‘सती अनुसूया’ जयंती

भगवान विष्णु के अवतार दत्तात्रेय के जन्म के बारे में कथा के अनुसार सती अनुसूया की कोख से ब्रह्मा जी के अंश से चंद्रमा, विष्णु जी के अंश से दत्तात्रेय और शिव जी के अंश से दुर्वासा मुनि ने जन्म लिया था।

डेमोक्रेटिक फ्रंट, धर्म डेस्क, चंडीगढ़ – 20 अप्रैल :

सती अनुसुया को पतिव्रता धर्म के लिए जाना जाता है। इस वर्ष इनकी जयंती 20 अप्रैल 2022 को मनाई जाएगी। देवी अनुसुईया की पवित्रता और उनका साध्वी रुप सभी विवाहित महिलाओं के लिए प्रेरणा स्त्रोत रहा है। देवी अनुसुईया जयंती के अवसर पर मंदिरों में विशेष पूजा आरती की जाती है। विवाहित महिलाएं इस दिन के व्रत का पालन कर, सती अनुसुईया के दिखाए मार्ग पर चलने का संकल्प लेती है। देवी अनुसुईया प्रसन्न होकर अपने भक्तों के दुख दूर करती हैं और उन्हें अखंड सौभाग्यवती होने का वर देती है। भारत वर्ष के उतराखंड राज्य में देवी अनुसुईया का एक प्रसिद्ध व प्राचीन मंदिर है। पौराणिक कथाओं के अनुसार यह वहीं स्थान है जहां माता देवी की परीक्षा त्रिदेवों ने ली थी। माता अनुसुईया के जन्मदिवस के अवसर पर स्त्रियां अपने वैवाहिक स्त्री धर्म का पालन करते हुए सती अनुसुईयां जयंती का पूजन करती है।

यह माना जाता है कि उत्तराखंड में स्थित माता अनुसुईया के मंदिर में रात्रि में जप और जागरण करने की परंपरा है। इस मंदिर में निसंतान दंपत्ति जप और जागरण कर पूजा अर्चना कर संतान कामना करते है। यह जप-तप, अनुष्ठान शनिवार की रात्रि में करने का प्रावधान है। इस मंदिर को लेकर एक पौराणिक कथा प्रचलित है कि इस मंदिर में त्रिदेव माता की परीक्षा लेने के लिए बालक रुप में आए थे और तीनों देवों ने देवी से भोजन कराने की प्रार्थना की। देवी ने अपने सतीत्व से त्रिदेवों को पहचान लिया, इससे त्रिदेव असली रुप में आ गए। माता अनुसुईया से भगवान शिव दुर्वासा के रुप में मिले थे।

दक्ष प्रजापति की चौबीस कन्याओं में से एक थी अनुसूया जो मन से पवित्र एवं निश्छल प्रेम की परिभाषा थीं इन्हें सती साध्वी रूप में तथा एक आदर्श नारी के रूप में जाना जाता है. अत्यन्त उच्च कुल में जन्म होने पर भी इनके मन में कोई अंह का भाव नहीं था.

इनका संपूर्ण जीवन ही एक आदर्श रहा है. पौराणिक तथ्यों के आधार की यदि बात की जाए तो माता सीता जी भी इनके तेज से बहुत प्रभावित हुई थी तथा उनसे प्राप्त भेंट को सहर्ष स्वीकार करते हुए नमन किया. अनुसूया जी का विवाह ब्रह्मा जी के मानस पुत्र परम तपस्वी महर्षि अत्रि जी के साथ हुआ था. अपने सेवा तथा समर्पित प्रेम से इन्होंने अपने पति धर्म का सदैव पालन किया.

कहा जाता है कि देवी अनसुया बहुत पतिव्रता थी जिस कारण उनकी ख्याती तीनों लोकों में फैल गई थी. उनके इस सती धर्म को देखकर देवी पार्वती, लक्ष्मी जी और देवी सरस्वती जी के मन में द्वेष का भाव जागृत हो गया था. जिस कारण उन्होंने अनसूइया कि सच्चाई एवं पतीव्रता के धर्म की परिक्षा लेने की ठानी तथा अपने पतियों शिव, विष्णु और ब्रह्मा जी को अनसूया के पास परीक्षा लेने के लिए भेजना चाहा.

भगवानों ने देवीयों को समझाने का पूर्ण प्रयास किया किंतु जब देवियां नहीं मानी तो विवश होकर तीनो देवता ऋषि के आश्रम पहुँचे. वहां जाकर देवों ने सधुओं का वेश धारण कर लिया और आश्रम के द्वार पर भोजन की मांग करने लगे. जब देवी अनसूया उन्हें भोजन देने लगी तो उन्होंने देवी के सामने एक शर्त रखी की वह तीनों तभी यह भोजन स्वीकार करेंगे जब देवी निर्वस्त्र होकर उन्हें भोजन परोसेंगी. इस पर देवी चिंता में डूब गई वह ऎसा कैसे कर सकती हैं. अत: देवी ने आंखे मूंद कर पति को याद किया इस पर उन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई तथा साधुओं के वेश में उपस्थित देवों को उन्होंने पहचान लिया. तब देवी अनसूया ने कहा की जो वह साधु चाहते हैं वह ज़रूर पूरा होगा किंतु इसके लिए साधुओं को शिशु रूप लेकर उनके पुत्र बनना होगा.साधुओं का अपमान न हो इस डर से घबराई अनुसूइया ने पति का स्मरण कर कहा कि यदि मेरा पतिव्रत्य धर्म सत्य है तो ये तीनों साधु 6 मास के शिशु हो जाएं। इस बात को सुनकर त्रिदेव शिशु रूप में बदल गए जिसके फलस्वरूप माता अनसूइया ने देवों को अनुसूइया ने माता बनकर त्रिदेवों को स्तनपान  भोजन करवाया. इस तरह तीनों देव माता के पुत्र बन कर रहने लगे.

इस पर अधिक समय बीत जाने के पश्चात भी त्रिदेव देवलोक नहीं पहुँचे तो पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती जी चिंतित एवं दुखी हो गई  तब नारद ने त्रिदेवियों को सारी बात बताई। त्रिदेवियां ने अनुसूइया से क्षमा याचना की। तब अनुसूइया ने त्रिदेव को अपने पूर्व रूप में ला दिया। प्रसन्नचित्त त्रिदेवों ने देवी अनुसूइया को उनके गर्भ से पुत्र रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। तब ब्रह्मा अंश से चंद्र, शंकर अंश से दुर्वासा व विष्णु अंश से दत्तात्रेय का जन्म हुआ।

इस पर तीनों देवियों ने सती अनसूइया के समक्ष क्षमा मांगी एवं अपने पतियों को बाल रूप से मूल रूप में लाने की प्रार्थना की ऐस पर माता अनसूया ने त्रिदेवों को उनका रूप प्रदान किया और तभी से वह मां सती अनसूइया के नाम से प्रसिद्ध हुई. स्त्रियां मां सती अनसूया से पतिव्रता होने का आशिर्वाद पाने की कामना करती हैं. प्रति वर्ष सती अनसूइया जी जयंती का आयोजन किया जाता है. इस उत्सव के समय मेलों का भी आयोजन होता है. रामायण में इनके जीवन के विषय में बताया गया है जिसके अनुसार वनवास काल में जब राम, सीता और लक्ष्मण जब महर्षि अत्रि के आश्रम में जाते हैं तो अनुसूया जी ने सीता जी को पतिव्रत धर्म की शिक्षा दी थी