अमेरिकी दबाव के बावजूद भारत एस 400 डील कर दुनिया को ये संदेश देने में कामयाब हो गया कि  कूटनीतिक, समारिक और कारोबारी हितों के लिए हर दोस्त जरूरी होता है


ट्रंप के अप्रत्याशित रवैये को देखते हुए अमेरिका ये तय नहीं कर सकता कि भारत के लिए उसका कारोबारी और सामरिक दोस्त कौन होगा

भारत और अमेरिका के बीच बढ़ती करीबी का ये मतलब नहीं कि भारत और रूस के बीच दूरियां बन गईं

भारत और रूस के बीच सामरिक करारों का सिलसिला कई दशकों पुराना है. ये वक्त के थपेड़ों के बावजूद नहीं बदला. इस पर सोवियत संघ के टूटने का असर नहीं पड़ा


भारत-रूस के रिश्तों को 70 साल हो गए हैं. सत्तर साल पुराने रिश्तों में एस 400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम की डील को निर्णायक माना जा सकता है. इसकी बड़ी वजह ये है कि भारी अमेरिकी दबाव के बावजूद भारत ने रूस के साथ इस करार पर मुहर लगाई. एस 400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम भारत के लिए अहम रक्षा कवच है. भारत ने अमेरिका की खुली नाराजगी के बावजूद रूस के साथ इस पर करार किया.

भारत ने अमेरिका की उस चेतावनी को नजरअंदाज कर दिया जिसमें सहयोगी देशों को ये ताकीद किया गया है कि वो रूस के साथ किसी भी तरह का लेन-देन न करें. अमेरिका ने आगाह किया कि रूस के साथ बड़ा सौदा करने वाले देश को प्रतिबंध भुगतने पड़ सकते हैं. लेकिन भारत ने न तो अमेरिकी चेतावनियों की परवाह की और न ही प्रतिबंधों की.

सवाल उठता है कि अमेरिका के साथ तमाम सामरिक, आर्थिक, कूटनीतिक साझेदारी के बावजूद भारत रूस के साथ सैन्य डील करने को क्यों राजी हुआ? खासतौर से तब जबकि चीन और पाकिस्तान के साथ भी रूस की नजदीकियां बढ़ी हैं. तो वहीं सवाल ये भी उठता है कि आखिर अमेरिका चाहता क्या है?  एक तरफ भारत पर ईरान से तेल न खरीदने का अमेरिकी दबाव है तो दूसरी तरफ रूस के साथ लेन-देन पर भी अमेरिकी तेवर.

दरअसल, ट्रंप के शासनकाल में अमेरिका की विदेश नीति में ट्रंप-नीति ही अबतक हावी दिखी है. चाहे वो उत्तर कोरिया का मामला हो या फिर रूस का. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों से उलट राय रखते हैं. वो कभी रूस को अच्छा दोस्त मानते हैं तो कभी अमेरिकी चुनावों में रूस की दखलंदाजी से इनकार करते हैं. वो अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में रूसी हैकिंग को लेकर अपनी ही खुफिया एजेंसियों के दावों को खारिज कर देते हैं. वो जी-7 देशों से रूस को समूह में शामिल करने की मांग करते हैं. तो वहीं दूसरी तरफ रूस के साथ किसी भी तरह के लेन-देन के लिए सहयोगी देशों को धमकाते हैं. ऐसे में ट्रंप के अप्रत्याशित रवैये को देखते हुए अमेरिका ये तय नहीं कर सकता कि भारत के लिए उसका कारोबारी और सामरिक दोस्त कौन होगा.

मौजूदा परिवेश को देखते हुए एक बार फिर विश्व दो ध्रुवीय व्यवस्था के बीच बंटा हुआ दिखाई दे रहा है. इसमें एक तरफ अमेरिका और पश्चिमी देश हैं तो दूसरी तरफ रूस और चीन हैं. हाल ही में रूस ने दुनिया का सबसे बड़ा सैन्य अभ्यास कर खुद के महाशक्ति होने के दावे को पुख्ता किया. रूस के साथ इस सैन्य अभ्यास में चीन भी शामिल था. चीन के साथ अमेरिका का ट्रेड वॉर छिड़ा हुआ है तो दक्षिणी चीन सागर में चीन और अमेरिका के युद्धपोत एक दूसरे के सामने आ खड़े हुए हैं.

मध्य-पूर्व में सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद को अपदस्थ करने की अमेरिकी कोशिशों को रूस ने नाकाम कर दिया. असद सरकार की हिफाज़त में रूस खड़ा हुआ है तो ईरान के साथ भी रूस है वहीं अमेरिकी शह पर सऊदी अरब सीरिया के मामले में रूस और ईरान के खिलाफ है तो इस्रायल भी ईरान को धमका रहा है. इन सबसे थोड़े ही दूर पाकिस्तान अब रूस के भीतर अमेरिका जैसी दोस्ती तलाश रहा है.

पाकिस्तान चाहता है कि जितनी जल्दी अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी हो जाए ताकि दक्षिण एशिया में अमेरिका का प्रभुत्व कम हो सके. अमेरिकी फटकार के बाद अब पाकिस्तान चीन और रूस में अपना भविष्य देख रहा है. लेकिन दिलचस्प ये है कि सऊदी अरब के साथ खड़ा पाकिस्तान रूस के साथ रिश्तों का समीकरण बनाने में जुटा हुआ है जबकि सीरिया के मामले में रूस और सऊदी अरब आमने-सामने हैं.

तेजी से बदलते दुनिया के कूटनीतिक और सामरिक माहौल में भारत को भी अपने हित के लिए निडर हो कर फैसला लेने का हक है. उसी के चलते अब भारत ने अमेरिका के साथ रिश्तों की नई पहचान बनाने के बावजूद पुराने मित्र रूस को भुलाया नहीं है.

सत्तर साल के दरम्यान भारत के लिए रूस दोस्ती की हर परीक्षा में खरा उतरा है. वो रूस ही था जिसने 22 जून 1962 को वीटो का इस्तेमाल करते हुए कश्मीर मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत का समर्थन किया था. उस वक्त कश्मीर को भारत से छीन कर पाकिस्तान को देने की साजिश के तहत भारत के खिलाफ प्रस्ताव पेश किया गया था जिस पर रूस ने पानी फेर दिया था. वो रूस ही है जो भारत की एनएसजी में दावेदारी के समर्थन में खड़ा रहा है. ये तक माना जाता है कि डोकलाम मुद्दे पर भी रूस पर्दे के पीछे से भारत के साथ ही खड़ा था.

भारत के रूस के साथ सांस्कृतिक और सामाजिक रिश्ते भी हैं. ये रिश्ते सिर्फ आर्थिक समझौतों पर आधारित कभी नहीं रहे. भारत के औद्योगीकरण में रूस की साझेदारी, तकनीक और योगदान ने भारत के विकास में बड़ी भूमिका निभाई है. कारखानों, डैम, पॉवर प्लांट, परमाणु संयंत्र और अनुसंधान केंद्र का निर्माण बिना रूस की मदद के संभव नहीं था. रूस हमेशा ही भारत के साथ सैन्य और अंतरिक्ष क्षेत्र में सहयोगी रहा.

रूस की ही मदद से भारत ने साल 1975 में आर्यभट्ट के रूप में पहला सैटेलाइट लॉन्च किया था तो रूस की ही मदद से भारत ने ब्रह्मोस जैसी सुपरसोनिक मिसाइल बनाई. भारतीय थल सेना में टी-20 और टी-72 जैसे टैंक रूस निर्मित हैं तो सुखोई और मिग-21 जैसे लड़ाकू विमान रूस की देन हैं. भारत और रूस के बीच सामरिक करारों का सिलसिला कई दशकों पुराना है. ये वक्त के थपेड़ों के बावजूद नहीं बदला. इस पर सोवियत संघ के टूटने का असर नहीं पड़ा.

हालांकि बीच में अमेरिका और भारत की बढ़ती नजदीकी ने पाकिस्तान को रूस की तरफ उम्मीदों से देखने को मजबूर किया. पाकिस्तान ने रूस से लड़ाकू विमान और टैंक खरीदने की दिली ख्वाहिश का इजहार कर सैन्य आपूर्ति को लेकर अमेरिका पर निर्भरता को कम करने की कोशिश की. उधर रूस भी अफगानिस्तान से भविष्य में अमेरिकी सेना की वापसी की संभावनाओं को देखते हुए मध्य एशिया में तालिबानी खतरे के मद्देनजर पाकिस्तान के साथ रिश्तों को मजबूती देना चाहता है. हालांकि इन रिश्तों की बुनियाद साल 1949 में ही पड़ गई होती अगर उस वक्त पाकिस्तान के नेता लियाकत अली खान सोवियत संघ के न्योते को कबूल कर गए होते.

भले ही पाकिस्तान और रूस के बीच सामरिक संबंधों के जरिए नए समीकरण बन रहे हों लेकिन आजतक रूस के किसी भी राष्ट्रपति ने पाकिस्तान का दौरा नहीं किया है. साल 2007 में रूस के प्रधानमंत्री ने पाक का दौरा किया था. पहली दफे ऐसा हुआ है कि रूस ने पाकिस्तान के साथ मिलकर आतंकवाद के मुद्दे पर सितंबर 2016 में सैन्य अभ्यास किया है. लेकिन पाकिस्तान के साथ रूस की हालिया नजदीकी के पीछे दरअसल अमेरिका के लिए संदेश है. इसके ये मायने नहीं हैं कि रूस पाकिस्तान की कीमत पर भारत से दूर हो गया है. ठीक उसी तरह भारत और अमेरिका के बीच बढ़ती करीबी का ये मतलब नहीं कि भारत और रूस के बीच दूरियां बन गईं.

समय के साथ बदलते हालातों के चलते हर देश अपनी प्राथमिकताओं को बदलने के लिए स्वतंत्र है. आज एनएसजी यानी परमाणु आपूतिकर्ता समूह में शामिल होने के लिए भारत को रूस के साथ अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देशों के भी समर्थन की जरूरत है. एनएसजी की सदस्यता में चीन सबसे बड़ा रोड़ा है. ऐसे में भारत सिर्फ किसी एक देश पर भी निर्भर नहीं हो सकता है. इसी तरह डिफेंस के मामले में भी भारत सिर्फ रूस या अमेरिका पर निर्भर नहीं रह सकता है. भारत अब रूस के अलावा फ्रांस और इजराइल जैसे देशों के साथ रक्षा करार कर रहा है.

अमेरिका के साथ भारत का अब 10 अरब डॉलर से ज्यादा का डिफेंस कारोबार हो रहा है. भारत को अपनी सुरक्षा के लिए बड़े पैमाने पर हथियारों और आधुनिक रक्षा तकनीक की जरूरत है. ऐसे में भारत अमेरिका को खारिज नहीं कर सकता है. सत्तर साल में पहली दफे ऐसे हालात बने हैं जब अमेरिका ने आतंक के मुद्दे पर पाकिस्तान की भूमिका को लेकर भारत का समर्थन किया. पहली दफे ये हुआ कि अमेरिका ने पाकिस्तान को आतंकी अड्डे खत्म करने और आतंकियों को गिरफ्तार करने को कहा. अमेरिका का भारत के साथ बदला रुख दरअसल चीन और पाकिस्तान की बढ़ती नजदीकी का भी नतीजा है. बदलते हालात में किरदार वही हैं बस देशों के नाम और भूमिकाएं बदल रही हैं. नए समीकरणों में आज अमेरिका भारत का खुल कर समर्थन कर रहा है. एनएसजी में भारत की दावेदारी और संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थायी सीट के लिए अमेरिका समर्थन कर रहा है.

बहरहाल, अमेरिकी दबाव के बावजूद भारत एस 400 डील कर दुनिया को ये संदेश देने में कामयाब हो गया कि  कूटनीतिक, समारिक और कारोबारी हितों के लिए हर दोस्त जरूरी होता है.

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