सामान नागरिक संहिता को लागू करने की ओर कदम बढ़ाए केंद्र सरकार – दिल्ली उच्च न्यायालय
यूसीसी (Uniform Civil Code) के मुद्दे को मुसलिम समुदाय के ख़िलाफ़ प्रचारित किया जाता है। लेकिन मुसलिम समुदाय ही नहीं बल्कि ईसाई प्रतिनिधि भी यूसीसी का विरोध करते रहे हैं। पारसी समुदाय संख्या में ज़रूर छोटा है लेकिन आर्थिक और शैक्षिक रूप से बहुत समृद्ध है। क्या यूसीसी पर ईसाई और पारसी समुदाय से कोई राय-मशविरा किया जाएगा? सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि समान नागरिक संहिता में क़ानूनों की समानता का आधार क्या होगा? क्या यह बहुसंख्यक समाज यानी हिंदू धर्म की मान्यताओं के आधार पर होगा, जैसाकि ईसाई और मुसलिम धर्मगुरुओं की आशंका है? अथवा यूसीसी क़ानून आधुनिक और पश्चिमी मान्यताओं के आधार पर होगा? अगर ऐसा होता है तो यूसीसी जवाहरलाल नेहरू और डॉ. आंबेडकर के विचारों वाला होगा। क्या नरेंद्र मोदी, नेहरू और आंबेडकर के सपनों का यूसीसी लाएँगे? दरअसल, नरेंद्र मोदी का यूसीसी हिंदू धर्म ही नहीं बल्कि हिंदुत्व के मानकों पर आधारित होगा। तब अल्पसंख्यकों की आशंका को निर्मूल कैसे कहा जा सकता है?
- दिल्ली हाई कोर्ट ने समान नागरिक संहिता के पक्ष में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है
- इसके साथ ही, देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड का मुद्दा फिर चर्चा के केंद्र में आ गया है
- सभी धर्मों के लिए अलग-अलग पर्सनल लॉ की जगह एक कानून लागू करने की मांग लंबे समय से हो रही है
- एस स समय हो रहा है जब महाराष्ट्र में उद्धव सरकार को शरीया कानून ‘ The Prophet Act‘ लागू करने की जोरदार कोशिश की जा रही है।
दिल्ली(ब्यूरो):
आज दिल्ली उच्च न्यायालय ने भारत सरकार को निर्देश द्ये हैं की भारत में सामान नागरिक संहिता लागू करने की ओर कदम बढ़ाए। हर बार न्यायपालिका का दर दिखा कर अपने ही चुनावी मुद्दों से भटकने वाली या कहें की टालमटोल करने वाली राजनीति करने वाली केंद्र सरकार अब क्या ब्यान देती है?
UCC के संबंध कोर्ट के प्रेक्षण:
मीणा समुदाय के दो पक्षों के बीच उत्पन्न विवाद पर सुनवाई करते हुए जस्टिस सिंह ने कहा कि अदालतों को कई बार पर्सनल लॉ से उत्पन्न हुए संघर्षों का सामना करना पड़ता है। उन्होंने कहा कि अलग-अलग समुदाय, जाति अथवा धर्म के जो लोग वैवाहिक संबंध स्थापित करते हैं उन्हें इन पर्सनल लॉ के कारण विवादों से गुजरना पड़ता है। उन्होंने यह भी कहा कि भारत के युवाओं को बार-बार (खासकर शादी और तलाक के मुद्दे पर) असमानता से जुड़े इन मुद्दों से जूझने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है।
दिल्ली हाई कोर्ट कि टिप्पणी
जस्टिस प्रतिभा एम सिंह ने फैसला सुनाते हुए टिप्पीणी की, ‘आज का हिंदुस्तान धर्म, जाति, कम्युनिटी से ऊपर उठ चुका है। आधुनिक भारत में धर्म, जाति की बाधाएं तेजी से टूट रही हैं। तेजी से हो रहे इस बदलाव की वजह से अंतरधार्मिक अंतर्जातीय विवाह या फिर विच्छेद यानी डाइवोर्स में दिक्कत भी आ रही है। आज की युवा पीढ़ी को इन दिक्कतों से जूझना न पड़े इस लिहाज से देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होना चाहिए। आर्टिकल 44 में यूनिफॉर्म सिविल कोड की जो उम्मीद जताई गई थी, अब उसे केवल उम्मीद नहीं रहना चाहिए बल्कि उसे हकीकत में बदल देना चाहिए।’
हाई कोर्ट ने 1985 में सुप्रीम कोर्ट की तरफ से जारी एक निर्देश का हवाला देते हुए निराशा जताई कि तीन दशक बाद भी इसे गंभीरता से नहीं लिया गया है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस एस ए बोबडे ने भी गोवा के यूनिफॉर्म सिविल कोड की तारीफ की थी। बतौर सीजेआई गोवा में हाई कोर्ट बिल्डिंग के उद्घाटन के मौके पर चीफ जस्टिस ने कहा था कि गोवा के पास पहले से ही ऐसा यूनिफॉर्म सिविल कोड है जिसकी कल्पना संविधान निर्माताओं ने की थी। बहरहाल, आइए जानते हैं कि आर्टिकल 44 में क्या है जिसका उल्लेख दिल्ली हाई कोर्ट ने किया है…
क्या कहता है आर्टिकल 44
संविधान के भाग चार में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत का वर्णन है। संविधान के अनुच्छेद 36 से 51 के जरिए राज्य को विभिन्न महत्वपूर्ण मुद्दों पर सुझाव दिए गए हैं और उम्मीद की गई है कि राज्य अपनी नीतियां तय करते हुए इन नीति निर्देशक तत्वों को ध्यान में रखेंगी। इन्हीं में आर्टिकल 44 राज्य को उचित समय आने पर सभी धर्मों लिए ‘समान नागरिक संहिता’ बनाने का निर्देश देता है। कुल मिलाकर आर्टिकल 44 का उद्देश्य कमजोर वर्गों से भेदभाव की समस्या को खत्म करके देशभर में विभिन्न सांस्कृतिक समूहों के बीच तालमेल बढ़ाना है।
संविधान सभा में प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव आंबेडकर ने संविधान निर्माण के वक्त कहा था कि समान नागरिक संहिता अपेक्षित है, लेकिन फिलहाल इसे विभिन्न धर्मावलंबियों की इच्छा पर छोड़ देना चाहिए। इस तरह, संविधान के मसौदे में आर्टिकल 35 को अंगीकृत संविधान के आर्टिकल 44 के रूप में शामिल कर दिया गया और उम्मीद की गई कि जब राष्ट्र एकमत हो जाएगा तो समान नागरिक संहिता अस्तित्व में आ जाएगा।
डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा में दिए गए एक भाषण में कहा था, ‘किसी को यह नहीं मानना चाहिए कि अगर राज्य के पास शक्ति है तो वह इसे तुरंत ही लागू कर देगा…संभव है कि मुसलमान या इसाई या कोई अन्य समुदाय राज्य को इस संदर्भ में दी गई शक्ति को आपत्तिजनक मान सकता है। मुझे लगता है कि ऐसा करने वाली कोई पागल सरकार ही होगी।’