कब तक ढोएंगे हम वुड्स डिस्पैच और मकाउलय को : सारिका तिवारी

सारिका तिवारी

आजकल सिलेबस बहुत हो गया है। बच्चा दिन भर इस ट्यूशन से उस ट्यूशन के बीच दौड़ा फिरता है। उसके बाद हर ट्यूशन का काम। इस पर माता पिता बहुत गर्व से कहते हैं बच्चे बहुत पढ़ाई कर रहे हैं डिग्री के बाद 20 या 25 का पैकेज मिल जाएगा।
बात तो हालाँकि मैं हंसी में उड़ा देती हूँ परन्तु दिमाग में सवाल कुलबुलाते रहते हैं कि आखिर किस पढाई पर गर्व करते हैं हम ?

किस मुगालते में रहते हैं ?

और वहां से निकलना क्यों नहीं चाहते ?

हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा की जो दशा है वह किसी से छुपी नहीं. स्कूलों में चाहे सरकारी हों या निजी बच्चों को क्या शिक्षा मिलती, हम सब जानते हैं. अत: उन स्कूलों और उस शिक्षा को जाने देते हैं.

चलिए बात करते हैं एक तथाकथित उन्नत्ति की ओर अग्रसर भारत के आधुनिक स्कूलों की, उनकी शिक्षा व्यवस्था की .बेशक उनके नाम आधुनिक रखे जा रहे हैं, सुविधाओं के नाम पर भी सभी आधुनिक सुविधाएँ दी जा रही हैं परन्तु क्या उस शिक्षा व्यवस्था में तनिक भी बदलाव आया है जो लार्ड मैकाले के समय से चली आ रही है? आज भी हम बाबू छापने वाली मशीन से ही अफसर और वैज्ञानिक छापने की जुगत में हैं.मशीन नई जरुर बन गई हैं मगर हैं वैसी ही. और मजेदार बात यह कि हम सब यह जानते हैं , पर व्यवस्था को बदलते नहीं.

हम ढूंढने निकलें तो शायद ऊंगलियों पर भी ऐसे लोग नहीं गिने जा सकेंगे जो यह कहें कि, शिक्षा ने मुझे वह दिया जो मैं पाना चाहता था .हमारे देश में एक व्यक्ति पढता कुछ और है ,बनता कुछ और है , और बनना कुछ और ही चाहता है.आखिर क्या औचित्य है ऐसी शिक्षा का ? क्या गुणवत्ता है ऐसे शिक्षण संस्थानों की जो फैक्टरियों की तरह छात्र तैयार करती ।

क्रमश:

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