पारसी दादा, ईसाई मां: राहुल गांधी फिर भी कैसे हैं कौल ब्राह्मण !!!

दिनेश पाठक अधिवक्ता, राजस्थान उच्च न्यायालय, जयपुर। विधि प्रमुख विश्व हिन्दु परिषद

अब तक आपने कई घोटालो के बारे मे सुना होगा जिसमे एक निश्चित राशि बताई जाती थी कि इतने लाख का घोटाला हुआ और उस घोटाले का एक नाम होता होता था जैसे 2 जी घोटाला, कोल घोटाला, बोफोर्स घोटाला ये सारे घोटाले देश मे कांग्रेस द्वारा किये गये लेकिन आज पुष्कर मे बिना राशि का ऐसा घोटाला देखने को मिला जो स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा किया गया जिसे लेकर देश के नागरिकों मे जिज्ञासा है जानने की कि आखिर ये हुआ कैसे ?

ये है गोत्र घोटाला आज राहुल गांधी पुष्कर यात्रा पर थे जहां ब्रह्मा मन्दिर मे संकल्प के दौरान उन्होने पुजारी द्वारा गोत्र पूछने पर दत्तात्रेय गोत्र बताया जिसे सुनकर देश के हर नागरिक के मन मे ये विचार कौंध रहा है कि ये हुआ कैसे इसकी जानकारी न कभी उनके पिता स्व राजीव गांधी ने न उनके दादा फिरोज खान ने कभी कहीं इस दत्तात्रेय गोत्र का उल्लेख किया कहीं ये देश के मतदाताओ के भ्रमित करने के लिये गोत्र घोटाला तो नही ?

वैसे तो कोई भी व्यक्ति किसी जाति का हो धर्म का हो उसका निजि मामला है लेकन राहुल गांधी सार्वजनिक जीवन जीते है तो स्वभाविक है लोगो की उत्सुकता और बढ जाती है कि उनके दादा फिरोज खान थे तो उनका गोत्र दत्तात्रेय कैसे हो सकता है क्या फिरोज खान के पिता ,दादा भी दत्तात्रेय गोत्र के थे और कौल ब्राह्मण थे? या सिर्फ ये गोत्र घोटाला है.

गोत्र मोटे तौर पर उन लोगो के समूह को कहते है जिसका वंशज एक मूल पुरूष पूर्वज से अटूट क्रम से जुडा है ! व्याकरण के प्रयोजनों के लिये पाणिनी मे गोत्र की परिभाषा है अपात्यम पौत्रप्रभ्रति गोत्रम’ अर्थात गोत्र शब्द का अर्थ है बेटे के बेटेके साथ शुरु होने वाली (एक ऋषि )की संतान ! गोत्र कुल या वंश की संज्ञा है जो उसके किसी मूल पुरुष के अनुसार होती है

पुष्कर पूजन के दौरान संकल्प कराते समय राहुल गाँधी ने अपने आप को कौल ब्राहम्ण और अपना गोत्र ‘दत्तात्रेय ‘बताया ।

आपको ज्ञात होगा कि इससे पहले राहुल ने किसी स्थान पर पुरोहित द्वारा गोत्र पूछे जाने पर प्रश्न किया था कि गोत्र क्या होता है ।इस प्रसंग की बहुत चर्चा हुई थी ।जगह जगह लोगों ने चुटकी ली थी कि ‘जनेऊ धारु’को यह तक पता नहीं है कि गोत्र क्या होता है ।

गोत्र का अभिप्राय उन व्यक्तियों से हैं जिनके आपस में पूर्वजों अथवा वंशजों की सीधी पिता की परम्परा द्वारा रक्त सम्बन्ध है। यह पितृ पक्ष के वंशजों की अटूट शृंखला है ।

यह जानने के लिए कि किसी व्यक्ति का क्या गोत्र है,उस व्यक्ति के 7तक पूर्वजों को गिना जाता है और जो 7वे पूर्वज का गोत्र होता है वही उस व्यकित का गोत्र होता है ।

राहुल का गोत्र जानने के लिए राहुल,राजीव,फिरोज,फिरोज के पिता,फिरोज के दादा,फिरोज के परदादा और अन्त में फिरोज के पर दादा का गोत्र ही राहुल का गोत्र होगा ।

दुनिया जानती है कि राहुल की 7पीढ़ी के पूर्वज हिन्दू नहीं थे और न ही हिन्दुओं की तरह से गोत्र परम्परा थी अत राहुल का कोई गोत्र कैसे हो सकता है।

पुष्कर में राहुल गोत्र का फर्जिवाड़ा कर गया है ।

तय कीजिये कि लम्बित मुकदमो के लिये जिम्मेदार कौन

दिनेश पाठक अधिवक्ता, राजस्थान उच्च न्यायालय, जयपुर। विधि प्रमुख विश्व हिन्दु परिषद

कल सुप्रीम कोर्ट ने देश के सामने साबित कर दिया कि न्यायलयो मे लम्बित केसों के लिये देश मुख्य न्यायधीश चाहे वो कोई भी हो सिर्फ भाषण देता है या ज्ञान बांटता है या वकीलो को जिम्मेदार ठहराता या सरकार को जबकि असली जिम्मेदार स्वयं न्यायपालिका है क्योकि 150 साल पुराना केस जो सुप्रीम कोर्ट मे ही विगत आठ बर्षों से लम्बित है ,वो अर्जेंट नही लगा !

कल पूर्व निर्धारित तारीख राममन्दिर विवाद से सम्बन्धित थी जो स्वयं न्यायालय ने तय कर रखी थी कि इस मामले की सुनवाई नियमित रूप से 29 अक्टूबर से होगी जिसका विरोध कांग्रेस नेता और मुस्लिम पक्ष के वकील कपिल सिब्बल ने यह कहते हुआ किया कि राममन्दिर की सुनवाई 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले नही होनी चाहिये चूंकि कपिल सिब्बल ये जानता है कि इसका निर्णय किस पक्ष मे आने वाला है, क्योकि सारे सबूत राममन्दिर के पक्ष मे है और यदि निर्णय लोकसभा चुनाव से पहले आया तो पूरा फायदा बीजेपी को मिलेगा ! चुंकि तत्कालीन बेंच ने सिब्बल की मांग ठुकरा दी और 29 अक्टूबर से नियमित सुनवाई तय की !

जैसे ही 29 अक्टूबर को 150 साल पुराना केस न्यायालय के सामने सूचिबद्ध हुआ पहले तो तत्कालीन बेंच के सदस्यो को जो कि पूर्व मे सुनवाई कर रहे थे सुनवाई से अलग किया नयी बेंच का गठन किया और पल भर मे ही सिब्बल की मांग की ओर कदम बढाते हुये राममन्दिर केस को यह कहते हुये जनवरी तक सुनवाई टाल दी कि यह मामला अर्जेंट नही है ! जबकि राम लला के वकील वै्धनाथ और उत्तर प्रदेश सरकार के वकील और सोलिसीटर जनरल तुषार मेहता शीघ्र सुनवाई की गुहार लगाते रहे पर न्यायलय ने पूर्व मे सिब्बल द्वारा उठाई मांग की तरफ ध्यान दिया और जनवरी तक सुनवाई टाल दी ! अब पहले जनवरी मे यह तय होगा कि कौनसी बेंच इस केस की सुनवाई करे और कब करे तब तक लोकसभा चुनाव आ चुके होंगे और कपिल सिब्बल का एजेंडा पूरा हो चुका !

बिडम्बना यह है कि देशका हर मुख्यन्यायधीश शपथ लेते ही लम्बित मुकदमो के निपटारे के लिये प्रवचन देता है तो कभी सरकार को दोषी ठहराता है तो कभी वकील को कभी पिडित को लेकिन आज वकील भी तैयार थे मुवक्किल भी और सरकार भी लेकिन न्यायलय तैयार नही था आखिर क्यों ?

राममन्दिर का विषय देश के 100 करोड हिन्दुओं की आस्था का सवाल है देश के लोगो को उम्मीद थी कि न्यायलय हिन्दुओ की आस्था के प्रतीक राममन्दिर विवाद जो 150 साल से कोर्ट कचहरी मे अटका है अब तय हो जायेगा लेकिन न्यायलय ने पलक झपकते ही उनकी उम्मीदो को यह कहकर ‌चकनाचूरकर दिया कि यह मामला अर्जेंट नही है! क्या देश के 100 करोड लोगो की आस्था अर्जेंट नही है ? क्या 150 साल पुराना केस अर्जेंट नही है जो स्वयं सुप्रीम कोर्ट मे पिछले आठ बर्ष से लम्बित है अर्जेंट नही है? तो न्यायलय की नजर मे अर्जेंट सबरीमाला मन्दिर का केस था जिसमे याचिकाकर्ता भी वो थे जिनका भगवान अयप्पा मे कोई आस्था नही थी सिर्फ एक साजिश थी विधर्मी थे जिनका हिन्दू धर्म से कोई लेना देना नही था लेकिन सुप्रीम कोर्ट को मामला अर्जेंट लगा वही भगवान अयप्पा के वासतविक भक्त जब रिव्यू लगाने पहंचे तो उसी न्यायलय को अर्जेंट नही लगी और सुनवाई टाल दी!

दूसरी तरफ उसी राममन्दिर से सम्बन्धित विवाद मे बम विस्फोट के आरोप मे फांसी की सजा को रोकने के लिये न्यायलय को रात दो बजे खोलना अर्जेंट लगा वो भी एक आतंकवादी के लिये ? कुछ दिन अर्बन नक्सली के हाऊस अरेस्ट मे न्यायलय को इतना अरजेंट मामला लगा कि देश की आखे खुलने से पहले कोर्ट खुल गया !

पर देश के 100 करोड लोगो की आस्था से जुडा मामला अर्जेंट नही 150 साल पुराने केस की सुनवाई अर्जेंट नही
आज देश का हिन्दू समाज अपने को ठगा सा महसूस कर रहा है ! अब गेंद केन्द्र सरकार के पाले मे है अब सरकार को संसद मे कानून बनाकर देश के 100 करोड लोगो की आस्था कितनी अरजेंट है ये साबित करना है और संसद मे विधेयक लाकर सारे राजनितिक दलो का चेहरा बेनकाब करे कि कौनसा दल क्या राजनीति राममन्दिर के मुद्दे पर कर रहा है !

To build Ram Mandir, BJP should do what Indira Gandhi did!

Despite the Allahabad High Court giving its  verdict in 2010 that the Babri structure was built over the ruins of an existing temple ( believed to be  that of  Maryada Purushottam  Rama’s at the Janmasthan),   the Babri Masjid Action Committee  incited and supported  by the  “eminent” Marxist historians and “secular”  warriors of the  JNU, AMU etc,  the matter had been taken to the Supreme Court which seems to be  avoiding a verdict .  Even if Supreme Court gives a verdict in favour of  Rama Mandir the irredentist will take to some other  artifice to not allow the construction of  the temple.  However, the  temple can be  constructed if  the present government  takes a lesson from Indira Gandhi and  implements  her method.

When 14 banks were nationalised, they went to the Supreme Court which gave a judgement that nationalisation was  ultra-vires . Indira Gandhi got an ordinance signed by the President and took over the banks.  She then wanted to abolish the privy purses which required  an amendment to the Constitution. The amending bill was passed  in the  Lok Sabha but was defeated  by one  vote in Rajya Sabha.  Indira Gandhi  dissolved the  Lok Sabha and went for the  mid-term polls.  By her oratory espousing the cause of the  poor and socialism for which the abolition of the  privy purses and other  poor –oriented  measures were necessary, she got a thumping  majority  in the midterm elections in 1972.  She  amended the Constitution and  the  privy purses were  abolished.

If The BJP and the government  led by it are to be proved  sincere in their commitment to the  re-construction of the Rama temple on the  Janmasthan in Ayodhya, Indiraji’s way is the only recourse they should take to ie, issue an ordinance; if it is struck by the  Supreme Court, dissolve Lok Sabha, go for early election with Ram Mandir as the  prime issue; win it and let the  Mandir be constructed and  close this  matter ones for all.

हमारा संविधान इस प्राचीन राष्ट्र की साझा सहमति का दस्तावेज है: मोहन भागवत


बंधुत्व का वैचारिक अधिष्ठान हिन्दुत्व है

महिलाएं न देवी हैं, न दासी, वे राष्ट्र के विकास में पुरूषोंकी बराबर की साझीदार और हिस्सेदार हैं

देशभक्ति, पूर्वजों का गौरव और अपनी संस्कृति से प्रेम हिन्दुत्व की पहचान है


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक प. प. श्री मोहनराव भागवत ने हिन्दुत्व की संकल्पन को स्पष्ट करते हुए कहा, कि हिन्दुत्व अर्थात पावन जीवन मूल्यों का समुच्चय, यह इस देश का आधार और प्राण है, इसी के आधार पर समतायुक्त, शोषणमुक्त समाज का निर्माण संघ का लक्ष्य है. उन्होंने कहा, कि संघ का लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र को परम वैभव की स्थिति में ले जाना है. संघ की दृष्टि में भारत का वह हर व्यक्ति हिन्दू है जो देश से प्रेम करता है, अपने पूर्वजों पर गर्व करता है और अपनी संस्कृति पर अभिमान करता है.,भले ही वह वह इस संस्कृति को भारतीय कहता हो, कहता हो, आर्य कहता हो या सनातन कहता हो।

प. प. श्री भागवत ने यह बात विज्ञान भवन में कही. वह भविष्य का भारत संघ का दृष्टिकोण विषय पर आयोजित व्याख्यानमाला के दूसरे दिन प्रबुद्ध वर्ग को संबोधित कर रहे थे. श्री भागवत ने संघ के लक्ष्य को स्पष्ट करते हुए कहा, कि एक समर्थ्य, शक्तिशाली और संपन्न भारत विश्व के प्रत्येक कमजोर समाज का संबल होगा. यह सामर्थ्यशील होगा साथ ही अनुशासन और एकात्मता से प्रेरित भी होगा.

 

श्री मोहनराव भागवत ने कहा, कि संघ का विचार हिन्दुत्व का विचार है. यह पुरातन विचार और सबका माना हुआ सर्वसम्मत विचार है. इसलिए हम अपने पुरूखों के बताए मार्ग पर चल रहे हैं. अगर प्रश्न हो, कि हिन्दुत्व क्या है तो कहना पड़ेगा, कि सबके कल्याण में अपना कल्याण, ऐसा जीवन जीने का अनुशासन देने वाला हिन्दुत्व  है और यह सभी विविधताओं को स्वीकार करता है.

 

राष्ट्र के उत्थान के लिए सामाजिक पूंजी की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए श्री मोहनराव भागवत ने जापान का उदाहरण दिया और कहा, कि संघ अनुशासित सामाजिक जीवन और समाजहित को सर्वोपरि मानता है. देश के लिए कोई भी साहस करने, कोई भी त्याग करने और देश का हर काम उत्कृष्ट रूप से करने से ही एक शक्ति संपन्न राष्ट्र का निर्माण किया जा सकता है. स्वयंसेवकों को केन्द्रित करते हुए उन्होंने कहा, कि स्वयंसेवक समाज के लिए आवश्यक कार्यों को अपने हाथ में लेते हैं और अपनी क्षमता और इच्छानुसार विभिन्न क्षेत्र में काम करते हैं. संघ के साथ उनका परस्पर विचार-विमर्श होता है लेकिन वे स्वावलंबी और स्वायत्त रूप से कार्य करते हैं.

हिंदू राष्ट्र के बारे में बताते हुए श्री मोहन भागवत ने कहा की संघ का काम बंधुभाव के लिए है और इस बंधुभाव के लिए एक ही आधार है विविधता में एकता. वह विचार देनेवाला हमारा शाश्वत विचार दर्शन है। उसको दुनिया हिंदुत्व कहती है , इसलिए हम कहते हैं कि हमारा हिंदू राष्ट्र है.  हिंदू राष्ट्र है इसका मतलब इसमें मुसलमान नहीं चाहिए , ऐसा बिल्कुल नहीं होता . जिस दिन यह कहा जाएगा कि यहां मुसलमान नहीं चाहिए,  उस दिन वह हिंदुत्व नहीं रहेगा वह तो विश्व कुटुंब की बात करता है.

संघ और राजनीति के संबंधों को स्पष्ट करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक ने कहा, कि संघ ने जन्म से ही निश्चित किया है, कि राजनीति से हमारा संगठन दूर रहेगा. संघ का कोई भी पदाधिकारी किसी भी राजनीतिक दल में पदाधिकारी नहीं बनेगा. संघ का काम संपूर्ण समाज को जोड़ना है, राज कौन करे, इसका चुनाव जनता करती है. किंतु राष्ट्र हित में राज्य कैसा चले, इसके बारे में हमारा मत है और इसके लिए हम लोकतांत्रिक रीति से प्रयास भी करते हैं. संघ राजनीति से दूर रहता है. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं, कि संघ घुसपैठियों के बार में न बोले. इस तरह के प्रश्न राष्ट्रीय प्रश्न हैं. राजनीति की उसमें प्रमुख भूमिका है, परंतु प्रश्नों के सुलझने और न सुलझने का परिणाम पूरे देश पर होता है. इसलिए ऐसे विषयों पर संघ सदैव से अपना मत रखता आया है. उन्होंने कहा, कि कुछ लोग बोलते हैं, कि दूसरे दलों में स्वयंसेवक ज्यादा क्यों नहीं हैं ? यह हमारा प्रश्न नहीं है. क्यों दूसरे दलों में जाने की उनकी इच्छा नहीं होती यह उनको विचार करना है. हम किसी भी स्वयंसेवक को किसी विशेष दल में कार्य करने को नहीं कहते.

 

श्री भागवत ने महिलाओं को केन्द्रित करते हुए कहा, कि हमारी संस्कृति में महिलाओं को देवी माना गया है. लेकिन असल में उनकी हालत देखते हैं, तो ठीक नहीं दिखायी देती. हमारा मानना है, कि समाज का एक हिस्सा होने के नाते महिलाएं समाज जीवन के सभी प्रयासों में बराबरी की हिस्सेदार हैं और जिम्मेदार भी. इसलिए उनके साथ समान व्यवहार होना चाहिए. आज कई क्षेत्रों में महिलाएं पुरूषों से अच्छा काम कर रही हैं.  इसलिए महिला और पुरूष परस्पर एक-दूसरे के पूरक हैं.

दाधीच जयंती पर विशेष : देवताओं द्वारा दधीचि की अस्थियाँ मांगना तथा उस अस्थि से निर्मित वज्र द्वारा वृत्रासुर का वध

दधीच वैदिक ऋषि थे। इनके जन्म के संबंध में अनेक कथाएँ हैं। यास्क के मतानुसार ये अथर्व के पुत्र हैं। पुराणों में इनकी माता का नाम ‘शांति’ मिलता है। इनकी तपस्या के संबंध में भी अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। इन्हीं की हड्डियों से बने वज्र द्वारा इंद्र ने वृत्रासुर का संहार किया था। कुछ लोग आधुनिक मिश्रिखतीर्थ (सीतापुर) को इनकी तपोभूमि बताते हैं। इनका प्राचीन नाम ‘दध्यंच’ कहा जाता है।

दधीचि कुल ब्राह्मण पिता अथर्वा विवाह गभस्तिनी संतान पिप्पलाद विशेष दधीचि द्वारा देह त्याग देने के बाद देवताओं ने उनकी पत्नी के सती होने से पूर्व उनके गर्भ को पीपल को सौंप दिया था, जिस कारण बालक का नाम ‘पिप्पलाद’ हुआ था।

यास्क के मतानुसार दधीचि की माता ‘चित्ति’ और पिता ‘अथर्वा’ थे, इसीलिए इनका नाम ‘दधीचि’ हुआ था। किसी पुराण के अनुसार यह कर्दम ऋषि की कन्या ‘शांति’ के गर्भ से उत्पन्न अथर्वा के पुत्र थे। दधीचि प्राचीन काल के परम तपस्वी और ख्यातिप्राप्त महर्षि थे। उनकी पत्नी का नाम ‘गभस्तिनी’ था। महर्षि दधीचि वेद शास्त्रों आदि के पूर्ण ज्ञाता और स्वभाव के बड़े ही दयालु थे। अहंकार तो उन्हें छू तक नहीं पाया था। वे सदा दूसरों का हित करना अपना परम धर्म समझते थे। उनके व्यवहार से उस वन के पशु-पक्षी तक संतुष्ट थे, जहाँ वे रहते थे। गंगा के तट पर ही उनका आश्रम था। जो भी अतिथि महर्षि दधीचि के आश्रम पर आता, स्वयं महर्षि तथा उनकी पत्नी अतिथि की पूर्ण श्रद्धा भाव से सेवा करते थे। यूँ तो ‘भारतीय इतिहास’ में कई दानी हुए हैं, किंतु मानव कल्याण के लिए अपनी अस्थियों का दान करने वाले मात्र महर्षि दधीचि ही थे। देवताओं के मुख से यह जानकर की मात्र दधीचि की अस्थियों से निर्मित वज्र द्वारा ही असुरों का संहार किया जा सकता है, महर्षि दधीचि ने अपना शरीर त्याग कर अस्थियों का दान कर दिया।

परिचय लोक कल्याण के लिये आत्म-त्याग करने वालों में महर्षि दधीचि का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है। यास्क के मतानुसार दधीचि की माता ‘चित्ति’ और पिता ‘अथर्वा’ थे, इसीलिए इनका नाम ‘दधीचि’ हुआ था। किसी पुराण के अनुसार यह कर्दम ऋषि की कन्या ‘शांति’ के गर्भ से उत्पन्न अथर्वा के पुत्र थे। अन्य पुराणानुसार यह शुक्राचार्य के पुत्र थे। महर्षि दधीचि तपस्या और पवित्रता की प्रतिमूर्ति थे। भगवान शिव के प्रति अटूट भक्ति और वैराग्य में इनकी जन्म से ही निष्ठा थी।

कथा कहा जाता है कि एक बार इन्द्रलोक पर ‘वृत्रासुर’ नामक राक्षस ने अधिकार कर लिया तथा इन्द्र सहित देवताओं को देवलोक से निकाल दिया। सभी देवता अपनी व्यथा लेकर ब्रह्मा, विष्णु व महेश के पास गए, लेकिन कोई भी उनकी समस्या का निदान न कर सका। बाद में ब्रह्मा जी ने देवताओं को एक उपाय बताया कि पृथ्वी लोक में ‘दधीचि’ नाम के एक महर्षि रहते हैं। यदि वे अपनी अस्थियों का दान कर दें तो उन अस्थियों से एक वज्र बनाया जाये। उस वज्र से वृत्रासुर मारा जा सकता है, क्योंकि वृत्रासुर को किसी भी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मारा जा सकता। महर्षि दधीचि की अस्थियों में ही वह ब्रह्म तेज़ है, जिससे वृत्रासुर राक्षस मारा जा सकता है। इसके अतिरिक्त और कोई दूसरा उपाय नहीं है।

इन्द्र का संकोच

देवराज इन्द्र महर्षि दधीचि के पास जाना नहीं चाहते थे, क्योंकि इन्द्र ने एक बार दधीचि का अपमान किया था, जिसके कारण वे दधीचि के पास जाने से कतरा रहे थे। माना जाता है कि ब्रह्म विद्या का ज्ञान पूरे विश्व में केवल महर्षि दधीचि को ही था। महर्षि मात्र विशिष्ट व्यक्ति को ही इस विद्या का ज्ञान देना चाहते थे, लेकिन इन्द्र ब्रह्म विद्या प्राप्त करने के परम इच्छुक थे। दधीचि की दृष्टि में इन्द्र इस विद्या के पात्र नहीं थे। इसलिए उन्होंने इन्द्र को इस विद्या को देने से मना कर दिया। दधीचि के इंकार करने पर इन्द्र ने उन्हें किसी अन्य को भी यह विद्या देने को मना कर दिया और कहा कि- “यदि आपने ऐसा किया तो मैं आपका सिर धड़ से अलग कर दूँगा”। महर्षि ने कहा कि- “यदि उन्हें कोई योग्य व्यक्ति मिलेगा तो वे अवश्य ही ब्रह्म विद्या उसे प्रदान करेंगे।” कुछ समय बाद इन्द्रलोक से ही अश्विनीकुमार महर्षि दधीचि के पास ब्रह्म विद्या लेने पहुँचे। दधीचि को अश्विनीकुमार ब्रह्म विद्या पाने के योग्य लगे। उन्होंने अश्विनीकुमारों को इन्द्र द्वारा कही गई बातें बताईं। तब अश्विनीकुमारों ने महर्षि दधीचि के अश्व का सिर लगाकर ब्रह्म विद्या प्राप्त कर ली। इन्द्र को जब यह जानकारी मिली तो वह पृथ्वी लोक में आये और अपनी घोषणा के अनुसार महर्षि दधीचि का सिर धड़ से अलग कर दिया। अश्विनीकुमारों ने महर्षि के असली सिर को फिर से लगा दिया। इन्द्र ने अश्विनीकुमारों को इन्द्रलोक से निकाल दिया। यही कारण था कि अब इन्द्र महर्षि दधीचि के पास उनकी अस्थियों का दान माँगने के लिए आना नहीं चाहते थे। वे इस कार्य के लिए बड़ा ही संकोच महसूस कर रहे थे।

दधीचि द्वारा अस्थियों का दान

देवलोक पर वृत्रासुर राक्षस के अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे थे। वह देवताओं को भांति-भांति से परेशान कर रहा था। अन्ततः देवराज इन्द्र को इन्द्रलोक की रक्षा व देवताओं की भलाई के लिए और अपने सिंहासन को बचाने के लिए देवताओं सहित महर्षि दधीचि की शरण में जाना ही पड़ा। महर्षि दधीचि ने इन्द्र को पूरा सम्मान दिया तथा आश्रम आने का कारण पूछा। इन्द्र ने महर्षि को अपनी व्यथा सुनाई तो दधीचि ने कहा कि- “मैं देवलोक की रक्षा के लिए क्या कर सकता हूँ।” देवताओं ने उन्हें ब्रह्मा, विष्णु व महेश की कहीं हुई बातें बताईं तथा उनकी अस्थियों का दान माँगा। महर्षि दधीचि ने बिना किसी हिचकिचाहट के अपनी अस्थियों का दान देना स्वीकार कर लिया। उन्होंने समाधी लगाई और अपनी देह त्याग दी। उस समय उनकी पत्नी आश्रम में नहीं थी। अब देवताओं के समक्ष ये समस्या आई कि महर्षि दधीचि के शरीर के माँस को कौन उतारे। इस कार्य के ध्यान में आते ही सभी देवता सहम गए। तब इन्द्र ने कामधेनु गाय को बुलाया और उसे महर्षि के शरीर से मांस उतारने को कहा। कामधेनु ने अपनी जीभ से चाट-चाटकर महर्षि के शरीर का माँस उतार दिया। अब केवल अस्थियों का पिंजर रह गया था।

गभस्तिनी की जिद

महर्षि दधीचि ने तो अपनी देह देवताओ की भलाई के लिए त्याग दी, लेकिन जब उनकी पत्नी ‘गभस्तिनी’ वापस आश्रम में आई तो अपने पति की देह को देखकर विलाप करने लगी तथा सती होने की जिद करने लगी। तब देवताओ ने उन्हें बहुत मना किया, क्योंकि वह गर्भवती थी। देवताओं ने उन्हें अपने वंश के लिए सती न होने की सलाह दी। लेकिन गभस्तिनी नहीं मानी। तब सभी ने उन्हें अपने गर्भ को देवताओं को सौंपने का निवेदन किया। इस पर गभस्तिनी राजी हो गई और अपना गर्भ देवताओं को सौंपकर स्वयं सती हो गई। देवताओं ने गभस्तिनी के गर्भ को बचाने के लिए पीपल को उसका लालन-पालन करने का दायित्व सौंपा। कुछ समय बाद वह गर्भ पलकर शिशु हुआ तो पीपल द्वारा पालन पोषण करने के कारण उसका नाम ‘पिप्पलाद’ रखा गया। इसी कारण दधीचि के वंशज ‘दाधीच’ कहलाते हैं। ।

विवेकपूर्ण मतदान ही देगा परिपक्व नेतृत्व

स्तुति वैष्णव बीएमसी द्वितीय वर्ष

हमारा देश भारत लोकतांत्रिक देश है। यहाँ सरकारें लोंगो द्वारा चुनीं जाती हैं, हम कई बार निष्पक्ष होकर चुनाव में अपना मत देते हैं, और कई बार चुनिंदा पार्टी द्वारा किये गए कुछ कच्चे दावों में आकर, अपना मत जो बहुत कीमती है, हमारा हक है उसे यूँ ही किसी को भी डाल कर जीता कर व्यर्थ न गवाएं, वोट ही तो है डाल देंगे किसी को भी ये सोच रख कर एक नेता ना चुनें  क्यों कि वो एक नेता ही है जो भारत का इतिहास बदलने में कामयाब हो जाये और कुछ सुनहरी इतिहास लिख दे।
वोट बहुत कीमती है इसका सही प्रयोग करे क्यों कि लोकतंत्र हमसे है ना कि हम किसी पर निर्भर हैं मैं हमेशा खुद के अनुभव रखती हूँ किसी और का उदहारण देने से पहले शुरुआत खुद से ही करनी चाहिए, ” कुछ समय पहले मैं एक पोलिटिकल लीडर से मिली, मैंने देश का नागरिक होते हुए अपने सारी समस्याएं रखी उन्होंने मिलने के लिए समय भी दिया मिले भी बहुत अच्छे से सुना भी बहुत ध्यान से, मुझे कुछ उम्मीद की किरण भी नज़र आई शायद कुछ सहारा मिल जाये पर मुझे ये उम्मीद बिल्कुल नही थी कि वो मुझे कुछ इस प्रकार उत्तर देंगे कि मैं कोशिश करूंगा तुम भी कोशिश करती रहो इतनी जल्दी यह मुमकिंन नही।  अगर उनके लिए ये मुमकिंन नही था तो किसके लिए होगा हम लोगो ने जिन्हें चुना इस लिए जो देश को संभाल सके वो हमसे कोशिश करते रहने को कह कर खुद सियासत की ऐश लूट रहे है मेरे मुददे इतने बड़े भी नही थे कि उन्हें इतना सोचना पड़े या कोशिश करनी पड़े और ऐसा नही है कि मुझे सहारे की जरूरत है या मैं अपनी लड़ाई अकेले नही लड़ सकती पर हमारा देश सिर्फ राजनीति पर निर्भर है यहाँ का हर बड़ा और अहम निर्णय एक नेता ही लेता है,ऐसे सुना मैने बहुत बार  पर सवाल ये नही की फैसला लेता कोन है या किसके द्वारा लिया जाता है सवाल ये है?  हमारा देश लोकतंत्र से चलता है अर्थ ये हुआ लोगों के लिए, लोगों के द्वारा , लोंगो से फिर क्यों जो लोग उन्हें चुनते हैं, जरूरत पड़ने पर उन्हें ही ऐसे बेसहारा सा छोड़ दिया जाता है,पर जो लोग उन्हें चुन कर सत्ता सौंप सकते हैं, वो लोग उन्हें गिरा भी सकते हैं। कमजोर कोई नही होता पर हमने जिन्हें देश सौंपा है उनका कोई कर्तव्य नही आम जनता के प्रति आपस मे मार काट करके क्या हासिल होगा ? कुर्सी पर बैठने से पहले सब भाई, बहन, माँ होते हैं कुर्सी मिलने के बाद वो भाई बहन  माँ बोझ से लगते हैं कही अब कोई काम न करवाना पड़ जाए, सत्ता मिलने पर हम ऊंची ऊंची प्रेस कॉन्फ्रेंस रैली में भारी भारी शब्दो का प्रयोग कर सबको इतना यकीन दिला देते हैं हम तुम्हारे हैं तुम्हारे साथ हैं , पर ये साथ कुछ देश के लिए देश के नागरिकों के लिये अपने भारत के लिए सोचे तो सत्ता सौंप कर हमें भी खुशी होगी, आपस की झड़प छोड़ देश का सोचे तो शायद हमारे देश के नौजवानो को वीजा लगवा कर बाहर का मुंह नही देखना पड़ेगा जो आवाज उठाता है उसकी आवाज को हमेशा के लिए दबा दिया जाता है, ये सत्ता का खेल ही कुछ ऐसा है मैं ये नही कहूंगी पार्टी डिबेट खत्म कर दें पर वो बहस एक दूसरे को नीचा दिखाने की जगह अगर किसी नागरिक, हमारे देश के लोगो के हित के लिए होने लगे कि कौन देश के उन्ह मुददों का सुझाव बेहतर देगा कौन उसे लागू करनवाने की पहल करेगा तो “सत्ता” का ये “खेल” बेहद खुदसूरत हो जाएगा। और इस को खेल खेलने और देखने का नज़रिया खुद बदल जाएगा।