कुछ बड़ा करना चाहते हैं तो सपने देखने होंगे और सपनों को साकार करने के लिए स्वयं पर भरोसा करना होगा मानना है मेरुश्री का जोकि अपने करियर के साथ साथ अभिरुचि को भी तरजीह देती हैं।
अपने जीवन की आपाधापी में करियर को आकार देने में अक्सर इतने व्यस्त हो जाते हैं कि रुचि को पूरी तरह से नजरअंदाज करके खुद को जीविका कमाने में झोंक देते हैं; फिर एक दिन एहसास होता है कि कुछ पीछे छूट से गया परन्तु तब तक समय की खाई इतनी चौड़ी हो गई जान पड़ती है उसको लांघ पाना भले ही नामुमकिन नहीं लेकिन मुश्किल जरूर दिखाई देता है।
मेरुश्री के साथ भी ऐसे ही कुछ हो सकता था, लेकिन टाइमलाइन सबकी अपनी अपनी होती है , मेरुश्री जो कि यूके में पढ़तीं हैं परीक्षा के बाद घर पंचकूला आई तो लॉक डाउन की वजह से कई महीने यही रुकना पड़ा तो समय काटने के लिए बेकिंग की रूचि की ओर ध्यान दिया तो पता चला कि वह इस काम में दक्ष हैं। पहले मित्रों रिश्तेदारों के जन्मदिन के लिए बेकिंग की , फिर शौक़ शौक़ में अस्सोर्टेड केक्स डिजाइनर केक थीम बेकिंग करनी शुरू की। बाकी यंगस्टर्स की तरह इन्होंने सोशल मीडिया पर अपनी क्रिएटिविटी अपलोड की जिसे लोगों ने बहुत पसंद किया और बहुत से ऑनलाइन बेकिंग क्लासेस के लिए मेरु श्री को संपर्क किया। हालांकि मेरुश्री ने अभी व्यवसाय शुरू नहीं किया है लेकिन अपनी लोकप्रियता के चलते अपने फैंस की खुशी के लिए बेकिंग करने और उनको सिखाने में उनका दिन कैसे बीता है उन्हें पता ही नहीं चलता।
उन्नीस वर्षीय मेरुश्री बताती हैं कि उनके पिता संजीव बबूता जो कि रियल स्टेट व्यवसाई है और मां मोनिका बबूता, उनके कार्य की सराहना करते हैं। मम्मा मोनिका तो बेकिंग के दौरान पास रहती है ताकि जरूरत पड़ने पर मदद कर सकें। मेरु बतातीं हैं कि उनका छोटा भाई माहिर एक ‘फूड क्रिटिक'(Food Critic) कि तरह उनके काम में कमी पेशी निकालता रहता है। वह उनके द्वारा बनाए गए केक पेस्ट्रिज आदि चख आर उनमें कमी – पेशी के बारे में अवगत करवाता रहता है।
अपने करियर के बारे में जहां पूर्णतया सजग हैं मेरुश्री वही अपनी रुचि को भी साथ लेकर चलना चाहती है।
https://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2021/01/be3476bf-dc5b-44be-8f59-9d0d2bdafcbc.jpg960482Demokratic Front Bureauhttps://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2018/05/LogoMakr_7bb8CP.pngDemokratic Front Bureau2021-01-10 07:14:342021-01-10 07:35:41सपने पूरे करने के लिए स्वयं पर भरोसा आवश्यक
रंजीता मेहता भाजपा में शामिल होने से हरियाणा नेतृत्व को अधिक मेहनत और अपनी नीतियों में बदलाव पड़ सकता है। रंजीता का यह कदम निगम चुनावों में कांग्रेस के लिए घातक साबित हो सकता है। घाव पर घाव लगने के कारण आहत हुई रंजीता को कल मुख्यमंत्री लाल खट्टर ने उनके आवास पर पहुंचकर रंजीता को भाजपा में शामिल किया।
सारिका तिवारी, पंचकुला:
महिला कांग्रेस की राष्ट्रीय संयोजक और कांग्रेस की बेबाक प्रवक्ता रहीं रंजीता पंचकूला में एक अपना अहम स्थान रखती हैं। उनके समर्थक हमेशा से ही पंचकूला में निर्णायक मतदाता रहे हैं ।रंजीता की शहर की कॉलोनियों में अच्छी पकड़ है परंतु कांग्रेस की नजर में रंजीता क्यों हम नहीं इसका जवाब तो पार्टी नेतृत्व ही दे सकता है । लेकिन अटकलें लगाई जा रही हैं कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष शैलजा से रंजीता कि कभी नहीं पटी विधानसभा चुनाव में भी टिकट के आवंटन के समय शैलजा ने खुला विरोध किया। पंचकूला की दो नेत्रियों नाम सूची में सबसे ऊपर थे। अंजली बंसल के अशोक तवर गट के होने की वजह से खारिज कर दिया गया और रंजीता को आशा की किरण दिखने लगी परन्तु ऐन समय पर चंद्रमोहन को टिकट दे दी गई सुनने में आया कि रंजीता के नाम का सबसे ज्यादा विरोध शैलजा ने किया था । इस तरह पहले अंजली बंसल फिर रंजीता जैसी नेत्रियों को नजरअंदाज कर हरियाणा कांग्रेस पंचकूला में इस बार फिर कहीं अपने पर कुल्हाड़ी ना मार ले।
चर्चा है कि भाजपा और संघ के कई लोग पिछले काफी समय से रंजीता के संपर्क में है रंजीता ने फिर से पार्टी को एक और मौका दिया कि पिछली गल्तियों को सुधार सके लेकिन मेयर पद के लिए दावेदार रंजीता कांग्रेस से विमुख हो ही गई कांग्रेस को ‘बच्चेखानी पार्टी’ तक कह दिया पार्टी के कुछ अंदरूनी सूत्र फुसफुसाहट करते सुनाई दिए कि शैलजा, विवेक की बजाय अपने अहम को आगे रखती हैं, इसी वजह से कांग्रेस को पंचकूला विधानसभा की लगभग जीती जिताई सीट से मात्र पचपन सौ के अंतर से हाथ धोना पड़ा। टिकट के तीनों महिला दावेदार पार्टी से अंजली बंसल तो पार्टी भाजपा में शामिल हो गईं रंजीता ने भी चुनाव प्रचार में अपने आप को पीछे ही रखा और उपेंद्र आहलूवालिया भी कहीं नहीं नजर आई और चंद्रमोहन को हार का मुंह देखना पड़ा इस बार महापौर पद के लिए उपेंद्र आहलूवालिया को चुना गया जबकि रंजीता मेहता को फिर से पूरी तरह नजरअंदाज कर एक तरफ कर दिया गया, यहां तक की रंजिता को मेनिफेस्टो कमेटी में भी शामिल नहीं किया गया जबकि इसमें कालका और पंचकूला के नामी कांग्रेसी इसमें शामिल हैं।
सुनने में आ रहा है शैलजा और रणदीप सुरजेवाला ने पंचकूला में संतुलन बनाने का प्रयास किया है। शैलजा और रणदीप सुरजेवाला नगर निगम चुनाव में पूरी तरह से सक्रिय हैं और वार्ड वार्ड जाकर वोट मांग रहे हैं अब देखना यह है के क्या यह दिग्गज पंचकूला के मतदाताओं को प्रभावित कर पाएंगे।
गुटबाजी के चलते हरियाणा कांग्रेस तो इस तरह के जोखिम अक्सर उठाती रहती है इससे पहले सुमित्रा चौहान को भी गंवा चुकी है।
https://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2020/12/Ranjeeta-Mehta.jpg374638Demokratic Front Bureauhttps://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2018/05/LogoMakr_7bb8CP.pngDemokratic Front Bureau2020-12-25 14:30:022020-12-25 14:32:24महापौर पद की कुर्सी और उपेंद्र आहलूवालिया के बीच की दूरी कुछ और बढ़ गई है
‘अन्नदाता आंदोलन’ में शरजील इमाम की आमद के बाद आंदोलन की नियत स्पष्ट होती नज़र आ रही है। आंदोलनकारी युवा किसान हों या समझदार किसान नेता टिकैत सभी इस टुकड़े – टुकड़े गिरोह के नए झंडाबरदार हैं जो देश के टुकड़े चाहने वाले लोगों को न केवल अपना आदर्श मानते हैं अपितु उनके लिए पीड़ित भी हैं। उन्हे जेल में देख इनका दिल भर आता है, और ‘आंदोलनकारी अन्नदाता’ इन देश द्रोह के आरोपियों की न केवल रिहाई की मांग करता है अपितु उन पर दर्ज़ हुए मुकद्दमों को भी खारिज करने की बात करता है। ‘आंदोलनकारी अन्नदाता’ को क्रिकेटर युवराज सिंह के पिता योगराज सिंह के बयान से भी कोई आपत्ति नहीं है चाहे इस आंदोलन में लगभग 65% हिन्दू किसान ही हैं। भारत की पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमति इन्दिरा गांधी के हत्यारे होने का दंभ पाले हुए अन्नदाता अब वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी ठोक देने की बात करते हुए तनिक भी नहीं घबराता है। क्या यह वाकयी किसान आंदोलन है, क्या यह वाकयी अन्नदाता हैं?
नयी दिल्ली:
एक तरफ दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसानों से केंद्र सरकार लगातार संवाद कर रही है, दूसरी ओर इस ‘आंदोलन’ से लगातार ऐसी तस्वीर सामने आ रही हैं जो इसके असल मंशा पर लगातार सवाल उठाते रहे हैं। चाहे वह खालिस्तानी ताकतों की घुसपैठ हो या फिर उमर खालिद और शरजील इमाम के लिए ताजा-ताजा दिखा समर्थन।
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में किसानों के नाम पर क्या हो रहा है? ये किसी से नहीं छिपा है। कुछ ऐसा ही ठीक एक साल पहले हुआ था। पिछले साल शाहीन बाग में सीएए विरोध के नाम पर इसी तरह समुदाय विशेष के लोगों का जमावड़ा हुआ था। तब भी दिल्ली की सड़कों को लोकतंत्र के नाम पर ब्लॉक किया गया था और इस बार भी हाल कुछ यही है।
अंतर यदि है तो बस ये कि पिछले साल दिल्ली में हुए प्रदर्शन कट्टरपंथ की जमीन पर भड़के थे। मगर, इस बार सारा खेल राजनैतिक पार्टियों का है। ‘मासूम’ किसानों को ऐसे कानून के ऊपर विपक्षी पार्टियों द्वारा बरगलाया जा रहा है जिसमें निहित प्रावधानों को लागू करने की घोषणाएँ वह एक समय में खुद कर चुके हैं। स्थिति ये है कि धरने पर बैठा कोई शख्स सरकार की सुनने को बिलकुल राजी नहीं है, वह सिर्फ एक माँग पर अड़े हैं कि कानून को निरस्त किया जाए।
मगर अब धीरे-धीरे यह प्रदर्शन राजनीति से प्रेरित लगने से ज्यादा खतरे की घंटी नजर आने लगा है। वही खतरे की घंटे जिसे शाहीन बाग के दौरान हम नजरअंदाज करते रहे और अंत में उसका भीषण रूप हमें उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए हिंदू विरोधी दंगों के रूप में देखने को मिला।
आज किसानों के प्रोटेस्ट में प्रदर्शनकारियों के हाथ में शरजील इमाम और उमर खालिद जैसे तमाम आरोपितों की तस्वीर थी। जाहिर है किसानों के इस प्रदर्शन से इनका कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन तब भी इन पोस्टरों के साथ आई प्रदर्शन की तस्वीर इस ओर इशारा करती है कि शाहीन बाग का वामपंथी-कट्टरपंथी गिरोह सक्रिय है।
प्रश्न उठता है कि बिना वजह आखिर कोई किसान महिला अपने प्रदर्शन में उस शरजील इमाम को रिहा क्यों करवाना चाहेगी जो अपने भाषण में असम को भारत से काटने की बात कह रहा था? इन महिलाओं को क्या मतलब है उस उमर खालिद से जो ट्रंप के आने पर दिल्ली में दंगे करवाना चाहता था और उसके लिए पहले से गुपचुप ढंग से बैठकें कर रहा था? जाकिर नाइक से मिलने वाले खालिद सैफी से आखिर किसान प्रदर्शन का क्या लेना-देना? अर्बन नक्सलियों से कृषि कानून का क्या संबंध?
आज सामने आई तस्वीर ने साफ कर दिया कि पिछले दिनों इस प्रदर्शन की मंशा पर उठे सवाल निराधार नहीं थे। खालिस्तानियों का समर्थन पाकर भी इस पर कोई स्पष्टीकरण न देने वाले किसान नेता अब रेलवे ट्रैक्स को ब्लॉक करने की धमकियाँ तक दे चुके हैं। पिछले दिनों इसी प्रोटेस्ट के मंच से युवराज सिंह के पिता योगराज सिंह ने हिंदुओं के ख़िलाफ़ जहर उगला था।
योगराज ने खुलेआम कहा था, “जिस सरकार की आप बात कर रहे हैं केंद्र की, आपको पता है कि ये कौन हैं? ये वही हैं, जो अपनी बेटियों की डोली हाथ जोड़ कर मुगलों के हवाले कर देते थे।” योगराज के शब्द थे:
इसके अलावा हमारे तथाकथित अन्नदाताओं ने अपनी माँगे मनवाने के लिए खुलेआम पिछले दिनों मीडिया के सामने ये तक कह दिया था कि इंदिरा को ठोका, मोदी को भी ठोक देंगे।
क्या संवैधानिक ढंग से हो रहे किसी प्रदर्शन में ऐसी बातें निकल कर सामने आती हैं? योगराज के हिंदू घृणा से भरे बयान पर कोई स्पष्टीकरण नहीं आया। इंदिरा ठोक दी वाले बयान पर किसी ने मलाल नहीं किया। इसके बदले सरकार को अलग से धमकाया जा रहा है कि ट्रैक ब्लॉक होंगे।
आजादी संग्राम में सिखों के बलिदान को आज कोई नहीं भुला रहा, कोई इस बात से इंकार नहीं कर रहा कि हिंदुओं के परेशानी के समय में सिख हमेशा उनके साथ रहे, कोई उनकी बहादुरी को नहीं ललकार रहा, लेकिन आप अपने विवेक पर फैसला कीजिए कि आखिर आज प्रदर्शन में शामिल किसान यूनियन के लोग सरकार की बातें सुनने को तैयार नहीं है। क्यों जिद पर अड़े हैं। क्यों बताया जा रहा है कि पहले से वह लोग 4 महीने का राशन लेकर आए हैं?
किसान आंदोलन में उमर खालिद और शरजील इमाम के पोस्टर का पहुँचना बताता है कि मुद्दों के नाम दिल्ली वालों को एक बार फिर भटकाया जा रहा है। शाहीन बाग के छद्म एजेंडे के बेनकाब होने के बाद अब वही ताकतें कृषि कानून के विरोध नाम रोटी सेंकने की कोशिश में हैं। प्रदर्शनों पर, गुरुद्वारों पर नमाज पढ़ने के लिए समुदाय विशेष को जगह देख कर नया प्रोपेगेंडा फैलाया जा रहा है।
साभार : जयन्ती मिश्रा
https://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2020/12/navbharat-times.jpg405540Demokratic Front Bureauhttps://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2018/05/LogoMakr_7bb8CP.pngDemokratic Front Bureau2020-12-11 06:02:432020-12-11 06:09:18जो देश को ही ‘खाना’ चाहे वह ‘अन्नदाता’ नहीं हो सकता
नीम भले ही स्वाद में कड़वी हो लेकिन आययुर्वेद में नीम की पत्तियों से लेकर छाल, तने, लकड़ी और सींक तक का इस्तेमाल कई बीमारियों के इलाज में किया जाता है। एंटी-बैक्टीरियल और एंटी-फंगल गुणों से भरपूर नीम मुंहासे, झड़ते बाल, खाज-खुजली, एक्जिमा जैसी प्रॉब्लम्स के लिए बहुत कारगार है। अगर आप रोजाना खाली पेट 5-6 नीम की पत्तियां चबा लें तो कई बीमारियां आपके शरीर को छू भी नहीं पाएंगी। चलिए आज हम आपको बताते हैं कि खाली पेट नीम की पत्तियां चबाने से क्या-क्या फायदे मिलते हैं…
नीम की तासीर
नीम की तासीर ठंडी होती है इसलिए गर्मियों में इसका सेवन बहुत फायदेमंद होता है। सर्दियों में भी इसका सेवन कर सकते हैं लेकिन कम मात्रा में।
चलिए अब आपको बताते हैं नीम की पत्तियां चबाने के फायदे…
इम्यूनिटी बढ़ाए
कोरोना काल के चलते इस समय लोगों के लिए इम्यूनिटी बढ़ाए रखना बहुत जरूरी है। ऐसे में महंगी दवा, सप्लीमेंट्स की बजाए आप खाली पेट नीम की पत्तियां चबाएं। इससे ना सिर्फ इम्यून सिस्टम मजबूत होगा बल्कि वो अच्छा रिस्पॉन्स भी करेगा। साथ ही इससे शरीर को वायरस, बैक्टीरिया, फंगस से लड़ने में भी मदद मिलेगी।
एंटी-बैक्टीरियल गुणों से भरपूर
नीम की पत्तियों में एंटी-फंगल, एंटी-बैक्टीरियल, एंटी-इंफ्लेमेट्री, एंटी-ऑक्सीडेंट गुण होते हैं, जो शरीर को कई बीमारियों से बचाने में मदद करते हैं।
खून को करे साफ
नीम में रक्त शोधक (Blood Purifier) गुण होते हैं, जिससे खून में मौजूद सभी अशुद्धियां व अपशिष्ट पदार्थ निकल जाते हैं। साथ ही सुबह नीम की पत्तियां चबाने से खून गाढ़ा होने की समस्या भी नहीं होती। नियमित इसका सेवन आपके शरीर को टॉक्सिन फ्री रखता है।
कैंसर से बचाव
इसमें एंटीऑक्सीडेंट्स गुण होते हैं, जो शरीर में कैंसर सेल्स को बढ़ने से पहले ही खत्म कर देते हैं। शोध के अनुसार, नीम के बीज, पत्ते, फूल और अर्क, ग्रीवा और प्रोस्टेट कैंसर से बचाव करते हैं।
डायबिटीज का खतरा घटाए
डायबिटीज मरीज हैं तो रोजाना नीम की पत्तियां जरूर चबाएं। इससे ब्लड शुगर लेवल कंट्रोल रहता है। आप चाहे तो इसका जूस भी पी सकते हैं। अगर आपको यह बीमारी नहीं भी है तो भी इसका सेवन भविष्य में आपको इस खतरे से बचाएगा।
गठिया का अचूक इलाज
रोजाना इसका सेवन गठिया, जोड़ों में दर्द की समस्या भी नहीं होने देता। आर्थराइटिस, गठिया व जोड़ों के दर्द
https://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2020/12/नीम.jpg526700Demokratic Front Bureauhttps://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2018/05/LogoMakr_7bb8CP.pngDemokratic Front Bureau2020-12-10 01:44:172020-12-10 01:45:13कई रोगों का हकीम, सिर्फ नीम
2018 में विधि आयोग की बैठक में भाजपा और कांग्रेस ने इससे दूरी बनाए रखी. कॉंग्रेस का विरोध तो जग जाहिर है लेकिन भाजपा की इस मुद्दे पर चुप्पी समझ से परे है. 2018 में ऐसा क्या था कि प्रधानमंत्री मोदी की अध्यक्षता वाली भाजपा तटस्थ रही और आज मोदी इसका हर जगह इसका प्रचार प्रसार कर रहे हैं? 1999 में तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान विधि आयोग ने इस मसले पर एक रिपोर्ट सौंपी। आयोग ने अपनी सिफारिशों में कहा कि अगर किसी सरकार के खिलाफ विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव लेकर आता है तो उसी समय उसे दूसरी वैकल्पिक सरकार के पक्ष में विश्वास प्रस्ताव भी देना सुनिश्चित किया जाए। 2018 में विधि आयोग ने इस मसले पर एक सर्वदलीय बैठक भी बुलाई जिसमें कुछ राजनीतिक दलों ने इस प्रणाली का समर्थन किया तो कुछ ने विरोध। कुछ राजनीतिक दलों का इस विषय पर तटस्थ रुख रहा। भारत में चुनाव को ‘लोकतंत्र का उत्सव’ कहा जाता है, तो क्या पांच साल में एक बार ही जनता को उत्सव मनाने का मौका मिले या देश में हर वक्त कहीं न कहीं उत्सव का माहौल बना रहे? जानिए, क्यों यह चर्चा का विषय है.
सारिका तिवारी, चंडीगढ़:
हर कुछ महीनों के बाद देश के किसी न किसी हिस्से में चुनाव हो रहे होते हैं. यह भी चुनावी तथ्य है कि देश में पिछले करीब तीन दशकों में एक साल भी ऐसा नहीं बीता, जब चुनाव आयोग ने किसी न किसी राज्य में कोई चुनाव न करवाया हो. इस तरह के तमाम तथ्यों के हवाले से एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘एक देश एक चुनाव’ की बात छेड़ी है. अव्वल तो यह आइडिया होता क्या है? इस सवाल के बाद बहस यह है कि जो लोग इस आइडिया का समर्थन करते हैं तो क्यों और जो नहीं करते, उनके तर्क क्या हैं.
जानकार तो यहां तक कहते हैं कि भारत का लोकतंत्र चुनावी राजनीति बनकर रह गया है. लोकसभा से लेकर विधानसभा और नगरीय निकाय से लेकर पंचायत चुनाव… कोई न कोई भोंपू बजता ही रहता है और रैलियां होती ही रहती हैं. सरकारों का भी ज़्यादातर समय चुनाव के चलते अपनी पार्टी या संगठन के हित में ही खर्च होता है. इन तमाम बातों और पीएम मोदी के बयान के मद्देनज़र इस विषय के कई पहलू टटोलते हुए जानते हैं कि इस पर चर्चा क्यों ज़रूरी है.
क्या है ‘एक देश एक चुनाव’ का आइडिया?
इस नारे या जुमले का वास्तविक अर्थ यह है कि संसद, विधानसभा और स्थानीय निकाय चुनाव एक साथ, एक ही समय पर हों. और सरल शब्दों में ऐसे समझा जा सकता है कि वोटर यानी लोग एक ही दिन में सरकार या प्रशासन के तीनों स्तरों के लिए वोटिंग करेंगे. अब चूंकि विधानसभा और संसद के चुनाव केंद्रीय चुनाव आयोग संपन्न करवाता है और स्थानीय निकाय चुनाव राज्य चुनाव आयोग, तो इस ‘एक चुनाव’ के आइडिया में समझा जाता है कि तकनीकी रूप से संसद और विधानसभा चुनाव एक साथ संपन्न करवाए जा सकते हैं.
पीएम मोदी की खास रुचि
जनवरी, 2017 में एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक देश एक चुनाव के संभाव्यता अध्ययन कराए जाने की बात कही. तीन महीने बाद नीति आयोग के साथ राज्य के मुख्यमंत्रियों की बैठक में भी इसकी आवश्यक्ता को दोहराया. इससे पहले दिसंबर 2015 में राज्यसभा के सदस्य ईएम सुदर्शन नचियप्पन की अध्यक्षता में गठित संसदीय समिति ने भी इस चुनाव प्रणाली को लागू किए जाने पर जोर दिया था. 2018 में विधि आयोग की बैठक में भाजपा और कांग्रेस ने इससे दूरी बनाए रखी. चार दलों (अन्नाद्रमुक, शिअद, सपा, टीआरएस) ने समर्थन किया. नौ राजनीतिक दलों (तृणमूल, आप, द्रमुक, तेदेपा, सीपीआइ, सीपीएम, जेडीएस, गोवा फारवर्ड पार्टी और फारवर्ड ब्लाक) ने विरोध किया. नीति आयोग द्वारा एक देश एक चुनाव विषय पर तैयार किए गए एक नोट में कहा गया है कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनावों को 2021 तक दो चरणों में कराया जा सकता है. अक्टूबर 2017 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने कहा था कि एक साथ चुनाव कराने के लिए आयोग तैयार है, लेकिन निर्णय राजनीतिक स्तर पर लिया जाना है.
क्या है इस आइडिया पर बहस?
कुछ विद्वान और जानकार इस विचार से सहमत हैं तो कुछ असहमत. दोनों के अपने-अपने तर्क हैं. पहले इन तर्कों के मुताबिक इस तरह की व्यवस्था से जो फायदे मुमकिन दिखते हैं, उनकी चर्चा करते हैं.
कई देशों में है यह प्रणाली
स्वीडन इसका रोल मॉडल रहा है. यहां राष्ट्रीय और प्रांतीय के साथ स्थानीय निकायों के चुनाव तय तिथि पर कराए जाते हैं जो हर चार साल बाद सितंबर के दूसरे रविवार को होते हैं. इंडोनेशिया में इस बार के चुनाव इसी प्रणाली के तहत कराए गए. दक्षिण अफ्रीका में राष्ट्रीय और प्रांतीय चुनाव हर पांच साल पर एक साथ करा जाते हैं जबकि नगर निकायों के चुनाव दो साल बाद होते हैं.
पक्ष में दलीलें
1. राजकोष को फायदा और बचत : ज़ाहिर है कि बार बार चुनाव नहीं होंगे, तो खर्चा कम होगा और सरकार के कोष में काफी बचत होगी. और यह बचत मामूली नहीं बल्कि बहुत बड़ी होगी. इसके साथ ही, यह लोगों और सरकारी मशीनरी के समय व संसाधनों की बड़ी बचत भी होगी. एक अध्ययन के मुताबिक 2019 के लोकसभा चुनाव पर करीब साठ हजार करोड़ रुपये खर्च हुए. इसमें पार्टियों और उम्मीदवारों के खर्च भी शामिल हैं. एक साथ एक चुनाव से समय के साथ धन की बचत हो सकती है। सरकारें चुनाव जीतने की जगह प्रशासन पर अपना ध्यान केंद्रित कर पाएंगी.
2. विकास कार्य में तेज़ी : चूंकि हर स्तर के चुनाव के वक्त चुनावी क्षेत्र में आचार संहिता लागू होती है, जिसके तहत विकास कार्य रुक जाते हैं. इस संहिता के हटने के बाद विकास कार्य व्यावहारिक रूप से प्रभावित होते हैं क्योंकि चुनाव के बाद व्यवस्था में काफी बदलाव हो जाते हैं, तो फैसले नए सिरे से होते हैं.
3. काले धन पर लगाम : संसदीय, सीबीआई और चुनाव आयोग की कई रिपोर्ट्स में कहा जा चुका है कि चुनाव के दौरान बेलगाम काले धन को खपाया जाता है. अगर देश में बार बार चुनाव होते हैं, तो एक तरह से समानांतर अर्थव्यवस्था चलती रहती है.
4. सुचारू प्रशासन : एक चुनाव होने से सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल एक ही बार होगा लिहाज़ा कहा जाता है कि स्कूल, कॉलेज और अन्य विभागों के सरकारी कर्मचारियों का समय और काम बार बार प्रभावित नहीं होगा, जिससे सारी संस्थाएं बेहतर ढंग से काम कर सकेंगी.
5. सुधार की उम्मीद : चूंकि एक ही बार चुनाव होगा, तो सरकारों को धर्म, जाति जैसे मुद्दों को बार बार नहीं उठाना पड़ेगा, जनता को लुभाने के लिए स्कीमों के हथकंडे नहीं होंगे, बजट में राजनीतिक समीकरणों को ज़्यादा तवज्जो नहीं देना होगी, यानी एक बेहतर नीति के तहत व्यवस्था चल सकती है.
ऐसे और भी तर्क हैं कि एक बार में ही सभी चुनाव होंगे तो वोटर ज़्यादा संख्या में वोट करने के लिए निकलेंगे और लोकतंत्र और मज़बूत होगा. बहरहाल, अब आपको ये बताते हैं कि इस आइडिया के विरोध में क्या प्रमुख तर्क दिए जाते हैं.
1. क्षेत्रीय पार्टियां होंगी खारिज : चूंकि भारत बहुदलीय लोकतंत्र है इसलिए राजनीति में भागीदारी करने की स्वतंत्रता के तहत क्षेत्रीय पार्टियों का अपना महत्व रहा है. चूंकि क्षेत्रीय पार्टियां क्षेत्रीय मुद्दों को तरजीह देती हैं इसलिए ‘एक चुनाव’ के आइडिया से छोटी क्षेत्रीय पार्टियों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाएगा क्योंकि इस व्यवस्था में बड़ी पार्टियां धन के बल पर मंच और संसाधन छीन लेंगी.
2. स्थानीय मुद्दे पिछड़ेंगे : चूंकि लोकसभा और विधानसभा चुनाव अलग मुद्दों पर होते हैं इसलिए दोनों एक साथ होंगे तो विविधता और विभिन्न स्थितियों वाले देश में स्थानीय मुद्दे हाशिये पर चले जाएंगे. ‘एक चुनाव’ के आइडिया में तस्वीर दूर से तो अच्छी दिख सकती है, लेकिन पास से देखने पर उसमें कई कमियां दिखेंगी. इन छोटे छोटे डिटेल्स को नज़रअंदाज़ करना मुनासिब नहीं होगा.
3. चुनाव नतीजों में देर : ऐसे समय में जबकि तमाम पार्टियां चुनाव पत्रों के माध्यम से चुनाव करवाए जाने की मांग करती हैं, अगर एक बार में सभी चुनाव करवाए गए तो अच्छा खास समय चुनाव के नतीजे आने में लग जाएगा. इस समस्या से निपटने के लिए क्या विकल्प होंगे इसके लिए अलग से नीतियां बनाना होंगी.
4. संवैधानिक समस्या : देश के लोकतांत्रिक ढांचे के तहत यह आइडिया सुनने में भले ही आकर्षक लगे, लेकिन इसमें तकनीकी समस्याएं काफी हैं. मान लीजिए कि देश में केंद्र और राज्य के चुनाव एक साथ हुए, लेकिन यह निश्चित नहीं है कि सभी सरकारें पूर्ण बहुमत से बन जाएं. तो ऐसे में क्या होगा? ऐसे में चुनाव के बाद अनैतिक रूप से गठबंधन बनेंगे और बहुत संभावना है कि इस तरह की सरकारें 5 साल चल ही न पाएं. फिर क्या अलग से चुनाव नहीं होंगे?
यही नहीं, इस विचार को अमल में लाने के लिए संविधान के कम से कम छह अनुच्छेदों और कुछ कानूनों में संशोधन किए जाने की ज़रूरत पेश आएगी.
https://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2020/11/One-nation-one-election-1.jpg8101440Demokratic Front Bureauhttps://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2018/05/LogoMakr_7bb8CP.pngDemokratic Front Bureau2020-11-28 03:52:012020-11-28 03:56:55एक राष्ट्र एक चुनाव, पक्ष – विपक्ष
महाराष्ट्र पुलिस-प्रशासन ने जिस प्रकार अर्णब गोस्वामी को एक पुराने एवं लगभग बंद पड़े मामले में जिस तरह से गिरफ़्तार किया, जो कि सरासर गैरकानूनी है ऐसा कानूनविद कहते हैं क्योंकि केस फ़ाइल दोबारा खोलने के लिए न्यायालय से अनुमति लेना आवश्यक है आप जानते ही हैं कि जब अप्रैल 2020 मे यह मामला बंद किया गया उसके बाद पीड़ितों के परिवार जनों ने खिन भी इसके विरुद्ध गुहार नहीं लगाई, अतः सरकार की नीयत साफ नहीं यह तो स्पष्ट है ओर उसकी मंशा एवं कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े होना भी स्वाभाविक है। उससे भी ज्यादा सवाल उन कथित बुद्धिजीवियों पर खड़े हो रहे हैं, जो बात – बात पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ढिंढोरा पीटते रहते हैं, लेकिन अर्णब की गिरफ़्तारी पर मुंह सिले हैं।
पालघर में दो सन्तों की निर्मम हत्या के पश्चात महाराष्ट्र सरकार की सबसे ताकतवर शख्सियत सोनिया गांधी उर्फ अंटोनिओ माइनो से कुछ कड़े प्रश्न पूछने पर महाराष्ट्र सरकार की नज़रों में चढ़े अर्णब गोस्वामी सुशांत राजपूत की अप्राकृतक मृत्यु को ज़ोरशोर से उठाने के कारण सवालों के घेरे में आए मुंबई के आभिजात्य वर्ग की नज़रों में भी चढ़ गए। बार बार चेताने पर भी अर्णब ने मुद्दों को नहीं छोड़ा जिनसे महाराष्ट्र सरकार और उसके कृपापात्रों को निरंतर जांच के घेरे में आने से महाराष्ट्र सरकार तिलमिला उठी और अर्णब के विरोध में अलग अलग तरह से उन्हे प्रताड़ित करती रही।
लोकतंत्र में मीडिया को चौथा स्तंभ माना जाता है। नागरिक अधिकारों की रक्षा करने एवं लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूती प्रदान करने में विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के साथ-साथ मीडिया की विशेष भूमिका होती है। उसका उत्तरदायित्व निष्पक्षता से सूचना पहुंचाने के साथ-साथ जन सरोकार से जुड़े मुद्दे उठाना, जनजागृति लाना, जनता और सरकार के बीच संवाद का सेतु स्थापित करना और जनमत बनाना भी होता है। सरोकारधर्मिता मीडिया की सबसे बड़ी विशेषता रही है। यह भी सत्य है कि सरोकारधर्मिता की आड़ में कुछ चैनल-पत्रकार अपना एजेंडा भी चलाते रहे हैं। हाल के वर्षों में टीआरपी एवं मुनाफ़े की गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा ने मीडिया को अनेक बार कठघरे में खड़ा किया है। उसका स्तर गिराया है। उसकी साख़ एवं विश्वसनीयता को संदिग्ध बनाया है। निःसंदेह कुछ चैनल-पत्रकार पत्रकारिता के उच्च नैतिक मानदंडों एवं मर्यादाओं का उल्लंघन करते रहे हैं। जनसंचार के सबसे सशक्त माध्यम से जुड़े होने के कारण उन्हें जो सेलेब्रिटी हैसियत मिलती है, उसे वे सहेज-संभालकर नहीं रख पाते और कई बार सीमाओं का अतिक्रमण कर जाते हैं।
स्वतंत्रता-पूर्व से लेकर स्वातन्त्रयोत्तर काल तक भारतवर्ष में पत्रकारिता की बड़ी समृद्ध विरासत एवं परंपरा रही है। उच्च नैतिक मर्यादाओं एवं नियम-अनुशासन का पालन करते हुए भी पत्रकारिता जगत ने जब-जब आवश्यकता पड़ी, लोकतंत्र एवं लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। सत्य पर पहरे बिठाने की निरंकुश सत्ता द्वारा जब-जब कोशिशें हुईं, मीडिया ने उसे नाकाम करने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आपातकाल के काले दौर में तमाम प्रताड़नाएं झेलकर भी उसने अपनी स्वतंत्र एवं निर्भीक आवाज़ को कमज़ोर नहीं पड़ने दिया। लोकतंत्र को बंधक बनाने का वह प्रयास विफल ही मीडिया के सहयोग के बल पर हुआ। पत्रकारिता के गिरते स्तर पर बढ़-चढ़कर बातें करते हुए हमें मीडिया की इन उपलब्धियों और योगदान को कभी नहीं भुलाना चाहिए|
अर्णब का दोष केवल इतना है कि, जो संबंध परदे के पीछे निभाए जाते रहे, उसे अर्णब ने बिना किसी लाग-लपेट के परदे के सामने ला भर दिया। उन्होंने आम लोगों की भाषा में जनभावनाओं को बेबाक़ी से स्वर दे दिया। जिसे समर्थकों ने राष्ट्रीय तो विरोधियों ने एजेंडा आधारित पत्रकारिता का नाम दिया। पर सवाल यह है कि केवल अर्णब ही सत्ता के आसान शिकार और कोपभाजन क्यों ?
महाराष्ट्र पुलिस-प्रशासन ने जिस प्रकार अर्णब गोस्वामी को एक पुराने एवं लगभग बंद पड़े मामले में जिस तरह से आनन-फ़ानन में गिरफ़्तार किया, वह उसकी मंशा एवं कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करता है। पुराने मामले में किसी को ख़ुदकुशी के लिए उकसाने के आरोप में अर्णब को गिरफ्तार करने की महाराष्ट्र सरकार एवं मुंबई पुलिस की नीयत जनता ख़ूब समझती है।
पुलिस इस केस की क्लोजर रिपोर्ट भी दाख़िल कर चुकी है। अब अचानक पुलिस को ऐसा कौन-सा सबूत मिल गया कि वह अर्णब को गिरफ़्तार करने पहुँच गई। और वह भी इतने बड़े लाव-लश्कर, एनकाउंटर स्पेशलिस्ट और हथियारों से लैस! कमाल की बात यह कि उसने कोर्ट से अर्णब को पुलिस रिमांड में रखने की इजाज़त भी मांगी।
ज्ञात हो कि अर्णब गोस्वामी का कोई आपराधिक अतीत नहीं है। न वे कोई सजायाफ्ता मुज़रिम या आतंकी हैं। बल्कि वे मुख्य धारा के बड़े पत्रकार हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या अपने चैनल पर विभिन्न मुददृों पर प्रश्न पूछा जाना इन महत्वाकांक्षी, वंशवादी नेताओं को नागवार गुजरा है ? क्या सत्ता के अहंकार के कारण वे अर्णब को घेरने और उनकी आवाज उठाने—दबाने की कोशिश कर रहे हैं ?
यदि अर्णब ने कुछ ग़लत भी किया है तो न्यायिक प्रक्रिया के अंतर्गत पारदर्शी तरीके से कार्रवाई होनी चाहिए, न कि जोर-जबरदस्ती से ? यदि निष्पक्षता पत्रकारिता का धर्म है तो कार्यपालिका एवं सरकार का तो यह परम धर्म होना चाहिए। उसे तो अपनी नीतियों एवं निर्णयों के प्रति विशेष सतर्क एवं सजग रहना चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर स्वविवेक का नियंत्रण तो ठीक है, परंतु उस पर सरकारी पहरे बिठाना, उसे डरा-धमकाकर चुप कराना संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का सीधा हनन है। जब देश ने आपातकाल थोपने वालों को जड़-मूल समेत उखाड़ फेंका तो वंशवादी बेलें क्या बला हैं ? जो इस मौके पर चुप हैं, समय उनके भी अपराध लिख रहा है। आज अर्णब की तो कल हमारी या किसी और की बारी है|
https://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2020/11/Freedom-of-speech.jpg270512Demokratic Front Bureauhttps://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2018/05/LogoMakr_7bb8CP.pngDemokratic Front Bureau2020-11-09 04:01:182020-11-09 04:03:40आज अर्णब तो कल आप हम भी हो सकते हैं
पाकिस्तानी सांसद जब अपनी संसद में पुलवामा नरसंहार को अपनी जीत बताते हैं तब भी शायद इन धूर्त लिब्रल्स को शरम का कीड़ा छू भी न पाये। बालाकोट में हमले के बाद जब विंग कमांडर अभिनंदन को छोड़ा गया तब इन धूर्तों के बयान सुनने वाले थे। इनहोने सोशल मीडिया पर पाकिस्तानी वज़ीर – ए – आजम की तारीफ में वो कसीदे पढे की भारतीय सेना का सिर शर्म से झुक जाय। आज जब पाकिस्तानी सांसद ने पाकिस्तान की पोल पट्टी खोल कर रख दी तो इमरान खान की ही भाँती यह बेशर्म हँसते हुए दीख जाएगे। आज पाकिस्तानी संसद में हुए खुलासे के पश्चात इनकी हालत देखने वाली होगी।
राजवीरेन्द्र वसिष्ठ, चंडीगढ़
भारतीय सेना (थल, नभ या वायु) की वीरता के किस्से पूरी दुनिया में मशहूर हैं। लेकिन इनके चरम शौर्य का किस्सा सुनना हो तो दुश्मन देश की सेना पर क्या बिती है, वह सुनिए। ताजा किस्सा भारतीय वायु सेना के फायटर पायलट अभिनंदन को लेकर है। इनके माध्यम से पाकिस्तान की संसद में भारतीय सेना की खौफ के चर्चे हुए।
पाकिस्तान की संसद में भारतीय सेना की खौफ के चर्चे! जी हाँ, यह सच है – 100 फीसदी सच। लेकिन दूसरा सच यह भी है कि दुश्मन देश जहाँ हमारी सेना और सेना के पीछे स्टील-फ्रेम की भाँति खड़े राजनीतिक दल की चर्चा कर रहा है, वहीं अपने देश के चंद लिबरल (धूर्त) इस घटना के वक्त अपने देश की सेना और सत्ता के साथ न खड़े होकर दुश्मन देश के PM इमरान खान की तारीफ में गीत गा रहे थे।
पहले नंबर पर हैं राजदीप। उन्होंने इसे भारतीय नेताओं (मतलब जो सत्ता में थे, मतलब बिना नाम लिए PM मोदी को टारगेट) के लिए वोट का मसला बता दिया था जबकि इमरान को विजेता घोषित कर दिया था।
फिर नंबर आता है बरखा जी का। ये इमरान के स्वागत में ट्वीट कर रही थीं।
शोभा डे तो पाकिस्तानियों को ही धन्यवाद कहने लगी थीं।
रिफत जावेद तो अपने देश के TV चैनलों को ज्ञान देने लगे थे। इसमें ज्ञान से ज्यादा PM मोदी के नाम पर तंज था।
प्रशांत भूषण कैसे पीछे रहते। इमरान खान को उन्होंने परिपक्व और बड़ा निर्णय लेने वाला करार दिया था।
लेकिन इन 11 लिबरलों (धूर्तों) को शायद यह नहीं पता था कि वो या तो किसी (दुश्मन देश) के हाथों कठपुतली की भाँति खेल रहे हैं या फिर अपने ही देश के किसी खास पार्टी के इशारे पर केंद्र सरकार को नीचा दिखाने का अजेंडा चला रहे हैं। पता तो शायद उन्हें यह भी नहीं होगा कि एक दिन उनकी धूर्तता की पोल कोई और नहीं बल्कि पाकिस्तान का ही एक सांसद खोल कर रख देगा।
https://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2020/10/FotorCreated-54.jpg415700Demokratic Front Bureauhttps://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2018/05/LogoMakr_7bb8CP.pngDemokratic Front Bureau2020-10-29 16:23:192020-10-29 16:23:36लिबरल पत्रकारों के ट्वीट और आज उन पर भारतियों के तंज़
1958 की बात है. लोकसभा का सत्र चल रहा था. इसी दौरान ट्रेजरी बेंच पर बैठे एक सांसद के बोलने की बारी आई. वह जो कहने वाला था उससे नैतिकता के ऊंचे आदर्शों का दावा करने वाली जवाहर लाल नेहरू सरकार हिलने वाली थी.
चंडीगढ़(ब्यूरो):
सांसद ने बोलना शुरू किया. उसने आरोप लगाया कि भारतीय जीवन बीमा निगम यानी एलआईसी ने कुछ ऐसी कंपनियों के बाजार से कहीं ज्यादा कीमत पर करीब सवा करोड़ रु के शेयर खरीदे हैं जिनकी हालत पतली है. ये कंपनियां कलकत्ता के एक कारोबारी हरिदास मूंदड़ा की थीं. सत्ताधारी पार्टी के ही सांसद की तरफ से हुए इस हमले से विपक्ष और आलोचकों को मानो मनमांगी मुराद मिल गई थी.
इससे सकते में आए तत्कालीन वित्तमंत्री टीटी कृष्णमचारी ने पहले तो इससे सीधे इनकार किया. लेकिन यह सांसद अपनी बात पर अड़ा था. आखिर हाईकोर्ट के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अगुआई में एक जांच आयोग बना. आरोप सच साबित हुए. कृष्णमचारी को इस्तीफा देना पड़ा. यह नेहरू सरकार की साफ-सुधरी छवि पर एक बड़ी चोट थी. इस राजनेता का नाम था फीरोज गांधी. विडंबना यह थी कि फीरोज जवाहर लाल नेहरू के दामाद थे.
लेकिन ऐसा काम उन्होंने पहली बार नहीं किया था. जो फीरोज गांधी को जानते थे उनके लिए यह बात अजूबा भी नहीं थी. भारत के सबसे ताकतवर परिवार के इस दामाद को नेहरू की नीतियों के प्रति अपने विरोध के लिए ही जाना जाता था.
फीरोज जहांगीर गंधी (गांधी नहीं) का जन्म 12 सितंबर 1912 को मुंबई (तब बंबई) के एक पारसी परिवार में हुआ था. मुंबई के कई पारसियों की तरह यह परिवार भी गुजरात से यहां आया था. पेशे से मरीन इंजीनियर उनके पिता जहांगीर फरदून भरुच से ताल्लुक रखते थे जबकि उनकी मां रतिमाई सूरत से थीं.
फीरोज के जन्म के कुछ समय बाद ही पहला विश्व युद्ध छिड़ गया. इसके चलते उनके पिता को लंबे समय तक समुद्री यात्राएं करनी पड़तीं. इस वजह से उन्होंने परिवार को इलाहाबाद भेज दिया जहां उनकी बहन शिरीन रहती थीं. शिरीन शहर के एक अस्पताल में सर्जन थीं. इस तरह फीरोज का बचपन इलाहाबाद में ही बीता.
इंदिरा गांधी से मुलाकात
1930 में शहर में कांग्रेस का एक धरना था. कमला नेहरू और इंदिरा गांधी सहित कांग्रेस की कई महिला कार्यकर्ताएं इसमें हिस्सा ले रही थीं. संयोग से यह उसी कॉलेज के बाहर हो रहा था जहां से फीरोज ग्रेजुएशन कर रहे थे. बताते हैं कि तेज धूप में कमला नेहरू बेहोश हो गईं और इस दौरान फीरोज ने उनकी मदद की. आजादी के लिए लड़ने वाले लोगों का जज्बा देखकर अगले ही दिन उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और आजादी के आंदोलन में शामिल हो गए. उसी साल फीरोज गांधी को जेल की सजा हुई और उन्होंने फैजाबाद जेल में 19 महीने गुजारे. तब इलाहाबाद जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष लाल बहादुर शास्त्री भी इसी जेल में थे. बताते हैं कि इसी दौरान उन्होंने अपना नाम बदलकर फीरोज गंधी से फीरोज गांधी रख लिया था. जेल से छूटने के बाद फीरोज तब के यूनाइटेड प्रोविंस (उत्तर प्रदेश) में किसानों के अधिकारों के लिए चल रहे आंदोलन में शामिल हुए. इसमें उन्होंने जवाहर लाल नेहरू के साथ करीब से काम किया. इस दौरान उन्हें फिर दो बार जेल हुई.
फीरोज ने 1933 में पहली बार इंदिरा के सामने शादी करने का प्रस्ताव रखा था. लेकिन इंदिरा और उनकी मां कमला नेहरू ने इससे इनकार कर दिया. तब इंदिरा सिर्फ 16 साल की थीं और इस इनकार के पीछे उनकी मां का यही तर्क था. बाद के वर्षों में फीरोज की नेहरू परिवार से करीबी बढ़ती गई. खासकर कमला नेहरू से. टीबी के चलते जब कमला नेहरू को नैनीताल के पास भोवाली सैनटोरियम में रखा गया तो इस दौरान फीरोज ही उनके साथ रहे. यह 1934 की बात है. बाद में हालत बिगड़ने पर जब उन्हें यूरोप भेजा गया तो भी फीरोज उनके साथ थे. 28 फरवरी 1936 को जब कमला नेहरू ने दम तोड़ा तो फीरोज उनके सिरहाने ही बैठे थे.
शादी
इसके बाद फीरोज और इंदिरा की घनिष्ठता बढ़ती गई. मार्च 1942 में उन्होंने शादी कर ली. बताते हैं कि जवाहर लाल नेहरू इस शादी के खिलाफ थे और उन्होंने महात्मा गांधी से कहा था कि वे इंदिरा को समझाएं. अगस्त 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान इस दंपत्ति को जेल में भेज दिया गया. तब उनकी शादी को छह महीने भी नहीं हुए थे. फीरोज एक साल तक इलाहाबाद की नैनी सेंट्रल जेल में रहे.
इसके बाद के पांच साल इस दंपत्ति के लिए पारिवारिक व्यस्तताओं के साल रहे. फीरोज और इंदिरा के दो बच्चे हुए. 1944 में राजीव का जन्म हुआ और 1946 में संजय का. आजादी के बाद फीरोज और इंदिरा बच्चों के साथ इलाहाबाद चले गए. फीरोज द नेशनल हेराल्ड के प्रबंध निदेशक बन गए. यह अखबार उनके ससुर जवाहर लाल नेहरू ने ही शुरू किया था.
1952 में जब भारत में पहली बार आम चुनाव हुए तो फीरोज गांधी उत्तर प्रदेश के रायबरेली से सांसद चुने गए. तब तक इंदिरा दिल्ली आ गई थीं और इस दंपत्ति के बीच मनमुटाव की चर्चाएं भी होने लगी थीं. हालांकि इंदिरा ने रायबरेली आकर पति के चुनाव प्रचार की कमान संभाली थी.
अपनी ही सरकार के खिलाफ आवाज
जल्द ही फीरोज अपनी ही सरकार के खिलाफ आवाज उठाने वाली एक असरदार शख्सियत बन गए. 1955 में उनके चलते ही उद्योगपति राम किशन डालमिया के भ्रष्टाचार का खुलासा हुआ. यह भ्रष्टाचार एक जीवन बीमा कंपनी के जरिये किया था. इसके चलते डालमिया को कई महीने जेल में रहना पड़ा. इसका एक नतीजा यह भी हुआ कि अगले ही साल 245 जीवन बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण करके एक नई कंपनी बना दी गई. इसे आज हम एलआईसी के नाम से जानते हैं.
यानी एक तरह से फीरोज गांधी को राष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया शुरू होने के पीछे की वजह भी कहा जा सकता है. उन्होंने टाटा इंजीनियरिंग एंड लोकोमोटिव (टेल्को) के राष्ट्रीयकरण की भी मांग की थी. उनका तर्क था कि यह कंपनी सरकार को जापानियों से दोगुनी कीमत पर माल दे रही है. इसके चलते उनका अपना पारसी समुदाय भी उनके खिलाफ हो गया था. लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की. यही वजह थी कि उनकी प्रतिष्ठा हर पार्टी और वर्ग में थी.
1957 में फीरोज गांधी रायबरेली से दोबारा चुने गए. 1958 में उन्होंने नेहरू सरकार को वह झटका दिया जिसका जिक्र लेख की शुरुआत में हो चुका है.
लोकप्रिय राजनेता होने के बावजूद फीरोज गांधी अपने आखिरी दिनों में अकेले पड़ गए थे. उनके दोनों बेटे राजीव और संजय गांधी अपनी मां के साथ प्रधानमंत्री निवास में ही रहते थे. आठ सितंबर 1960 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया.
https://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2020/09/Feroze-Gandhi.jpg431715Demokratic Front Bureauhttps://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2018/05/LogoMakr_7bb8CP.pngDemokratic Front Bureau2020-09-22 12:59:522020-09-22 13:03:21फ़िरोज़ शाह गंधी – भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी सरकार के वित्त मंत्री पर पड़े थे भारी
राष्ट्र की अखंडता में एकता का वास हो, कोकिला की कूक-सी मधुरता का आभास हो | आपस की वैरता को छोड़कर निकलना है, देशधर्मी आस्था को लेकर के चलना है ||
भारती ने स्वप्न में क्या कहा था अब सुनो, जल गया ये देश बस नफरतो की आग में, आग की वो राख अब दुलार उर्वरक बने, हर उपज माँ भारती की राष्ट्र सेवक बने ||
राष्ट्र की अखंडता में एकता का वास हो, कोकिला की कूक-सी मधुरता का आभास हो |
सैन्य शक्ति हो प्रबल, माँ भारती की फौज की, वीर गाथा स्मरण रहे, देश पर शहीद की | राष्ट्र का हर नागरिक राष्ट्र का गौरव बने, दीप ज्योत ऐसी हो, जो राष्ट्र को रोशन करे ||
राष्ट्र की अखंडता में एकता का वास हो, कोकिला की कूक-सी मधुरता का आभास हो |
सभ्यता और संस्कृति की सेविका हु मानकर, सेवा में तटस्थ भाव देश भक्ति जानकर | सीमा की सुरक्षाओ का भार ओढना है अब, दुश्मनों की चाल का जवाब देना है अब ||
राष्ट्र की अखंडता में एकता का वास हो, कोकिला की कूक-सी मधुरता का आभास हो |
|| वन्दे मातरम् || || जय हिन्द ||
https://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2020/08/Our-Heros.jpg415700Demokratic Front Bureauhttps://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2018/05/LogoMakr_7bb8CP.pngDemokratic Front Bureau2020-08-14 14:35:282020-08-14 14:35:56स्वतन्त्रता दिवस विशेष कविता
5 अगस्त 2020 को जब राम मंदिर का शिलान्यास किया आ रहा है तो 1992 के आरसेवकों को अपने बीते दिनों की याद आह्लादित कर रही है। शास्त्री देवशंकर ने अपने संस्मरणों को डेमोक्रेटिकफ्रंट॰कॉम से सांझा किया।
शास्त्री देवशंकर चौबीसा, उदयपुर:
सन 1992 में मेरी पोस्टिंग सागवाड़ा में थी, वहां हम कनकमल जी भाईसाहब के सानिध्य में कार सेवा के लिए रवाना हुए। सागवाड़ा से हम बस द्वारा बांसवाड़ा के स्वयंसेवकों को साथ लेते हुए रतलाम पहुंचे। रतलाम से हमने रात को ट्रेन पकड़ी थी, जैसे ही ट्रेन में चढ़े ऐसा लगा कि जितने भी कारसेवक आ रहे थे, वह सभी अपने परिवार के लोग हैं, जगह नहीं थी, ऊपर-नीचे खचाखच ट्रेन भरी हुई थी। मैं जब ट्रेन के ऊपर सवारियों को बैठे हुए देखता तो ऐसा लगता है कि कैसे बैठते होंगे, परन्तु जब मैं स्वयं ट्रेन के ऊपर बैठा तो रामलला के भक्तो के मध्य बहुत ही आनंददायक माहौल था। “जय श्री राम” के नारे और गीतों को गाते हुए अयोध्याजी पहुंचे।
कनक जी के सानिध्य में हमने अपना अभियान जारी रखा, जैसा जैसा निर्देश मिलता रहा वैसे हम कार्य करते रहें। प्रातः काल से लेकर के विभिन्न संतो, महंतों और नेताओं के भाषण चल रहे थे और उनको सुन रहे थे और यह तय हुआ था कि सबसे पहले कौन जाएगा, सबसे आगे कौन खड़ा रहेगा, इसके लिए रात्रि में बैठक भी हुई थी। ऐसी स्थिति में जिस दिन ढांचा गिरा उस दिन ना तो भूख लग रही थी ओर ना ही प्यास लग रही थी, केवल एक ही लक्ष्य था और उसके लिए हम सभी वहां मैदान में डटे हुए थे। हमारी जरूरत पड़ जाए और हम भगवान श्रीराम और देश के लिए काम आये।
शाम को 5:00 बजे राष्ट्रपति शासन लग गया था। वहां ऐसी स्थिति में रात को पता चला कि सुबह जल्दी उठते ही सुबह 4:00 बजे हमको उठा दिया गया और कहा कि यहां अयोध्याजी में कर्फ्यू लग चुका है तुरंत जितना जल्दी हो सकता है अयोध्याजी खाली करने के आदेश मिले। साथ ही पुलिस की घोषणा भी हो रही थी कि आप तुरंत अयोध्याजी खाली करें। लेकिन प्रातः कालीन 4:00 बजे अपना आवास छोड़कर के निकले थे पुलिस वालों ने हमको रोका, परंतु माइक से मजिस्ट्रेट घोषणा की, कि जो कारसेवक घर की तरफ जा रहे हैं उन्हें किसी प्रकार से परेशान नहीं किया जाए और हमने वहाँ से ट्रेन पकड़ी। बाराबंकी में मुस्लिमों ने ट्रेन को रोका और पथराव किया। परन्तु हमारे साथ कुछ ऑर्मी के जवान थे, उन्होंने मुकाबला किया हवाई फायरिंग कर उन लोगों को भगाया । फिर धीरे से ट्रेन रवाना हुई ऐसे करते-करते हम घर पहुंचे।
जो हमने उठाया था एक लक्ष्य लेकर पहुंचे थे वह कल साकार होता दिख रहा है, भगवान श्रीराम का जन्म स्थान पर इस भव्य मंदिर के निर्माण के लिए 1992 में जो कुछ किया था वह अपनी आंखों से होता हुआ हम देख रहे हैं ।
https://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2020/08/shastri-ji-2.jpg528366Demokratic Front Bureauhttps://demokraticfront.com/wp-content/uploads/2018/05/LogoMakr_7bb8CP.pngDemokratic Front Bureau2020-08-05 02:13:342020-08-05 02:35:05संस्मरण : सन 1992 की अयोध्या जी की यात्रा
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