताव में जिस तरह का रवैया अख्तियार किया उससे पार्टी का समर्थन घटने लगा. यही कारण रहा जो विधानसभा चुनावों में पार्टी को अपेक्षा से कम सीटें मिलीं, फिर भी पार्टी प्रदेश में सीटों के मामले में दूसरे नंबर पर रही.
पार्टी का मनमाना फैसला पार्टी को स्थाई नुकसान पहुंचा सकता है
पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने पिछले वक्तों में लिए गए मनमाने फैसलों से कोई सबक नहीं सीखा और अभी जो फैसला लिया गया है वह सूबे में पार्टी के भविष्य को स्थाई नुकसान पहुंचाने वाला साबित हो सकता है.
पार्टी का बहुत ज्यादा जोर सोशल मीडिया के उपयोग पर है और घोषणाएं जारी करने के लिए पार्टी ने सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स का इस्तेमाल जारी रखा है. मौजूदा संकट को लेकर पार्टी ने सोशल मीडिया के सहारे ही अपनी प्रतिक्रिया जताई है और एक ट्वीट के जरिए कहा है कि ‘चाहे वे लोग जितना भी जोर लगा लें लेकिन एक बात बिल्कुल साफ है कि ‘आप’ की ताकत उसके स्वयंसेवक हैं और इसी तरह हर स्वयंसेवक का सिर्फ एक ही हीरो है यानी अरविंद केजरीवाल. कोई भी स्वयंसेवक ऐसे व्यक्ति को पसंद नहीं करेगा जो अरविंद केजरीवाल और उनकी सेना के बीच कायम भावनात्मक रिश्ते को तोड़ने का काम करे.’
यह आधिकारिक ट्वीट पार्टी नेतृत्व के तानाशाही रवैए का संकेत करता है जबकि पार्टी नेतृत्व कांग्रेस और अकाली दल के विरोध में हमेशा यही कहती आई है कि उनका रवैया तानाशाही भरा है.
सोशल मीडिया पर केजरीवाल के कट्टर समर्थकों और केजरीवाल के तौर-तरीकों वाली सियासत को नापसंद करने वालों के बीच एक जंग छिड़ गई है. जहां तक पंजाब का सवाल है, आम आदमी पार्टी के भीतर चलने वाली उठापटक बहुत निराश करने वाली है. शाहकोट की विधानसभा सीट और गुरदासपुर में लोकसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में पार्टी को बहुत कम वोट मिले जिससे जाहिर हो चुका है लोगों का पार्टी से मोहभंग हो रहा है. अगर एक मजबूत और भरोसेमंद विकल्प बनकर उभरना है तो पार्टी को पंजाब में अपने को नए सिरे से गढ़ना होगा.