करीब 10 साल पहले ही सरकार ने पेट्रोल से सब्सिडी खत्म की थी. यानी उसकी कीमत बाजार के हवाले कर दी गई थी. उस दौरान जब कच्चा तेल 100 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर मिल रहा था तो भारत में पेट्रोल 60 रु प्रति लीटर के आसपास मिल रहा था. नई नीति के हिसाब से देखें तो पिछले साल जब कच्चा तेल 20 डालर से भी नीचे आया तो पेट्रोल की कीमत तब से काफी कम हो जानी चाहिए थी. लेकिन यह 60 रु प्रति लीटर के करीब ही घूम रही थी. आज यह आंकड़ा 100 की तरफ बढ़ रहा है. 2014 में सब्सिडी के दायरे से बाहर निकले डीजल के मामले में भी कहानी कमोबेश ऐसी ही है.
‘ये दिल्ली सरकार की शासन चलाने की नाकामयाबी का जीता-जागता सबूत है. देश की जनता के अंदर भारी आक्रोश है और इसके कारण और भी चीजों पर बहुत बड़ा बोझ होने वाला है. सरकार पर भी बहुत बड़ा बोझ होने वाला है. मैं आशा करूंगा कि प्रधानमंत्री जी देश की स्थिति को गंभीरता से लें और पेट्रोल के दाम बढ़ाए हैं उसको वापस करें.’
यह बयान नरेंद्र मोदी ने करीब आठ साल पहले तब दिया था जब पेट्रोल और डीजल के दामों में तेज बढ़ोतरी हो रही थी. तब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे और केंद्र में यूपीए की सरकार थी जिसके मुखिया मनमोहन सिंह थे. उस वक्त केंद्र सरकार का तर्क था कि पेट्रोल-डीजल के दाम अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत पर निर्भर करते हैं और चूंकि देश अपनी जरूरत का करीब 80 फीसदी तेल आयात करता है तो वह इसमें कुछ नहीं कर सकती. आज नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं और पेट्रोल-डीजल के दाम अब तक के सबसे उच्चतम स्तर पर हैं. अब भी केंद्र सरकार का यही तर्क है.
लेकिन क्या यह तर्क सही है? समझने की कोशिश करते हैं. करीब 10 साल पहले अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 100 डॉलर प्रति बैरल से भी ऊपर चली गई थी. फिर अप्रैल 2020 में ऐसा भी समय आया जब यह 20 डॉलर से भी नीचे आ गई. इसकी वजह कोरोना वायरस संकट के चलते वैश्विक अर्थव्यवस्था के थमे चक्के थे. हालात में थोड़े से सुधार के साथ आज कच्चा तेल करीब 52 डॉलर प्रति बैरल के भाव पर बिक रहा है.
करीब 10 साल पहले ही सरकार ने पेट्रोल से सब्सिडी खत्म की थी. यानी उसकी कीमत बाजार के हवाले कर दी गई थी. उस दौरान जब कच्चा तेल 100 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर मिल रहा था तो भारत में पेट्रोल 60 रु प्रति लीटर के आसपास मिल रहा था. नई नीति के हिसाब से देखें तो पिछले साल जब कच्चा तेल 20 डालर से भी नीचे आया तो पेट्रोल की कीमत तब से काफी कम हो जानी चाहिए थी. लेकिन यह 60 रु प्रति लीटर के करीब ही घूम रही थी. आज यह आंकड़ा 100 की तरफ बढ़ रहा है. 2014 में सब्सिडी के दायरे से बाहर निकले डीजल के मामले में भी कहानी कमोबेश ऐसी ही है.
यानी भले ही कहा जाता हो कि पेट्रोल-डीजल की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भाव के हिसाब से तय होती है, लेकिन ऐसा वास्तव में है नहीं. गौर से देखा जाए तो ये काफी हद तक केंद्र और राज्य सरकारों की मर्जी के हिसाब से तय होती हैं. इस मर्जी के पीछे आर्थिक और राजनीतिक, दोनों तरह के समीकरण होते हैं.
पिछले साल जब कच्चे तेल की कीमतें धड़ाम हो रही थीं तो केंद्र ने पेट्रोल की कीमतों पर एक्साइज ड्यूटी में जबर्दस्त बढ़ोतरी कर दी. मार्च और मई में हुई इस बढ़ोतरी के जरिये इस टैक्स को 19.98 से बढ़ाकर 32.98 रु प्रति लीटर कर दिया गया. इसी तरह डीजल पर भी एक्साइज ड्यूटी 15.83 से बढ़ाकर 31.83 रु प्रति लीटर कर दी गई. इसी दौरान राज्य सरकारों ने भी इन दोनों ईंधनों पर लगने वाले शुल्क यानी वैट को बढ़ा दिया. नतीजा यह हुआ कि कच्चे तेल के भाव में इतनी गिरावट के बावजूद पेट्रोल-डीजल की कीमतें उतनी ही रहीं. यानी इस गिरावट का आम लोगों को नहीं बल्कि केंद्र और राज्य सरकारों को फायदा हुआ. अब बीते कुछ समय से अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भाव लगातार बढ़ते जा रहे हैं तो भारत में भी पेट्रोल-डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी जारी है. जब कच्चे तेल की कीमत कम हुई थी तब पेट्रोल-डीज़ल की कीमतों को कम न करके इन पर एक्साइज और वैट बढ़ा दिये गये थे. लेकिन अब जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत बढ़ रही है तो पेट्रोलियम उत्पादों पर लगने वाले टैक्स को स्थिर रखा जा रहा है.
इंडियन ऑयल की वेबसाइट के मुताबिक इस साल की पहली तारीख यानी एक जनवरी को देश की राजधानी दिल्ली में डीजल का बेस प्राइस 28.32 रु था. बेस प्राइस वह मूल्य होता है जो तेल कंपनियां कच्चे तेल की खरीद और उसकी रिफाइनिंग की लागत में अपना मुनाफा जोड़कर तय करती हैं. इस कीमत में कंपनियां 0.34 रु प्रति लीटर के हिसाब से ढुलाई भाड़ा जोड़कर डीलरों से 28.66 रु प्रति डीलर वसूल रही थीं. इसमें 31.83 रु प्रति लीटर की एक्साइज ड्यूटी, 10.85 रु वैट और 2.53 रु का डीलर कमीशन जुड़कर डीजल की कीमत 73.87 रु प्रति लीटर पहुंच रही थी. यानी ग्राहक इस कीमत में 60 फीसदी से ज्यादा टैक्स चुका रहा था. आज यह कीमत 77 रुपये प्रति लीटर से ज्यादा हो चुकी है.
2014 में जब मोदी सरकार केंद्र की सत्ता में आई थी तो पेट्रोल और डीजल पर एक्साइज ड्यूटी क्रमश: 9.48 और 3.56 रु प्रति लीटर हुआ करती थी. आज यह आंकड़ा 32.98 और 31.83 हो चुका है. इसके साथ भारत दुनिया में पेट्रोल-डीजल पर सबसे ज्यादा टैक्स लगाने वाला देश बन गया है. इस वजह से पिछले साल जब कच्चे तेल के भाव गिर रहे थे तो लगभग सभी देशों में पेट्रोल-डीजल की कीमतें भी गिर रही थीं, केवल भारत को छोड़कर. और आज इसकी कीमत करीब 87 रुपये प्रति लीटर हो चुकी है.
इसका कारण समझना मुश्किल नहीं है. टैक्स का मतलब है सरकार की कमाई. जाहिर सी बात है पेट्रोल-डीजल पर एक्साइज ड्यूटी बढ़ाकर सरकार अपनी कमाई बढ़ाना चाह रही थी जो बढ़ी भी. कुछ समय पहले खबर आई थी कि पेट्रोल-डीजल पर एक्साइज ड्यूटी की बदौलत साल 2014-15 से सरकार को जो आय हुई है उसने पिछले 15 साल के दौरान तमाम ईंधनों पर सब्सिडी के रूप में खर्च कुल रकम के आंकड़े को पीछे छोड़ दिया है. हालांकि पेट्रोलियम उत्पादों पर घाटा और उसकी भरपायी करने के लिए सब्सिडी देना भी एक भ्रामक अवधारणा ही थी. असल में खुदरा तेल बेचने वाली हिंदुस्तान पेट्रोलियम या भारत पेट्रोलियम सरीखी कंपनियां तेलशोधक कारखानों से उस कीमत पर तेल खरीदती हैं जिस कीमत पर वह उन्हें आयात करने पर मिला होता. यानी कि इस कीमत में उत्पाद शुल्क और ढ़ुलाई का खर्चा आदि जुड़े होते हैं. जबकि तेल की आपूर्ति करने वाली कंपनियां इसका करीब 25 प्रतिशत हिस्सा भारत में ही उत्पादन करती हैं. ये कंपनियां जिस कीमत पर विदेश से तेल खरीदती हैं वह भी अंतर्राष्ट्रीय कीमत से काफी कम होती है. इस ज़बर्दस्ती मंहगे खरीदे-बेचे तेल को पहले तेल मार्केटिंग कंपनियां सस्ते में बेच कर जो घाटा कमाती थीं उसे अंडर रिकवरी कहते थे. और इसकी भरपायी के लिए सरकार उन्हें सब्सिडी दिया करती थी. यानी कि दिखावे का घाटा और दिखावे की भरपायी. और अगर यह घाटा था भी तो केवल तेल मार्केटिंग कंपनियों का, तेल को खरीदने और बेचने का असल घाटा नहीं. अब तेल मार्केटिंग कंपनिया हर रोज़ तेल की कीमत तय करती हैं. और दोनों तरह की सरकारी कंपनियां – तेल उत्पादक और तेल मार्केटिंग कंपनियां – और सरकार सभी फायदे में रहते हैं.