महाशिवरात्रि

कभी कभी शिवरात्रि को शिव विवाह भी कहते हैं। इसके कई अर्थ हैं।

सम्बलपुर (पश्चिम ओड़िशा) में ज्येष्ठ शुक्ल षष्ठी (शीतल षष्ठी) को शिव विवाह उत्सव मनाया जाता है। उसमें एक यजमान कन्यादान करते हैं, अन्य वर पक्ष के होते हैं। यह मनुष्य रूप में कार्तिकेय के माता पिता का विवाह है। कार्त्तिकेय के समय अभिजित नक्षत्र का पतन होने से धनिष्ठा नक्षत्र में अर्थात् माघ मास से संवत्सर का आरम्भ हुआ था (महाभारत,  वन पर्व,  २३०/८-१०)। उस समय धनिष्ठा नक्षत्र से वर्षा आरम्भ होती थी, जो प्रायः १५,८०० ईपू में था। आज भी मिथिला में वर्षा से ही संवत्सर आरम्भ मानते हैं। रामचरितमानस, बालकाण्ड में सावन-भादो मास को ही राम के २ अक्षरों का स्वरूप कहा है। कार्त्तिकेय के समय माघ से वर्षा तथा ज्येष्ठ से शीत ऋतु का आरम्भ होता था। अतः आज भी ज्येष्ठ शुक्ल षष्ठी को शीतल षष्ठी कहते हैं, यद्यपि उस समय सबसे अधिक ताप होता है।

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पीयूष पयोधि, डेमोक्रेटिक फ्रन्ट, अध्यातम डेस्क – 18 फरवरी :

किसी भी मास  के  कृष्णपक्ष की चतुर्दशी  शिवरात्रि  कही जाती है , किन्तु   माघ ( फाल्गुन, पूर्णिमान्त ) की चतुर्दशी सबसे महत्वपूर्ण है  और  महाशिवरात्रि कहलाती है ।

गरुड (1/124) , स्कन्द (1/1/32) , पद्म (6/240), अग्नि (193) आदि पुराणों में  इसका  वर्णन है ।

कोई भी व्यक्ति इस दिन उपवास करके बिल्व-पत्तियों से शिव की पूजा करता है और रात्रि भर ‘जागर’ (जागरण) करता है, शिव उसे आनन्द एवं मोक्ष प्रदान करते हैं और व्यक्ति स्वयं शिव हो जाता है ।

स्वयम्भूलिंगमभ्यर्च्य सोपवास: सजागर: ||

ईशानाय नम: ||

. आद्यं पुरुषमीशानं पुरुहूतं पुरुष्टुतम् | ऋतमेकाक्षरं ब्रह्म व्यक्ताव्यक्तं सनातनम् ||

असच्च सदसच्चैव यद् विश्वं सदसत्परम् | परावराणां स्रष्टारं पुराणं परमव्ययम् ||

महाभारत आदिपर्व 1/22-23

महाशिवरात्रि अर्थात् अमान्त माघ मास की कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि या पूर्णिमान्त फाल्गुन मास की कृष्ण चतुर्दशी तिथि पर की जाने वाली पूजा, व्रत, उत्सव तथा जागरण।

शिवधर्म ग्रन्थ में शिवरात्रि पर रामलीला खेले जाने की भी बात कही गई है।

कश्मीर में शिवरात्रि हररात्रि है जो बिगड़कर हेरात कही जाती है, विगत वर्ष बंदीपुरा संबल में शिव मन्दिर की सफाई, जलाभिषेक तथा प्रसाद में अखरोट वितरण भी वहाँ के मुस्लिमों ने किया था।

शिव परिवार

कहते हैं कि भोलेनाथ और उमा पार्वती का विवाह इसी तिथि को हुआ था। खगोलीय दृष्टि से सूर्य एवं चन्द्रमा के मिलन की रात्रि है तथा संवत्सर की गणना का आधार माघ अमावस्या रही है, काल गणना के हेतु से यह त्योहार चतुर्दशी से तीन दिन पहले से लेकर दो दिन बाद प्रतिपदा तक चलता था।

भारतवर्ष में धनिष्ठा नक्षत्र में उत्तरायणारम्भ होने के समय कालगणना नियम बने थे, एक हजार वर्षों में अयन सरक कर श्रवण में जा पहुँचा था। यह एक बड़ा कारण ‘श्रवण’ का अनेक त्योहारों से जुड़े होने में है।

इस कारण महाशिवरात्रि को कुछ ग्रन्थ त्रयोदशी तिथि से संयुक्त प्रदोष व्यापिनी चतुर्दशी तिथि ग्रहण कर मनाये जाने की बात करते हैं, इसमें कारण ‘नक्षत्र का प्राधान्य’ है।

चूँकि तीज-त्योहारों के मनाये जाने सम्बन्धी नियम निर्देश बहुत पहले निश्चित किये गये थे इस कारण अब कालगणना सम्बन्ध नहीं रहा।

काल के भी ईश्वर महाकालेश्वर की जय बोलते हुये उत्सव मनाइये, आशुतोष तो अवढर दानी हैं ही किसी को भी निराश नहीं करते हैं। मन्दिरों में काँच न फैलायें और न बहुत अधिक फूल पत्तियाँ ले जाना आवश्यक है केवल जल चढ़ा देने से भी शिव उतने ही प्रसन्न होते हैं।

साभार : अश्विनी कुमार तिवारी :